सत्य का अनुसरण कैसे करें (12) भाग तीन

अभी मैंने तुम्हारे साथ परिवार से विरासत में मिली पहचान को त्यागने के बारे में संगति की। क्या ऐसा करना आसान है? (हाँ, यह आसान है।) सच में आसान है? किन परिस्थितियों में यह मुद्दा तुम्हें प्रभावित और परेशान करेगा? जब तुम्हें इस मुद्दे के बारे में सही और स्पष्ट समझ नहीं होगी, तो किसी विशेष माहौल में तुम इससे प्रभावित होगे, और यह अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाने की तुम्हारी क्षमता को प्रभावित करेगा, और चीजों को संभालने के तुम्हारे तरीकों और परिणामों पर भी असर डालेगा। इसलिए, जब अपने परिवार से विरासत में मिली पहचान की बात आती है, तो तुम्हें इससे ठीक से निपटना चाहिए, और इससे प्रभावित या नियंत्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि परमेश्वर द्वारा लोगों को दिए गए तरीकों के अनुसार चीजों और लोगों को देखना, आचरण करना, और सामान्य व्यवहार करना चाहिए। इस तरह, तुम्हारे पास वह रवैया और सिद्धांत होंगे जो इस संबंध में एक स्वीकार्य सृजित प्राणी के पास होने चाहिए। आगे, हम परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभावों को त्यागने के बारे में संगति करेंगे। इस समाज में, संसार से निपटने के लिए लोगों के सिद्धांत, जीवन जीने के लोगों के तरीके, और यहाँ तक कि धर्म और आस्था के प्रति उनके रवैये और धारणाएँ, और साथ ही लोगों और चीजों के प्रति उनकी विभिन्न धारणाएँ और दृष्टिकोण—ये सभी चीजें निस्संदेह परिवार द्वारा सिखाई जाती हैं। सत्य समझने से पहले—व्यक्ति की उम्र चाहे जितनी भी हो, चाहे वह पुरुष हो या महिला, या वह किसी भी पेशे में कार्यरत हो, या सभी चीजों के प्रति उसका रवैया जैसा भी हो, चाहे यह अतिवादी हो या तर्कसंगत हो—संक्षेप में, सभी तरह की बातों में, चीजों के प्रति लोगों के विचार, दृष्टिकोण और उनके रवैये काफी हद तक परिवार द्वारा प्रभावित होते हैं। यानी, परिवार द्वारा व्यक्ति को दी गई शिक्षा के विभिन्न प्रभाव काफी हद तक, चीजों के प्रति उसका रवैया, उन चीजों से निपटने के उसके तरीके, और जीवन जीने के प्रति उसका नजरिया निर्धारित करते हैं, और यहाँ तक कि यह उसकी आस्था को भी प्रभावित करते हैं। चूँकि परिवार व्यक्ति को बहुत कुछ सिखाता और बहुत प्रभावित करता है, इसलिए चीजों से निपटने के लोगों के तरीकों और सिद्धांतों के साथ ही जीवन के प्रति उनके नजरिये और आस्था पर उनके दृष्टिकोण के मूल में परिवार होता ही है। क्योंकि पारिवारिक घर वह स्थान नहीं है जहाँ सत्य उत्पन्न होता है, न ही यह सत्य का स्रोत है, व्यावहारिक तौर पर सिर्फ एक ही प्रेरक शक्ति या लक्ष्य है जो तुम्हारे परिवार को जीवन के बारे में तुम्हें कोई भी विचार, दृष्टिकोण या तरीका सिखाने के लिए प्रेरित करता है—और यह है अपने सर्वोत्तम हितों के लिए काम करना। ये चीजें जो तुम्हारे सर्वोत्तम हितों के लिए हैं, चाहे वे किसी से भी आएँ—चाहे तुम्हारे माता-पिता से, दादा-दादी से या तुम्हारे पूर्वजों से—संक्षेप में, इनका उद्देश्य यही है कि तुम समाज में और दूसरों के बीच अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम बनो, कोई तुम पर धौंस न जमा पाए, और तुम लोगों के बीच अधिक खुलेपन के साथ और कूटनीतिक बनकर रह पाओ, जिसका मकसद भरसक तुम्हारे हितों की रक्षा करना है। परिवार से मिली शिक्षा तुम्हारी रक्षा के लिए है, ताकि कोई तुम पर धौंस न जमाए या तुम्हें कोई अपमान न सहना पड़े, और तुम दूसरों से बेहतर बन सको, फिर चाहे इसका मतलब दूसरों पर धौंस जमाना या उन्हें तकलीफ देना ही क्यों न हो, जब तक तुम्हें कोई नुकसान नहीं होता, तब तक सब सही है। ये कुछ सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं जो तुम्हारा परिवार तुम्हें सिखाता है, और यह तुम्हें सिखाए गए सभी विचारों का सार और मूल उद्देश्य भी है। यही बात है न? (बिल्कुल।) तुम्हारे परिवार ने जो भी चीजें तुम्हें सिखाई हैं, अगर तुम उनके उद्देश्य और सार के बारे में सोचो, तो क्या इनमें कुछ भी सत्य के अनुरूप है? भले ही ये चीजें नैतिकता या मानवता के वैध अधिकारों और हितों के अनुरूप हों, क्या इनका सत्य से कोई सरोकार है? क्या ये सत्य हैं? (नहीं।) यकीनन यह कहा जा सकता है कि ये सत्य नहीं हैं। चाहे इंसान तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजों को कितना भी सकारात्मक और वैध, मानवीय और नैतिक माने, वे सत्य नहीं हैं, न ही वे सत्य का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, और बेशक वे सत्य की जगह तो कतई नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब परिवार की बात आती है, तो ये चीजें वे अन्य पहलू हैं जिसे लोगों को त्याग देना चाहिए। यह पहलू आखिर है क्या? यह पहलू परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभाव हैं—परिवार के विषय में यह दूसरा पहलू है जिसका तुम्हें त्याग करना चाहिए। चूँकि हम परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा के प्रभावों पर चर्चा कर रहे हैं, तो आओ पहले इस पर बात करते हैं कि शिक्षा के ये प्रभाव आखिर हैं क्या। अगर हम लोगों की सही और गलत की अवधारणा के अनुसार उनमें अंतर करें, तो पता चलेगा कि उनमें से कुछ चीजें अपेक्षाकृत सही, सकारात्मक, और प्रस्तुत करने योग्य हैं, और उन्हें सामने रखा जा सकता है, जबकि कुछ चीजें अपेक्षाकृत स्वार्थी, घृणित, नीच, और काफी नकारात्मक हैं, और कुछ नहीं। लेकिन चाहे जो भी हो, परिवार से मिली शिक्षा के प्रभाव कपड़ों की एक रक्षात्मक परत की तरह होते हैं जो कुल मिलाकर व्यक्ति के दैहिक हितों की रक्षा करते हैं, दूसरों के बीच उनकी गरिमा बनाए रखते हैं, और उन्हें किसी की धौंस में आने से रोकते हैं। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) तो फिर, आओ बात करें कि तुम्हारे परिवार की शिक्षा के क्या प्रभाव होते हैं। उदाहरण के लिए, जब परिवार के बुजुर्ग अक्सर तुमसे कहते हैं कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” तो यह इसलिए होता है ताकि तुम अच्छी प्रतिष्ठा रखने और गौरवपूर्ण जीवन जीने को अहमियत दो और ऐसे काम मत करो जिनसे तुम्हारी बदनामी हो। तो यह कहावत लोगों को सकारात्मक दिशा की ओर लेकर जाती है या नकारात्मक? क्या यह तुम्हें सत्य की ओर ले जा सकती है? क्या यह तुम्हें सत्य समझने की ओर ले जा सकती है? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) तुम यकीन से कह सकते हो, “नहीं, नहीं ले जा सकती!” जरा सोचो, परमेश्वर कहता है कि लोगों को ईमानदार लोगों की तरह आचरण करना चाहिए। अगर तुमने कोई अपराध किया है या कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा किया है जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है या सत्य के विरुद्ध जाता है, तो तुम्हें अपनी गलती स्वीकारनी होगी, खुद को समझना होगा, और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए खुद का विश्लेषण करते रहना होगा और फिर परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना होगा। अगर लोग ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करें, तो क्या यह इस कहावत के विरुद्ध नहीं होगा कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है”? (हाँ।) यह इसके विरुद्ध कैसे होगा? “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” इस कहावत का उद्देश्य यह है कि लोग उज्ज्वल और रंगीन जीवन जिएँ और ऐसे काम ज्यादा करें जिनसे उनकी छवि बेहतर होती है—उन्हें बुरे या अपमानजनक काम या ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे उनका कुरूप चेहरा उजागर हो—और वे आत्मसम्मान या गरिमा के साथ न जी पाएँ। अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, अपने गौरव और सम्मान की खातिर, व्यक्ति को अपने बारे में सब कुछ नहीं बताना चाहिए, और दूसरों को अपने अँधेरे पक्ष और शर्मनाक पहलुओं के बारे में तो कतई नहीं बताना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीना चाहिए। गरिमावान होने के लिए अच्छी प्रतिष्ठा होना जरूरी है, और अच्छी प्रतिष्ठा पाने के लिए व्यक्ति को मुखौटा लगाना और अच्छे कपड़े पहनकर दिखाना होता है। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के विरुद्ध नहीं है? (हाँ।) जब तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करते हो, तो तुम जो भी करते हो वह इस कहावत से बिल्कुल अलग होता है, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” अगर तुम ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना चाहते हो, तो आत्मसम्मान को अहमियत मत दो; व्यक्ति के आत्मसम्मान की कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है। सत्य से सामना होने पर, व्यक्ति को मुखौटा लगाने या झूठी छवि बनाए रखने के बजाय, खुद को उजागर कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपने सच्चे विचारों, अपनी गलतियों, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले पहलुओं वगैरह को परमेश्वर के सामने प्रकट कर देना चाहिए, और अपने भाई-बहनों के सामने भी इनका खुलासा करना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीने का मामला नहीं, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति की तरह आचरण करने, सत्य का अनुसरण करने, एक सच्चा सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर को संतुष्ट करने और बचाए जाने की खातिर जीने का मामला है। लेकिन जब तुम यह सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजें तुम पर हावी हो जाती हैं। इसलिए, जब तुम कुछ गलत करते हो, तो उस पर पर्दा डालकर यह सोचते हुए दिखावा करते हो, “मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूँगा, और अगर कोई इस बारे में जानता है मैं उसे भी कुछ नहीं कहने दूँगा। अगर तुममें से किसी ने कुछ भी कहा, तो मैं तुम्हें आसानी से नहीं छोडूँगा। मेरी प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जरूरी है। जीने का मतलब तभी है जब हम अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जिएँ, क्योंकि यह किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है, तो वह अपनी सारी गरिमा खो देता है। तो तुम जो सच है वह नहीं बता सकते, तुम्हें झूठ का सहारा लेना होगा और चीजों को छुपाना होगा, वरना तुम अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा खो बैठोगे, और तुम्हारा जीवन निरर्थक हो जाएगा। अगर कोई तुम्हारा सम्मान नहीं करता है, तो तुम एकदम बेकार हो, सिर्फ रास्ते का कचरा हो।” क्या इस तरह अभ्यास करके ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करना मुमकिन है? क्या पूरी तरह खुलकर बोलना और अपना विश्लेषण करना मुमकिन है? (नहीं, मुमकिन नहीं है।) बेशक, ऐसा करके तुम इस कहावत का पालन कर रहे हो, “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” जैसा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें सिखाया है। हालाँकि, अगर तुम सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के लिए इस कहावत को त्याग देते हो, तो फिर यह तुम्हें प्रभावित नहीं करेगी, और यह कोई काम करने के लिए तुम्हारा आदर्श वाक्य या सिद्धांत भी नहीं रहेगी, बल्कि तुम जो भी करोगे वह इस कहावत से बिल्कुल विपरीत होगा कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” तुम न तो अपनी प्रतिष्ठा की खातिर और न ही अपनी गरिमा की खातिर जियोगे, बल्कि तुम सत्य का अनुसरण करने और ईमानदार व्यक्ति जैसा आचरण करने के लिए जियोगे, और परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह जीने की कोशिश करोगे। अगर तुम इस सिद्धांत का पालन करते हो, तो तुम अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों से मुक्त हो जाओगे।

