सत्य का अनुसरण कैसे करें (11) भाग एक
पिछली सभा में हमने कहाँ तक संगति की थी? हमने “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के भाग के तौर पर, शादी के संबंध में “त्याग करने” के विषय पर संगति की थी। हम शादी के विषय पर कई बार संगति कर चुके हैं—पिछली बार हमने मुख्य रूप से किस विषय पर संगति की थी? (हमने शादी से जुड़ी तमाम फंतासियों को त्यागने और शादीशुदा लोगों के कुछ विकृत विचारों और दृष्टिकोणों को सुधारने के साथ-साथ यौन इच्छा को सही ढंग से समझने पर संगति की थी। अंत में, हमने यह संगति की थी कि शादी की खुशी के पीछे भागना हमारा मकसद नहीं है।) हमने “शादी से जुड़ी तमाम फंतासियाँ त्यागना” के विषय पर संगति की थी, तो तुम लोगों को यह बात कितनी समझ आई और कितनी बातें तुम्हें याद हैं? क्या हमने मुख्य रूप से शादी के बारे में लोगों की विभिन्न अवास्तविक, अव्यावहारिक, बचकानी और तर्कहीन राय और इच्छाओं पर संगति नहीं की? (हाँ।) शादी को सही ढंग से समझना-बूझना और इसके प्रति सही रवैया अपनाना—लोगों को शादी के प्रति यही रवैया रखना चाहिए। शादी को कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं समझना चाहिए, न ही इसे अपने सभी फंतासियों और अवास्तविक चाहतों को पूरा करने का जरिया समझना चाहिए। शादी के बारे में कौन-सी तमाम फंतासियाँ जुड़ी होती हैं? लोगों की इन फंतासियों और जीवन के प्रति विभिन्न रवैयों के बीच एक निश्चित संबंध होता है, और सबसे जरूरी बात यह है कि ये शादी के बारे में उन विभिन्न कहावतों, व्याख्याओं और दृष्टिकोणों से संबंधित हैं जो लोगों को दुनिया और समाज से प्राप्त होते हैं। ये कहावतें, व्याख्याएँ और रवैये समाज और मानवजाति के सभी लोगों से निकली अनगिनत अवास्तविक और झूठी कहावतें और विचार हैं। लोगों को ये चीजें क्यों त्याग देनी चाहिए? क्योंकि ये चीजें भ्रष्ट मानवजाति से आती हैं, क्योंकि ये सभी शादी के बारे में ऐसे विभिन्न विचार और दृष्टिकोण हैं जो दुष्ट संसार से उत्पन्न हुए हैं, और ये विचार और दृष्टिकोण शादी की उस सही परिभाषा और अवधारणा से पूरी तरह अलग हैं जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए निर्धारित किया है। परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए निर्धारित शादी की अवधारणा और परिभाषा मनुष्य की उन जिम्मेदारियों और दायित्वों के साथ-साथ मानवता, अंतरात्मा और विवेक पर ज्यादा केंद्रित है, जिन्हें लोगों को जीवन में अपनाना चाहिए। शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा मुख्य रूप से लोगों को यह सिखाती है कि शादी के ढांचे के भीतर अपनी जिम्मेदारियों को सही ढंग से कैसे निभाया जाए। अगर तुम शादीशुदा नहीं हो और तुम पर शादी की जिम्मेदारियाँ नहीं हैं, फिर भी तुम्हें शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा की सही समझ होनी चाहिए—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि परमेश्वर लोगों को शादी के ढांचे के भीतर उन जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार रहने को प्रेरित करता है जो उन्हें उठानी चाहिए। शादी कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल या बच्चों के घर-घर खेलने जैसा नहीं है। पहली बात यह गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि शादी एक जिम्मेदारी का संकेत है। इससे भी जरूरी है खुद को उन जिम्मेदारियों के लिए तैयार करना जिन्हें व्यक्ति को सामान्य मानवता में रहकर पूरा करना चाहिए। वहीं दूसरी ओर, शादी के बारे में शैतान और दुष्ट संसार की अवधारणाएँ, समझ और कहावतें किस बात पर ज्यादा ध्यान देती हैं? वे भावनाओं और यौन इच्छाओं के साथ खेलने, शारीरिक इच्छाओं को संतुष्ट करने और विपरीत लिंग के प्रति दैहिक उत्कंठा को संतुष्ट करने के साथ ही, बेशक, इंसानी घमंड को संतुष्ट करने पर ज्यादा ध्यान देती हैं। वे कभी जिम्मेदारी या मानवता का जिक्र नहीं करतीं, और इस बारे में तो बिल्कुल भी चर्चा नहीं करतीं कि परमेश्वर द्वारा निर्धारित शादी में शामिल दो पक्षों, यानी पुरुष और महिला को अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे निभानी चाहिए, अपने दायित्वों को कैसे पूरा करना चाहिए, और शादी के ढाँचे के भीतर रहकर वह सब अच्छे से कैसे करना चाहिए जो एक पुरुष और महिला को करना चाहिए। संसार लोगों को शादी के बारे में जिन विभिन्न व्याख्याओं, कहावतों और रवैयों पर शिक्षा देता है वे मनुष्य की भावना और इच्छा को संतुष्ट करने, अपनी भावना और इच्छा को समझने, और अपनी भावना और इच्छा को साकार करने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। इसलिए, अगर तुम शादी के बारे में समाज की इन विभिन्न बातों, समझ या रवैये को स्वीकारते हो, तो तुम इन दुष्ट विचारों से प्रभावित होने से बच नहीं पाओगे। साफ तौर पर कहें, तो तुम शादी के बारे में संसार से आने वाले इन विचारों से भ्रष्ट होने से नहीं बच पाओगे। एक बार जब ये विचार और दृष्टिकोण तुम्हें भ्रष्ट और प्रभावित कर देते हैं, तो फिर तुम्हारा इन विचारों के नियंत्रण से बचना मुमकिन नहीं होता, और इसी के साथ, तुम अविश्वासियों की तरह ही इन दृष्टिकोणों से बेवकूफ बनना और इनके बहकावे में आना भी स्वीकार लोगे। जब अविश्वासी शादी के बारे में इन विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार लेते हैं, तो फिर वे प्यार करने और अपनी यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने के बारे में बातें करने लगते हैं। इसी तरह, जब तुम खुलकर ये विचार और दृष्टिकोण स्वीकार लोगे, तो फिर तुम भी प्यार करने और अपनी यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने की बातें करोगे। इसे टाला नहीं जा सकता और तुम इससे बच नहीं सकते। जब तुम्हें शादी की सही परिभाषा नहीं पता होगी, और तुम्हारे पास शादी के बारे में सही समझ और दृष्टिकोण नहीं होगा, तो तुम स्वाभाविक रूप से शादी के बारे में संसार से, समाज से, और मानवजाति से आने वाले सभी विभिन्न विचारों और कहावतों को स्वीकार करोगे। जब तक इनके बारे में सुनते रहोगे, जब तक इन्हें देखते और जानते रहोगे, और जब तक तुम्हारे पास इन विचारों से लड़ने की शक्ति नहीं होगी, तब तक तुम न चाहते हुए भी इस तरह के सामाजिक परिवेश से प्रभावित होते रहोगे, और तुम अनजाने में शादी के बारे में इन विचारों और कहावतों को स्वीकार करते रहोगे। जब तुम अपने मन में इन बातों को स्वीकार लेते हो, तो तुम शादी के प्रति अपने रवैये को प्रभावित करने वाले इन विचारों और दृष्टिकोणों से बच नहीं सकते। क्योंकि तुम किसी निर्जन स्थान पर नहीं रहते, इसलिए तुम्हारा शादी के बारे में संसार से, समाज से, और मानवजाति से आने वाली इन कहावतों से प्रभावित और नियंत्रित होना लाजमी है। एक बार जब तुम पर उनका नियंत्रण हो जाएगा, तो तुम्हारे लिए उनसे मुक्त होना बेहद मुश्किल होगा, और तुम खुद को यह कल्पना करने से रोक नहीं सकोगे कि तुम्हारी शादी कैसी होनी चाहिए।
पिछली बार, हमने शादी से जुड़ी तमाम फंतासियों पर संगति की थी, और ये फंतासियाँ शादी को लेकर दुष्ट मानवजाति की अनगिनत गलत विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होती हैं। ऐसे विचार और दृष्टिकोण, चाहे विशेष हों या सामान्य, ये सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को त्याग देना चाहिए। सबसे पहले, उन्हें शादी के बारे में तमाम गलत परिभाषाएँ और दृष्टिकोण त्याग देने चाहिए; दूसरा, उन्हें सही तरीके से अपना जीवनसाथी चुनना चाहिए; और तीसरा जो लोग पहले से शादीशुदा हैं उन्हें अपनी शादी के प्रति सही नजरिया रखना चाहिए। यहाँ “सही” शब्द का अर्थ शादी के प्रति लोगों के उस रवैये और जिम्मेदारी से है जिसे परमेश्वर उन्हें निभाने का आदेश और निर्देश देता है। लोगों को यह समझना चाहिए कि शादी प्रेम का प्रतीक नहीं है और शादी करना किसी महल में प्रवेश करने जैसा नहीं है, न ही यह किसी मकबरे में प्रवेश करना है, और यह केवल एक शादी का जोड़ा, एक हीरे की अँगूठी, एक कलीसिया, अनंत प्रेम की कसमें खाना, मोमबत्ती की रोशनी में डिनर करना, रोमांस करना या बस दो लोगों का संसार तो बिल्कुल नहीं है—इनमें से एक भी चीज शादी का प्रतीक नहीं है। इसलिए, जब शादी की बात आती है, तो सबसे पहले तुम्हें शादी के बारे में अपने दिल में रची-बसी सभी फंतासियों के साथ-साथ उन प्रतीकात्मक चीजों को भी निकाल देना चाहिए जो शादी को लेकर इन फंतासियों से उपजी हैं। शादी की सही व्याख्या पर संगति करने और शादी के बारे में शैतान के दुष्ट संसार से आने वाले विभिन्न विकृत विचारों का गहन विश्लेषण करने से, क्या अब तुम लोगों को शादी की परिभाषा की अधिक सटीक समझ नहीं मिल गई है? (बिल्कुल मिल गई है।) जहाँ तक उन लोगों की बात है जो शादीशुदा नहीं हैं, क्या ये बातें कहने से तुम लोग शादी के मामले में थोड़े स्थिर महसूस नहीं करते हो? और क्या यह तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ाने में मदद नहीं करता है? (बिल्कुल।) किस मामले में तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ती है? (शादी के बारे में मेरी पिछली फंतासियों में बस फूल, हीरे की अंगूठियाँ, शादी का जोड़ा और अनंत प्रेम की कसमें जैसी अस्पष्ट चीजें शामिल थीं। अब, परमेश्वर की संगति सुनकर, मैं समझ गई हूँ कि शादी वास्तव में परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और यह दो लोगों का मिलकर एक-दूसरे की इच्छाओं का ख्याल रखना, एक-दूसरे की देखभाल करना और एक-दूसरे की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम होना है। यह जिम्मेदारी की भावना है, और शादी के बारे में यह दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक है और इसमें वे अस्पष्ट चीजें भी शामिल नहीं हैं।) तो तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ी है, है न? सामान्य शब्दों में, तुम्हारी अंतर्दृष्टि बढ़ी है। इसकी बारीकियों पर गौर करें, तो क्या उन चीजों के मानकों में थोड़ा भी बदलाव हुआ है जिनकी तुम पहले प्रशंसा करते थे और जिनके प्रति आकर्षित होते थे? (हाँ, ऐसा हुआ है।) तुम हमेशा एक लंबे, अमीर, सुंदर आदमी, या एक गोरी, अमीर, खूबसूरत महिला को पाने के सपने देखा करते थे; अब तुम्हारे लिए ज्यादा जरूरी क्या है? कम से कम, अब तुम व्यक्ति की मानवता पर, और इस बात पर ज्यादा ध्यान देते हो कि क्या वह भरोसेमंद है और क्या उसमें जिम्मेदारी की भावना है। अब बताओ, अगर कोई इस निर्देश, इस उद्देश्य और इस तरीके से अपना जीवनसाथी चुनता है, तो उनकी शादी खुशहाल रहने की संभावना ज्यादा होगी या नाखुश होकर तलाक लेने की? (उनके खुशहाल रहने की संभावना ज्यादा होगी।) उनके खुशहाल रहने की संभावना थोड़ी ज्यादा होगी। हम यह क्यों नहीं कहते कि ऐसी शादी सौ प्रतिशत गारंटी के साथ एक खुशहाल शादी होगी? इसके कितने कारण हैं? कम से कम, एक कारण तो यह है कि लोग गलतियाँ कर सकते हैं और शादी करने से पहले व्यक्ति को अच्छे से पहचान नहीं पाते। दूसरा कारण यह है कि शादी करने से पहले, व्यक्ति के मन में शादी को लेकर अद्भुत कल्पनाएँ हो सकती हैं, वह सोच सकता है, “हम साथ में बहुत जँचते हैं और एक जैसी चीजें चाहते हैं। उसने यह वादा भी किया है कि शादी के बाद वह अपनी जिम्मेदारी उठाने और मेरे प्रति अपने दायित्व पूरे करने के लिए तैयार है, और वह मुझे कभी निराश नहीं करेगा।” हालाँकि, शादी होने के बाद, शादीशुदा जीवन में सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा वे चाहते थे, सब कुछ सुचारु रूप से नहीं चलता। साथ ही, कुछ लोग सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, जबकि कुछ लोगों को देखने से ऐसा लग सकता है कि उनकी मानवता बुरी या दुष्ट नहीं है, पर वे सकारात्मक चीजों से प्रेम और सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। जब ऐसे लोग शादी करके एक साथ जीवन बिताते हैं, तो उनकी मानवता में जिम्मेदारी या दायित्व की वह थोड़ी सी भावना भी धीरे-धीरे खत्म हो जाती है, वे समय के साथ बदल जाते हैं, और फिर अपना असली रंग दिखाने लगते हैं। अब बताओ, अगर किसी शादीशुदा जोड़े में एक व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और दूसरा नहीं करता है, अगर तुम एकतरफा सत्य का अनुसरण करती हो और वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है, तो तुम कब तक उसके साथ रह पाओगी? (ज्यादा दिन तक नहीं।) तुम उसके जीवन की कुछ आदतों या उसकी मानवता में कुछ छोटी-मोटी खामियों या विफलताओं को न चाहते हुए भी सह सकते हो, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, तो तुम्हारे बीच आपसी समझ या एक जैसा लक्ष्य नहीं होगा। वह सत्य का अनुसरण नहीं करता है, न ही वह सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, और उसे हमेशा संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों वाली चीजें पसंद आती हैं। धीरे-धीरे, तुम दोनों के बीच बातें कम से कम होने लगेंगी, तुम्हारी आकांक्षाएँ एक-दूसरे से अलग होंगी, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की उसकी चाहत भी खत्म हो जाएगी। क्या यह एक खुशहाल शादी है? (नहीं।) अगर तुम खुश नहीं हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? (अगर दो लोग एक साथ नहीं रह सकते, तो उन्हें जल्द से जल्द अलग हो जाना चाहिए।) बिल्कुल सही। मन में यह विचार आने से लेकर अलग होने तक में कितना वक्त लगता है? शुरुआत में, दोनों लोग आपस में मिलजुलकर रहते हैं, और कुछ समय तक मिलजुलकर रहने के बाद, उनके बीच झगड़े होने लगते हैं। झगड़े के बाद, वे मेल-मिलाप कर लेते हैं, और मेल-मिलाप कर