सत्य का अनुसरण कैसे करें (13) भाग एक
कुछ समय से हम “सत्य का अनुसरण कैसे करें” में “त्याग देने” के विषय पर संगति करते रहे हैं। क्या तुम लोगों ने इस विषय से जुड़े विविध पहलुओं पर विचार किया है? हमने जिन चीजों के बारे में संगति की थी, जिन्हें लोगों को जाने देना चाहिए, क्या उन्हें जाने देना लोगों के लिए आसान है? संगतियाँ सुनने के बाद, क्या तुम लोगों ने उनकी विषयवस्तु के आधार पर मंथन और आत्मचिंतन किया है? क्या तुमने दैनिक जीवन के अपने उद्गारों और अभिव्यक्तियों की तुलना इस विषयवस्तु से की है? (मैं आम तौर पर इस पर थोड़ा विचार करती हूँ। पिछली बार जब परमेश्वर ने परिवार द्वारा हमारे ऊपर डाले गए शिक्षा के प्रभावों को जाने देने पर संगति की, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं आम तौर पर सांसारिक व्यवहारों के लिए इन शैतानी फलसफों का पालन करती हूँ, जैसे कि यह कहावत “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” जिसे मेरे परिवार ने मन में बैठा दिया था। इन विचारों को स्वीकारने के बाद, मैंने नाक कटने के डर से अपने हर काम में प्रतिष्ठा और हैसियत को महत्त्व दिया, जिससे मैं एक ईमानदार इंसान नहीं बन पायी।) विविध चीजों के जाने देने को लेकर ये पूरी विषयवस्तु जिस पर हमने संगति की, वह मुख्य रूप से विविध विषयों पर लोगों के विचारों और सोच का समाधान करती है। ऐसे विषयों पर उनके गलत विचारों और सोच को उजागर कर यह लोगों को इस लायक बनाती है कि वे उन्हें पहचानें, उनका स्पष्ट ज्ञान पाएँ, और फिर उन्हें एक सकारात्मक तरीके से जाने दे पाएँ, उनसे संकुचित न हो जाएँ। सबसे महत्वपूर्ण चीज है इन विचारों और सोच के चलते बेबस न होना, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य को सही ढंग से अपने मानदंड के रूप में अपनाकर जीना और अस्तित्व में रहना है। अगर लोग विविध सत्यों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हैं, तो उन्हें सभी परिप्रेक्ष्यों से ज्ञान और अनुभव होना जरूरी है। खास तौर से, उन्हें विविध चीजों के बारे में निष्क्रिय और नकारात्मक विचारों और सोच की स्पष्ट समझ होनी ही चाहिए। ऐसी चीजों को विवेकपूर्ण ढंग से पहचानने पर ही वे सक्रिय रूप से उन्हें जाने दे सकते हैं, और फिर उनसे गुमराह नहीं होते, उनके बंधन में नहीं रह जाते। इसलिए, विविध सत्यों की वास्तविकता में प्रवेश करने और सत्य के अनुसरण का परिणाम प्राप्त करने के लिए, लोगों को अक्सर आत्मचिंतन कर सोचना चाहिए कि वे अपने दैनिक जीवन में विविध विचारों और सोच से किस तरह बंधे और नियंत्रित होते हैं, या अक्सर यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि दैनिक जीवन की विविध चीजों के बारे में उनके विचार और सोच क्या हैं, और यह भी समझना चाहिए कि ये विचार और सोच सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, क्या वे सकारात्मक हैं, परमेश्वर से आते हैं, या वे इंसानी इरादों या शैतान से आते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण सबक है, और यह वास्तविकता का एक पहलू है जिसमें लोगों को अपने दैनिक जीवन में हर दिन प्रवेश करना चाहिए। यानी दैनिक जीवन में विविध लोगों, मामलों और चीजों से तुम्हारा सामना हो या न हो, तुम्हें हमेशा जाँचना चाहिए कि तुम्हारे मन में कौन-से विचार और सोच हैं, और क्या ये विचार और सोच सही और सत्य के अनुरूप हैं—यह एक बहुत महत्वपूर्ण सबक है। तुम्हारे दैनिक जीवन में, कर्तव्य-निर्वहन में सामान्यतः जो समय लगता है, उसे छोड़कर तुम्हारे जीवन का 80-90 प्रतिशत इस पहलू में प्रवेश करने में व्यतीत होना चाहिए। सिर्फ इसी तरह से तुम नकारात्मक चीजों के बारे में तमाम विचारों और सोच से छुटकारा पा सकोगे, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए आशा तभी है जब तुम पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर, लोगों और चीजों को देखते हो और अपना आचरण और कार्य करते हो; तभी अंत में तुम उद्धार प्राप्त करने की आशा कर सकते हो। अगर दैनिक जीवन में अपना कर्तव्य निभाने में लगे सामान्य समय के अलावा बाकी 80-90 प्रतिशत समय तुम्हारा दिमाग खाली हो, या तुम बस अपने भौतिक जीवन, हैसियत और शोहरत पर सोच-विचार करते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं होगा, न ही सत्य के अनुसरण का परिणाम प्राप्त करना आसान होगा। अगर इन दोनों में से एक भी चीज प्राप्त करना तुम्हारे लिए आसान न हो, तो तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने की संभावना बहुत कम है। तो फिर उद्धार प्राप्ति किस बात पर निर्भर करती है? एक अर्थ में, यह इस पर निर्भर करती है कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और पवित्र आत्मा तुममें कार्यरत है या नहीं; एक दूसरे अर्थ में, यह तुम्हारे व्यक्तिपरक लगन, तुम्हारी चुकाई कीमत और सत्य के अनुसरण और उद्धार प्राप्ति में खपाई गई ऊर्जा और समय की मात्रा पर निर्भर करता है। अगर ज्यादातर समय तुम जो सोचते और करते हो, उसका सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं होता, तो