सत्य का अनुसरण कैसे करें (14) भाग तीन

कुछ माता-पिता अपनी बेटियों को यह कह कर अक्सर तंग करते हैं, “एक महिला के रूप में तुम्हें यह करना चाहिए कि तुम जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता। अगर तुम किसी मुर्गे के परिवार में शादी करो, तो तुम्हें मुर्गे जैसा कार्य करना चाहिए; अगर तुम किसी कुत्ते के परिवार में शादी करो, तो तुम्हें कुत्ते जैसा कार्य करना चाहिए।” निहितार्थ यह है कि तुम्हें एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि मुर्गा या कुत्ता बनकर खुश हो जाना चाहिए। क्या यह एक अच्छा पथ है? स्पष्ट रूप से यह सुनकर कोई भी समझ जाएगा कि यह सही नहीं है, है कि नहीं? इस वाक्यांश “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो” के निशाने पर निश्चित रूप से महिलाएँ हैं—उनका भाग्य इतना दुखद है। परिवार के प्रभाव और शिक्षा के अधीन महिलाएँ खुद को अधोगति में झोंक देती हैं : वे किसी मुर्गे से शादी करने पर जरूर मुर्गे के पीछे चलती हैं और कुत्ते से शादी करने पर कुत्ते के पीछे चलती हैं, अच्छे पथ पर चलने की कोशिश नहीं करतीं और वही करती हैं जो उनके माता-पिता कहते हैं। हालाँकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भीतर यह विचार बैठाते हैं, फिर भी तुम्हें यह जानना-समझना चाहिए कि ऐसा विचार सही है या गलत, तुम्हारे आचरण के लिए उपयोगी है या हानिकारक। बेशक, शादी को त्यागने के विषय में हम इस पहलू पर पहले ही संगति कर चुके हैं, इसलिए हम यहाँ उसका विशिष्ट रूप से गहन विश्लेषण और छानबीन नहीं करेंगे। संक्षेप में कहें, तो माता-पिता से आए इन सभी गलत, विकृत, सतही, मूर्खतापूर्ण और यहाँ तक कि दुष्ट और पतित विचारों और नजरियों को तुम्हें त्याग देना चाहिए। खास तौर से ऐसी कहावतें, “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,” जिस पर हमने अभी चर्चा की, और “पुरुष से रोटी-कपड़ों के लिए शादी करो,”—तुम्हें इन वक्तव्यों को जानना-समझना चाहिए, और अपने माता-पिता द्वारा तुम्हारे अंदर बैठाए गए ऐसे विचारों से गुमराह नहीं होना चाहिए, यह मान कर कि “मैं उस पुरुष के हाथों बिक जाती हूँ जिससे मेरी शादी होती है : वह मेरा मालिक है, मुझे वैसा होना चाहिए जैसा वह चाहे, और हर वह चीज करनी चाहिए जो वह कहे, मेरा भाग्य उससे बँधा हुआ है। एक बार हम शादी कर लें, तो हम दोनों एक डोर से बँधे टिड्डा-टिड्डी की तरह जुड़े होते हैं। अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है; अगर उसे समृद्धि नहीं मिलती, तो तुम्हें भी नहीं मिलती। इसलिए मेरे माता-पिता की कहावत ‘जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,’ हमेशा सही होगी। महिलाओं को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए, उनके अपने अनुसरण नहीं होने चाहिए और यकीनन जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण रखने और जीवन में सही पथ पर चलने को लेकर उनके अपने विचार या कामनाएँ नहीं होनी चाहिए। उन्हें बस आज्ञाकारिता से अपने माता-पिता के कथनों का अनुसरण करना चाहिए, ‘जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता।’” क्या ऐसा विचार सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता”—ऐसे ही अर्थ वाला एक और वाक्यांश है, “एक डोर से बँधे दो टिड्डे,” जिसका अर्थ है कि शादी के बाद तुम्हारा भाग्य अपने पति के भाग्य से बँध जाता है। अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है; अगर उसे समृद्धि नहीं मिलती, तो तुम्हें भी नहीं मिलती। क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) आओ पहले “अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है” कहावत पर चर्चा करें। क्या यह एक तथ्य है? (नहीं।) क्या कोई इस बात को काटने के लिए उल्टा उदाहरण दे सकता है? कुछ याद नहीं आ रहा है? चलो मैं ही एक मिसाल देता हूँ। मिसाल के तौर पर जब कोई महिला किसी पुरुष से शादी करती है तो वह उसके पीछे चलने का पक्का मन बना लेती है। महिलाएँ कुछ यूँ कहती हैं, “आज से मैं तुम्हारी हुई,” यानी “मैं तुम्हारे हाथों बिक चुकी हूँ और मेरी नियति तुम्हारी नियति से बँध चुकी है।” खुद को अधोगति में झोंकने वाली महिला को छोड़कर चलो इस पर ध्यान दें कि