सत्य का अनुसरण कैसे करें (11) भाग दो
हमने अभी इस विषय पर संगति की कि लोगों को वैवाहिक सुख की तलाश करना छोड़ देना चाहिए, और यह कि शादी के ढाँचे में रहकर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना ही पर्याप्त है। वैवाहिक सुख की तलाश करना छोड़ देने के विषय पर हमारी संगति पूरी हो गई है, तो अब हम दूसरे मसले पर संगति करेंगे : तुम अपनी शादी के गुलाम नहीं हो। हमें इस मसले पर संगति करनी चाहिए। शादी के बाद, कुछ लोग क्या मानते हैं? “अब यही मेरा जीवन है। अब मुझे अपना बाकी जीवन इसी व्यक्ति के साथ बिताना है। मैं जीवन भर अपने माता-पिता या परिवार के बुजुर्गों या अपने दोस्तों पर निर्भर नहीं रह सकता। तो मेरे जीवन भर का सहारा कौन है? जिससे मैं शादी करूँगा वह मेरे जीवनभर का सहारा होगा।” इस तरह के विचारों से प्रेरित होकर, कई लोग शादी को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं; वे सोचते हैं कि शादी के बाद उनका जीवन स्थिर हो जाएगा, उनके पास एक सुरक्षित जगह होगी, और कोई ऐसा होगा जिस पर भरोसा किया जा सकता है। महिलाएँ कहती हैं, “शादी के बाद, मेरे पास भरोसे का एक मजबूत कंधा होगा।” पुरुष कहते हैं, “शादी के बाद, मेरे पास एक शांतिपूर्ण घर होगा और अब मैं भटकूँगा नहीं; यह सोचकर ही मुझे खुशी होती है। मेरे आसपास मौजूद उन अविवाहित लोगों को देखो। महिलाएँ पूरे दिन इधर-उधर भटकती रहती हैं, उनके पास कोई भरोसा करने लायक नहीं होता, कोई स्थिर घर नहीं होता, रोने के लिए कंधा नहीं होता, और पुरुषों के पास प्यार भरा घर नहीं होता। वे कितने दयनीय हैं!” इसलिए, जब वे अपने वैवाहिक सुख के बारे में सोचते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह काफी परिपूर्ण और संतोषजनक है। संतुष्ट महसूस करने के अलावा, उन्हें लगता है कि उन्हें अपनी शादी और अपने घर के लिए भी कुछ करना चाहिए। इसलिए, शादी के बाद कुछ लोग अपने शादीशुदा जीवन में अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार होते हैं, और वे अपनी शादी के लिए भरसक कोशिश करने, संघर्ष करने, और मेहनत करने की तैयारी करते हैं। कुछ लोग पैसे कमाने में लगे रहते हैं और कष्ट सहते हैं और बेशक, अपने जीवन की खुशी का जिम्मा अपने साथी को सौंप देते हैं। वे मानते हैं कि उनके जीवन की हँसी-खुशी इस बात पर निर्भर करती है कि उनका साथी कैसा है, वह अच्छा इंसान है या नहीं; उसका व्यक्तित्व और रुचियाँ एक जैसी हैं या नहीं; क्या वह पैसे कमाकर परिवार चलाने वालों में से है; क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो भविष्य में उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सके, और उसे एक खुशहाल, स्थिर और बेहतरीन परिवार दे सके; और क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो किसी दर्द, तकलीफ, विफलता या नाकामी का सामना करने पर उसे दिलासा दे सके। इन बातों की पुष्टि करने के लिए, वे साथ रहते हुए अपने साथी पर विशेष ध्यान देते हैं। वे बड़ी सावधानी और सतर्कता से, अपने साथी के विचारों, दृष्टिकोणों, बातों और व्यवहार को और उसके हर एक कदम के साथ-साथ उसकी हर खूबी और कमजोरी पर नजर रखते और उसे परखते हैं। वे जीवन में अपने साथी द्वारा प्रकट किए गए सभी विचारों, दृष्टिकोणों, बातों और व्यवहारों को अच्छे से याद रखते हैं, ताकि वे अपने साथी को बेहतर ढंग से समझ सकें। इसी के साथ, वे यह भी आशा करते हैं कि उनका साथी भी उन्हें बेहतर ढंग से समझे, वे अपने साथी को अपने दिल में जगह देते हैं, और अपने साथी के दिल में बसते हैं, ताकि एक-दूसरे पर बेहतर ढंग से काबू रख सकें; वे चाहते हैं कि अपने साथी के साथ कुछ भी हो तो सबसे पहले वही सामने नजर आएँ, सबसे पहले वही उनकी मदद करें, आगे बढ़कर उनका सहारा बनें, उनका हौसला बढ़ाएँ, और उनके लिए चट्टान बनकर खड़े रहें। जीवन की ऐसी परिस्थितियों में, पति और पत्नी शायद ही कभी यह समझने की कोशिश करते हैं कि उनका साथी कैसा इंसान है, वे अपने साथी के लिए पूरी तरह से अपनी भावनाओं में जीते हैं, और अपनी भावनाओं में आकर अपने साथी की देखभाल करते हैं, उन्हें सहन करते हैं, उनकी सभी गलतियों और कमियों को माफ करते हैं, और यहाँ तक कि उनके इशारों पर नाचते रहते हैं। उदाहरण के लिए, एक महिला का पति कहता है, “तुम्हारी सभाएँ बहुत लंबी चलती हैं। बस आधे घंटे के लिए जाकर वापस आ जाया करो।” वह जवाब देती है, “मैं पूरी कोशिश करूँगी।” जाहिर है, अगली बार