सत्य का अनुसरण कैसे करें (14) भाग दो

अपने बेटों को “पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,” जैसी कहावतों की शिक्षा देने के अलावा, माता-पिता उन्हें अक्सर बताते हैं : “‘एक अच्छा मुर्गा कुत्तों से नहीं लड़ता; एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता’; लड़कियों के साथ खिलवाड़ या लड़ाई मत करो; उनके स्तर तक मत गिरो; वे लड़कियाँ हैं और तुम्हें उनके साथ नरमी बरतनी चाहिए।” तुम्हें उनके साथ नरमी क्यों बरतनी चाहिए? अगर उन्होंने कुछ गलत किया है तो उनके साथ नरमी नहीं बरतनी चाहिए या उन्हें बिगाड़ना नहीं चाहिए। महिला-पुरुष बराबर हैं। तुम्हारी ही तरह माता-पिता ने उन्हें भी जन्म दिया, पाल-पोसकर बड़ा किया, फिर तुम्हें उनके साथ नरमी क्यों बरतनी चाहिए? सिर्फ इस कारण से कि वे महिलाएँ हैं? वे कुछ गलत करें तो उन्हें दंड मिलना चाहिए, उस बारे में उन्हें शिक्षित होना चाहिए, अपनी गलती मानकर माफी माँगनी चाहिए, समझना चाहिए कि उन्होंने क्या गलती की है, और यह कि उन्हें ऐसी चीज फिर से होने पर वही गलती नहीं दोहरानी चाहिए। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए अपने माता-पिता के सिखाये सिद्धांत “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” का पालन करने के बजाय तुम्हें यह सीखना चाहिए कि उनकी मदद कैसे करें। महिलाएँ हों या पुरुष, सभी लोग कभी-न-कभी गलतियाँ करते हैं। ऐसा करने पर उन्हें अपनी गलती मान लेनी चाहिए और उसके लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए। महिला-पुरुष दोनों को सही पथ पर चलकर स्वाभिमान के साथ जीना चाहिए, बजाय इसके कि अपने माता-पिता की कही बात का पालन करें : “एक अच्छा मुर्गा कुत्तों से नहीं लड़ता; एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता।” एक नेक पुरुष महिलाओं से न लड़कर अपना दिखावा नहीं करता, न ही वह उनके स्तर तक गिरे बिना दिखावा करता है। देखो, माता-पिता अक्सर कहते हैं : “महिलाओं के बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है। उनके जीवन में कोई संभावनाएँ नहीं होती हैं, उन जैसे मत बनो, उन्हें गंभीरता से मत लो या उन पर ध्यान मत दो।” “उन पर ध्यान मत दो” से तुम्हारा क्या अर्थ है? सिद्धांतों के मसले को स्पष्ट कर समझने की जरूरत है। गलती किसने की, किसने सकारात्मक या नकारात्मक बात की, पथ के बारे में किसका उल्लेख सही था—सिद्धांतों, पथों और अपने आचरण से जुड़े मामलों को स्पष्ट किया जाना चाहिए। सही-गलत के बीच की रेखा को धुँधला मत करो; एक महिला के लिए भी तुम्हें चीजें स्पष्ट करनी चाहिए। अगर तुम उसे सचमुच ध्यान में रख रहे हो, तो तुम्हें उसे वह सच बता देना चाहिए जो लोगों को समझना चाहिए, सही पथ पर चलने में उसकी मदद करनी चाहिए, उसे मनमानी नहीं करने देनी चाहिए, और सिर्फ महिला होने के नाते उसे गंभीरता से लेने या चीजें स्पष्ट करने से नहीं बचना चाहिए। महिलाओं को भी स्वाभिमान के साथ जीना चाहिए और सिर्फ इस कारण संयम या विवेक नहीं खोना चाहिए कि पुरुष उनके साथ समझौता कर रहे हैं। महिला-पुरुष सिर्फ शारीरिक अर्थ में ही अलग-अलग हैं, परमेश्वर की नजरों में उनकी पहचान और हैसियत बराबर है। वे दोनों ही सृजित प्राणी हैं और लिंग भेद के अलावा उनमें कोई ज्यादा अंतर नहीं है। वे दोनों भ्रष्टता का अनुभव करते हैं और उनके आचरण के समान सिद्धांत हैं। परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक, बिना किसी अंतर के पुरुष और महिलाओं दोनों के लिए एक समान हैं। तो क्या माता-पिता की यह सीख “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” सच्ची है? (सच्ची नहीं है।) तो फिर सही नजरिया क्या है? इसका संबंध लड़ाई-झगड़ा करने से नहीं, बल्कि सिद्धांतों के अनुरूप व्यवहार करने से है। ऐसी टिप्पणियाँ करके माता-पिता क्या कहना चाहते हैं? क्या यह बेटियों के बजाय बेटों की तरफदारी नहीं हुई? ऐसा ही लगता है जब वे यह कहते हैं, “महिलाओं के बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है। वे नादान हैं, उनका विवेक नहीं के बराबर है। उनके साथ तर्क भी क्यों करें? वे नहीं समझेंगी। जैसी कि कहावत है, ‘बड़े स्तनों वाली महिलाओं में दिमाग नहीं होता, उनके बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है।’ तुम महिलाओं की फिक्र क्यों करो या उन्हें गंभीरता से क्यों लो?” क्या महिलाएँ इंसान नहीं हैं? क्या परमेश्वर महिलाओं को नहीं बचाता है? क्या वह उनके साथ सत्य साझा नहीं करता है, या उन्हें जीवन नहीं देता है? क्या यही बात है? (नहीं, ऐसी बात नहीं है।) अगर परमेश्वर ऐसा नहीं करता है, अगर वह महिलाओं से अन्यायपूर्ण ढंग से पेश नहीं आता है, तो तुम्हें किस तरह कार्य करना चाहिए? परमेश्वर तुम्हें जो सिद्धांत सिखाता है, महिलाओं से उनके अनुसार पेश आओ; अपने माता-पिता के विचार मत स्वीकार करो, या पुरुष-प्रधान प्रवृत्तियाँ मत बढ़ाओ। हो सकता है तुम्हारा हाड़-मांस महिलाओं से थोड़ा ज्यादा मजबूत हों, तुम्हारी कद-काठी बड़ी और शारीरिक शक्ति ज्यादा हो, तुम ज्यादा खाना खाते हो, फिर भी तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव, विद्रोहीपन और सत्य को न समझने की तुम्हारी सीमा महिलाओं से बिल्कुल भी अलग नहीं है। तुम जिन जीवन कौशलों में उत्कृष्ट हो, वे शायद महिलाओं से अलग हों : तुम इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी में कुशल हो, जबकि महिलाएँ सिलाई-कढ़ाई और रफू करने में निपुण होती हैं। क्या तुम ये काम कर सकते हो? पुरुष भवन-निर्माण में कुशल होते हैं, जबकि महिलाएँ सौंदर्य उपचार में बहुत अच्छी होती हैं। अगर पुरुष तरह-तरह की मशीनें और औजार चला सकते हैं, तो महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। महिलाएँ वाकई कहाँ पीछे हैं? ऐसी तमाम तुलनाएँ बेमानी हैं। यहाँ तुम्हारे लिए मुद्दा अपनी पुरुष-प्रधान सोच को जाने देने का है। “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” जैसे विचार मत स्वीकार करो; माता-पिता जो बातें कहते हैं वे सत्य नहीं हैं, वे तुम्हारे लिए हानिकारक हैं। कभी ऐसी बातें मत कहो जो महिलाओं के लिए अपमानजनक हों—यह तर्क और औचित्य के सरासर विरुद्ध है। महिलाओं के अपमान का मसला किस प्रकार का है? क्या ऐसे काम करने वाले लोगों में मानवता होती भी है? (नहीं होती।) वे मानवता-विहीन होते हैं। अगर तुम महिलाओं का अपमान करते हो, तो याद रखो कि तुम्हारी माँ, तुम्हारी दादी-नानी और तुम्हारी सभी बहनें महिलाएँ ही हैं। क्या वे ऐसा अपमान स्वीकार करने को तैयार हैं? कुछ माताएँ भी अपने बेटों से कहती हैं, “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता।” क्या ये माताएँ मूर्ख नहीं हैं? ऐसी माताएँ सरल बुद्धि वाली होती हैं और महिलाएँ होकर भी अपना ही महत्व घटा देती हैं; स्पष्ट रूप से वे उलझी सोच वाली होती हैं जिन्हें अपनी बातों का अर्थ पता नहीं होता। “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” वक्तव्य तर्क और औचित्य के सरासर विरुद्ध है। परमेश्वर ने महिलाओं को इस रूप में कभी परिभाषित नहीं किया, न ही उसने पुरुषों को कभी यह कहकर चेतावनी दी है, “महिलाएँ नाजुक होती हैं, उनके बाल लंबे होते हैं मगर उनकी अंतर्दृष्टि कम होती है, और उनमें सहज बुद्धि नहीं होती। उनसे मत लड़ो। लड़ोगे भी तो तुम चीजें स्पष्ट रूप से नहीं सुलझा पाओगे। उनके साथ हर चीज में क्षमाशील और समझौतापरक बनो, उन्हें गंभीरता से मत लो; पुरुषों को बड़े दिल वाला और सबको लेकर चलने वाला होना चाहिए।” क्या परमेश्वर ने कभी भी ऐसा कहा है? (उसने नहीं कहा है।) चूँकि परमेश्वर ने कभी ऐसी बातें नहीं कही हैं, इसलिए ऐसे काम मत करो या महिलाओं को ऐसे नजरिये से मत देखो। यह महिलाओं के साथ भेदभाव है, उनका अपमान है। जहाँ महिलाओं में कौशल की कमी हो, वहाँ तुम्हें वह काम करना चाहिए, मगर जिन कामों में तुम्हारा कौशल कम हो, वे तुम्हें महिलाओं को करने देने चाहिए। परस्पर निर्भरता और एक-दूसरे का पूरक बनना ही सही नजरिया है। यह सही नजरिया क्यों है? इसलिए कि महिला-पुरुष दोनों की खूबियाँ परमेश्वर ने नियत कर रखी हैं। महिला-पुरुष दोनों की खूबियाँ परमेश्वर द्वारा नियत हैं, यह तथ्य समझने के लिए तुम्हें कौन-सा विचार और नजरिया अपनाना चाहिए? यही कि एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए—अभ्यास का यही सिद्धांत है। पुरुषों को महिलाओं से भेदभाव नहीं करना चाहिए और महिलाओं को पुरुषों के प्रति अत्यधिक श्रद्धा दिखाकर यह नहीं सोचना चाहिए, “आखिरकार, हमारी कलीसिया में एक भाई है, एक शक्ति स्तंभ है। अब हमारी कलीसिया पूर्ण हो गई है, कोई ऐसा है जो हमें ताकत दे सके और हमारी ओर से चीजें सँभाल सके, हमारे लिए पहल कर सके।” क्या तुम हीन हो? क्या तुम्हारी आस्था पुरुषों में हैं? अगर कलीसिया सिर्फ बहनों से बनी हो, तो क्या इसका यह अर्थ है कि अब तुम्हें परमेश्वर में आस्था नहीं रही? यह कि तुम बचाई नहीं जा सकती या तुम सत्य को नहीं समझ सकती? जब कोई एकाएक यह टिप्पणी करता है, “तुम्हारी कलीसिया में कोई भाई क्यों नहीं हैं?” तो ऐसा लगता है मानो तुम्हारे दिल में छुरा भोंक दिया गया हो, और तुम कहती हो, “यह विषय मत उठाओ, यह हमारी कलीसिया की एक कमी है। हमें यह सुनना पसंद नहीं है; तुमने हमारी एकमात्र दुखती रग को छू दिया है,” और तुम प्रार्थना करती हो, “हे परमेश्वर, तुम हमारी कलीसिया के लिए एक भाई कब तैयार करोगे?” क्या कलीसिया भाइयों से चलती है? क्या यह भाइयों के बिना सधी नहीं रह सकती? क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा? (नहीं, उसने नहीं कहा।) परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा, न ही उसने कभी यह कहा कि कलीसिया स्थापित होने से पहले इसमें दोनों लिंगों के लोग होने चाहिए, या एक ही लिंग के साथ इसकी स्थापना नहीं हो सकती। क्या उसने कभी ऐसा कहा? (नहीं।) ये सब परिवार की शिक्षा से आई पुरुष-प्रधान सोच के नतीजे हैं। तुम हर चीज के लिए पुरुषों के भरोसे रहती हो, और जैसे ही कोई काम सामने आता है, तुम कहती हो, “मेरे पति के लौटने पर उनसे चर्चा करने के लिए मुझे प्रतीक्षा करनी होगी,” या “हमारी कलीसिया के भाई हाल में व्यस्त रहे हैं, इसलिए कोई भी इसे सँभालने की पहल नहीं कर रहा है।” तो महिलाएँ किस लिए हैं? क्या तुम ये मामले सँभालने में असमर्थ हो? क्या तुम्हारे पास मुँह और पैर नहीं हैं? तुममें कोई कमी नहीं है : तुम सत्य सिद्धांतों को समझती हो, तुम्हें उन्हीं के अनुसार कार्य करना चाहिए। पुरुष तुम्हारे मुखिया नहीं हैं, न ही वे तुम्हारे मालिक हैं; वे सिर्फ साधारण लोग हैं, भ्रष्ट मानवता के सदस्य हैं। अपने हर काम में परमेश्वर और