वाक्यांश “अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम्हें भी मिलती है” सही है या नहीं। क्या यह सही है कि अगर उसे समृद्धि मिलती है, तो तुम भी खुद-ब-खुद समृद्ध हो जाओगी? मान लो वह कोई व्यापार शुरू करता है और किसी संकट में फँस जाता है, अनेक चुनौतियों का सामना करता है, उसके सामने हर कहीं मुश्किलें आती हैं, वह पैसों, संबंधों और दुकान खोलने के लिए एक सही स्थान, व्यापार करने के लिए बाजार और मदद के लिए लोगों का जुगाड़ नहीं कर पाता है। बतौर उसकी पत्नी उसके पीछे चलने का तुम्हारा इरादा बेहद पक्का है; वह चाहे जो भी करे, तुम उससे कभी घृणा नहीं करती हो, बल्कि बिना किसी शर्त के उसका साथ देती हो। समय के साथ उसका व्यापार पनपता है, वह एक के बाद एक दुकानें खोलता है, उसका मुनाफा बढ़ता जाता है और आमदनी बढ़ती जाती है। तुम्हारा पति बड़ा आसामी बन जाता है और बड़े आसामी से वह एक दौलतमंद उद्योगपति बन जाता है। वह समृद्ध हो रहा है, है कि नहीं? जैसा कि कहावत है, “पैसे वाला कोई भी इंसान बिगड़ जाता है,” जोकि बेशक इस समाज और इस बुरी दुनिया का एक तथ्य है। एक बार जब तुम्हारा पति एक आसामी और फिर एक उद्योगपति बन जाता है, तो उसके लिए भ्रष्ट होना कितना आसान है? यह कुछ ही पलों में हो जाता है। उसके आसामी बनकर समृद्ध होना शुरू होने के बाद तुम्हारे अच्छे दिन खत्म हो चुके होंगे। क्यों? तुम्हारी चिंताएँ तुम्हें घेरने लगेंगी, “कहीं बाहर उसकी कोई दूसरी औरत तो नहीं? कहीं वह मुझे धोखा तो नहीं दे रहा? कोई उसे रिझा तो नहीं रही? कहीं वह मुझसे उकता तो नहीं जाएगा? कहीं वह मुझसे प्यार करना छोड़ तो नहीं देगा?” क्या तुम्हारे अच्छे दिनों का अंत हो गया? इतने वर्ष साथ-साथ मुश्किलें झेलने के बाद तुम अंदर से दुखी और थकी-हारी लगती हो। तुम बुरे हाल में जी रही हो, तुम्हारी सेहत बिगड़ गई है, सुंदरता नष्ट हो चुकी है। तुम्हारा चेहरा पीला पड़ गया है। शायद उसकी नजरों में अब तुममें वो आकर्षण नहीं रहा जिसके पीछे वह कभी पागल था। शायद वह सोचे, “अब मैं दौलतमंद और प्रभावशाली हूँ, मुझे कोई बेहतर महिला मिल सकती है।” जैसे-जैसे वह दूर होता जाता है, उसके विचार सक्रिय होने लगते हैं, वह बदलने लगता है। फिर क्या तुम खतरे में नहीं हो? वह एक बड़ा आसामी बन गया है जबकि तुम एक पीली पड़ चुकी बुढ़िया बन गई हो—क्या तुम दोनों के बीच एक तरह का अंतर और असमानता नहीं है? ऐसे समय में क्या तुम उसके लिए अयोग्य नहीं हो? क्या उसे नहीं लगता कि वह तुमसे ऊपर के मुकाम पर है? क्या वह तुमसे और ज्यादा घृणा नहीं करता? अगर ऐसा है तो तुम्हारे मुश्किल दिन बस शुरू हो रहे हैं। आखिरकार वह अपने मन की मुराद पूरी कर कोई दूसरी महिला पा सकता है, और घर पर कम-से-कम समय बिता सकता है। वह लौटता भी है तो सिर्फ तुमसे बहस करने के लिए, और फिर वह तुरंत जोर से दरवाजा बंद करके चला जाता है, कभी-कभी तुमसे बिना किसी संपर्क के कई-कई दिन बाहर रहता है। अपने पुराने रिश्ते को ध्यान में रखकर तुम ज्यादा-से-ज्यादा बस इतनी उम्मीद कर सकती हो कि शायद वह तुम्हें पैसे दे और तुम्हारी दैनिक जरूरतें पूरी करे। अगर तुम सचमुच हल्ला मचाओ, तो हो सकता है वह तुम्हारी आजीविका का खर्च देना भी बंद कर दे। तो हालत कैसी है? सिर्फ इसलिए कि वह समृद्ध हो गया है, क्या तुम्हारा भाग्य जरा भी सुधरा है? तुम पहले से ज्यादा खुश हो या नाखुश? (पहले से ज्यादा नाखुश।) तुम पहले से ज्यादा नाखुश हो। तुम्हारे दुर्भाग्य के दिन आ गए हैं। ऐसी स्थिति का सामना होने पर महिलाएँ ज्यादातर समय खूब रोती हैं, और अपने माता-पिता की बताई बात : “अपनी निजी बातें सार्वजनिक मत करो,” के कारण वे यह सोचकर सब कुछ सहती रहती हैं, “मैं यह तब तक सहूँगी जब तक मेरा बेटा बड़ा होकर मुझे सहारा न दे सके। फिर मैं अपने पति से छुटकारा पा लूँगी!” कुछ महिलाओं को वह दिन देखने का सौभाग्य मिल जाता है जब उनका बेटा उनका शक्ति-स्तंभ बन जाता है, जबकि दूसरी महिलाओं को यह भी नसीब नहीं होता। जब उनका बच्चा छोटा होता है, तभी उनके पति बच्चे को अपने साथ रखने का फैसला कर पत्नी से कहते हैं, “चली जा, पीले चेहरे वाली बुढ़िया!” और उसे भिखमंगी मानकर अपने ही घर से निकाल देते हैं। तो जब वह समृद्ध हो रहा होता है, तब क्या