सत्य का अनुसरण कैसे करें (16) भाग तीन
माता-पिता की अपने बच्चों से अपेक्षाओं का एक दूसरा पहलू भी है, जो कि पारिवारिक व्यवसाय या पैतृक व्यापार की विरासत है। मिसाल के तौर पर, कुछ परिवार पेंटरों के होते हैं; उनके पूर्वजों से आया नियम यह है कि हर पीढ़ी में ऐसा कोई व्यक्ति जरूर होना चाहिए जो यह पारिवारिक व्यवसाय विरासत में पाए और जो इस पारिवारिक परंपरा को जारी रखे। मान लो, तुम्हारी पीढ़ी में, यह भूमिका तुम्हें मिलती है, मगर तुम्हें पेंटिंग का काम पसंद नहीं है और उसमें तुम्हें कोई रुचि नहीं है; तुम सरल विषय पढ़ना पसंद करते हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें मना करने का अधिकार है। तुम अपनी पारिवारिक परंपराएँ विरासत में लेने को बाध्य नहीं हो, और तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है कि तुम पारिवारिक व्यापार या पैतृक व्यापार की विरासत लो, जैसे कि मार्शल आर्ट्स, कोई विशेष हस्तकला या कौशल, वगैरह। वे तुमसे जो विरासत में लेने को कहें वह जारी रखने को तुम बाध्य नहीं हो। कुछ दूसरे परिवारों में, हर पीढ़ी ऑपेरा गायन करती है। तुम्हारी पीढ़ी में बचपन से ही तुम्हारे माता-पिता तुम्हें ऑपेरा गायन सीखने को मजबूर करते हैं। तुमने इसे सीखा जरूर, मगर दिल की गहराई से तुम इसे पसंद नहीं करते। इस तरह, अगर तुमसे एक करियर चुनने को कहा जाता, तो तुम ऑपेरा से जुड़े किसी भी करियर को बिल्कुल नहीं अपनाते। तुम इस व्यवसाय को पूरे दिल से नापसंद करते हो; ऐसी स्थिति में, तुम्हें मना करने का अधिकार है। चूँकि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे माता-पिता के हाथों में नहीं है—इसलिए करियर की तुम्हारी पसंद, तुम्हारी रुचियों का रुझान, तुम क्या करना चाहते हो, और तुम कौन-सा रास्ता पकड़ना चाहते हो, ये सब परमेश्वर के हाथों में हैं। ये सब परमेश्वर द्वारा आयोजित हैं, तुम्हारे परिवार के किसी सदस्य द्वारा नहीं, और यकीनन तुम्हारे माता-पिता द्वारा नहीं। किसी भी बच्चे के जीवन में माता-पिता जो भूमिका निभाते हैं, वह उसके बड़े होते समय केवल संरक्षकता, देखभाल और साथ देने का है। बेहतर मामलों में, माता-पिता अपने बच्चों को सकारात्मक मार्गदर्शन, शिक्षा और दिशा दे पाते हैं। बस यही वह भूमिका है जो वे निभा सकते हैं। जब तुम बड़े होकर स्वतंत्र हो जाते हो, तो तुम्हारे माता-पिता की भूमिका केवल एक भावनात्मक स्तंभ और भावनात्मक आश्रय बनने की होती है। जिस दिन तुम सोच और जीवनशैली में स्वतंत्र हो जाते हो, उस दिन तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे हो जाते हैं; इस तरह उनके साथ तुम्हारा रिश्ता शिक्षक और छात्र और संरक्षक और संरक्षित से आगे बढ़ चुका होता है। क्या वास्तव में ऐसा नहीं है? (बिल्कुल है।) कुछ लोगों के माता-पिता, रिश्तेदार और दोस्त परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते; सिर्फ वे खुद परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। यहाँ क्या हो रहा है? इसका लेना-देना परमेश्वर के विधान से है। परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, उन्हें नहीं; तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने के लिए परमेश्वर उनके हाथों का इस्तेमाल करता है और फिर वह तुम्हें परमेश्वर के परिवार में ले आता है। एक बच्चे के तौर पर, अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के प्रति जो रवैया तुम्हें अपनाना चाहिए वह सही और गलत के बीच फर्क करना है। अगर वे तुमसे जिस तरह पेश आते हैं, वह परमेश्वर के वचनों या इस तथ्य के अनुरूप नहीं है कि “लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है,” तो तुम उनकी अपेक्षाएँ मानने से मना कर सकते हो, और अपने माता-पिता को समझाने के लिए तर्क कर सकते हो। अगर तुम अभी नाबालिग हो, और वे जबरन तुम्हारा दमन करते हैं, अपनी माँगें पूरी करवाते हैं, तो तुम परमेश्वर से सिर्फ चुपचाप प्रार्थना कर सकते हो, और उसे तुम्हारे लिए एक रास्ता खोलने दे सकते हो। लेकिन अगर तुम बालिग हो, तो तुम बिल्कुल उनसे कह सकते हो : “नहीं, जरूरी नहीं है कि मैं आपके द्वारा तय किए गए ढंग से जियूँ। जरूरी नहीं है कि मैं आपके द्वारा तय किए गए ढंग से अपना जीवन पथ चुनूँ, अपने अस्तित्व का तरीका और अपने अनुसरण का लक्ष्य चुनूँ। मुझे पाल-पोसकर बड़ा करने का आपका दायित्व पूरा हो चुका है। अगर हमारी आपस में बन सके और हमारे अनुसरण और लक्ष्य एक जैसे हों, तो हमारा रिश्ता पहले जैसा रह सकता है; लेकिन अगर अब हमारी आकांक्षाएँ और लक्ष्य एक नहीं हैं, तो हम अभी के लिए एक दूसरे को अलविदा कह सकते हैं।” यह बात कैसी लगती है? क्या तुम ऐसा कहने की हिम्मत करोगे? बेशक, अपने माता-पिता के साथ इस तरह औपचारिक रूप से रिश्ते तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन कम-से-कम अपने दिल की गहराई में तुम्हें यह बात स्पष्ट देख लेनी चाहिए : हालाँकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे सबसे करीबी लोग हैं, मगर ये लोग वे नहीं हैं जिन्होंने तुम्हें सचमुच जीवन दिया, तुम्हें जीवन के सही