लेने के बाद, पत्नी को यह एहसास होता है कि उसका पति अब भी नहीं बदला है, तो वह यह सब सहती रहती है, और कुछ समय तक यह सब सहने के बाद, वे फिर से झगड़ने लगते हैं। जब यह झगड़ा अपने चरम तक पहुँच जाता है, तो चीजें फिर से शांत हो जाती हैं, और पत्नी सोचती है, “हम एक-दूसरे के लिए सही नहीं हैं और पहले मुझे नहीं लगा था कि चीजें ऐसी हो जाएँगी। हमारा साथ रहना कष्टदायक है। क्या हमें तलाक ले लेना चाहिए? लेकिन हमारे लिए इस मुकाम तक पहुँचना कितना मुश्किल रहा है और हम कई बार बिछड़कर वापस एक हुए हैं। मुझे उसे इतनी आसानी से तलाक नहीं देना चाहिए। मुझे बस इसे सहते रहना चाहिए। अकेले जीने से अच्छा है उसके साथ ही जीवन बिताऊँ।” तो वह एक-दो सालों तक यह सब सहती रहती है; जितना अधिक वह उसे देखती है उतना ही अधिक असंतुष्ट महसूस करती है, और जितना अधिक समय तक यह सब चलता रहता है वह उतनी ही अधिक हताश हो जाती है। आपस में मिलकर रहने से उसे खुशी नहीं मिलती, और उनके बीच बातें भी कम से कम होने लगती हैं। पत्नी अपने पति की खामियों को लगातार बढ़ते हुए देखती है और उसके साथ रहने और उसे बर्दाश्त करने की उसकी इच्छा कम से कम होने लगती है। पाँच-छह साल बाद, अब वह इसे और बर्दाश्त नहीं कर पाती है, अपनी भड़ास निकाल देती है और उससे सभी नाते तोड़ लेना चाहती है। उससे सारे नाते तोड़ने का फैसला करने से पहले, उसे शुरू से अंत तक सारी बातों पर विचार करना पड़ता है और बहुत साफ तौर पर और अच्छे से यह सोचना पड़ता है कि तलाक के बाद वह कैसे जिएगी। अच्छी तरह से सोच-विचार करने के बाद भी वह हिम्मत नहीं जुटा पाती है, लेकिन कई बार और सोचने के बाद, वह न चाहते हुए भी अपने पति को छोड़ने का फैसला करती है, सोचती है, “मैं उसे तलाक दे दूँगी। शांति से अकेले जीवन जीना इससे कहीं बेहतर है।” वे दोनों हमेशा झगड़ते रहते हैं और मिलजुलकर रह नहीं पाते हैं। पहले जो कुछ भी वह सहन कर पाती थी, वह अब असहनीय हो गया है। अपने पति को देखकर वह परेशान हो जाती है, उसकी बातें सुनकर उसे गुस्सा आता है, और यहाँ तक कि उसकी आवाज सुनकर, उसका चेहरा, उसके कपड़े और उसकी इस्तेमाल की गई चीजें देखकर उसका मन खट्टा होने लगता है। अब वे दोनों इस असहनीय मुकाम पर पहुँच गए हैं कि एक-दूसरे के लिए अजनबी हो गए हैं और पत्नी को उससे तलाक लेना पड़ता है। पत्नी ने किस आधार पर अपने पति से तलाक लिया? उन दोनों का साथ रहना बहुत कष्टदायक हो गया था, और अब उसका अकेले रहना ही बेहतर है। जब चीजें इतनी खराब हो जाती हैं, तो पति के साथ उसका जुड़ाव भी खत्म हो जाता है। अब उसके मन में अपने पति के लिए कोई भावना नहीं है, उसने अच्छी तरह सोच-समझकर फैसला कर लिया है : अकेले रहना ही बेहतर है, जैसे कि अविश्वासी अक्सर कहते हैं, “अकेले रहते हुए तुम्हें किसी और की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होती।” वरना, वह हमेशा अपने पति के बारे में सोचती रहती, “क्या उसने खाना खाया होगा? क्या वह ठीक से कपड़े पहन रहा होगा? क्या वह ठीक से सो रहा होगा? क्या घर से दूर जाकर काम करना उसे थका देता होगा? क्या उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हो रहा होगा? वह कैसा महसूस कर रहा होगा?” उसे हमेशा उसकी चिंता सताती रहती। लेकिन अब, उसे लगता है कि अकेले रहना ही ज्यादा शांतिपूर्ण है, जहाँ उसे किसी और के बारे में सोचने या चिंता करने की जरूरत नहीं। ऐसे आदमी के लिए इस तरह जीने का कोई मतलब नहीं। उसके लिए चिंता करना, प्यार दिखाना, कोई जिम्मेदारी उठाना कोई मायने नहीं रखता, और उस आदमी में प्यार करने लायक कुछ भी नहीं है। अंत में, वह तलाक के लिए अर्जी दे देती है, उनकी शादी टूट जाती है, वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती और उसे अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं होता। ऐसी शादियाँ भी होती हैं, है न? (बिल्कुल होती हैं।) ऐसी शादियाँ भी होती हैं जिनके पीछे अलग-अलग कारण होते हैं, जैसे कि पिछले जीवन की उदारता और शिकायतें। जैसी कि हमने पहले चर्चा की थी, कुछ लोग इसलिए साथ आते हैं क्योंकि उनमें से एक का दूसरे पर कर्ज चढ़ा होता है। दोनों के बीच, या तो महिला पर पुरुष का कर्ज होता है या फिर पुरुष पर महिला का। पिछले जीवन में, उनमें से एक ने दूसरे का बहुत अधिक लाभ उठाया होगा, उस पर बहुत सारे कर्ज होंगे, और इसलिए इस जीवन में दोनों साथ आए हैं, ताकि व्यक्ति अपना कर्ज चुका सके। इस तरह की कई शादियाँ खुशहाल नहीं होती हैं, मगर वे तलाक नहीं ले सकते। चाहे परिवार के कारण, बच्चों के कारण या किसी और वजह से, वे एक साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं, चाहे जो भी हो उनमें बनती नहीं है, वे हमेशा लड़ते-झगड़ते और बहस करते रहते हैं, और उनके व्यक्तित्व, रुचियाँ, लक्ष्य और शौक बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। वे एक-दूसरे को पसंद नहीं करते और साथ रहने से उनमें से किसी को कोई खुशी नहीं मिलती, मगर वे एक-दूसरे को तलाक नहीं दे सकते, इसलिए मरते दम तक साथ रहते हैं। जब मौत करीब आती है, तब भी वे अपने साथी को ताना मारते हैं, “अगले जन्म में तुझे देखना भी गवारा नहीं!” वे एक-दूसरे से इतनी नफरत करते हैं, है न? लेकिन इस जीवन में वे एक दूसरे को तलाक नहीं दे सकते, और यह परमेश्वर ने तय किया है। ये सभी विभिन्न प्रकार की शादियाँ, चाहे उनका ढाँचा या बुनियाद जैसा भी हो, चाहे तुम शादीशुदा हो या नहीं, कुछ भी हो, तुम्हें शादी को लेकर अपने मन में रची-बसी विभिन्न अवास्तविक और अनुभवहीन फंतासियों को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए; तुम्हें शादी के प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए और लोगों की भावनाओं और इच्छाओं के साथ नहीं खेलना चाहिए, और शादी को लेकर उन गलत दृष्टिकोणों के जाल में तो बिल्कुल भी नहीं फँसना चाहिए जिनके बारे में समाज तुम्हें सिखाता है और हमेशा शादी को लेकर तुम्हारे विचार जानना चाहता है : क्या तुम्हारा साथी तुमसे प्यार करता है? क्या तुम अपने साथी के प्यार को महसूस कर सकते हो? क्या तुम्हें अब भी अपने साथी से प्यार है? तुम अपने साथी से अब भी कितना प्यार करते हो? क्या तुम्हारे साथी के मन में अब भी तुम्हारे लिए कुछ भावनाएँ हैं? क्या तुम्हारे मन में अपने साथी के लिए कुछ भावनाएँ हैं? ये चीजें महसूस करने या इनके बारे में विचार करने की कोई जरूरत नहीं है—ये सभी बेतुके और निरर्थक विचार हैं। जितना ज्यादा तुम इन चीजों के बारे में सोचोगे, उतना ही अपनी शादी को संकट में पाओगे, और जितना ज्यादा तुम इन विचारों में डूबते जाओगे, उतना ही यह साबित होता जाएगा कि तुम शादी के जाल में फँस गए हो, यकीनन इसके बाद तुम खुश या सुरक्षित महसूस नहीं करोगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब तुम्हारे मन में ऐसे विचार, दृष्टिकोण, और ख्याल आते हैं, तो तुम्हारी शादी खराब हो जाती है, तुम्हारी मानवता विकृत हो जाती है, और तुम खुद भी शादी को लेकर समाज के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के काबू में आकर किसी काम के नहीं रहते। इसलिए, शादी को लेकर समाज और दुष्ट मानवजाति से आने वाले विभिन्न विचारों और कहावतों के संदर्भ में, तुम्हें उन्हें सटीक तरीके से पहचानने में सक्षम होना चाहिए, और तुम्हें इन विचारों और कहावतों को ठुकराना भी चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरे क्या कहते हैं या शादी के बारे में उनके विचार कैसे बदलते हैं, लोगों को शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा को नहीं भुलाना चाहिए, न ही लोगों को शादी के बारे में दुष्ट संसार के दृष्टिकोणों से खुद को प्रभावित होने या अपनी आँखों पर पर्दा डालने देना चाहिए। सीधे तौर पर कहें, तो शादी व्यक्ति के जीवन में किशोरावस्था से लेकर बालिग होने तक के एक अलग चरण की शुरुआत है। यानी, बालिग होने के बाद तुम जीवन के एक अलग चरण में प्रवेश करते हो, और जीवन के इस चरण में तुम शादी के बंधन में बंधकर किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन बिताते हो जिसका तुम्हारे साथ खून का कोई रिश्ता नहीं है। जिस दिन से तुम उस व्यक्ति के साथ रहना शुरू करते हो, यानी एक पत्नी या पति होने के नाते तुम्हें शादीशुदा जीवन की सभी जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना पड़ता है; इतना ही नहीं, तुम दोनों को शादीशुदा जीवन की सभी दिक्कतों का साथ मिलकर सामना करना पड़ता है। यानी, शादी का मतलब है कि व्यक्ति अपने माता-पिता को छोड़कर, अविवाहित जीवन को अलविदा कहकर, अब किसी और के साथ रहने के लिए दो लोगों के जीवन में प्रवेश कर चुका है। यही वह चरण है जहाँ दो लोग साथ मिलकर जीवन की चुनौतियों का सामना करते हैं। यह चरण दर्शाता है कि तुम जीवन के एक अलग चरण में प्रवेश करोगे और बेशक, तुम जीवन की सभी प्रकार की परीक्षाओं का सामना करोगे। शादी के बंधन में रहकर तुम जीवन में कैसे आगे बढ़ोगे और तुम दोनों मिलकर शादीशुदा जीवन में आने वाली दिक्कतों का सामना कैसे करोगे, यह सब तुम्हारे लिए परीक्षाएँ हो सकती हैं, ये चीजें तुम्हें पूर्ण बना सकती हैं, या फिर बर्बादी का कारण भी बन सकती हैं। बेशक, वे जीवन में अधिक अनुभव पाने के लिए स्रोत भी हो सकती हैं; वे तुम्हें जीवन की गहरी समझ और आकलन देने में भी मदद कर सकती हैं, है न? (बिल्कुल।) शादी को लेकर सही समझ और इससे जुड़ी तमाम फंतासियों के विषय पर अपनी संगति हम यहीं पर समाप्त करेंगे।
पिछली बार हमने एक और विषय पर संगति की थी कि वैवाहिक सुख के पीछे भागना तुम्हारा मकसद नहीं है। इस विषय पर संगति करते समय हमने किस बात पर जोर दिया था? (यह कि हमें अपने जीवन की खुशियों का जिम्मा अपने साथी को नहीं सौंपना चाहिए, और हमें सिर्फ अपने साथी को आकर्षित करने या अपने तथाकथित प्यार को बचाने के लिए उसे खुश करने वाले काम नहीं करने चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम सृजित प्राणी हैं और शादीशुदा जीवन में हमें जिन जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना चाहिए, वे सृजित प्राणियों के रूप में हमारे कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के आड़े नहीं आने चाहिए।) कई लोग अपने जीवन की खुशी का आधार अपनी शादी को बना लेते हैं, और खुशी की तलाश में उनका मकसद अपनी शादी के सुख के पीछे भागना और उसे आदर्श बनाना होता है। वे मानते हैं कि अगर उनकी शादी खुशहाल होगी और वे अपने साथी के साथ खुश रहेंगे, तो उनका जीवन सुखद रहेगा, और इसलिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अपनी शादी को खुशहाल बनाना ही जीवन का मकसद बना लेते हैं। इसी वजह से, शादी के बाद बहुत से लोग उन कई चीजों के बारे में सोचने में अपना दिमाग खपाते रहते हैं जिनकी मदद से वे अपनी शादी को “तरोताजा” बनाए रख सकते हैं। “तरोताजा” का क्या मतलब है? इसका मतलब है, जैसा कि लोग कहते हैं, चाहे शादी को कितना भी वक्त हो गया हो, पति-पत्नी एक दूसरे से कसकर जुड़ा हुआ महसूस करें और कभी एक दूसरे को न छोड़ पाएँ; ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने अपने प्यार की शुरुआत की थी, तब वे हमेशा एक दूसरे से चिपके रहना चाहते थे और कभी अलग होने की नहीं सोचते थे। इतना ही नहीं, हर जगह और हर वक्त, वे अपने साथी के बारे में सोचते और उसे याद किया करते थे, उनके दिलों में अपने साथी की आवाज, मुस्कुराहट, बातें और हरकतें रची-बसी रहती थीं। एक दिन भी अपने साथी की आवाज न सुन पाने से उनके दिलों में उदासी छा जाती थी, और एक दिन भी अपने साथी का चेहरा न देखने से ऐसा लगता था मानो उनके प्राण सूख गए हों। उन्हें लगता है कि ये वैवाहिक सुख के प्रतीक हैं। इसलिए, हमेशा घर पर रहने वाली कुछ तथाकथित गृहिणियों को लगता है कि घर पर बैठे रहकर अपने पति के लौटने का इंतजार करना ही सबसे सुखद चीज है। अगर उनके पति समय पर घर नहीं आते तो वे उन्हें फोन करती हैं और उनका पहला सवाल क्या होता है? (तुम कब तक घर आओगे?) लगता है तुम लोगों को यह सवाल अक्सर सुनने को मिलता है—यह सवाल कई लोगों के दिलों की गहराई में बसा हुआ है। तो पहला सवाल होता है “तुम कब तक घर आओगे?” उन्हें इस सवाल का सटीक जवाब मिले या न मिले, इससे एक खुशहाल शादी में पत्नी का प्रेम रोग उजागर हो जाता है। जो लोग शादी में खुशी ढूँढते हैं उनके जीवन में यह सब आम बात है। उनकी पत्नियाँ चुपचाप अपने साथी के ऑफिस से घर आने का इंतजार करती रहती हैं। अगर उन्हें कहीं बाहर जाना होता है, तो ज्यादा दूर या ज्यादा समय तक बाहर रहने की हिम्मत नहीं करतीं, उन्हें डर होता है कि जब उनका साथी घर आएगा और उसे घर पर कोई नहीं मिलेगा, तो उसे बुरा लगेगा, वह निराश और दुखी होगा। ऐसे लोग वैवाहिक सुख पाने को लेकर बहुत आशा और विश्वास से भरे होते हैं, और वे कोई भी कीमत चुकाने या कोई भी बदलाव करने से पीछे नहीं हटते। ऐसे भी कुछ लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी पहले की तरह ही वैवाहिक सुख की तलाश में रहते हैं, अपने साथी से प्यार करना चाहते हैं और हमेशा अपने साथी से पूछते रहते हैं कि क्या उसे भी उससे उतना ही प्यार है। इसलिए, सभाओं के दौरान, कोई महिला सोच सकती है, “क्या मेरा पति घर आ गया होगा? अगर हाँ, तो क्या उसने कुछ खाया होगा? क्या वह थक गया होगा? मैं अभी भी इस सभा में हूँ और थोड़ा असहज महसूस कर रही हूँ। मुझे कुछ ऐसा लग रहा है जैसे मैंने उसे निराश किया है।” अगली सभा में जाने से पहले, वह अपने पति से पूछती है, “तुम कब तक घर वापस आओगे? अगर तुम घर आए और मैं सभा में हुई, तो क्या तुम्हें अकेला महसूस नहीं होगा?” उसका पति जवाब देता है, “मुझे कैसे अकेला नहीं महसूस होगा? घर खाली रहता है और मैं अकेला होता हूँ। आम तौर पर, हम यहाँ हमेशा साथ होते हैं, और अब अचानक मुझे अकेला रहना पड़ता है। तुम्हें हमेशा सभा में जाने की क्या जरूरत है? मतलब तुम सभा में जा सकती हो लेकिन मुझसे पहले घर वापस आ जाओ तो बेहतर रहेगा!” उसका दिल जानता है, “ओह, वह मुझसे ज्यादा कुछ नहीं चाहता, मुझे बस उसके वापस आने से पहले घर पहुँचना होगा।” अगली सभा में, वह बार-बार घड़ी देखती रहती है, और जब उसे लगता है कि उसके पति का काम खत्म होने ही वाला है, तो वह अब और शांत नहीं बैठ पाती और कहती है, “तुम लोग सभा जारी रखो, मुझे घर पर कुछ जरूरी काम है, तो अब मुझे जाना होगा।” वह भागकर घर पहुँचती है और सोचती है, “बहुत बढ़िया, मेरा पति अभी तक वापस नहीं आया है! मैं जल्दी से कुछ खाना बनाकर थोड़ी साफ-सफाई कर लेती हूँ ताकि जब वह घर आए तो सब साफ-सुथरा हो, खाने की खुशबू आ रही हो, और उसे पता चल जाए कि मैं घर पर हूँ। कितनी अच्छी बात है कि खाने के समय पर हम एक साथ होंगे! भले ही मैंने सभा में थोड़ा कम समय दिया, कम संगति सुनी और कम चीजें समझीं, पर पति से पहले घर पहुँचकर उसके लिए गरमागरम खाना तैयार करना भी अच्छी बात है, और यह एक खुशहाल शादी को बनाए रखने का आधार है।” इसके बाद से वह सभाओं में अक्सर ऐसा ही करती है और कभी-कभी जब सभा देर तक चलती है, तो घर पहुँचकर देखती है कि उसका पति पहले से ही वहाँ मौजूद है। वह उससे थोड़ा नाराज और नाखुश होकर बड़बड़ाता है, “क्या तुम एक सभा भी नहीं छोड़ सकती? क्या तुम्हें नहीं पता कि जब मैं घर आता हूँ और तुम यहाँ नहीं होती हो, तो मुझे कैसा लगता है? मैं बेचैन हो जाता हूँ!” यह बात उसके दिल को छू जाती है और वह सोचती है, “इसका मतलब है कि वह मुझसे बहुत प्यार करता है और मेरे बिना नहीं रह सकता। मुझे यहाँ नहीं देखकर वह बेचैन हो जाता है। मैं कितनी खुशकिस्मत हूँ! भले ही वह थोड़ा गुस्से में लग रहा है, पर मैं उसका प्यार महसूस कर सकती हूँ। अगली बार से मैं ध्यान रखूँगी और सभा चाहे कितनी भी लंबी चले, मैं जल्दी घर आ जाऊँगी। मैं उसके प्यार को ठेस नहीं पहुँचा सकती। अगर मैं सभाओं में परमेश्वर के वचनों को थोड़ा कम समझूँ और थोड़ा कम सुनूँ, तो इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा।” इसके बाद से जब वह सभाओं में जाती है, तो हर वक्त घर पहुँचने के बारे में ही सोचती रहती है, ताकि अपने पति के प्यार की कसौटी पर खरा उतर सके और अपनी खुशहाल शादी को बनाए रख सके। उसे हल्का सा एहसास होता है कि अगर वह समय से घर नहीं पहुँची, तो अपने पति के प्यार की कद्र नहीं करेगी, और अगर वह उसे इसी तरह निराश करती रही, तो कहीं उसका पति उसे छोड़कर किसी और को न ढूँढ ले और उससे पहले की तरह प्यार न करे। उसे लगता है कि प्यार करना और प्यार पाना हमेशा खुशी की बात है, और प्यार देने और प्यार पाने के इस रिश्ते को बनाए रखना उसके जीवन का लक्ष्य है, जिसका वह अनुसरण करती रहेगी, और इसलिए वह बिना किसी संकोच या हिचकिचाहट के ऐसा ही करती है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो जब घर से दूर जाकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो अक्सर अपने अगुआ से कहते हैं, “मैं रात में घर से दूर नहीं रह सकती। मैं शादीशुदा हूँ, अगर मैं घर नहीं जाऊँगी तो मेरा पति अकेला पड़ जाएगा। अगर रात में उसकी आँख खुली और मैं पास नहीं हुई, तो वह बेचैन हो जाएगा। सुबह आँखें खुलने पर जब वह मुझे वहाँ नहीं देखेगा, तो उसे बुरा लगेगा। अगर मैं अक्सर रात को घर नहीं लौटती हूँ, तो क्या मेरे पति को मेरी वफादारी और बेगुनाही पर शक नहीं होगा? शादी के समय, हमने वादा किया था कि हम एक-दूसरे के प्रति वफादार रहेंगे। चाहे जो भी हो, मुझे अपना वादा निभाना ही होगा। मैं उसके काबिल बनना चाहती हूँ, क्योंकि इस संसार में कोई मुझसे उतना प्यार नहीं करता जितना वह करता है। तो, उसके प्रति अपनी बेगुनाही और वफादारी साबित करने के लिए, मैं रात भर घर से दूर नहीं रह सकती। चाहे कलीसिया में कितना भी काम हो या मेरा कर्तव्य कितना भी जरूरी क्यों न हो, मुझे रात को घर जाना ही होगा, चाहे कितनी भी देर हो जाए।” वह कहती है कि अपनी बेगुनाही और वफादारी को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है, लेकिन यह सिर्फ औपचारिकता है, सिर्फ खोखली बातें हैं, जबकि वास्तव में उसे डर है कि उसकी शादी खुशहाल नहीं रहेगी और टूट जाएगी। इसलिए वह अपना कर्तव्य छोड़ देगी और जो कर्तव्य निभाना चाहिए उसे त्याग देगी, ताकि अपने वैवाहिक सुख को बनाए रख सके, मानो वैवाहिक सुख ही उसकी प्रेरणा और उसके हर क्रियाकलाप का आधार हो। एक खुशहाल शादी के बिना, वह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने में असमर्थ है; एक खुशहाल शादी के बिना, वह एक अच्छी सृजित प्राणी नहीं बन सकती। वह अपने प्रति अपने पति के प्यार को निराश न करने और उसके प्यार में बने रहने को वैवाहिक सुख की निशानी और अपने जीवन का लक्ष्य मानती है। अगर किसी दिन उसे महसूस होता है कि अब वह उससे प्यार नहीं करता, या वह कुछ ऐसा करती है जिससे उसके प्रति उसके पति के प्यार को ठेस पहुँचती है, वह उससे निराश और नाराज हो जाता है, तो वह अपना मानसिक संतुलन खो देगी, वह सभाओं में आना और परमेश्वर के वचन पढ़ना बंद कर देगी, और जब कलीसिया को कोई कर्तव्य निभाने में उसकी जरूरत पड़ेगी तो वह उसे ठुकराने के लिए हर तरह के बहाने बनाएगी। उदाहरण के लिए, वह कहेगी कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है या घर पर कोई जरूरी काम आ गया है, और वह कर्तव्य निभाने से बचने के लिए कुछ बेतुके और अजीब बहाने भी बना सकती है। ऐसे लोग जीवन में वैवाहिक सुख को सबसे अहम मानते हैं। कुछ लोग अपनी शादी की खुशी कायम रखने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहते हैं, और अपने जीवनसाथी को बाँधकर रखने और उसके दिल में बसे रहने के लिए कोई भी कीमत चुकाने से पीछे नहीं हटते, ताकि उसका जीवनसाथी उससे हमेशा प्यार करता रहे; वे प्यार की उस भावना को कभी नहीं भूलतीं जो शादी के समय उनके दिल में मौजूद थी, और यह भी नहीं भूलती हैं कि शादी के बारे में पहले-पहल वे कैसा महसूस करती थीं। कुछ महिलाएँ ऐसी भी हैं जो इससे भी बड़े त्याग करती हैं : कुछ महिलाएँ अपनी नाक की सर्जरी करवाकर उसे नुकीला बनाती हैं, कुछ अपनी ठुड्डी को नया आकार देती हैं, तो कुछ अपने वक्षों को बड़ा दिखाने के लिए या शरीर में जमी चर्बी कम करने के लिए सर्जरी करवाती हैं, वे कितना भी दर्द सहने को तैयार रहती हैं। कुछ महिलाओं को तो यह भी लगता है कि उनकी पिंडलियाँ बहुत मोटी हैं, तो वे अपने पैरों को पतला बनाने के लिए सर्जरी करवाती हैं, और अंत में नसों में खराबी आने के कारण खड़ी भी नहीं हो पाती हैं। ऐसी महिला का पति यह सब देखकर कहता है, “भले ही तुम्हारे पैर मोटे थे, पर तुम एक सामान्य इंसान थी। अब तुम खड़ी भी नहीं हो सकती, और किसी काम की नहीं हो। मुझे तलाक चाहिए!” देखा तुमने, उसने इतनी बड़ी कीमत चुकाई और इसका उसे ऐसा फल मिला। कुछ महिलाएँ ऐसी भी हैं जो हर दिन सुंदर कपड़े पहनती हैं, परफ्यूम लगाती और चेहरे पर पाउडर मलती हैं। वे खुद को जवान और खूबसूरत बनाए रखने के लिए चेहरे पर लिप्स्टिक, ब्लशर और आई शैडो जैसी मेकअप की चीजें लगाती हैं, ताकि वे अपने साथी के लिए आकर्षक दिखें और उसका साथी उससे वैसे ही प्यार करे जैसा वह शुरुआत में करता था। इसी तरह, पुरुष भी वैवाहिक सुख की खातिर अनेक त्याग करते हैं। किसी को कहा जाता है, “तुम परमेश्वर के जाने-माने विश्वासी हो। यहाँ आसपास के बहुत से लोग तुम्हें जानते हैं और इससे तुम पर रिपोर्ट किए जाने और गिरफ्तार होने का खतरा बना रहता है; इसलिए तुम्हें यह जगह छोड़कर कहीं और जाकर अपना कर्तव्य निभाना होगा।” यह सुनकर उसे बेचैनी होती है और वह सोचता है, “लेकिन अगर मैं चला गया, तो क्या इसका मतलब यह है कि मेरी शादी खत्म हो गई? क्या अब सब कुछ बिखरने लगेगा? अगर मैं घर छोड़ दूँ तो क्या मेरी पत्नी किसी और के साथ चली जाएगी? क्या अब हमारे रास्ते अलग हो जाएँगे? क्या हम फिर कभी एक साथ नहीं होंगे?” यह सब सोचकर परेशान हो जाने के बाद वह सौदेबाजी करना शुरू कर देता है और कहता है, “क्या मैं यहीं रह सकता हूँ? अगर मैं हफ्ते में बस एक बार घर जाऊँ तो भी ठीक रहेगा—मुझे अपने परिवार की देखभाल करनी है!” दरअसल, वह अपने परिवार की देखभाल करने के बारे में नहीं सोच रहा है। उसे डर है कि उसकी पत्नी किसी और के साथ चली जाएगी और फिर उसे कभी वैवाहिक सुख नहीं मिलेगा। उसका दिल चिंता और भय से भर जाता है, वह नहीं चाहता कि उसकी शादी की खुशियाँ इस तरह गायब हो जाएँ। ऐसे लोगों के दिलों में, वैवाहिक सुख किसी भी दूसरी चीज से अधिक अहम होता है, और इसके बिना, वे पूरी तरह हताश महसूस करते हैं। उनका मानना है, “एक खुशहाल शादी के लिए प्यार सबसे जरूरी चीज है। क्योंकि मैं अपने साथी से प्यार करता हूँ और मेरी साथी मुझसे प्यार करती है, सिर्फ इसलिए हमारी शादी खुशहाल रही है और हम अब तक साथ रह पाए हैं। अगर मैंने यह प्यार खो दिया और इसका कारण परमेश्वर में मेरा विश्वास और मेरा कर्तव्य निभाना हुआ, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मैंने अपना वैवाहिक सुख हमेशा के लिए खो दिया है, और मैं फिर कभी इस वैवाहिक सुख का आनंद नहीं ले पाऊँगा? वैवाहिक सुख के बिना हमारा क्या होगा? मेरे प्यार के बिना मेरी साथी का जीवन कैसा होगा? अगर मैंने अपनी साथी का प्यार खो दिया तो मेरा क्या होगा? क्या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के समक्ष रहकर मनुष्य होने का लक्ष्य हासिल करने से इस नुकसान की भरपाई हो सकती है?” वे नहीं जानते, उनके पास कोई जवाब नहीं है, और वे सत्य के इस पहलू को नहीं समझते। इसलिए, जब परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की जरूरत पड़ती है जो वैवाहिक सुख को दूसरी सभी चीजों से बढ़कर मानते हैं, और उनसे अपना घर छोड़कर किसी दूर देश में जाकर सुसमाचार फैलाने और अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा की जाती है, तो वे अक्सर इस तथ्य को जानकर निराश, असहाय और यहाँ तक कि असहज महसूस करते हैं कि जल्द ही उनका वैवाहिक सुख खत्म हो सकता है। कुछ लोग अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना छोड़ देते हैं या उन्हें करने से इनकार कर देते हैं, और कुछ लोग तो परमेश्वर के घर की महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं को भी अस्वीकार कर देते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए अक्सर अपने जीवनसाथी की भावनाओं को जानने की कोशिश करते हैं। अगर उनका जीवनसाथी जरा भी दुखी होता है या अपनी आस्था, अपने द्वारा अपनाए गए परमेश्वर में आस्था के मार्ग और अपने कर्तव्य पालन को लेकर थोड़ी सी भी नाखुशी या असंतोष दिखाता है, तो वे तुरंत अपना रास्ता बदलकर रियायतें देने लगते हैं। अपने वैवाहिक सुख को बनाए रखने के लिए, वे अक्सर अपने जीवनसाथी को रियायतें देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अपने कर्तव्य निभाने के अवसरों को भी त्यागना पड़े, और सभाओं में हिस्सा लेने, परमेश्वर के वचन पढ़ने और आध्यात्मिक भक्ति करने का समय भी छोड़ना पड़े; वे अपने जीवनसाथी को अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाने और उन्हें अकेला और अलग-थलग महसूस न होने देने और अपने जीवनसाथी को अपने प्यार का एहसास दिलाने की भरसक कोशिश करेंगे; वे अपने जीवनसाथी का प्यार खोने या उसके बगैर रहने के बजाय सब कुछ त्यागना या छोड़ना पसंद करेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने अपनी आस्था के लिए या परमेश्वर में आस्था के लिए चुने गए मार्ग की खातिर अपने जीवनसाथी के प्यार को त्याग दिया, तो इसका मतलब है कि उन्होंने अपने वैवाहिक सुख को त्याग दिया है और अब वे इस वैवाहिक सुख को महसूस नहीं कर पाएँगे, और फिर वे अकेले, बेचारे और दयनीय बन जाएँगे। किसी व्यक्ति के बेचारे और दयनीय होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है एक दूसरे के लिए प्यार या सम्मान न होना। भले ही ये लोग कुछ धर्म-सिद्धांत और परमेश्वर के उद्धार कार्य के महत्व को समझते हैं और बेशक, वे यह भी समझते हैं कि एक सृजित प्राणी के रूप में उन्हें सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए, मगर क्योंकि वे अपनी खुशी का जिम्मा अपने जीवनसाथी को सौंप देते हैं, और बेशक अपनी खुशी का आधार अपने वैवाहिक सुख को बनाते हैं, तो यह जानते और समझते हुए भी कि उन्हें क्या करना चाहिए, वे वैवाहिक सुख के पीछे भागना नहीं छोड़ पाते हैं। वे गलती से वैवाहिक सुख के पीछे भागने को अपने इस जीवन का मकसद बना लेते हैं, और गलती से वैवाहिक सुख की तलाश को उस मकसद के रूप में देखते हैं जिसका अनुसरण एक सृजित प्राणी को करना चाहिए और जिसे हासिल करना चाहिए। क्या यह गलती नहीं है? (बिल्कुल है।)
वैवाहिक सुख की तलाश में गलती कहाँ होती है? क्या यह शादी के बारे में परमेश्वर की परिभाषा और जो लक्ष्य वह शादीशुदा जोड़ों को सौंपता है उसके अनुरूप चलने में होती है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर दिक्कत कहाँ है? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर ने कहा है कि मनुष्य का अकेले रहना अच्छा नहीं है, इसलिए उसने उसके लिए एक जीवनसाथी बनाया, और यह जीवनसाथी उसका साथ देता है। क्या शादी के बारे में यही परमेश्वर की परिभाषा नहीं है? क्या यह वैवाहिक सुख की तलाश का हिस्सा नहीं है? दो लोगों का साथ मिलकर अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना—इसमें गलत क्या है?” क्या शादी के ढाँचे में रहकर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने और बिना समझौता किए वैवाहिक सुख की तलाश को अपना मकसद बनाने के बीच कोई अंतर है? (हाँ, बिल्कुल है।) यहाँ समस्या क्या है? (वे वैवाहिक सुख की तलाश को अपना सबसे महत्वपूर्ण मकसद मानते हैं, जबकि वास्तव में जीवित मनुष्य का सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। उन्होंने गलत चीज को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है।) क्या कोई और इस बारे में कुछ कहना चाहेगा? (जब कोई शादीशुदा जीवन में निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति सही नजरिया नहीं अपना पाता है, तो वह अपना समय और ऊर्जा अपनी शादी को बनाए रखने में खर्च करेगा। हालाँकि, शादी की जिम्मेदारियों के प्रति सही नजरिए को लेकर सबसे पहली बात यह नहीं भूलनी चाहिए कि व्यक्ति एक सृजित प्राणी है और उसे ज्यादातर समय अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके द्वारा सौंपे गए मकसद को पूरा करने में लगाना चाहिए। फिर उसे शादी के ढाँचे में रहकर अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना चाहिए। ये दो अलग-अलग चीजें हैं।) क्या शादी के बाद वैवाहिक सुख की तलाश लोगों के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए? क्या इसका परमेश्वर द्वारा निर्धारित शादी के मकसद से कोई लेना-देना है? (नहीं।) परमेश्वर ने मनुष्य के लिए शादी की व्यवस्था की है, और उसने तुम्हें ऐसा परिवेश भी दिया है जहाँ तुम शादी के ढाँचे में रहकर एक पुरुष या महिला का कर्तव्य निभा सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है, यानी उसने तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। यह साथी जीवनभर तुम्हारा साथ देगा और जीवन की हर अवस्था में तुम्हारे साथ रहेगा। “साथ” से मेरा क्या मतलब है? मेरा कहने का मतलब है कि तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारी मदद और देखभाल करेगा, और तुम्हारे साथ मिलकर जीवन की हर मुश्किल का सामना करेगा। यानी, तुम्हारे सामने चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, तुम उनका सामना अकेले नहीं करोगे, बल्कि तुम दोनों मिलकर उनका सामना करोगे। इस तरह से जीने से जीवन कुछ हद तक आसान और अधिक सुकून भरा हो जाता है, जहाँ दोनों लोग अपने-अपने काम करते हैं और दोनों अपने-अपने कौशल और गुणों का उपयोग करते हुए अपना जीवन शुरू करते हैं। कितनी सरल बात है। लेकिन, परमेश्वर ने कभी लोगों से यह कहकर अपेक्षा नहीं रखी, “मैंने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है। अब तुम शादीशुदा हो तो तुम्हें मरते दम तक अपने जीवनसाथी से प्यार करना और उसे खुश रखना होगा—यही तुम्हारा मकसद है।” परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की है, एक जीवनसाथी दिया है, और जीवन जीने का एक अलग परिवेश दिया है। जीवन के ऐसे माहौल और हालात में, वह निश्चित करता है कि तुम्हारा जीवनसाथी तुम्हारे साथ सब कुछ साझा करे और तुम्हारे साथ मिलकर हर मुश्किल का सामना करे, ताकि तुम ज्यादा आजादी से और आराम से जीवन जी सको, और इसी के साथ वह तुम्हें जीवन की एक अलग अवस्था का आकलन करने देता है। हालाँकि, परमेश्वर ने तुम्हें शादी के लिए बेचा नहीं है। मेरे कहने का क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारा जीवन, तुम्हारा भाग्य, तुम्हारा मकसद, तुम्हारे जीवन का मार्ग, तुम्हारे जीवन की दिशा और तुम्हारी आस्था छीनकर सब कुछ निर्धारित करने का जिम्मा तुम्हारे जीवनसाथी को नहीं सौंप दिया है। उसने यह नहीं कहा कि एक महिला का भाग्य, लक्ष्य, जीवन पथ और जीवन के प्रति नजरिया उसका पति तय करेगा या किसी पुरुष का भाग्य, लक्ष्य, जीवन के प्रति नजरिया और उसके जीवन की दिशा उसकी पत्नी तय करेगी। परमेश्वर ने कभी भी ऐसी बातें नहीं कही हैं और चीजों को इस तरह से निर्धारित नहीं किया है। बताओ, जब परमेश्वर ने मानवजाति के लिए शादी की व्यवस्था रखी थी तो क्या उसने ऐसा कुछ कहा था? (नहीं।) परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा कि वैवाहिक सुख के पीछे भागना एक महिला या पुरुष के जीवन का मकसद होना चाहिए, और यह कि तुम्हें अपने जीवन का मकसद पूरा करने और एक सृजित प्राणी जैसा आचरण करने के लिए अपनी शादी की खुशी को बनाए रखना होगा—परमेश्वर ने कभी ऐसी कोई बात नहीं कही। परमेश्वर ने यह भी नहीं कहा, “तुम्हें शादी के ढाँचे में रहकर अपने जीवन का मार्ग चुनना होगा। तुम्हें उद्धार प्राप्त होगा या नहीं, यह तुम्हारी शादी और तुम्हारा जीवनसाथी तय करेंगे। जीवन और भाग्य के प्रति तुम्हारा नजरिया तुम्हारा जीवनसाथी तय करेगा।” क्या परमेश्वर ने कभी ऐसी बात कही है? (नहीं।) परमेश्वर ने तुम्हारे लिए शादी की व्यवस्था की और तुम्हें एक जीवनसाथी दिया है। शादी के बाद भी परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी पहचान और दर्जा नहीं बदलता है—तुम अब भी तुम ही हो। अगर तुम महिला हो तो शादी के बाद भी तुम परमेश्वर के सामने एक महिला ही रहोगी; अगर तुम पुरुष हो तो शादी के बाद भी परमेश्वर के सामने तुम एक पुरुष ही रहोगे। लेकिन तुम दोनों के बीच एक चीज समान है, और वह यह है कि चाहे तुम पुरुष हो या महिला, तुम सभी सृष्टिकर्ता के सामने एक सृजित प्राणी हो। शादी के ढाँचे में, तुम एक-दूसरे से प्यार करते हो और एक-दूसरे के प्रति सहनशील रहते हो, तुम एक दूसरे की मदद और सहयोग करते हो, और यही तुम्हारे लिए जिम्मेदारियाँ निभाना है। लेकिन, परमेश्वर के सामने, जो जिम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए और जो मकसद तुम्हें पूरा करना चाहिए उसकी जगह अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियाँ नहीं ले सकती हैं। इसलिए, जब भी अपने साथी के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों और परमेश्वर के समक्ष रहकर एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारियों को निभाने के बीच टकराव की स्थिति हो, तो तुम्हें अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के बजाय एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। तुम्हें यही दिशा और यही लक्ष्य चुनना चाहिए, और बेशक, यही मकसद पूरा करना चाहिए। हालाँकि, कुछ लोग गलती से वैवाहिक सुख की तलाश, या अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने, उसका ध्यान रखने, उसकी देखभाल करने और उससे प्यार करने को अपने जीवन का मकसद बना लेते हैं, और वे अपने साथी को अपना आसमान, अपनी नियति बना लेते हैं—यह गलत है। तुम्हारी नियति परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, इसमें तुम्हारा साथी कुछ नहीं कर सकता। शादी