तुम भी जरूर समृद्ध होती हो? क्या तुम लोगों के भाग्य सचमुच साथ में बँधे हुए हैं? (नहीं।) अगर उसका व्यापार लगातार लड़खड़ा रहा हो या उसकी इच्छा के विपरीत चल रहा हो, तो उसे तुम्हारे सहारे, प्रोत्साहन, साथ और देखभाल की जरूरत पड़ सकती है, और उसमें भ्रष्ट होने की योग्यता न होने और उसे ऐसे अवसर न मिलने से, शायद वह अब भी तुम्हें सँजोकर रखे। जब तक वह समृद्ध नहीं हो रहा होता, तुम ज्यादा सुरक्षित महसूस कर सकती हो, कोई तुम्हारे साथ हो सकता है और तुम शादी की गरमाहट और खुशी महसूस कर सकती हो। चूँकि जब वह समृद्ध नहीं हो रहा होता है, तो बाहर का कोई भी व्यक्ति उस पर ध्यान नहीं देता या उसे भाव नहीं देता, और सिर्फ तुम ही एकमात्र व्यक्ति होती हो जिस पर वह भरोसा कर सकता है, इसलिए वह तुम्हें महत्व देता है। उस स्थिति में तुम सुरक्षित और अपेक्षाकृत बेहतर और खुश महसूस करती हो। लेकिन अगर वह समृद्ध होकर अपने पंख फैलाए तो उड़ जाएगा, मगर क्या वह तुम्हें साथ ले जाएगा? क्या माता-पिता की यह कहावत “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,” सही है? (नहीं, सही नहीं है।) यह महिलाओं को दुखों के रसातल में धकेल देती है। यह सिद्धांत कैसा है, “अगर वह सही पथ पर चले तो मैं उसके पीछे चलूँगी, और न चले तो उसे छोड़ दूँगी”? इस सिद्धांत का भी गलत अर्थ लिया जाता है? उससे शादी करने का यह अर्थ नहीं है कि तुमने खुद को उसे बेच दिया है, न ही तुम्हें उसे एक बाहर वाले की तरह देखना चाहिए। विवाहित जीवन में तुम्हारे लिए अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना काफी है। अगर चीजें ठीक हो जाएँ तो बढ़िया; और नहीं हुईं, तो अलग हो जाओ। तुमने एक साफ जमीर के साथ अपने दायित्व पूरे किए हैं। अगर वह चाहता है कि तुम उसका साथ देने की अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, तो जरूर करो; अगर नहीं चाहता, तो अलग हो जाओ। यही सिद्धांत है। “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता,” वाक्यांश बकवास है—यह हानिकारक है। यह बकवास क्यों है? इसमें सिद्धांत नहीं हैं : पुरुष किसी भी किस्म का हो, तुम बिना सोचे-समझे उसके पीछे चलती हो। अगर तुम एक अच्छे पुरुष के पीछे चलती हो, तो जीवन अच्छा हो सकता है। लेकिन अगर तुम एक बुरे पुरुष के पीछे चलती हो, तो क्या तुम खुद को बरबाद नहीं कर रही हो? इसलिए पुरुष चाहे जैसा भी हो, तुम्हें शादी को लेकर एक सही दृष्टि रखनी चाहिए। तुम्हें समझना होगा कि केवल सत्य ही सच्चा सुरक्षा कवच है और सम्मानजनक जीवन का पथ और सिद्धांत प्रदान करता है। माता-पिता जो देते हैं वे बस उनके स्नेह या स्वार्थों पर आधारित अनुभवों या रणनीतियों के छोटे-छोटे कतरे होते हैं। ऐसे परामर्श से न तुम्हें कोई सुरक्षा मिल सकती है, न ही अभ्यास के सही सिद्धांत मिल सकते हैं। मिसाल के तौर पर वाक्यांश “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता” को ले लो। इससे तुम शादी के बारे में सिर्फ अनाड़ी बन सकते हो, और अपना स्वाभिमान और सही जीवन पथ चुनने का अवसर खो देते हो। इससे भी बड़ी बात, तुम उद्धार पाने का अवसर भी खो सकते हो। इसलिए माता-पिता के वचनों के पीछे का आशय चाहे जो हो, चाहे वह चिंता, सुरक्षा, स्नेह, निजी हित, या कोई और मंशा हो, तुम्हें उनकी तमाम कहावतों को विवेकपूर्ण ढंग से समझना चाहिए। भले ही उनका शुरुआती इरादा तुम्हारी खुशहाली या हिफाजत हो, तुम्हें ये कहावतें लापरवाही और बेवकूफी से नहीं मान लेनी चाहिए। बल्कि इन्हें समझना-बूझना चाहिए और फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास के सही सिद्धांत ढूंढ़ने चाहिए, उनके वचनों के अनुसार अभ्यास या अपना आचरण नहीं करना चाहिए। खास तौर से पुरानी पीढ़ियों द्वारा अक्सर कही गई बात “पुरुष से रोटी-कपड़ों के लिए शादी करो,” का और भी ज्यादा गलत अर्थ लिया जाता है। क्या महिलाओं के हाथ-पैर नहीं हैं? क्या वे अपनी आजीविका खुद नहीं कमा सकतीं? रोटी-कपड़ों के लिए उन्हें पुरुषों के भरोसे क्यों रहना चाहिए? क्या महिलाएँ बुद्धू हैं? पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में क्या कमी है? (कुछ भी नहीं।) बिल्कुल सही कहा, उनमें कोई कमी नहीं। महिलाओं में अपने पैरों पर खड़े होकर जीने की काबिलियत है, जो उन्हें परमेश्वर ने दी है। चूँकि महिलाओं में स्वतंत्र रूप से जीने की काबिलियत है, तो फिर उन्हें पोषण के लिए पुरुषों के भरोसे क्यों रहना चाहिए? क्या यह एक गलत विचार नहीं है? (बिल्कुल।) यह अपने भीतर एक गलत विचार बैठाना है। इस कहावत के कारण महिलाओं को अपनी अहमियत नहीं घटानी चाहिए, अपनी तौहीन नहीं करनी चाहिए और अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। बेशक अपनी पत्नी और परिवार का खर्च उठाना और यह सुनिश्चित करना पुरुष का दायित्व है कि उसकी पत्नी के पास खाने-पहनने को पर्याप्त है। लेकिन महिलाओं को सिर्फ रोटी-कपड़ों के लिए शादी नहीं करनी चाहिए या ऐसे विचार और नजरिये नहीं पालने चाहिए। चूँकि तुममें स्वतंत्र रूप से रहने की काबिलियत है, तो तुम बुनियादी जरूरतों के लिए पुरुष के भरोसे क्यों रहोगी? क्या कुछ हद तक यह उनके माता-पिता के प्रभाव और परिवार के विचारों की शिक्षा के कारण है? अगर किसी महिला को परिवार द्वारा यह शिक्षा मिलती है, तो या तो वह आलसी है, रोटी-कपड़ों के लिए किसी दूसरे के भरोसे रहने के सिवाय और कुछ भी नहीं करना चाहती या उसने माता-पिता के विचारों को स्वीकार कर लिया है, मान लिया है कि महिलाएँ किसी काम की नहीं होतीं और न वे रोटी-कपड़ों के मसले खुद सुलझा सकती हैं या उन्हें सुलझाना चाहिए बल्कि उन्हें बस पुरुषों के भरोसे ही रहना चाहिए। क्या यह खुद को अधोगति में झोंकना नहीं है? (बिल्कुल।) ऐसे विचार और नजरिये अपनाना गलत क्यों है? इनका क्या प्रभाव होता है? किसी को ऐसे पतित विचारों को क्यों जाने देना चाहिए? अगर कोई पुरुष तुम्हारे रोटी-कपड़ों की व्यवस्था करता है, तो तुम उसे अपना मालिक, अपने से श्रेष्ठ, हर चीज का प्रभारी मानने लगती हो, फिर क्या तुम हर छोटे-बड़े मामले में उससे सलाह-मशविरा नहीं करोगी? (बिल्कुल।) मिसाल के तौर पर, अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखती हो, तो शायद तुम सोचो, “जो प्रभारी है, मैं उससे पूछूँगी कि क्या मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने की इजाजत है; अगर वह हाँ कहे तो मैं विश्वास रखूँगी, अगर ना कहे तो नहीं रखूँगी।” जब परमेश्वर का घर भी लोगों को अपना कर्तव्य निभाने को कहता है, तब भी तुम्हें उससे स्वीकृति लेनी पड़ेगी; अगर वह खुश और सहमत हो तो तुम अपना कर्तव्य निभा सकती हो, अगर न हो तो नहीं निभा सकती हो। परमेश्वर की विश्वासी के रूप में, तुम उसका अनुसरण कर सकती हो या नहीं, यह तुम्हारे पति के रवैये और बर्ताव पर निर्भर करता है। क्या तुम्हारा पति यह समझ-बूझ सकता है कि यह मार्ग सच्चा है या गलत? क्या उसकी बात सुनकर तुम अपना उद्धार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश सुनिश्चित कर लोगी? तुम्हारा पति बुद्धिमान हो और परमेश्वर की वाणी सुन सकता हो, वह परमेश्वर की भेड़ों में से एक हो, तो शायद तुम उसके साथ लाभान्वित हो जाओ, मगर तुम महज उसके साथ ही लाभान्वित हो रही हो। लेकिन अगर वह बदमाश और मसीह-विरोधी है, और सत्य को नहीं समझ सकता, तो तुम क्या करोगी? क्या तुम फिर भी विश्वास रखोगी? क्या तुम्हारे अपने कान या दिमाग नहीं है? क्या तुम परमेश्वर के वचन नहीं सुन सकती हो? उन्हें सुनने के बाद क्या तुम उन्हें खुद समझ-बूझ नहीं सकती? क्या तुम्हारा पति तुम्हारा भाग्य तय कर सकता है? क्या वह तुम्हारी नियति को नियंत्रित और आयोजित करता है? क्या तुम उसके हाथों बिक चुकी हो? सभी के मन में ये सिद्धांत स्पष्ट हैं, लेकिन सिद्धांतों से जुड़ी कुछ समस्याओं की बात आने पर लोग अनजाने ही अपने परिवारों द्वारा इन विचारों और नजरियों से अपनी शिक्षा से प्रभावित हो जाते हैं। जब ये विचार और नजरिये तुम्हें प्रभावित करते हैं, तो तुम अक्सर गलत फैसले करते हो, और इन गलत फैसलों के पीछे के विचारों से चलते हो, गलत विकल्प चुनते हो, जो फिर तुम्हें गलत पथ पर ले जाते हैं, और आखिरकार तुम बरबाद हो जाते हो। तुमने कर्तव्य निभाने, सत्य प्राप्त करने, और उद्धार पाने का अवसर गँवा दिया। तुम्हारा अंत किस कारण से हुआ? ऊपर से लगता है एक पुरुष ने तुम्हें गुमराह कर प्रभावित किया, तुम्हें बरबाद किया। लेकिन वास्तविकता में अपनी गहरी जड़ें जमाई हुई सोच के कारण तुम्हारा अंत हुआ। यानी इस परिणाम का मूल कारण यह सोच है कि “जिस पुरुष से शादी करो उसके पीछे चलो, चाहे वह मुर्गा हो या कुत्ता।” इसलिए इस विचार को जाने देना सबसे अहम है।