उसके वचनों पर भरोसा करना सीखो। किसी एक व्यक्ति पर निर्भर रहने के बजाय तुम्हें इसी सिद्धांत और तरीके का पालन करना चाहिए। मैं पुरुष-प्रधान सोच की वकालत बेशक इसलिए नहीं करता कि महिला अधिकारों को ऊपर उठाना है या उन्हें सिद्ध करना है, बल्कि इसलिए करता हूँ कि लोगों को सत्य के एक पहलू को समझने में मदद मिले। सत्य का कौन-सा पहलू? यह कि तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हारे भीतर बैठाई गई कहावत “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता” सही नहीं है; यह एक गलत विचार को मन में बैठाकर आगे बढ़ा रही है। तुम्हें एक पुरुष की भूमिका में या जिस तरह तुम महिलाओं से पेश आते हो, उसमें इस विचार और नजरिये से आगे नहीं बढ़ना चाहिए। यह सत्य का वह पहलू है जो तुम्हें समझना चाहिए। हमेशा यह मत सोचो, “मैं एक पुरुष हूँ, मुझे मसलों पर एक पुरुष के नजरिये से विचार करना चाहिए, मुझे उन बहनों के प्रति विचारशीलता रखनी चाहिए और मुझे पुरुष के परिप्रेक्ष्य से उनकी रक्षा करनी चाहिए, उन्हें बर्दाश्त कर क्षमा करना चाहिए और उनमें से किसी को भी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। अगर कोई बहन कलीसिया में अगुआ के चुनाव में खड़ी होना चाहती हो, तो मैं उसके साथ विनम्रता से पेश आऊँगा और उसे अगुआई करने दूँगा।” किस आधार पर? सिर्फ इसलिए कि तुम पुरुष हो, तुम सोचते हो कि तुम सबको साथ लेकर चलते हो? क्या तुम उनके प्रति सहनशील हो सकते हो? तुम खुद को भी सह नहीं सकते। कलीसिया की अगुआई इस आधार पर तय होनी चाहिए कि उस भूमिका के लिए कौन उपयुक्त है। अगर भाई-बहन तुम्हें चुनें तो तुम्हें यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए। यह तुम्हारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी है। तुम इतनी बेपरवाही से कैसे मना कर रहे हो? यह दिखाने के लिए तुम कितने महान हो? क्या यही अभ्यास का सिद्धांत है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं है।) इसे मना करना और इसके लिए लड़ना दोनों गलत हैं; तो इसका सही तरीका क्या है? सही तरीका परमेश्वर के वचनों को अपने कर्मों का आधार और सत्य को अपनी कसौटी बनाना है। तुम लोगों के माता-पिता ने तुम सबको सिखाया कि “एक नेक पुरुष महिलाओं से नहीं लड़ता।” इस पुरुष-प्रधान सोच और नजरिये के साथ तुमने जीवन के कितने वर्ष बिताए हैं? बहुत-से लोग सोचते हैं, “धोना और मरम्मत करना महिलाओं का काम है। महिलाओं को ये सँभालने दो। जब मुझे ये काम करने पड़ते हैं, तो मैं खीझ जाता हूँ; लगता है मैं पूरा पुरुष नहीं हूँ।” तो, अगर तुम ये काम कर दोगे तो क्या होगा? क्या तुम अब पुरुष नहीं रहे? कुछ लोग कहते हैं, “मेरे कपड़े हमेशा मेरी माँ, बहन या दादी धोती है। मैंने कभी भी ‘महिलाओं के काम’ नहीं किए।” अब तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, और तुम्हें आत्मनिर्भर बनना है। तुम्हें बस यही करना चाहिए; लोगों से परमेश्वर यही माँग करता है। क्या तुम ऐसा करोगे? (बिल्कुल।) अगर तुम्हारा दिल प्रतिरोध करे, तुम अनिच्छुक हो, और इस मामले के कारण हमेशा अपनी माँ के बारे में सोचते हो, तो सचमुच निकम्मे हो। पुरुषों में ये पुरुष-प्रधान विचार होते हैं, और वे बच्चों की देखभाल, घर की साफ-सफाई, कपड़ों की धुलाई और सफाई जैसे कामों को नीची नजर से देखते हैं। कुछ लोग तीव्र पुरुष-प्रधान प्रवृत्ति के होते हैं और इन कामों से घृणा करते हैं, इन्हें नहीं करना चाहते, और अगर करें भी तो बड़े अनमने ढंग से और इस डर से करते हैं कि दूसरे उन्हें कम समझेंगे। वे सोचते हैं, “अगर मैं हमेशा ऐसे काम करता रहा, तो क्या मैं स्त्री जैसा नहीं हो जाऊँगा?” यह कैसी सोच और नजरिये से शासित है? क्या उनकी सोच में कोई समस्या है? (हाँ, बिल्कुल है।) उनकी सोच में दिक्कत है। उन कुछ इलाकों पर गौर करो जहाँ पुरुष हमेशा एप्रन पहन कर खाना पकाते हैं। जब महिला काम से घर लौटती है, तो पुरुष उसे यह कहकर भोजन परोसता है, “लो ये जरा चखो। सच में स्वादिष्ट है; आज मैंने तुम्हारी सारी पसंदीदा चीजें बनाई हैं।” महिला साधिकार पका-पकाया खाना खाती है, और पुरुष साधिकार खाना बनाता है, उसे कभी नहीं लगता कि वह गृहिणी जैसा है। बाहर निकलकर एप्रन उतार देने पर भी क्या वह पुरुष नहीं है? कुछ इलाकों में जहाँ पुरुष-प्रधानता बहुत प्रबल है, वे बेशक परिवार द्वारा दी गई शिक्षा और प्रभाव से बिगड़ जाते हैं। इस शिक्षा ने उन्हें बचाया है या नुकसान पहुँचाया है? (इसने उन्हें नुकसान पहुँचाया है।) यह उनके लिए हानिकारक रहा है। तीस, चालीस या पचास की उम्र के कुछ पुरुष अपने मोजे नहीं धो पाते। वे पंद्रह दिन तक एक ही बनियान पहनते हैं, गंदी हो जाने पर भी वे उसे धोना नहीं चाहते; उन्हें इसे धोने के तरीके का कुछ भी पता नहीं, उन्हें नहीं पता कि कितना पानी डालना है, कितना साबुन लगाना है, या इसे कैसे साफ करना है। वे बस इसे ऐसे ही पहन लेते हैं और मन-ही-मन सोचते हैं, “भविष्य में मैं अपनी माँ या बीवी से अपने लिए और बनियानें और मोजे खरीदने को कहूँगा ताकि मैं उन्हें दो महीने में एक बार धो सकूँ। बहुत बढ़िया होगा अगर मेरी माँ या पत्नी को यहाँ आने का मौका मिल जाए और वे इन्हें धो दें!” इन कामों से मुँह मोड़ने का मूल कारण उस सीख से जुड़ा है जो उसे अपने परिवार और माता-पिता से मिली। जो विचार और नजरिये माता-पिता बैठाते हैं, वे जीने के सबसे बुनियादी और सरलतम नियमों के साथ-साथ लोगों के बारे में कुछ गलत सोच को छूते हैं। सारांश में कहें, तो ये सब परिवार द्वारा लोगों की सोच की शिक्षा में शामिल हैं। परमेश्वर और अस्तित्व में आस्था के दौरान किसी व्यक्ति के जीवन पर इनका जितना भी प्रभाव हो या ये जितनी भी मुसीबत और असुविधा लाएँ, यथार्थ में इनका एक विशेष संबंध माता-पिता की वैचारिक शिक्षा से होता है। अगर अभी तुम वयस्क हो, और इन विचारों और नजरियों के अनुसार अनेक वर्ष जीवन बिता चुके हो, तो ये रातोरात नहीं बदलेंगे—इसमें समय लगता है। अगर ये विचार और नजरिये किसी के कर्तव्य निभाने या दुनिया से व्यवहार और उससे निपटने के सिद्धांतों से जुड़े हों, और अगर तुम सत्य का अनुसरण कर रहे हो, तो तुम्हें इन मसलों को बदलने और यथाशीघ्र सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास करना चाहिए। अगर ये सिर्फ किसी के निजी जीवन से जुड़े हों, तो बेहतर होता कि तुम बदलने को तैयार हो जाते। अगर तुम यह हासिल नहीं कर सकते, यह बहुत परेशान करने वाला और मुश्किल हो, या तुम पहले ही इस जीवनशैली के अभ्यस्त हो चुके हो और बदल नहीं सकते, तो कोई तुमसे जबरदस्ती नहीं कर रहा है। मैं बस तुम्हें इनका संकेत दे रहा हूँ ताकि तुम जान सको कि सही क्या है और गलत क्या है। जहाँ तक इन निजी जीवनशैली के मसलों का प्रश्न है, इन्हें तुम खुद माप-तोल कर देख लो—हम जबरदस्ती नहीं करेंगे। तुम अपने मोजे कितनी बार धोते हो, और उनके फट जाने पर क्या तुम उनकी मरम्मत करते हो या फेंक देते हो, यह तुम्हारा निजी मामला है। अपने हालात के अनुसार फैसला करो—हम इसके लिए कोई नियम तय नहीं करेंगे।

कुछ परिवारों में अपनी सौभाग्यशाली पृष्ठभूमि के कारण माता-पिता अक्सर बच्चों से कहते हैं, “बाहर जाते समय याद रखो कि तुम किस खानदान के हो, तुम्हारे पूर्वज कौन हैं। तुम्हें सामाजिक समूहों के बीच ऐसे कर्म करने चाहिए कि खानदान का मान-सम्मान बढ़े। अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा को कभी कलंकित मत करना। अपने पूर्वजों की शिक्षाएँ हमेशा याद रखना और अपनी विरासत को शर्मसार मत करना। अगर कभी गलती कर बैठोगे, तो लोग कहेंगे, ‘क्या तुम एक प्रमुख और सम्मानित परिवार से नहीं हो? तुम ऐसा काम कैसे कर सकते हो?’ वे तुम पर हँसेंगे, मगर वे सिर्फ तुम पर नहीं हँस रहे होंगे, बल्कि हमारे पूरे परिवार पर हँस रहे होंगे। उस स्थिति में तुम अपने परिवार का नाम बदनाम कर रहे होगे और अपने पूर्वजों को शर्मसार कर रहे होगे, जो अस्वीकार्य है।” कुछ माता-पिता अपने बच्चों को यह भी बताते हैं, “हमारा देश महान है, एक प्राचीन सभ्यता है। यह मौजूदा जीवन हमें आसानी से नहीं मिला, इसलिए इसे सँजोकर रखो। खास तौर से जब तुम विदेश जाओ, तो तुम्हें चीनी लोगों के लिए मान-सम्मान अर्जित करना चाहिए। ऐसा कुछ भी मत करो जिससे हमारे राष्ट्र का सिर झुके या चीनी लोगों की शोहरत को चोट लगे।” एक ओर, माता-पिता तुम्हें अपने परिवार और पूर्वजों के लिए, तो दूसरी ओर तुम्हारे राष्ट्र और जातीयता के लिए गौरव और सम्मान अर्जित करने को कहते हैं, तुमसे आग्रह करते हैं कि अपने देश को शर्मसार मत करो। माता-पिता बचपन से ही बच्चों को ऐसी शिक्षा देते हैं, और जब वे स्कूल जाते हैं तो शिक्षक भी उन्हें यह कहकर उसी तरह सिखाते हैं, “हमारी कक्षा, हमारे स्कूल, हमारे शहर और हमारे देश के लिए गौरव अर्जित करो। विदेशियों को यह कहकर हमारा मजाक मत उड़ाने दो कि हममें काबिलियत नहीं है, या हमारा चरित्र खराब है।” कलीसिया में कुछ लोग यह भी कहते हैं, “सबसे पहले हम चीनियों ने विश्वास किया। विदेशी भाई-बहनों से मिलते-जुलते समय हमें चीनी लोगों के लिए गौरव अर्जित करना चाहिए, उनकी शोहरत को बनाए रखना चाहिए।” ये सभी कहावतें सीधे उन बातों से जुड़ी हैं जो परिवार लोगों के भीतर बैठाते हैं। क्या इस प्रकार के विचार बैठाना सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) क्यों सही नहीं है? वे कौन-सा गौरव खोज रहे हैं? क्या ऐसा गौरव खोजने से कोई लाभ होता है? (नहीं, लाभ नहीं होता है।) एक घटना हुई थी, जब उत्तर-पूर्वी चीन का एक व्यक्ति विभिन्न कलीसियाओं का दौरा कर रहा था; उसने कलीसिया के चढ़ावे के 10,000 युआन उठा लिए, और अपने दिन गुजारने घर लौट गया। जब उत्तर-पूर्व के भाई-बहनों को पता चला, तो कुछ ने कहा, “यह इंसान घिनौना है! उसने कलीसिया के चढ़ावे का पैसा उठाने की हिमाकत की। उसने उत्तर-पूर्वी लोगों की शोहरत को पूरी तरह कलंकित कर दिया! अगर वह फिर कभी दिखे तो हमें उसे सबक सिखाना चाहिए!” इस घटना के बाद, उत्तर-पूर्वी लोगों को लगा मानो उन्होंने अपना सम्मान खो दिया। जब भी वे दूसरे प्रांतों के भाई-बहनों से बातें करते, यह मामला उठाने की हिम्मत नहीं करते। वे शर्मिंदा महसूस करते थे और डरते थे कि दूसरे शायद यह कहें, “आपके उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का अमुक व्यक्ति चढ़ावे के पैसे लेकर भाग गया।” इस बारे में किसी और के बात करने से वे डरते थे और खुद यह विषय उठाने की हिम्मत नहीं करते थे। क्या यह बर्ताव सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) यह गलत क्यों है? (कौन चढ़ावे के पैसे उठा लेता है इसका दूसरों से कोई लेना-देना नहीं है; हर कोई अपने लिए जिम्मेदार है।) बिल्कुल सही। उस व्यक्ति का चढ़ावे के पैसे लेना उसका अपना मसला है। अगर तुम्हें मालूम हो जाता और तुम उसे रोक देते, तुम इस तरह परमेश्वर के घर का नुकसान होने से बचा लेते, उसके हित सुरक्षित रख लेते तो तुमने अपनी जिम्मेदारी निभाई होती। अगर तुम्हारे पास इसे रोकने का कोई मौका नहीं था और तुम नुकसान होने से बचा नहीं सकते थे, तो तुम्हें जान लेना चाहिए था कि वह कैसा दुष्ट व्यक्ति है, खुद को चेतावनी देनी चाहिए थी और परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए थी कि ऐसी घटना से तुम्हारी रक्षा करे और सुनिश्चित करे कि तुम ऐसे प्रलोभन में न फँसो। तुम्हें इस मसले का सही ढंग से समाधान करना चाहिए। हालाँकि वह तुम्हारे क्षेत्र का है, लेकिन उसके कर्म एक व्यक्ति के रूप में सिर्फ उसके परिचायक हैं। ऐसा नहीं है कि उस क्षेत्र के लोगों ने उसे ऐसा करना सिखाया या इसके लिए प्रोत्साहित किया। इसका किसी दूसरे से कोई संबंध नहीं है। दूसरे लोग सिर्फ आधी-अधूरी निगरानी या निर्देशन के लिए जवाबदेह हो सकते हैं, लेकिन कोई भी दूसरा उसके गलत काम के नतीजे झेलने को बाध्य नहीं है। उसने परमेश्वर के विरुद्ध कार्य किया और प्रशासनिक आदेशों का अपमान किया, उसके कर्मों के नतीजे झेलने के लिए कोई दूसरा बाध्य नहीं है। उसकी बदनामी उसका अपना मामला है। यही नहीं यह नाक कटाने या गौरव अर्जित करने का मामला भी नहीं है; इसका संबंध एक व्यक्ति के प्रकृति सार और उसके चलने के पथ से है। सिर्फ यही कहा जा सकता है कि शुरू में लोग उसका सच्चा चरित्र जानने में नाकाम रहे, लेकिन इस घटना के बाद उसका असली रूप प्रकट हो गया। इसका उस भौगोलिक क्षेत्र के दूसरे भाई-बहनों की प्रसिद्धि या स्वाभिमान से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे ही क्षेत्र का होने के कारण उसने तुम्हारी नाक कटा दी है, तो ऐसी सोच और समझ पूरी तरह गलत है। परमेश्वर का घर एक अकेले व्यक्ति के पापों के लिए एक पूरे परिवार को दंड नहीं देता; परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को एक अलग इकाई के रूप में देखता है। तुम चाहे कहीं से भी आओ, भले ही तुम उसी परिवार या उसी माता-पिता की संतान हो, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को एक अलग इकाई के रूप में देखता है। परमेश्वर एक व्यक्ति की गलतियों के लिए कभी किसी संबद्ध व्यक्ति को नहीं फँसाता। यही सिद्धांत है, और यह सत्य के अनुरूप है। लेकिन, अगर तुम सोचते हो कि गलत काम करने वाला तुम्हारे क्षेत्र का कोई व्यक्ति तुम्हारी शोहरत को हानि पहुँचाता है और तुम्हें भी फँसा देता है, तो इस सोच के पीछे तुम्हारी गलत समझ है और इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, जब माता-पिता तुमसे कहते हैं, “हमारे देश, परिवार या कुल का नाम ऊँचा करो,” तो क्या यह सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? किस वाक्यांश के साथ इसकी प्रकृति मिलती है? क्या इसकी प्रकृति वैसी ही नहीं है जैसी उस विचार की है जिस पर हमने पहले चर्चा की थी, यानी “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है”? किसी व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक कार्य करना, सही पथ पर चलना, सकारात्मक चीजों और सत्य को अपनाना—इनमें से कुछ भी खुद को श्रेय देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय लोगों को ऐसा आचरण करना चाहिए : यह उनकी जिम्मेदारी है, वह पथ है जिस पर उन्हें चलना चाहिए और उनका कर्तव्य है। सही पथ पर चलना, सकारात्मक चीजों और सत्य को अपनाना और परमेश्वर को समर्पित होना लोगों का दायित्व और कर्तव्य है। ये उद्धार प्राप्त करने के लिए भी हैं, इसलिए नहीं कि कोई अपने लिए या परमेश्वर के लिए और बेशक इसलिए नहीं कि अपने देश के लोगों के लिए, और निश्चित रूप से इसलिए नहीं कि किसी विशिष्ट कुलनाम, प्रजाति या वंश के लिए नाम कमाए। तुम इसलिए नहीं बचाए जाते कि तुम अपने देशवासियों के लिए नाम कमाओ, और यकीनन इसलिए भी नहीं कि अपने परिवार के लिए नाम कमाओ। नाम कमाने का विचार सिर्फ एक सिद्धांत है। तुम्हारे उद्धार का उन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे उद्धार से उन्हें क्या फायदा होगा? अगर तुम्हें उद्धार मिलता है, तो इससे उन्हें क्या मिलेगा? वे सही पथ पर नहीं चलते, और परमेश्वर अपने धार्मिक स्वभाव के साथ उनसे उसी तरह पेश आएगा। वह उनसे उसी तरह पेश आएगा जैसे उनके साथ आना चाहिए। इस तथाकथित नाम कमाने से उन्हें क्या मिलेगा? इसका उनके साथ कोई लेना-देना नहीं है। तुम जिस पथ पर चलते हो उसके नतीजे तुम्हीं स्वीकार करते हो, और वे ही अपने पथ के नतीजे स्वीकार करते हैं। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के साथ अपने धार्मिक स्वभाव के अनुसार पेश आता है। किसी के राष्ट्र, परिवार या कुलनाम के लिए नाम कमाना किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है। स्वाभाविक रूप से तुम्हें यह जिम्मेदारी अकेले नहीं उठानी चाहिए, और दरअसल तुम उठा भी नहीं सकते। किसी परिवार या कुल के उत्थान और पतन, उसके मार्ग और उसके भाग्य का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि क्या तुम उनके लिए नाम कमाते हो। और बेशक, इसका तुम्हारे चलने के पथ से भी कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम अच्छा आचरण करते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित रह पाते हो, तो यह उनके लिए नाम कमाने या उन्हें लाभ पहुँचाने के लिए नहीं है, न ही यह परमेश्वर से उनके एवज में कोई पुरस्कार पाने के लिए या उन्हें दंड से छूट दिलवाने के लिए है। उनका उत्थान-पतन और उनके भाग्य का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। खास तौर से वे सम्मानित महसूस करते हैं या नहीं और तुम उनके लिए नाम कमाते हो या नहीं—ऐसी बातें तुम्हारे लिए औचित्यहीन हैं। तुम इनका बोझ अपने कंधों पर नहीं ढो सकते, और ऐसा करने की जिम्मेदारी और दायित्व तुम्हारा नहीं है। इसलिए तुम्हारे माता-पिता जब तुमसे कहते हैं, “तुम्हें अपने राष्ट्र, परिवार या कुलनाम के लिए नाम कमाना चाहिए, और तुम्हें अपने पूर्वजों की ख्याति को कलंकित नहीं करना चाहिए या दूसरों को हमारी पीठ पीछे तिरस्कार नहीं करने देना चाहिए,” तो ये बातें तुम्हारे ऊपर सिर्फ नकारात्मक मनोवैज्ञानिक दबाव डालने का काम करते हैं। तुम उनके अनुसार नहीं जी सकते, न ही ऐसा करने का तुम्हारा कोई दायित्व है। क्यों? क्योंकि परमेश्वर तुमसे यही अपेक्षा करता है कि उसके समक्ष तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाओ। वह नहीं कहता कि तुम अपने देश, परिवार या कुलनाम के लिए कुछ भी करो या कोई दायित्व उठाओ। इसलिए, अपने देश या परिवार के लिए नाम और सम्मान अर्जित करना या अपने कुलनाम के लिए कुछ भी करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। उनका भाग्य पूरी तरह परमेश्वर के हाथों में है, और तुम्हें कोई भी बोझ उठाने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। अगर तुम कोई गलती करो, तो तुम्हें उसके प्रति अपराध बोध महसूस नहीं करना चाहिए। अगर तुम कोई नेक कर्म करते हो, तो तुम्हें यूँ नहीं सोचना चाहिए कि तुम भाग्यशाली थे या यह नहीं सोचना चाहिए कि तुमने अपने देश, परिवार या कुलनाम के लिए नाम कमाया है। इन चीजों को लेकर प्रफुल्लित मत होओ। और नाकामयाब होने पर भयभीत या बहुत दुखी मत होओ। खुद को दोष मत दो। क्योंकि इसका तुमसे बिल्कुल कोई लेना-देना नहीं है। इसके बारे में सोचो भी मत—इतनी सरल-सी बात है। तो, विभिन्न राष्ट्रीयताओं के लोगों की बात करें, तो चीनी लोग परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं; वे परमेश्वर के समक्ष आते हैं, और सृजित प्राणी हैं। पश्चिमी लोग परमेश्वर के समक्ष आते हैं, और वे भी सृजित प्राणी हैं। एशियाई, यूरोपीय, उत्तर और दक्षिण अमरीकी, ओशनियावासी, अफ्रीकी, परमेश्वर के समक्ष आकर उसका कार्य स्वीकार करते हैं, और वे भी उसके सृजित प्राणी हैं। व्यक्ति चाहे किसी भी देश का हो, उसे बस एक ही काम करना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाए, परमेश्वर के वचन स्वीकार करे, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित हो, और उद्धार प्राप्त करे। लोगों को अपनी राष्ट्रीयता के आधार पर तरह-तरह के कुल समूह बनाकर अपने लोगों को समूहों या प्रजातियों में नहीं बाँटना चाहिए। जो भी चीज प्रजातीय गौरव को अपने संघर्ष का उद्देश्य या अपना बुनियादी सिद्धांत बनाती है, वह गलत है। यह वह पथ नहीं है जिस पर लोगों को चलना चाहिए, और यह ऐसी घटना है जो कलीसिया में प्रकट नहीं होनी चाहिए। एक दिन ऐसा आएगा जब विभिन्न देशों के लोग और व्यापक रूप से संपर्क बनाएँगे और विश्व के व्यापक क्षेत्र तक उनकी पहुँच होगी, जब शायद कोई एशियाई व्यक्ति यूरोपीय से मिले या कोई यूरोपीय व्यक्ति अमरीकी से मिले, और शायद एक अमरीकी किसी एशियाई या अफ्रीकी, वगैरह से मिले। विभिन्न प्रजातियों के एक साथ इकट्ठा होने पर अगर प्रजातियों के आधार पर समूह बन जाएँ, सभी अपने प्रजातीय गौरव और अपनी प्रजाति के लिए कुछ करने में लग जाएँ, तो कलीसिया का किससे सामना होने लगेगा? वह विभाजन का सामना करेगी। यह ऐसी चीज है जिससे परमेश्वर घृणा करता है और जिसकी वह निंदा करता है। जो भी ऐसा करता है उसे शाप मिलता है, जो भी ऐसा करता है वह शैतान का चाकर है, और जो भी ऐसा करता है वह दंड का भागी होगा। उसे दंड क्यों मिलेगा? क्योंकि यह प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन है। ऐसा कभी मत करो। अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुमने अपने माता-पिता द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के इस पहलू को त्यागा नहीं है। तुमने उस पहचान को स्वीकार नहीं किया है जो परमेश्वर ने तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में दी है, और तुम अभी भी खुद को एक चीनी, या एक श्वेत, काले या साँवले व्यक्ति के रूप में देखते हो—एक अलग प्रजाति, कुलनाम या राष्ट्रीयता के किसी व्यक्ति के रूप में देखते हो। अगर तुम अपने राष्ट्र, प्रजाति या परिवार के लिए नाम कमाना चाहते हो, और अपने मन में यह विचार लेकर काम करते हो, तो इसके नतीजे भयंकर होंगे। आज हम सत्यनिष्ठा से यह घोषित करते हैं और ईमानदारी से इस विषय को यहाँ स्पष्ट करते हैं। अगर किसी दिन कोई भी व्यक्ति प्रशासनिक आदेशों के इस पहलू के विरुद्ध कार्य करता है, तो उसे इसके नतीजे झेलने होंगे। तब यह कहकर शिकायत मत करना, “तुमने मुझे नहीं बताया, मुझे पता नहीं था, मैंने नहीं समझा।” तुम्हें इतने लंबे समय से एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान का ज्ञान है, फिर भी तुम अब भी ऐसा काम करते हो : इसका अर्थ है कि तुम अनाड़ी नहीं थे, मगर तुमने जान-बूझकर ऐसा किया, जान-बूझकर अपमान किया। तुम्हें दंड मिलना चाहिए। प्रशासनिक आदेशों के विरुद्ध जाने के नतीजों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ, हम समझ रहे हैं।)

कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “जहाँ भी जाएँ हमें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम कहाँ पैदा हुए, कहाँ बड़े हुए, या हम कौन हैं। तुम जहाँ भी जाओ, अपने गाँव वालों से मिलने पर तुम्हें उनका ख्याल रखना चाहिए। कलीसिया के अगुआओं या सुपरवाइजरों को चुनते समय, अपने गाँव वालों को प्राथमिकता दो। जब कलीसिया में कोई भौतिक लाभ हो, तो अपने गाँव वालों को पहले उसका आनंद लेने दो। अगर तुम किसी समूह के लिए सदस्य चुन रहे हो, तो पहले अपने गाँव वालों को चुनो। जब साथी गाँव वाले एक साथ काम करते हैं, तो सभी एक ही भाषा बोलते हैं और एक दूसरे को जानते हैं।” इसे क्या कहा जाता है? “जब साथी गाँव वाले मिलते हैं, तो उनकी आँखें भर आती हैं।” एक कहावत यह भी है, “चाचा-चाचियाँ परिवार होते हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी : हड्डियाँ भले ही टूटी हुई हों, नसें अभी भी जुड़ी हुई हैं।” अपने माता-पिता और बड़े-बूढ़ों के निर्देश के कारण, कुछ लोग जैसे ही सुनते हैं कि कोई उनके गाँव या प्रांत से आया है, या वे किसी को अपने गाँव के लहजे में बोलते हुए सुनते हैं, तो वे उनके प्रिय हो जाते हैं। वे साथ खाना खाते हैं, सभाओं में साथ बैठते हैं और सब-कुछ साथ ही करते हैं। वे खास तौर पर करीब हो जाते हैं। कुछ लोग किसी साथी गाँव वाले से मिलने पर शायद यह कहें, “जानते हो वे क्या कहते हैं, ‘जब साथी गाँव वाले मिलते हैं, तो उनकी आँखें भर आती हैं।’ जब मैं किसी गाँव वाले साथी से मिलता हूँ, तो उसके बहुत करीब महसूस करता हूँ : जब मैं तुमसे मिला तो लगा जैसे तुम मेरे परिवार से हो।” वे अपने साथी गाँव वालों का खास ख्याल रखते हैं। अगर उनके गाँव वालों को जीवन या कामकाज में कोई मुश्किल आती है, या अगर वे बीमार पड़ जाते हैं, तो वे उनकी खास देखभाल करते हैं। क्या यह अच्छी बात है? (नहीं, यह अच्छी बात नहीं है।) यह अच्छी बात क्यों नहीं है? (लोगों से इस तरह पेश आने में सिद्धांत नहीं होते।) इसमें सिद्धांत नहीं होते और ऐसे व्यक्ति अस्त-व्यस्त होते हैं। वे हर किसी साथी गाँव वाले को स्नेह दिखाते हैं, मगर साथी गाँव वाले कैसे हैं? क्या वे अच्छे लोग हैं? क्या वे सच्चे भाई-बहन हैं? क्या तुम्हारा उन्हें आगे बढ़ाना सिद्धांतों के अनुसार है? क्या तुम्हारे द्वारा की गई उनकी सिफारिश सिद्धांतों के अनुकूल है? क्या वे काम के लायक हैं? क्या तुम्हारा उनका ख्याल रखना और तुम्हारी उनसे करीबी जायज है? क्या यह सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है? अगर नहीं, तो तुम उनके लिए जो कर रहे हो, वह अनुचित है और परमेश्वर को इससे घृणा है। क्या तुम समझ रहे हो? (मैं समझ रहा हूँ।) इसलिए, जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें बताते हैं, “साथी गाँव वालों से मिलने पर उनका ख्याल रखो,” तो यह एक भ्रम है, और तुम्हें इसे अपने मन में कहीं पीछे रखकर उसकी अनदेखी करनी चाहिए। भविष्य में, अगर तुम्हारे माता-पिता तुमसे पूछें, “हमारा वह साथी गाँव वाला तेरी ही कलीसिया में है। तूने उसका ख्याल रखा?” तो तुम्हें क्या जवाब देना चाहिए? (परमेश्वर के घर में हम सबके साथ बराबरी से पेश आते हैं।) तुम्हें कहना चाहिए, “मैं ऐसा करने को बाध्य नहीं हूँ। गाँव वालों को भूल जाइए, अगर आप लोग परमेश्वर के विरोध में खड़े होंगे तो मैं आपका भी ख्याल नहीं रखूँगा।” कुछ लोग ऐसी पारंपरिक पारिवारिक धारणाओं से बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं। जैसे ही वे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं, जो थोड़ा भी उनके रिश्ते में हो, या जिसका कुलनाम एक जैसा हो, या जो उसी कुल का हो, तो वे उससे अलग नहीं रह सकते। जैसे ही वे सुनते हैं कि कोई उन्हीं के कुलनाम वाला है, तो वे कहते हैं, “अरे वाह, यहाँ हम सब परिवार के लोग ही हैं। परिवार में अपनी मौजूदा स्थिति के आधार पर मुझे उन्हें बड़ी नानी बुलाना चाहिए। उनकी तुलना में मैं एक पोते जैसा हूँ।” वे स्वेच्छा से खुद को पोता कहने लगते हैं, और उन्हें देखने पर वे उन्हें बहन या किसी और नाम से संबोधित करने की हिम्मत नहीं करते; वे उन्हें हमेशा “बड़ी नानी” कहकर पुकारते हैं। कुछ लोग जब उसी कुलनाम वाले किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तो वह व्यक्ति जैसा भी हो, वे खास तौर से उसके करीब महसूस करते हैं। क्या यह सही है? (नहीं।) खास तौर से कुछ परिवारों में अपने कुल के लोगों का विशेष ध्यान रखने की परंपरा होती है, वे अक्सर उनके साथ शालीनता से पेश आकर करीबी मेल-जोल रखते हैं। इस तरह, ऐसा लगता है जैसे उनके घर में हमेशा लोगों और गतिविधियों के कारण चहल-पहल रहती है, और परिवार विशेष रूप से जीवंत और समृद्ध लगता है। कुछ भी होने पर दूरस्थ रिश्तेदार भी राय-मशविरा देते हुए हाथ बँटाने आ जाते हैं। इस पारिवारिक संस्कृति से प्रभावित कुछ लोगों को लगता है कि ऐसा आचरण करना अच्छी बात है; कम-से-कम वे अलग-थलग या अकेले नहीं हैं और कुछ मसले खड़े होने पर उनकी मदद करने वाले लोग हैं। दूसरे लोगों के मन में कौन-सी धारणाएँ होती हैं? “लोगों के बीच रहने के लिए किसी को मनमोहक ढंग से कार्य करना चाहिए।” इस कहावत को समझाना मुश्किल है, फिर भी सभी लोग इसका अर्थ समझ सकते हैं। “किसी व्यक्ति को मानवीय भावनाओं के साथ जीना चाहिए। क्या मानवीय भावनाएँ न होने पर भी किसी व्यक्ति को मानव कहा जा सकता है? अगर तुम हमेशा गंभीर और ईमानदार रहते हो, अगर तुम हमेशा सिद्धांतों और दृष्टिकोणों को लेकर चिंतित रहते हो, तो अंत में, तुम्हारे पास कोई रिश्तेदार या दोस्त नहीं होंगे। सामाजिक समूहों में जीते हुए तुममें मानवीय भावनाएँ होनी चाहिए। जिन लोगों का हमारे कुलनाम से कोई लेना-देना नहीं है, उनकी बात अलग है, लेकिन क्या हमारे ही कुलनाम या कुल के सभी लोग हमारे करीबी नहीं हैं? तुम उनमें से किसी को नहीं छोड़ सकते। जब बीमारी, शादी, अंत्येष्टि या दूसरी छोटी-बड़ी घटनाओं से तुम्हारा सामना होता है, तो क्या उन पर चर्चा के लिए तुम्हें किसी की जरूरत नहीं पड़ती? जब तुम घर, गाड़ी या जमीन खरीदते हो, तो कोई भी मदद का हाथ बढ़ा सकता है। तुम इन लोगों को नहीं छोड़ सकते; तुम्हें जीवन में उन पर भरोसा करना पड़ता है।” चूँकि तुम इस पारिवारिक संस्कृति से गहराई से प्रभावित हो, इसलिए बाहर रहने पर, और खास तौर से कलीसिया में, तुम अपने ही कुल के किसी व्यक्ति को देखते हो, तो अनजाने ही उसकी ओर खिंचे चले जाते हो, उसे खास पसंद करने लगते हो, अक्सर उसका खास ख्याल रखते हो, उससे खास ढंग से पेश आते हो, और उसके साथ खास मेल-जोल रखते हो। वह गलती करे तो भी तुम अक्सर उससे उदारता से पेश आते हो। जिन लोगों के साथ तुम्हारा खून का रिश्ता नहीं है, उनसे तुम निष्पक्षता से पेश आते हो। लेकिन अपने कुल के लोगों के साथ तुम रक्षात्मक तरीके से पेश आते हो, उनका पक्ष लेते हो, जिसे बेबाकी से “रिश्तेदारों की तरफदारी” कहा जाता है। कुछ लोग अक्सर इन विचारों से चलते हैं, और परमेश्वर के सिखाए सिद्धांतों के बजाय पारिवारिक संस्कृति के प्रभाव के आधार पर लोगों से पेश आते हैं या मामले सँभालते हैं। क्या यह गलत नहीं है? (बिल्कुल।) मिसाल के तौर पर, झांग कुलनाम वाली कोई महिला शायद उसी कुलनाम वाली थोड़ी बड़ी दूसरी महिला को “बड़ी बहन” कह कर पुकारे। दूसरे लोग शायद सोचें कि वे सगी बहनें हैं, मगर असल में वे रिश्तेदार नहीं हैं, उनका कुलनाम एक है पर उनमें खून का रिश्ता बिल्कुल भी नहीं है। वह उसे इस तरह क्यों पुकारती है? यह पारिवारिक संस्कृति का प्रभाव है। दोनों जहाँ भी जाती हैं, अलग नहीं रह पातीं, वह अपनी “बड़ी बहन” के साथ सब-कुछ साझा करती है, मगर दूसरों के साथ नहीं। क्यों? “क्योंकि वह एक झांग है, ठीक मेरे जैसी। हम परिवार हैं। मुझे उसे सब-कुछ बताना चाहिए। उसे नहीं तो और किसे बताऊँगी? अगर मैंने परिवार पर भरोसा न करके अजनबियों पर भरोसा किया, तो क्या यह मूर्खता नहीं होगी? किसी भी दृष्टि से देखो, बाहर वाले भरोसेमंद नहीं होते; सिर्फ परिवार पर भरोसा किया जा सकता है।” कलीसिया अगुआओं को चुनते समय वह उसे ही चुनती है, और जब लोग पूछते हैं, “आपने उसे क्यों चुना?” तो वह कहती है, “क्योंकि उसका और मेरा कुलनाम एक ही है। मैं उसे न चुनती तो क्या यह सरासर समझ और औचित्य के विरुद्ध नहीं होगा? अगर मैं उसे न चुनूँ तो क्या मैं इंसान भी कहलाऊँगी?” जब भी कलीसिया के पास देने के लिए कुछ भौतिक लाभ या अच्छी चीजें होती हैं, वह पहले उन्हीं के बारे में सोचती है। “आपने पहले उस महिला के बारे में क्यों सोचा?” “क्योंकि उसका और मेरा कुलनाम एक है, वह मेरे परिवार का हिस्सा है। अगर मैं उनका ख्याल नहीं रखूँगी, तो कौन रखेगा? अगर मुझमें यह बुनियादी मानवीय भावना नहीं हुई तो क्या मैं मानव भी रह पाऊँगी?” चाहे ये चीजें स्नेह से उपजें या खुदगर्ज मंसूबों से, संक्षेप में कहें तो अगर तुम अपने परिवार के इन विचारों से प्रभावित और अनुकूलित होते हो, तो तुम्हें तुरंत पीछे मुड़कर ऐसा बर्ताव करना, चीजों से इस तरह निपटना और लोगों से इन तरीकों के साथ पेश आना बंद कर देना चाहिए। ये तरीके चाहे जितने भी संकुचित या व्यापक क्यों न हों, ये वे सिद्धांत और तरीके नहीं हैं जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाए हैं। कम-से-कम ये ऐसे विचार और नजरिये हैं जिन्हें त्याग देना चाहिए। संक्षेप में कहें, तो परिवार द्वारा दी गई किसी भी शिक्षा को, जो परमेश्वर द्वारा तुम्हें सिखाए गए सिद्धांतों के अनुरूप न हो, तुम्हें त्याग देना चाहिए। तुम्हें इन तरीकों का इस्तेमाल कर दूसरों के साथ पेश नहीं आना चाहिए या मिलना-जुलना नहीं चाहिए, न ही तुम्हें मामलों को इस तरह सँभालना चाहिए। कुछ लोग बहस कर सकते हैं, “अगर मैंने इन चीजों को इस तरह नहीं सँभाला, तो बिल्कुल नहीं जान सकूँगा कि इन्हें कैसे सँभालना चाहिए।” इसका आसानी से प्रबंध हो सकता है। परमेश्वर के वचन तमाम मामले सँभालने के सिद्धांत बताते हैं। अगर तुम्हें परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का पथ न मिले, तो सत्य को समझाने वाले किसी भाई-बहन को तलाशो, और उससे पूछो। वह चीजें स्पष्ट कर तुम्हें समझा देंगे। ये वे चीजें हैं जिन्हें कुल, कुलनाम और दुनिया के तौर-तरीकों से जुड़े मसलों से पेश आने के लिए लोगों को जाने देना चाहिए।

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें