सत्य का अनुसरण कैसे करें (15) भाग एक
क्या तुम लोगों ने अपनी सभाओं में उन विषयों पर संगति की है जिन पर हम हाल में चर्चा करते रहे हैं? (हे परमेश्वर, हमने अपनी सभाओं में इन विषयों पर संगति की है।) तुम्हारी संगति का क्या परिणाम निकला? क्या तुम्हें किसी नई बात या समझ के बारे में पता चला? जिन विषयों पर हमने संगति की है क्या वे लोगों के दैनिक जीवन में मौजूद हैं? (सभी विषय मौजूद हैं। इन विषयों पर परमेश्वर की संगति को कुछ बार सुनने के बाद मैंने पाया कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे माता-पिता और हमारे परिवारों की शिक्षा ने हमें बड़ी गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। बचपन से ही हमारे माता-पिता ने थोड़ा-थोड़ा करके ये विचार हमारे भीतर पिरो दिए हैं, जैसे कि, “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” मुझमें यह विचार पिरो दिए जाने के बाद मुझे विश्वास हो गया कि डराए-धमकाए जाने और नीची नजरों से देखे जाने से बचने के लिए, हमें बाकी सबसे बेहतर होना चाहिए और जीवन में भीड़ से अलग खड़े होना चाहिए। पहले मुझे लगता था कि हमारे माता-पिता द्वारा हमें सिखाए गए ये विचार हमारी भलाई और रक्षा के लिए हैं। कुछ बार परमेश्वर की संगति और विश्लेषण के बाद मुझे यह एहसास हो गया है कि ये विचार नकारात्मक हैं और लोगों को भ्रष्ट करने के शैतान के साधन हैं। ये हमें परमेश्वर से अधिक से अधिक दूर कर देते हैं और हमें शैतान की भ्रष्टता में और अधिक गहराई में ले जाते हैं, जिससे हम उद्धार से अधिक से अधिक दूर हो जाते हैं।) संक्षेप में कहें तो इन विषयों के बारे में संगति करना जरूरी है, है कि नहीं? (हाँ, जरूरी है।) इन विषयों पर कुछ बार संगति करने के बाद, लोग उनके परिवारों द्वारा उनमें पिरोए गए विचारों और नजरियों की गहरी समझ हासिल कर लेते हैं, और वे उन्हें ज्यादा सही ढंग से समझ लेते हैं। इन चीजों के बारे में संगति करने के बाद, क्या लोगों के अपने परिवारों और माता-पिता से रिश्तों में दूरी नहीं आ जाएगी? (नहीं, नहीं आएगी। पहले, मुझे हमेशा लगता था कि मेरे माता-पिता ने मेरे प्रति दया दिखाई है, लेकिन परमेश्वर की संगति सुनने के बाद मुझे एहसास हो गया है कि मेरे माता-पिता का उद्देश्य मुझे जन्म देना और पाल-पोस कर बड़ा करना था। इसके अलावा, बचपन से ही उन्होंने जो विचार मुझमें पिरोए थे वे मुझे भ्रष्ट कर रहे थे। यह पहचान लेने के बाद उनके साथ मेरे संबंध ज्यादा स्नेहपूर्ण नहीं हैं।) सबसे पहले तो अपने विचारों के मामले में, लोगों को अब अपने माता-पिता की जिम्मेदारियों और उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने में दिखाए अनुग्रह की बिल्कुल सही समझ है; वे अब उनसे पेश आने में स्नेह, गर्ममिजाजी या शारीरिक रक्त संबंधों पर भरोसा नहीं करते। इसके बजाय वे अपने परिवार और माता-पिता से तार्किक ढंग से सही नजरिये और स्थान से पेश आ सकते हैं। इस तरह लोग ये मसले सँभालने को लेकर एक अहम परिवर्तन से गुजरते हैं, और यह परिवर्तन उन्हें जीवन प्रवेश और परमेश्वर की उनसे अपेक्षाओं के संदर्भ में बड़ी लंबी छलांग लगाने देता है। इसलिए इन विषयों के बारे में संगति करना लोगों के लिए लाभकारी और जरूरी है, क्योंकि ये वो तमाम चीजें हैं जिनकी लोगों को जरूरत है और जिनका उनमें अभाव है।
पहले हमने एक व्यक्ति के परिवार द्वारा उसे दी गई शिक्षा को लेकर जिन विषयों पर संगति की थी, उनमें दूसरी कई चीजों के साथ, मुख्य रूप से स्वयं के आचरण के लक्ष्य और सिद्धांत, दुनिया से निपटने के तरीके और साधन और जीवन और अस्तित्व पर व्यक्ति के नजरिये, जीवित रहने के तरीके और नियम शामिल थे। ये सब वे विषय हैं जो लोगों की शिक्षा और उनके विचारों और नजरियों से जुड़े हुए हैं। कुल मिलाकर परिवारों और माता-पिता द्वारा पिरोये गए कोई भी विचार और नजरिये सकारात्मक नहीं हैं, और इनमें से कोई भी किसी व्यक्ति को सही पथ का सच्चा मार्गदर्शन नहीं दे सकता, या जीवन पर सही नजरिया रखने में मदद नहीं कर सकता, ताकि वे सृष्टिकर्ता की मौजूदगी में एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने योग्य बन सकें। माता-पिता और परिवार तुम्हें जो-कुछ भी सिखाते हैं, वह तुम्हें संसार और उसकी बुरी प्रवृत्तियों की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए होता है। इन विचारों और नजरियों से तुम्हें शिक्षा देने का उनका प्रयोजन समाज और बुरी प्रवृत्तियों में तुम्हारे आसानी से घुल-मिल जाने और बुरी प्रवृत्तियों और विविध सामाजिक माँगों में बेहतर ढंग से ढल जाने में मदद के लिए होता है। एक ओर तो ये शिक्षाएँ तुम्हें रक्षा के खास साधन और तरीके और साथ ही समाज और लोगों के समूहों में बेहतर हैसियत, शोहरत, भौतिक आनंद और दूसरी चीजें हासिल करने के तरीके दे सकती हैं, तो दूसरी ओर तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हारे भीतर पिरोए गए यही विचार तुम्हें एक बुरी प्रवृत्ति से दूसरी में आगे बढ़ाते जाते हैं, जिससे तुम इस दुनिया, समाज और बुरी प्रवृत्तियों में इतना फँस जाते हो कि खुद को बाहर नहीं निकाल पाते। ये तुम्हें एक-के-बाद-एक मुसीबत में डाल देते हैं, बारंबार दुविधा में डाल देते हैं, और तुम समझ नहीं पाते कि इंसानी दुनिया का सामना कैसे करें, ऐसा सच्चा इंसान कैसे बनें जो प्रकाश में जिए, ईमानदार और दयावान हो, और जिसमें न्याय की भावना हो। इसलिए, तुम्हारे परिवार की शिक्षा तुम्हें इस दुनिया में अधिक