दुनिया से निपटने, खेल नियमों, दुनिया, प्रजाति, पुरुषों और महिलाओं, शादी, वगैरह के तौर-तरीकों के सिद्धांतों और रणनीतियों से जुड़े माता-पिता और परिवारों के उन विचारों और नजरियों, जिन पर हमने संगति की, को अब मुड़कर देखें, तो क्या इनमें से कोई भी सकारात्मक है? क्या इनमें ऐसा कुछ है जो सत्य के अनुसरण के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कुछ हद तक तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकता है? (नहीं।) इनमें से एक भी सच्चा या योग्य सृजित प्राणी बनने में तुम्हारी मदद नहीं करता है। इसके विपरीत इनमें से प्रत्येक तुम्हें भारी हानि पहुँचाता है, ऐसे विचारों और नजरियों की शिक्षा के जरिये तुम्हें भ्रष्ट करता है, जिससे आज लोग अपने अंतरतम में विविध भ्रांतिपूर्ण विचारों और नजरियों से बंध गए हैं, नियंत्रित, प्रभावित और त्रस्त हो गए हैं। जहाँ लोगों के दिलों की गहराई में परिवार गरमाहट का एक स्थान है, बचपन की यादों से भरी हुई जगह है, आत्मा का आश्रय है, वहाँ परिवार द्वारा लोगों पर डाले गए विविध नकारात्मक प्रभावों को कम नहीं आँकना चाहिए। परिवार की गरमाहट इन गलत विचारों को घोल नहीं सकती। परिवार की गरमाहट और उससे जुड़ी खूबसूरत यादें भौतिक स्नेह के स्तर पर केवल थोड़ी सांत्वना और संतोष लाती हैं। लेकिन किसी के आचरण और दुनिया से निपटने के तरीके, चलने के पथ, या जीवन के प्रति कैसा दृष्टिकोण या कैसे मूल्य स्थापित करने चाहिए, जैसे विषयों के बारे में परिवार से मिली शिक्षा पूरी तरह हानिकारक होती है। इस नजरिये से देखें तो समाज में प्रवेश करने से पहले ही व्यक्ति अपने परिवार के विविध विचारों और नजरियों से भ्रष्ट हो चुका होता है—वह पहले ही विविध गलत विचारों और नजरियों की शिक्षा, नियंत्रण और प्रभाव से गुजर चुका होता है। कहा जा सकता है कि परिवार ही वह जगह है जहाँ तमाम गलत विचार और नजरिये सबसे पहले प्राप्त होते हैं, और यही वह जगह है जहाँ इन्हें चलाकर बेरोक-टोक लागू किया जाता है। परिवार सभी लोगों के जीवन और उनके दैनिक जीवन में ऐसी भूमिका निभाते हैं। इस विषयवस्तु पर हमारी संगति लोगों से यह कहने के बारे में नहीं है कि वे स्नेह के संदर्भ में या बाहरी तौर पर परिवार से अलग हो जाएँ या उससे नाते-रिश्ते तोड़ लें। बस इतनी अपेक्षा है कि लोग अपने मन में परिवार द्वारा बैठाए गए गलत विचारों और नजरियों को विशेष रूप से पहचानें, समझें-बूझें, और बेशक ज्यादा सटीकता और व्यावहारिकता से उन्हें त्याग दें। यह वह विशिष्ट अभ्यास है जो सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को परिवार से जुड़े विषय संबोधित करते समय अपनाना चाहिए।

परिवार से जुड़े बहुत-से दूसरे विषय हैं। क्या यह सच नहीं है कि ये कहावतें जिनसे परिवार लोगों को शिक्षा देता है, और जिन पर हमने संगति की है, वे बहुत प्रचलित हैं? (हाँ, जरूर हैं।) हम परिवारों में इन्हें अक्सर सुनते हैं—अगर एक परिवार में नहीं तो दूसरे में। क्या ये बहुत प्रचलित और प्रतिनिधि कहावतें नहीं हैं? बड़ी तादाद में परिवारों ने ये विचार और नजरिये अलग-अलग सीमा तक लोगों के भीतर बैठा दिए हैं। हमने जिस भी कहावत पर संगति की है, वह ज्यादातर परिवारों में अलग-अलग ढंग से प्रकट होती है और व्यक्ति के विकास के विविध चरणों में उसके भीतर बैठाई जाती है। जिस दिन से उसके भीतर ये विचार बैठाए जाते हैं, उसी दिन से वह इन्हें स्वीकार करने लगता है, इनके प्रति थोड़ी जागरूकता और स्वीकृति हासिल करने लगता है, और फिर अपना बचाव करने की क्षमता न होने के कारण वह दुनिया से निपटने की रणनीतियों और तरीकों के रूप में ये विचार और नजरिये अपना लेता है ताकि जी सके और भविष्य में जीवित रह सके। बेशक, बहुत-से लोग समाज में पाँव जमाने के लिए इन्हें अपनी आधाररेखा बना लेते हैं। इस तरह से ये विचार और नजरिये न सिर्फ लोगों के दैनिक जीवन में बल्कि उनके अंदरूनी संसार और जीवित रहने के पथ पर वे जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनमें व्याप्त हो जाते हैं। जब विभिन्न मसले