वह सभा में बस आधे घंटे के लिए जाकर घर वापस आ जाती है, तो अब उसका पति कहता है, “ये हुई न बात। अगली बार, बस अपना चेहरा दिखाकर वापस आ जाना।” फिर वह कहती है, “अच्छा, तुम्हें मेरी इतनी याद आती है! ठीक है फिर, मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगी।” जाहिर है, अगली बार जब वह सभा में जाती है तो अपने पति को निराश नहीं करती, और करीब दस मिनट बाद ही घर वापस आ जाती है। उसका पति बहुत खुश होता है, और कहता है, “बहुत बढ़िया!” वह उसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं करती; अगर वह उसे हँसते हुए देखना चाहता है तो वह रोने की हिम्मत नहीं करती। वह उसे परमेश्वर के वचन पढ़ते और भजन सुनते देखता है तो उसे अच्छा नहीं लगता और इससे घृणा होती है; वह कहता है, “हर वक्त उन वचनों को पढ़ने और गीत गाने से तुम्हें क्या मिलेगा? जब मैं घर पर रहूँ, तब क्या तुम उन वचनों को पढ़ना और उन गीतों को गाना बंद नहीं कर सकती?” वह जवाब देती है, “कोई बात नहीं, मैं उन्हें अब और नहीं पढ़ूँगी।” अब वह परमेश्वर के वचनों को पढ़ने या भजन सुनने की हिम्मत नहीं करती। अपने पति की माँगों से उसे आखिरकार समझ आ जाता है कि उसके पति को उसका परमेश्वर में विश्वास करना या उसके वचन पढ़ना पसंद नहीं है, इसलिए वह जब घर पर होता है तो उसके साथ ही रहती है, साथ में टीवी देखती है, खाना खाती है, बातें करती है, और यहाँ तक कि उसकी शिकायतें भी सुनती है। वह उसकी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। उसका मानना है कि एक पत्नी या पति को ये जिम्मेदारियाँ निभानी ही चाहिए। तो, वह परमेश्वर के वचन कब पढ़ती है? वह अपने पति के बाहर जाने का इंतजार करती है, फिर उसके पीठ-पीछे दरवाजा बंद करके जल्दी-जल्दी वचन पढ़ती है। जब वह दरवाजे पर किसी की आहट सुनती है, तो जल्दी से किताब को दूर रख देती है और इतनी डर जाती है कि उसे दोबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाती। और जब दरवाजा खोलती है तो पता चलता है कि यह उसका पति नहीं था—उसे बस गलत फहमी हुई थी, तो वह पढ़ना जारी रखती है। जैसे-जैसे वह पढ़ती जाती है, उसके मन में आशंकाएँ घुमड़ने लगती हैं, वह घबरा जाती है और डर जाती है, सोचती है, “अगर वह सच में घर आ गया तो क्या होगा? बेहतर होगा कि अभी के लिए बस इतना ही पढ़ूँ। जरा फोन करके पूछती हूँ कि वह कहाँ है और कब तक घर वापस आएगा।” वह उसे फोन करती है और वह कहता है, “आज काम थोड़ा ज्यादा है, तो मैं तीन या चार बजे तक घर नहीं पहुँच पाऊँगा।” इससे वह शांत हो जाती है, लेकिन क्या उसका मन अभी भी इतना शांत होगा कि वह परमेश्वर के वचन पढ़ सके? नहीं होगा; उसका मन अशांत हो चुका है। वह प्रार्थना के लिए परमेश्वर के पास दौड़ती है, और फिर क्या कहती है? क्या वह कहती है कि परमेश्वर में उसकी आस्था में विश्वास नहीं है, कि उसे अपने पति का भय है, और वह परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए अपना मन शांत नहीं कर पा रही है? उसे लगता है कि वह ये चीजें नहीं कह सकती, तो वह परमेश्वर से कुछ भी नहीं कह पाती है। मगर फिर वह अपनी आँखें बंद करके हाथ जोड़ लेती है। वह शांत हो जाती है और इतनी बेचैन महसूस नहीं करती, तो फिर से परमेश्वर के वचन पढ़ने जाती है, लेकिन अब ये वचन उसके पल्ले नहीं पड़ते। वह सोचती है, “मैं अभी क्या पढ़ रही थी? मैं अपने चिंतन-मनन में कहाँ तक पहुँच पाई थी? मेरे दिमाग से सब निकल गया।” जितना अधिक वह इसके बारे में सोचती है, उतना ही परेशान और असहज महसूस करती है : “आज मैं नहीं पढ़ूँगी। एक बार के लिए मेरी आध्यात्मिक भक्ति छूट गई तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा।” तुम्हें क्या लगता है? क्या उसका जीवन अच्छा चल रहा है? (नहीं।) यह वैवाहिक सुख है या वैवाहिक संकट? (संकट।) इस बात पर, कुछ अविवाहित लोग कह सकते हैं, “तो, तुम आग में कूद गई हो, है न? शादी कोई अच्छी चीज नहीं है, है न? देखो मेरा जीवन कितना अच्छा है, मुझे किसी और के बारे में नहीं सोचना पड़ता है, और मुझे सभाओं में जाकर अपना कर्तव्य निभाने से कोई रोकने वाला भी नहीं है।” अपने साथी को अपने साथ खुश रखने और कभी-कभार तुम्हारे परमेश्वर के वचन पढ़ने या सभाओं में हिस्सा लेने पर उसे सहमत करने के लिए, तुम्हें रोज सुबह उठकर नाश्ता बनाना पड़ता है, घर की साफ-सफाई करनी पडती है, चूजों को दाना और कुत्तों को खाना देना पड़ता है, और सभी तरह के थकाऊ काम करने