तुम्हारे कार्यों का तुम्हारे बचाए जाने से कोई लेना-देना नहीं होता—यह एक अनिवार्य तथ्य और अनिवार्य परिणाम है। तो आगे बढ़ते हुए तुम्हें क्या करना चाहिए? एक पहलू यह है कि तुम्हें संगति के प्रत्येक विषय पर बारीकी से ध्यान देना चाहिए, और फिर बाद में सक्रियता से उस पर सोच-विचार कर उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए, यानी जब हम एक विषय पूरा कर लेते हैं, तभी तुम्हें आत्मचिंतन करते हुए लोहे के गर्म होते ही हथौड़ा मारना चाहिए, ताकि तुम सच्चा और सही ज्ञान पाकर सच्चा प्रायश्चित्त कर सको। हमारे संगति समाप्त करते ही या संगति के विषय का कुछ अंश तुम्हें समझ आते ही, सत्य के इस पहलू को जानने में समर्थ होने का प्रयोजन यह है कि तुम अपने ही विचारों और सोच के बारे में आधारभूत जानकारी पा सको, ताकि बाद में जब दैनिक जीवन में तुम्हारा इनसे जुड़े मामलों से सामना हो, तो सत्य सिद्धांतों का तुम्हारा पहले का ज्ञान और समझ, वह आधारभूत विचार और सोच बन जाएँ, जो इस विषय में तुम्हारे अनुभव को राह दिखा सकें। कम से कम, जब एक बार तुम जागरूकता पा लोगे, सटीक और सही ज्ञान पा लोगे, तो इस विषय को लेकर तुम्हारा रवैया और समझ सकारात्मक और सक्रिय होंगे। यानी इस घटना के होने से पहले ही, तुम्हें टीका लग चुका होगा, और तुम एक हद तक प्रतिरक्षा क्षमता पा चुके होगे, ताकि जब यह घटना वास्तव में होगी, तो तुम्हारी विफलता के साथ ही परमेश्वर से विश्वासघात करने की संभावना कम हो जाएगी, और सत्य वास्तविकता में तुम्हारे प्रवेश करने की संभाव्यता काफी बढ़ जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे कि महामारी में होता है : अगर तुम टीका नहीं लेते, तो बस घर में बंद रह सकते हो, बाहर नहीं जा सकते, जिससे संक्रमण का जोखिम शून्य हो जाता है। लेकिन अगर तुम बाहर जाकर सबसे मिलते-जुलते हो, बाहरी दुनिया के संपर्क में आते हो, तो तुम्हें टीका लगवा लेना चाहिए। क्या यह टीका संक्रमण की संभावना को दूर कर देता है? नहीं, दूर नहीं करता, मगर यह संक्रमण की संभाव्यता को घटा देता है। यह कहना काफी है कि तुम्हारे शरीर में ऐंटीबॉडीज होंगे। विविध सत्यों के ज्ञान के साथ सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया शुरू होती है। अगर तुम विविध सत्यों के भीतर से सही और सकारात्मक वक्तव्य और सिद्धांत जान लो, और साथ ही तुम्हें प्रत्येक सत्य द्वारा खुलासा किए गए विविध नकारात्मक और बुरे विचारों और सोच का कुछ ज्ञान हो, तो वैसी ही घटना के दोबारा होने पर तुम्हारे चुनाव अब शैतान द्वारा तुम्हारे मन में बिठाए गए नकारात्मक और बुरे विचारों और राय के मानदंड पर आधारित नहीं होंगे, और अब तुम्हारा रवैया ऐसे विचारों और सोच से चिपके रहने का नहीं होगा। हालाँकि इस अवस्था में तुमने अब तक सत्य वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश नहीं किया है, और तुम्हारे नजरिये निष्पक्ष हो सकते हैं, फिर भी इन सकारात्मक विचारों और सोच को स्वीकारने के बाद, तुम्हें नकारात्मक विचारों और सोच का थोड़ा ज्ञान होगा, ताकि भविष्य में जब वैसे ही मामले से तुम्हारा सामना हो, तो कम-से-कम तुम इस विषय से जुड़े सकारात्मक और नकारात्मक विचारों और सोच के बीच फर्क कर पाओगे, और इनसे निपटने के कुछ मानदंड तुम्हारे पास होंगे। इन मानदंडों के आधार पर, सत्य से प्रेम करने वाले और मानवता वाले लोगों का झुकाव सत्य पर अमल करने और सत्य के मानदंड के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, आचरण करने और कार्य करने की ओर ज्यादा होता है। एक हद तक, यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसके प्रति समर्पण करने, और परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित लोगों, मामलों और चीजों को स्वीकारने में तुम्हारी बड़ी मदद करेगा। इस दृष्टिकोण से, क्या ऐसा कहा जा सकता है कि कोई व्यक्ति जितने अधिक सत्य समझता है, सत्य वास्तविकता में प्रवेश की उसकी संभावना उतनी ही ज्यादा होती है, और वह नकारात्मक चीजों को जितने अच्छे ढंग से समझता है, इन नकारात्मक चीजों के खिलाफ विद्रोह करने की उसकी संभावना उतनी ही ज्यादा होगी? (हाँ, कहा जा सकता है।) इसलिए, चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो या नहीं, या तुमने सत्य के अनुसरण का मन बना लिया हो या नहीं, तुम सत्य के अनुसरण के पथ पर हो या नहीं, तुम्हारी काबिलियत चाहे जैसी हो, या तुम सत्य को किस तरह समझते हो, संक्षेप में, अगर लोग सत्य का अनुसरण करना चाहें, सत्य के मानदंडों को समझना चाहें, और सत्य पर अमल कर उसमें प्रवेश करना चाहें, तो यह जरूरी है कि वे तमाम नकारात्मक चीजों को पहचानें और समझें। सत्य के अनुसरण और सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए ये जरूरी शर्तें हैं।
कुछ लोग सत्य नहीं समझते, और अभी हम जिन विविध विषयों पर संगति कर रहे हैं, उन्हें लेकर उन्हें हमेशा लगता है : “मैंने इन विषयों के बारे में कभी नहीं सोचा, न ही उनका अनुभव किया है। इन विषयों के बारे में तुम्हारी बातों का मेरी विविध समस्याओं, भ्रष्ट स्वभावों और भ्रष्टता के उद्गारों से क्या संबंध है, यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, तो इन विषयों पर तुम्हारी बातों का मेरे सत्य के अनुसरण से क्या लेना-देना है? ऐसा नहीं लगता कि इसका मेरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश से कुछ ज्यादा लेना-देना है, है न? तुम लोगों के सकारात्मक प्रवेश से जुड़े ऊँचे, गूढ़ विषयों पर क्यों चर्चा नहीं करते? हमेशा दैनिक जीवन के इन तुच्छ नकारात्मक मामलों को क्यों उजागर करना?” यह राय सही है या गलत? (गलत।) ऐसे विचारों वाले लोग जब दैनिक जीवन के तुच्छ विषयों के बारे में सुनते हैं, खास तौर से जब इन विषयों की कुछ मिसालें दी जाती हैं, तो वे चिढ़ जाते हैं, सुनना नहीं चाहते। वे सोचते हैं, “यह विषयवस्तु बहुत मामूली है, उथली है। इसमें कुछ शानदार नहीं है, यह बेहद सरल है। इसे सुनते ही मैंने इसे तुरंत समझ लिया। यह बेहद आसान है। सत्य को ऐसा नहीं होना चाहिए, इससे ज्यादा गूढ़ होना चाहिए, लोगों को इसे समझ पाने और कुछ वाक्य याद रख पाने से पहले कई-कई बार सुनने की जरूरत होनी चाहिए। तुम अभी जिस बारे में बता रहे हो, वो दैनिक जीवन के तुच्छ मामले हैं और साथ ही दैनिक जीवन में सामान्य मानवता की कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह हम लोगों के लिए जरा ज्यादा ही उथला नहीं है?” क्या तुम सोचते हो कि ऐसी सोच रखनेवालों की सोच सही है? (नहीं, गलत है।) क्यों गलत है? उन लोगों के साथ क्या गलत है? सबसे पहले, क्या लोगों के विचार और सोच उनके दैनिक जीवन से असंबद्ध होते हैं? (नहीं, असंबद्ध नहीं होते।) क्या उनकी विविध अभिव्यक्तियाँ और रवैये उनके दैनिक जीवन से असंबद्ध होते हैं? (नहीं, असंबद्ध नहीं होते हैं।) नहीं, इनमें से कोई भी चीज असंबद्ध नहीं है। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और सोच, विविध विषयों को लेकर उनके विचार और इरादे, काम करने के उनके खास तरीके, और उनके दिमाग से उपजे विचार और खयाल, ये सभी दैनिक जीवन में उनकी अभिव्यक्तियों और उद्गारों से अलग नहीं किए जा सकते। इसके अलावा, दैनिक जीवन में ये विविध अभिव्यक्तियाँ और उद्गार और साथ ही अपने साथ होने वाले विविध मामलों के प्रति लोगों के विचार, सोच और रवैये, लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित अधिक विशेष चीजें हैं। सत्य के अनुसरण का प्रयोजन लोगों के गलत विचारों और सोच को बदलना है, और लोगों के विचारों और सोच को बदल कर और तमाम लोगों, मामलों और चीजों के प्रति उनके रवैये को बदलकर, लोगों से उनके भ्रष्ट स्वभावों का त्याग करवाना है, सत्य और परमेश्वर को लेकर उनके विद्रोहीपन और विश्वासघात और साथ ही परमेश्वर के विरुद्ध उनके प्रकृति सार का त्याग करवाना है। इस तरह, अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, तो क्या यह पूरी तरह से आवश्यक नहीं है कि तुम अपने दैनिक जीवन में विविध गलत विचारों और सोच को त्याग कर उन्हें बदल डालो? क्या यह सबसे महत्वपूर्ण नहीं है? (हाँ, जरूर है।) इसलिए, मेरी चर्चा की बातें कितनी भी उथली और मामूली क्यों न लगें, उनके बारे में विद्रोही मानसिकता मत रखो। ये चीजें यकीनन मामूली महत्त्व की नहीं हैं। ये तुम्हारे दिलो-दिमाग पर हावी होती हैं, और उस हर व्यक्ति, मामले और चीज के बारे में तुम्हारे विचारों और सोच को नियंत्रित करती हैं जिनसे तुम्हारा सामना होता है। अगर तुम दैनिक जीवन में इन गलत विचारों और सोच को नहीं बदलते या त्यागते, तो तुम्हारा दावा कि तुम सत्य को स्वीकारते हो और तुममें सत्य वास्तविकता है, बस खोखले शब्द होंगे। यह तुम्हें कैंसर होने जैसा है—पहले ही सक्रिय होकर उसका इलाज करवाना चाहिए। कैंसर कोशिकाएँ किसी भी अंग में हों, तुम्हारे रक्त में, त्वचा में, सतह पर या गहरे कहीं छिपी हुई हों, इतना कहना काफी है कि सबसे पहले जिनसे निपटना चाहिए वे हैं तुम्हारे शरीर की कैंसर कोशिकाएँ। कैंसर कोशिकाओं को हटाने के बाद ही तुम्हारे लिए हुए विविध पोषक तत्व अवशोषित होकर तुम्हारे भीतर कार्य कर पाएँगे। इस तरह, तब तुम्हारे शरीर के सभी अंग सामान्य रूप से कार्य कर पाएँगे। एक बार रोग मिटा दिए जाने के बाद, तुम्हारा शरीर ज्यादा सेहतमंद और ज्यादा सामान्य हो जाएगा। और ऐसे लोग इस रोग से पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। लोगों का सत्य का अनुसरण भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने की प्रक्रिया है, यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश की भी प्रक्रिया है। भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देने की प्रक्रिया लोगों के विविध गलत और नकारात्मक विचारों और सोच को बदल कर उनसे खुद को मुक्त करने की प्रक्रिया है। यह लोगों के विविध सही और सकारात्मक विचारों और सोच से खुद को लैस करने की भी प्रक्रिया है। सकारात्मक विचार और सोच क्या हैं? ये सत्य की वास्तविकता, सिद्धांत और मानदंडों से जुड़ी चीजें हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए लोगों को सत्य खोजकर, जीवन, जीवित रहने और दूसरों के साथ बर्ताव के बारे में विविध गलत विचारों और सोच का बारी-बारी से विश्लेषण कर उन्हें समझना चाहिए, और फिर बारी-बारी से उन्हें सुलझा कर त्याग देना चाहिए। संक्षेप में, सत्य का अनुसरण लोगों को इस लायक बनाने के लिए है कि वे अपने गलत और त्रुटिपूर्ण विचारों और सोच को त्याग करें और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप तमाम चीजों, विचारों और सोच के बारे में सही विचार और सोच रखें। सिर्फ इसी तरह से लोग पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। यही है वह अंतिम परिणाम जो लोग सत्य का अनुसरण कर हासिल करते हैं, और यही वह सत्य वास्तविकता है, जिसे लोग उद्धार प्राप्त करने के बाद जी सकते हैं। क्या तुम यह समझ पाए हो? (हाँ।)
पिछली सभा में, हमने “त्याग देने” के विषय में परिवार को लेकर संगति की थी। परिवार के विषय में हमने पिछली बार क्या संगति की थी? (हमने उन असुविधाओं और बाधाओं के बारे में संगति की थी, जो परिवार हमारे सत्य के अनुसरण के पथ में डालता है, और साथ ही इस पर संगति की थी कि परिवार का मुद्दा उठने पर किन लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। परमेश्वर ने दो बातों का जिक्र किया, एक अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को त्याग देने को लेकर, और दूसरा परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को त्यागने को लेकर।) हाँ, यही दो चीजें थीं। पहली है अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को त्याग देना। क्या तुम जानते हो कि वे सत्य सिद्धांत कौन-से हैं जिनकी समझ लोगों को होनी चाहिए? मेरी संगतियाँ सुनने के बाद, अगर मैं तुम्हें विशिष्ट सार न दूँ, तो क्या तुम जानते हो कि इसका सारांश कैसे तैयार करें? इन चीजों और इनसे जुड़े विशेष ब्योरों के बारे में मेरी संगति के बाद, क्या तुम लोगों ने सत्य के इस पहलू से संबंधित सिद्धांतों का सारांश तैयार किया जिनका इस संदर्भ में लोगों को पालन करना चाहिए? अगर तुम इनका सारांश बनाना जानते हो, तो तुम उन पर अमल कर पाओगे; अगर तुम उनका सारांश तैयार करना नहीं जानते, थोड़ी-सी छितरी हुई रोशनी पर अटक जाते हो, और नहीं जानते कि संबंधित सत्य सिद्धांत कौन-से हैं, तो तुम उन्हें अमल में नहीं ला पाओगे। अगर तुम उन पर अमल करना नहीं जानते, तो तुम सत्य वास्तविकता के इस पहलू में कभी प्रवेश नहीं कर पाओगे। भले ही तुम अपनी समस्याओं का पता लगा लो, तो भी तुम मेरे वचनों के साथ उनका संबंध नहीं जोड़ पाओगे, और अमल में लाने के लिए संबंधित सिद्धांत नहीं ढूँढ़ पाओगे। अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान त्याग देने के मसले के बारे में संगति करने का मुख्य प्रयोजन यह है कि तुम उस पहचान से जुड़े विविध प्रभावों से प्रभावित हुए बिना लोगों और चीजों को देख सको और आचरण और कार्य कर सको। अगर परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान विशिष्ट है, तो तुम्हें उस पहचान को सही दृष्टि से देखना चाहिए। तुम्हें यह नहीं महसूस करना चाहिए कि तुम विशिष्ट हो, दूसरों से ज्यादा योग्य हो, या तुम्हारी पहचान विशिष्ट है। दूसरों के बीच रहते हुए, तुम्हें उनके साथ उन सिद्धांतों के अनुसार बातचीत करनी चाहिए जिनसे परमेश्वर लोगों को चेतावनी देता है, और सबसे सही ढंग से पेश आना चाहिए, बजाय इसके कि सभी परिस्थितियों में दिखावा करने के लिए अपनी विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि का पूँजी के रूप में इस्तेमाल करो, जिससे दूसरे हर स्थिति में तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखें। मान लो कि तुम अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को त्याग नहीं पाते, और हमेशा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को पूँजी के रूप में इस्तेमाल करते हो, अत्यधिक दंभी, हठीला और आडंबरी आचरण करते हो। और मान लो कि तुम हमेशा दिखावा करते हो, दूसरों के बीच अपना प्रदर्शन करते हो, और अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और अपने परिवार से विरासत में मिली विशेष पहचान का निरंतर दिखावा करते हो। इसके अलावा, मान लो कि तुम भीतर से खास तौर पर अकड़ू और रोब झाड़ने वाले हो, दूसरों से बात करते समय खास तौर पर दबंगई और अक्खड़ता दिखाते हो, और तुम लोगों को झिड़कने और दबाने के लिए अपनी पहचान का पूँजी के रूप में अक्सर इस्तेमाल करते हो—दूसरे शब्दों में, लोग सोचते हैं कि तुममें सामान्य विवेक नहीं है—तुम सभी को आम मानते हो, खास तौर पर जब तुम लोगों के संपर्क में आकर उनसे निपटते हो, तो विनम्र या तुमसे निचले दर्जे के लोगों को कुछ नहीं समझते, और उनसे बात करते समय तुम खास तौर पर आक्रामक, कठोर होकर अपने जहरीले दाँत दिखाते हो। मान लो कि तुम लोगों को निरंतर झिड़कना चाहते हो, हमेशा दूसरों से गुलामों की तरह पेश आते हुए हुक्म चलाते और चीखते-चिल्लाते हो, हमेशा मानते हो कि तुम्हारी पहचान विशिष्ट है, दूसरों के साथ सौहार्द से मिल-जुलकर नहीं रह पाते, और अपने से निचले दर्जे के लोगों से सही ढंग से पेश नहीं आ पाते—ये सभी भ्रष्ट स्वभाव हैं, और ये सारी ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। जब किसी व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक हैसियत विशिष्ट हो, तो ऐसे भ्रष्ट स्वभाव उभरते हैं। इसलिए, ऐसे व्यक्ति को अपनी कथनी-करनी पर सोच-विचार करना चाहिए, अपने विचारों और सोच, खास तौर पर पारिवारिक पहचान पर सोच-विचार करना चाहिए। उन्हें ऐसे विचारों और सोच को जाने देना चाहिए, और अपनी विशेष सामाजिक हैसियत के नतीजे के रूप में जिन विविध मानवताओं को वे जीते हैं, उनसे पीछे हट जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यक्ति को अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान को त्याग देना चाहिए। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि उनकी सामाजिक हैसियत हीन है। खास तौर से, जिस किस्म के लोग समाज में हेय दृष्टि से देखे जाते हैं, जिनसे भेदभाव होता है, और जिन्हें धमकाया जाता है, उन्हें अक्सर लगता है कि उनकी पहचान हीन है, और उनके विशेष पारिवारिक माहौल के कारण होने वाली शर्मिंदगी उन्हें खास तौर पर दीन-हीन बना देती है। इस भावना के कारण वे अक्सर हीन महसूस करते हैं, और दूसरों के साथ सौहार्द और बराबरी के दर्जे के साथ मिल-जुलकर नहीं रह पाते। बेशक, इस किस्म के लोग भी खुद को विविध तरीकों से अभिव्यक्त करते हैं। कुछ लोग खास तौर से विशिष्ट हैसियत और पहचान वाले लोगों को आदर भाव से देखते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, चापलूसी करते हैं, उनसे मीठी बातें करते हैं, और उनके तलवे चाटते हैं। वे आँखें बंद करके उनकी बात दोहराते हैं, उनके अपने कोई सिद्धांत या प्रतिष्ठा नहीं होती, और वे उनके पिछलग्गू बनने और गुलामों की तरह उनका हुक्म बजाने और उनके हाथ की कठपुतली बनने को तैयार रहते हैं। ऐसे लोगों के काम करने के सिद्धांत भी सत्य के अनुरूप नहीं होते, क्योंकि मन की गहराई से वे मानते हैं कि उनकी पहचान नीची है, वे अभागे होने के लिए ही पैदा हुए थे, वे अमीरों या कुलीन सामाजिक पहचान वाले लोगों के बराबर खड़े होने लायक नहीं हैं, और इसके बजाय वे उन लोगों का गुलाम बनने के लिए पैदा हुए हैं और उन्हें उन लोगों के इशारों पर चलना होगा और उनका हुक्म मानना होगा। वे दासत्व महसूस नहीं करते। इसके बजाय सोचते हैं कि यह सामान्य है, सब-कुछ ऐसे ही चलना चाहिए। भला ये किस प्रकार के विचार और सोच हैं? क्या ये विचार और सोच एक तरह से खुद को गिराना नहीं है? (हाँ।) एक और तरह के लोग भी होते हैं, जो अमीरों को उनके दंभी, हठी, दिलेर, दबंग तरीकों से जीते हुए देखते हैं, वे ऐसे लोगों से बड़ी ईर्ष्या करते हैं, उनके पीछे भागते हैं और आशा करते हैं कि अगर उन्हें चीजें बदलने का मौका मिला होता, तो वे भी उन्हीं अमीरों की तरह दंभी और हठी ढंग से जिये होते। वे सोचते हैं कि हठी और दंभी होने में कुछ गलत नहीं है; इसके विपरीत, वे इन्हें आकर्षक और रूमानी लक्षण मानते हैं। ऐसे लोगों के विचार और सोच भी गलत हैं और इन्हें जाने देना चाहिए। तुम्हारी पहचान या हैसियत चाहे जो हो, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो भी परिवार या पारिवारिक पृष्ठभूमि पूर्व-निर्धारित की हो, उससे तुम्हें विरासत में जो पहचान मिलती है, वह न शर्मनाक है, न ही सम्माननीय। तुम अपनी पहचान से कैसे पेश आते हो, उसका सिद्धांत सम्मान और शर्मिंदगी के सिद्धांत पर आधारित नहीं होना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें चाहे जैसे परिवार में डाल दे, वह तुम्हें चाहे जैसे भी परिवार से आने दे, परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी बस एक ही पहचान है, और वह है एक सृजित प्राणी की। परमेश्वर के समक्ष तुम एक सृजित प्राणी हो, इसलिए परमेश्वर की नजरों में, तुम समाज में किसी भी उस व्यक्ति के बराबर हो, जिसकी पहचान और सामाजिक हैसियत तुमसे अलग है। तुम सभी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हो, और तुम सब वे लोग हो जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। परमेश्वर के समक्ष, बेशक तुम सबके पास सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने का एक समान अवसर है। इस स्तर पर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई सृजित प्राणी की पहचान के आधार पर, तुम्हें अपनी पहचान के बारे में बहुत ऊँची राय नहीं रखनी चाहिए, न ही उसे नीची नजर से देखना चाहिए। इसके बजाय, सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर से मिली अपनी पहचान के साथ तुम्हें सही ढंग से पेश आना चाहिए, सबके साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से बराबरी के स्तर पर और उन सिद्धांतों के अनुसार मिलने-जुलने में समर्थ होना चाहिए, जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है और जिनसे वह उन्हें झिड़कता है। दूसरों की सामाजिक हैसियत या पहचान चाहे जो हो, तुम्हारी सामाजिक हैसियत या पहचान चाहे जो हो, जो भी व्यक्ति परमेश्वर के घर में आकर उसके समक्ष आता है, उसकी बस एक ही पहचान होती है, और वह है एक सृजित प्राणी की पहचान। इसलिए, निचली सामाजिक हैसियत और पहचान वाले लोगों को हीन नहीं महसूस करना चाहिए। तुममें प्रतिभा हो या न हो, तुम्हारी योग्यता चाहे जितनी ऊँची हो, तुममें सामर्थ्य हो या न हो, तुम्हें अपनी सामाजिक हैसियत को जाने देना चाहिए। तुम्हें पारिवारिक पृष्ठभूमि या पारिवारिक इतिहास के आधार पर लोगों का विशिष्ट या दीन-हीन के रूप में श्रेणीकरण, क्रम-निर्धारण या वर्गीकरण करने के बारे में अपने विचारों और सोच को भी जाने देना चाहिए। तुम्हें अपनी निचली सामाजिक पहचान और हैसियत के कारण हीन नहीं महसूस करना चाहिए। तुम्हें खुश होना चाहिए कि हालाँकि तुम्हारी पारिवारिक पृष्ठभूमि उतनी शक्तिशाली और शानदार नहीं है, और तुम्हें विरासत में मिली हैसियत निचली है, फिर भी परमेश्वर ने तुम्हारा परित्याग नहीं किया है। परमेश्वर दीनों को गोबर और धूल के ढेर से उठाता है, और उन्हें दूसरे लोगों जैसी ही सृजित प्राणी की पहचान देता है। परमेश्वर के घर में और उसके समक्ष तुम्हारी पहचान और हैसियत परमेश्वर द्वारा चुने हुए अन्य सभी लोगों के बराबर ही होती है। एक बार इसका एहसास होने पर, तुम्हें अपनी हीनभावना को जाने देना चाहिए, उससे चिपके नहीं रहना चाहिए। विशिष्ट और बड़ी सामाजिक हैसियत या तुमसे ऊँची सामाजिक हैसियत वालों के सामने तुम्हें घुटने टेकने या हमेशा दाँत निपोरने की जरूरत नहीं है, उन्हें सिर आँखों पर बिठाने की बात तो छोड़ ही दो। इसके बजाय, तुम्हें उन्हें बराबर का समझना चाहिए, उनकी आँखों में सीधे देखकर उनसे सही ढंग से पेश आना चाहिए। भले ही वे अक्सर हावी होने वाले या घमंड से चूर लोग हों, और खुद को ऊँची हैसियत वाला मानते हों, तुम्हें उनसे सही ढंग से पेश आना चाहिए, उनकी भव्यता से मजबूर या भयभीत नहीं होना चाहिए। उनका व्यवहार चाहे जैसा हो, वे तुमसे जैसे भी पेश आएँ, तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर के समक्ष तुम और वे सब, सृजित प्राणी होने के नाते एक समान हो, तुम सब परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के लिए चुने हुए मनुष्य हो। तुमसे तुलना करें, तो उनमें कोई खासियत नहीं है। उनकी तथाकथित विशेष पहचान और हैसियत का परमेश्वर की नजरों में अस्तित्व ही नहीं है, वह उन्हें नहीं मानता। इसलिए, तुम्हें अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान से संकुचित होने की जरूरत नहीं है, न ही इस वजह से हीन महसूस करने की जरूरत है। सिर्फ अपनी निचली हैसियत के कारण दूसरे लोगों के साथ बराबरी से बात करने का अवसर छोड़ने की या परमेश्वर के घर में और परमेश्वर के समक्ष, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए अधिकार, जिम्मेदारियाँ और दायित्व छोड़ने की तो और भी जरूरत नहीं है। और बेशक तुम्हें निश्चित रूप से अपने बचाए जाने का अधिकार या उद्धार प्राप्ति की आशा नहीं छोड़नी चाहिए। परमेश्वर के घर में, परमेश्वर के समक्ष, अमीर और गरीब या ऊँची और निचली सामाजिक हैसियत के बीच कोई अंतर नहीं है, और विशेष पारिवारिक पृष्ठभूमि वाला कोई भी व्यक्ति विशेष व्यवहार या खास विशेषाधिकार के योग्य नहीं होता। परमेश्वर के समक्ष सभी लोगों की सिर्फ एक पहचान होती है, जोकि एक सृजित प्राणी की है। साथ ही, परमेश्वर के समक्ष सभी लोगों के प्रकृति सार एक ही होते हैं। परमेश्वर सिर्फ एक प्रकार के मनुष्य को बचाना चाहता है, और वह है भ्रष्ट मनुष्य। इसलिए, चाहे तुम्हारी पहचान या सामाजिक हैसियत कुलीन हो या दीन-हीन, तुम सब ऐसे मनुष्य हो जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है।
कल्पना करो कि किसी ने तुमसे कहा, “अपने परिवार को देखो, वे इतने गरीब हैं कि तुम्हारे पास अच्छे कपड़े भी नहीं हैं; तुम्हारा परिवार इतना गरीब है कि तुम बस प्राथमिक स्कूल में ही पढ़ पाए, और कभी हाई स्कूल नहीं जा पाए; तुम्हारा परिवार इतना गरीब है कि तुम्हें हमेशा सिर्फ सूप और सब्जियां ही खाने को मिलती हैं, तुमने कभी चॉकलेट, पिज्जा या कोला का स्वाद ही नहीं चखा।” तुम्हें ऐसी स्थिति को कैसे सँभालना चाहिए? क्या तुम हीन और मायूस महसूस करोगे? क्या तुम मन-ही-मन परमेश्वर के बारे में शिकायत करोगे? क्या तुम उस व्यक्ति की बातों से डर जाओगे? (अब नहीं।) अब तुम नहीं डरोगे, मगर पहले डर जाते, है ना? अतीत में, जब कभी तुम किसी अमीर, दौलतमंद और विशिष्ट परिवार को देखते, तो कहते, “आह! वे एक बंगले में रहते हैं, उनकी अपनी गाड़ी है। वे अनगिनत बार विदेश जा चुके हैं। मैं अपने गाँव से बाहर भी नहीं गया, कभी रेलगाड़ी भी नहीं देखी। वे तीव्र गति वाली रेलयात्राएँ करते हैं, प्रथम श्रेणी में यात्रा करते हैं, आलीशान जहाजों में सफर करते हैं, फ्रेंच डिजाइनर ब्रांड के कपड़े और इटैलियन आभूषण पहनते हैं। मैंने आज तक इनमें से किसी भी चीज के बारे में क्यों नहीं सुना?” जब भी तुम ऐसे लोगों के आसपास होते हो, तो उनसे छोटा महसूस करते हो। सत्य पर संगति करते समय और परमेश्वर में विश्वास रखते समय तुममें थोड़ा आत्मविश्वास होता है। लेकिन जब तुम उन लोगों से अपने परिवार और पारिवारिक जीवन के बारे में बात करते हो, तो उनसे दूर भाग जाना चाहते हो, तुम्हें लगता है कि तुम उन जैसे अच्छे नहीं हो, और तुम्हारे लिए जीने से बेहतर मर जाना है। तुम सोचते हो, “मैं ऐसे परिवार में क्यों हूँ? मैंने दुनिया में कुछ नहीं देखा। दूसरे लोग हाथों में क्रीम लगाते हैं, जबकि मैं अपने हाथों में अब भी वेसलीन लगाता हूँ; दूसरे लोग अपने चेहरे पर कोई क्रीम तक नहीं लगाते और सीधे सैलून का रुख करते हैं, जबकि मुझे यह भी नहीं मालूम कि सैलून है कहाँ; दूसरे लोग बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं, मगर यह मेरे लिए संभव नहीं है, मुझे साइकिल भी चलाने को मिल जाए तो भी मैं भाग्यशाली हूँ, कभी-कभी तो मुझे किसी बैलगाड़ी या गधागाड़ी में सवारी करनी पड़ती है।” तो हर बार ऐसे लोगों से बात करते समय तुम आत्मविश्वास खो देते हो, और अपनी पहचान की बात करने में शर्मिंदा महसूस करते हो, उसका जिक्र करने की भी हिम्मत नहीं करते। तुम दिल से परमेश्वर के प्रति थोड़ा रोषपूर्ण और नाराज रहते और सोचते हो, “वे सब भी मेरी ही तरह सृजित प्राणी हैं, तो फिर परमेश्वर उन्हें जीवन के इतने मजे कैसे लेने देता है? उसने उनके लिए वैसा परिवार और सामाजिक हैसियत पूर्व-निर्धारित क्यों किया है? मेरा परिवार इतना अधिक गरीब क्यों है? मेरे माता-पिता, बिना किसी काबिलियत और कौशल के, समाज के सबसे निचले तबके में क्यों हैं? बस इस बारे में सोचने भर से मुझे गुस्सा आ जाता है। जब भी मैं इस बारे में बात करता हूँ, अपने माता-पिता का जिक्र नहीं करना चाहता, वे इतने नाकाबिल और नाकारा हैं! बड़ी गाड़ी में सवार होने और बंगले में रहने को जाने दो, मैं बस में या तेज रेलगाड़ियों में सवार होकर शहर जाकर या शहर के बाग-बगीचों में खेलकर ही संतुष्ट हो जाता, मगर वे मुझे वहाँ भी नहीं ले गए, एक बार भी नहीं! मुझे किसी भी तरह का जीवन अनुभव नहीं है। मैंने बढ़िया खाना नहीं खाया, अच्छी गाड़ियों में सवारी नहीं की, और हवाई जहाज में उड़ना तो बस सिर्फ सपना ही है।” इन सबके बारे में सोचने से तुम्हें हीनता महसूस होती है, और यह विषय तुम्हें अक्सर संकुचित महसूस कराता है, इसलिए तुम नियमित रूप से उन भाई-बहनों के साथ उठते-बैठते हो, जिनकी पहचान और हैसियत तुमसे कुछ ज्यादा अलग नहीं है, और मन-ही-मन सोचते हो : “किसी ने ठीक ही कहा है, चोर-चोर मौसेरे भाई। उन लोगों को तो देखो, वे सब अमीर हैं, वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, करोड़पति हैं, उनके माता-पिता धन्ना सेठ हैं, ताकतवर उद्योगपति हैं, और वे विदेशों में शिक्षा-प्राप्त और स्नातकोत्तर हैं, और साथ ही कॉर्पोरेट अधिकारी और होटल प्रबंधक हैं। उनकी तुलना हमारे इस मेले से करके देखो। हम सब या तो किसान हैं या बेरोजगार। हमारे परिवार पिछड़े हुए ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, हम सिर्फ प्राथमिक स्कूल तक शिक्षा प्राप्त हैं, हमने दुनिया में कुछ नहीं देखा है। हमने मवेशी चराए हैं, गली-नुक्कड़ों में ठेले लगाए हैं, जूते दुरुस्त किए हैं। हम कैसे लोग हैं? क्या हम सिर्फ भिखारियों का झुंड नहीं हैं? जरा उन लोगों को देखो, सबके-सब ऊँचे दर्जे के, सजीले, बने-ठने। जब मैं हम जैसे अभागों के बारे में सोचता हूँ, तो बिल्कुल बेकार और व्यथित महसूस करता हूँ।” इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, तुमने इस विषय को कभी भी जाने नहीं दिया, और अक्सर खास तौर पर हीन और अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हो। चीजों के बारे में इन लोगों के विचार और सोच जाहिर तौर पर गलत हैं, ये लोगों और चीजों और उनके आचरण और कार्य के बारे में उनकी सोच के सही होने को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं। ये विचार और नजरिये सामाजिक प्रवृत्तियों और सामाजिक रीति-रिवाजों से प्रभावित होते हैं। सटीक रूप से कहा जाए, तो बेशक ये विचार और नजरिये ऐसे हैं, जो दुष्ट लोगों और पारंपरिक संस्कृति द्वारा सामान्य लोगों की सोच पर डाले जाने वाले शिक्षा के प्रभावों का परिणाम हैं। चूँकि वे भ्रष्ट हैं, बुरी प्रवृत्तियों के हैं, इसलिए तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए, ऐसे विचारों और नजरियों से परेशान या संकुचित नहीं होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “मैं ऐसे परिवार में जन्मा था, और इस तथ्य को बदला नहीं जा सकता। ऐसे विचार और नजरिये निरंतर मेरे दिमाग पर हावी रहते हैं, इन्हें जाने देना कठिन है।” यह सचमुच एक तथ्य है कि उन्हें जाने देना कठिन है, लेकिन अगर तुम निरंतर किसी गलत विचार और नजरिये पर ही सोचते रहोगे, तो तुम उसे कभी जाने नहीं दोगे। अगर तुम सही विचारों और नजरियों को स्वीकारते हो, तो तुम गलत विचारों और नजरियों को धीरे-धीरे जाने दोगे। मेरा यह कहने का क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि तुम्हारे लिए एक ही बार में इन्हें जाने देना संभव नहीं है, जिससे कि तुम अमीरों और ऊँची हैसियत और बोलबाले वाले लोगों के साथ बराबर और सामान्य आधार पर बातचीत कर सको। एक ही बार में ऐसा करना असंभव है, लेकिन कम-से-कम तुम इस विषय से मुक्त हो पाओगे। अगर तुममें अभी भी हीनभावना है, भले ही तुम अब भी इसे लेकर दिल से अस्पष्ट रूप से परेशान हो, तो तुमने इससे कुछ हद तक पहले ही मुक्ति पा ली है। बेशक, बाद में तुम्हारे सत्य के अनुसरण में, तुम धीरे-धीरे और ज्यादा आजादी और मुक्ति पा सकोगे। सारे तथ्यों के उजागर हो जाने पर, तुम और ज्यादा स्पष्ट रूप से विविध लोगों, मामलों और चीजों का सार देख पाओगे, और सत्य के बारे में तुम्हारी समझ और ज्यादा गहरी हो जाएगी। ऐसे विषयों की गहरी अंतर्दृष्टि पा लेने पर, ऐसे विषयों का तुम्हारा जीवन अनुभव और ज्ञान बढ़ जाएगा। साथ-ही-साथ, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया और अधिक सक्रिय और सकारात्मक हो जाएगा, और तुम नकारात्मक चीजों से उतना ही कम विवश होगे। तब क्या तुम बदल नहीं गए होगे? इसके बाद जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलोगे जिसकी पहचान और हैसियत तुमसे बहुत ज्यादा अलग है, और उससे बात करोगे और जुड़ोगे, तो कम-से-कम तुम अब भीतर से भयभीत नहीं रहोगे, न ही दूर भागोगे, बल्कि इसके बजाय तुम उनसे सही ढंग से पेश आ पाओगे, और तुम अब उनके प्रतिबंधों के अधीन नहीं रहोगे, या नहीं सोचोगे कि वे कितने महान और विशिष्ट हैं। एक बार तुम लोगों का भ्रष्ट सार समझ लोगे, तो तुम हर तरह के लोगों को ठीक ढंग से सँभाल पाओगे, हर तरह के लोगों को आदर से देखे या नीचा दिखाए बिना, भेदभाव किए बिना या उनके बारे में ऊँची राय रखे बिना, उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार मिल-जुलकर रह सकोगे, बातचीत कर उनसे जुड़ सकोगे। इस तरह से, क्या तुम धीरे-धीरे सत्य के अनुसरण से मिलने वाले परिणाम प्राप्त कर सकोगे? (हाँ।) यह परिणाम प्राप्त कर तुम सत्य से अधिक प्रेम करने लगोगे, सकारात्मक चीजों और सत्य के प्रति अधिक झुकाव रखने लगोगे, परमेश्वर और सत्य की सराहना करने के प्रति अधिक झुकाव रखने लगोगे, समाज या दुनिया के किसी व्यक्ति की विशिष्ट पहचान और हैसियत देख उसकी सराहना नहीं करोगे। तुम जिन चीजों की सराहना कर आदर से देखते हो, और साथ ही जिन चीजों का अनुसरण कर तुम आराधना करते हो, वे अलग होंगे, और धीरे-धीरे नकारात्मक चीजों से सकारात्मक चीजों और फिर सत्य में—और सटीक ढंग से कहें—तो परमेश्वर, उसके वचनों और परमेश्वर की पहचान और हैसियत में बदल जाएँगे। इस प्रकार, इस संबंध में धीरे-धीरे तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यानी, तुम धीरे-धीरे इस संबंध में अपने भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के बंधनों को त्याग दोगे, और धीरे-धीरे उद्धार प्राप्त कर लोगे—प्रक्रिया में ये चीजें शामिल हैं। यह कठिन नहीं है; तुम्हारे सामने मार्ग प्रशस्त है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। और आखिरकार तुम कौन-सी वास्तविकता में प्रवेश करोगे? तुम अपने परिवार से चाहे जैसी हैसियत विरासत में पाओ, तुम अब इस बात से परेशान या प्रभावित नहीं रहोगे कि यह कुलीन है या निचले दर्जे की। इसके बजाय, तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा पाओगे, और एक सृजित प्राणी की पहचान के साथ ही तुम लोगों और चीजों को देख सकोगे, आचरण और कार्य कर पाओगे, परमेश्वर के समक्ष जी पाओगे, प्रत्येक दिन वर्तमान में जी पाओगे—यही है वह परिणाम जिसका तुम अनुसरण करोगे। क्या यह एक अच्छा परिणाम है? (हाँ, जरूर है।) जब लोग वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश करते हैं, तो उनके दिल मुक्त और आजाद हो जाते हैं। कम-से-कम तुम परिवार से तुम्हें विरासत में मिली पहचान के विषय को लेकर परेशान नहीं रहोगे, तुम्हें परवाह नहीं होगी कि तुम्हारी हैसियत ऊँची है या नीची। अगर तुम्हारी पहचान विशिष्ट है, और कुछ लोग तुम्हें आदर से देखें, तो तुम चिढ़ जाओगे; अगर तुम्हारी पहचान नीची है, और कुछ लोग तुमसे भेदभाव करते हैं, तो तुम उससे संकुचित या परेशान नहीं होगे, न ही तुम इसको लेकर दुखी या नकारात्मक होगे। तुम्हें अब इस आधार पर चिंतित, व्यथित या हीन महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुमने किसी तेज रेलगाड़ी में सवारी की है या नहीं, सैलून गए हो या नहीं, विदेश घूमे हो या नहीं, पश्चिमी खाना खाया है या नहीं, या अमीरों की तरह विशिष्ट भौतिक आराम के मजे लिए हैं या नहीं। तुम अब ऐसे विषयों से संकुचित या परेशान नहीं होगे, और हर तरह के लोगों, चीजों और मामलों से सही बर्ताव कर पाओगे, अपना कर्तव्य सामान्य ढंग से निभा पाओगे। फिर क्या तुम आजाद और मुक्त नहीं होगे? (हाँ।) इस प्रकार तुम्हारा दिल मुक्त हो जाएगा। सत्य के इस पहलू में प्रवेश कर लेने और शैतान के बंधनों से मुक्त हो जाने पर, तुम सचमुच परमेश्वर के समक्ष जीने वाला सृजित प्राणी बन चुके होगे, एक ऐसा सृजित प्राणी जिसकी चाह परमेश्वर को है। अब तक परिवार से विरासत में मिली पहचान और हैसियत को त्याग देने के पथ के बारे में तुम्हारी समझ पहले से ज्यादा स्पष्ट हो गई होगी।
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