पथ पर चलने लायक बनाया, और तुम्हें अपने आचरण के सभी सिद्धांत समझाए। यह सब परमेश्वर का किया हुआ है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें सत्य नहीं दे सकते, न ही सत्य से संबंधित कोई सही परामर्श दे सकते हैं। तो जहाँ तक अपने माता-पिता से तुम्हारे रिश्ते की बात है, उन्होंने तुम पर चाहे जितनी मेहनत की हो, या उन्होंने तुम पर जितना भी पैसा या प्रयास लगाया हो, तुम्हें खुद पर कोई अपराध बोध नहीं लादना चाहिए। क्यों? (क्योंकि यह जिम्मेदारी और दायित्व माता-पिता का है। अगर माता-पिता ये सब इसलिए करते हैं कि उनके बच्चे अपने साथियों के बीच ऊँचे खड़े हो सकें और माता-पिता की अपनी इच्छाएँ पूरी कर सकें, तो ये उनके अपने इरादे और मंशाएँ हैं; यह वह नहीं है जो परमेश्वर ने उनके लिए नियत किया है। इसलिए, कोई अपराध बोध महसूस करने की जरूरत नहीं है।) यह तो बस एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि तुम फिलहाल सही पथ पर चल रहे हो, सत्य का अनुसरण कर रहे हो, और सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए आते हो; इसलिए तुम्हें माता-पिता के प्रति कोई अपराध बोध नहीं रखना चाहिए। तुम्हारे प्रति जिस जिम्मेदारी को उन्होंने कथित रूप से निभाया, वह बस परमेश्वर की व्यवस्थाओं का अंश था। उनके पाल-पोसकर बड़ा करते समय अगर तुम खुश थे, तो यह तुम पर उनकी विशेष कृपा थी। अगर तुम नाखुश थे तो बेशक यह भी परमेश्वर की व्यवस्था थी। तुम्हें आभारी होना चाहिए कि आज परमेश्वर ने तुम्हें माता-पिता को छोड़कर जाने की अनुमति दी है और स्पष्ट रूप से समझने दिया है कि उनका सार क्या है और वे किस किस्म के लोग हैं। तुम्हें दिल की गहराई से इसकी सही समझ रखनी चाहिए और साथ ही इसका सही समाधान और इसे सँभालने का तरीका जानना होगा। इस प्रकार, क्या तुम अपने भीतर गहराई में ज्यादा सुकून महसूस नहीं कर रहे हो? (बिल्कुल।) अगर तुम ज्यादा शांतचित्त हो, तो यह अद्भुत है। किसी भी स्थिति में, इन मामलों में, तुम्हारे माता-पिता पहले चाहे जैसी भी माँगें रखते रहे हों या अब उनकी जो भी माँगें हों, चूँकि तुम सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझते हो, और चूँकि तुम समझते हो कि परमेश्वर लोगों से क्या करने की माँग करता है—साथ ही यह भी समझते हो कि तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं के तुम्हारे लिए क्या नतीजे होते हैं—इसलिए तुम्हें अब इस मामले को लेकर बोझिल महसूस नहीं करना चाहिए। यह महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुमने अपने माता-पिता को निराश कर दिया है, या यह महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुमने परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने को चुना, इसलिए तुम अपने माता-पिता को बेहतर जीवन देने में नाकामयाब रहे हो, उनके साथ रहने और उनके प्रति अपनी संतानोचित जिम्मेदारी पूरी करने में नाकामयाब रहे हो, जिससे उन्होंने भावनात्मक खालीपन महसूस किया। तुम्हें इस बारे में ग्लानि महसूस करने की जरूरत नहीं। ये वे बोझ हैं जो माता-पिता अपने बच्चों पर लादते हैं, और यही वे चीजें हैं जो तुम्हें त्याग देने चाहिए। अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, तो तुम्हें यह मान लेना चाहिए कि उन्हें कितनी तकलीफें सहनी हैं और उन्हें अपने पूरे जीवन में कितनी खुशी मिलेगी, यह मामला भी परमेश्वर के हाथों में है। तुम्हारे संतानोचित होने या न होने से कुछ नहीं बदलेगा—तुम्हारे संतानोचित होने से तुम्हारे माता-पिता के कष्ट कम नहीं होंगे, और तुम्हारे संतानोचित न होने से वे ज्यादा कष्ट नहीं सहेंगे। परमेश्वर ने बहुत समय पहले ही उनका भाग्य पूर्वनियत कर दिया था, और उनके प्रति तुम्हारे रवैये या तुम्हारे बीच भावना की गहराई के कारण इसमें से कुछ भी नहीं बदलेगा। उनका अपना भाग्य है। वे अपनी पूरी जिंदगी चाहे गरीब हों या अमीर, सब-कुछ उनके लिए सुगम हो या नहीं, या वे जैसी भी गुणवत्ता के जीवन, भौतिक लाभों, सामाजिक हैसियत और जीवन स्थितियों का आनंद लेते हों, इनमें से किसी का भी तुम्हारे साथ ज्यादा लेना-देना नहीं है। अगर तुम्हारे मन में उनके प्रति अपराध बोध हो, तुम्हें लगता हो कि तुम पर उनका कोई कर्ज है और तुम्हें उनके साथ होना चाहिए, तो तुम्हारे उनके साथ होने से क्या बदल जाएगा? (कुछ भी नहीं बदलेगा।) हो सकता है तुम्हारा जमीर साफ और अपराध बोध से मुक्त हो जाए। लेकिन अगर हर दिन तुम उनके साथ रहो, और देखो कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, सांसारिक चीजों के पीछे भागते हैं और बेकार की बातचीत और गपशप में लगे रहते हैं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तुम्हारे दिल को चैन मिलेगा? (नहीं।) क्या तुम उन्हें बदल सकोगे? क्या तुम उन्हें बचा सकोगे? (नहीं।) अगर वे बीमार पड़ जाएँ, और तुम्हारे पास उनके सिरहाने रहकर उनकी देखभाल करने के साधन हों और तुम उनकी पीड़ा थोड़ी कम कर सको, उनके बच्चे के तौर पर उन्हें थोड़ा आराम दे सको, तो ठीक हो जाने के बाद वे शारीरिक सुकून भी महसूस करेंगे। लेकिन अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में एक भी बात बोलोगे, तो वे पलट कर तुम्हारे सामने आठ-दस तर्क पेश कर देंगे, ऐसी घृणास्पद भ्रांतियाँ बता देंगे जिनसे तुम्हें दो जन्मों तक घृणा होगी। बाहर से शायद तुम्हारा जमीर सुकून से रहे, और तुम्हें लगे कि उन्होंने तुम्हें बेकार ही पाल-पोसकर बड़ा नहीं किया, तुम एक बेपरवाह कृतघ्न नहीं हो, और तुमने अपने पड़ोसियों को मजाक उड़ाने का कोई मसाला नहीं दिया है। लेकिन सिर्फ इसलिए कि तुम्हारा जमीर शांत है, क्या इसका अर्थ है कि तुम उनके तरह-तरह के विचारों, सोच, जीवन के बारे में नजरियों और जीने के तरीकों को अपने हृदय की गहराई से स्वीकार करते हो? क्या तुम उनसे सचमुच संगत हो? (नहीं।) विभिन्न पथों पर चलने वाले और विभिन्न सोच वाले दो किस्म के लोग, उनका शारीरिक या भावनात्मक रिश्ता या संबंध चाहे जो हो, वे एक-दूसरे का नजरिया नहीं बदल सकते। अगर दोनों पक्ष साथ बैठकर चीजों पर चर्चा न करें तो ठीक, मगर जैसे ही वे चर्चा शुरू करेंगे, वे बहस करने लगेंगे, उनमें मतभेद पैदा हो जाएँगे, वे एक-दूसरे से नफरत करने लगेंगे और एक-दूसरे से ऊब जाएँगे। हालाँकि बाहर से देखें, तो उनके बीच खून का रिश्ता है, मगर भीतर से वे शत्रु हैं, दो प्रकार के लोग जो पानी और आग जितने असंगत हैं। उस स्थिति में, अगर अभी भी तुम उनके साथ हो, तो आखिर तुम ऐसा किसके लिए कर रहे हो? क्या तुम बस ऐसा कुछ तलाश रहे हो जिससे तुम दुखी हो जाओ, या फिर कोई और कारण है? तुम जब भी उनसे मिलोगे, तो पछताओगे, और इसे अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना कहा जाता है। कुछ लोग सोचते हैं : “अपने माता-पिता को देखे मुझे कई बरस हो गए हैं। पहले उन्होंने कुछ घिनौने काम किए थे, परमेश्वर की निंदा की थी, और परमेश्वर में मेरे विश्वास का विरोध किया था। अब वे बहुत बूढ़े हो गए हैं; अब तक वे बदल चुके होंगे। इसलिए मुझे उनके द्वारा किए गए बुरे कामों का बतंगड़ नहीं बनाना चाहिए; वैसे भी मैं उन्हें लगभग भूल चुका हूँ। इसके अलावा, भावनात्मक तरीके और जमीर से भी, वे मुझे याद आते हैं, और मैं सोचता रहता हूँ कि न जाने वे कैसे होंगे। तो सोचता हूँ कि वापस जा कर उन्हें देखूँ।” लेकिन घर लौटने पर एक ही दिन में उनके प्रति पहले जो घृणा तुम महसूस करते थे वह लौट आती है और तुम्हें खेद होता है : “क्या इसी को परिवार कहते हैं? क्या यही मेरे माता-पिता हैं? क्या ये शत्रु नहीं हैं? वे पहले भी ऐसे ही थे, और अब भी उनका चरित्र वही है; वे जरा भी नहीं बदले हैं!” वे कैसे बदल सकते थे? वे जो मूल रूप में थे, हमेशा वैसे ही रहेंगे। तुमने सोचा था कि उम्र के साथ वे बदल गए होंगे, और तुम्हारी उनके साथ बन सकेगी? उनके साथ बनेगी ही नहीं। लौट कर जैसे ही तुम घर में प्रवेश करोगे, वे देखेंगे कि तुम्हारे हाथ में क्या है, यह जानने के लिए कि क्या यह कोई कीमती चीज है, जैसे कि मोती की सीपी, समुद्री ककड़ी, शार्क के मीनपंख या मछली का पेट या शायद कोई डिजाइनर बैग और कपड़े या सोने-चाँदी के गहने। जैसे ही वे तुम्हें एक हाथ में स्टीम्ड बन वाली थैली और दूसरे में थोड़े-से केलों वाली थैली लिए देखेंगे, वे समझ जाएँगे कि तुम अब भी गरीब हो और तुम्हें तंग करने लगेंगे : “अमुक-अमुक की बेटी ने विदेश जाकर एक विदेशी से शादी कर ली। उसने उसके लिए जो ब्रेसलेट खरीदे वे शुद्ध सोने के थे और जब भी मौका मिलता है वह दिखाती रहती है। अमुक-अमुक के बेटे ने कार खरीदी है और वह जब भी खाली होता है अपने माता-पिता को घुमाने और विदेश यात्राओं पर ले जाता है। वे सब अपने बच्चों की महिमा का आनंद ले रहे हैं! अमुक-अमुक की बेटी कभी खाली हाथ घर नहीं आती। वह अपने माता-पिता के लिए पैर धोने और मालिश करने वाली कुर्सियाँ खरीदती है, और जो कपड़े वह खरीदती है वे या तो रेशमी होते हैं या फिर ऊनी। उसके बच्चे बहुत संतानोचित हैं; उसकी देखभाल बेकार नहीं गई! हमने बस बेपरवाह कृतघ्नों को पाल-पोसकर बड़ा किया है!” क्या यह मुँह पर तमाचा नहीं है? (बिल्कुल।) तुम्हारे स्टीम्ड बन और केलों पर उनका ध्यान भी नहीं जाता, और तुम अब भी एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने और संतानोचित धर्मनिष्ठा के बारे में सोचते हो। तुम्हारे माता-पिता को स्टीम्ड बन और केले पसंद हैं, और तुमने उन्हें कई बरस से नहीं देखा, इसलिए तुम उनका दिल छूने और अपनी अपराध भावना को दूर करने के लिए ये चीजें खरीदते हो। लेकिन लौटने पर, तुम न सिर्फ अपनी अपराध भावना दूर नहीं कर पाते, बल्कि उनकी आलोचना भी सुनते हो; निराशा में डूबकर तुम घर से बाहर निकल जाते हो। क्या अपने माता-पिता से मिलने के लिए घर जाने का कोई तुक था? (नहीं।) तुम इतने लंबे समय से घर नहीं लौटे, मगर वे तुम्हें याद नहीं करते; वे नहीं कहते : “तू वापस आ जा, यही काफी है। तुझे कुछ भी खरीदने की जरूरत नहीं है। यह देख कर अच्छा लगता है कि तू सही पथ पर है, स्वस्थ जीवन जी रहा है, और हर दृष्टि से सुरक्षित है। एक-दूसरे को देख पाने और दिल से बातचीत करने से काफी संतोष मिलता है।” उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम इतने वर्ष ठीक थे या नहीं, कहीं तुमने कुछ मुश्किलों या तकलीफदेह मामलों का सामना तो नहीं किया जिनके लिए तुम्हें उनकी मदद चाहिए थी। वे सांत्वना का एक बोल भी नहीं बोलते। लेकिन अगर वे सचमुच ऐसी चीजें कहते, तो क्या तुम छोड़कर जाने में असमर्थ नहीं होते? उनकी डाँट-डपट के बाद तुम कमर सीधी कर खुद को बिल्कुल सही पाते हो, कोई अपराध बोध महसूस नहीं करते और मन-ही-मन सोचते हो : “मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए, यह वास्तव में नर्क ही है! वे मेरी खाल उधेड़ देंगे, मेरा माँस खा लेंगे और फिर भी मेरा खून पी जाना चाहेंगे।” माता-पिता वाला रिश्ता किसी के लिए भावनात्मक रूप से संभालने का सबसे कठिन रिश्ता है, लेकिन दरअसल, इसे संभालना पूरी तरह असंभव नहीं है। सिर्फ सत्य की समझ के आधार पर लोग इस मामले से सही और तर्कपूर्ण ढंग से पेश आ सकते हैं। भावनाओं के परिप्रेक्ष्य से शुरू मत करो, और सांसारिक लोगों की अंतर्दृष्टियों या नजरियों से शुरु मत करो। इसके बजाय अपने माता-पिता से परमेश्वर के वचनों के अनुसार उचित ढंग से पेश आओ। माता-पिता वास्तव में कौन-सी भूमिका निभाते हैं, माता-पिता के लिए बच्चों का वास्तविक अर्थ क्या है, माता-पिता के प्रति बच्चों का रवैया कैसा होना चाहिए, और लोगों को माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते को कैसे सँभालना और हल करना चाहिए? लोगों को इन चीजों को भावनाओं के आधार पर नहीं देखना चाहिए, न ही उन्हें किन्हीं गलत विचारों या प्रचलित भावनाओं से प्रभावित होना चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर सही दृष्टि से देखना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर द्वारा नियत माहौल में अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में नाकामयाब हो जाते हो, या तुम उनके जीवन में कोई भी भूमिका नहीं निभाते, तो क्या यह असंतानोचित होना है? क्या तुम्हारा जमीर तुम पर आरोप लगाएगा? तुम्हारे पड़ोसी, सहपाठी और रिश्तेदार सब तुम्हें गाली देंगे और तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना करेंगे। वे तुम्हें यह कह कर एक असंतानोचित बच्चा कहेंगे : “तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए इतने त्याग किए, तुम पर इतनी कड़ी मेहनत की, तुम्हारे बचपन से ही तुम्हारे लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन तुम, जो कि एक कृतघ्न बच्चे हो, बिना किसी सुराग के गायब हो गए, एक संदेश तक नहीं भेजा कि तुम सुरक्षित हो। न सिर्फ तुम नव वर्ष के लिए वापस नहीं आते, तुम अपने माता-पिता को एक फोन भी नहीं करते या अभिवादन तक नहीं भेजते।” जब भी तुम ऐसी बातें सुनते हो, तुम्हारा जमीर रोता है, उससे खून रिसता है, और तुम निंदित महसूस करते हो। “ओह, वे सही हैं।” तुम्हारा चेहरा गर्म होकर लाल हो जाता है, और दिल काँपता है मानो उसमें सुइयाँ चुभाई गई हों। क्या तुम्हारे मन में ऐसी भावनाएँ आई हैं? (हाँ, पहले आई हैं।) क्या पड़ोसियों और तुम्हारे रिश्तेदारों की बात सही है कि तुम संतानोचित नहीं हो? (नहीं, मैं ऐसा नहीं हूँ।) अपनी बात समझाओ। (हालाँकि इतने वर्ष मैं अपने माता-पिता के साथ नहीं रहा, या सांसारिक लोगों की तरह उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाया, हमारा परमेश्वर में विश्वास रखने के इस पथ पर चलना परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत था। यह जीवन का सही मार्ग है और यह न्यायसंगत चीज है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि मैं असंतानोचित नहीं था।) तुम लोगों का तर्क अभी भी उन सिद्धांतों पर आधारित है जो अतीत में लोग समझते थे; तुम्हारे पास वास्तविक व्याख्या और वास्तविक समझ नहीं है। कोई और अपने विचार साझा करना चाहता है? (मुझे याद है कि जब मैं पहली बार विदेश गई थी, जब भी ख्याल आता कि मेरे परिवार को मालूम नहीं कि मैं विदेश में क्या कर रही हूँ, शायद वे मेरी आलोचना करते होंगे और कहते होंगे कि मैं संतानोचित नहीं हूँ, कि मैं एक असंतानोचित बेटी हूँ जो साथ रहकर अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करती—मैंने खुद को इन विचारों से बंधी हुई और संकुचित महसूस किया। जब भी मैंने इस पर विचार किया, तो मुझे लगा कि मुझ पर अपने माता-पिता का कर्ज है। लेकिन आज परमेश्वर की संगति के जरिये मुझे लगता है कि मेरे माता-पिता का मेरी देखभाल करना उनका अपनी अभिभावकीय जिम्मेदारी पूरी करना था और मेरे प्रति उनकी दयालुता परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत थी, और मुझे परमेश्वर का आभारी होना चाहिए और मुझे उसके प्रेम का कर्ज चुकाना चाहिए। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ, और जीवन के सही पथ पर चलती हूँ, जो कि एक न्यायसंगत चीज है, मुझे अपने माता-पिता का ऋणी महसूस नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मेरे माता-पिता अपने बच्चों के साथ और उनकी देखभाल का आनंद ले पाते हैं या नहीं, यह भी परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। ये चीजें समझने के बाद, मैं कुछ हद तक अपने दिल में महसूस होने वाली कर्जदार होने की भावना को त्याग सकती हूँ।) बहुत अच्छा। पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो। ये वे दो कारण हैं। एक और कारण भी है : अगर तुम्हारे माता-पिता वैसे लोग नहीं हैं जो तुम्हें खास तौर पर सताते हैं या परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में रुकावट पैदा करते हैं, अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास को समर्थन देते हैं, या वे ऐसे भाई-बहन हैं जो तुम्हारी तरह परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, खुद परमेश्वर के घर के सदस्य हैं, फिर तुम दोनों में से कौन दिल की गहराई से अपने माता-पिता के बारे में सोचते समय शांति से परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करेगा? तुममें से कौन अपने माता-पिता को—उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और उनके जीवन की तमाम जरूरतों के साथ—परमेश्वर के हाथों में नहीं सौंप देगा? अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना उनके प्रति संतानोचित आदर दिखाने का सर्वोत्तम तरीका है। तुम उम्मीद नहीं करते कि वे जीवन में तरह-तरह की मुश्किलें झेलें, तुम उम्मीद नहीं करते कि वे बुरा जीवन जिएँ, पोषणरहित खाना खाएँ, या बुरा स्वास्थ्य झेलें। अपने हृदय की गहराई से तुम निश्चित रूप से यही उम्मीद करते हो कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा, उन्हें सुरक्षित रखेगा। अगर वे परमेश्वर के विश्वासी हैं, तो तुम उम्मीद करते हो कि वे अपने खुद के कर्तव्य निभा सकेंगे और तुम यह भी उम्मीद करते हो कि वे अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे। यह अपनी मानवीय जिम्मेदारियाँ निभाना है; लोग अपनी मानवता से केवल इतना ही हासिल कर सकते हैं। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और अनेक सत्य सुनने के बाद, लोगों में कम-से-कम इतनी समझ-बूझ तो है : मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है, मनुष्य परमेश्वर के हाथों में जीता है, और परमेश्वर द्वारा मिलने वाली देखभाल और रक्षा, अपने बच्चों की चिंता, संतानोचित धर्मनिष्ठा या साथ से कहीं ज्यादा अहम है। क्या तुम इस बात से राहत महसूस नहीं करते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर की देखभाल और रक्षा के अधीन हैं? तुम्हें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम चिंता करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते; उसमें तुम्हारी आस्था बहुत थोड़ी है। अगर तुम अपने माता-पिता के बारे में सचमुच चिंतित और विचारशील हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए, और परमेश्वर को हर चीज का आयोजन और व्यवस्था करने देनी चाहिए। परमेश्वर मानवजाति के भाग्य पर राज्य करता है और वह उनके हर दिन और उनके साथ होने वाली हर चीज पर शासन करता है, तो तुम अभी भी किस बात को लेकर चिंतित हो? तुम अपना जीवन[क] भी नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारी अपनी ढेरों मुश्किलें हैं; तुम क्या कर सकते हो कि तुम्हारे माता-पिता हर दिन खुश रहें? तुम बस इतना ही कर सकते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप दो। अगर वे विश्वासी हैं, तो परमेश्वर से आग्रह करो कि वह सही पथ पर उनकी अगुआई करे ताकि वे आखिरकार बचाए जा सकें। अगर वे विश्वासी नहीं हैं, तो वे जो भी पथ चाहें उस पर चलने दो। जो माता-पिता ज्यादा दयालु हैं और जिनमें थोड़ी मानवता है, उन्हें आशीष देने के लिए तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो, ताकि वे अपना बचा हुआ जीवन खुशी-खुशी बिता सकें। जहाँ तक परमेश्वर के कार्य करने के तरीके का प्रश्न है, उसकी अपनी व्यवस्थाएँ हैं और लोगों को उनके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। तो कुल मिला कर लोगों के जमीर में अपने माता-पिता के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की जागरूकता है। इस जागरूकता से आने वाला रवैया चाहे जैसा हो, चाहे यह चिंता करने का हो या उनके साथ मौजूद रहने को चुनने का हो, किसी भी स्थिति में, लोगों को अपराध भावना नहीं पालनी चाहिए और उनकी अंतरात्मा को दोषी महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि वे वस्तुपरक हालात से प्रभावित होने के कारण अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर सके। ये और इन जैसे दूसरे मसले लोगों के परमेश्वर में विश्वास के जीवन में मुसीबतें नहीं बननी चाहिए; उन्हें त्याग देना चाहिए। जब माता-पिता के प्रति जिम्मेदारियाँ पूरी करने के विषय उभरते हैं, तो लोगों को ये सही समझ रखनी चाहिए और उन्हें अब बेबस महसूस नहीं करना चाहिए। एक बात तो यह है कि, तुम अपने दिल की गहराई से जानते हो कि तुम असंतानोचित नहीं हो, और तुम अपनी जिम्मेदारियों से जी नहीं चुरा रहे हो या बच नहीं रहे हो। दूसरी बात, तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर के हाथों में हैं, तो फिर अभी भी चिंता करने के लिए क्या रह गया है? किसी को जो भी चिंताएँ हों, बेकार हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अनुसार अंत तक सुगम जीवन जिएगा, बिना किसी भटकाव के अपने पथ के अंत तक पहुँचेगा। इसलिए लोगों को अब इस मामले में चिंता करते रहने की कोई जरूरत नहीं है। तुम संतानोचित हो या नहीं, तुमने अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों या नहीं, या क्या तुम्हें अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए—ये वे चीजें नहीं हैं जिनके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए; ये वे चीजें हैं जिन्हें तुम्हें त्याग देना चाहिए। क्या यह सही नहीं है? (बिल्कुल।)
बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय में, हमने पढ़ाई और काम के पहलुओं पर संगति की थी। इस बारे में लोगों को कौन-से तथ्य समझने चाहिए? अगर तुम अपने माता-पिता की बात सुनो और उनकी अपेक्षाओं के अनुसार बहुत कड़ी मेहनत से पढ़ो, तो क्या इसका अर्थ है कि तुम निश्चित रूप से बहुत बड़ी सफलता हासिल कर लोगे? क्या ऐसा करने से तुम्हारा भाग्य बदल सकता है? (नहीं।) फिर भविष्य में तुम्हारे लिए क्या है? वही है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है—जो भाग्य तुम्हारा होना चाहिए, लोगों के बीच जो स्थान तुम्हारा होना चाहिए, जिस मार्ग पर तुम्हें चलना चाहिए, और जीने का वह माहौल जो तुम्हें मिलना चाहिए। परमेश्वर ने बहुत पहले ही ये तुम्हारे लिए व्यवस्थित कर दिए हैं। इसलिए, अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को लेकर तुम्हें कोई बोझ नहीं ढोना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता के कहे अनुसार करोगे, तो भी तुम्हारा भाग्य वही रहेगा; अगर तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर नहीं चलोगे, उन्हें निराश करोगे, तो भी तुम्हारा भाग्य वही रहेगा। तुम्हारे आगे के पथ को जैसा होना है वैसा ही होगा; यह परमेश्वर द्वारा पहले ही नियत किया जा चुका है। इसी तरह, अगर तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करते हो, उन्हें संतुष्ट करते हो, उन्हें निराश नहीं करते, तो क्या इसका अर्थ है कि उन्हें बेहतर जीवन जीने को मिलेगा? क्या यह उनके कष्ट और दुर्व्यवहार के भाग्य को बदल सकता है? (नहीं।) कुछ लोग सोचते हैं कि उनके माता-पिता ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में बहुत ज्यादा दयालुता दिखाई है, और उस दौरान उन्होंने बहुत दुख सहे हैं। इसलिए वे एक अच्छी नौकरी तलाशना चाहते हैं, फिर मुश्किलें झेलना, मेहनत-मशक्कत करना, ध्यान लगाकर कड़ी मेहनत से काम करना चाहते हैं ताकि ढेर सारा पैसा कमा कर संपन्न हो जाएँ। उनका लक्ष्य अपने माता-पिता को भविष्य में बहुत बढ़िया जीवन देना है, जिस जीवन में वे बंगले में रहें, शानदार गाड़ी चलाएँ, बढ़िया खाएँ और पिएँ। लेकिन बरसों पूरे जोश और जोर-शोर से काम करने के बाद, हालाँकि उनकी जीने की स्थितियाँ और हालात सुधरे हैं, मगर उनके माता-पिता उस समृद्धि के एक भी दिन का आनंद लिए बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसके लिए कौन दोषी है? अगर तुम चीजों को अपने ढंग से चलने दो, परमेश्वर को आयोजित करने दो, और यह बोझ न ढोओ, तो फिर अपने माता-पिता की मृत्यु पर तुम्हें अपराध बोध नहीं होगा। लेकिन अगर तुम अपने माता-पिता का प्रतिदान करने और बेहतर जीवन जीने में उनकी मदद करने हेतु पैसे कमाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करो, मगर उनकी मृत्यु हो जाए, तो तुम्हें कैसा लगेगा? अगर तुमने अपना कर्तव्य निभाने और सत्य प्राप्त करने में देर की, तब भी क्या तुम अपना शेष जीवन आराम से जी सकोगे? (नहीं।) तुम्हारा जीवन प्रभावित होगा और तुम हमेशा शेष जीवन भर “अपने माता-पिता को निराश करने” का बोझ ढोते रहोगे। कुछ लोग काम करने, उद्यम करने, और पैसा कमाने के लिए बहुत प्रयास करते हैं, ताकि वे अपने माता-पिता को निराश न करें और उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में उनके द्वारा दिखाई दयालुता का कर्ज चुका सकें। बाद में, जब वे धनी हो जाते हैं, और उनके पास बढ़िया खाना खाने के पैसे आ जाते हैं, तो वे अपने माता-पिता को भोजन पर बुलाते हैं और यह कह कर तरह-तरह का उम्दा भोजन ऑर्डर करते हैं : “लीजिए न। मुझे याद है जब मैं छोटा था, तो ये आपकी पसंदीदा चीजें हुआ करती थीं; खाइए न!” मगर चूँकि उनके माता-पिता बूढ़े हो चुके हैं, उनके लगभग सारे दांत गिर चुके हैं, और अब उन्हें कम खाने की ही इच्छा होती है, इसलिए वे सब्जियाँ और नूडल जैसा नरम और सुपाच्य खाना चुनते हैं और थोड़े-से निवाले खाते ही उनका पेट भर जाता है। बड़े-से टेबल पर इतना खाना बचा हुआ देखकर तुम दुखी हो जाते हो। लेकिन तुम्हारे माता-पिता को बहुत अच्छा लगता है। ऐसी बड़ी उम्र में, उन्हें बस इतना ही खाना चाहिए; यह सामान्य है, वे ज्यादा नहीं माँगते। तुम भीतर से नाखुश हो, मगर किस बात पर? तुम्हारे लिए ये चीजें करना बेकार था। यह बहुत पहले ही तय हो चुका था कि तुम्हारे माता-पिता को उनके जीवन काल में कितनी खुशियों और कितनी तकलीफों का अनुभव होगा। तुम्हारी कामना के कारण और तुम्हारी भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए इसे नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर ने बहुत पहले ही यह नियत कर दिया है, इसलिए लोग जो भी करें बेकार है। इन तथ्यों से लोगों को क्या पता चलता है? माता-पिता को जो करना चाहिए वह है तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करके स्वस्थ और सुगम तरीके से बड़ा होने देना, सही पथ पर कदम रखने देना, और वह जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने देना है जो एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें पूरी करनी चाहिए। ये सब तुम्हारे भाग्य को बदलने के प्रयोजन से नहीं हैं, और ये सचमुच तुम्हारा भाग्य नहीं बदल सकते; ये महज एक सहायक और मार्गदर्शक भूमिका निभाने का कार्य करते हैं, तुम्हें प्रौढ़ता तक पाल-पोसकर जीवन के सही पथ की ओर आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। तुम्हें जो नहीं करना चाहिए वह है अपने माता-पिता के लिए खुशी रचने, उनका भाग्य बदलने और उन्हें ढेरों संपत्ति और बढ़िया खाना-पीना देने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करना। ये मूर्खतापूर्ण विचार हैं। यह वह बोझ नहीं है जो तुम्हें ढोना चाहिए, यह वह है जिसे तुम्हें त्याग देना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता का कर्ज चुकाने, उनका भाग्य बदलने, और उन्हें ज्यादा आशीष और कम कष्ट पाने में समर्थ बनाने के लिए कोई बेकार के त्याग या बेकार के काम नहीं करने चाहिए, जिससे कि तुम्हारे जमीर की निजी जरूरतें या भावनाएँ संतुष्ट हो सकें या तुम अपने माता-पिता को निराश करने से बच सको। यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है, और यह वह चीज नहीं है जिसके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए। माता-पिता को अपनी स्थिति और परमेश्वर द्वारा तैयार की गई स्थितियों और माहौल के अनुसार बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। बच्चों को अपने माता-पिता के लिए जो करना चाहिए, वह भी उन स्थितियों पर निर्भर है जिसे वे हासिल कर सकते हैं और उस माहौल पर भी निर्भर है जिसमें वे जीते हैं; बस इतना ही। माता-पिता या बच्चे जो भी करते हैं, वह अपनी सामर्थ्य या स्वार्थी आकांक्षाओं के जरिए एक-दूसरे का भाग्य बदलने के प्रयोजन से नहीं होना चाहिए, ताकि दूसरा पक्ष उनके प्रयासों के कारण बेहतर, ज्यादा खुशहाल और ज्यादा आदर्श जीवन जी सके। माता-पिता हों या बच्चे, सभी को परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित माहौल में चीजों को अपने ढंग से होने देना चाहिए, बजाय इसके कि अपने प्रयासों या किन्हीं निजी संकल्पों के जरिये बदलने की कोशिश करें। तुम्हारे माता-पिता का भाग्य तुम्हारे उनके बारे में ऐसे विचार रखने के कारण नहीं बदलेगा—उनका भाग्य बहुत पहले ही परमेश्वर द्वारा नियत हो चुका है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए उनके जीवन के दायरे में जीना, उनसे जन्म लेना, उनके द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया जाना और उनके साथ यह रिश्ता रखना नियत किया है। इसलिए उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी है कि तुम अपनी स्थितियों के अनुसार उनके साथ रहो और कुछ दायित्व निभाओ। जहाँ तक तुम्हारे माता-पिता की मौजूदा हालत को बदलने या उनके लिए बेहतर जीवन की तुम्हारी चाहतों की बात है, ये सब बेकार हैं। या अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों से प्रशंसा और आदर पाना, अपने माता-पिता को सम्मान दिलाना, परिवार में अपने माता-पिता के लिए प्रतिष्ठा अर्जित करना—यह और भी गैर-जरूरी है। कुछ एकल माताएँ और पिता भी हैं जिन्हें उनके जीवनसाथी ने छोड़ दिया था, और उन्होंने तुम्हें खुद बड़ा किया। तुम्हें और ज्यादा महसूस होता है कि उनके लिए यह कितना मुश्किल था और तुम अपना पूरा जीवन उनका कर्ज चुकाने और भरपाई करने में लगा देना चाहते हो, इस हद तक कि तुम उनकी हर बात मानना चाहते हो। वे तुमसे जो कहते हैं, जो अपेक्षा रखते हैं और तुम जो खुद करना चाहते हो, ये सब इस जीवन में तुम्हारे लिए बोझ बन जाते हैं—ऐसा नहीं होना चाहिए। सृष्टिकर्ता की मौजूदगी में, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हें इस जीवन में जो करना चाहिए वह सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना नहीं, बल्कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाना भी है। तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर पूरी कर सकते हो, अपनी भावनाओं या अपने जमीर की जरूरतों के आधार पर काम करके नहीं। बेशक, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना भी एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्यों का अंश है; यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी की पूर्ति परमेश्वर के वचनों पर आधारित है, इंसान की जरूरतों पर नहीं। तो तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने माता-पिता से आसानी से पेश आ सकते हो, उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर सकते हो। यह इतना सरल है। क्या यह करना आसान है? (हाँ।) यह करना आसान क्यों है? इसका सार और साथ ही लोगों को जिन सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, वे बहुत स्पष्ट हैं। सार यह है कि न तो माता-पिता और न ही बच्चे एक-दूसरे का भाग्य बदल सकते हैं। तुम मेहनत से कोशिश करते हो या नहीं, अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने को तैयार हो या नहीं, इनमें से कुछ भी दूसरे का भाग्य नहीं बदल सकता। तुम उन्हें दिल में बसा कर रखते हो या नहीं, यह सिर्फ भावनात्मक जरूरत का फर्क है, और इससे कोई तथ्य नहीं बदलेगा। इसलिए लोगों के करने की जो सबसे सरल चीज है वह है उनके माता-पिता की अपेक्षाओं से उपजे तरह-तरह के बोझों को त्याग देना। सबसे पहले, तुम्हें इन चीजों पर परमेश्वर के वचनों के अनुसार गौर करना चाहिए, और दूसरे तुम्हें अपने माता-पिता से अपने रिश्ते के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आना और उसे संभालना चाहिए। यह इतना सरल है। क्या यह आसान नहीं है? (बिल्कुल।) अगर तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तो ये तमाम चीजें आसान होंगी, और अपने अनुभव की प्रक्रिया में तुम्हें ज्यादा-से-ज्यादा महसूस होगा कि मामला सचमुच यही है। कोई किसी का भाग्य नहीं बदल सकता; व्यक्ति का भाग्य केवल परमेश्वर के हाथों में है। तुम चाहे जितनी भी कोशिश करो, कारगर नहीं होगा। बेशक, कुछ लोग कहेंगे : “तुमने जो बातें कही हैं वे सब तथ्य हैं, मगर मुझे लगता है कि यूँ कार्य करना बड़ी बेरुखी है। मेरा जमीर हमेशा मुझे फटकारता हुआ लगता है, मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।” अगर तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो बस अपनी भावनाओं को संतुष्ट करो; अपने माता-पिता के साथ चलो, उनके करीब रहो, उनकी सेवा करो, संतानोचित रहो और वे सही कहें या गलत, उनकी बात मानो—उनकी छोटी-सी दुम और एक सहायक बन जाओ, ये सब ठीक है। इस तरह, कोई भी तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना नहीं करेगा, और तुम्हारा विस्तारित परिवार भी कहेगा कि तुम बड़े संतानोचित हो। फिर भी अंत में तुम्हें ही नुकसान होगा। तुमने एक संतानोचित बच्चे के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखी है, तुमने अपनी भावनात्मक जरूरतें पूरी की हैं, तुम्हारे जमीर ने कभी भी दोषी महसूस नहीं किया है, और तुमने अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाया है, लेकिन एक चीज है जिसकी तुमने अनदेखी की है, और जिसे तुमने खो दिया है : तुम इन तमाम मामलों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश नहीं आए, उन्हें उनके अनुसार नहीं संभाला, और तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का अवसर गँवा चुके हो। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति तो संतानोचित रहे, मगर परमेश्वर को धोखा दे दिया। तुमने संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाई और अपने माता-पिता की देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी कीं, मगर तुमने परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया। तुम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के बजाय एक संतानोचित बच्चा बनना चुनते हो। यह परमेश्वर का सबसे बड़ा तिरस्कार है। तुम संतानोचित हो, तुमने अपने माता-पिता को निराश नहीं किया है, तुम्हारे पास जमीर है, और तुम एक बच्चे के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो, सिर्फ इन कारणों से परमेश्वर नहीं कहेगा कि तुम उसके प्रति समर्पण करने वाले वह व्यक्ति हो जिसके पास मानवता है। अगर तुम सिर्फ अपने जमीर और अपनी देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी करते हो, मगर इस मामले के साथ पेश आने या उसे संभालने के लिए परमेश्वर के वचनों या सत्य को आधार और सिद्धांतों के रूप में स्वीकार नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति अत्यधिक विद्रोहशीलता दिखाते हो। अगर तुम एक योग्य सृजित प्राणी बनना चाहते हो, तो तुम्हें पहले सभी चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना और करना चाहिए। इसे योग्यता प्राप्त, मानवता युक्त और जमीर वाला होना कहते हैं। इसके विपरीत, अगर तुम इस मामले से पेश आने और इसे संभालने के लिए सिद्धांतों और आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और तुम बाहर जा कर अपने कर्तव्य निभाने की परमेश्वर की बुलाहट को नहीं स्वीकार करते हो, या तुम अपने माता-पिता के साथ रहने, उनका साथ देने, उन्हें खुशी देने और उन्हें उनकी जीवन संध्या का आनंद लेने देने, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाने में देर करते हो या वह मौका छोड़ देते हो, तो परमेश्वर कहेगा कि तुममें मानवता या जमीर नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी नहीं हो, और वह तुम्हें नहीं पहचानेगा।
फुटनोट :
क. मूल पाठ में “तुम स्वयं को भी नियंत्रित नहीं कर सकते” लिखा है।
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