पड़ते हैं—ऐसे काम भी जो आम तौर पर पुरुष करते हैं। अपने पति को संतुष्ट रखने के लिए तुम एक बूढ़ी नौकरानी की तरह बिना थके काम करती रहती हो। उसके घर आने से पहले, तुम उसके चमड़े के जूते चमकाती हो और चप्पलों को ठीक करती हो, और उसके घर आने के बाद, तुम उसके कपड़ों से धूल झाड़ने और कोट उतारकर सही जगह पर रखने में उसकी मदद करती हो, और कहती हो, “आज बहुत गर्मी है। तुम्हें गर्मी लग रही है? प्यास लगी है? आज तुम क्या खाना पसंद करोगे? कुछ खट्टा या तीखा? तुम्हें कपड़े बदलने हैं? ये कपड़े उतार दो, मैं उन्हें धो दूँगी।” तुम एक बूढ़ी नौकरानी या गुलाम जैसी हो, जो पहले ही उन जिम्मेदारियों के दायरे को पार कर चुकी है जो तुम्हें शादी के ढाँचे में रहकर निभाना चाहिए। तुम अपने पति के इशारों पर नाचती हो, उसे अपना स्वामी मानती हो। ऐसे परिवार में, पति-पत्नी के दर्जे में एक स्पष्ट अंतर होता है : एक गुलाम होता है, तो दूसरा मालिक; एक ताबेदार और विनम्र होता है, तो दूसरा भयानक और तानाशाह; एक सिर झुकाता है, तो दूसरा घमंड में चूर होता है। जाहिर है, शादी के ढाँचे में इन दोनों का दर्जा बराबरी का नहीं है। ऐसा क्यों? क्या ऐसी गुलामी उसे नीचा नहीं दिखाती है? (बिल्कुल दिखाती है।) ऐसी गुलामी उसे नीचा दिखाती है। मानवजाति के लिए परमेश्वर ने शादी को लेकर जो जिम्मेदारियाँ निर्धारित की हैं, तुम उस पर कायम नहीं रही, और उससे बहुत आगे चली गई। तुम्हारा पति कोई जिम्मेदारी नहीं निभाता और कुछ नहीं करता है, और फिर भी तुम इस तरह अपने पति के इशारों पर नाचती हो और उसके आदेश का पालन करती हो, अपनी मर्जी से उसकी गुलाम और उसकी बूढ़ी नौकरानी बनी हुई हो जो उसका सारा काम करती है—तुम कैसी इंसान हो? वास्तव में तुम्हारा प्रभु कौन है? तुम इस तरह से परमेश्वर के लिए अभ्यास क्यों नहीं करती? परमेश्वर ने निर्धारित किया है कि तुम्हारा साथी तुम्हारे जीवन के लिए भरण-पोषण करेगा; उसे यह तो करना ही चाहिए, ऐसा करके वह तुम पर एहसान नहीं कर रहा। तुम वह करती हो जो तुम्हें करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाती हो—क्या वह ऐसा करता है? क्या वह वही करता है जो उसे करना चाहिए? शादी के ढाँचे में, ऐसा नहीं है कि जो ताकतवर है वही स्वामी हो, और जो कड़ी मेहनत करता हो और सबसे अधिक काम करता हो वह गुलाम हो। शादी के ढाँचे में, दोनों को एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए और एक-दूसरे का साथ देना चाहिए। दोनों की एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदारी है, और दोनों को शादी के बंधन में रहकर अपने दायित्व पूरे करने और अपने काम करने हैं। तुम्हें अपनी भूमिका के मुताबिक ही काम करना चाहिए; जो भी तुम्हारी भूमिका है, तुम्हें उस भूमिका से जुड़े काम ही करने चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो तुममें सामान्य मानवता नहीं है। आम बोलचाल की भाषा में कहें, तो तुम्हारी हैसियत दो कौड़ी की भी नहीं है। तो जब किसी की हैसियत दो कौड़ी की भी नहीं है और फिर भी तुम उसके इशारों पर नाचती हो और अपनी मर्जी से उनकी गुलामी करती हो, तो यह सरासर बेवकूफी है और इससे तुम्हारी अहमियत खत्म हो जाती है। परमेश्वर में विश्वास करने में क्या गलत है? क्या तुम्हारा परमेश्वर में विश्वास करना कुकर्म है? क्या परमेश्वर के वचन पढ़ने में कोई दिक्कत है? ये सभी ईमानदार और सम्मानजनक कार्य हैं। जब सरकार परमेश्वर में विश्वास करने वालों पर अत्याचार करती है तो यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि मानवजाति बहुत बुरी है, और यह बुरी ताकतों और शैतान का प्रतिनिधित्व करती है। यह सत्य या परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। इसलिए, परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब यह नहीं है कि तुम दूसरों से नीचे हो या दूसरों से निम्नतर हो। इसके विपरीत, परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास तुम्हें सांसारिक लोगों से ज्यादा आदर्श बनाता है, तुम्हारा सत्य का अनुसरण तुम्हें परमेश्वर की नजरों में सम्मानजनक बनाता है, और वह तुम्हें अपनी आँखों का तारा मानता है। और फिर भी तुम खुद को नीचा दिखाती हो और शादी के ढाँचे में अपने साथी की चापलूसी करने के लिए अनायास ही उसकी गुलाम बन जाती हो। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाते समय तुम ऐसा व्यवहार क्यों नहीं करती? तुम ऐसा क्यों नहीं कर सकती? क्या यह मानवीय दीनता की अभिव्यक्ति नहीं है? (बिल्कुल है।)
परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था सिर्फ इसलिए की है ताकि तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना सीख सको, किसी दूसरे इंसान के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रह सको और मिलकर जीवन बिता सको, और इसका अनुभव कर सको कि अपने जीवनसाथी के साथ जीवन बिताना कैसा होता है, और तुम एक साथ मिलकर सभी तरह के हालात का सामना कैसे कर सकते हो, जिससे तुम्हारा जीवन पहले से अधिक समृद्ध और अलग हो जाए। लेकिन, वह तुम्हें शादी की भेंट नहीं चढ़ाता है, और बेशक, वह तुम्हें तुम्हारे साथी के हाथों बेचता भी नहीं है ताकि तुम उसकी गुलामी करो। तुम उसकी गुलाम नहीं हो, और वह तुम्हारा मालिक नहीं है। तुम दोनों बराबर हो। तुम्हें अपने साथी के प्रति सिर्फ एक पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, और जब तुम ये जिम्मेदारियाँ निभाते हो, तो परमेश्वर तुम्हें एक संतोषजनक पत्नी या पति मानता है। तुम्हारे साथी के पास ऐसा कुछ नहीं है जो तुम्हारे पास नहीं है, और तुम अपने साथी से कमतर तो बिल्कुल नहीं हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करते हो, अपना कर्तव्य निभा सकते हो, अक्सर सभाओं में हिस्सा ले सकते हो, परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए प्रार्थना कर सकते हो और परमेश्वर के समक्ष आ सकते हो, तो ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकार करता है और ये वही चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी चाहिए और एक सृजित प्राणी को ऐसा ही सामान्य जीवन जीना चाहिए। इसमें शर्म की कोई बात नहीं है, और न ही इस तरह का जीवन जीने के लिए तुम्हें अपने साथी का ऋणी महसूस करना चाहिए—तुम उसके ऋणी नहीं हो। पत्नी होने के नाते अगर तुम चाहो, तो तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में अपने साथी को गवाही देने का दायित्व निभा सकती हो। हालाँकि, अगर वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता है, और तुम्हारे चुने हुए मार्ग पर नहीं चलता है, तो तुम्हें अपनी आस्था या अपने चुने हुए मार्ग के बारे में उसे कोई जानकारी देने या कुछ समझाने की जरूरत नहीं है, न तो तुम पर इसकी कोई जिम्मेदारी है और न ही उसे यह सब जानने का हक है। तुम्हारा समर्थन करना, तुम्हें प्रोत्साहित करना और तुम्हारी ढाल बनकर खड़े रहना उसकी जिम्मेदारी और दायित्व है। अगर वह इतना भी नहीं कर सकता, तो उसमें मानवता नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम सही मार्ग पर चल रही हो, और तुम्हारे सही मार्ग पर चलने के कारण ही तुम्हारे परिवार और तुम्हारे जीवनसाथी को आशीष मिली है और वह तुम्हारे साथ परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठा रहा है। तुम्हारे साथी को इसके लिए तुम्हारा आभारी होना चाहिए; ऐसा नहीं कि वह तुम्हारे खिलाफ भेदभाव करने लगे या तुम्हारी आस्था के कारण या तुम्हें सताए जाने के कारण तुम्हें धमकाए या फिर यह माने कि तुम्हें घर के काम और दूसरी चीजों में अधिक ध्यान देना चाहिए या यह कि तुम उसकी कर्जदार हो। तुम भावनात्मक या आध्यात्मिक रूप से या किसी अन्य तरीके से उसकी ऋणी नहीं हो—उल्टा वही तुम्हारा ऋणी है। परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण ही वह परमेश्वर के अतिरिक्त अनुग्रह और आशीष का आनंद उठा रहा है, और उसे ये चीजें असाधारण रूप से मिलती हैं। “उसे ये चीजें असाधारण रूप से मिलती हैं” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि ऐसे व्यक्ति को ये चीजें पाने का कोई हक नहीं है और उसे यह सब नहीं मिलना चाहिए। उसे यह सब क्यों नहीं मिलना चाहिए? क्योंकि वह परमेश्वर का अनुसरण नहीं करता या परमेश्वर को स्वीकार नहीं करता, इसलिए जिस अनुग्रह का वह आनंद लेता है वह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के कारण आता है। वह तुम्हारे साथ रहकर फायदा उठाता है और तुम्हारे साथ ही आशीष पाता है, और इसके लिए उसे तुम्हारा आभारी होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, क्योंकि वह इन अतिरिक्त आशीषों और इस अनुग्रह का आनंद लेता है, तो उसे अपनी जिम्मेदारियाँ अधिक निभानी चाहिए और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का अधिक समर्थन करना चाहिए। घर में एक इंसान परमेश्वर में विश्वास करता है, तो कुछ लोगों का पारिवारिक व्यवसाय अच्छा चलता है और वे बहुत कामयाब होते हैं। वे बहुत पैसा कमाते हैं, उनका परिवार अच्छा जीवन जीता है, उनकी संपत्ति बढ़ती है, और उनका जीवन स्तर उन्नत होता है—ये सब चीजें कैसे आईं? अगर तुममें से कोई परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो क्या तुम्हारे परिवार को यह सब कुछ मिलता? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने उनका समृद्ध भाग्य निर्धारित किया है।” बात तो सही है कि यह परमेश्वर ने निर्धारित किया है, लेकिन अगर उनके परिवार में परमेश्वर में विश्वास करने वाला वह एक इंसान नहीं होता, तो उनका व्यवसाय इतना शानदार और धन्य नहीं होता। क्योंकि उनके परिवार का एक सदस्य परमेश्वर में विश्वास करता है, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करने वाले उस एक सदस्य की आस्था सच्ची है, वह ईमानदारी से अनुसरण करता है, और वह खुद को परमेश्वर के प्रति समर्पित करने और खपाने के लिए तैयार है, तो उसके अविश्वासी जीवनसाथी को भी असाधारण रूप से अनुग्रह और आशीष मिलती है। परमेश्वर के लिए यह छोटी सी चीज है। अविश्वासी इसके बाद भी संतुष्ट नहीं होते, वे तो परमेश्वर के विश्वासियों को दबाते और धमकाते भी हैं। देश और समाज विश्वासियों पर जैसा अत्याचार करता है वह पहले से ही उनके लिए एक आपदा है, और फिर भी उनके परिवार वाले उन पर दबाव बनाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में, अगर तुम्हें अब भी लगता है कि तुम उन्हें निराश कर रहे हो और अपनी शादी के गुलाम बनने को तैयार हो, तो तुम्हें ऐसा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का समर्थन नहीं करते, तो कोई बात नहीं; वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का बचाव नहीं करते हैं, तब भी कोई बात नहीं। वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन, उन्हें इसलिए तुम्हारे साथ गुलाम जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुम गुलाम नहीं हो, एक मनुष्य हो, एक गरिमामय और ईमानदार व्यक्ति हो। कम से कम, परमेश्वर के सामने तुम एक सृजित प्राणी हो, किसी के गुलाम नहीं। अगर तुम्हें गुलाम बनना ही है, तो सत्य का गुलाम बनो, परमेश्वर का गुलाम बनो, किसी व्यक्ति का गुलाम मत बनो, और अपने जीवनसाथी को अपना मालिक तो बिल्कुल मत मानो। दैहिक रिश्तों के मामले में, तुम्हारे माता-पिता के अलावा, इस संसार में तुम्हारे सबसे करीब तुम्हारा जीवनसाथी ही है। फिर भी परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के कारण तुम्हें वे दुश्मन मानते हैं और तुम पर हमले और अत्याचार करते हैं। वे तुम्हारे सभा में जाने का विरोध करते हैं, कोई अफवाह सुनने को मिल जाए तो वे घर आकर तुम्हें डाँटते हैं और तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करते हैं। यहाँ तक कि जब तुम घर पर परमेश्वर के वचन पढ़ते या प्रार्थना करते हो और उनके सामान्य जीवन में कोई दखल नहीं देते, तब भी वे तुम्हें फटकारेंगे और तुम्हारा विरोध करेंगे, और तुम्हें पीटेंगे भी। बताओ, यह सब क्या है? क्या वे राक्षस नहीं हैं? क्या यह वही व्यक्ति है जो तुम्हारे सबसे करीब है? क्या ऐसा व्यक्ति इस लायक है कि तुम उसके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी निभाओ? (नहीं।) नहीं, वह इस लायक नहीं है! और इसलिए, ऐसा शादीशुदा जीवन जीने वाले कुछ लोग अभी भी अपने साथी के इशारों पर नाचते हैं, सब कुछ त्यागने को तैयार रहते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने में दिया जाने वाला समय, अपना कर्तव्य निभाने का अवसर, और यहाँ तक कि अपना उद्धार पाने का मौका भी त्यागने को तैयार होते हैं। उन्हें ये चीजें नहीं करनी चाहिए और कम से कम उन्हें ऐसे विचारों को पूरी तरह त्याग देना चाहिए। परमेश्वर का ऋणी होने के अलावा, लोग किसी और के ऋणी नहीं हैं। तुम पर अपने माता-पिता, अपने पति, अपनी पत्नी, अपने बच्चों का कोई कर्ज नहीं है, और दोस्तों का तो बिल्कुल भी नहीं है—तुम किसी के भी ऋणी नहीं हो। लोगों के पास जो कुछ भी है सब परमेश्वर से आता है, उनकी शादी भी। अगर हम ऋणी होने की बात करें, तो लोग सिर्फ परमेश्वर के ऋणी हैं। बेशक, परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि तुम उसका कर्ज उतारो, वह बस इतना चाहता है कि तुम जीवन में सही मार्ग पर चलो। शादी को लेकर परमेश्वर का सबसे बड़ा इरादा यह है कि तुम अपनी