परिवार लोगों को बस एक या दो कहावतों से नहीं, बल्कि बहुत सारे मशहूर उद्धरणों और सूक्तियों से सिखाता है। उदाहरण के लिए, क्या तुम्हारे परिवार के बुजुर्ग और माँ-बाप अक्सर इस कहावत का उल्लेख करते हैं, “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवज करता जाता है”? (हाँ।) इससे उनका मतलब होता है : “लोगों को अपनी प्रतिष्ठा की खातिर जीना चाहिए। लोग अपने जीवनकाल में दूसरों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा कायम करने और अच्छा प्रभाव डालने के अलावा और कुछ नहीं चाहते हैं। तुम जहाँ भी जाओ, वहाँ अधिक उदारता के साथ सबका अभिवादन करो, खुशियाँ बाँटो, तारीफें करो, और कई अच्छी-अच्छी बातें कहो। लोगों को नाराज मत करो, बल्कि अधिक अच्छे और परोपकारी कर्म करो।” परिवार द्वारा दी गई इस विशेष शिक्षा के प्रभाव का लोगों के व्यवहार या आचरण के सिद्धांतों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिसका नतीजा यह होता है कि वे शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देते हैं। यानी, वे अपनी प्रतिष्ठा, साख, लोगों के मन में बनाई अपनी छवि, और वे जो कुछ भी करते हैं और जो भी राय व्यक्त करते हैं उसके बारे में दूसरों के अनुमान को बहुत महत्व देते हैं। शोहरत और लाभ को ज्यादा अहमियत देकर, तुम अनजाने में इस बात को कम महत्व देते हो कि तुम जो कर्तव्य निभा रहे हो वह सत्य और सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, क्या तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो, और क्या तुम पर्याप्त मात्रा में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम इन चीजों को कम महत्वपूर्ण और कम प्राथमिकता वाली चीजें मानते हो, जबकि तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई इस कहावत को कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” तुम बहुत महत्वपूर्ण मान लेते हो। यह कहावत तुम्हें दूसरों के मन में अपने बारे में हर एक बारीक चीज पर ध्यान देने को मजबूर करती है। खास तौर पर, कुछ लोग इस पर विशेष ध्यान देते हैं कि दूसरे लोग उनकी पीठ पीछे उनके बारे में असल में क्या सोचते हैं, यहाँ तक कि वे दीवारों पर कान लगाकर और आधे-खुले दरवाजों से दूसरों की बातें सुनते हैं, और दूसरे लोग उनके बारे में क्या लिख रहे हैं उस पर नजर भी रखते हैं। जैसे ही कोई उनके नाम का जिक्र करता है, वे सोचते हैं, “मुझे जल्दी से सुनना होगा कि वे मेरे बारे में क्या कह रहे हैं, और वे मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं या नहीं। अरे नहीं, उनका कहना है कि मैं आलसी हूँ और मुझे अच्छा खाना पसंद है। अब मुझे बदलना होगा, मैं अब से आलसी नहीं हो सकता, मुझे मेहनती बनना होगा।” कुछ समय तक मेहनत करने के बाद, वे मन ही मन सोचते हैं, “मैं कई दिनों से कान लगाकर सुन रहा था कि लोग मुझे आलसी कहते हैं या नहीं, पर हाल के दिनों में मैंने किसी से ऐसा नहीं सुना है।” मगर फिर भी उन्हें बेचैनी होती है, तो वे अपने आस-पास के लोगों से चर्चा करते समय यूँ ही कह देते हैं : “मैं थोड़ा आलसी तो हूँ।” तो दूसरे जवाब देते हैं : “तुम आलसी नहीं हो, बल्कि अब पहले से काफी मेहनती बन गए हो।” यह सुनकर वे तुरंत आश्वस्त, खुश और सुकून महसूस करते हैं। “देखा, मेरे बारे में सबकी राय बदल गई है। ऐसा लगता है कि सभी ने मेरे व्यवहार में सुधार देखा है।” तुम जो कुछ भी करते हो वह सत्य का अभ्यास करने की खातिर नहीं है, न ही यह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए है, बल्कि यह सब तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर है। इस तरह, तुमने जो कुछ भी किया वह प्रभावी रूप से क्या बन जाता है? यह प्रभावी रूप से एक धार्मिक कार्य बन जाता है। तुम्हारे सार को क्या होता है? तुम बिल्कुल फरीसियों जैसे बन गए हो। तुम्हारे मार्ग को क्या होता है? यह मसीह-विरोधियों का मार्ग बन गया है। परमेश्वर इसी तरह इसे परिभाषित करता है। तो, तुम जो भी करते हो उसका सार दूषित हो गया है, यह अब पहले जैसा नहीं रहा; तुम सत्य का अभ्यास या उसका अनुसरण नहीं कर रहे, बल्कि तुम शोहरत और लाभ के पीछे भाग रहे हो। जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन—एक शब्द में—अपर्याप्त है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कार्य या एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होने के बजाय बस अपनी प्रतिष्ठा के प्रति समर्पित हो। जब परमेश्वर तुम्हारे सामने ऐसी परिभाषा रखता है तो तुम अपने दिल में क्या महसूस करते हो? यह कि परमेश्वर में तुम्हारे इतने वर्षों का विश्वास व्यर्थ रहा। तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे? तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा पर विशेष ध्यान दे रहे थे, और इन सबकी जड़ में तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा का प्रभाव है। वह कौन-सी सबसे प्रभावशाली कहावत है जिससे तुम्हें शिक्षित किया गया है? यह कहावत कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” तुम्हारे दिल में जड़ें जमा चुकी है और तुम्हारा आदर्श वाक्य बन गई है। बचपन से ही तुम इस कहावत से प्रभावित और शिक्षित किए गए हो, और बड़े होने के बाद भी तुम अपने परिवार की अगली पीढ़ी और अपने आस-पास के लोगों को प्रभावित करने के लिए अक्सर इस कहावत को दोहराते रहते हो। बेशक, इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि तुमने इसे अपने आचरण और चीजों के साथ निपटने के लिए अपने तरीके और सिद्धांत के रूप में अपनाया है, और यहाँ तक कि अपने जीवन का लक्ष्य और दिशा मान लिया है। तुम्हारा लक्ष्य और दिशा गलत है, तो फिर तुम्हारा अंतिम परिणाम भी यकीनन नकारात्मक ही होगा। क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो उसका सार केवल तुम्हारी प्रतिष्ठा की खातिर और सिर्फ इस कहावत को अभ्यास में लाने के लिए होता है कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, और तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है। तुम्हें लगता है कि इस कहावत में कुछ भी गलत नहीं है; क्या लोगों को अपनी प्रतिष्ठा के लिए नहीं जीना चाहिए? जैसी कि आम कहावत है, “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” यह कहावत बहुत सकारात्मक और उचित लगती है, तो तुम अनजाने में इसकी सीख के प्रभाव को स्वीकार लेते हो और इसे एक सकारात्मक चीज मानते हो। इस कहावत को एक सकारात्मक चीज मानने के बाद, तुम अनजाने में इसका अनुसरण और अभ्यास करते हो। इसी के साथ, तुम अनजाने में और भ्रमित होकर इसे सत्य और सत्य की कसौटी मान लेते हो। इसे सत्य की कसौटी मानने के बाद, तुम परमेश्वर की नहीं सुनते, और न ही उसकी बातों को समझते हो। तुम आँख बंद करके इस आदर्श वाक्य को अभ्यास में लाते हो कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” और इसके अनुसार कार्य करते हो, जिससे अंत में तुम अच्छी प्रतिष्ठा पा लेते हो। तुम जो चाहते थे अब वह तुम्हें मिल गया है, पर ऐसा करके तुमने सत्य का उल्लंघन और सत्य का त्याग किया है, और बचाए जाने का अवसर भी गँवा दिया है। यह देखते हुए कि यही इसका अंतिम परिणाम है, तुम्हें अपने परिवार द्वारा सिखाए गए इस विचार को त्याग देना चाहिए कि “व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है।” तुम्हें इस कहावत पर टिके नहीं रहना चाहिए, और न ही इस कहावत या विचार को अभ्यास में लाने के लिए अपनी जीवनभर की कोशिश और ऊर्जा लगानी चाहिए। यह विचार और दृष्टिकोण जो तुममें डाला और सिखाया गया है, सरासर गलत है, तो तुम्हें इसे त्याग देना चाहिए। इसे त्यागने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि यह सत्य नहीं है, बल्कि असल में यह तुम्हें भटका देगा और तुम्हारे विनाश की ओर ले जाएगा, यानी इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं। तुम्हारे लिए, यह बस कोई मामूली कहावत नहीं, बल्कि कैंसर है—लोगों को भ्रष्ट करने का साधन और तरीका है। क्योंकि परमेश्वर के वचनों में, लोगों से उसकी सभी अपेक्षाओं में, परमेश्वर ने लोगों से कभी भी अच्छी प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने या लोगों पर अच्छी छाप छोड़ने या लोगों की स्वीकृति प्राप्त करने, या लोगों की प्रशंसा पाने के लिए नहीं कहा है, और न ही उसने कभी लोगों को शोहरत पाने की खातिर जीने या अपने पीछे अच्छी प्रतिष्ठा छोड़ने के लिए मजबूर किया है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग अच्छी तरह अपने कर्तव्य निभाएँ, उसके प्रति और सत्य के प्रति समर्पण करें। इसलिए, जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, यह कहावत तुम्हारे परिवार से मिली एक तरह की शिक्षा है जिसे तुम्हें त्याग देना चाहिए।

तुम्हारे परिवार की शिक्षा का तुम पर एक और प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, माँ-बाप या बड़े-बूढ़े तुम्हें प्रोत्साहित करने के लिए अक्सर कहते हैं, “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी।” ऐसा कहकर, वे तुम्हें कष्ट सहना, मेहनती और दृढ़ रहना और अपने किसी भी काम में डटकर कष्ट सहना सिखाना चाहते हैं, क्योंकि जो कष्ट सहते हैं, कठिनाइयों से लड़ते हैं, कड़ी मेहनत करते और संघर्ष करने की भावना रखते हैं वे ही शीर्ष पर पहुँचते हैं। “शीर्ष पर पहुँचने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है ऐसी स्थिति में होना जहाँ कोई धौंस नहीं जमा सकता या नीची नजरों से नहीं देख सकता या भेदभाव नहीं कर सकता; इसका मतलब लोगों के बीच ऊँची प्रतिष्ठा और रुतबा होना, अपनी बात कहने और सुने जाने, और फैसले लेने का अधिकार होना; इसका मतलब यह भी है कि तुम दूसरों के बीच बेहतर और उच्च स्तरीय जीवन जी पाते हो, लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं, तुम्हारी सराहना करते हैं और तुमसे ईर्ष्या करते हैं। मूल रूप से इसका यह मतलब है कि संपूर्ण मानवजाति में तुम्हारा ऊँचा दर्जा है। “ऊँचा दर्जा” से क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि कई लोग तुम्हारे नीचे हैं और तुम्हें उनसे कोई दुर्व्यवहार सहने की जरूरत नहीं है—“शीर्ष पर पहुँचने” का यही मतलब है। शीर्ष पर पहुँचने के लिए, तुम्हें “बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” यानी तुम्हें ऐसे कष्ट सहने होंगे जो दूसरे नहीं सह सकते। तो शीर्ष पर पहुँच पाने से पहले, तुम्हें लोगों की अपमानजनक नजरों, उपहास, कटाक्ष, बदनामी, और साथ ही उनकी नासमझी और यहाँ तक कि उनका तिरस्कार वगैरह भी सहना होगा। शारीरिक पीड़ा के अलावा, तुम्हें आम लोगों की राय के कटाक्ष और उपहास को सहना भी सीखना होगा। केवल इस प्रकार का व्यक्ति बनना सीखकर ही तुम दूसरों से अलग बन सकते हो, और समाज में अपने लिए खास जगह बना सकते हो। इस कहावत का उद्देश्य लोगों को कोई मामूली व्यक्ति बनाने के बजाय एक शीर्ष पर रहने वाला व्यक्ति बनाना है, क्योंकि एक मामूली व्यक्ति होना बहुत कठिन है—तुम्हें दुर्व्यवहार सहना पड़ता है, तुम बेकार महसूस करते हो, और तुम्हारी कोई गरिमा या पहचान नहीं होती। यह भी परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा का प्रभाव है, और यह तुम्हारा भला करने के उद्देश्य से किया जाता है। तुम्हारा परिवार ऐसा इसलिए करता है ताकि तुम्हें दूसरों से दुर्व्यवहार न सहना पड़े, और तुम्हारे पास शोहरत और अधिकार हो, तुम अच्छा खाओ-पियो और मौज करो, और जहाँ भी जाओ वहाँ कोई तुम पर धौंस जमाने की कोशिश न करे, बल्कि तुम तानाशाह की तरह रहो और सभी फैसले खुद ले सको, और सभी तुम्हारे सामने सिर झुकाएँ और अपनी दुम हिलाएँ। एक ओर, सबसे आगे निकलने की कोशिश, तुम्हारे अपने फायदे के लिए है, और वहीं दूसरी ओर, तुम यह अपने परिवार का सामाजिक दर्जा बढ़ाने और अपने पूर्वजों का नाम रौशन करने के लिए भी कर रहे हो, ताकि तुम्हारे माँ-बाप और परिवार वालों को भी तुमसे जुड़े रहने का फायदा मिले और कोई उनसे दुर्व्यवहार न करे। अगर तुमने बहुत कष्ट सहा है और सबसे आगे निकलकर ऊँची रैंक वाले अफसर बन गए हो और अब तुम्हारे पास एक शानदार कार है, आलीशान घर है और लोग तुम्हारे आस-पास घूमते हैं, तो तुम्हारे परिवार वालों को भी तुमसे जुड़े रहने का फायदा होगा, वे भी अच्छी गाड़ियाँ चला पाएँगे, अच्छा खाएँगे, और उच्च स्तरीय जीवन जियेंगे। तुम चाहो तो सबसे महँगे पकवान खा सकोगे, मनचाही जगह पर जा सकोगे, और सभी तुम्हारे इशारों पर नाचेंगे, तुम अपनी मनमर्जी कर सकोगे, और सिर झुकाकर जीने या डरकर जीने के बजाय तुम मनमाने ढंग से और अहंकार के साथ जीवन जी सकोगे, जो मन करे वह कर सकोगे, फिर चाहे वह कानून के खिलाफ ही क्यों न हो, और तुम निडर और लापरवाह जीवन जी सकोगे—तुम्हें इस तरह की शिक्षा देने के पीछे तुम्हारे परिवार का यही उद्देश्य है कि कोई तुम्हारे साथ अन्याय न कर पाए और तुम सबसे आगे निकल सको। साफ-साफ कहें, तो उनका उद्देश्य तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना है जो दूसरों का नेतृत्व करे, उन्हें निर्देश दे, आदेश दे; उनका उद्देश्य तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना भी है जो दूसरों पर धौंस जमाने में सक्षम हो और कभी किसी की धौंस में न आए, जो किसी के अधीन होने के बजाय खुद शीर्ष पर पहुँचे। यही बात है न? (बिल्कुल।) अपने परिवार से मिली इस शिक्षा के प्रभाव का क्या तुम्हें कोई फायदा होता है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कह रहे हो कि इससे तुम्हें कोई फायदा नहीं होता? अगर हर परिवार अपनी अगली पीढ़ी को ऐसी शिक्षा दे, तो क्या इससे सामाजिक संघर्ष बढ़ जाएगा और समाज अधिक प्रतिस्पर्धी और अन्यायी बन जाएगा? हर कोई सबसे आगे रहना चाहेगा, कोई भी निचले पायदान पर रहना या सामान्य व्यक्ति बनना नहीं चाहेगा—हर कोई दूसरों पर शासन करने और धौंस जमाने वाला व्यक्ति बनना चाहेगा। अगर ऐसा हुआ तो क्या तुम्हें लगता है कि समाज तब भी अच्छा बना रहेगा? जाहिर है कि समाज सकारात्मक दिशा में नहीं जा रहा होगा, और इससे सामाजिक संघर्षों में बढ़ोतरी होगी, और लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा और विवाद बढ़ेंगे। उदाहरण के लिए, स्कूल को ही ले लो। जब आस-पास कोई नहीं होता है तो विद्यार्थी बहुत मेहनत से पढ़ाई करके एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं, मगर जब आपस में मिलते हैं तो कहते हैं, “अरे यार, मैंने फिर से पिछले हफ्ते पढ़ाई नहीं की। बल्कि फलाँ जगह जाकर दिन भर खूब मौज-मस्ती की। तुम कहाँ गए थे?” तभी कोई दूसरा बीच में बोलता है : “मैं तो पूरे हफ्ते सोता रह गया और बिल्कुल भी पढ़ाई नहीं की।” असल में दोनों ही अच्छी तरह जानते हैं कि वे पढ़ाई कर-करके थक गए थे, मगर उनमें से कोई भी तब तक पढ़ाई करने या मेहनत करने की बात नहीं स्वीकारता जब तक कि कोई उसे देख न रहा हो, क्योंकि हर कोई शीर्ष पर पहुँचना चाहता है और यह नहीं चाहता कि दूसरे उससे आगे निकल जाएँ। वे कहते हैं कि उन्होंने पढ़ाई नहीं की, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि दूसरों को पता चले कि असल में उन्होंने पढ़ाई की थी। इस तरह झूठ बोलने से क्या मिलेगा? तुम अपनी खातिर पढ़ाई करते हो, दूसरों के लिए नहीं। अगर तुम अभी से ही झूठ बोलोगे, तो क्या फिर समाज में आकर सही मार्ग पर चल पाओगे? (नहीं।) समाज में आकर व्यक्तिगत हित, पैसा और रुतबा आवश्यक हो जाता है, तो इससे लोगों के बीच मुकाबला काफी बढ़ेगा ही। लोग अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए बिल्कुल नहीं रुकेंगे और किसी भी हद तक चले जाएँगे। अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए वे किसी भी कीमत पर कुछ भी करने को तैयार होंगे, और वहाँ तक पहुँचने के लिए अपमान भी सहेंगे। अगर सब ऐसे ही चलता रहा, तो समाज अच्छा कैसे बन सकता है अगर सभी ऐसा करने लगे, तो मानवजाति अच्छी कैसे हो सकती है? (नहीं हो सकती।) सभी प्रकार की गलत सामाजिक परंपराओं और बुरी प्रवृत्तियों की जड़ में परिवार द्वारा तुम्हें दी गई शिक्षा है। तो फिर, परमेश्वर इस मामले में हमसे क्या चाहता है? क्या परमेश्वर यह चाहता है कि हम शीर्ष पर पहुँचें और साधारण, सांसारिक, मामूली या सामान्य होने के बजाय महान, मशहूर, और उत्कृष्ट बनें? क्या परमेश्वर लोगों से यही चाहता है? (नहीं।) जाहिर है कि जिस कहावत की तुम्हारे परिवार ने तुम्हें शिक्षा दी है—“शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी”—वह तुम्हें सकारात्मक दिशा नहीं दिखाती है, और बेशक, इसका सत्य से कोई सरोकार नहीं है। तुम्हें कष्ट सहने के लिए मजबूर करने के पीछे तुम्हारे परिवार का उद्देश्य निष्कपट नहीं है, बल्कि ऐसा साजिश के तहत किया गया है, और यह बेहद घृणित और कपटपूर्ण है। परमेश्वर लोगों को इसलिए कष्ट सहने को मजबूर करता है क्योंकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। अगर लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों से शुद्ध होना चाहते हैं, तो उन्हें कष्ट सहना होगा—यह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है। इसी के साथ, परमेश्वर चाहता है कि लोग कष्ट सहें : एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए, और एक सामान्य व्यक्ति को भी इसी तरह कष्ट सहना चाहिए और ऐसा ही रवैया रखना चाहिए। हालाँकि, परमेश्वर तुमसे शीर्ष पर पहुँचने की अपेक्षा नहीं करता है। वह तुमसे बस इतना चाहता है कि तुम एक साधारण, सामान्य व्यक्ति बनो, जो सत्य समझे, उसके वचनों को सुने और उसके प्रति समर्पित हो। परमेश्वर कभी नहीं चाहता कि तुम उसे हैरान करो या कोई हलचल मचा देने वाला कारनामा करो, और न ही वह तुमसे कोई मशहूर हस्ती या महान व्यक्ति बनने को कहता है। वह बस इतना चाहता है कि तुम एक साधारण, सामान्य और वास्तविक व्यक्ति बनो, और चाहे तुम कितना भी कष्ट सह सको या कष्ट न भी सह सको, अगर अंत में तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकते हो, तो यही तुम्हारे लिए सबसे बेहतरीन होगा। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम शीर्ष पर पहुँचो, बल्कि वह चाहता है कि तुम एक सच्चे सृजित प्राणी बनो, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सके। ऐसा व्यक्ति साधारण और सामान्य व्यक्ति है, जिसके पास सामान्य मानवता, अंतरात्मा और विवेक है, और वह अविश्वासियों या भ्रष्ट मनुष्यों की नजरों में ऊँचा या महान नहीं है। हमने पहले भी इस पहलू पर बहुत संगति की है, तो अब आगे इस पर चर्चा नहीं करेंगे। “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” इस कहावत को तुम्हें निस्संदेह त्याग देना चाहिए। इसमें ऐसा क्या है जो तुम्हें त्यागना चाहिए? तुम्हें वह दिशा त्यागनी है जिसके अनुसरण की शिक्षा तुम्हारे परिवार ने तुम्हें दी है। यानी, तुम्हें अपने अनुसरण की दिशा बदलनी चाहिए। सिर्फ शीर्ष पर पहुँचने, भीड़ से अलग दिखने और उल्लेखनीय होने या दूसरों से तारीफ पाने की खातिर कुछ भी मत करो। बल्कि तुम्हें इन इरादों, लक्ष्यों, और मंशाओं को त्यागकर व्यावहारिक तरीके से सब कुछ करना चाहिए ताकि तुम एक सच्चा सृजित प्राणी बन सको। “व्यावहारिक तरीके” से मेरा क्या मतलब है? सबसे बुनियादी सिद्धांत है उन तरीकों और सिद्धांतों के अनुसार सब कुछ करना जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए हैं। मान लो कि कोई भी तुम्हारे काम से हैरान या प्रभावित नहीं होता है, या कोई तुम्हारी प्रशंसा या सराहना भी नहीं करता है। हालाँकि, अगर यह कुछ ऐसा है जो तुम्हें करना ही है, तो तुम्हें डटे रहकर इसे जारी रखना चाहिए, और इसे एक सृजित प्राणी द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य की तरह देखना चाहिए। अगर ऐसा करोगे, तो तुम परमेश्वर की नजरों में एक स्वीकार्य सृजित प्राणी होगे—यह इतना सरल है। तुम्हें अपने आचरण और जीवन के प्रति अपने नजरिये के संबंध में बस अपने अनुसरण का तरीका बदलना है।

परिवार दूसरे तरीकों से भी तुम्हें शिक्षा देता है और तुम्हें प्रभावित करता है, जैसे कि इस कहावत से कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।” परिवार के सदस्य अक्सर तुम्हें सिखाते हैं : “दयालु बनो और दूसरों से बहस मत करो या दुश्मन मत बनाओ, क्योंकि अगर तुम बहुत सारे दुश्मन बनाओगे, तो समाज में अपने पैर नहीं जमा पाओगे, और अगर तुमसे नफरत और तुम्हारी हानि करने वालों की संख्या ज्यादा होगी, तो तुम समाज में सुरक्षित नहीं रहोगे। तुम पर हमेशा खतरे की तलवार लटकी रहेगी, और तुम्हारा अस्तित्व, रुतबा, परिवार, व्यक्तिगत सुरक्षा, और यहाँ तक कि तुम्हारे करियर में प्रगति की संभावनाएँ भी खतरे में पड़ जाएँगी और बुरे लोग इसमें बाधा डालेंगे। तो तुम्हें यह सीखना होगा कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।’ सबके प्रति दयालु बनो, अच्छे रिश्ते मत तोड़ो, ऐसी बातें मत कहो जिसका बाद में तुम्हें पछतावा हो, लोगों के आत्मसम्मान को ठेस मत पहुँचाओ, और उनकी कमियों को उजागर मत करो। ऐसी बातें कहने से बचो या मत कहो जिन्हें लोग सुनना नहीं चाहते। सिर्फ तारीफें करो, क्योंकि किसी की तारीफ करने से कोई नुकसान नहीं होता है। तुम्हें बड़े और छोटे, दोनों तरह के मामलों में धीरज दिखाना और समझौता करना सीखना होगा, क्योंकि ‘समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा।’” जरा सोचो, तुम्हारा परिवार एक बार में तुम्हारे मन में दो विचार और दृष्टिकोण डालता है। एक ओर, वे कहते हैं कि तुम्हें दूसरों के प्रति दयालु बनना होगा; तो वहीं दूसरी ओर, वे चाहते हैं कि तुम धीरज दिखाओ, अपनी बारी आए तभी बोलो, और अगर तुम्हें कुछ कहना है, तो उस वक्त अपना मुँह बंद ही रखो और घर आकर सारी बातें सिर्फ अपने परिवार को बताओ। या इससे भी बेहतर, अपने परिवार को भी मत बताओ, क्योंकि दीवारों के भी कान होते हैं—अगर कभी राज़ सामने आ गया, तो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। इस समाज में पैर जमाने और जीवन जीने के लिए, लोगों को एक चीज जरूर सीखनी चाहिए, और वह है गोलमोल बातें करने वाला बनना। बोलचाल की भाषा में कहें तो तुम्हें झूठा और चालाक बनना होगा। तुम यूँ ही अपने मन की बात नहीं कह सकते। अगर तुम बगैर सोचे अपने मन की बात कह देते हो, तो यह बेवकूफी कहलाएगी, चतुराई नहीं। कुछ लोग बड़बोले होते हैं जो बगैर सोचे कुछ भी कह देते हैं। मान लो कि कोई व्यक्ति ऐसा करके अपने बॉस को नाराज कर देता है। फिर बॉस उसका जीना दूभर कर देता है, उसका बोनस काट लेता है, और हमेशा उससे झगड़ने की फिराक में रहता है। आखिर में, नौकरी करते रहना उसके बर्दाश्त से बाहर हो जाता है। अगर उसने नौकरी छोड़ दी, तो उसके पास जीविका चलाने का कोई और जरिया नहीं होगा। लेकिन अगर उसने नौकरी नहीं छोड़ी, तो उसे उस नौकरी में बने रहना होगा जो उसके बर्दाश्त के बाहर है। वो क्या कहते हैं, जब तुम्हारे एक ओर कुआँ और दूसरी ओर खाई हो? दुविधा में “फँस जाना।” फिर उसका परिवार उससे कहता है : “तुम इसी बुरे व्यवहार के लायक हो, तुम्हें याद रखना चाहिए था कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’! बड़बोला होने और बेपरवाही से बोलने का यही नतीजा होता है! हमने तुमसे कहा था कि चतुराई से और अच्छी तरह सोच-समझकर ही कुछ बोला करो, पर तुमने हमारी नहीं सुनी, तुमने मुँहफट की तरह अपनी बात कह डाली। तुम्हें क्या लगा कि अपने बॉस से पंगे लेना इतना आसान है? क्या तुमने सोचा था कि समाज में जीना इतना आसान है? तुम्हें हमेशा यही लगता है कि तुम बेबाकी से बोलते हो। खैर, अब तुम्हें अपने किए का नतीजा भुगतना ही होगा। इसे अपने लिए एक सबक मानो! आगे से, तुम इस कहावत को अच्छी तरह याद रखोगे, ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’!” एक बार यह सीख मिल जाने के बाद, वह इसे याद रखता है; सोचता है, “मेरे माँ-बाप ने मुझे सही शिक्षा दी थी। यह जीवन के अनुभव से मिली अंतर्दृष्टि अंश है, ज्ञान का असली अंश, मैं अब इसे अनदेखा नहीं कर सकता। मैं खुद को खतरे में डालकर अपने बड़ों को अनदेखा करता हूँ, तो आगे से मैं इसे याद रखूँगा।” परमेश्वर में विश्वास करने और परमेश्वर के घर से जुड़ने के बाद, उसे अभी भी यह कहावत याद है, “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” इसलिए जब भी वह अपने भाई-बहनों से मिलता है तो उनका अभिवादन करता है, और उनके साथ मीठी बातें कहने की भरसक कोशिश करता है। अगुआ कहता है : “मुझे अगुआ बने एक अरसा हो गया है, पर मेरे पास कार्य का पर्याप्त अनुभव नहीं है।” तो वह तारीफ करते हुए कहता है : “आप बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं। अगर आप हमारी अगुआई नहीं कर