प्रतिष्ठा, चरित्र और मानवता के साथ जीने में सक्षम नहीं बनाती। इसके बजाय इसके कारण तुम विविध पेचीदा टकरावों और संघर्षों, विविध जटिल आपसी रिश्तों के बीच जीने लगते हो, और यह तुम्हें अनगिनत सांसारिक उलझनों, बंधनों और परेशानियों में झोंक देती है। जब तुम अपने माता-पिता के सामने इन सबके बारे में अपने मन की बात रखते हो, तो वे तुम्हें यह परामर्श देने के लिए तरह-तरह की चालें चलेंगे कि लोगों के बीच जीते समय कैसे ज्यादा धूर्त, चालबाज, दुनियादार इंसान बना जाए जिसे लोग आसानी से पहचान न पाएँ, न कि वे तुम्हें सही दिशा दिखाने, इन चीजों को जाने देकर खुद को मुक्त करने, सृष्टिकर्ता के समक्ष आने और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने, और साफ तौर पर यह पहचानने में मदद करेंगे कि लोगों की नियति और उनका सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, और उन्हें परमेश्वर की हर अपेक्षा, उसकी संप्रभुता और आयोजनों के प्रति समर्पण करना चाहिए। यह उन लोगों की जीने की स्थिति है जिनके परिवारों ने उन्हें विविध विचारों की शिक्षा दी है। संक्षेप में कहें, तो तुम्हारे परिवार द्वारा शिक्षा में दिए गए विचार, चाहे शोहरत पर जोर देते हों या लाभ पर, दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने पर या मित्रता से रहने पर, वे चाहे जिस पर भी जोर दें, आखिरकार वे इंसानी दुनिया में जीवित रहने के तुम्हारे साधनों, तरीकों और नियमों को उस दिशा में आगे बढ़ा सकते हैं, जिससे तुम ज्यादा परिष्कृत, निर्मम, कपटी और द्वेषपूर्ण बन जाओ, बजाय इसके कि वे तुम्हें ज्यादा ईमानदार, दयालु, सच्चा बनाएँ, या इस बात की बेहतर समझ हासिल करने में तुम्हारी मदद करें कि सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं को कैसे समर्पित हों। इसलिए, तुम्हारे परिवार द्वारा दी गई शिक्षा तुम्हें सिर्फ परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों से दूर कर सकता है, तुम्हें इस बारे में अनिश्चित बना सकता है कि इंसानों को जैसे रहना चाहिए वैसे गरिमामय ढंग से कैसे रहें। इसके अलावा, जो विचार तुमने अपने परिवार की शिक्षा से प्राप्त किए, वे तुम्हें ज्यादा-से-ज्यादा संवेदनहीन, कुंद या बोलचाल की भाषा में कहें तो मोटी चमड़ी का बना देते हैं। शुरू में, अपने सहयोगियों, सहपाठियों और मित्रों से झूठ बोलने पर तुम झेंप जाते थे, तुम्हारी धड़कन तेज हो जाती थी, और तुम्हारे जमीर को अपराध बोध होता था। वक्त के साथ ये तमाम सचेतन प्रतिक्रियाएँ धीरे-धीरे मिट जाएँगी : तुम्हारे चेहरे पर शर्म नहीं होगी, दिल तेज नहीं धड़केगा, और अब तुम्हारा जमीर तुम्हें नहीं सताएगा। जीवित रहने के लिए, तुम कोई भी साधन अपना लोगे, यहाँ तक कि अपने माता-पिता, अपने भाई-बहनों और अपने प्रिय मित्रों सहित अपने निकटतम परिजनों को धोखा तक दे दोगे। अपना जीवन सँवारने और अपना सम्मान और आनंद बढ़ाने के लिए तुम उनसे लाभ उठाने की कोशिश करोगे—यह संवेदनहीनता है। शुरुआत में, तुम्हें जरा-सा आत्मदोष महसूस हो सकता है, तुम्हारा जमीर हल्के-से काँप सकता है। वक्त के साथ, ये संवेदनाएँ गायब हो जाएँगी, और तुम खुद को आराम पहुँचाने के लिए और ज्यादा विश्वसनीय कारण इस्तेमाल करोगे, कहोगे, “लोग ऐसे ही होते हैं। इस दुनिया में तुम नर्म-दिल नहीं हो सकते। दूसरों के प्रति नर्म-दिल होना यानी खुद से क्रूर होना है। इस दुनिया में कमजोर लोग ताकतवर लोगों का शिकार बन जाते हैं। ताकतवर फलते-फूलते हैं और कमजोर तबाह हो जाते हैं, विजेता राजा बन जाते हैं और हारनेवाले अपराधी। अगर तुम कामयाब होते हो, तो कोई जाँच नहीं करेगा कि तुम कैसे कामयाब हुए, लेकिन अगर तुम नाकामयाब रहे, तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं बचेगा।” अंत में लोग खुद को मनाने के लिए इन विचारों और नजरियों का प्रयोग करेंगे, इन्हें हर चीज के अपने अनुसरण का आधार और बेशक उद्देश्य प्राप्ति का साधन बनाएँगे। तो फिलहाल तुम सब खुद को कहाँ पाते हो? तुम लोग संवेदनहीनता की हद तक पहुँच गए हो, या अभी नहीं? मान लो कि तुम्हें कोई व्यापार शुरू करना हो, और यह व्यापार तुम्हारे भविष्य से, तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता से, समाज में तुम्हारी शोहरत से जुड़ा हुआ हो। अगर तुम्हारे तरीके काफी कपटी हों और तुम किसी को भी धोखा दे सको, तो फिर तुम बाकी सबसे अच्छा जीवन जियोगे, तुम्हारे पास नकदी का बहुत बड़ा अंबार होगा, और अब तुम्हें किसी की इच्छा के आगे सिर झुकाने की जरूरत नहीं होगी। तब तुम क्या करोगे? क्या तुम इतने संवेदनहीन, इतने निर्मम हो जाओगे कि तुम किसी को भी धोखा दे दो और किसी से भी पैसा बना लो? (मैं शायद ऐसा करूँगा।) तुम शायद ऐसा करोगे। इसे बदलने की जरूरत है; यह मानवता में गहरे पैठा भ्रष्ट स्वभाव है। जब मानवता मौजूद नहीं होती, तो जो बच जाता है वह अपने भ्रष्ट स्वभाव और साथ ही शैतान द्वारा पिरोये गए विविध विचारों और नजरियों के अनुसार जिया हुआ जीवन होता है। जमीर, समझ और शर्म की भावना के बिना किसी व्यक्ति का जीवन महज एक खोखला ढाँचा, एक खाली बर्तन रह जाता है, और वह अपना मूल्य खो देता है। अगर तुममें अभी भी थोड़ी लज्जा बची है और झूठ बोलते, धोखा देते या दूसरों को नुकसान पहुँचाते वक्त तुम यह चुन पाते हो कि तुम ऐसा किसके साथ करोगे, तुम बस किसी को भी हानि नहीं पहुँचा देते, तो तुममें अभी भी थोड़ा जमीर और मानवता बची है। लेकिन अगर तुम बिना किसी रोक-टोक के किसी को भी नुकसान पहुँचा सकते हो तो तुम सच में पूरी तरह से एक जीता-जागता शैतान हो। अगर तुम कहते हो, “मैं अपने माता-पिता, रिश्तेदारों, मित्रों, निष्कपट लोगों और खासकर परमेश्वर के घर के अपने भाई-बहनों को धोखा नहीं दे सकता, और मैं परमेश्वर के चढ़ावों के साथ धोखा नहीं कर सकता,” तो तुममें अभी भी कुछ नैतिक सीमाएँ हैं, और तुम्हें अभी भी थोड़ा जमीर वाला इंसान माना जा सकता है। लेकिन अगर तुममें इतना थोड़ा-सा जमीर और सीमाएँ नहीं हैं, तो तुम इंसान कहलाने लायक नहीं हो। तो तुम सब किस मुकाम पर पहुँच गए हो? क्या तुम लोगों की कुछ सीमाएँ हैं? अगर तुम लोगों के पास मौका होता या तुम्हें कोई वास्तविक जरूरत होती, तो क्या तुम अपने माता-पिता, अपने भाई-बहनों और अपने निकटतम मित्रों को धोखा देते? क्या तुम अपने भाई-बहनों को धोखा देते, उनका फायदा उठाते, या परमेश्वर के चढ़ावों के साथ धोखा करते? अगर तुम्हें ऐसा मौका दिया जाता और कोई कभी पता नहीं लगा पाता, तो क्या तुम ऐसा करते? (अब ऐसा लगता है कि मैं आगे ऐसा नहीं कर सकती।) तुम अब ऐसा क्यों नहीं कर सकते? (क्योंकि मैं परमेश्वर से डरती हूँ, मेरा दिल परमेश्वर का भय मानता है, और इसलिए भी कि मेरा जमीर इसकी इजाजत नहीं देता।) तुम्हारा रवैया है कि तुम दिल से डरते हो, तुम्हारा दिल परमेश्वर का भय मानता है, और तुम्हारा जमीर इसकी इजाजत नहीं देता। चलो, दूसरों को बोलने देते हैं। क्या तुम लोगों में इसको लेकर कोई रवैया है? अगर नहीं है, अगर तुमने कभी भी इस मसले पर विचार नहीं किया, और दूसरों को यह करते हुए देख कर तुम कुछ भी महसूस नहीं करते, तो तुम खतरे में हो। अगर किसी को ऐसा करते हुए देखकर भी तुम्हें घृणा नहीं होती, इस बारे में तुम्हारा कोई रवैया नहीं है, तुम संवेदनहीन महसूस करते हो, तो तुम उनसे बिल्कुल अलग नहीं हो, और संभव है तुम उनके जैसा ही करो। लेकिन, अगर इस बारे में तुम्हारा रवैया स्पष्ट है, अगर तुम ऐसे लोगों से घृणा कर उन्हें फटकार सकते हो, तो शायद तुम ऐसे काम न करो। तो तुम लोगों का रवैया क्या है? (मेरे दिल में परमेश्वर का भय होना चाहिए। परमेश्वर के चढ़ावे पवित्र मानकर अलग रखे जाते हैं, और उनके साथ बिल्कुल छेड़छाड़ नहीं की जा सकती या उन्हें निजी उपयोग के लिए नहीं लिया जा सकता।) चढ़ावों का निजी उपयोग नहीं किया जाना चाहिए : यह दंड के डर से किया जाता है। लेकिन दूसरे मामलों का क्या? अगर तुम किसी पिरामिड योजना से जुड़े होते, तो क्या तुम अपने निकटतम मित्रों का लाभ उठा सकते थे, चिकनी-चुपड़ी बातों से उन्हें धोखा दे सकते थे, और उन्हें अपनी योजना में शामिल कर इससे फायदा और पैसा कमा सकते थे? क्या तुम अपने निकटतम मित्रों, रिश्तेदारों, अपने माता-पिता या भाई-बहनों के साथ भी यह कर सकते हो? अगर तुम्हारे लिए यह बताना मुश्किल हो, तो जब तुम कहते हो कि तुम निजी उपयोग के लिए परमेश्वर के चढ़ावे नहीं लोगे, तो शायद यह तुम्हारे लिए मुमकिन न हो, है न? किसी दूसरे को बोलने देते हैं। (एक अर्थ में, हमें इस मामले में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझना चाहिए। परमेश्वर के चढ़ावों को कभी हाथ नहीं लगाना चाहिए। दूसरे अर्थ में, हमें लगता है कि ऐसा कुछ करने में मानवता नहीं है। कम-से-कम, सबसे निचली आधाररेखा यह होनी चाहिए कि उनका जमीर इसकी इजाजत दे।) तुम्हारा रवैया यह है कि ऐसे काम करने में मानवता नहीं है, और किसी को वही चीजें करनी चाहिए जिनकी इजाजत उनका जमीर देता है। क्या और कोई है? (मैं सोचता हूँ कि एक इंसान के रूप में, भले ही कोई परमेश्वर में विश्वास न रखता हो, अगर वह इस दुनिया का ऐसा इंसान है जिसमें जमीर और नैतिक आधाररेखा है, तो उसे ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उसके खुद के परिवार को हानि हो। अब चूँकि हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और कुछ सत्य समझते हैं, इसलिए अगर अब भी कोई ऐसे काम करता है जिनसे उसके भाई-बहनों और मित्रों को हानि होती है, या वह परमेश्वर के चढ़ावों के साथ धोखा करता है, तो ऐसा व्यक्ति गैर-विश्वासी से भी बदतर है। इसके अलावा, कभी-कभी लोग कुछ विचार और ख्याल प्रकट कर सकते हैं लेकिन जब वे परमेश्वर के स्वभाव सार के बारे में सोचते हैं, और उन्हें एहसास होता है कि आसपास कोई न भी देख रहा हो, या किसी को इन कार्यों का पता न भी चले, फिर भी परमेश्वर हर चीज की जाँच करता है, और उन्हें ऐसी चीजें करने की हिम्मत नहीं करनी चाहिए—उनका दिल परमेश्वर का थोड़ा भय जरूर मानता होगा।) एक अर्थ में, इस तरह काम करना यह दर्शाता है कि लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाले दिल नहीं है; दूसरे अर्थ में, जो लोग ऐसा करने में सक्षम होते हैं, उनमें सबसे बुनियादी मानवता भी नहीं होती। ऐसा इसलिए कि एक इंसान के रूप में, भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास न रखो, तुम्हें ऐसे काम नहीं करने चाहिए। यह वह गुण है जो एक जमीर और मानवता वाले इंसान में होना चाहिए। धोखाधड़ी, नुकसान पहुँचाना, चोरी करना वो सहज चीजें हैं जो एक नेक और सामान्य इंसान को नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर में विश्वास न रखने वाले लोग भी अपने आचरण में कुछ सीमाएँ बना कर रखते हैं, परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और बहुत-से धर्मोपदेश सुनने वाले तुम लोगों की तो बात ही छोड़ो : अगर तुम अभी भी ऐसे काम करने में सक्षम हो, तो तुम्हें छुटकारा नहीं मिल सकता। यह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता नहीं है—एक दानव है। तुमने बहुत-से धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी तुम धोखाधड़ी और हेराफेरी के तमाम बुरे काम कर सकते हो—यही है छद्म-विश्वासी होने का अर्थ। छद्म-विश्वासी क्या है? वह ऐसा व्यक्ति है जिसे परमेश्वर के निरीक्षण पर या उसके धार्मिक होने पर विश्वास नहीं है। अगर तुम परमेश्वर के निरीक्षण पर यकीन नहीं करते, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम उसके अस्तित्व पर यकीन नहीं करते? तुम कहते हो, “परमेश्वर मेरा निरीक्षण कर रहा है, लेकिन परमेश्वर है कहाँ? मैंने उसे क्यों नहीं देखा? मैं उसे महसूस क्यों नहीं करता? मैं इतने वर्षों से लोगों के साथ धोखा और हेराफेरी करता रहा हूँ; मैं दंडित क्यों नहीं हुआ? मैं अभी भी दूसरों के मुकाबले ज्यादा आरामदेह जीवन जी रहा हूँ।” एक छद्म-विश्वासी के व्यवहार का यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि चाहे जितने भी सत्य पर संगति की गई हो, वे उसे पूरी तरह ठुकरा देते हैं। वे सत्य को कभी नहीं स्वीकारते, तो फिर वे क्या स्वीकारते हैं? वे उन विचारों और नजरियों को स्वीकारते हैं, जो उन्हें फायदा पहुँचाते हैं। उन्हें जिस भी चीज से फायदा होता है, उनके हितों की रक्षा होती है वे वही काम करते हैं। वे केवल तत्काल आत्म-हित में विश्वास रखते हैं, परमेश्वर के निरीक्षण में या प्रतिकार की संकल्पना में नहीं। छद्म-विश्वासी होने का यही अर्थ है। किसी छद्म-विश्वासी के लिए परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या अर्थ है? परमेश्वर के घर के छद्म-विश्वासियों का एक लक्षण होता है : बुरे कर्म करना। लेकिन छोड़ो, हम इन लोगों के चरम अंत की चर्चा नहीं करेंगे; आओ जिस विषय पर हम संगति कर रहे थे, उस पर लौट चलें।
लोगों के परिवारों द्वारा उन्हें शिक्षा में दिए गए और उनमें पिरोए गए विचार उन्हें परमेश्वर के समक्ष लाने के उद्देश्य से नहीं होते, न ही वे उनमें सकारात्मक विचार पिरोते हैं। इसके बजाय, वे उनमें विविध नकारात्मक विचार, नकारात्मक साधन, सिद्धांत और आचरण के तरीके पिरोते हैं, जिससे आखिरकार लोग वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँ से वे लौट नहीं सकते। संक्षेप में कहें, तो वो तरह-तरह के विचार जो परिवार लोगों में पिरोते हैं, वे मानवता के उन आधारभूत मानकों, समझ और जमीर पर भी खरे नहीं उतरते, जो एक व्यक्ति में होने चाहिए। अगर किसी में जरा-सा भी जमीर और समझ हो, तो यही वह है जो जरा-सा बचा होता है जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जाना या नष्ट किया जाना बाकी है। उनके आचरण के बाकी साधन और तरीके उनके परिवार और यहाँ तक कि समाज से भी उन्हें मिलते हैं। इसलिए व्यक्ति के बचाए जाने से पहले, उसके परिवार द्वारा उन्हें दी गई किसी भी विचार या नजरिये की शिक्षा, चाहे वह कुछ भी हो, परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई शिक्षा के विपरीत होती है। वह उसे सत्य नहीं समझा सकती, न ही उसे उद्धार के पथ पर आगे बढ़ा सकती है; वह उन्हें सिर्फ विनाश के पथ पर आगे ले जाती है। इसलिए जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर में आता है, तो उसकी उम्र चाहे जो हो, उसने कैसी भी शिक्षा पाई हो, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि चाहे जैसी हो, और वह अपनी हैसियत को चाहे जितनी कुलीन मानता हो, उसे बिल्कुल शुरुआत से सीखना होता है कि कैसे आचरण करें, दूसरों से बातचीत कैसे करें, तरह-तरह के मामले कैसे सँभालें, और विविध लोगों और चीजों से कैसे पेश आएँ। सीखने की इस प्रक्रिया में परमेश्वर के विविध सकारात्मक सत्य-संरेखित विचारों और नजरियों और साथ ही अभ्यास और विविध मामलों को सँभालने के सिद्धांतों को पाना और समझना शामिल है। यह पूरी तरह से तुम्हारे सत्य को स्वीकार करने पर आधारित होता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, तो तुम्हारे मूल विचार और नजरिये अपरिवर्तित रह जाएँगे। चूँकि तुम परमेश्वर से आने वाले सही विचारों और नजरियों को स्वीकार नहीं करते, इसलिए दुनिया से निपटने के तुम्हारे सिद्धांत, साधन और तरीके वही पुराने और अपरिवर्तित रह जाते हैं। जब लोग सकारात्मक विचार और नजरिये, सत्य और परमेश्वर की शिक्षाएँ स्वीकार करने लगते हैं, तो वे सीखने लगते हैं कि सच्चा इंसान, सामान्य इंसान और विवेक व जमीर वाला इंसान कैसे बनें। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने दस, बीस, तीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और मैंने अभी तक परमेश्वर का एक भी विचार और नजरिया या उसके वचनों का कोई भी सत्य स्वीकार नहीं किया है।” यह ये दिखाने के लिए काफी है कि परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सच्चा नहीं है, तुम अभी भी नहीं जानते कि सत्य क्या है, और तुमने अभी भी नहीं सीखा है कि आचरण कैसे करें। अगर तुम कहते हो, “जिस पल से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, उसी पल से मैंने औपचारिक रूप से मनुष्य से परमेश्वर की विविध अपेक्षाओं, और मनुष्य में जो विचार, नजरिये, सिद्धांत और कहावतें होनी चाहिए, उनके बारे में परमेश्वर की शिक्षाओं को स्वीकारना शुरू कर दिया,” तो फिर तुम परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के दिन से ही तुमने सीखना शुरू कर दिया कि सच्चा इंसान कैसे बनें, और जैसे ही तुमने सीखना शुरू किया कि सच्चा इंसान कैसे बनें, तभी से उद्धार के पथ पर चलना शुरू कर दिया। जिस पल तुम परमेश्वर से आने वाले विचारों और नजरियों को स्वीकारना शुरू कर देते हो, उसी पल तुम उद्धार के पथ पर चलना शुरू कर देते हो, क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।) तो, क्या तुम लोगों ने शुरू किया है? तुम शुरू कर चुके हो, क्या तुमने अभी शुरू नहीं किया, या तुमने बहुत पहले ही शुरू कर दिया था? (परिवार की शिक्षा सहित लोगों में मौजूद गलत विचारों और नजरियों के बारे में पिछले दो वर्षों से हुई परमेश्वर की संगति और विश्लेषण के जरिये मैंने आत्मचिंतन कर धीरे-धीरे अपने शैतानी फलसफों को नकारना और परमेश्वर के वचनों की ओर प्रयास करने के तरीकों पर चिंतन करना शुरू कर दिया है। मैंने पहले कभी ऐसे गहरे आत्म-निरीक्षण पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था।) यह वक्तव्य काफी वास्तविक है। तुमने सिर्फ दो वर्ष के भीतर कभी शुरू किया; सटीक वर्ष या दिन बताना सचमुच मुश्किल है, मगर जो भी हो, यह पिछले एक या दो वर्ष में हुआ। यह अपेक्षाकृत वस्तुपरक है। दूसरे लोगों का क्या? (मैंने सच में नहीं सोचा कि अपने परिवार द्वारा शिक्षा में दिए गए विचारों और नजरियों को बदलने की कोशिश कैसे करूँ। हाल ही में, इस बारे में परमेश्वर की संगति सुनने के बाद, मेरे विचार धीरे-धीरे थोड़ा-बहुत बदलने लगे हैं, लेकिन मैंने इस मामले में बदलाव के प्रयास पर खास तौर पर ध्यान नहीं दिया है।) तुम्हारी चेतना ज्यादा बोधपूर्ण हुई है। अपने दैनिक जीवन में अगर तुम खोज करते हुए और अधिक गहराई में प्रवेश करना जारी रख सको, विशिष्ट मामलों में और ज्यादा सूक्ष्म और सटीक हो सको, इसमें और ज्यादा शुद्धता से प्रवेश कर सको, तो तुम बदलाव की आशा कर सकोगे। ऐसी ही बात है न? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम पुराने विचारों और नजरियों को छोड़ देने और फिर सही रवैये और नजरिये से लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने की आशा रखते हो, तो तुम उद्धार प्राप्त कर सकोगे। लंबी समयावधि में, तुम उद्धार प्राप्त कर सकोगे, मगर ज्यादा व्यावहारिकता से वर्तमान की बात करें, तो तुम अपना कर्तव्य निभाने, और खास तौर से एक अगुआ और कार्यकर्ता बनने के लिए उपयुक्त हो सकोगे; मगर यह इस पर निर्भर करेगा कि क्या तुम सत्य के प्रत्येक अंश के लिए प्रयास करने को तैयार हो, और क्या तुम सकारात्मक चीजों और सिद्धांतों से जुड़े विविध मामलों की कीमत चुकाने को तैयार हो। अगर तुम केवल अपनी चेतना में खुद को बदलना चाहते हो, मगर अपने दैनिक जीवन में सत्यों के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करते और गंभीर नहीं होते, अगर तुम्हारा दिल सकारात्मक चीजों का प्यासा नहीं है, तो यह चेतना जल्द ही फीकी पड़कर गायब हो जाएगी। मेरी संगति के प्रत्येक विषय से जुड़े प्रत्येक विचार और नजरिये को लोगों के वास्तविक जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। यह कोई सिद्धांत या नारा नहीं है; यह तुम्हारे दैनिक जीवन में चीजों से निपटने के तुम्हारे विचारों और नजरियों के बारे में है। तुम्हारे विचार और नजरिये वह दिशा निर्धारित करते हैं, जिसकी ओर तुम कार्य करते समय झुकते हो। अगर तुम्हारे विचार और नजरिये सकारात्मक हैं, तो इन चीजों को सँभालने के तुम्हारे तरीके और सिद्धांत भी सकारात्मक होने लगेंगे, और ऐसे मामलों को सँभालने का नतीजा अपेक्षाकृत अच्छा और परमेश्वर के इरादों के अनुसार होगा। लेकिन अगर तुम्हारे विचार और नजरिये सत्य और सकारात्मक चीजों के विरुद्ध हों, या इन चीजों के विपरीत हों, तो कोई चीज तुम कैसे सँभालते हो उसकी प्रेरणा नकारात्मक होगी, और उस मामले को संभालने का अंतिम परिणाम यकीनन अच्छा साबित नहीं होगा। इस मामले को सँभालने में तुम चाहे जितनी कीमत चुकाओ या जितनी भी सोच लगाओ, तुम्हारे इरादे चाहे जो हों, परमेश्वर इस परिणाम को किस तरह देखेगा? परमेश्वर इस मामले को कैसे चिह्नित करेगा? अगर परमेश्वर इस मामले को बाधाजनक, गड़बड़ी पैदा करने वाला, विध्वंसक या परमेश्वर के घर में हानि पहुँचाने वाला चिह्नित कर दे, तो तुम्हारे कार्य बुरे हैं। अगर तुम्हारे बुरे कर्म मामूली हैं, तो उनकी वजह से शायद ताड़ना, न्याय, फटकार, काट-छाँट मिले, लेकिन अगर वे बड़े बुरे कर्म हैं, तो उनका नतीजा दंड हो सकता है। अगर तुम सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य नहीं करते, और इसके बजाय गैर-विश्वासियों के गलत विचारों और नजरियों की ओर झुक जाते हो, इन चीजों के आधार पर कार्य करते हो, तो तुम्हारे प्रयास बेकार हो जाएँगे। भले ही तुमने बड़ी कीमत चुकाई हो और बहुत अधिक प्रयास किए हों, फिर भी तुम्हारा अंतिम परिणाम बेकार ही होगा। परमेश्वर इस मामले को किस दृष्टि से देखता है? वह इसे कैसे चिह्नित करता है? वह इससे कैसे निपटता है? कम-से-कम यह होगा कि तुम्हारे कृत्य अच्छे नहीं हैं, वे परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही उसका महिमामंडन करते हैं, और तुमने जो कीमत चुकाई और जो मानसिक प्रयास किए उन्हें याद नहीं रखा जाएगा; ये सब बेकार हैं। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तुम कुछ भी करने से पहले समय निकाल कर सावधानी से सोचो, दूसरों से ज्यादा संगति करो, कार्य करने से पहले सिद्धांतों पर स्पष्टता खोजो, और अपने स्वार्थ या आकांक्षाओं के फेर में गर्ममिजाजी से या आवेग में कार्य मत करो। परिणाम चाहे जो भी हो, अंत में तुम्हें ही झेलना होगा, परिणाम चाहे जो भी हो, परमेश्वर का एक फैसला आएगा। अगर तुम यह आशा करते हो कि तुम्हारे कार्य बेकार नहीं जाएँगे, परमेश्वर उन्हें याद रखेगा, या उससे भी बेहतर वे ऐसे नेक कार्य बन जाएँगे जिनसे परमेश्वर प्रसन्न होगा, तो तुम्हें सिद्धांतों को बार-बार खोजना चाहिए। अगर तुम्हें इन चीजों की परवाह नहीं है, तुम्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे कार्य नेक हैं या नहीं, परमेश्वर उनसे प्रसन्न है या नहीं, तुम्हें दंड पाने की परवाह नहीं है, मगर तुम सोचते हो, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वैसे भी ये मुझे अभी न तो दिखेंगे, न ही महसूस होंगे,” अगर तुम्हारे मन में ये विचार और नजरिये हैं, तो फिर कार्य करते समय तुम्हारा दिल परमेश्वर का भय मानने वाला नहीं होगा। तुम दबंग, निरंकुश और लापरवाह होगे, तुम्हें किसी भी चीज की चिंता नहीं रहेगी, प्रतिबंध नहीं होगा। परमेश्वर का भय न मानने वाले दिल से कार्य करते समय तुम जिस दिशा में जाओगे, उसमें भटकाव बहुत संभव है। मानव प्रकृति और सहजबोध के अनुसार संभवतः अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हारे कार्यों से परमेश्वर न तो प्रसन्न होगा, न ही इन्हें याद रखेगा, बल्कि वे बाधाएँ, गड़बड़ियाँ और दुष्कर्म बन जाएँगे। तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा, और परमेश्वर इसके साथ कैसे पेश आएगा और इसे कैसे संभालेगा। इसलिए कुछ भी करने से पहले, कोई भी मामला सँभालने से पहले, तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए कि तुम्हें क्या चाहिए, अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए कि इस मामले का अंतिम परिणाम क्या होगा, और तभी आगे बढ़ना चाहिए। तो इस मसले में कौन-सी बातें शामिल हैं? इसमें वह रवैया और सिद्धांत शामिल हैं जिनका पालन तुम कोई कार्य करते हुए करते हो। सबसे बढ़िया रवैया है कि सिद्धांतों को बार-बार खोजना, और अपना फैसला अपनी समझ, पसंद, इरादों, आकांक्षाओं या तत्काल हितों के आधार पर न लेना; इसके बजाय तुम्हें बार-बार सिद्धांत खोजने चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना और खोज करनी चाहिए, बार-बार भाई-बहनों के समक्ष मामले लाने चाहिए, और कर्तव्य निभाने में अपने साथ काम कर रहे भाई-बहनों के साथ संगति और खोज करनी चाहिए। कार्य करने से पहले सिद्धांतों को सही-सही समझो; आवेग में कार्य मत करो, भ्रमित मत रहो। तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों रखते हो? तुम यह भोजन पाने, वक्त काटने, फैशन के चलन से जुड़े रहने, या अपनी आध्यात्मिक जरूरतें पूरी करने के लिए नहीं करते। तुम यह बचाए जाने के लिए करते हो। तो तुम कैसे बचाए जा सकोगे? तुम जब कोई भी काम करो, तो उसे उद्धार, परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य से जुड़ा होना चाहिए, है कि नहीं?
अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा को जाने देने के विषय के बारे में हमारी पिछली संगति में स्वयं के व्यवहार से संबंधित नियम और विविध विचार और नजरिये शामिल थे, जिसमें परिवार द्वारा लोगों के विचारों की शिक्षा शामिल होती है। लेकिन परिवारों द्वारा लोगों को विचार के स्तर पर तरह-तरह की शिक्षाएँ देने और उन पर प्रभाव डालने के अलावा और भी शिक्षाएँ होती हैं। यानी परिवार द्वारा दी गई शिक्षा में सिर्फ विचारों की शिक्षा ही नहीं, बल्कि और भी बहुत कुछ शामिल होता है। अभी हमने जो चर्चा की उसके अलावा इसमें पारंपरिक, अंधविश्वासी और धार्मिक शिक्षा भी शामिल होती है, जिसके बारे में हम अब संगति करेंगे। इन मामलों में जीवनशैलियाँ, रीति-रिवाज, आदतें और दैनिक जीवन की बारीकियाँ शामिल हैं। लोगों के दैनिक जीवन में परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के बारे में, अब हम अपनी चर्चा को परंपरा की ओर मोड़ेंगे। परंपरा के कुछ उदाहरण क्या हैं? मिसाल के तौर पर, हो सकता है कोई परिवार दैनिक जीवन की बारीकियों से संबंधित कुछ विशेषताओं, कहावतों या प्रतिबंधों से चिपका रहता है। क्या इसमें परंपरा शामिल है? (हाँ।) परंपरा कुछ हद तक अंधविश्वास से जुड़ी हुई और संबंधित है, इसलिए हम दोनों पर एक साथ चर्चा करेंगे। परंपरा के भीतर के कुछ पहलुओं को अंधविश्वास माना जा सकता है, और अंधविश्वास में ऐसी चीजें हैं जो बहुत पारंपरिक नहीं हैं और सिर्फ अलग-अलग परिवारों या नस्ली समूहों से जुड़ी आदतें या जीने के तरीके हैं। आओ, इस पर नजर दौड़ा कर देखें कि परंपराओं और अंधविश्वासों में क्या होता है। तुम सब बहुत-सी परंपराओं और अंधविश्वासों से पहले ही परिचित हो, क्योंकि तुम्हारे दैनिक जीवन के अनेक पहलू उनसे जुड़े हुए हैं। चलो, उनमें से कुछ चीजें बताओ। (ज्योतिष, हस्तरेखा विद्या और पर्ची निकालना।) पर्ची निकालना, ज्योतिष, भविष्य बताना, हस्तरेखा विद्या, चेहरा पढ़ना, जन्म समय देखकर भविष्य बताना, और आत्मा-आह्वान बैठकें करना—इन चीजों को अंधविश्वास नहीं कहा जाता; ये सब अंधविश्वासी गतिविधियाँ हैं। अंधविश्वास इन गतिविधियों के भीतर मौजूद विशिष्ट व्याख्याएँ है। मिसाल के तौर पर, घर से बाहर जाने से पहले यह निर्धारित करने के लिए कैलेंडर देखना कि आज का दिन कौन-सी गतिविधियों के लिए शुभ है और कौन-सी के लिए अशुभ, क्या सभी गतिविधियों के लिए अशुभ है, क्या घर बदलने, शादी करने और अंत्येष्टि सभी के लिए अशुभ है, या आज का दिन सभी गतिविधियों के लिए शुभ है—यह अंधविश्वास है। समझ रहे हो? (हाँ, समझ गया।) कुछ और उदाहरण दो। (यह विश्वास कि बाईं आँख का फड़कना अच्छे भाग्य की भविष्यवाणी करता है, लेकिन दाईं आँख का फड़कना विपत्ति की भविष्यवाणी करता है।) “बाईं आँख का फड़कना अच्छे भाग्य की भविष्यवाणी करता है, लेकिन दाईं आँख का फड़कना विपत्ति की भविष्यवाणी करता है”—यह क्या है? (एक अंधविश्वास।) यह एक अंधविश्वास है। मैंने अभी जिन सभी चीजों का जिक्र किया, जैसे कि भविष्य बताना, पर्ची निकालना, हस्तरेखा विद्या, वगैरह अंधविश्वासी गतिविधियों में आते हैं। “बाईं आँख का फड़कना अच्छे भाग्य की भविष्यवाणी करता है, लेकिन दाईं आँख का फड़कना विपत्ति की भविष्यवाणी करता है” अंधविश्वासी गतिविधि से संबंधित एक विशिष्ट कहावत है। यह एक अंधविश्वास है। ये कहावतें कहाँ से आती हैं? ये सारी मूल रूप से पुरानी पीढ़ियों से आती हैं। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, कुछ दादा-दादी, परदादा-परदादी, वगैरह-वगैरह। और भी कुछ है? (हे परमेश्वर, क्या छुट्टियों के रिवाज इसमें आते हैं?) हाँ, छुट्टियों के रिवाज भी इसमें आते हैं : कुछ परंपरा से जुड़े होते हैं, और कुछ परंपरा और अंधविश्वासी कहावतें दोनों हैं। चीन में दक्षिण से लेकर उत्तर और पूर्व से लेकर पश्चिम तक, छुट्टियों के अनगिनत रिवाज हैं। मिसाल के तौर पर दक्षिण चीन के एक विशिष्ट रिवाज पर गौर करो : चीनी नव वर्ष के दौरान लोग अक्सर चावल केक खाते हैं। यह किसका प्रतीक है? चावल केक खाने के पीछे लोगों का प्रयोजन क्या है? (वे मानते हैं कि चावल केक खाने से साल-दर-साल उनकी पदोन्नति होगी।) चावल केक खाने का प्रयोजन साल-दर-साल पदोन्नति सुनिश्चित करना है। यहाँ “पदोन्नति” शब्द “केक” के लिए चीनी शब्द का समस्वर है। तो चावल केक खाने का प्रयोजन यह सुनिश्चित करना है कि हर वर्ष तुम्हारी पदोन्नति हो। अब, क्या कोई ऐसा वर्ष था जब तुमने चावल केक नहीं खाया और तुम्हारी पदोन्नति नहीं हुई? क्या ऐसा कोई है जिसकी हर वर्ष चावल केक खाने के कारण हर वर्ष पदोन्नति होती है? क्या तुम सचमुच “पदोन्नत” हो सकते हो? लोग जानते हैं कि इससे पदोन्नति हो, यह जरूरी नहीं है, लेकिन न भी हो, तो भी यह कम-से-कम उन्हें नाकामयाबी से बचाएगा। इसलिए उन्हें यह खाना चाहिए। यह खाने से उन्हें आराम मिलता है, और न खाने से उन्हें बेचैनी होती है। यह अंधविश्वास और परंपरा है। संक्षेप में कहें, तो तुम्हारे परिवार की इन आदतों और परंपराओं ने तुम पर प्रभाव डाला है, और तुमने अनजाने ही कुछ हद तक इन परंपराओं और आदतों को स्वीकृति देकर उन्हें स्वीकार किया है; इस तरह तुमने इन परंपराओं द्वारा आगे बढ़ाए गए अंधविश्वासों या विचारों और नजरियों को स्वीकृति देकर उन्हें स्वीकार किया है। अपने दम पर जीना शुरू करने के बाद भी तुम इन परंपराओं और आदतों को जारी रख सकते हो। इसे नकारा नहीं जा सकता। अब चलो परंपराओं से जुड़ी कुछ कहावतों की चर्चा करें। कुछ लोग अक्सर ऐसी बातों में लगे रहते हैं : अगर कोई लंबी यात्रा पर जा रहा हो, तो वे उनके खाने के लिए कुछ मोमो बनाते हैं, और जब यात्री लौटता है, तो वे नूडल बनाते हैं। क्या यह एक परंपरा नहीं है? (हाँ।) यह एक परंपरा है, एक अलिखित रिवाज है। फिलहाल हम ऐसा करने के प्रयोजन पर चर्चा नहीं करेंगे। पहले, आओ इस कार्य के संबंध में कहे गए वक्तव्य को जाँचें। (“घर से बाहर मोमो, घर के भीतर नूडल।” या तुम यह भी कह सकते हो, “जाने के लिए मोमो, लौटने के लिए नूडल।”) “जाने के लिए मोमो, लौटने के लिए नूडल” का अर्थ क्या है? यानी, अगर आज कोई जा रहा है तो तुम्हें उसे खाने को मोमो देने चाहिए; इसकी अहमियत क्या है? मोमो एक “रैपर” यानी लपेटन में लपेटे गए होते हैं, और “रैप” शब्द का स्वर “रक्षा” के लिए चीनी शब्द के समान लगता है। तो इसका अर्थ है उसकी जीवन की रक्षा के लिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि जाने के बाद उसके साथ कोई दुर्घटना न हो, रास्ते में उसकी मृत्यु न हो और वह लौट कर जरूर आए। यह एक सुरक्षित प्रस्थान दर्शाता है। “जाने के लिए मोमो, लौटने के लिए नूडल” का अर्थ है कि वे सुरक्षित वापस लौटें और उनके लिए सब-कुछ आसान हो—कमोबेश यही इसकी महत्ता है। आम तौर पर कुछ परिवार इस परंपरा का पालन करते हैं। अगर परिवार का कोई सदस्य जा रहा हो, तो वे उसके लिए मोमो बनाते हैं, और उसके लौटने पर वे उसे नूडल खिलाते हैं। तुम चाहे इस व्यंजन को खाने वाले हो या बनाने वाले, यह वर्तमान और भविष्य दोनों में सौभाग्य लाने और सभी के कल्याण के लिए किया जाता है। क्या तुम मानते हो कि यह परंपरा एक सकारात्मक चीज है और लोगों को इसे करना चाहिए और अपने जीवन में जारी रखना चाहिए? (मैं सहमत नहीं हूँ।) कुछ भाई-बहनों को जाना है, और भोजन प्रभारी उनके लिए मोमो बनाता है, तो मैं कहता हूँ, “उनके जाने का मोमो बनाने से क्या लेना-देना?” और वे कहते हैं, “अरे, जब कोई जा रहा हो, तो हमें मोमो बनाने चाहिए।” मैं जवाब देता हूँ, “उनके जाने पर तुम मोमो बनाते हो; तो अगर वे लौट आएँ तो क्या होगा?” वे कहते हैं, “लौट आने पर उन्हें नूडल खाने होंगे।” मैं कहता हूँ, “मैंने यह पहली बार सुना है। यह परंपरा कहाँ से आती है?” वे कहते हैं, “मैं जहाँ से हूँ, वहाँ ऐसा ही होता है। अगर कोई जा रहा हो, तो हम उसके लिए मोमो बनाते हैं, और उसके वापस लौटने पर हम उसे नूडल खिलाते हैं।” इसके बाद इससे मेरे दिल पर क्या छाप पड़ी? मुझे लगा : इन लोगों ने परमेश्वर में अपनी आस्था रखी है, लेकिन वे अपने कार्य परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं करते। इसके बजाय वे भरोसा करते हैं परंपरा पर और उन बातों पर जो उनके पूर्वजों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई हैं। उन्हें विश्वास है कि एक मोमो का बाहरी लपेटन इंसान की रक्षा कर सकता है, अगर किसी को कुछ हो जाए, तो यह परमेश्वर के हाथों में नहीं; यह मनुष्य के हाथों में है। उन्हें विश्वास है कि मोमो लपेटने से जाने वाला व्यक्ति सुरक्षित हो जाएगा, और अगर उन्होंने मोमो नहीं लपेटे, तो वह व्यक्ति सुरक्षित नहीं रहेगा और शायद यात्रा में कहीं मर जाए और कभी न लौटे। उनके विचारों और नजरियों में किसी का जीवन मोमो के भीतर के भरावन जैसा है, और उसका मूल्य भी मोमो के भरावन जितना ही है। उसका जीवन परमेश्वर के हाथों में नहीं है, और परमेश्वर उस व्यक्ति की नियति को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं है। केवल एक मोमो के लपेटन का इस्तेमाल करके ही वे किसी व्यक्ति की नियति को नियंत्रित कर सकते हैं। ये कैसे लोग हैं? (छद्म-विश्वासी।) वे छद्म-विश्वासी हैं। कलीसिया में ऐसे बहुत-से लोग हैं। वे इसे अंधविश्वास नहीं मानते। वे इसे अपनी आदतों का हिस्सा मानते हैं, ऐसी चीज जिसे उन्हें स्वाभाविक रूप से एक सकारात्मक चीज के रूप में बनाए रखना चाहिए। वे ऐसा खुल कर करते हैं, और यूँ करते हैं जैसे कि वे उचित हैं और ऐसा करने के पीछे उनके पास एक आधार है। तुम उन्हें रोक नहीं सकते : अगर तुम उन्हें यह करने से रोकते हो, तो वे परेशान होकर कहते हैं, “मैं पका रहा हूँ न। कोई आज जा रहा है : अगर मैंने उसके लिए मोमो नहीं बनाए, तो अगर संयोग से उसकी मृत्यु हो गई, तो कौन जिम्मेदार होगा? क्या यह मेरी गलती नहीं होगी?” उन्हें यकीन है कि उनके पूर्वजों की परंपराएँ सबसे ज्यादा भरोसेमंद हैं : “अगर तुम परंपरा का पालन नहीं करते और इस प्रतिबंध का उल्लंघन करते हो, तो तुम्हारा जीवन जोखिम में होगा, और शायद इस वजह से तुम्हारी मृत्यु हो जाए।” क्या यह एक छद्म-विश्वासी का दृष्टिकोण नहीं है? (हाँ, जरूर है।) ऐसे विचारों और नजरियों के लोगों के दिलों में गहराई से पैठे होने पर भी क्या वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं? (नहीं, वे नहीं स्वीकार सकते।) तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तुम कहते हो कि तुम सत्य के रूप में परमेश्वर में विश्वास रखते हो, लेकिन प्रमाण कहाँ है? तुम अपने मुँह से कहते हो, “मुझे विश्वास है कि परमेश्वर सार्वभौम है, और इंसान की नियति परमेश्वर के हाथों में है।” लेकिन किसी के जाते समय तुम जल्दी से उसके लिए मोमो बनाते हो, और तुम्हारे पास मटन खरीदने का वक्त न भी हो, तो भी तुम्हें सब्जियों के भरावन के साथ मोमो बनाने ही हैं—न बनाने का सवाल ही नहीं है। क्या ये कार्य और यह व्यवहार परमेश्वर की गवाही देते हैं? क्या इनसे परमेश्वर का गुणगान होता है? (नहीं।) साफ तौर पर नहीं। ये परमेश्वर और उसके नाम के लिए अपमानजनक हैं। तुम्हारा सत्य को स्वीकार करना या न करना एक मामूली मसला है। अहम बात यह है कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने का दावा करते हो, लेकिन फिर भी तुम शैतान द्वारा तुम्हारे भीतर पिरोई गई परंपराओं का पालन करते हो। अपने दैनिक जीवन की इन छोटी-छोटी बातों में, तुम अपने पूर्वजों द्वारा तुम्हारे भीतर पिरोये गए विचारों और आदतों का सख्ती से पालन करते हो, और कोई उन्हें बदल नहीं सकता। क्या यह ऐसे किसी व्यक्ति का रवैया है जो सत्य को स्वीकार करता है? यह परमेश्वर के लिए अपमानजनक है; यह परमेश्वर को धोखा देना है। तुम्हारे पूर्वज कौन हैं? उनकी परंपराएँ कहाँ से आईं? ये परंपराएँ किसे दर्शाती हैं? क्या ये सत्य को दर्शाती हैं? क्या ये सकारात्मक चीजों को दर्शाती हैं? इन परंपराओं का आविष्कार किसने किया? क्या परमेश्वर ने किया? परमेश्वर लोगों को परंपराएँ वापस लाने के लिए सत्य प्रदान नहीं करता, बल्कि तमाम परंपराएँ खत्म करने के लिए करता है। लेकिन न सिर्फ तुम उनका परित्याग करने से इनकार करते हो, बल्कि उनसे ऐसे पेश आते हो मानो वे सत्य और बनाए रखने लायक सकारात्मक चीज हों। क्या यह मृत्यु की कामना नहीं है? क्या यह सत्य और परमेश्वर का खुल कर विरोध करना नहीं है? (हाँ, जरूर है।) यह खुले तौर पर परमेश्वर के खिलाफ आवाज उठा कर उसका विरोध करना है। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर मैं अपने भाई-बहनों के लिए मोमो या नूडल न बनाऊँ पर अपने परिवार के सदस्यों के लिए बनाऊँ तो कैसा रहेगा? जब मेरे परिवार के सदस्य जाएँगे, तो मैं उनके लिए मोमो बनाऊँगा और उनके वापस आने पर उनके लिए नूडल पकाऊँगा। क्या यह ठीक है?” क्या तुम लोगों को यह ठीक लगता है? अगर तुम यह कहोगे तो क्या होगा : “अगर मैं किसी को धोखा दूँगा तो वे मेरे भाई-बहन नहीं, बल्कि मेरे परिवार के सदस्य होंगे। क्या यह ठीक है?” क्या यह ठीक होगा? (ठीक नहीं होगा।) इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे कार्यों के परिणाम किसे भुगतने होंगे; फर्क इससे पड़ता है कि तुम किसे जी रहे हो और अपने बारे में क्या खुलासा कर रहे हो, इस बात से फर्क पड़ता है कि तुम कौन-से नजरिये बनाए रखते हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसे धोखा देते हो; फर्क इससे पड़ता है कि तुम्हारे कार्य और सिद्धांत क्या हैं, क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।)
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