उभरते हैं तो लोगों के दिलों में जमा विविध विचार और नजरिये उन्हें ये मामले सँभालने के लिए रास्ता दिखाते हैं; जब ये विभिन्न मसले उभरते हैं, तो विभिन्न विचार और नजरिये और दुनिया से निपटने के सिद्धांत और रणनीतियाँ उन पर हावी हो जाती हैं, और वे उनसे शासित होते हैं। लोग बड़ी दक्षता से इन गलत विचारों और नजरियों को असल जीवन में लागू कर सकते हैं। तमाम गलत विचारों और नजरियों के मार्गदर्शन में वे स्वाभाविक रूप से एक गलत राह पर चलने लगते हैं। चूँकि उनके क्रियाकलाप, व्यवहार, जीवन और अस्तित्व पर गलत विचारों का दबदबा होता है तो यह तय होता है कि जीवन में वे जिन रास्तों पर चलते हैं वे भी भटके हुए होते हैं। चूँकि उनके मार्गदर्शक विचारों की जड़ ही गलत है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनका रास्ता गलत होता है। उनके पथ की दिशा टेढ़ी होती है, जिससे उसका अंतिम परिणाम बहुत स्पष्ट हो जाता है। परिवार के विविध विचारों से मिली शिक्षा से लोग गलत पथ पर चलते हैं, और वे इस गलत पथ पर भटक जाते हैं। नतीजतन वे नरक की ओर, विनाश की ओर चल पड़ते हैं। अंत में, उनके विनाश का मूल कारण उनके परिवारों द्वारा दी गई शिक्षा के विविध गलत विचार होते हैं। गंभीर परिणामों को देखते हुए लोगों को अपने परिवारों द्वारा दिए गए विविध विचारों की शिक्षा को त्याग देना चाहिए। फिलहाल लोगों पर विविध गलत विचारों की शिक्षा का प्रभाव उन्हें सत्य को स्वीकार करने से रोकने का होता है। इन गलत विचारों का अस्तित्व होने और इनके अनुसार चलने के कारण लोग अक्सर सत्य को नहीं समझ पाते और यहाँ तक कि इसे दिल से ठुकराते हैं और इसका प्रतिरोध भी करते हैं। बेशक और भी बुरी बात यह है कि कुछ लोग परमेश्वर को धोखा देने का फैसला भी कर सकते हैं। फिलहाल यही स्थिति है, मगर दूर की सोचें तो जिन हालात में लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते या सत्य को धता बताते हैं, उन हालात में ये गलत विचार उन्हें परमेश्वर को धोखा देते और ठुकराते हुए सत्य विरोधी गलत पथ पर आगे बढ़ाते हैं। ऐसे गलत पथ पर बढ़ते हुए भले ही ऐसा लगे कि वे परमेश्वर को सुन रहे हैं और उसके कार्य को स्वीकार कर रहे हैं, वे आखिरकार गलत पथ पर चलने के कारण सचमुच बचाए नहीं जा सकते। यह सचमुच खेद की बात है। इसलिए यह देखते हुए कि तुम्हारे परिवार का प्रभाव ऐसे गंभीर परिणाम ला सकता है, तुम्हें इन विचारों को तुच्छ नहीं समझना चाहिए। अगर तुम विभिन्न मसलों पर इनसे संबंधित अपने परिवार के गलत विचारों से शिक्षा पा चुके हो, तो तुम्हें उनकी जाँचकर उन्हें त्याग देना चाहिए—अब उन्हें पकड़े न रहो। विचार चाहे जो भी हो, अगर वह गलत है, और सत्य के विरुद्ध है, तो एकमात्र सही पथ जो तुम्हें चुनना चाहिए वह इसे त्याग देने का है। त्याग देने का सही अभ्यास यह है : जिन कसौटियों या आधार पर तुम इस मामले को देखते, करते या सँभालते हो, वे अब तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हारे भीतर बिठाए गए गलत विचार नहीं होने चाहिए, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। भले ही इस प्रक्रिया में तुम्हें शायद थोड़ी कीमत चुकानी पड़े और तुम्हें लगे कि तुम अपनी इच्छा के विरुद्ध कार्य कर रहे हो, अपनी नाक कटा रहे हो, और इससे शायद तुम्हारे दैहिक हितों को नुकसान भी पहुँचे, फिर भी तुम चाहे किसी भी चीज का सामना करो, तुम्हें लगातार अपने अभ्यास को परमेश्वर के बताए वचनों और सिद्धांतों के अनुरूप करना चाहिए, और छोड़ना नहीं चाहिए। इस परिवर्तन की प्रक्रिया यकीनन चुनौतीपूर्ण होगी, यह आसान नहीं होगी। यह आसान क्यों नहीं होगी? यह नकारात्मक और सकारात्मक चीजों के बीच का संघर्ष है, शैतान के बुरे विचारों और सत्य के बीच का संघर्ष है, और सत्य को स्वीकार करने की तुम्हारी इच्छा, आकांक्षा और सकारात्मक चीजों का तुम्हारे दिल में बैठे गलत विचारों और नजरियों से संघर्ष है। चूँकि एक संघर्ष चल रहा है, इसलिए व्यक्ति को कष्ट सहकर कीमत चुकानी पड़ सकती है—तुम्हें यही करना चाहिए। अगर कोई सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलकर उद्धार प्राप्त करना चाहे, तो उसे ये तथ्य स्वीकार कर इन संघर्षों का अनुभव करना चाहिए। बेशक इन संघर्षों के दौरान तुम जरूर कुछ कीमत चुकाओगे, थोड़ी पीड़ा सहोगे और कुछ चीजें छोड़ दोगे। प्रक्रिया चाहे जैसी भी दिखे, आखिरकार परमेश्वर का भय मान पाना और बुराई से दूर रह पाना, सत्य प्राप्त करना और उद्धार प्राप्त करना—यही अंतिम लक्ष्य है। इस प्रकार इस लक्ष्य के लिए चुकाई गई कोई भी कीमत कम ही है क्योंकि यह सबसे सही लक्ष्य है, और एक योग्यताप्राप्त सृजित प्राणी बनने के लिए तुम्हें इसका अनुसरण करना चाहिए। इस लक्ष्य को पाने के लिए चाहे जितना प्रयास करना पड़े या जितनी भी कीमत चुकानी पड़े, तुम्हें समझौता नहीं करना चाहिए, इससे बचना या डरना नहीं चाहिए, क्योंकि अगर तुम सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर का भय मानने, बुराई से दूर रहने और बचाए जाने का लक्ष्य रखोगे, तो किसी भी संघर्ष या युद्ध का सामना होने पर तुम अकेले नहीं रहोगे। परमेश्वर के वचन तुम्हारे साथ होंगे; सहारे के रूप में परमेश्वर और उसके वचन तुम्हारे साथ होंगे, इसलिए तुम्हें डरना नहीं चाहिए, है कि नहीं? (हाँ।) तो, इन कुछ बातों के आधार पर, भले ही यह परिवार या किसी और स्रोत से मिले गलत विचारों की शिक्षा हो, व्यक्ति को इसे त्याग देने का निर्णय लेना चाहिए। मिसाल के तौर पर, जैसा कि अभी हमने संगति की, तुम्हारा परिवार अक्सर तुमसे कहता है, “किसी व्यक्ति को दूसरे को हानि पहुँचाने का इरादा नहीं रखना चाहिए, बल्कि खुद को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए।” वास्तविकता में, इस विचार को त्याग देने का अभ्यास सरल है : बस उन सिद्धांतों के अनुसार कर्म करो, जो परमेश्वर लोगों को बताता है। “सिद्धांत जो परमेश्वर लोगों को बताता है”—यह वाक्यांश बहुत व्यापक है। इसका विशिष्ट रूप से अभ्यास कैसे किया जाता है? तुम्हें यह विश्लेषण करने की जरूरत नहीं है कि क्या तुम दूसरों को हानि पहुँचाने का इरादा रखते हो, न ही तुम्हें खुद को दूसरों से सुरक्षित रखने की जरूरत है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? एक ओर तुम्हें दूसरों के साथ उचित रूप से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने में समर्थ होना चाहिए; दूसरी ओर विभिन्न लोगों से निपटते समय तुम्हें उनकी असलियत जानने के लिए आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का और कसौटी के रूप में सत्य का उपयोग करना चाहिए, और फिर संबंधित सिद्धांतों के आधार पर उनसे पेश आना चाहिए। यह इतना सरल है। अगर वे भाई-बहन हैं, तो उनसे वैसे ही पेश आओ; अगर वे अपने अनुसरण में सच्चे हैं, त्याग करते हैं, खुद को खपाते हैं, तो फिर उनसे ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने वाले भाई-बहनों की तरह पेश आओ। अगर वे छद्म-विश्वासी हैं, अपना कर्तव्य निभाने के अनिच्छुक हैं, बस अपना जीवन जीना चाहते हैं, तो तुम्हें उनसे भाई-बहनों की तरह नहीं, बल्कि गैर-विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए। लोगों को देखते समय तुम्हें गौर करना चाहिए कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, उनका स्वभाव कैसा है, उनकी मानवता कैसी है, और परमेश्वर और सत्य के प्रति उनका रवैया क्या है। अगर वे सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करने को तैयार हैं, तो उनसे सच्चे भाई-बहन, एक परिवार की तरह पेश आओ। अगर उनकी मानवता खराब है, और वे स्वेच्छा से सत्य का अभ्यास करने का सिर्फ दिखावा करते हैं, उनमें सिद्धांत की चर्चा करने की काबिलियत है मगर वे कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो उनसे महज मजदूरों की तरह पेश आओ, परिवार के रूप में नहीं। ये सिद्धांत तुम्हें क्या बताते हैं? ये तुम्हें वह सिद्धांत बताते हैं जिससे विभिन्न प्रकार के लोगों से पेश आना चाहिए—यह वह सिद्धांत है जिसकी हमने अक्सर चर्चा की है, यानी लोगों से बुद्धिमत्ता से पेश आना। बुद्धिमत्ता एक सामान्य शब्द है, लेकिन विशेष रूप से इसका अर्थ विभिन्न प्रकार के लोगों से निपटने के स्पष्ट तरीके और सिद्धांत जानना है—जो सब कुछ सत्य पर आधारित हो, निजी भावनाओं, निजी पसंद-नापसंद, निजी नजरियों, उनसे होने वाले लाभ-हानियों और उनकी उम्र पर नहीं, बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित हो। इसलिए, लोगों से निपटते समय तुम्हें यह जाँचने की जरूरत नहीं है कि क्या तुम दूसरों को हानि पहुँचाने या खुद को दूसरों से बचाने का इरादा रखते हो। अगर तुम लोगों के साथ परमेश्वर के दिए सिद्धांतों और तरीकों से पेश आते हो, तो तमाम प्रलोभनों से बच जाओगे और तुम किसी प्रलोभन या संघर्ष में नहीं फँसोगे। यह इतना सरल है। यह सिद्धांत गैर-विश्वासियों की दुनिया से निपटते समय भी उपयुक्त है। किसी को देखने पर तुम सोचोगे, “वह बुरा है, दानव, राक्षस, ठग या बदमाश है। मुझे खुद को उससे बचाने की जरूरत नहीं है; मैं उस पर ध्यान नहीं दूँगा, उसे नहीं उकसाऊँगा। अगर काम के लिए उससे मेल-जोल जरूरी हुआ, तो मैं इसे आधिकारिक और निष्पक्ष रूप से सँभालूँगा। अगर यह जरूरी न हो, तो मैं उससे संपर्क या मेल-जोल से बचूँगा, और न तो उसका बचाव करूँगा न ही उसकी खुशामद करूँगा। उसे मुझमें कोई खामी नहीं मिलेगी। अगर वह मुझे धौंस देना चाहे, तो परमेश्वर मेरे साथ है। मैं परमेश्वर पर भरोसा रखूँगा। अगर परमेश्वर ने उसे मुझ पर धौंस जमाने की इजाजत दी, तो मैं इसे स्वीकार कर समर्पण करूँगा। अगर परमेश्वर ने इसकी इजाजत नहीं दी, तो वह मेरा बाल भी बाँका नहीं कर पाएगा।” क्या यह सच्ची आस्था नहीं है? (बिल्कुल।) तुम्हें ऐसी सच्ची आस्था रखनी चाहिए, उससे नहीं डरना चाहिए। यह मत कहो कि वह बस एक स्थानीय ठग है, कोई मामूली आदमी है : बड़े लाल अजगर का सामना होने पर भी हम इसी सिद्धांत का पालन करते हैं। अगर बड़ा लाल अजगर तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकता है, तो क्या तुम उससे तर्क-वितर्क करते हो? क्या तुम उसे उपदेश देते हो? (नहीं।) क्यों नहीं देते? (उसे उपदेश देना फिजूल है।) वह दानव है, धर्मोपदेश सुनने योग्य नहीं है। भैंस के आगे बीन नहीं बजानी चाहिए। पशुओं या दानवों से सत्य नहीं बोला जाता; यह इंसानों के लिए है। भले ही दानव या पशु इसे समझ सकें, फिर भी उन्हें इसका उपदेश नहीं दिया जाता। वे इस योग्य नहीं होते! यह सिद्धांत कैसा है? (अच्छा है।) तुम कलीसिया में बुरी मानवता वाले, बुरे, बेवकूफ और नासमझ धौंस जमाने वाले लोगों, या समाज में बड़े परिवारों के कुछ सामर्थ्यवान या नामी-गिरामी लोगों से कैसे पेश आते हो? उनसे उसी तरह पेश आओ जैसे आना चाहिए। अगर वे भाई-बहन हैं, तो उनसे मेल-जोल रखो। अगर नहीं तो उनकी अनदेखी करो, और उनसे छद्म-विश्वासियों की तरह पेश आओ। अगर वे सुसमाचार साझा करने के सिद्धांतों के अनुरूप हों, तो उनके साथ साझा करो। अगर वे सुसमाचार के पात्र न हों, तो जीवन भर उनसे मत मिलो, या मत जुड़ो। यह इतना सरल है। दानवों और शैतानों के मामले में तुम्हें खुद को बचाने, उनके खिलाफ मामला तैयार करने या उनसे बदला लेने की जरूरत नहीं है। बस उन्हें अनदेखा करो। उन्हें मत उकसाओ, उनके साथ मेल-जोल मत रखो। अगर किसी कारण उनके साथ मेल-जोल या व्यवहार करना पड़े, तो आधिकारिक और निष्पक्ष रूप से सिद्धांतों के आधार पर मामलों से निपटो। यह इतना सरल है। परमेश्वर लोगों को कार्य और व्यवहार करने के जो सिद्धांत और तरीके सिखाता है, वे तुम्हें स्वाभिमान के साथ आचरण करने में मदद करते हैं, तुम्हें मानव के समान अधिक जीने देते हैं। जबकि तुम्हारे माता-पिता जिस तरह तुम्हें सिखाते हैं, जो ऊपर से तुम्हारी रक्षा करते हुए-से और तुम्हारा ख्याल रखते हुए-से लगते हैं, असल में तुम्हें गुमराह करते हैं और तुम्हें दुखों के रसातल में धकेल देते हैं। वे तुम्हें जो सिखाते हैं वह तुम्हारे आचरण का सही तरीका या बुद्धिमान दृष्टिकोण नहीं बल्कि शातिर और घिनौना तरीका है जो सत्य के विपरीत और उससे असंबद्ध है। इसलिए अगर तुम सिर्फ माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाए गए विचारों की शिक्षा को ही स्वीकार करते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य को स्वीकार करना बहुत कठिन और दुष्कर हो जाता है, और सत्य का अभ्यास करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। हालाँकि अगर तुम अपने माता-पिता से मिले दुनिया से निपटने के अपने आचरण और सिद्धांतों से जुड़े विचारों को सच्चे दिल से त्याग देना चाहते हो, तो सत्य स्वीकारना आसान हो जाता है और उसी तरह इसका अभ्यास करना भी।

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