शादी के कारण अपनी गरिमा और ईमानदारी मत गँवाओ, ऐसे इंसान मत बनो जिसके पास अनुसरण का कोई सही मार्ग न हो, जीवन के प्रति कोई नजरिया या अनुसरण के लिए कोई दिशा न हो, और तुम ऐसे व्यक्ति मत बनो जो अपनी शादी का गुलाम बनने के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ दे, उद्धार पाने का मौका गँवा दे, और परमेश्वर के दिए हुए किसी भी आदेश या मकसद को त्याग दे। अगर तुम अपनी शादी इस तरह सँभालते हो तो तुम्हारा शादी न करना बेहतर होता और तुम्हारे लिए अकेले जीवन जीना उपयुक्त होगा। अगर तुम सब कुछ करने के बाद भी शादी की ऐसी परिस्थिति या ढाँचे से खुद को मुक्त नहीं कर सकते, तो फिर इस शादी को पूरी तरह खत्म कर देना ही सबसे अच्छा रहेगा, और तुम्हारा एक आजाद पंछी की तरह जीना बेहतर होगा। जैसा कि मैंने कहा है, शादी की व्यवस्था करने के पीछे परमेश्वर का इरादा यह है कि तुम्हें एक जीवनसाथी मिले और तुम अपने साथी के साथ मिलकर जीवन के सभी उतार-चढ़ावों का सामना करो और जीवन के हर पड़ाव से गुजरो, ताकि तुम जीवन के हर पड़ाव में अकेले न रहो, कोई तुम्हारे साथ हो, कोई ऐसा हो जिसे तुम अपने मन की बातें बता सको, और जो तुम्हें सुकून दे और तुम्हारी देखरेख कर सके। लेकिन, परमेश्वर तुम्हें या तुम्हारे हाथ-पैर बाँधने के लिए शादी का इस्तेमाल नहीं करता, जिससे कि तुम्हारे पास अपना मार्ग चुनने का कोई हक ही नहीं हो और तुम्हें शादी का गुलाम बनना पड़े। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी निर्धारित की है और एक जीवनसाथी की व्यवस्था की है; उसने तुम्हारे लिए कोई मालिक नहीं ढूँढा है, और न ही वह चाहता है कि तुम अपने अनुसरण, अपने जीवन के लक्ष्यों, अपने अनुसरण के लिए सही दिशा और उद्धार पाने के अधिकार के बिना शादी के दायरे तक ही सीमित रहो। इसके विपरीत, चाहे तुम शादीशुदा हो या नहीं हो, परमेश्वर ने तुम्हें जो सबसे बड़ा अधिकार दिया है, वह है अपने जीवन के लक्ष्यों का अनुसरण करना, जीवन के प्रति सही नजरिया अपनाना और उद्धार पाने की कोशिश करना। कोई तुमसे यह अधिकार नहीं छीन सकता और कोई इसमें दखल नहीं दे सकता, तुम्हारा जीवनसाथी भी नहीं। तो, तुम लोगों में से जो अपनी शादी में गुलामों की भूमिका निभाते हैं उन्हें ऐसे जीना छोड़ देना चाहिए, अपनी शादी में गुलामी करने की चाह से संबंधित विचारों और अभ्यासों को त्याग देना चाहिए, और इन हालात को पीछे छोड़ देना चाहिए। अपने जीवनसाथी के सामने बेबस मत हो, और न ही अपने साथी की भावनाओं, विचारों, बातों, रवैयों या यहाँ तक कि उनके कार्यों से प्रभावित, सीमित या बाधित हो। ये सब पीछे छोड़ो और साहसी बनकर परमेश्वर पर भरोसा करो। तुम जब चाहो तब परमेश्वर के वचन पढ़ो, जब तुम्हें सभाओं में जाना चाहिए तब सभाओं में जाओ, क्योंकि तुम एक मनुष्य हो, कोई कुत्ता नहीं, और तुम्हें अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखने या अपने जीवन पर अंकुश लगाने या काबू रखने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे पास जीवन में अपना लक्ष्य और दिशा निर्धारित करने का अधिकार है—यह अधिकार तुम्हें परमेश्वर ने दिया है, और खासकर, तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। सबसे अहम बात यह है कि जब परमेश्वर के घर को कोई कार्य करने के लिए तुम्हारी जरूरत पड़े, जब परमेश्वर का घर तुम्हें कोई कर्तव्य सौंपे, तो तुम्हें बिना कुछ सोचे-विचारे सब कुछ त्यागकर वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो तुम्हें निभाना है और परमेश्वर का दिया हुआ मकसद पूरा करना चाहिए। अगर इस कार्य के लिए तुम्हें दस दिन या एक महीने के लिए घर छोड़ना पड़ता है, तो तुम्हें अच्छी तरह अपना यह कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर का दिया हुआ आदेश पूरा करना चाहिए और परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करना चाहिए—सत्य का अनुसरण करने वालों के पास यही रवैया, दृढ़ संकल्प, और इच्छा होनी चाहिए। अगर इस काम के लिए तुम्हें छह महीने, एक साल या न जाने कितने वक्त के लिए दूर रहना पड़ता है, तो तुम्हें कर्तव्यनिष्ठा से अपने परिवार और अपने पति या पत्नी को त्याग देना चाहिए और जाकर परमेश्वर का दिया हुआ मकसद पूरा करना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि यही वह समय है जब परमेश्वर के घर के कार्य और तुम्हारे कर्तव्य को तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत है, न कि तुम्हारी शादी या तुम्हारे साथी को। इसलिए, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि तुम शादीशुदा हो तो तुम्हें अपनी शादी की गुलामी करनी है, या अगर तुम्हारी शादी खत्म हो जाती या टूट जाती है तो यह शर्मिंदगी की बात है। वास्तव में, यह कोई शर्मिंदगी की बात नहीं है, और तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि तुम्हारी शादी किन परिस्थितियों में टूटी थी और परमेश्वर की व्यवस्था क्या थी। अगर यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित और नियंत्रित था, और इसमें इंसान का कोई हाथ नहीं था, तो यह बहुत अच्छी बात है; तुम्हारा सिर्फ एक मकसद से यानी परमेश्वर को संतुष्ट करके एक सृजित प्राणी के रूप में अपना मकसद पूरा करने के लिए अपनी शादी को त्याग देना सम्मान की बात है। परमेश्वर इसे याद रखेगा और उसे यह स्वीकार्य होगा, और इसीलिए मैं कहता हूँ कि यह बहुत अच्छी बात है, कोई शर्मिंदगी की बात नहीं! भले ही कुछ लोगों की शादियाँ इसलिए टूटती हैं क्योंकि उनका साथी उन्हें छोड़ देता है और उन्हें धोखा देता है—आम बोलचाल की भाषा में कहें, तो उन्हें लात मारकर निकाल दिया जाता है—यह कोई शर्मिंदगी की बात नहीं है। बल्कि, तुम्हें कहना चाहिए, “यह मेरे लिए सम्मान की बात है। ऐसा क्यों? क्योंकि मेरी शादी उस मुकाम तक पहुँचकर उस तरह से खत्म हुई जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित और नियंत्रित था। परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही मैं यह कदम उठा पाई। अगर परमेश्वर ऐसा नहीं करता और उसने मुझे लात मारकर निकाला नहीं होता, तो मेरे पास यह कदम उठाने का विश्वास और साहस नहीं होता। परमेश्वर की संप्रभुता और मार्गदर्शन का धन्यवाद! परमेश्वर की महिमा बनी रहे!” यह एक सम्मान की बात है। सभी प्रकार की शादियों में, तुम्हें ऐसा अनुभव मिल सकता है, तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन में सही मार्ग पर चलने का फैसला कर सकती हो, परमेश्वर का दिया गया मकसद पूरा कर सकती हो और ऐसी प्रतिज्ञा और प्रेरणा के साथ ऐसे हालत में अपने साथी को छोड़कर अपनी शादी तोड़ सकती हो, और इसके लिए तुम बधाई की पात्र हो। इसमें कम से कम एक खुशी की बात तो यह है कि अब तुम अपनी शादी की गुलाम नहीं हो। तुम अपनी शादी की गुलामी से बच गई हो, और अपनी शादी की गुलामी की वजह से अब तुम्हें चिंता करने, पीड़ा सहने और संघर्ष करने की कोई जरूरत नहीं है। उसी पल से, तुम बच गई हो, तुम अब आजाद हो, और यह एक अच्छी बात है। इसी के साथ, मैं उम्मीद करता हूँ कि जिनकी शादियाँ पहले बहुत पीड़ादायक ढंग से टूटी हैं और जो अभी भी इस घटना की छाया में जी रहे हैं, वे वास्तव में अपनी शादी और उसकी यादों को भुला सकें, इस शादी ने उन्हें जो नफरत, गुस्सा और पीड़ा दी है उसे त्याग सकें; उन्हें अपने साथी की खातिर किए गए अपने सभी त्यागों और प्रयासों के बदले में बेवफाई, विश्वासघात और उपहास का सामना करना पड़ा हो, तब भी उन्हें अब मन में कोई पीड़ा या गुस्सा नहीं रखना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि तुम यह सब भुला दोगे, और इस बात की खुशी मनाओगे कि तुम अब अपनी शादी के गुलाम नहीं हो, जश्न मनाओ कि अब तुम्हें अपनी शादी में अपने मालिक के लिए कुछ भी करने या अनावश्यक त्याग करने की जरूरत नहीं है; बल्कि तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन और संप्रभुता में जीवन के सही मार्ग पर चल रहे हो, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो, और अब तुम्हें परेशान होने या किसी बात की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। बेशक, अब तुम्हें अपने पति या पत्नी के बारे में सोचने, चिंता करने या बेचैन होने या उसकी यादों में डूबे रहने की कोई जरूरत नहीं है, अब से सब कुछ अच्छा होगा, अब तुम्हें अपने निजी मामलों के बारे में अपने पति या पत्नी से चर्चा नहीं करनी होगी, तुम्हें उससे लाचार महसूस करने की अब कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें बस सत्य खोजना है, और परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत और आधार ढूँढना है। तुम आजाद हो चुके हो और अब अपनी शादी के गुलाम नहीं हो। यह सौभाग्य की बात है कि तुमने शादी के उस खौफनाक अनुभव को पीछे छोड़ दिया है, तुम वास्तव में परमेश्वर के समक्ष आए हो, अब अपनी शादी के कारण बाधित नहीं हो, और अब तुम्हारे पास परमेश्वर के वचन पढ़ने, सभाओं में हिस्सा लेने, और आध्यात्मिक भक्ति करने के लिए ज्यादा समय है। तुम पूरी तरह से आजाद हो, तुम्हें अब किसी और की मनोदशा के हिसाब से किसी खास तरीके से काम नहीं करना है; तुम्हें किसी के उपहासपूर्ण ताने सुनने, और किसी की मानसिक स्थिति और भावनाओं का ख्याल रखने की जरूरत नहीं है—तुम अकेले जीवन जी रहे हो, जो बढ़िया है! अब तुम गुलाम नहीं हो, तुम उस माहौल से बाहर निकल सकते हो जहाँ तुम्हें लोगों के प्रति विभिन्न जिम्मेदारियाँ निभानी थीं, अब तुम एक सच्चे सृजित प्राणी बन सकते हो, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन एक सृजित प्राणी बन सकते हो और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकते हो—यह सब सच्चे मन से करना कितना शानदार है! तुम्हें अपनी शादी के बारे में दोबारा कभी बहस या चिंता नहीं करनी होगी, परेशान नहीं होना होगा, और उन तकलीफों और विकट परिस्थितियों को बर्दाश्त करना या सहना नहीं होगा, पीड़ा नहीं झेलनी होगी, और दोबारा कभी अपनी शादी को लेकर नाराज नहीं होना होगा, तुम्हें फिर कभी उस घिनौने माहौल और जटिल परिस्थिति में नहीं रहना पड़ेगा। यह बहुत अच्छा है, ये सब अच्छी बातें हैं और सब अच्छा चल रहा है। जब कोई सृष्टिकर्ता के समक्ष आता है, तो वह परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता और बोलता है। सब कुछ सुचारु रूप से चलता है, अब वे बेकार के झगड़े नहीं होते और तुम्हारा दिल शांत हो जाता है। ये सब अच्छी चीजें हैं, लेकिन यह शर्म की बात है कि कुछ लोग अभी भी ऐसे घिनौने वैवाहिक माहौल में गुलाम बने रहने को तैयार हैं, और वे न तो इससे बचकर निकल पाते हैं या न ही इसे छोड़ पाते हैं। जो भी हो, मुझे अभी भी उम्मीद है कि भले ही ये लोग अपनी शादियाँ खत्म न करें और टूट चुकी शादियों के साथ न जिएँ, तो कम से कम उन्हें अपनी शादी की गुलामी तो नहीं करनी चाहिए। चाहे तुम्हारा जीवनसाथी कोई भी हो, चाहे उनके पास कैसी भी प्रतिभा या मानवता हो, उसका रुतबा कितना भी ऊँचा हो, वह चाहे कितना भी कुशल और काबिल हो, तब भी वह तुम्हारा मालिक नहीं है। वह तुम्हारा जीवनसाथी है, तुम्हारी बराबरी का है। वह तुमसे ज्यादा श्रेष्ठ नहीं है, और न ही तुम उससे कमतर हो। अगर वह अपनी वैवाहिक जिम्मेदारियाँ नहीं निभा पाता है, तो उसे फटकारना तुम्हारा अधिकार है, और उसे सँभालना और समझाना भी तुम्हारा ही दायित्व है। सिर्फ इसलिए अपना अपमान और शोषण मत होने दो कि तुम्हें वह बहुत ताकतवर लगता है या तुम्हें इस बात का डर है कि वह तुमसे ऊब जाएगा, तुम्हें ठुकरा देगा या तुम्हें त्याग देगा, या फिर क्योंकि तुम अपने वैवाहिक रिश्ते को बनाए रखना चाहती हो, जानबूझकर खुद को उसका गुलाम और अपनी शादी का गुलाम बनाती हो—यह सही नहीं है। किसी व्यक्ति को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, और न ही उसे शादी के ढाँचे में रहकर इस तरह की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। परमेश्वर तुमसे किसी का गुलाम या मालिक बनने को नहीं कहता है। वह बस इतना चाहता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाओ, और इसलिए तुम्हें शादी में निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों को सही से समझना चाहिए, और तुम्हें उस भूमिका को भी सही से समझना और साफ तौर पर देखना होगा जिसे तुम शादी में निभाओगी। अगर तुम जो भूमिका निभाती हो वह विकृत है और मानवता के अनुरूप नहीं है या परमेश्वर ने जो निर्धारित किया है उसके अनुरूप नहीं है, तो तुम्हें खुद की पड़ताल करनी चाहिए और इस स्थिति से बाहर निकलने के तरीके पर विचार करना चाहिए। अगर तुम अपने जीवनसाथी को फटकार लगा सकती हो, तो उसे फटकार लगाओ; अगर अपने जीवनसाथी को फटकारने से तुम्हें बुरे नतीजे भुगतने पड़ेंगे, तो तुम्हें एक समझदार और उपयुक्त फैसला करना चाहिए। जो भी हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण करके उद्धार पाना चाहती हो, तो तुम्हें अपनी शादी की गुलामी करने से संबंधित अपने विचारों या अभ्यासों को त्यागना होगा। तुम्हें अपनी शादी का गुलाम नहीं बनना है, बल्कि तुम्हें यह भूमिका त्यागकर, एक सच्चा इंसान बनना चाहिए, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना चाहिए और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मेरी बात समझ रहे हो? (हाँ।)
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।