तुम्हारी नियति नहीं बदल सकती, और न ही वह इस तथ्य को बदल सकती है कि तुम्हारी नियति परमेश्वर तय करता है। जीवन के प्रति तुम्हारा जो नजरिया होना चाहिए और तुम्हें जिस मार्ग पर चलना चाहिए, वो तुम्हें परमेश्वर की शिक्षाओं और अपेक्षाओं के वचनों में खोजना चाहिए। ये चीजें तुम्हारे साथी पर निर्भर नहीं हैं और इन्हें तय करना उसके हाथ में नहीं है। उसे बस तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, उसका तुम्हारे भाग्य पर कोई काबू नहीं होना चाहिए, और न ही उसे तुमसे अपने जीवन की दिशा बदलने की माँग करनी चाहिए, उसे यह तय नहीं करना चाहिए कि तुम किस मार्ग पर चलोगे, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या रहेगा; तुम्हें उद्धार पाने से रोकना या बाधित करना तो दूर रहा। जहाँ तक शादी की बात है, लोगों को बस इसे परमेश्वर की व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए शादी की निर्धारित परिभाषा के अनुरूप चलना चाहिए, जहाँ पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा करेंगे। वे अपने साथी की नियति, उसका पिछला जीवन, वर्तमान जीवन या अगला जीवन तय नहीं कर सकते, शाश्वत जीवन की तो बात छोड़ ही दो। तुम्हारी मंजिल, तुम्हारी नियति, और तुम्हारे जीवन का मार्ग केवल सृष्टिकर्ता तय कर सकता है। इसलिए, एक सृजित प्राणी होने के नाते, चाहे तुम्हारी भूमिका पत्नी की हो या पति की, तुम्हारे जीवन की खुशियाँ एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने और एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा करने से ही आती हैं। सिर्फ शादी कर लेने से खुशियाँ नहीं मिल जाती हैं, और शादी के ढाँचे में रहकर एक पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभाने से तो बिल्कुल भी नहीं मिलती हैं। बेशक, जीवन में जो मार्ग तुम चुनते हो और जो नजरिया अपनाते हो, वह वैवाहिक सुख पर आधारित नहीं होना चाहिए; यह पति-पत्नी में से किसी एक के द्वारा निर्धारित तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए—यह बात तुम्हें समझनी होगी। इसलिए, जो लोग शादी करने के बाद केवल वैवाहिक सुख की तलाश करते हैं और इस तलाश को ही अपना मकसद मानते हैं उन्हें ऐसे विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देना चाहिए, और अपने अभ्यास का तरीका और जीवन की दिशा बदलनी चाहिए। तुम बस परमेश्वर के विधान के अनुसार शादी करके अपने साथी के साथ जीवन जी रहे हो, और एक साथ जीवन बिताते हुए पत्नी या पति की जिम्मेदारियाँ निभाना पर्याप्त है। जहाँ तक यह सवाल है कि तुम किस मार्ग पर चलते हो और जीवन के प्रति क्या नजरिया अपनाते हो, इसका तुम्हारे साथी पर कोई दायित्व नहीं है और उसे इन चीजों का फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। भले ही तुम शादीशुदा हो और तुम्हारा एक जीवनसाथी है, तुम्हारा तथाकथित जीवनसाथी सिर्फ एक पत्नी या पति होने का वह अर्थ रखता है जो परमेश्वर ने निर्धारित किया है। वे केवल पत्नी या पति होने की जिम्मेदारियाँ निभा सकते हैं, और तुम सिर्फ उन चीजों को चुन सकते हो और उनका फैसला कर सकते हो जो तुम्हारे जीवनसाथी से संबंधित नहीं हैं। बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि तुम्हारी पसंद और फैसले अपनी प्राथमिकताओं और समझ पर आधारित नहीं होने चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों पर आधारित होने चाहिए। क्या तुम इस मामले पर की गई संगति को समझ रहे हो? (हाँ।) इसलिए, शादी के ढाँचे में किसी भी कीमत पर वैवाहिक सुख की तलाश करने वाले पति या पत्नी का कोई भी कार्य या कोई भी त्याग परमेश्वर याद नहीं रखेगा। चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाओ, या अपने साथी की उम्मीदों पर खरा उतरो—दूसरे शब्दों में, चाहे तुम कितने ही अच्छे से या कितने ही सटीक तरीके से अपना वैवाहिक सुख बनाए रखते हो, या चाहे यह कितना ही बेहतरीन हो—इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने एक सृजित प्राणी का मकसद पूरा कर लिया है, और न ही इससे साबित होता है कि तुम ऐसे सृजित प्राणी हो जो मानक के अनुरूप है। हो सकता है कि तुम एक आदर्श पत्नी या एक आदर्श पति हो, लेकिन यह बस शादी के ढाँचे तक ही सीमित है। तुम कैसे इंसान हो, सृष्टिकर्ता इसे इस आधार पर मापता है कि तुम उसके समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभाते हो, तुम किस मार्ग पर चलते हो, जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया क्या है, जीवन में तुम किस चीज का अनुसरण करते हो, और एक सृजित प्राणी होने का मकसद कैसे पूरा करते हो। इन चीजों को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे द्वारा अपनाया गया मार्ग और तुम्हारी मंजिल निर्धारित करता है। वह इन चीजों को इस आधार पर नहीं मापता है कि तुम पत्नी या पति के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को कैसे पूरा करते हो; न ही इस आधार पर कि अपने साथी के प्रति तुम्हारा प्यार परमेश्वर को खुश रखता है या नहीं। जहाँ तक वैवाहिक सुख के पीछे भागना तुम्हारा मकसद नहीं होने का सवाल है, मैंने आज इस विषय को समेटने के लिए ही यह सब बताया है। देखो, अगर मैं इन मसलों पर संगति नहीं करता, तो लोग सोचते कि वे इनके बारे में थोड़ा बहुत समझते-बूझते हैं, लेकिन जब वास्तव में उनके साथ कुछ घटित होगा, तो वे कई भ्रामक मसलों में उलझकर अटक जाएँगे; एक तरफ वे पत्नी या पति के दायित्वों को पूरा करना चाहेंगे, तो दूसरी तरफ एक मनुष्य, एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाना चाहेंगे। हालाँकि, जब ये दोनों चीजें एक-दूसरे से टकराती हैं या उनमें विरोधाभास होता है, तो व्यक्ति को इसे कैसे संभालना चाहिए, यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। इस तरह से संगति करने के बाद क्या अब यह बात स्पष्ट हो गई है? (बिल्कुल।) एक तरफ जिन चीजों को लोग अपनी धारणाओं में अच्छा और सही मानते हैं और दूसरी तरफ जो चीजें सत्य के अनुसार सकारात्मक, सही और अच्छी हैं, उनके बीच एक अंतर है। जब इसे स्पष्ट किया जाता है तो सब समझ आ जाता है। जिन चीजों को लोग सकारात्मक और अच्छा मानते हैं वे अक्सर मनुष्य की धारणाओं, कल्पनाओं और भावनाओं से भरी होती हैं, और वे सत्य से “असंबंधित” होती हैं। “असंबंधित” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि वे सत्य नहीं हैं। अगर तुम भ्रामक बातों और ऐसी बातों को जो सत्य नहीं हैं, सकारात्मक बातें और सत्य मानते हो, और उनका अनुसरण करते हो और उनसे हठपूर्वक चिपके रहते हो, उन्हें सत्य मानते हो, तो तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर नहीं चल पाओगे, और सत्य से बहुत दूर होते चले जाओगे। और इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।