रहे होते, तो हमें लगता कि हम बेसहारा हैं।” कोई और कहता है : “मैंने अपने बारे में कुछ चीजें समझी हैं, और मुझे लगता है मैं काफी धूर्त हूँ।” इस पर वह जवाब देता है, “तुम धूर्त नहीं हो, तुम बहुत ईमानदार हो, धूर्त तो मैं हूँ।” कोई और उसके बारे में कुछ बुरी टिप्पणियाँ कहता है, तो वह मन-ही-मन सोचता है, “ऐसी बुरी टिप्पणियों से डरने की कोई जरूरत नहीं है, मैं इससे भी बदतर चीजें सह सकता हूँ। तुम्हारी टिप्पणियाँ चाहे कितनी भी बुरी हों, मैं उन्हें अनसुना कर दूँगा, तुम्हारी तारीफ करता रहूँगा, और तुम्हारी खुशामद करने की भरसक कोशिश करूँगा, क्योंकि किसी की तारीफ करने से कोई नुकसान नहीं होता है।” संगति के दौरान जब कोई उसकी राय माँगता है या खुलकर बोलने को कहता है, तो वह खुलकर बात नहीं करता, और सबके सामने हँसमुख और खुशमिजाजी का मुखौटा लगाए रखता है। कोई उससे पूछता है : “तुम हमेशा इतने हँसमुख और खुशमिजाज कैसे रहते हो? क्या तुम हमेशा मुस्कुराते ही रहते हो?” तो वह मन-ही-मन सोचता है : “मैं सालों से मुस्कुराता रहा हूँ, और अब तक तो किसी ने मेरा फायदा नहीं उठाया, अब यह संसार से निपटने के लिए मेरा प्रमुख सिद्धांत बन गया है।” क्या वह एक कपटी इंसान है? (बिल्कुल।) कुछ लोग कई सालों से समाज में ऐसे ही जीते आए हैं, और परमेश्वर के घर में आने के बाद भी यही करते रहते हैं। उनकी एक भी बात सच्ची नहीं होती, वे कभी दिल से बात नहीं करते, और वे खुद को लेकर अपनी समझ के बारे में भी बात नहीं करते हैं। यहाँ तक कि जब कोई भाई या बहन उनसे अपने दिल की बात कहता है, तब भी वे खुलकर बात नहीं करते, और कोई नहीं जान पाता है कि असल में उनके मन में क्या चल रहा है। वे अपनी सोच और अपना दृष्टिकोण कभी सामने नहीं रखते, सबके साथ बहुत अच्छे रिश्ते बनाए रखते हैं, और तुम्हें पता ही नहीं चलता कि वे असल में कैसे इंसान हैं या उनका व्यक्तित्व किस तरह का है, या वे वास्तव में दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं। अगर कोई उनसे पूछता है कि फलाँ व्यक्ति कैसा है, तो वे जवाब देते हैं, “वह करीब दस सालों से विश्वासी है, और बढ़िया आदमी है।” चाहे तुम उनसे किसी के बारे में भी पूछो, वे यही जवाब देंगे कि वह इंसान बढ़िया है या काफी अच्छा है। अगर कोई उनसे पूछे, “क्या तुम्हें उसमें कोई कमियाँ या खामियाँ दिखती हैं?” वे जवाब देते हैं, “अब तक तो नहीं, पर आगे से मैं इस पर कड़ी नजर रखूँगा,” पर वे मन-ही-मन सोचते हैं : “तुम मुझे उस व्यक्ति को नाराज करने को कह रहे हो, जो मैं कतई नहीं करूँगा! अगर मैंने तुम्हें सच बता दिया और उसे पता चल गया, तो क्या वह मेरा दुश्मन नहीं बन जाएगा? मेरा परिवार हमेशा से मुझे कहता आया है कि दुश्मन मत बनाना, और मैं उनकी बात भूला नहीं हूँ। क्या मैं तुम्हें बेवकूफ लगता हूँ? क्या तुम्हें लगता है कि सत्य से जुड़े दो वाक्यों पर तुम्हारी संगति से मैं अपने परिवार से मिली सीख और शिक्षा को भुला दूँगा? ऐसा कतई नहीं होगा! ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है’ और ‘समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा,’ इन कहावतों ने आज तक मुझे कभी निराश नहीं किया है और ये मेरे ताबीज हैं। मैं किसी की खामियों के बारे में बात नहीं करता, और अगर कोई मुझे उकसाता है तो मैं उसके प्रति धीरज दिखाता हूँ। क्या तुमने नहीं देखा मेरे माथे पर क्या बना है? यह ‘धीरज’ का चीनी प्रतीक है, जिसमें दिल के ऊपर एक चाकू की तस्वीर है। अगर कोई बुरी टिप्पणियाँ करता है, मैं उसके प्रति धीरज दिखाता हूँ। अगर कोई मेरी काट-छाँट करता है, मैं उसके प्रति धीरज से काम लेता हूँ। मेरा लक्ष्य सभी के साथ अच्छे रिश्ते बनाना और संबंधों को इसी स्तर पर बनाए रखना है। सिद्धांतों पर अड़े मत रहो, बेवकूफी मत करो, अड़ियल मत बनो, तुम्हें हालात के अनुसार झुकना सीखना होगा! कछुए इतने लंबे समय तक कैसे जिंदा रहते हैं? क्योंकि जब भी हालात मुश्किल होते हैं वे अपने कवच के अंदर छिप जाते हैं, है न? इस तरह वे खुद की रक्षा करते हैं और हजारों साल तक जीते हैं। लंबा जीवन इसी तरह जिया जाता है और संसार से ऐसे ही निपटा जाता है।” तुम ऐसे लोगों को कभी सच्ची बात बोलते हुए नहीं सुनोगे, और उनके वास्तविक दृष्टिकोण और उनके आचरण की मूल बातें कभी उजागर नहीं होती हैं। वे इन चीजों के बारे में बस मन-ही-मन सोच-विचार करते हैं, पर किसी और को उनके बारे में कोई अता-पता नहीं होता। ऐसा व्यक्ति बाहर से तो सबके प्रति दयालु होता है, अच्छे स्वभाव वाला मालूम पड़ता है और किसी को चोट या नुकसान नहीं पहुँचाता है। मगर वास्तव में, वे गोलमोल बातें करते हैं और कपटी होते हैं। कलीसिया में ऐसे व्यक्ति को कुछ लोग हमेशा पसंद करते हैं, क्योंकि वे कभी बड़ी गलतियाँ नहीं करते, अपनी सच्चाई कभी बाहर नहीं आने देते, और कलीसिया अगुआओं और भाई-बहनों का उनके बारे में मूल्यांकन यह होता है कि वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। वे अपने कर्तव्य को लेकर उदासीन रहते हैं, उनसे जो कहा जाता है वही करते हैं। वे विशेष रूप से आज्ञाकारी होते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं, बातचीत में या मामलों से निपटते हुए कभी दूसरों को दुखी नहीं करते, और कभी किसी का गलत फायदा नहीं उठाते हैं। वे कभी किसी के बारे में बुरा नहीं बोलते, और पीठ पीछे लोगों की आलोचना भी नहीं करते। हालाँकि, यह कोई नहीं जानता कि वे अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हैं या नहीं, और वे दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं या उनके बारे में क्या राय रखते हैं। बहुत सोच-विचार के बाद, तुम्हें लगता है कि यह व्यक्ति वाकई थोड़ा अजीब है और उसकी थाह पाना मुश्किल है, और उसे अपने साथ रखने से दिक्कत हो सकती है। अब तुम्हें क्या करना चाहिए? यह तय करना मुश्किल है, है न? जब वे अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, तो तुम उन्हें अपना काम करते देख सकते हो, पर वे परमेश्वर के घर द्वारा बताए गए सिद्धांतों की कभी परवाह नहीं करते। वे अपनी मनमर्जी से काम करते हैं, बेमन से काम करते हैं और कुछ नहीं, सिर्फ बड़ी गलतियाँ करने से बचने की कोशिश करते हैं। इसी वजह से, तुम्हें उनमें कोई खामी या कोई दोष नहीं दिखता है। वे काम तो बड़े अच्छे से करते हैं, पर उनके मन में क्या चलता है? क्या वे अपना कर्तव्य निभाना चाहते हैं? अगर कलीसिया के प्रशासनिक आदेश नहीं होते या कलीसिया अगुआ या भाई-बहनों की निगरानी नहीं होती, तो क्या ऐसे लोग बुरे लोगों के साथ जुड़ सकते हैं? क्या वे बुरे लोगों के साथ मिलकर बुरे काम और बुरी चीजें कर सकते हैं? इसकी संभावना काफी अधिक है, और वे ऐसा कर सकते हैं, पर अब तक किया नहीं है। इस प्रकार के व्यक्ति सबसे ज्यादा दिक्कतें खड़ी करते हैं, और वे एक नंबर के झूठे और बूढ़ी चालाक लोमड़ी जैसे होते हैं। वे किसी के खिलाफ मन में खोट नहीं रखते। अगर कोई उन्हें दुख पहुँचाने के लिए कुछ कहता है या ऐसे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करता है जिससे उनकी गरिमा को चोट पहुँचती है, तब वे क्या सोचते हैं? “मैं धीरज से काम लूँगा, इस कारण मैं तुमसे बैर नहीं करूँगा, पर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम खुद का मजाक बनाओगे!” जब उस व्यक्ति से वास्तव में निपटा जाता है या वह खुद का मजाक बनाता है, तो वे मन-ही-मन उस पर हँसते हैं। वे आसानी से दूसरे लोगों, अगुआओं और परमेश्वर के घर का मजाक उड़ाते हैं, पर अपना मजाक नहीं बनने देते। वे खुद ही नहीं जानते कि उनमें क्या समस्याएँ या खामियाँ हैं। ऐसे लोग सावधानी बरतते हैं कि कहीं कुछ ऐसा खुलासा न कर दें जिससे दूसरों को ठेस पहुँचे या जिससे दूसरों को उनकी असलियत पता चल जाए; हालाँकि, वे इन चीजों के बारे में मन-ही-मन जरूर सोचते हैं। जब ऐसी चीजों की बात आती है जो दूसरों को सुन्न या गुमराह कर सकती हैं, तो वे खुलकर उन्हें व्यक्त करते हैं और लोगों को उन्हें देखने देते हैं। ऐसे लोग बेहद मक्कार होते हैं और इनसे निपटना कठिन होता है। तो ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का घर कैसा रवैया अपनाता है? अगर उनका इस्तेमाल किया जा सकता है तो करो, नहीं तो उन्हें बाहर निकाल दो—यही सिद्धांत है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि इस तरह के लोग कभी सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते। वे छद्म-विश्वासी हैं जो चीजें गलत होने पर परमेश्वर के घर, भाई-बहनों और अगुआओं का मजाक बनाते हैं। वे क्या भूमिका निभाते हैं? क्या यह शैतान और राक्षसों की भूमिका है? (बिल्कुल।) जब वे भाई-बहनों के प्रति धैर्य दिखाते हैं, इसमें न तो वास्तविक सहनशीलता होती है और न ही सच्चा प्रेम। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि खुद की रक्षा कर सकें और किसी दुश्मन या खतरे को अपने रास्ते में न आने दें। वे अपने भाई-बहनों को बचाने या उनके प्रति प्रेम दिखाने के लिए उन्हें बर्दाश्त नहीं करते हैं, और वे ऐसा सत्य का अनुसरण करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के कारण तो कतई नहीं करते। उनका रवैया पूरी तरह से धारा के साथ बहने और लोगों को गुमराह करने पर केंद्रित होता है। ऐसे लोग गोलमोल बातें करने वाले और कपटी होते हैं। वे सत्य को पसंद या उसका अनुसरण नहीं करते, बल्कि बस धारा के साथ बहते जाते हैं। जाहिर है कि उन्हें अपने परिवार से मिली शिक्षा उनके आचरण और चीजों से निपटने के तरीकों को काफी प्रभावित करती है। बेशक, यह कहा जाना चाहिए कि संसार से निपटने के इन तरीकों और सिद्धांतों को उनकी मानवता के सार से अलग नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात, अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभाव उनके कार्यों को अधिक स्पष्ट और ठोस बनाने का काम करते हैं, और उनकी प्रकृति सार को और अच्छी तरह स्पष्ट करते हैं। इसलिए, सही और गलत के प्रमुख मुद्दों और परमेश्वर के घर के हितों पर असर डालने वाले मामलों का सामना होने पर, अगर ऐसे लोग कुछ सही फैसले करके परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखने, अपने अपराधों को कम करने, और परमेश्वर के समक्ष अपने कुकर्मों को कम करने के लिए, सांसारिक आचरण के उन फलसफों को त्याग दें जो उनके दिलों में बसे हैं, जैसे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,”—तो इससे उन्हें क्या फायदा होगा? कम से कम, जब भविष्य में परमेश्वर हर एक व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करेगा, तो इससे उनकी सजा कम हो जाएगी और परमेश्वर उन्हें कम ताड़ना देगा। इस तरह अभ्यास करने से, ऐसे लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा, पर पाने के लिए सब कुछ होगा, है न? अगर उन्हें सांसारिक आचरण के अपने सभी फलसफों को पूरी तरह से त्यागने के लिए मजबूर किया जाए, तो यह उनके लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि इसमें उनका मानवता सार शामिल है, और ये गोलमोल बातें करने वाले कपटी लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। उनके लिए अपने परिवारों द्वारा सिखाए गए शैतानी फलसफों को त्यागना इतना सरल और आसान नहीं होता है, क्योंकि—अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को अलग रखने के बाद भी—वे खुद शैतानी फलसफों में बहुत अधिक विश्वास करते हैं, और उन्हें संसार से निपटने का यह नजरिया पसंद आता है, जो कि बहुत ही व्यक्तिगत, व्यक्तिपरक नजरिया है। लेकिन अगर ऐसे लोगों में चतुराई है—अगर अपने हितों को खतरा या नुकसान न होने पर वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए इनमें से कुछ अभ्यासों को त्याग पाते हैं—तो यह वास्तव में उनके लिए अच्छी बात है, क्योंकि कम से कम इससे उनके अपराध और परमेश्वर द्वारा उन्हें मिलने वाली ताड़ना कम हो सकती है, और यहाँ तक कि पासा पलट भी सकता है और परमेश्वर उन्हें ताड़ना देने के बजाय इनाम देकर याद भी रख सकता है। यह कितना शानदार होगा! क्या यह अच्छी बात नहीं होगी? (बिल्कुल।) इस पहलू पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें