सत्य का अनुसरण कैसे करें (13) भाग तीन
तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने और खाना, कपड़े और शिक्षा मुहैया करने के अलावा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें क्या दिया है? उसने तुम्हें बस मुश्किलें दी हैं, सही है न? (हाँ।) अगर तुम ऐसे परिवार में पैदा नहीं हुए होते, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के तमाम प्रभावों का शायद अस्तित्व ही न होता। तुम्हारा परिवार तुम्हें न भी सिखाता, मगर समाज की शिक्षा का प्रभाव जरूर होता—तुम उनसे बच नहीं सकते। तुम उसे चाहे जिस नजरिये से देखो, शिक्षा के ये प्रभाव तुम्हारे परिवार से आएँ या समाज से, ये विचार और सोच मूल रूप से शैतान से उपजते हैं। बस इतना ही है कि प्रत्येक परिवार समाज की इन विविध कहावतों पर अलग-अलग हद तक विश्वास कर स्वीकार करता है और अलग-अलग बिंदुओं पर जोर देता है। वह फिर अपने परिवार की अगली पीढ़ी को शिक्षित करने और सिखाने-पढ़ाने के लिए तदनुरूप तरीकों का प्रयोग करता है। अपने परिवार के आधार पर हर व्यक्ति हर तरह का शिक्षण अलग-अलग स्तर तक प्राप्त करता है। लेकिन दरअसल, ये शिक्षा के ये प्रभाव समाज और शैतान से उपजते हैं। बात बस इतनी है कि शिक्षा के ये प्रभाव, माता-पिता की ज्यादा ठोस बातों और कार्यों के जरिये लोगों के दिमाग में गहरे पैठाए जाते हैं, यह लोगों को अधीन बनाने वाले सीधे तरीकों से किया जाता है, ताकि लोग इस शिक्षा को स्वीकार कर लें और यह दुनिया से निपटने का उनका सिद्धांत और तरीका बन जाए, और यह वह आधार भी बन जाए जिससे वे लोगों और मामलों को देखें और अपना आचरण और कार्य करें। मिसाल के तौर पर, जिस विचार और सोच की हमने अभी बात की “किसी के घंटी बजाने पर उसकी आवाज सुनो; किसी के बोलने पर उसकी वाणी सुनो”—वह भी तुम्हारे परिवार से मिलने वाली शिक्षा का प्रभाव है। लोगों पर उनके परिवार शिक्षा द्वारा चाहे जैसा भी प्रभाव डालें, वे उसे परिवार के सदस्यों के परिप्रेक्ष्य से देखते हैं, और इसलिए उसे सकारात्मक और अपने ताबीज के रूप में स्वीकार करते हैं, जिसका वे अपनी रक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि लोग सोचते हैं कि उनके माता-पिता से आई हर चीज उनके माता-पिता के अभ्यास और अनुभव का परिणाम है। दुनिया के सभी लोगों में से सिर्फ उनके माता-पिता ही उन्हें कभी हानि नहीं पहुँचाएँगे, और उनके माता-पिता ही चाहते हैं कि वे बेहतर जीवन जिएँ और बस माता-पिता ही उनकी रक्षा करना चाहते हैं। इसलिए लोग अपने माता-पिता से आए विचारों और सोच को समझे बिना ही स्वीकार लेते हैं। इस प्रकार वे स्वाभाविक रूप से इन विविध विचारों और सोच द्वारा सिखाई बातों को स्वीकार कर लेते हैं। एक बार जब वे इन विचारों और सोच से शिक्षित हो जाते हैं, तो कभी उन पर शक नहीं करते या उनकी असलियत नहीं पहचानते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को अक्सर ऐसी बातें कहते हुए सुनते हैं। मिसाल के तौर पर, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” तो इस कहावत का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि चाहे तुम्हारे माता-पिता सही हों या गलत, मूल रूप से चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया है, पाल-पोस कर बड़ा किया है, इसलिए जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, तुम्हारे माता-पिता द्वारा किया सब कुछ सही है। तुम फैसला नहीं कर सकते कि वे सही हैं या गलत, न ही तुम उन्हें ठुकरा सकते हो, उनका प्रतिरोध करना तो दूर की बात है। इसे संतानोचित धर्मपरायणता कहते हैं। भले ही तुम्हारे माता-पिता ने गलत किया हो, और भले ही उनके कुछ विचार और सोच पुराने या गलत हों, या जिस तरह से या जिन विचारों और सोच से वे तुम्हें शिक्षित करें, वे सही और सकारात्मक न हों, तो भी तुम्हें उन पर शक नहीं करना चाहिए या उन्हें ठुकराना नहीं चाहिए, क्योंकि उस बारे में एक कहावत है—“माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” माता-पिता के मामले में, तुम्हें कभी यह जानना या आकलन करना नहीं चाहिए कि वे सही हैं या गलत, क्योंकि जहाँ तक बच्चों का सवाल है, उनका जीवन और उन्हें प्राप्त हर चीज उनके माता-पिता से आई है। तुम्हारे माता-पिता से ऊपर कोई नहीं, तो अगर तुममें जमीर है, तो तुम्हें उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने भी गलत या अपूर्ण क्यों न हों, फिर भी वे तुम्हारे माता-पिता हैं। वही लोग तुम्हारे सबसे करीब हैं, जिन्होंने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया, जो तुमसे सबसे अच्छे ढंग से पेश आते हैं, और जिन्होंने तुम्हें जीवन दिया है। क्या सभी लोग इस कहावत को नहीं स्वीकारते? और चूँकि यह मानसिकता मौजूद है, ठीक इसीलिए तुम्हारे माता-पिता को लगता है कि वे तुमसे अनैतिक ढंग से पेश आ सकते हैं, तुम्हें तमाम चीजें करने की ओर मोड़ने के लिए विविध तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं, और तुम्हारे मन में विविध विचार भर सकते हैं। अपने नजरिये से उन्हें लगता है, “मेरी मंशाएँ सही हैं, यह तुम्हारी भलाई के लिए है। तुम्हारे पास जो भी है वह मेरा दिया हुआ है। तुम्हें मैंने ही जन्म देकर, पाल-पोस कर बड़ा किया है, इसलिए तुमसे चाहे जैसे पेश आऊँ, मैं गलत नहीं हो सकता, क्योंकि मैं सब-कुछ तुम्हारी भलाई के लिए करता हूँ, और मैं तुम्हें आहत नहीं करूँगा, नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा।” बच्चों के परिप्रेक्ष्य से, क्या अपने माता-पिता के प्रति उनका रवैया इस कहावत पर आधारित होना चाहिए, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं”? (नहीं, यह गलत है।) यकीनन यह गलत है। तो तुम्हें इस कहावत को किस तरह समझना चाहिए? हम कितने पहलुओं से इस कहावत के गलत होने का विश्लेषण कर सकते हैं? अगर हम इस पर बच्चों के परिप्रेक्ष्य से गौर करें, तो उनका जीवन और शरीर उनके माता-पिता से आते हैं, जिनमें उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने और शिक्षित करने की दयालुता भी है, इसलिए बच्चों को उनकी हर बात माननी चाहिए, अपना संतानोचित दायित्व निभाना चाहिए, और अपने माता-पिता की खामियाँ नहीं देखनी चाहिए। इन बातों का छिपा हुआ अर्थ यह है कि तुम्हें यह नहीं जानना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता असल में क्या हैं। अगर हम इस परिप्रेक्ष्य से इसका विश्लेषण करें, तो क्या यह नजरिया सही है? (नहीं, यह गलत है।) हम सत्य के अनुसार इस मामले से कैसे पेश आएँ? इसे पेश करने का सही तरीका क्या है? क्या बच्चों का जीवन और उनके शरीर उन्हें माता-पिता द्वारा दिए गए हैं? (नहीं।) किसी व्यक्ति का दैहिक शरीर उसके माता-पिता से पैदा होता है, लेकिन माता-पिता को बच्चे जनने की क्षमता कहाँ से मिलती है? (यह परमेश्वर द्वारा दी जाती है, परमेश्वर से आती है।) व्यक्ति की आत्मा का क्या? यह कहाँ से आती है? यह भी परमेश्वर से आती है। तो मूल में, लोगों को परमेश्वर ने रचा है, और ये सब उसके द्वारा पूर्व-निर्धारित किए गए हैं। परमेश्वर ने ही तुम्हारा इस परिवार में जन्म लेना पूर्व-निर्धारित किया। परमेश्वर ने इस परिवार में एक आत्मा भेजी, फिर तुम इस परिवार में जन्मे, तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता पूर्व-नियत है—यह परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित था। परमेश्वर की संप्रभुता और उसके पूर्व-निर्धारण के कारण, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पा सके, और तुम इस परिवार में जन्म ले सके। यह जड़ से बात पर गौर करना है। लेकिन अगर परमेश्वर ने चीजें इस तरह पूर्व-निर्धारित न की होतीं, तो? तो फिर तुम्हारे माता-पिता तुम्हें नहीं पाते, और तुम्हारा उनके साथ माता-पिता और संतान का रिश्ता नहीं रहा होता। कोई रक्त संबंध, कोई पारिवारिक वात्सल्य, कोई भी नाता नहीं रहा होता। इसलिए, यह कहना गलत है कि किसी व्यक्ति का जीवन उसे उसके माता-पिता देते हैं। एक और पहलू यह है कि बच्चे के परिप्रेक्ष्य से देखने पर, उसके माता-पिता उससे एक पीढ़ी बड़े हैं। लेकिन जहाँ तक सभी इंसानों का सवाल है, माता-पिता बाकी सब लोगों जैसे ही हैं, क्योंकि वे सभी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और सभी में शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है। वे बाकी लोगों से जरा भी अलग नहीं हैं, और तुमसे भी अलग नहीं हैं। हालाँकि उन्होंने भौतिक रूप से तुम्हें जन्म दिया, और तुम्हारे देह-रक्त संबंध के अर्थ में वे तुमसे एक पीढ़ी बड़े हैं, फिर भी मानव स्वभाव सार के अर्थ में तुम सभी लोग शैतान की सत्ता के अधीन जी रहे हो, और तुम सभी को शैतान ने भ्रष्ट किया है और तुम सबमें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव हैं। सभी लोगों में भ्रष्ट शैतानी स्वभाव होने के तथ्य की दृष्टि से, सभी लोगों का सार एक है। चाहे वरिष्ठता या उम्र में अंतर हो या चाहे कोई इस दुनिया में जितनी जल्दी या देर से आए, लोगों में अनिवार्य रूप से वही भ्रष्ट स्वभाव सार होता है, वे सभी मनुष्य हैं जिन्हें शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, और इस मामले में वे बिल्कुल अलग नहीं है। उनकी मानवता अच्छी हो या बुरी, चूँकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए वे लोगों और मामलों को देखने और सत्य पर गौर करने को लेकर एक-जैसा परिप्रेक्ष्य और नजरिया अपनाते हैं। इस अर्थ में, उनके बीच कोई अंतर नहीं है। साथ ही, इस दुष्ट मानवजाति के बीच जीने वाले सभी लोग इस बुरी दुनिया में उपलब्ध तमाम विविध विचारों और सोच को स्वीकार करते हैं, चाहे वे बातों के रूप में हों या विचारों के रूप में, आकार रूप में हों या विचारधारा के रूप में, और वे शैतान के हर तरह के विचार को स्वीकार करते हैं, चाहे वह सरकारी शिक्षा के जरिये हो, या सामाजिक आचार-विचार की शिक्षा के जरिये। ये चीजें जरा भी सत्य के अनुरूप नहीं हैं। उनमें कोई सत्य नहीं है, और लोग निश्चित रूप से नहीं समझते कि सत्य क्या है। इस नजरिये से, माता-पिता और बच्चे बराबर हैं, और दोनों में एक ही विचार और सोच हैं। बात बस इतनी ही है कि तुम्हारे माता-पिता ने ये विचार और सोच 20-30 साल पहले स्वीकार किए थे, जबकि तुमने इन्हें कुछ समय बाद स्वीकार किया। यानी, एक ही सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में, अगर तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, तो तुमने और तुम्हारे माता-पिता ने शैतान से वही भ्रष्टता, सामाजिक आचार-विचार की वही शिक्षा और समाज की विविध बुरी प्रवृत्तियों से उपजने वाले वही विचार और सोच स्वीकार किए हैं। इस नजरिये से, बच्चे उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के उनके माता-पिता। अगर इस आधार को छोड़ दें कि परमेश्वर पूर्व-निर्धारण करता है, पूर्वनियत करता है और चयन करता है, तो परमेश्वर के दृष्टिकोण से, माता-पिता और बच्चे दोनों इस अर्थ में एक समान हैं कि वे सभी सृजित प्राणी हैं, और चाहे वे परमेश्वर की आराधना करने वाले सृजित प्राणी हों या न हों, उन सबको सामूहिक रूप से सृजित प्राणियों के रूप में जाना जाता है, और वे सभी परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। इस नजरिये से, परमेश्वर की दृष्टि में माता-पिता और बच्चों का दर्जा वास्तव में एक-समान है, और वे सभी समान रूप से और बराबरी से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। यह एक वस्तुपरक तथ्य है। अगर वे सभी परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं, तो उन सबके पास सत्य के अनुसरण के समान अवसर हैं। बेशक उनके पास परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करने और बचाए जाने के भी बराबर के अवसर हैं। इन समानताओं के अलावा, माता-पिता और बच्चों में बस एक ही अंतर है, जो यह है कि परिवार पदानुक्रम में माता-पिता का दर्जा उनके बच्चों से ऊपर होता है। परिवार पदानुक्रम में उनके दर्जे का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि वे सिर्फ एक पीढ़ी बड़े हैं, 20-30 साल बड़े—उम्र के बड़े अंतर के सिवाय यह कुछ नहीं है। और माता-पिता की विशेष हैसियत के कारण बच्चों को संतानोचित होकर अपने माता-पिता के प्रति अपने दायित्व निभाने चाहिए। किसी व्यक्ति की अपने माता-पिता के प्रति बस यही एक जिम्मेदारी है। लेकिन चूँकि सभी बच्चे और माता-पिता एक ही भ्रष्ट मानवजाति का हिस्सा हैं, माता-पिता अपने बच्चों के लिए नैतिक प्रतिमान नहीं हैं, न ही वे अपने बच्चों के सत्य के अनुसरण के लिए मानदंड या आदर्श हैं, न ही वे परमेश्वर की आराधना और उसके प्रति समर्पण के संबंध में अपने बच्चों के आदर्श हैं। बेशक माता-पिता सत्य का देहधारण नहीं हैं। लोगों की यह कोई बाध्यता या जिम्मेदारी नहीं है कि वे अपने माता-पिता को नैतिक प्रतिमान के रूप में लें, जिनकी आज्ञा का बिना शर्त पालन करना चाहिए। बच्चों को अपने माता-पिता के आचरण, कार्य और स्वभाव सार को जानने से डरना नहीं चाहिए। यानी अपने माता-पिता को सँभालने को लेकर, उन्हें ऐसे विचारों और सोच का पालन नहीं करना चाहिए, जैसे कि “माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” यह सोच इस तथ्य पर आधारित है कि माता-पिता की हैसियत विशेष होती है, इस अर्थ में कि उन्होंने परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण के अधीन तुम्हें जन्म दिया है, और तुमसे 20, 30 या 40-50 साल बड़े हैं। बस इस देह और रक्त संबंध के परिप्रेक्ष्य से, वे अपनी हैसियत और परिवार पदानुक्रम में अपने दर्जे के आधार पर अपने बच्चों से भिन्न हैं। लेकिन इस अंतर के कारण लोग मानते हैं कि उनके माता-पिता में कोई खामी नहीं है। क्या यह सही है? यह गलत, तर्कहीन है, और सत्य के अनुरूप नहीं है। कुछ लोग सोचते हैं कि माता-पिता और बच्चों के इस देह और रक्त संबंध के चलते उन्हें अपने माता-पिता से किस ढंग से पेश आना चाहिए। अगर माता-पिता परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उनके साथ विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए; अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो उनके साथ गैर-विश्वासियों जैसे पेश आना चाहिए। माता-पिता चाहे जिस प्रकार के लोग हों, उनके साथ तदनुरूप सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आना चाहिए। अगर वे दानव हों, तो तुम्हें कहना चाहिए कि वे दानव हैं। अगर उनमें मानवता नहीं है, तो तुम्हें कहना चाहिए कि उनमें मानवता नहीं है। वे तुम्हें जो विचार और सोच सिखाते हैं अगर वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें इन बातों को सुनने या स्वीकारने की जरूरत नहीं है, और तुम उन्हें उनके असली रूप में पहचानकर उजागर भी कर सकते हो। अगर तुम्हारे माता-पिता कहें, “मैं यह तुम्हारी ही भलाई के लिए कर रहा हूँ,” और वे झल्ला कर हंगामा खड़ा कर दें, तो क्या तुम परवाह करोगे? (नहीं, मैं परवाह नहीं करूँगा।) अगर तुम्हारे माता-पिता विश्वास न रखें, तो उन पर जरा भी ध्यान मत दो, और वह बात वहीं छोड़ दो। अगर वे बहुत बड़ा हंगामा करें, तो तुम देखोगे कि वे दानव हैं, उससे जरा भी कम नहीं हैं। परमेश्वर में आस्था से जुड़े ये सत्य ऐसे विचार और सोच हैं जिन्हें स्वीकार करने की लोगों को बड़ी जरूरत है। वे उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते या उन्हें मान नहीं सकते, तो वे किस प्रकार की चीजें हैं? वे परमेश्वर के वचन नहीं समझते, तो वे अमानवीय हैं, है न? तुम्हें यूँ सोचना चाहिए : “हालाँकि आप मेरे माता-पिता हैं, मगर आपमें कोई मानवता नहीं है। आपके यहाँ पैदा होकर मैं सचमुच शर्मिंदा हूँ! अब मैं जान सकता हूँ कि असल में आप क्या हैं। आपमें मानवीय भावना नहीं है, आप सत्य नहीं समझते, आप अत्यंत स्पष्ट और सरल सिद्धांत भी नहीं सुन सकते, फिर भी ऐसी विचारहीन टिप्पणियाँ और अपमानजनक बातें करते हैं। अब मैं उसे समझता हूँ, और मैंने दिल में आपसे पूरी तरह नाता तोड़ लिया है। लेकिन बाहर से, मुझे अब भी आपसे सहमत रहना है, मुझे अब भी आपके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने हैं। अगर मेरे पास संसाधन हुए, तो मैं आपके स्वास्थ्य की देखभाल की कुछ चीजें खरीदूँगा, मगर अगर मेरे पास संसाधन न हुए, तो मैं लौटकर आपसे मिलने आऊँगा, बस इतना ही। आप जो भी कहें, मैं आपकी राय का खंडन नहीं करूँगा। आप बेतुके हैं, और मैं आपको वैसे ही रहने दूँगा। आप जैसे विवेक से परे दानवों से कहने को क्या रह गया है? इस तथ्य के कारण कि आपने मुझे जन्म दिया है, और मुझे पाल-पोस कर बड़ा करने में इतने वर्ष खपाए हैं, मैं आपसे मिलने और आपकी देखभाल करने के लिए आता रहूँगा। वरना, मैं आप पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता, और जब तक मैं जीवित रहता, आपको देखना भी नहीं चाहता।” तुम उन्हें फिर से देखना क्यों नहीं चाहते और उनके साथ कोई लेना-देना क्यों नहीं रखना चाहते? चूँकि तुम सत्य को समझते हो, उनका सार गहराई से देख चुके हो, उनके तमाम भ्रामक विचारों और सोच को गहराई से देख चुके हो, और इन भ्रामक विचारों और सोच से तुम उनकी बेवकूफी, कट्टरता और दुष्टता को समझ रहे हो, स्पष्ट देख पा रहे हो कि वे दानव हैं, और इसलिए तुम उनसे विमुख हो, उनसे चिढ़े हुए हो, और उन्हें देखना नहीं चाहते। सिर्फ इसलिए कि अब भी तुम्हारे भीतर वह थोड़ा-सा जमीर है, तुम एक बेटे या बेटी के अपने संतानोचित कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने को बाध्य अनुभव करते हो, इसलिए तुम नव वर्ष और बैंक की छुट्टियों वाले दिन उनसे मिलने जाते हो, और कुछ नहीं। अगर उन्होंने तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से या अपना कर्तव्य निभाने से नहीं रोका है, तो वक्त मिलने पर उनसे मिलने जाया करो। अगर तुम उन्हें सचमुच नहीं देखना चाहते, तो फोन पर उनका हालचाल जान लो, उन्हें अक्सर कुछ पैसे भेजा करो, और कुछ उपयोगी चीजें खरीद कर उन्हें दे दो। उनकी देखभाल करना, उनसे मिलना, उनके लिए कपड़े खरीदना, उनकी सेहत की चिंता जताना, और तबीयत खराब होने पर उनकी देखभाल करना—ये सब बस अपने संतानोचित दायित्व निभाना और अपनी भावनाओं और जमीर के संदर्भ में अपनी जरूरतें पूरी करना है। बस इतना ही है, और इसे सत्य पर अमल करना नहीं माना जाता। तुम्हें चाहे उनसे जितनी भी घिन हो, या तुम जितने भी अच्छे से उनके सार की असलियत जान लो, जब तक वे जीवित हैं, तुम्हें बेटे या बेटी के रूप में अपने जरूरी दायित्व निभाने चाहिए और जरूरी जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए। तुम्हारे माता-पिता ने बचपन में तुम्हारी देखभाल की, और जब वे बूढ़े हो जाएँ, तो जब तक तुम्हारे पास संसाधन हों, तुम्हें उनकी देखभाल करनी चाहिए। अगर वे तुम्हें तंग करना चाहें तो करने दो। अगर तुम उन विचारों और सोच को नहीं सुनते जो वे तुममें भरने की कोशिश करते हैं, उनकी बात स्वीकार नहीं करते, और उन्हें तुम्हें परेशान करने या बाँधने नहीं देते, तो यह बिल्कुल ठीक है, और यह साबित करता है कि तुम आध्यात्मिक कद में बढ़ चुके हो, और तुम परमेश्वर के समक्ष अपनी गवाही में पहले से अडिग हो। उनकी देखभाल करने के कारण परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा और नहीं कहेगा, “तुम इतने भावुक क्यों हो? तुमने सत्य को स्वीकार कर लिया है और उसका अनुसरण कर रहे हो, तो तुम अब भी उनकी देखभाल कैसे कर सकते हो?” यह सबसे बुनियादी जिम्मेदारी और दायित्व है जिससे तुम्हें आचरण करना चाहिए, जो कि हालात के ठीक रहने तक तुम्हारा अपने दायित्वों को पूरा करना है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम भावुक हो रहे हो, और परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। बेशक, इस दुनिया में, तुम्हारे माता-पिता के अलावा, दूसरे ऐसे कौन लोग हैं जिनके प्रति तुम्हें अपने दायित्व और जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, किसी दूसरे के लिए तुम्हारी कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है—न तुम्हारे भाई-बहनों के प्रति, न अपने दोस्तों के प्रति या विविध चाचा-चाचियों के प्रति। उन्हें खुश करने हेतु कुछ भी करने, उनके करीब होने या उनकी मदद करने के प्रति तुम्हारा कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।)
इस दावे के बारे में कि “माता-पिता हमेशा सही होते हैं” मैंने जो भी कहा, क्या वह स्पष्ट था? (हाँ।) माता-पिता कौन हैं? (भ्रष्ट मनुष्य।) सही है, माता-पिता भ्रष्ट मनुष्य हैं। अगर तुम कभी अपने माता-पिता को याद कर सोचते हो, “पिछले दो वर्षों में मेरे माता-पिता ने कैसे गुजारा किया होगा? क्या उन्हें मेरी याद आई होगी? क्या वे रिटायर हो चुके हैं? क्या वे जीवन में किन्हीं मुश्किलों से जूझ रहे हैं? बीमार पड़ने पर उनकी देखभाल के लिए क्या उनके पास कोई है?” मान लो कि तुम इन चीजों के बारे में सोच रहे हो, और साथ ही चिंतन भी कर रहे हो, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं। मेरे माता-पिता मुझे मारते और डांटते थे क्योंकि वे हताश थे कि मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था और चूँकि वे मुझे बड़े जोश से प्यार करते थे। मेरे माता-पिता हर किसी से बेहतर हैं, दुनिया में वही मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। अपने माता-पिता के अवगुणों के बारे में सोचता हूँ तो, वे मुझे अवगुण नहीं लगते, क्योंकि माता-पिता हमेशा सही होते हैं।” तुम इस बारे में जितना सोचते हो, उतना ही तुम उन्हें देखना चाहते हो। क्या ऐसा सोचना सही है? (नहीं, सही नहीं है।) तुम्हें किस तरह सोचना चाहिए? तुम इस पर विचार करो : “मेरे माता-पिता ने बचपन में मुझे मारा, डाँटा और मेरे आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाई। उन्होंने कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले या मुझे बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने मुझे पढ़ने को मजबूर किया, नाच-गाना सीखने और साथ ही गणित ओलिंपियाड के लिए पढ़ने को भी मजबूर किया—ऐसी तमाम चीजें करने को मजबूर किया जिन्हें मैं पसंद नहीं करता। मेरे माता-पिता सचमुच बहुत चिढ़ दिलाते थे। अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, और स्वतंत्र हो गया हूँ। मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया। परमेश्वर ही है जो अच्छा है। मुझे अपने माता-पिता की याद नहीं आती। उन्होंने मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने से रोका। मेरे माता-पिता दानव हैं।” फिर तुम दोबारा चिंतन करते हो, “यह सही नहीं है। माता-पिता हमेशा सही होते हैं। मेरे माता-पिता ही वे लोग हैं जो मेरे सबसे करीब हैं, इसलिए उन्हें याद करना बिल्कुल सही है।” क्या ऐसा सोचना सही है? (नहीं, यह गलत है।) तो फिर सोचने का सही तरीका क्या है? (हम सोचते थे कि हमारे माता-पिता चाहे जो करें, हमारे बारे में सोचकर ही करते हैं, और वे जो भी करते हैं हमारे भले के लिए करते हैं, और वे हमें कभी नुकसान नहीं पहुँचाएँगे। परमेश्वर की अभी की संगति से मुझे एहसास हुआ है कि मेरे माता-पिता भ्रष्ट मनुष्य भी हैं, जिन्होंने शैतान से विविध विचार और नजरिये स्वीकार किए हैं। अनजाने ही हमारे माता-पिता ने अनेक शैतानी नजरिये हममें भर दिए हैं, जिससे कि हम अपने आचरण और कार्यों में सत्य से बहुत दूर भटक कर शैतानी फलसफों के अनुसार जीने लगे हैं। अब चूँकि मुझे इस बात की थोड़ी समझ है कि मेरे माता-पिता के दिलों में क्या है, मैं उन्हें कम याद करूँगा और उनके बारे में बहुत कम सोचूँगा।) अपने माता-पिता से निपटने में, पहले तुम्हें तर्कसंगत रूप से इस रक्त संबंध से बाहर कदम रखकर तुम जो सत्य स्वीकार कर समझ चुके हो, उनके प्रयोग से अपने माता-पिता को जानना चाहिए। आचरण के बारे में अपने माता-पिता के विचारों, सोच और मंशाओं तथा आचरण के उनके सिद्धांतों और तरीकों के आधार पर उन्हें जानो, जिससे यह पक्का हो जाएगा कि वे भी शैतान द्वारा भ्रष्ट किए हुए लोग हैं। अपने माता-पिता को सत्य के परिप्रेक्ष्य से देखो और जानो, न कि उन्हें हमेशा ऊँचा, निस्वार्थ और तुम्हारे प्रति दयालु समझो; अगर तुम उन्हें इस तरह देखोगे, तो कभी पता नहीं लगा पाओगे कि उनकी समस्याएँ क्या हैं। अपने माता-पिता को अपने पारिवारिक रिश्तों या पुत्र-पुत्री की भूमिका के परिप्रेक्ष्य से मत देखो। इस घेरे से बाहर कदम रखो और देखो कि वे दुनिया, सत्य, लोगों, मामलों और चीजों से कैसे निपटते हैं। साथ ही, और ज्यादा विशेष रूप से, लोगों और चीजों को देखने और अपना आचरण और कार्य करने के बारे में उन विचारों और सोच पर गौर करो जिनकी शिक्षा तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें दी है—तुम्हें इसी तरीके से उन्हें पहचानना और जानना चाहिए। इस प्रकार, उनके मानवीय गुण और शैतान द्वारा उनके भ्रष्ट होने की सच्चाई थोड़ा-थोड़ा कर स्पष्ट हो जाएगी। वे किस प्रकार के लोग हैं? अगर वे विश्वासी नहीं हैं, तो परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों के प्रति उनका रवैया क्या है? अगर वे विश्वासी हैं तो सत्य के प्रति उनका रवैया क्या है? क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं? क्या उन्हें सकारात्मक चीजें पसंद हैं? जीवन और दुनिया के बारे में उनका नजरिया क्या है? वगैरह-वगैरह। अगर इन चीजों के आधार पर तुम अपने माता-पिता को जान सको, तो तुम्हारे मन में स्पष्टता होगी। एक बार ये विषय स्पष्ट होने पर, तुम्हारे मन में बसी अपने माता-पिता की ऊँची, शिष्ट और अडिग हैसियत बदल जाएगी। इसके बदलने पर तुम्हारे माता-पिता द्वारा दिखाया गया मातृ और पितृ प्रेम—साथ ही उनकी विशेष बातें और कार्य तथा उनके बारे में तुम्हारे मन में बसी वे ऊँची छवियाँ—उनकी छाप अब तुम्हारे मन में उतनी गहरी नहीं होगी। तुम्हारे बिना जाने तुम्हारे प्रति तुम्हारे माता-पिता के प्रेम की निस्वार्थता और महानता और साथ ही तुम्हारी देखभाल और रक्षा के प्रति उनके समर्पण और तुम्हारे प्रति अनुराग का तुम्हारे मन में महत्वपूर्ण स्थान नहीं रह जाएगा। लोग अक्सर कहते हैं, “मेरे माता-पिता मुझसे बहुत प्यार करते हैं। जब भी मैं घर से दूर होता हूँ, मेरी माँ हमेशा मुझसे पूछती है, ‘तूने खाना खाया? क्या तू वक्त पर खाना खाता है?’ डैड हमेशा पूछते हैं, ‘तेरे पास पैसे हैं ना? अगर तेरे पास पैसे न हों, तो मैं तुझे थोड़े और भेज दूँगा।’ और मैं कहता हूँ, ‘मेरे पास पैसे हैं, कोई जरूरत नहीं,’ फिर डैड जवाब देते हैं, ‘नहीं, उससे काम नहीं चलेगा, भले ही तू कहे कि तेरे पास पैसे हैं, मैं तुझे थोड़े पैसे भेज ही देता हूँ।’” सच्चाई यह है कि तुम्हारे माता-पिता किफायत से जीते हैं, खुद पर पैसे खर्च करना नहीं चाहते। वे अपना पैसा तुम्हें सहारा देने के लिए इस्तेमाल करते हैं, ताकि घर से दूर होने पर तुम्हारे पास खर्च के लिए थोड़े ज्यादा पैसे हों। तुम्हारे माता-पिता हमेशा कहते हैं, “घर में किफायत से रहो, मगर यात्रा करते समय थोड़ा अतिरिक्त पैसा साथ ले जाओ। कहीं बाहर निकलो तो थोड़ा ज्यादा साथ ले जाओ। अगर तुम्हारे पास पर्याप्त पैसे न हों, तो बस मुझे बोल दो, मैं थोड़े भेज दूँगा या तुम्हारे कार्ड में जोड़ दूँगा।” तुम्हारे माता-पिता की निस्वार्थ चिंता, ख्याल, परवाह, और लाड़-प्यार तुम्हारी आँखों में हमेशा उनके निस्वार्थ समर्पण की अमिट छाप बने रहेंगे। यह निस्वार्थ समर्पण तुम्हारे मन की गहराई में एक शक्तिशाली और स्नेहपूर्ण भावना बन चुका है जो उनके साथ तुम्हारे रिश्ते को बाँध कर रखता है। इस कारण तुम उन्हें जाने नहीं दे पाते, तुम्हें उनकी चिंता होती रहती है, तुम उनके बारे में चिंतित रहते हो, तुम्हें निरंतर उनकी याद सताती है, और इस कारण से तुम निरंतर इस भावना में फँसे रहने और उनके वात्सल्य से विवश होने को तैयार रहते हो। यह किस प्रकार की घटना है? तुम्हारे माता-पिता का प्यार सचमुच निस्वार्थ है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी चाहे जितनी परवाह करें, या वे तुम्हें खर्च के पैसे देने के लिए खुद जितनी भी किफायत करें और पैसे बचाएँ या तुम्हारी जरूरत की तमाम चीजें तुम्हें खरीद कर दे दें, अभी यह तुम्हारे लिए एक वरदान हो सकता है, मगर दूर की सोचें तो तुम्हारे लिए यह अच्छी बात नहीं है। वे जितने ज्यादा निस्वार्थ होंगे, तुमसे बेहतर बर्ताव करेंगे और तुम्हारी ज्यादा परवाह करेंगे, तुम उतना ही इस वात्सल्य से खुद को जुदा नहीं कर पाओगे, और इसे जाने नहीं दे पाओगे या भूल न पाओगे, और तुम उन्हें उतना ही ज्यादा याद करोगे। जब तुम अपना संतानोचित कर्तव्य नहीं निभा पाते, या उनके प्रति कोई भी दायित्व नहीं निभा पाते, तो तुम्हें उनके लिए और भी ज्यादा दुख होगा। इन हालात में, तुम्हें उन्हें जानने का दिल नहीं करेगा, या उनके प्रेम और समर्पण और उन्होंने तुम्हारे लिए जो भी किया उसे भूलने का या इन सबको अनुल्लेखनीय मानने का मन नहीं करेगा—यह तुम्हारे जमीर का प्रभाव है। क्या तुम्हारा जमीर सत्य को दर्शाता है? (नहीं, यह नहीं दर्शाता।) तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति ऐसे क्यों हैं? क्योंकि उन्हें तुमसे प्यार है। तो क्या तुम्हारे प्रति उनकी दयालुता उनके मानवता सार को प्रदर्शित कर सकती है? क्या यह सत्य के प्रति उनके रवैये को प्रदर्शित कर सकती है? नहीं, यह नहीं कर सकती। यह ठीक उन माँओं की तरह है जो हमेशा कहती हैं, “तू मेरा शरीर और खून है, तुझे पाल-पोस कर बड़ा करने के लिए मैंने पसीना बहाया और गुलामी की। तेरे दिल की बात भला मैं कैसे नहीं जानूँगी?” इन करीबी पारिवारिक रिश्तों और इस देह और रक्त संबंध के कारण वे तुम्हारे साथ अच्छे हैं, लेकिन क्या वे सचमुच तुम्हारे प्रति अच्छे हैं? क्या यह सच में उनका सच्चा चेहरा है? क्या यह उनके मानवता सार की सच्ची अभिव्यक्ति है? जरूरी नहीं। चूँकि उनके साथ तुम्हारा खून का रिश्ता है, इसलिए उन्हें लगता है कि कर्तव्य भाव के चलते उन्हें तुम्हारे साथ अच्छे से पेश आना चाहिए। लेकिन उनके बच्चे के रूप में तुम सोचते हो कि दयालुता के कारण वे तुम्हारे साथ अच्छे हैं, और उनका कर्ज उतारने में खुद को असमर्थ पाते हो। अगर तुम उनकी दयालुता का मूल्य न पूरा चुका पाओ, न ही थोड़ा, तो तुम्हारा जमीर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हारे जमीर के तुम्हारी निंदा करने पर क्या तुममें पैदा हुई भावना सत्य के अनुरूप होती है? दूसरे शब्दों में, अगर वे तुम्हारे माता-पिता न होते, बल्कि किसी समूह में तुमसे सामान्य रूप से बातचीत करने वाले साधारण लोग होते, तो क्या वे तुमसे इस तरह पेश आते? (नहीं।) वे यकीनन ऐसे पेश नहीं आते। अगर वे तुम्हारे माता-पिता न होते, तुम्हारे साथ उनका रक्त संबंध न होता, तो तुम्हारे प्रति उनका रंग-ढंग और रवैया हर तरह से अलग होता। वे निश्चित रूप से तुम्हारी परवाह न करते, रक्षा न करते, दुलार न करते, देखभाल न करते या निस्वार्थ रूप से तुम्हें कुछ भी समर्पित नहीं करते। तो वे तुमसे कैसे पेश आते? हो सकता है वे तुम्हें डराते, क्योंकि तुम छोटे हो और तुम्हें सामाजिक अनुभव नहीं है, या निचली हैसियत के कारण तुमसे भेदभाव करते, और तुमसे हमेशा नौकरशाही लहजे में बात करते और तुम्हें शिक्षा देने की कोशिश करते; या हो सकता है वे सोचते कि तुम औसत रंग-रूप वाले हो, और अगर तुम उनसे बात करते तो वे तुम पर ध्यान न देते, और तुम उनकी कसौटी पर खरे न उतरते; या हो सकता है वे तुम्हें जरा भी उपयोगी न मानते, और तुम्हारे साथ मिलते-जुलते नहीं, या कोई लेना-देना न रखते; या हो सकता है वे सोचते कि तुम भोले हो, तो अगर वे किसी चीज के बारे में कुछ जानना चाहते, तो हमेशा पूछताछ कर तुमसे जवाब निकलवाने की कोशिश करते; या हो सकता है वे किसी तरह तुम्हारा गलत फायदा उठाना चाहते, जैसे कि जब तुम कोई चीज खरीदते, तो वे हमेशा चाहते कि वह तुम उनके साथ बांटो, या उसमें से कुछ ले लेना चाहते; या हो सकता है कि जब तुम किसी गली में गिर पड़ो और तुम्हें उठने के लिए उनका हाथ चाहिए हो, तो वे तुम्हारी ओर देखें भी नहीं, बल्कि इसके बजाय तुम्हें लात मार दें; या हो सकता है जब तुम बस में चढ़ो और अपनी सीट उन्हें न दो, तो वे कहें, “मैं बहुत बूढ़ा हूँ, तुम अपनी सीट मुझे क्यों नहीं देते? तुम ऐसे अनाड़ी युवा कैसे हो? तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें कोई तमीज नहीं सिखाई!” और वे तुम्हें फटकारते भी। अगर बात ऐसी है तो तुम्हें यह पता लगाने की जरूरत है कि क्या तुम्हारे दिल में गहरे छुपा मातृ प्रेम या पितृ प्रेम उनकी मानवता का सच्चा खुलासा है। उनका निस्वार्थ समर्पण, मातृ प्रेम और पितृ प्रेम अक्सर तुम्हारे दिल को छू जाता है, और तुम उनसे नजदीक से जुड़े हुए हो, उन्हें याद करते हो, और निरंतर अपना जीवन देकर उनका कर्ज उतारना चाहते हो। इसका कारण क्या है? अगर यह जमीर से उपजा है, तो फिर समस्या उतनी गहरी नहीं है और इसे ठीक किया जा सकता है। लेकिन अगर यह उनके प्रति प्रेम से पैदा हुआ है, तो यह बहुत मुश्किल की बात है। तुम इसमें और ज्यादा गहराई तक फँस जाओगे, और खुद को बाहर नहीं निकाल पाओगे। तुम अक्सर इस प्रेम में फँस जाओगे, तुम्हें अपने माता-पिता की याद आएगी, और कभी-कभी तुम अपने माता-पिता की दयालुता का बदला चुकाने के लिए परमेश्वर को भी धोखा दे दोगे। मिसाल के तौर पर, यह सुन कर तुम क्या करोगे कि तुम्हारे माता-पिता गंभीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में पड़े हैं, या उनके साथ कुछ गंभीर घटना हो गई है, और वे किसी मुश्किल में हैं जिसमें से वे निकल नहीं पा रहे और वे दुखी हैं, उनका दिल टूट गया है, या तुमने यह खबर सुनी कि तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु करीब है? उस वक्त, यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि क्या तुम्हारा प्रेम तुम्हारे जमीर पर हावी हो जाएगा, या क्या सत्य और परमेश्वर के वे वचन जो उसने तुम्हें सिखाए हैं, वे तुम्हारे जमीर को कोई फैसला करने की ओर ले जाएँगे। इन मामलों का परिणाम इस पर निर्भर करता है कि तुम माता-पिता और बच्चों के रिश्ते को किस रूप में देखते हो, तुमने माता-पिता से बर्ताव करने के सत्य में कितना प्रवेश किया है, तुम उनकी असलियत कितनी गहराई से देख पाते हो, मानवजाति के प्रकृति सार को लेकर तुम्हारी समझ कितनी गहरी है, और तुम्हें अपने माता-पिता के चरित्र और मानवता सार और उनके भ्रष्ट स्वभावों की कितनी समझ है। सबसे अहम यह है कि इन मामलों का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि तुम परिवार के स्तर पर रिश्तों को किस रूप में लेते हो, और तुम्हें कौन-से सही नजरिये अपनाने चाहिए—इनमें से कोई भी मामला तुम पर आ पड़े उससे पहले तुम्हें इन विविध सत्यों से खुद को लैस कर लेना चाहिए। बाकी सब—रिश्तेदार और मित्र, चाचे-चाचियाँ, दादा-दादी, और दूसरे बाहरी लोगों को—आसानी से जाने दिया जा सकता है, क्योंकि वे किसी व्यक्ति के स्नेह संबंधों में अहम स्थान नहीं रखते। इन लोगों को आसानी से जाने दिया जा सकता है, लेकिन माता-पिता अपवाद हैं। एकमात्र माता-पिता ही संसार में निकटतम संबंधी माने जाते हैं। ये वे लोग हैं जो किसी के जीवन में अहम भूमिका निभाते हैं, और किसी के जीवनकाल में गहरी छाप छोड़ते हैं, इसलिए उन्हें जाने देना आसान नहीं है। अगर आज तुमने अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा से पैदा हुए विविध विचारों की थोड़ी स्पष्ट समझ हासिल की है तो इससे तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति प्रेम को जाने देने में मदद मिल सकती है, क्योंकि तुम्हारे पूरे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के तुम पर हुए प्रभाव सिर्फ अमूर्त दावे होते हैं, जबकि सबसे विशिष्ट शिक्षा वास्तव में तुम्हारे माता-पिता से आती है। तुम्हारे माता-पिता का एक वाक्य, या कुछ करने के प्रति उनका रवैया, या किसी चीज से निपटने का उनका तरीका या साधन—ये यह बयान करने के सबसे सही तरीके हैं कि तुम किस तरह शिक्षित हुए हो। एक बार जब तुम नाना प्रकार से उन विचारों, कार्यों और कहावतों को समझ कर विशिष्ट तरह से पहचान लो जो तुम्हारे माता-पिता ने शिक्षा देकर तुममें भरी हैं, तो तुम्हें अपने माता-पिता की भूमिका, चरित्र, जीवन के बारे में उनके नजरिये और चीजें करने के उनके तरीकों के सार का सही आकलन और ज्ञान हो जाएगा। एक बार जब तुम्हें यह सही आकलन और ज्ञान प्राप्त हो जाए, तो अनजाने ही तुम्हारे माता-पिता की भूमिका के प्रति तुम्हारा बोध धीरे-धीरे सकारात्मक से नकारात्मक में बदल जाएगा। जब एक बार तुम समझ जाओगे कि तुम्हारे माता-पिता की भूमिका पूरी तरह नकारात्मक है, तो तुम धीरे-धीरे अपनी भावुकता की बैसाखियों, आध्यात्मिक लगाव और अपने प्रति उनके नाना प्रकार के महान प्रेम को जाने दे सकोगे। तब तक, तुम्हें लग जाएगा कि तुम्हारे दिल में गहरे पैठी माता-पिता की छवि बहुत ऊँची थी, “माई फादर्स बैक” शीर्षक वाले निबंध के पात्र की तरह, जो तुमने अपने स्कूल की पाठ्यपुस्तक में पढ़ा था, और बहुत साल पुराने इस लोकप्रिय गाने “मॉम इज द बेस्ट इन द वर्ल्ड” की तरह जो एक ताईवानी फिल्म का विषयगान था, और पूरे चीनी समाज में प्रचलित हो गया था—ये वे तरीके हैं जिनसे समाज और संसार मानवजाति को शिक्षित करता है। जब तुम्हें इन चीजों के पीछे के सार या असली चेहरे का एहसास नहीं होता, तो तुम्हें लगता है कि शिक्षा के ये तरीके सकारात्मक हैं। अपनी मौजूदा मानसिकता के आधार पर, वे तुम्हें अपने प्रति अपने माता-पिता के प्रेम की महानता की ज्यादा पहचान और ज्यादा विश्वास दिलाते हैं, और नतीजतन ये तुम्हारे दिल की गहराई में यह छाप छोड़ देते हैं कि तुम्हारे माता-पिता का प्रेम निस्वार्थ, महान और पवित्र है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने भी बुरे हों, उनका प्रेम फिर भी निस्वार्थ और महान है। तुम्हारे लिए यह अकाट्य तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता, और तुम्हारे माता-पिता के बारे में कोई भी एक भी बुरा शब्द नहीं कह सकता। नतीजतन, तुम उन्हें जानना या उन्हें उजागर करना नहीं चाहते, और साथ ही तुम अपने दिल में उनके लिए एक निश्चित स्थान रखना चाहते हो, क्योंकि तुम्हें विश्वास है कि माता-पिता का प्रेम सदा के लिए सभी चीजों से ऊपर है, त्रुटिहीन है, महान और पवित्र है, और कोई इसे नकार नहीं सकता। तुम्हारे जमीर और आचरण की यह आधार-रेखा है। अगर कोई कहे कि माता-पिता का प्रेम महान नहीं है, त्रुटिहीन नहीं है, तो तुम उनसे भयंकर लड़ाई करोगे—यह तर्कहीन है। लोगों के सत्य समझने से पहले, उनके जमीर का प्रभाव उन्हें कुछ पारंपरिक विचारों और सोच को पकड़े रहने को प्रेरित करेगा, या कुछ और नए विचार और नजरिये पैदा करेगा। लेकिन, इसे सत्य के नजरिये से देखें, तो ये विचार और नजरिये अक्सर तर्कहीन होते हैं। एक बार जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो तुम सामान्य तार्किकता के दायरे के भीतर इन चीजों से निपट सकते हो। इसलिए, मानवता में जमीर और विवेक दोनों होते हैं। अगर जमीर इन चीजों तक न पहुँच सके या इनकी कसौटी पर खरा न उतरे, या वे जमीर के प्रभावों के अधीन विनियमित या सकारात्मक न हों, तो लोग उन्हें विनियमित और सही करने के लिए तार्किकता का प्रयोग कर सकते हैं। तो लोग तार्किकता कैसे प्राप्त करते हैं? लोगों को सत्य समझना होगा। एक बार जब लोग सत्य समझ लेते हैं, तो वे हर चीज से सटीक और सही ढंग से पेश आएँगे, चुनेंगे, और जानेंगे। इस तरह वे सच्ची तार्किकता प्राप्त करेंगे, और उस मुकाम पर पहुँचेंगे जहाँ विवेक जमीर से ऊपर हो जाता है। किसी व्यक्ति के सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के बाद जो होता है, यह उसकी अभिव्यक्ति है। अभी शायद तुम ये बातें सचमुच समझ न पाओ, लेकिन एक बार असली अनुभव होने और सत्य को समझने के बाद तुम इन्हें समझ पाओगे। क्या यह कहावत “माता-पिता हमेशा सही होते हैं” तार्किकता से उपजती है या जमीर से? यह तर्कपूर्ण नहीं है, यह जमीर के प्रभाव में किसी के प्रेम से उपजती है। तो क्या यह कहावत तर्कपूर्ण है? नहीं, यह तर्कहीन है। यह तर्कहीन क्यों है? क्योंकि यह किसी के प्रेम से उपजती है, और यह सत्य के अनुरूप नहीं है। तो किस मुकाम पर तुम माता-पिता को तार्किकता से देख और पेश आ सकते हो? जब तुम सत्य समझ लेते हो, और जब तुम इस मामले के सार और मूल को गहराई से देख लेते हो। एक बार ऐसा कर लेने के बाद, तुम आगे अपने माता-पिता से जमीर के प्रभाव के अनुसार पेश नहीं आओगे, न प्रेम कोई भूमिका अदा करेगा, न ही जमीर, और तुम अपने माता-पिता को सत्य के अनुसार देख और उसके अनुसार ही उनसे पेश आ सकोगे—यह तर्कपूर्ण होना है।
क्या मैं माता-पिता से पेश आने की समस्या के बारे में अपनी संगति में स्पष्ट रहा हूँ? (हाँ।) यह एक अहम मसला है। परिवार के सभी सदस्य कहते हैं, “माता-पिता हमेशा सही होते हैं,” और तुम नहीं जानते कि यह सही है या गलत, इसलिए तुम बस इसे स्वीकार लेते हो। फिर जब भी तुम्हारे माता-पिता लीक से हटकर कुछ करते हैं, तो तुम चिंतन कर सोचते हो, “लोग कहते हैं कि ‘माता-पिता हमेशा सही होते हैं,’ तो मैं कैसे कहूँ कि मेरे माता-पिता सही नहीं हैं? परिवार की बातें परिवार में ही रहनी चाहिए, दूसरों को इस बारे में मत बताओ, बस उसे सहन करो।” इस गलत कहावत “माता-पिता हमेशा सही होते हैं”—के शिक्षा प्रभावों के अलावा—एक और कहावत है : “परिवार की बातें परिवार में ही रहनी चाहिए।” तो तुम सोचते हो, “अपने ही माता-पिता के लिए किसे दोष दूँ? इस शर्मनाक चीज के बारे में मैं बाहर वालों को नहीं बता सकता। मुझे इसे ढक कर रखना है। अपने माता-पिता से गंभीरता से पेश आने का क्या तुक है?” परिवार की शिक्षा के ये प्रभाव लोगों के दैनिक जीवन, उनके जीवन पथ और उनके अस्तित्व के दौरान हमेशा मौजूद रहते हैं। लोग सत्य को समझ कर उसे हासिल करने से पहले अपने परिवार द्वारा सिखाए इन विविध विचारों और सोच के आधार पर लोगों और चीजों को देखते हैं और आचरण और कार्य करते हैं। वे अक्सर इन विचारों से प्रभावित होकर बाधित और प्रतिबंधित हो जाते हैं, उनके हाथ-पाँव बंध जाते हैं। वे इन्हीं विचारों से मार्गदर्शन पाते हैं, अक्सर लोगों को गलत रूप में देखकर गलत काम करते हैं, और साथ ही परमेश्वर के वचनों और सत्य का अक्सर उल्लंघन करते हैं। भले ही लोगों ने परमेश्वर के अनेक वचन सुने हों, भले ही वे अक्सर परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करते हों, उन पर संगति करते हों, फिर भी चूँकि उनके परिवार द्वारा दी गई इन नजरियों की शिक्षा उनके विचारों और उनके दिलों में गहराई से पैठ चुकी है, इसलिए वे इन नजरियों को पहचान नहीं पाते, न ही उनमें इनका प्रतिरोध करने की क्षमता होती है। इन शिक्षाओं और परमेश्वर के वचनों का पोषण प्राप्त करते समय भी, वे इन विचारों के बहकावे में आ जाते हैं जो उनकी कथनी, करनी और जीवनशैली को भी मार्गदर्शन देते हैं। इसलिए, उनके परिवार द्वारा सिखाए गए इन विचारों के अनजाने मार्गदर्शन के तहत, लोग परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने से खुद को अक्सर रोक नहीं पाते। फिर भी वे सोचते हैं कि वे सत्य पर अमल कर रहे हैं, और सत्य का अनुसरण कर रहे हैं। उन्हें जरा भी भान नहीं है कि उनके परिवार द्वारा सिखाई गई ये विविध कहावतें सत्य के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि लोगों में उनके परिवारों द्वारा सिखाई ये कहावतें उन्हें बार-बार सत्य का उल्लंघन करने की ओर ले जाती हैं, मगर फिर भी उन्हें इसका भान तक नहीं होता। इसलिए अगर तुम सत्य का अनुसरण कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपने परिवार से मिलने वाली शिक्षा के विविध प्रभावों को स्पष्ट रूप से जान कर पहचान लेना चाहिए, और फिर अपने परिवार द्वारा तुम्हें सिखाए इन विविध विचारों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। बेशक, यह यकीनन कहा जा सकता है कि तुम्हें अपने परिवार की शिक्षा से खुद को अलग कर लेना चाहिए। यह मत सोचो कि चूँकि तुम उस परिवार से हो, इसलिए तुम्हें ऐसा करना चाहिए या वैसे रहना चाहिए। अपने परिवार की परंपराओं या चीजें करने या कार्य करने के विविध तरीकों और साधनों को विरासत में पाने का तुम्हारा कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं है। तुम्हें यह जीवन परमेश्वर से मिला है। आज तुम्हें परमेश्वर ने चुना है, और जिस लक्ष्य का तुम अनुसरण करना चाहते हो, वह उद्धार है, इसलिए तुम अपने परिवार द्वारा सिखाए गए विविध विचारों का लोगों और चीजों के बारे में अपने नजरिये, अपने आचरण और कार्य के आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकते। इसके बजाय, तुम्हें परमेश्वर के वचनों और उसकी विविध शिक्षाओं के आधार पर लोगों और चीजों को देखना चाहिए और आचरण और कार्य करना चाहिए। सिर्फ इस तरह से तुम अंत में उद्धार प्राप्त कर सकोगे। बेशक, परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभाव यहाँ दी गई सूची तक ही सीमित नहीं हैं। मैंने सिर्फ कुछ का ही जिक्र किया है। पारिवारिक शिक्षा की बहुत-सी किस्में हैं जो अलग-अलग परिवारों, अलग-अलग समुदायों, अलग-अलग समाजों, अलग-अलग प्रजातियों और अलग-अलग धर्मों से आती हैं, और जिनकी शिक्षा हर प्रकार से मनुष्य के विचारों को प्रभावित करती हैं। ये विविध शिक्षाएँ चाहे जिस प्रजाति या धार्मिक संस्कृति से आएँ, अगर ये सत्य के अनुकूल नहीं हैं, और परमेश्वर से नहीं बल्कि लोगों से आई हैं, तो इन्हें जाने देना चाहिए, और ये ऐसी चीजें हैं जिनसे लोगों को दूर हो जाना चाहिए। इन्हें विरासत में पाना तो दूर, उन्हें इनका पालन भी नहीं करना चाहिए। ये सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को परित्याग कर छोड़ देना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से लोग सचमुच सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कदम रख कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाएँगे।
किसी के परिवार द्वारा दी गई शिक्षा से मिलने वाली ये कहावतें जिन पर हमने संगति की है, वे एक अर्थ में द्योतक हैं, और एक और अर्थ में इनके बारे में लोगों के बीच अक्सर चर्चा होती है। जहाँ तक कुछ विशेष और गैर-द्योतक कहावतों का प्रश्न है, हम अभी उनके बारे में चर्चा नहीं करेंगे। परिवार के विषय में हमारी संगति के बारे में तुम सबका क्या विचार है? क्या यह किसी तरह से उपयोगी रही? (हाँ, उपयोगी रही।) क्या इस विषय पर संगति करना जरूरी है? (हाँ।) सभी का परिवार होता है और सभी अपने परिवार से शिक्षित होते हैं। परिवार तुममें जो चीजें भरता है वे पूरी जहर और आध्यात्मिक अफीम होती हैं, वे तुम्हें भयानक कष्ट देती हैं। जब तुम्हारे माता-पिता ने तुममें ये चीजें भरीं, तो उस वक्त तुम्हें सचमुच अद्भुत महसूस हुआ, अफीम लेने की तरह। तुम्हें बहुत आराम महसूस हुआ, मानो तुमने एक सुखद संसार में प्रवेश किया है। लेकिन कुछ देर बाद प्रभाव फीके हो जाने पर तुम्हें इस तरह के उद्दीपन की तलाश करते रहना पड़ता है। यह आध्यात्मिक अफीम तुम्हें बहुत बड़ी मुसीबत और बाधा में डाल देता है। इससे छुटकारा पाना आज तक तुम्हारे लिए मुश्किल है और यह ऐसी चीज है जिसे थोड़े समय में त्यागा नहीं जा सकता। अगर लोग सिखाए गए इन विचारों और सोच को जाने देना चाहते हैं, तो उन्हें इनकी पहचान करने के लिए समय और ऊर्जा खपानी चाहिए। उन्हें स्पष्ट रूप से पहचानने और गहराई से देखने के लिए उनकी परतें उधेड़नी चाहिए। फिर संबद्ध मामले के सामने आने पर उन्हें इन चीजों को जाने देने, उनके खिलाफ विद्रोह करने, और ऐसे विचारों और सोच के सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करने में समर्थ होना चाहिए, बल्कि इसके बजाय उस तरीके से अभ्यास कर चीजें करनी चाहिए जो परमेश्वर उन्हें सिखाता है। ये थोड़ी-सी बातें सरल लगती हैं, मगर लोगों को इन्हें अमल में लाने के लिए 20-30 वर्ष या पूरा जीवनकाल लग सकता है। हो सकता है कि तुम्हारे परिवार द्वारा तुममें भरी गई इन कहावतों द्वारा उपजे विचारों और सोच के विरुद्ध लड़ने, इन विचारों और सोच से खुद को अलग करने और उनसे दूर होने में तुम अपना सारा जीवन बिता दो। यह करने के लिए तुम्हें अपनी भावनाएँ और ऊर्जा खपानी चाहिए और साथ ही कुछ शारीरिक मुश्किलें झेलनी चाहिए। तुममें परमेश्वर की जबरदस्त चाह और एक ऐसी इच्छा होनी चाहिए जो सत्य की प्यासी हो और उसका अनुसरण करे। ये चीजें होने पर ही तुम धीरे-धीरे बदलाव हासिल कर धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। सत्य और जीवन को प्राप्त करना इतना कठिन है। अनेक धर्मोपदेश सुनने के बाद ही लोग परमेश्वर में आस्था को लेकर कुछ धर्म-सिद्धांत समझ पाते हैं, लेकिन सत्य की समझ सचमुच हासिल करना और परिवार की शिक्षा के प्रभावों और गैर-विश्वासियों के विचारों और सोच को समझना उनके लिए आसान नहीं है। धर्मोपदेश सुनने के बाद अगर तुम सत्य को समझ लो, तो भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश रातोरात होने वाली चीज नहीं है, सही है न? (सही है।) ठीक है, आज की हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। फिर मिलेंगे!
25 फ़रवरी 2023
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