सत्य का अनुसरण कैसे करें (16) भाग दो

अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि परिवार अक्सर कैसे किसी व्यक्ति को पसोपेश में डाल कर परेशान कर देता है। व्यक्ति पूरी तरह त्याग देना चाहता है, लेकिन उसके जमीर में दोष की एक भावना होती है, और उसका दिल नहीं मानता। अगर वह न त्यागे, बल्कि पूरी लगन से अपने परिवार से जुड़े रहते हुए उनसे मिलकर रहे, तो वह अक्सर समझ नहीं पाता कि उसे क्या करना चाहिए, क्योंकि उसके कुछ नजरिये उसके परिवार से भिन्न होते हैं। इसलिए लोगों को लगता है कि अपने परिवार से व्यवहार खास तौर पर मुश्किल है; वे उनके साथ न तो पूरी तरह सुसंगत हो पाते हैं, न ही उनसे पूरी तरह से अलग हो पाते हैं। फिर चलो, आज हम इस पर संगति करें कि व्यक्ति को अपने परिवार से अपना रिश्ता कैसे सँभालना चाहिए। इस विषय में परिवार से आए कुछ बोझ जुड़े हैं, जोकि परिवार को त्याग देने की विषयवस्तु का तीसरा विषय है—अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देना। यह एक अहम विषय है। परिवार से आए बोझों से जुड़ी वे कौन-सी कुछ चीजें हैं जिन्हें तुम सब समझ पाते हो? क्या इनका संबंध व्यक्ति की जिम्मेदारियों, दायित्वों, संतानोचित धर्मनिष्ठा, वगैरह से है? (हाँ।) परिवार से आने वाले बोझों में वे जिम्मेदारियाँ, दायित्व, और संतानोचित धर्मनिष्ठा होती हैं जो किसी व्यक्ति को अपने परिवार के लिए पूरी करनी चाहिए। एक ओर, ये वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जो किसी व्यक्ति को पूरे करने चाहिए, लेकिन दूसरी ओर—कुछ खास हालात में और कुछ खास लोगों के साथ—ये व्यक्ति के जीवन में बाधाएँ बन जाते हैं, और इन्हीं बाधाओं को हम बोझ कहते हैं। जब परिवार से आने वाले बोझों की बात आती है, तो हम इसके दो पहलुओं पर चर्चा कर सकते हैं। एक पहलू है माता-पिता की अपेक्षाएँ। प्रत्येक माता-पिता या बड़े-बुजुर्गों की अपने बच्चों से अलग-अलग छोटी-बड़ी अपेक्षाएँ होती हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे मेहनत से पढ़ाई करेंगे, अच्छा बर्ताव करेंगे, स्कूल में अव्वल रहेंगे, सबसे श्रेष्ठ अंक प्राप्त करेंगे और कभी नहीं पिछड़ेंगे। वे चाहते हैं कि उनके बच्चों को शिक्षक और सहपाठी आदर से देखें, और उनके ग्रेड नियमित रूप से 80 से ऊपर हों। अगर बच्चे को 60 अंक मिले, तो उसकी पिटाई हो जाएगी, और 60 से कम मिले, तो उसे दीवार की ओर मुँह करके खड़े होकर अपनी गलतियों के बारे में सोचना पड़ेगा, या उन्हें बिना हिले खड़े रहने की सजा मिलेगी। उन्हें खाने, सोने, टीवी देखने और कंप्यूटर पर खेलने नहीं दिया जाएगा, और बढ़िया कपड़ों और खिलौनों का जो वायदा पहले किया गया था वे चीजें अब उसके लिए नहीं खरीदी जाएँगी। सभी माता-पिता अपने बच्चों से तरह-तरह की अपेक्षाएँ और बड़ी-बड़ी आशाएँ रखते हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे जीवन में सफल होंगे, करियर में तेजी से तरक्की करेंगे, और अपने पूर्वजों और परिवार का सम्मान और गौरव बढ़ाएँगे। कोई माता-पिता नहीं चाहते कि उनके बच्चे भिखारी, किसान या लुटेरे और डाकू बनें। माता-पिता यह भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे समाज में प्रवेश करने के बाद दोयम दर्जे के नागरिक बनें, कूड़ा-करकट में से चीजें उठाएँ, फुटपाथों पर खोमचा लगाएँ, फेरीवाला बनें, या दूसरों द्वारा नीची नजर से देखे जाएँ। भले ही माता-पिता की ये अपेक्षाएँ बच्चे साकार कर पाएँ या न कर पाएँ, माता-पिता हर हाल में अपने बच्चों से तरह-तरह की अपेक्षाएँ रखते हैं। वे जिन चीजों या अनुसरणों को अच्छा और श्रेष्ठ मानते हैं, अपने बच्चों पर उनका प्रक्षेपण ही उनकी अपेक्षाएँ हैं, जो उन्हें आशान्वित करता है, वे उम्मीद करते हैं कि बच्चे ये अभिभावकीय इच्छाएँ पूरी कर सकेंगे। तो माता-पिता की ये अभिलाषाएँ अनजाने ही उनके बच्चों के लिए क्या तैयार करती हैं? (दबाव।) ये दबाव बनाती हैं, इसके अलावा और क्या? (बोझ।) ये दबाव बन जाती हैं और ये जंजीरें भी बन जाती हैं। चूँकि माता-पिता अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखते हैं, इसलिए वे उन अपेक्षाओं के अनुसार अपने बच्चों को अनुशासित, मार्गदर्शित और शिक्षित करेंगे; वे अपनी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए अपने बच्चों में निवेश भी करेंगे, या उसके लिए कोई कीमत भी चुकाएँगे। मिसाल के तौर पर, माता-पिता आशा करते हैं कि उनके बच्चे स्कूल में उत्कृष्ट होंगे, कक्षा में अव्वल रहेंगे, हर परीक्षा में 90 अंक से ऊपर लाएँगे, हमेशा प्रथम रहेंगे—या कम-से-कम पाँचवें स्थान से कभी नीचे नहीं गिरेंगे। ये अपेक्षाएँ व्यक्त करने के बाद, क्या साथ ही माता-पिता ये लक्ष्य पाने में अपने बच्चों की मदद करने के लिए कुछ त्याग भी नहीं करते हैं? (बिल्कुल।) ये लक्ष्य पाने हेतु बच्चे पाठ दोहराने और इबारत याद करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाएँगे, और उनका साथ देने के लिए उनके माता-पिता भी जल्दी उठ जाएँगे। गर्मी के दिनों में वे अपने बच्चों के लिए पंखा करेंगे, ठंडा पेय बना कर देंगे, या उनके लिए आइसक्रीम खरीदेंगे। वे सुबह सबसे पहले उठ जाएँगे ताकि अपने बच्चों के लिए सोया दूध, तली हुई ब्रेड स्टिक्स, और अंडे बना सकें। खास तौर से परीक्षाओं के समय माता-पिता अपने बच्चों को तली हुई ब्रेडस्टिक और दो अंडे खिलाएँगे, इस उम्मीद से कि इससे उन्हें 100 अंक पाने में मदद मिलेगी। अगर तुम कहोगे, “मैं ये सब नहीं खा सकता, बस एक अंडा काफी है,” तो वे कहेंगे, “बेवकूफ बच्चा, तू एक अंडा खाएगा, तो तुझे सिर्फ दस अंक मिलेंगे। मम्मी के लिए एक और खा। पूरी कोशिश कर; अगर ये खा लेगा तो तुझे पूरे सौ अंक मिलेंगे।” बच्चा कहेगा, “अभी-अभी उठा हूँ, अभी नहीं खा सकता।” “नहीं, तुझे खाना पड़ेगा! अच्छा बच्चा बन, माँ की बात मान ले। मम्मी यह तेरे ही भले के लिए कर रही है, आ जा, इसे अपनी माँ के लिए खा ले।” बच्चा सोच-विचार करता है, “माँ को बहुत परवाह है। वह जो भी करती है मेरे भले के लिए ही करती है, इसलिए मैं ये खा लूँगा।” जो खाया गया वह अंडा था, मगर वास्तव में क्या निगला गया? यह दबाव था; अरुचि और अनिच्छा थी। खाना अच्छी बात है और उसकी माँ की अपेक्षाएँ ऊँची हैं, मानवता और जमीर के दृष्टिकोण से व्यक्ति को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन तार्किक आधार पर, ऐसे प्यार का प्रतिरोध करना चाहिए और काम करने के ऐसे तरीके को स्वीकार नहीं करना चाहिए। मगर, आह, तुम कुछ नहीं कर सकते। अगर तुम नहीं खाओगे, तो वह गुस्सा हो जाएगी और तुम्हें मार पड़ेगी, डांट लगेगी, और कोसा भी जाएगा। कुछ माता-पिता कहते हैं, “खुद को देख, इतना नालायक है कि एक अंडा खाने के लिए भी इतनी कोशिश करनी पड़ती है। एक तला हुआ ब्रेडस्टिक और दो अंडे, क्या ये सौ अंक नहीं हैं? क्या ये सब तेरे भले के लिए नहीं हैं? फिर भी तू ये नहीं खा सकता—अगर तू नहीं खा सकता तो आगे चल कर तू खाने के लिए भीख मांगता फिरेगा। वही कर जो तुझे ठीक लगे!” ऐसे भी बच्चे होते हैं जो सच में नहीं खा सकते, लेकिन उनके माता-पिता उन्हें खाने को मजबूर करते हैं, और बाद में वे सारा खाना उल्टी कर देते हैं। उल्टी करना अपने आप में कोई बड़ी बात नहीं है, मगर उनके माता-पिता और ज्यादा गुस्सा हो जाते हैं, और बच्चों को सहानुभूति और समझ मिलना तो दूर रहा, उनकी भर्त्सना होती है। भर्त्सना सुनने के साथ-साथ उन्हें और भी ज्यादा ऐसा लगता है मानो उन्होंने अपने माता-पिता को निराश कर दिया हो और वे खुद को और ज्यादा दोष देते हैं। इन बच्चों के लिए जीवन आसान नहीं है, है कि नहीं? (आसान नहीं है।) उल्टी करने के बाद तुम बाथरूम में चोरी-छिपे रोते हो, अभी भी उल्टी करने का बहाना करते हो। बाथरूम से बाहर आने के बाद, तुम जल्दी-जल्दी अपनी आँखें पोंछ लेते हो, यह पक्का करते हुए कि तुम्हारी माँ नहीं देख रही है। क्यों? अगर वह देख लेगी, तो तुम्हें डाँट पड़ेगी, और कोसा भी जाएगा : “खुद को देख, कितना नालायक है; किसके लिए रो रहा है? निकम्मा कहीं का, तू ऐसा बढ़िया खाना भी नहीं खा सकता। तू क्या खाना चाहता है? अगर तुझे इसके बाद खाना न मिले, तो तू ये खा पाएगा, है कि नहीं? तू भुगतने के लिए ही पैदा हुआ है! मेहनत से नहीं पढ़ेगा, परीक्षा ठीक से नहीं देगा, तो आखिर खाने के लिए भीख माँगता फिरेगा!” लगता है तुम्हारी माँ की हर बात तुम्हें शिक्षा देने के लिए है, फिर भी यह भर्त्सना लगती है—लेकिन तुम्हें क्या महसूस होता है? तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ और प्यार महसूस करते हो। तो, इस स्थिति में, तुम्हारी माँ चाहे जितनी भी सख्ती से बोले, तुम्हें आँखों में आँसू लिए उसकी बातों को स्वीकार कर निगलना होगा। तुम न भी खा सको, तो भी तुम्हें खाना बर्दाश्त करना पड़ेगा, और मतली आने पर भी तुम्हें खाना पड़ेगा। क्या ऐसा जीवन सहना आसान है? (नहीं, आसान नहीं है।) क्यों नहीं है? तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं से कैसी शिक्षा पाते हो? (परीक्षा में बढ़िया उत्तर देने और सफल भविष्य बनाने की जरूरत।) तुम्हें भविष्य की सँभावना दिखानी होगी, तुम्हें अपनी माँ के प्यार, कड़ी मेहनत और त्याग की कसौटी पर खरा उतरना होगा, तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करनी होंगी, और उन्हें निराश नहीं करना होगा। वे तुमसे बहुत प्यार करते हैं, उन्होंने तुम्हें सब-कुछ दिया है, वे अपना जीवन लगा कर तुम्हारे लिए सब-कुछ करते हैं। तो उनके सारे त्याग, उनकी शिक्षा और उनका प्यार भी क्या बन गए हैं? वे ऐसी चीज बन गए हैं जो तुम्हें चुकाना है, और साथ ही वे तुम्हारा बोझ बन गए हैं। बोझ इसी तरह तैयार होता है। चाहे तुम्हारे माता-पिता ये चीजें सहजज्ञान से करते हों, प्यार के कारण करते हों, या सामाजिक जरूरतों के कारण, आखिर में तुम्हें शिक्षा देने और तुमसे बर्ताव करने के इन तरीकों का प्रयोग करने और तुम्हारे भीतर तरह-तरह के विचार बैठाने से भी तुम्हारी आत्मा को आजादी, मुक्ति, आराम या उल्लास नहीं मिलता। इनसे तुम्हें क्या मिलता है? जो मिलता है वह दबाव है, डर है, यह तुम्हारे जमीर की निंदा और बेचैनी है। इसके अलावा और क्या? (जंजीरें और बंधन।) जंजीरें और बंधन। इसके अलावा, अपने माता-पिता की ऐसी अपेक्षाओं के अधीन तुम उनकी आशाओं के लिए जीने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते। उनकी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए, उनकी अपेक्षाओं को अधूरा न छोड़ने के लिए तुम प्रत्येक विषय पूरी बारीकी और ईमानदारी से पढ़ते हो, और वह सब करते हो जो वे तुम्हें कहते हैं। वे तुम्हें टीवी नहीं देखने देते, तो तुम सचमुच देखना चाह कर भी, बात मानकर टीवी नहीं देखते। तुम खुद को क्यों रोक पाते हो? (अपने माता-पिता को निराश करने के डर से।) तुम्हें डर है कि अगर तुम अपने माता-पिता की नहीं सुनोगे, तो तुम्हारी पढ़ाई का प्रदर्शन सचमुच खराब हो जाएगा, और तुम एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला नहीं ले पाओगे। तुम अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित हो। मानो तुम्हारे माता-पिता के नियंत्रण, भर्त्सना और दमन के बिना तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पथ में आगे क्या है। तुम उनके बंधनों से मुक्त होने की हिम्मत नहीं कर सकते, और तुम उनकी जंजीरों से मुक्त होने की हिम्मत नहीं कर सकते। तुम सिर्फ उन्हें अपने लिए तरह-तरह के नियम बनाने दे सकते हो, अपने साथ हेर-फेर करने दे सकते हो, और उनकी अवहेलना करने की हिम्मत नहीं कर सकते। एक अर्थ में, तुम अपने भविष्य को लेकर सुनिश्चित नहीं हो। एक अन्य अर्थ में, जमीर और मानवता के चलते, तुम उनकी अवहेलना करने और उनका दिल दुखाने को तैयार नहीं हो। उनके बच्चे के तौर पर, तुम्हें लगता है कि तुम्हें उनकी बात माननी चाहिए, क्योंकि वे जो भी करते हैं तुम्हारे भले के लिए ही करते हैं तुम्हारे भविष्य और तुम्हारी संभावनाओं के लिए करते हैं। तो जब वे तुम्हारे लिए तरह-तरह के नियम तय करते हैं, तो तुम बस चुपचाप उनका पालन करते हो। भले ही दिल से तुम सौ बार भी अनिच्छुक रहो, फिर भी तुम उनसे आदेश लिए बिना नहीं रह सकते। वे तुम्हें टीवी नहीं देखने देते या मनोरंजक किताबें नहीं पढ़ने देते, तो तुम टीवी नहीं देखते या वे किताबें नहीं पढ़ते। वे तुम्हें फलां-फलां सहपाठी से दोस्ती नहीं करने देते, तो तुम उनसे दोस्ती नहीं करते। वे तुम्हें बताते हैं कि किस समय उठना है, तो तुम उस समय उठ जाते हो। वे तुम्हें बताते हैं किस वक्त आराम करना है, तो तुम उस वक्त आराम करते हो। वे तुम्हें बताते हैं कि कितनी देर तक पढ़ना है, तो तुम उतनी देर तक पढ़ते हो। वे तुम्हें बताते हैं कि कितनी किताबें पढ़नी हैं, कितने पाठ्यक्रमेतर कौशल तुम्हें सीखने चाहिए, और अगर वे तुम्हें सीखने के लिए आर्थिक साधन मुहैया कराएँ, तो तुम उन्हें हुक्म चलाकर नियंत्रण करने देते हो। खास तौर से, कुछ माता-पिता अपने बच्चों से कुछ विशेष अपेक्षाएँ रखते हैं, और आशा करते हैं कि वे उनके पार जा सकेंगे, और ऐसी भी आशा करते हैं कि उनके बच्चे उनकी वह अभिलाषा पूरी कर दिखाएँगे जो वे पूरी नहीं कर पाए। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि कुछ माता-पिता खुद नर्तक-नर्तकी बनना चाहते रहे हों, मगर विविध कारणों—जैसे कि उनके बड़े होने के समय या पारिवारिक हालात—के चलते वे अंत में वह अभिलाषा पूरी नहीं कर पाए। इसलिए वे इस अभिलाषा को तुम्हारे ऊपर थोप देते हैं। पढ़ाई में सबसे श्रेष्ठ होने और एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने की अपेक्षा रखने के साथ-साथ वे तुम्हें नृत्य कक्षाओं में भी डाल देते हैं। वे तुम्हें स्कूल के बाहर तरह-तरह की नृत्य शैलियाँ सीखने, नृत्य कक्षा में ज्यादा सीखने, घर में और अभ्यास करने और अपनी कक्षा में सबसे श्रेष्ठ बनने में लगा देते हैं। अंत में, वे तुमसे सिर्फ यह माँग नहीं करते कि एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला लो, बल्कि यह भी कि तुम एक नर्तक या नर्तकी बन जाओ। तुम्हारे सामने विकल्प या तो नर्तक-नर्तकी बनने का है या प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने का, जिसके बाद तुम्हें स्नातक स्कूल में जाना और फिर पीएच.डी. हासिल करना होगा। तुम्हारे चुनने के लिए बस यही दो पथ हैं। अपनी अपेक्षाओं में, एक ओर तो वे आशा करते हैं कि तुम स्कूल में कड़ी मेहनत से पढ़ोगे, किसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में प्रवेश करोगे, अपने साथियों से श्रेष्ठ बनोगे, और एक समृद्ध और गौरवशाली भविष्य बनाओगे। दूसरी ओर, वे अपनी अधूरी अभिलाषाएँ तुम पर थोप देते हैं, और आशा करते हैं कि उनके एवज में ये तुम पूरी करोगे। इस प्रकार, शिक्षा या अपने भविष्य के करियर के संदर्भ में, तुम एक साथ दो बोझ ढोते हो। एक अर्थ में, तुम्हें उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा, उन्होंने तुम्हारे लिए जो कुछ भी किया है उसका कर्ज चुकाना होगा, और आखिरकार अपने साथियों के बीच ऊँचा उठना होगा ताकि तुम एक बढ़िया जीवन का आनंद ले सको। एक अन्य अर्थ में, तुम्हें वे सपने पूरे करने होंगे जो वे अपनी युवावस्था में पूरे नहीं कर पाए, और उनकी अभिलाषाएँ साकार करने में उनकी मदद करनी होगी। यह थकाऊ है, है कि नहीं? (बिल्कुल।) इनमें से एक बोझ भी तुम्हारे उठाने के लिए पहले ही काफी ज्यादा है; इनमें से एक भी तुम पर इतना भारी पड़ेगा कि तुम्हारी साँस फूलने लगेगी। खास तौर से आज-कल के भयानक स्पर्धा के युग में माता-पिता की अपने बच्चों से की जाने वाली तरह-तरह की माँगें बिल्कुल असहनीय और अमानवीय हैं; ये सरासर अनुचित हैं। गैर-विश्वासी इसे क्या पुकारते हैं? भावनात्मक ब्लैकमेल। गैर-विश्वासी इसे चाहे जो कहें, वे इस समस्या को नहीं सुलझा सकते, और वे इस समस्या के सार को स्पष्ट नहीं समझा सकते। वे इसे भावनात्मक ब्लैकमेल कहते हैं, लेकिन हम इसे क्या कहते हैं? (जंजीरें और बोझ।) हम इसे बोझ कहते हैं। बोझ की बात करें, तो क्या यह ऐसी चीज है जो किसी व्यक्ति को ढोनी चाहिए? (नहीं।) यह कोई अतिरिक्त, कोई फालतू चीज है जो तुम उठाते हो। यह तुम्हारा अंश नहीं है। यह वैसी चीज नहीं है जो तुम्हारे शरीर, दिल या आत्मा में होती है या उनके लिए जरूरी है, बल्कि कोई जोड़ी हुई चीज है। यह बाहर से आती है, तुम्हारे भीतर से नहीं।

तुम्हारी पढ़ाई और करियर विकल्पों को लेकर तुम्हारे माता-पिता तरह-तरह की अपेक्षाएँ रखते हैं। इस बीच उन्होंने तरह-तरह के त्याग किए हैं, और बड़ी मात्रा में समय और ऊर्जा का निवेश किया है, ताकि तुम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर सको। एक ओर, यह उनकी इच्छाएँ पूरी करने में तुम्हारी मदद करने के लिए है; और दूसरी ओर, यह उनकी अपनी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए भी है। तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ उचित हों या न हों, संक्षेप में कहें, तो तुम्हारे माता-पिता का यह व्यवहार, उनके नजरियों, रवैयों और तरीकों के साथ, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अदृश्य जंजीरों का कार्य करता है। भले ही उनका बहाना यह हो कि यह तुम्हारे लिए उनके प्यार के चलते है, या तुम्हारे भविष्य की सँभावनाओं, भविष्य में तुम्हारे बढ़िया जीवन जी पाने के लिए है, उनके बहाने चाहे जो हों, संक्षेप में कहें, तो इन माँगों का उद्देश्य, इन माँगों के तरीके और उनकी सोच की शुरुआती बिंदु ये सब किसी भी व्यक्ति के लिए एक किस्म का बोझ हैं। ये मानवजाति की जरूरत नहीं हैं। चूँकि ये मानवजाति की जरूरत नहीं है, इन बोझों से मिलने वाले नतीजे किसी की मानवता को सिर्फ विकृत, भ्रष्ट और टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं; ये किसी की मानवता को सता कर, हानि पहुँचा कर उसका दमन कर सकते हैं। ये नतीजे सुसाध्य नहीं, बल्कि घातक हैं, और किसी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित भी करते हैं। बतौर माता-पिता, उन्हें तरह-तरह की ऐसी चीजें करनी पड़ती हैं जो मानवता की जरूरतों के विरुद्ध होती हैं, या ऐसी चीजें करनी पड़ती हैं जो मानवजाति के सहजज्ञान के विरुद्ध होती हैं या उसके पार जाती हैं। मिसाल के तौर पर, संभव है वे अपने बच्चों को बड़े होते समय, रात में सिर्फ पाँच-छह घंटे सो लेने दें। बच्चों को रात 11 बजे से पहले आराम नहीं करने दिया जाता और उन्हें सुबह 5 बजे उठ जाना चाहिए। रविवार के दिन वे कोई मनोरंजक गतिविधि नहीं कर सकते, न ही वे आराम कर सकते हैं। उन्हें एक निश्चित मात्रा का होमवर्क पूरा करना चाहिए, और पढ़ाई की किताबों के अलावा एक निश्चित मात्रा में अन्य चीजें भी पढ़नी चाहिए, और कुछ माता-पिता तो यह भी जोर देते हैं कि उनके बच्चों को एक विदेशी भाषा सीखनी चाहिए। संक्षेप में कहें, तो स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों के अलावा तुम्हें बहुत सारे अतिरिक्त कौशल और ज्ञान की चीजें पढ़नी चाहिए। अगर तुम नहीं पढ़ते, तो तुम अच्छे आज्ञाकारी, मेहनती, और समझदार बच्चे नहीं हो; इसके बजाय तुम एक नालायक, बेकार बच्चे हो, बेवकूफ हो। अपने बच्चों के लिए सबसे श्रेष्ठ की आशा करने के बहाने, माता-पिता तुमसे तुम्हारी सोने की आजादी, बचपन की आजादी, और बचपन के खुशनुमा पलों से तो वंचित करते ही हैं, साथ ही तुम्हें एक नाबालिग के हर प्रकार के अधिकार से भी वंचित कर देते हैं। कम-से-कम, जब तुम्हारे शरीर को आराम की जरूरत हो—मिसाल के तौर पर तुम्हारे शरीर को वापस चंगा होने के लिए सात-आठ घंटे नींद की जरूरत होती है—तब वे तुम्हें बस पाँच-छह घंटे आराम करने देते हैं, या कभी-कभी तुम सात-आठ घंटे सो तो जाते हो, मगर तुम एक चीज बर्दाश्त नहीं कर पाते कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें निरंतर तंग करते हैं, या वे तुमसे ऐसी बातें कहते हैं, “अब से तुझे स्कूल नहीं जाना है। बस घर पर सोता रह! चूँकि तुझे सोना पसंद है, तू जिंदगी भर घर पर सोता रह सकता है। तू स्कूल नहीं जाना चाहता न, तो आगे चल कर तू खाने के लिए भीख माँगता फिरेगा!” बस इस एक बार तुम जल्दी नहीं उठे और तुमसे ऐसा बर्ताव किया गया; क्या यह अमानवीय व्यवहार नहीं है? (बिल्कुल।) तो ऐसी अजीब स्थिति से बचने के लिए तुम सिर्फ यही कर सकते हो कि समझौता कर लो और अपने आप को रोक लो; तुम पक्का कर लेते हो कि सुबह 5 बजे जरूर उठ जाओ, और तुम रात 11 बजे के बाद ही सोते हो। क्या तुम स्वेच्छा से खुद को यूँ रोक रहे हो? क्या ऐसा करके तुम संतुष्ट हो? नहीं। तुम्हारे पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है। अगर तुम अपने माता-पिता का कहा नहीं मानते, तो वे तुम्हें टेढ़ी नजर से देखकर डाँट सकते हैं। वे तुम्हें पीटेंगे नहीं, बस तुमसे यह कहेंगे, “हमने तेरा स्कूल बैग कचरे में डाल दिया है। अब तुझे स्कूल जाने की जरूरत नहीं है। बस ऐसे ही रह। जब 18 का हो जाएगा, तब तू रद्दीवाला बन जाना!” आलोचना की इस बाढ़ के साथ वे न तुम्हें पीटते हैं न डाँटते हैं, बल्कि बस यूँ उकसाते हैं, और तुम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। तुम क्या बर्दाश्त नहीं कर सकते? तुम अपने माता-पिता की यह बात बर्दाश्त नहीं कर सकते, “अगर तू एक-दो घंटे सो जाएगा, तो तुझे आगे निकम्मा बनकर खाने के लिए भीख माँगना पड़ेगा।” भीतर गहरे, तुम दो घंटे ज्यादा सोने को लेकर खास तौर से बेचैन और दुखी महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि उन दो अतिरिक्त घंटों के लिए तुम्हें अपने माता-पिता का कर्ज चुकाना होगा, उन्होंने तुम्हारे लिए इतने साल कड़ी मेहनत की और तुम्हारी सच्ची फिक्र की, और उसके बाद तुमने उन्हें निराश कर दिया है। तुम यह सोचकर खुद से घृणा करते हो, “मैं इतना निकम्मा क्यों हूँ? दो घंटे ज्यादा सोकर मुझे क्या मिला? क्या इससे मेरा दर्जा सुधर जाएगा, या क्या मुझे किसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने में मदद मिल जाएगी? मैं इतना बेखबर कैसे हो सकता हूँ? अलार्म बजने पर मुझे बस उठ जाना चाहिए। मैं थोड़ी देर और क्यों झपकी लेता रहा?” तुम सोचते-विचारते हो : “मैं सचमुच थक गया हूँ। मुझे सचमुच आराम की जरूरत है!” फिर तुम थोड़ा और मनन करते हो : “मैं ऐसे नहीं सोच सकता। क्या इस तरह सोचना अपने माता-पिता की अवज्ञा करना नहीं है? अगर मैं यूँ सोचूँगा, तो क्या मैं भविष्य में सचमुच भिखारी नहीं बन जाऊँगा? इस तरह सोचना अपने माता-पिता को निराश करना है। मुझे उनकी बात सुननी चाहिए और इतनी मनमानी नहीं करनी चाहिए।” अपने माता-पिता द्वारा तय किए गए विविध दंडों और नियमों और उनकी विविध माँगों—उचित और अनुचित दोनों—के अधीन तुम ज्यादा-से-ज्यादा आज्ञाकारी बन जाते हो, मगर साथ ही तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हारे लिए किए गए सारे काम अनजाने ही तुम्हारे लिए जंजीरें और बोझ बन जाते हैं। तुम जितनी भी कोशिश करो, तुम उसे उतारकर फेंक नहीं सकते या उससे छिप नहीं सकते; जहाँ भी जाओ बस उस बोझ को लाद कर जा सकते हो। यह कैसा बोझ है? “मेरे माता-पिता जो भी करते हैं वह मेरे भविष्य की खातिर है। मैं छोटा और अनाड़ी हूँ, इसलिए मुझे अपने माता-पिता की बात सुननी चाहिए। वे जो भी करते हैं वह सही और अच्छा है। उन्होंने मेरे लिए बहुत कष्ट सहे हैं और मुझ पर बहुत मेहनत की है। मुझे उनकी खातिर कड़ी मेहनत करनी चाहिए, मेहनत से पढ़ना चाहिए, भविष्य में अच्छी नौकरी ढूँढ़नी चाहिए, उन्हें सहारा देने के लिए पैसे कमाने चाहिए, उन्हें अच्छा जीवन देना चाहिए, और उनका कर्ज चुकाना चाहिए। मुझे बस यही करना चाहिए और इसी बारे में सोचना चाहिए।” लेकिन जब तुम उन तरीकों को याद करते हो जिनसे तुम्हारे माता-पिता तुमसे पेश आए, जब तुम अपने अनुभव के उन मुश्किल वर्षों, अपने गुमशुदा बचपन और खास तौर से अपने माता-पिता के भावनात्मक ब्लैकमेल को याद करते हो, तो तुम अपने दिल की गहराई से महसूस करते हो कि उन्होंने जो कुछ किया वह तुम्हारी मानवता की जरूरतों के लिए या तुम्हारी आत्मा की जरूरतों के लिए नहीं था। यह एक बोझ था। हालाँकि तुम इस तरह सोचते हो, फिर भी तुमने कभी घृणा करने की हिम्मत नहीं की, कभी भी उचित और सीधे ढंग से उसका सामना करने की हिम्मत नहीं की, और कभी भी अपने माता-पिता द्वारा किए गए हर काम या तुम्हारे प्रति उनके रवैये की वैसी तर्कपूर्ण जाँच नहीं की जैसी परमेश्वर ने तुम्हें बताई। तुमने अपने माता-पिता से सबसे उचित तरीके से बर्ताव करने की हिम्मत नहीं की; क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) अब तक, पढ़ाई और करियर चुनने के मामले में, क्या तुमने उस मेहनत और कीमत को समझा-बूझा है जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम लोगों पर लगाया है, जो करने को वे तुम सबसे कहते हैं और तुम्हारे अनुसरण के लिए जो दावे वे करते हैं? (मैंने पहले इन चीजों को समझा-जाना नहीं था, और सोचा था कि मेरे माता-पिता ने जो भी किया वह मुझसे प्यार के चलते और मेरे भविष्य की बेहतरी के लिए था। अब परमेश्वर की संगति से मेरी समझ-बूझ थोड़ी बढ़ी है, इसलिए मैं उसे इस दृष्टि से नहीं देखता।) तो इस प्यार के पीछे क्या है? (जंजीरें, बंधन और एक बोझ।) दरअसल, यह इंसानी आजादी और बचपन की खुशी छीनना है; यह अमानवीय दमन है। अगर इसे दुर्व्यवहार कहा जाए, तो अपने जमीर के दृष्टिकोण से शायद तुम सब इस शब्द को स्वीकार न कर पाओ। इसलिए इसका वर्णन सिर्फ इसी प्रकार किया जा सकता है कि यह इंसानी आजादी और बचपन की खुशी छीनने और साथ ही नाबालिगों के दमन का एक रूप है। अगर हम इसे धौंस देना कहें, तो यह ज्यादा उपयुक्त नहीं होगा। बात बस इतनी है कि तुम छोटे और अनाड़ी हो, और सभी चीजों में उनका फैसला आखिरी होता है। तुम्हारी दुनिया पर उनका संपूर्ण नियंत्रण है, और तुम अनजाने ही उनकी कठपुतली बन जाते हो। वे तुम्हें बताते हैं कि क्या करना है, और तुम कर देते हो। अगर वे चाहें कि तुम नृत्य सीखो, तो तुम्हें पढ़ना पड़ेगा। अगर तुम कहोगे, “मुझे नृत्य सीखना पसंद नहीं; मुझे मजा नहीं आता, मैं लय-ताल बना कर नहीं रख सकता, और मेरा संतुलन खराब है,” तो वे कहेंगे, “बहुत बुरी बात है। तुझे यह सीखना ही होगा क्योंकि मुझे यह पसंद है। तुझे यह मेरी खातिर करना है!” तुम्हें रोना आ रहा हो, फिर भी तुम्हें यह सीखना पड़ेगा। कभी-कभी तुम्हारी माँ यह भी कहेगी, “मम्मी के लिए नृत्य सीख, अपनी माँ की बात सुन। तू अभी छोटा है, नहीं समझता, लेकिन जब बड़ा हो जाएगा तो समझ जाएगा। मैं यह तेरे भले के लिए ही कर रही हूँ; देख, जब मैं छोटी थी, तो मेरे पास संसाधन नहीं थे, मेरी नृत्य कक्षाओं के लिए किसी ने पैसे नहीं दिए। मम्मी का बचपन खुशहाल नहीं था। लेकिन तेरे लिए सब-कुछ बढ़िया है। तेरे पिता और मैं पैसे कमाकर बचाते हैं ताकि तू नृत्य सीख सके। तू एक छोटी राजकुमारी जैसी है, एक छोटा-सा राजकुमार जैसा है। तू बहुत भाग्यशाली है! मम्मी-डैडी यह इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे तुझसे प्यार करते हैं।” यह सुनकर तुम क्या जवाब दोगे? तुम अवाक रह जाओगे, है कि नहीं? (बिल्कुल।) माता-पिता अक्सर मानते हैं कि बच्चे कुछ नहीं समझते और बड़े जो कहते हैं वही सच है; वे सोचते हैं कि बच्चे सही-गलत का फर्क नहीं कर सकते या अपने आप सही की जाँच नहीं कर सकते। तो अपने बच्चों के बड़े होने से पहले, माता-पिता अपने बच्चों को गुमराह करने और उनके युवा दिल सुन्न करने के लिए अक्सर ऐसी बातें कहते हैं जिन पर खुद उन्हें भी ज्यादा यकीन नहीं होता, और अपने बच्चों को स्वेच्छा या अनिच्छा से किसी विकल्प के बिना उनकी व्यवस्थाओं का पालन करने को मजबूर करते हैं। अपने बच्चों को शिक्षा देने, उनके मन में विचार बैठाने और उनसे कुछ करने की माँग को लेकर, ज्यादातर माता-पिता अक्सर खुद को सही ठहराते हैं और वही कहते हैं जो वे चाहते हैं। इसके अलावा, बुनियादी तौर पर 99.9 प्रतिशत माता-पिता सभी चीजें समझने और उन्हें करने के तरीकों का मार्गदर्शन करने के लिए सही और सकारात्मक तरीकों का इस्तेमाल नहीं करते। इसके बजाय, वे अपनी एकतरफा पसंद और चीजों को जिन्हें वे अच्छा समझते हैं, अपने बच्चों के भीतर जबरन बैठा देते हैं और इन्हें स्वीकार कर लेने पर उन्हें मजबूर करते हैं। बेशक, बच्चे जिन चीजों को स्वीकार करते हैं, उनमें से 99.9 प्रतिशत सत्य के अनुरूप नहीं होतीं, और ये वे विचार और नजरिये भी नहीं होते जो लोगों को अपनाने चाहिए। साथ ही, वे इस उम्र के बच्चों की मानवता की जरूरतों के अनुरूप भी नहीं होते। मिसाल के तौर पर, पाँच-छह साल के कुछ बच्चे, गुड़ियों के साथ खेलते हैं, रस्सी कूदते हैं, या कार्टून देखते हैं। क्या यह सामान्य नहीं है? इस स्थिति में माता-पिता की एकमात्र जिम्मेदारी क्या है? उनकी देखभाल करना, विनियमन करना, सकारात्मक मार्गदर्शन देना, इस दौरान नकारात्मक चीजें स्वीकार न करने में अपने बच्चों की मदद करना और साथ ही उन सकारात्मक चीजों को स्वीकार करने देना जो इस आयु वर्ग के बच्चों को स्वीकार करनी चाहिए। मिसाल के तौर पर, इस उम्र में, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ मिलना-जुलना, अपने परिवार से प्यार करना और अपने माता-पिता से प्यार करना आना चाहिए। माता-पिता को उन्हें बेहतर शिक्षा देनी चाहिए, उन्हें यह समझने देना चाहिए कि मनुष्य परमेश्वर से आता है, उन्हें अच्छे बच्चे होना चाहिए, परमेश्वर के वचन सुनना सीखना चाहिए, और मुश्किल में होने और आज्ञा मानने की इच्छा न होने पर प्रार्थना करनी चाहिए और शिक्षा के ऐसे ही सकारात्मक पहलू सिखाने चाहिए—बाकी सब उनकी बचकानी रुचियों को संतुष्ट करना है। मिसाल के तौर पर, कार्टून देखना और गुड़ियों से खेलना चाहने पर बच्चों को दोष नहीं देना चाहिए। कुछ माता-पिता अपने पाँच-छह साल के बच्चों को कार्टून देखते या गुड़ियों के साथ खेलते देखकर डाँट लगाते हैं : “तू निकम्मा है! तू इस उम्र में पढ़ने पर या उचित काम करने पर ध्यान नहीं देता। कार्टून देखने का क्या फायदा? इसमें बस चूहे-बिल्लियाँ होती हैं, क्या तू इससे बेहतर कुछ नहीं कर सकता? ये तमाम कार्टून जानवरों के बारे में हैं, क्या तू ऐसी कोई चीज नहीं देख सकता जिसमें इंसान हों? तू कब बड़ा होगा? उस गुड़िया को दूर फेंक दे! गुड़ियों से खेलने की तेरी उम्र गुजर गई। तू कितना निकम्मा है!” क्या तुम सोचते हो कि यह सुनकर बच्चे बड़ों की बातों का मतलब समझ सकेंगे? इस उम्र का बच्चा अगर गुड़ियों और मिट्टी के साथ नहीं खेलेगा तो फिर क्या करेगा? क्या उसे परमाणु बम बनाना चाहिए? सॉफ्टवेयर तैयार करना चाहिए? क्या वे इसमें सक्षम हैं? इस उम्र में उन्हें ब्लॉक, खिलौना गाड़ियों और गुड़ियों के साथ खेलना चाहिए; यह सामान्य है। जब वे खेल-खेल कर थक जाएँ, तो उन्हें आराम करना चाहिए, और स्वस्थ और खुश रहना चाहिए। जब वे मनमानी करें या तर्क उनके दिमाग में न उतरे, या वे जानबूझकर मुसीबत खड़ी करें, तो बड़ों को उन्हें शिक्षित करना चाहिए : “तू सोचता-विचारता नहीं है। एक अच्छे बच्चे को ऐसे नहीं करना चाहिए। परमेश्वर यह पसंद नहीं करता, और मम्मी-डैडी को भी यह पसंद नहीं।” अपने बच्चों को सीख देना माता-पिता की जिम्मेदारी है, उनके भीतर जबरन कुछ बैठाने या उन पर कुछ थोपने के लिए अपने बड़े लोगों के तरीकों और अंतर्दृष्टि और बड़ों की अभिलाषाओं और महत्वाकांक्षाओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। बच्चों की उम्र चाहे जो भी हो, माता-पिता को उनके प्रति जो जिम्मेदारी निभानी चाहिए वह है सकारात्मक मार्गदर्शन व शिक्षा देने और देखरेख करने की और फिर उन्हें बच्चों को सीख देनी चाहिए। जब माता-पिता देखें कि उनके बच्चे कुछ अतिवादी विचार, अभ्यास और व्यवहार दिखा रहे हैं, तो उन्हें सुधारने के लिए सकारात्मक परामर्श और मार्गदर्शन देना चाहिए, उन्हें जानने देना चाहिए कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है, सकारात्मक क्या है और नकारात्मक क्या है। यह वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। इस प्रकार, अपने माता-पिता द्वारा शिक्षा और मार्गदर्शन के उचित तरीकों के तहत बच्चे अनजाने ही बहुत-सी चीजें सीख जाएँगे जो वे पहले नहीं जानते थे। इस प्रकार, जब लोग अनेक सकारात्मक चीजें स्वीकार कर लेंगे और छोटी उम्र से ही सही-गलत के बारे में जान लेंगे, तो उनकी आत्मा और मानवता सामान्य और स्वतंत्र होगी—उनकी आत्मा किसी हानि या दमन का निशाना नहीं बनेगी। उनका शारीरिक स्वास्थ्य चाहे जैसा हो, कम-से-कम उनका दिमाग स्वस्थ होगा, विकृत नहीं होगा, क्योंकि वे किसी घातक माहौल में दब कर बड़े नहीं हुए बल्कि एक सुसाध्य शैक्षणिक वातावरण में बड़े हुए हैं। जैसे-जैसे उनके बच्चे बड़े होते हैं, माता-पिता को जो जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने चाहिए वे यह हैं कि अपने बच्चों पर दबाव न डालें, उन्हें न बांधें, उनकी पसंद में दखलंदाजी न करें और उन पर एक-के-बाद-एक बोझ न डालें। इसके बजाय, उनके बच्चों के बड़े होते समय, उनका व्यक्तित्व और काबिलियत चाहे जो हो, माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे एक सकारात्मक और सामान्य दिशा में उनका मार्गदर्शन करें। जब उनके बच्चे विचित्र या अनुचित भाषा, व्यवहार या विचारों का प्रदर्शन करें, तो माता-पिता को उन्हें समय से आध्यात्मिक परामर्श और व्यवहार संबंधी मार्गदर्शन देना और उन्हें सुधारना चाहिए। जहाँ तक ये प्रश्न हैं कि क्या उनके बच्चे पढ़ने को तैयार हैं, वे पढ़ाई में कितने अच्छे हैं, ज्ञान और कौशल सीखने में उन्हें कितनी रुचि है, बड़े हो कर वे क्या कर सकते हैं, ये उनकी स्वाभाविक वृत्तियों और पसंद और उनकी रुचियों के विन्यास के अनुरूप होने चाहिए, जिससे वे अपनी परवरिश की प्रक्रिया के दौरान स्वस्थ, स्वतंत्र और मजबूती से बड़े हो सकें—यह वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को निभानी चाहिए। इसके अलावा, यह वह रवैया है जो माता-पिता को अपने बच्चों के विकास, पढ़ाई और करियर के प्रति रखना चाहिए, बजाय इसके कि अपने बच्चों के साकार करने के लिए उन पर अपनी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, पसंद और अभिलाषाएँ थोपें। इस प्रकार, एक ओर माता-पिता को अतिरिक्त त्याग नहीं करने पड़ेंगे; और दूसरी ओर, बच्चे आजादी से बड़े हो सकेंगे और अपने माता-पिता द्वारा सही और उचित शिक्षा पाकर सीख सकेंगे। माता-पिता के लिए सबसे अहम बिंदु अपने बच्चों से उनकी प्रतिभाओं, रुचियों और मानवता के अनुसार सही ढंग से पेश आना है; अगर वे अपने बच्चों से “लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है,” सिद्धांत के अनुसार पेश आएँ, तो अंतिम परिणाम बेशक अच्छा होगा। बच्चों से “लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है” सिद्धांत के अनुसार पेश आना, तुम्हें अपने बच्चों को सँभालने से रोकने को लेकर नहीं है; जरूरत पड़ने पर तुम्हें उनको अनुशासित करना चाहिए, और जितनी जरूरत हो, उतनी सख्ती दिखानी चाहिए। सख्ती दिखाई जाए या कोमलता, बच्चों से पेश आने का सिद्धांत जैसा कि हमने अभी कहा, उन्हें उनके स्वाभाविक मार्ग पर चलने देना है, थोड़ा सकारात्मक मार्गदर्शन और मदद देना है और फिर बच्चों के वास्तविक हालत के अनुसार कौशल, ज्ञान और संसाधन के संदर्भ में अपनी काबिलियत के अनुसार उन्हें थोड़ी सहायता और सहारा देना है। यह है वो जिम्मेदारी जो माता-पिता को निभानी चाहिए, बजाय इसके कि वे बच्चों को जो पसंद न हो वह करने को मजबूर करें, या ऐसा कुछ करें जो मानवता के विरुद्ध हो। संक्षेप में कहें, तो बच्चों से अपेक्षाएँ मौजूदा सामाजिक स्पर्धा और जरूरतों, सामाजिक चलन और दावों, समाज में लोगों द्वारा बच्चों से पेश आने के बारे में विविध विचारों पर आधारित नहीं होनी चाहिए। सबसे बढ़कर उन्हें परमेश्वर के वचनों और इस सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए कि “सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है।” लोगों को सबसे अधिक यही करना चाहिए। जहाँ तक यह सवाल है कि किसी के बच्चे भविष्य में किस प्रकार के लोग बनेंगे, वे कैसी नौकरी चुनेंगे और उनका भौतिक जीवन कैसा होगा, ये चीजें किसके हाथों में हैं? (परमेश्वर के हाथों में।) ये परमेश्वर के हाथों में हैं, माता-पिता के हाथों में नहीं, न ही किसी और के हाथों में। अगर माता-पिता अपने भाग्य को नियंत्रित नहीं कर सकते, तो क्या वे अपने बच्चों का भाग्य नियंत्रित कर सकते हैं? अगर लोग अपने भाग्य पर नियंत्रण नहीं कर सकते, तो क्या उनके माता-पिता उस पर नियंत्रण कर सकते हैं? तो बतौर माता-पिता, लोगों को अपने बच्चों की पढ़ाई और करियर से निपटते समय मूर्खतापूर्ण काम नहीं करने चाहिए। उन्हें अपने बच्चों से समझदारी से पेश आना चाहिए, अपनी अपेक्षाओं को अपने बच्चों के लिए बोझ में तब्दील नहीं कर देना चाहिए; अपने त्याग, कीमतों और मुश्किलों को अपने बच्चों पर बोझ में तब्दील नहीं करना चाहिए; और परिवार को अपने बच्चों के लिए एक नरक में तब्दील नहीं करना चाहिए। यह एक तथ्य है जो माता-पिता को समझना चाहिए। तुममें से कुछ लोग पूछ सकते हो, “फिर बच्चों को अपने माता-पिता के साथ कैसा रिश्ता रखना चाहिए? क्या उन्हें उनके साथ दोस्तों, सहकर्मियों की तरह पेश आना चाहिए या बड़े-छोटे का रिश्ता रखना चाहिए?” तुम्हें जैसा सही लगे वैसा करना चाहिए। बच्चों को वह चुनने दो जो उन्हें पसंद हो और तुम वह करो जो तुम्हें सबसे ठीक लगे। ये सब तुच्छ बातें हैं।

बच्चों को अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ कैसे संभालनी चाहिए? अगर तुम्हारी मुलाकात ऐसे माता-पिता से हो जो अपने बच्चों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करते हों, अगर तुम्हारी मुलाकात ऐसे अविवेकी और दानवी माता-पिता से हो तो तुम क्या करोगे? (मैं उनकी शिक्षाएँ सुनना बंद कर दूँगा; मैं चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार देखूँगा।) एक ओर, तुम्हें समझना चाहिए कि उनकी शिक्षा पद्धतियाँ सिद्धांतों के संदर्भ में गलत हैं, और वे तुमसे जिस तरह बर्ताव करते हैं वह तुम्हारी मानवता के लिए हानिकारक है और तुम्हें अपने मानव अधिकारों से भी वंचित करता है। दूसरी ओर, तुम्हें स्वयं यह मानना चाहिए कि लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। तुम जो पढ़ना चाहते हो, तुम जिसमें उत्कृष्ट हो, और तुम्हारी इंसानी काबिलियत जो हासिल करने में सक्षम है—ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं, और कोई भी उन्हें बदल नहीं सकता। हालाँकि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, मगर वे भी इनमें से कोई भी चीज नहीं बदल सकते। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुमसे जो भी करने की माँग करें, अगर यह चीज ऐसी है जो तुम नहीं कर सकते, जिसे तुम हासिल नहीं कर सकते, या नहीं करना चाहते, तो तुम मना कर सकते हो। तुम उनके साथ तर्क भी कर सकते हो, और फिर दूसरी तरह से उसकी भरपाई करके अपने बारे में उनकी चिंताएँ दूर कर सकते हो। तुम कहो : “शांत हो जाइए; लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। मैं कभी भी गलत पथ पर नहीं चलूँगा; मैं निश्चित ही सही पथ पर चलूँगा। परमेश्वर के मार्गदर्शन से, मैं यकीनन एक सच्चा इंसान बनूँगा, एक अच्छा इंसान बनूँगा। मुझसे आप लोगों की जो अपेक्षाएँ हैं, उनमें मैं आपको निराश नहीं करूँगा, न ही मुझे पाल-पोसकर बड़ा करने की आप लोगों की दयालुता को भुलाऊँगा।” ये बातें सुनने के बाद माता-पिता कैसी प्रतिक्रिया दिखाएँगे? अगर माता-पिता गैर-विश्वासी या दानवों के हों, तो वे आगबबूला हो जाएँगे। क्योंकि जब तुम कहते हो, “मुझे पाल-पोसकर बड़ा करने की आप लोगों की दयालुता को मैं नहीं भुलाऊँगा और मैं आप लोगों को निराश नहीं करूँगा,” तो ये सिर्फ खोखली बातें हैं। क्या तुमने यह पूरा किया है? क्या उन्होंने तुमसे जो कहा वह तुमने किया है? क्या तुम अपने साथियों के बीच ऊँचे खड़े हो पाए हो? क्या तुम एक ऊँचे दर्जे का अधिकारी बन सकते हो या इतनी धन-दौलत कमा सकते हो कि वे अच्छा जीवन जी सकें? क्या तुम ठोस लाभ पाने में उनकी मदद कर सकते हो? (नहीं।) यह ज्ञात नहीं है; ये सब अनिश्चितताएँ हैं। वे चाहे नाराज हों, खुश हों या चुपचाप सह रहे हों, तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? लोग इस दुनिया में परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया उद्देश्य पूरा करने आते हैं। लोगों को इसलिए नहीं जीना चाहिए कि वे अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करें, उन्हें खुश करें, उनका गौरव बढ़ाएँ या दूसरों के आगे उन्हें एक प्रतिष्ठित जीवन जीने दें। यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया; इसकी उन्हें जो भी कीमत चुकानी पड़ी हो, यह उन्होंने स्वेच्छा से किया। तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करना उनकी जिम्मेदारी थी, उनका दायित्व था। जहाँ तक इसकी बात है कि उन्होंने तुमसे कितनी अपेक्षाएँ रखीं, इन अपेक्षाओं के कारण उन्होंने कितने कष्ट सहे, उन्होंने कितना पैसा खर्च किया, कितने लोगों ने उन्हें ठुकरा कर नीची नजर से देखा, और उन्होंने कितना त्याग किया, यह सब स्वैच्छिक था। तुमने यह नहीं माँगा; तुमने उनसे यह नहीं करवाया, और न ही परमेश्वर ने करवाया। ऐसा करने के पीछे उनकी अपनी मंशाएँ थीं। अपने नजरिये से उन्होंने यह सिर्फ अपने ही लिए किया। बाहर से, यह तुम्हारे अच्छे जीवन और अच्छी संभावनाओं के लिए था, लेकिन दरअसल यह इसलिए था कि उनकी बड़ाई हो और उनका अपयश न हो। इसलिए, तुम उनका कर्ज चुकाने को बाध्य नहीं हो, न ही तुम उनकी इच्छाएँ और अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए बाध्य हो। तुम इसके लिए बाध्य क्यों नहीं हो? क्योंकि यह वह नहीं है जो परमेश्वर तुमसे करवाता है; यह वह दायित्व नहीं है जो उसने तुम्हें दिया है। उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी बस इतनी है कि जब उन्हें तुम्हारी जरूरत पड़े, तो तुम वह करो जो बच्चों को करना चाहिए, एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करो। भले ही ये वे लोग हैं जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया है, पाल-पोसकर बड़ा किया है, फिर भी उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी है कि जब उन्हें तुम्हारी सेवा की जरूरत हो, तब तुम उनके कपड़े धो दो, खाना बना दो और सफाई कर दो, और उनके बीमार पड़ने पर उनके सिरहाने बैठकर तीमारदारी करो। बस, इतना ही। तुम उनका हर हुक्म मानने को बाध्य नहीं हो, उनका गुलाम बनने को बाध्य नहीं हो। इसके अलावा, तुम उनकी अधूरी इच्छाओं पर काम करने को बाध्य नहीं हो, सही है? (सही है।)

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