सत्य का अनुसरण कैसे करें (10) भाग तीन

कोई व्यक्ति शादी में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में सक्षम है या नहीं, यह आँकने के लिए हमने इसके दो मानदंडों पर संगति की। क्या तुम बता सकते हो, वे दो मानदंड क्या हैं? (बिल्कुल।) ये दो मानदंड लोगों की मानवता की गुणवत्ता से संबंधित हैं। एक मानदंड यह देखना है कि क्या वह अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक और जिम्मेदारी से निभाता है, और क्या वह कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकता है। तुम शायद कुछ लोगों को सिर्फ देखकर पूरी तरह आँक न सको; मुमकिन है कि वे रुतबा पाने के लिए या जब उनके पास रुतबा हो तो अपना कर्तव्य निभाने और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में सक्षम हों, पर जब उनके पास यह रुतबा नहीं रहेगा तो वे कैसे होंगे, यह तुमने अभी तक साफ तौर पर नहीं देखा है। अभी तुम्हारे पास उनके बारे में सटीक आकलन करने का कोई तरीका नहीं है। लेकिन जब तुम उन्हें बखेड़ा खड़ा करते, अपना रुतबा खोने पर परमेश्वर को कोसते और उसकी ईशनिंदा करते देखोगे, उन्हें यह कहते सुनोगे कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, तब जाकर तुम्हें उनकी पहचान होगी, और तुम सोचोगे, “इस व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल ही नहीं है। अच्छा हुआ जो इसने समय रहते अपना असली रंग दिखा दिया। अगर नहीं दिखाता तो मैं शादी के लिए इसे अपना जीवनसाथी चुन लेती।” देखा तुमने, जीवनसाथी चुनने का दूसरा मानदंड—क्या उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है—भी महत्वपूर्ण है। अगर तुम इस मानदंड के आधार पर लोगों को आँकोगे और मापोगे, तो शादी के उस भयानक अनुभव से बच जाओगे। क्या जीवनसाथी चुनने के लिए ये दो मानदंड महत्वपूर्ण हैं? (बिल्कुल हैं।) क्या तुम उन्हें समझते हो? (हाँ।) कुछ महिलाएँ पैसों से बहुत प्यार करती हैं। जब वे किसी पुरुष से प्यार की राह पर कदम बढ़ाना शुरू करती हैं तो शुरुआत में बहुत ही सौम्य और समझदार मालूम पड़ती हैं, और पुरुष सोचता है, “यह महिला बहुत प्यारी है! एक नन्हीं चिड़िया जैसी, जो पूरे दिन मुझसे गोंद की तरह चिपकी रहती है। एक पुरुष ऐसी ही महिला के सपने देखता और उसे पाना चाहता है। एक पुरुष को ऐसी महिला की जरूरत होती है, जो मीठी जबान बोलती है, अपने पति पर निर्भर रहती है, और जो वास्तव में अपने पति को एहसास दिलाती है कि उसे उसकी जरूरत है। अगर मैं ऐसी महिला से जुड़ा रहूँगा और वह मेरे साथ होगी, तो मेरा जीवन बहुत खुशनुमा होगा।” तो वे शादी कर लेते हैं, मगर फिर उसे एहसास होता है कि वह परमेश्वर में विश्वास तो करती है, मगर सत्य के अनुसरण के लिए कड़ी मेहनत नहीं करती। जब भी वह उसके कर्तव्य निभाने का जिक्र करता है, तो वह कहती है कि उसके पास समय नहीं है, वह हमेशा बहाने ढूँढ़कर कहती है कि वह थकी हुई है, और कोई भी कष्ट नहीं सहना चाहती। घर पर वह न तो खाना बनाती है और न साफ-सफाई करती है, बल्कि हर समय सिर्फ टीवी देखती रहती है; जब वह किसी को डिजाइनर बैग खरीदते देखती है या फिर यह देखती है कि किसी का परिवार आलीशान बंगले में रह रहा है और उन्होंने महंगी गाड़ी खरीदी है, तो वह कहती है कि उस परिवार का पुरुष सदस्य कितना काबिल होगा; वह आम तौर पर फिजूलखर्ची करती है, और जब भी किसी सोने की दुकान, गहने की दुकान या विलासिता के सामान की दुकान में जाती है, तो वह हमेशा पैसे खर्च करके अच्छी चीजें खरीदना चाहती है। तुम्हें यह सब पल्ले नहीं पड़ता और तुम सोचते हो, “वह कितनी प्यारी हुआ करती थी। फिर ऐसी महिला कैसे बन गई?” देखा तुमने? वह बदल गई है, है न? जब तुम दोनों प्यार की राह पर कदम बढ़ा रहे थे, तब वह अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम थी और थोड़ा कष्ट सह सकती थी, मगर वह सब सतही था। अब जब तुम्हारी शादी हो चुकी है, तो वह पहले जैसी नहीं रही। वह देखती है कि तुम उसकी भौतिक जरूरतें पूरी नहीं कर सकते तो तुम्हें यह कहकर दोष देती है, “तुम बाहर जाकर पैसे क्यों नहीं कमाते? परमेश्वर में विश्वास करके और अपना कर्तव्य निभाकर तुम्हें क्या मिलेगा? क्या परमेश्वर में विश्वास करके तुम हमारा पेट भर पाओगे? क्या परमेश्वर में विश्वास करके तुम अमीर बन पाओगे?” वह ऐसी बातें भी कहती है जो कोई अविश्वासी ही कह सकता है—क्या यह महिला सचमुच परमेश्वर में विश्वास करती है? (नहीं।) वह कभी अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती, वह परमेश्वर में आस्था, सत्य के अनुसरण या उद्धार पाने की कोशिश के बारे में कुछ भी नहीं सोचती, और आखिर में बेहद विद्रोही बातें भी कह देती है; और उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता। तो फिर यह महिला हर समय किस बारे में सोचती है? (खाने-पीने, कपड़े-लत्ते और मौज-मस्ती के बारे में।) वह सिर्फ पैसे और भौतिक सुखों के बारे में सोचती है, और कुछ नहीं। इस संसार में उसे बस पैसों से प्यार है। अगर तुम उससे शादी करते हो और वह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था में बाधा डालती है और तुम्हें अपनी आस्था त्याग कर सांसारिक चीजों का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित करती है, तब तुम क्या करोगे? तुम अभी भी सत्य का अनुसरण करके उद्धार पाना चाहते हो, लेकिन अगर उसकी सुनोगे तो तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे। अगर तुम उसकी नहीं सुनोगे तो वह तुमसे बहस करेगी और तुम्हें तलाक दे देगी। और तलाक के बाद, तुम बिना किसी जीवनसाथी के अकेले रहोगे—क्या तुम इससे उबर पाओगे? अगर तुम्हारा कभी कोई साथी होता ही नहीं, तो कोई दिक्कत नहीं थी, पर अब तुम अपने जीवनसाथी के साथ कई साल बिता चुके हो और तुम्हें उसके साथ रहने की आदत पड़ चुकी है। अचानक तलाक के बाद तुम पाते हो कि तुम्हारा कोई जीवनसाथी नहीं है—क्या तुम इससे उबर सकते हो? इससे उबर पाना आसान नहीं है, है न? भले ही यह तुम्हारे जीवन की जरूरतों, भावनात्मक जरूरतों या तुम्हारे आंतरिक आध्यात्मिक संसार की बात हो, तुम इससे नहीं उबर सकते। तुम्हारे जीवन जीने का तरीका पहले से बदल चुका है, और तुम्हारी जीवन की पुरानी परिपाटी, लय और पद्धति पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो चुकी है। तुम्हारी शादी कैसी रही? इस शादी से तुम्हें क्या मिला? खुशहाली या तबाही? (तबाही।) यह शादी तुम्हारे लिए तबाही लेकर आई। इसलिए, अगर तुम लोगों को आँकना नहीं जानते और तुम लोगों को सही सिद्धांतों और परमेश्वर के वचनों पर आधारित किए बिना मापते हो, तो तुम्हें यूँ ही प्यार की राह पर कदम नहीं बढ़ाना चाहिए या प्यार की शुरुआत करने, शादी करने या शादीशुदा जीवन जीने के किसी भी विचार या योजना को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आजकल इस संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रलोभन बहुत बढ़ गया है और हरेक व्यक्ति को जीवन में बहुत सारे प्रलोभनों और कई तरह के बहकावों का सामना करना पड़ता है; कोई भी उनसे उबर नहीं पाता, और अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो भी तुम्हारे लिए इनसे उबरना काफी मुश्किल होगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण कर सत्य की समझ और सत्य प्राप्त कर लेते हो, तब तुम उनसे उबर पाओगे। लेकिन सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने से पहले प्रलोभन हमेशा तुम्हें बहकाएगा और हमेशा तुम्हारे लिए खतरा बना रहेगा। इसके अलावा, तुम लोगों के साथ एक गंभीर समस्या यह भी है कि तुम्हें लोगों को आँकना नहीं आता और तुम लोगों के सार को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम नहीं हो—यह सबसे गंभीर समस्या है। तुम्हें लोगों को आँकना कहाँ से आएगा? पुरुष बस यही आँकना जानते हैं कि क्या महिला सुंदर है, क्या वह कॉलेज तक पढ़ी, क्या उसका परिवार अमीर है, क्या उसे सजना-सँवरना आता है, क्या वह रोमांटिक होना जानती है, और क्या वह स्नेही हो सकती है। विस्तार से कहें, तो पुरुष बस इतना पता कर सकते हैं कि क्या महिला एक अच्छी पत्नी और माँ होगी, क्या वह भविष्य में अपने बच्चों को अच्छी तरह से पढ़ा सकेगी और क्या वह घर चला सकती है। पुरुषों को ज्यादा-से-ज्यादा बस इन्हीं चीजों को आँकना आता है। और महिलाएँ पुरुषों के बारे में क्या आँक सकती हैं? वे यह आँक सकती हैं कि क्या पुरुष को रोमांटिक होना आता है, क्या वह काबिल है, क्या वह परिवार का खजाना भरेगा, उसकी किस्मत में अमीरी लिखी है या गरीबी, और क्या उसके पास संसार में पाँव जमाए रखने के लिए कोई तरकीबें हैं। इससे भी बेहतर, महिलाएँ यह आँक सकती हैं कि क्या पुरुष कष्ट झेलने में सक्षम है, क्या वह परिवार को अच्छी तरह से सँभाल सकता है, क्या वह उसके साथ रहकर अच्छा खा-पी और पहन सकेगी, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कैसी है, क्या उसका परिवार संपन्न है, क्या उसके पास घर, गाड़ी और कारोबार है, क्या वह कोई कारोबार करता है या फिर किसान या मजदूर है, उसके परिवार की वर्तमान आर्थिक परिस्थिति कैसी है, और क्या उसके माँ-बाप ने उसकी शादी के लिए पैसे अलग रखे हैं। महिलाओं को हद से हद इन्हीं बातों का पता चल पाता है। संभावित प्रेमी का मानवता सार कैसा है, या वह परमेश्वर में विश्वास के मार्ग के संबंध में क्या फैसला करेगा, क्या तुम लोग ये सब स्पष्टता से देख सकते हो? (नहीं।) साफ शब्दों में कहें, तो क्या यह व्यक्ति एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने में सक्षम है? क्या वह कुकर्मी है? उसकी मानवता की गुणवत्ता के प्रकटीकरण और अभिव्यक्ति का निचोड़ देखा जाए, तो क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण करता है या ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से विमुख है? क्या वह सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने में सक्षम है? क्या वह उद्धार प्राप्त करने के काबिल है? और अगर तुम उससे शादी करती हो, तो क्या तुम दोनों पति-पत्नी की तरह राज्य में प्रवेश कर सकोगे? तुम ये सब चीजें स्पष्ट नहीं देख सकते, है न? कुछ लोग कहते हैं, “हमें इन चीजों को स्पष्ट देखने की क्या जरूरत है? संसार में बहुत सारे शादीशुदा लोग हैं। वे भी इन चीजों को स्पष्ट नहीं देख पाते, मगर फिर भी उनका जीवन ठीक से आगे बढ़ता रहता है, है न?” बहुत से लोग शादी को स्पष्ट रूप से नहीं देखते। अगर तुम्हारा सामना किसी नेक व्यक्ति से होता है जो शालीनता से रहता है और जिसके साथ तुम अपना जीवन बिना किसी बड़े झंझट या उतार-चढ़ाव के बिता सकते हो, और जिसके साथ तुम्हें कोई बड़ा कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा, तो इसे एक अच्छा जीवन और एक अच्छी शादी माना जा सकता है। लेकिन कुछ लोग दूसरों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते और सिर्फ इसी बात पर ध्यान देते हैं कि दूसरा व्यक्ति कैसा दिखता है और उसका रुतबा कैसा है। वे मीठी-मीठी बातें करते हैं, और जब वे शादी कर लेते हैं तो उसके बाद ही उन्हें पता चलता है कि उनका साथी एक बुरा व्यक्ति है, एक शैतान है, और उस तरह के व्यक्ति के साथ बिताया गया हर दिन एक साल के बराबर होता है। महिलाएँ अक्सर आँसू बहाती हैं, जबकि पुरुषों को भी बहुत धोखा मिलता है और उन्हें प्रताड़ित किया जाता है, जिस कारण कुछ सालों बाद उनका तलाक हो जाता है। कुछ शादीशुदा जोड़े तब तलाक ले लेते हैं जब उनके बच्चे तीन-चार साल के या फिर किशोर उम्र के होते हैं, और कुछ के पास तो पोते-पोतियाँ भी होती हैं, जब उन्हें लगता है कि अब उनसे साथ नहीं रहा जाएगा, तो वे तलाक ले लेते हैं। आखिर में इन लोगों का क्या कहना होता है? “शादी एक कब्र है” और “शादी एक श्मशान है।” तो इसमें महिला की गलती थी या फिर पुरुष की, जिसका ऐसा परिणाम हुआ? दोनों ने गलतियाँ कीं और दोनों में कोई भी बेहतर नहीं था। वे नहीं जानते कि शादी या शादीशुदा जीवन की प्रकृति क्या है। शादी की प्रकृति एक-दूसरे की जिम्मेदारी लेना, वास्तविक जीवन में प्रवेश करना और एक-दूसरे का सहयोग करना है। यह दोनों भागीदारों की सामान्य[क] मानवता पर निर्भर करती है ताकि वे बुढ़ापे तक खुशी और स्थिरता से रह सकें और मरते दम तक साथ रहें। और शादीशुदा जीवन की क्या प्रकृति है? यह भी दोनों भागीदारों की सामान्य[ख] मानवता पर निर्भर करती है, और सिर्फ इसी तरह वे शांति से, व्यवस्थित और खुशहाल जीवन जी सकते हैं। दोनों भागीदारों को एक-दूसरे की जिम्मेदारी उठानी होगी, तभी वे आखिर में बुढ़ापे से लेकर मरते दम तक एक साथ रह सकेंगे। हालाँकि, यह राज्य में प्रवेश करना नहीं है; शादीशुदा जोड़े के लिए एक साथ राज्य में प्रवेश करना आसान नहीं है। भले ही वे राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते, मगर शादीशुदा जोड़े के आखिर में बुढ़ापे तक एक साथ रहने के लिए कम से कम उनमें अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए, वो भी ऐसी मानवता के साथ जो मानक के अनुरूप हो। सही कहा न? (बिल्कुल।) इस तरह संगति करने से शादी में तुम लोगों का विश्वास बढ़ा है या कम हुआ है, या फिर इससे तुम्हें उचित रवैया और दृष्टिकोण मिला? (इससे हमें उचित रवैया और दृष्टिकोण मिला।) इस तरह से संगति करने का कम या ज्यादा आस्था रखने से कोई लेना-देना नहीं है, है न? मैं शादी से जुड़ी तमाम फंतासियों को त्यागने के बारे में बात कर रहा हूँ, इसका मकसद यह नहीं है कि तुम शादी को एकदम त्याग या ठुकरा दो, बल्कि यह है कि तुम इस मामले में उचित और तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाओ। अधिक सटीकता से कहें, तो इसका मकसद यह है कि तुम इस मामले में परमेश्वर के वचनों के अनुसार विचार कर सको और उचित रवैया अपनाकर इसे हल करो। इसका मकसद यह नहीं है कि तुम शादी के बारे में सोचना ही पूरी तरह से बंद कर दो—इसके बारे में नहीं सोचना इसे त्याग देने के बराबर नहीं है। वास्तव में इसे त्यागने का अर्थ इसके बारे में सही और सटीक विचार और दृष्टिकोण रखना है। अब, इस तरह से संगति करने के बाद, क्या तुम लोगों ने पहले से ही शादी से जुड़ी अपनी तमाम फंतासियों को त्याग नहीं दिया है? (बिल्कुल।) क्या अब तुम लोग शादी से डरते ज्यादा हो या फिर इसके लिए तरसते ज्यादा हो? वास्तव में इनमें से कोई भी मामला नहीं है। इससे डरने या इसके लिए इतना तरसने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम अभी अकेले हो और कहते हो “मैं सत्य का अनुसरण करना और खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहता हूँ। मैं अभी शादी के बारे में नहीं सोच रहा और मेरा शादी करने का कोई इरादा नहीं है, तो मैं शादी के बारे में ज्यादा नहीं सोचूँगा, इसे एक खाली पन्ना रहने दूँगा,” क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं, परमेश्वर हमारे साथ इस सत्य पर संगति इसलिए कर रहा है ताकि हम इसे धारण करें, इसे समझें और इस पर अमल करें। हमें परमेश्वर के कहे अनुसार ही कार्य करना चाहिए, और पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, और सत्य को अपनी कसौटी मानकर ही लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना चाहिए। चाहे हम अभी शादी के बारे में सोच रहे हों या नहीं, फिर भी हमें इस सत्य को समझना होगा, क्योंकि सिर्फ तभी हम गलती करने से बचेंगे।) क्या यह सही समझ है? (बिल्कुल।)

क्या इस वक्त कोई ऐसा है जो यह कहता हो, “हम अविवाहित हैं और अविश्वासियों का संसार कहता है कि अविवाहित रहना ही अच्छा है, तो क्या यह कहना सही नहीं होगा कि परमेश्वर के घर में अविवाहित लोग पवित्र हैं और विवाहित लोग अशुद्ध?” क्या कोई है जो ऐसी बातें कहता हो? कुछ शादीशुदा लोग ऐसे हैं जिन्हें शादी को लेकर हमेशा गलतफहमी रहती है। वे मानते हैं कि शादी के बाद उनके विचार उतने शुद्ध या सरल या स्वच्छ नहीं होते जितने पहले थे, कि शादी के बाद उनके विचार जटिल हो जाते हैं, और खास तौर पर विपरीत लिंग के साथ संबंध रखने के कारण शादीशुदा लोग अब पवित्र नहीं रहते। और इसलिए, परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद, वे दृढ़तापूर्वक अपने साथी से कहते हैं, “मैंने परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा है, और आज से मुझे पवित्रता का अनुसरण करना चाहिए। मैं अब तुम्हारे साथ नहीं सो सकता। तुम्हें अकेले सोना होगा और मुझे दूसरे कमरे में सोना होगा।” तब से, वे अलग सोते हैं और उनका जीवनसाथी भी अकेला सोता है, पर वे अभी भी एक साथ रहते हैं। इस तरह के लोग क्या करना चाहते हैं? वे एक तरह से देह की पवित्रता पाना चाहते हैं। क्या यह शादी को लेकर गलतफहमी नहीं है? (हाँ।) क्या इस गलतफहमी को दूर करना आसान है? कुछ शादीशुदा लोग ऐसे हैं जो मानते हैं कि विपरीत लिंग के साथ संबंध बनाने के बाद वे पवित्र नहीं रहे। उनका निहितार्थ यह है कि अगर वे विपरीत लिंग के साथ संबंध नहीं रखते, अगर वे अपनी शादी को छोड़कर तलाक ले लेते हैं, तो वे पवित्र हो जाएँगे। अगर व्यक्ति इसी तरह से पवित्र होता है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि अविवाहित लोग और भी अधिक पवित्र हैं? ऐसी विकृत समझ के साथ लोग जो फैसले लेते या कार्य करते हैं, उनके कारण उनके साथी को बड़ी हैरानी होती है और उन्हें गुस्सा आता है। कुछ अविश्वासी पति या पत्नियाँ इसे गलत समझकर आस्था से घृणा करने लगती हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जो ईशनिंदा वाली बातें भी करते हैं। मुझे बताओ, “पवित्रता” के चक्कर में ये लोग जो चीजें करते हैं, क्या वह सही है? (नहीं, सही नहीं है।) क्यों नहीं? पहली बात, उनकी सोच में दिक्कत है। क्या दिक्कत है? (वे परमेश्वर के वचनों को गलत समझते हैं।) सबसे पहले, शादी को लेकर उनके विचार विकृत हैं; दूसरा, पवित्रता और अपवित्रता की उनकी परिभाषाएँ और समझ भी विकृत हैं। उनका मानना है कि विपरीत लिंग के साथ संबंध न रखने से व्यक्ति पवित्र हो जाता है, तो फिर अपवित्रता क्या है? पवित्रता क्या है? क्या पवित्रता का अर्थ भ्रष्ट स्वभावों से रहित होना है? जब कोई सत्य प्राप्त कर लेता है और उसका स्वभाव बदल जाता है, तो उसका कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं रह जाता। जिस व्यक्ति के संबंध विपरीत लिंग के साथ नहीं रहे हैं, क्या उसका कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं होता है? क्या लोगों के भ्रष्ट स्वभाव सिर्फ तभी सामने आते हैं जब उनके विपरीत लिंग के साथ संबंध होते हैं? (नहीं।) जाहिर है कि यह समझ गलत है। शादी करने और विपरीत लिंग के साथ संबंध बना लेने के बाद तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव पहले से और बुरा नहीं हो जाता, बल्कि पहले जैसा ही रहता है। अगर तुम शादीशुदा नहीं हो और तुमने विपरीत लिंग के साथ संबंध नहीं बनाए तो क्या तुममें कोई भी भ्रष्ट स्वभाव है? तुममें बहुत सारे भ्रष्ट स्वभाव हैं। इसलिए, चाहे पुरुष हो या महिला, उसमें भ्रष्ट स्वभाव है या नहीं, इसका आकलन उसकी वैवाहिक स्थिति से नहीं होता; या इस आधार पर नहीं होता कि क्या वे शादीशुदा हैं या क्या उनके विपरीत लिंग के साथ संबंध रहे हैं। जो लोग इस तरह सोचते और व्यवहार करते हैं वे शादी को लेकर ऐसी गलतफहमी क्यों पालते हैं? वे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? क्या यह ऐसी समस्या नहीं है जिसे हल किया जाना चाहिए? (है।) क्या तुम लोग इसे हल कर सकते हो? विपरीत लिंग के संपर्क में आने और उसके साथ संबंध बनाने मात्र से ही कोई व्यक्ति अपवित्र और बुरी तरह भ्रष्ट हो सकता है—ऐसा ही है न? (नहीं।) अगर ऐसा होता, तो महिला-पुरुष के मिलन का परमेश्वर का विधान बनाना भी एक गलती होती। तो, हम इस समस्या को कैसे हल कर सकते हैं? इस समस्या का स्रोत क्या है? इस स्रोत का विश्लेषण करके और इसे समझकर समस्या को हल किया जा सकता है। क्या तुम लोगों का भी यही दृष्टिकोण नहीं है? कोई चाहे विवाहित हो या अविवाहित, क्या शादी के बारे में सबका यही दृष्टिकोण नहीं होता? (हाँ, होता है।) मैं जानता हूँ कि तुम लोग इस समस्या से भाग नहीं सकते। तो, इस दृष्टिकोण का स्रोत क्या है? (लोग इस बारे में स्पष्ट नहीं हैं कि पवित्रता और अपवित्रता क्या होती है।) और लोगों को यह क्यों नहीं पता कि पवित्रता और अपवित्रता क्या होती है? (क्योंकि लोग परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह से समझने या सत्य समझने में सक्षम नहीं हैं।) वे परमेश्वर के वचनों के किस पहलू को पूरी तरह से समझने में सक्षम नहीं हैं? (शादी एक ऐसी चीज है जिसे लोगों को आम तौर पर अपने जीवन में अनुभव करना चाहिए और यह परमेश्वर का विधान भी है, फिर भी लोग शादी करने और विपरीत लिंग के साथ संबंध रखने को इस बात से जोड़ते हैं कि वे पवित्र हैं या नहीं, जबकि वास्तव में पवित्र होने का मतलब है व्यक्ति सभी भ्रष्ट स्वभावों से रहित हो, और इसका इससे कोई लेना-देना नहीं है कि वे शादीशुदा हैं या नहीं। उदाहरण के लिए, कैथोलिक चर्च की ननों को ही देख लो। अगर वे परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार नहीं करतीं और सत्य को नहीं समझतीं, तो भले ही वे अपना पूरा जीवन अविवाहित बिता लें, फिर भी उन्हें पवित्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं हुआ है।) क्या इससे बात साफ तौर पर समझ आई? क्या पवित्रता और अपवित्रता के बीच अंतर इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति शादीशुदा है या नहीं? (नहीं।) नहीं, ऐसा नहीं है, और इसे साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं। उदाहरण के लिए, मानसिक विकलांग, मंदबुद्धि, मानसिक रूप से बीमार, कैथोलिक नन, बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणी, सभी अविवाहित होते हैं, पर क्या वे सभी पवित्र हैं? (नहीं।) मानसिक विकलांग, मंदबुद्धि और मानसिक रूप से बीमार लोगों में सामान्य समझ नहीं होती; वे शादी नहीं कर सकते, उनमें से किसी भी पुरुष को पत्नी नहीं मिलती और किसी भी महिला को पति नहीं मिलता, मगर वे पवित्र नहीं हैं। कैथोलिक नन, बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणी के साथ-साथ कुछ और विशेष समूहों के लोग शादी नहीं करते, मगर वे भी पवित्र नहीं हैं। “पवित्र नहीं” होने का क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि वे स्वच्छ नहीं हैं। “स्वच्छ नहीं” होने का क्या मतलब है? (उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं।) सही कहा, इसका मतलब है कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। इन सभी अविवाहित लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं और इनमें से कोई भी पवित्र नहीं है। तो फिर, शादीशुदा लोगों का क्या? क्या शादीशुदा और अविवाहित लोगों के सार में कोई अंतर है? (नहीं।) सार की दृष्टि से उनके बीच कोई अंतर नहीं है। मेरे यह कहने का क्या मतलब है कि उनमें कोई अंतर नहीं है? (वे सभी शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं और उन सभी में भ्रष्ट स्वभाव हैं।) सही कहा, वे सभी शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं और उन सभी में भ्रष्ट स्वभाव हैं। वे परमेश्वर या सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम नहीं हैं, और वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर नहीं चल सकते। वे परमेश्वर द्वारा अनुशंसित नहीं हैं, वे बचाए नहीं गए हैं, और वे सभी अपवित्र हैं। तो, कोई व्यक्ति पवित्र है या अपवित्र, इसका आकलन इस बात से नहीं किया जा सकता कि वह शादीशुदा है या नहीं। तो फिर लोगों को शादी के बारे में इस प्रकार की गलतफहमी क्यों है, वे ऐसा क्यों मानते हैं कि शादीशुदा लोग पवित्र नहीं हैं, वे अपवित्र हैं? इस गलतफहमी का केंद्र बिंदु क्या है? (शादी को लेकर उनके विचार विकृत हैं।) क्या शादी और शादीशुदा जीवन को लेकर उनके विचार विकृत हैं या यह कि किसी और चीज को लेकर उनके विचार विकृत हैं? क्या कोई इसे स्पष्टता से समझा सकता है? जैसा कि हमने पहले कहा, हर शादी अंत में वास्तविक जीवन में लौट आती है। तो, क्या यह शादीशुदा जीवन उस चीज का स्रोत है जिसे लोग अपवित्र मानते हैं? (नहीं।) यह उसका स्रोत नहीं है जिसे लोग अपवित्र मानते हैं। लोगों के विचारों का स्रोत, जिसे वे अपवित्र मानते हैं, वास्तव में उनके मन और अंतरतम हृदय में ज्ञात होता है : यह उनकी यौन इच्छा है, और गलतफहमी यहीं होती है। किसी व्यक्ति के विवाहित या अविवाहित होने के आधार पर उसे पवित्र या अपवित्र कहना एक गलतफहमी और गलत धारणा है, और इसका स्रोत लोगों की अपनी दैहिक यौन इच्छा को लेकर भ्रामक और गलत समझ है। मैंने ऐसा क्यों कहा कि यह समझ भ्रामक है? लोगों का मानना है कि जब वे यौन इच्छा महसूस कर शादी कर लेते हैं तो उनके विपरीत लिंग के साथ संबंध बन जाते हैं और, एक बार जब वे विपरीत लिंग के साथ संबंध बना लेते हैं, तो उनका दैहिक यौन इच्छा वाला तथाकथित जीवन शुरू होता है, जिससे वे अपवित्र हो जाते हैं। उनका यही मानना है न? (हाँ, यही बात है।)

तो, आओ अब चर्चा करें कि यौन इच्छा आखिर कैसी चीज है। अगर तुम इसे सही ढंग से समझोगे और तुम्हारे पास इसकी सटीक, सही और वस्तुनिष्ठ व्याख्या और समझ होगी, तो तुम इस समस्या को और पवित्रता-अपवित्रता की इस गलत धारणा को सुलझा लोगे। क्या मैंने सही कहा? शादी करने के बाद लोगों की यौन इच्छाएँ संतुष्ट हो जाती हैं और वे अपनी यौन और दैहिक इच्छाओं को अभिव्यक्ति देते हैं, और इसलिए वे सोचते हैं, “हम शादीशुदा लोग पवित्र नहीं हैं, हम अपवित्र हैं। युवा अविवाहित महिला-पुरुष ही पवित्र हैं।” यह साफ तौर पर एक विकृत समझ है, जो यह न जानने से आती है कि यौन इच्छा आखिर क्या चीज है। अब आओ संसार के सबसे पहले इंसान पर नजर डालें : क्या आदम में यौन इच्छा थी? परमेश्वर ने जिस मानवजाति की रचना की है उसमें विचार, भाषा, इंद्रिय बोध होने के साथ ही उनकी अपनी स्वतंत्र इच्छा और भावनात्मक जरूरतें होती हैं। “भावनात्मक जरूरतों” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि लोगों को उनका साथ देने और सहयोग करने, उनसे बात करने, उनकी देखभाल करने, उनका ख्याल रखने और दुलारने के लिए एक साथी की जरूरत होती है—ये भावनात्मक जरूरतें हैं। दूसरा पहलू यह है कि लोगों में यौन इच्छा भी होती है। ऐसा कहने का आधार क्या है? यह कि परमेश्वर ने आदम को बनाने के बाद कहा कि उसे एक साथी की जरूरत है, ऐसा साथी जो केवल उसके जीवन की जरूरतों और भावनात्मक जरूरतों के लिए हो। मगर परमेश्वर ने एक और जरूरत के बारे में भी कहा था। परमेश्वर ने क्या कहा? उत्पत्ति, अध्याय 2, पद 24 : “इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा, और वे एक ही तन बने रहेंगे।” इन वचनों का अर्थ बहुत स्पष्ट है; हमें इनके बारे में और स्पष्टता से चर्चा करने की जरूरत नहीं है। तुम इन वचनों को समझते हो, है न? जाहिर है, जब परमेश्वर ने मानवजाति के पूर्वज आदम को बनाया, तो आदम को भी इसकी जरूरत थी। बेशक, यह एक वस्तुनिष्ठ व्याख्या है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब परमेश्वर ने उसे बनाया, तो उसके पास यह संवेदी अंग था, और उसके पास भी ये शारीरिक स्थितियाँ और विशेषताएँ थीं—यह आदम की वास्तविक स्थिति थी, जो परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति का पहला पूर्वज था, जो देह में पहला मानव था। उसके पास भाषा थी, वह सुन सकता था, देख सकता था, स्वाद ले सकता था, और उसके पास संवेदी अंग, भावनात्मक जरूरतें, यौन इच्छा, शारीरिक जरूरतें थीं, और बेशक उसके पास स्वतंत्र इच्छा भी थी, जैसा कि हमने अभी कहा। ये चीजें मिलकर परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्य को पूरा करती हैं। वास्तव में ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) यह पुरुषों की शारीरिक संरचना है। और महिलाओं का क्या? परमेश्वर ने महिलाओं की शारीरिक संरचना पुरुषों से अलग बनाई और बेशक पुरुषों के समान ही यौन इच्छा भी दी। मैं यह किस आधार पर कह रहा हूँ? उत्पत्ति, अध्याय 3, पद 16 में, परमेश्वर ने कहा : “मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी।” इस “बच्चे पैदा करेगी” में उल्लिखित बच्चे कहाँ से आते हैं? मान लो कि कोई ऐसी महिला है जिसके पास इस तरह की शारीरिक जरूरत नहीं है, या अधिक सटीकता से कहें, तो उसमें महिलाओं वाली यौन इच्छा नहीं है—तो क्या वह गर्भधारण करने में सक्षम होगी? नहीं, और यह बहुत स्पष्ट है। तो अब, परमेश्वर की इन दो पंक्तियों को देखते हुए यह कह सकते हैं कि परमेश्वर द्वारा सृजित महिला-पुरुषों की शारीरिक संरचना अलग-अलग है, फिर भी शारीरिक विशेषता के मामले में दोनों की यौन इच्छा समान है। इसकी पुष्टि परमेश्वर द्वारा किए गए इन कर्मों से और मनुष्य को दिए गए निर्देशों की पंक्तियों में निहित संदेश से होती है। परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्यों के पास शारीरिक संरचनाएँ होती हैं और उनकी शारीरिक संरचनाओं की अपनी जरूरतें भी होती हैं। तो, अब हमें इस मामले को कैसे समझना चाहिए? यौन इच्छा नाम की यह चीज मानव अंग की तरह देह का ही एक हिस्सा है। उदाहरण के लिए, तुम सुबह छह बजे नाश्ता करते हो, और दोपहर तक कमोबेश सारा खाना पच जाता है, जिससे तुम्हारा पेट फिर से खाली हो जाता है। पेट इस सूचना को दिमाग तक भेजता है, और दिमाग तुम्हें बताता है, “तुम्हारा पेट खाली है; खाने का समय हो गया है।” पेट में हो रहा यह कैसा एहसास है? तुम्हें थोड़ा खाली और असहज लगता है, और तुम कुछ खाना चाहते हो। और कुछ खाने की इच्छा की यह भावना कहाँ से आती है? यह तुम्हारे संपूर्ण तंत्रिका तंत्र और तुम्हारे अंगों की कार्यप्रणाली और चयापचय का परिणाम है—यह इतना सरल है। यौन इच्छा की प्रकृति भी किसी अन्य शारीरिक अंग के समान ही होती है; प्रत्येक अंग तंत्रिका तंत्र से जुड़ा होता है, जो तुम्हारे विभिन्न अंगों को आदेश भेजता है। उदाहरण के लिए, तुम्हारी नाक गंध सूंघती है, और जब उसे दुर्गंध आती है तो यह गंध तुम्हारे तंत्रिका तंत्र में प्रवेश करती है, और तंत्रिका तंत्र तुम्हारे दिमाग को बताता है, “यह अच्छी गंध नहीं है, यह दुर्गंध है।” यह इस जानकारी को तुम तक पहुँचाता है, और फिर तुम तुरंत अपनी नाक बंद कर लेते हो या अपनी नाक के सामने हाथ लहराते हो—यह गतिविधियों की एक कड़ी है। देखा तुमने, गतिविधियों और कार्यों की यह कड़ी, और इस प्रकार की अनुभूति और जागरूकता, तुम्हारे शरीर के कुछ अंगों और तंत्रिका तंत्र द्वारा नियंत्रित होती है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम बहुत तेज, कानफाड़ू आवाज सुनते हो, और कानों को यह सूचना मिलने के बाद तुम परेशान या दुखी होकर अपने कान बंद कर लेते हो। दरअसल, तुम्हारे कानों को तो बस एक आवाज सुनाई दी है, यह बस एक सूचना है, मगर इसका फैसला तुम्हारा दिमाग करता है कि यह तुम्हारे लिए लाभकारी है या नहीं। अगर इसका तुम पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता, तो तुम इसे सुनते हो, समझते हो, और फिर ज्यादा ध्यान दिए बिना ही इसे भुला देते हो; अगर इसका तुम्हारे दिल या शरीर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, तो तुम्हारा दिमाग इसे पहचान लेगा और फिर तुम्हें अपने कान बंद करने या अपना मुँह खोलने के लिए कहेगा—इस तरह के कार्यों और विचारों की एक कड़ी चलेगी। मनुष्य की यौन इच्छा भी एकदम ऐसी ही होती है जहाँ संबंधित तंत्रिकाओं के नियंत्रण में अलग-अलग निर्णय लेने और व्याख्या करने वाले अंग काम करते हैं। मनुष्य की यौन इच्छा इतनी सरल सी चीज है। यह चीज मानव शरीर में किसी भी अन्य अंग के समान स्तर पर और उसके समकक्ष है, मगर इसकी अपनी विशिष्टता है, और यही कारण है कि लोगों के पास इसके बारे में हमेशा कई अलग-अलग विचार, दृष्टिकोण या राय होंगी। तो इस तरह से संगति करने के बाद क्या तुम लोगों के पास अब इसकी सही समझ नहीं होनी चाहिए? (होनी चाहिए।) मनुष्य की यौन इच्छा में कुछ भी रहस्यमय नहीं है; इसे परमेश्वर ने बनाया है और यह मनुष्य के साथ ही अस्तित्व में आया है। क्योंकि इसे परमेश्वर ने नियत किया और रचा है, तो यह सिर्फ इसलिए नकारात्मक या अपवित्र चीज नहीं हो सकती कि लोगों के मन में इसके बारे में तमाम तरह की गलतफहमियाँ और धारणाएँ हैं। यह मनुष्य के किसी भी अन्य संवेदी अंग जैसा ही है; यह मानव शरीर के भीतर मौजूद है और अगर यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और नियत उचित विवाह के भीतर काम करता है, तो यह एक सही चीज है। हालाँकि, अगर लोग इसमें संलिप्त होकर इसका गलत फायदा उठाते हैं, तो यह नकारात्मक चीज बन जाती है। यकीनन यौन इच्छा अपने आप में नकारात्मक नहीं है, बल्कि इसका गलत इस्तेमाल करने वाले लोग और ऐसे गलत विचार नकारात्मक हैं। जैसे प्रेम त्रिकोण, स्वच्छंद यौनाचार, सगे-संबंधियों के साथ यौन संबंध, बलात्कार और यौन उत्पीड़न वगैरह—यौन इच्छा से संबंधित ये चीजें नकारात्मक चीजें हैं और इनका मानव देह की मूल यौन इच्छा से कोई लेना-देना नहीं है। देह की यौन इच्छा एक भौतिक अंग के समान है : इसे परमेश्वर ने बनाया है। लेकिन मानवजाति की दुष्टता और भ्रष्टता के कारण यौन इच्छा से संबंधित सभी प्रकार की दुष्ट चीजें घटित होती हैं, जिनका उचित और सामान्य यौन इच्छा से कोई लेना-देना नहीं होता—ये दो अलग-अलग प्रकृति के मामले हैं। ऐसा ही है न? (हाँ।) प्रेम त्रिकोण, विवाहेतर संबंध, सगे-संबंधियों के साथ यौन संबंध और यौन उत्पीड़न—ये सभी यौन इच्छा से संबंधित दुष्ट चीजें हैं जो भ्रष्ट मानवजाति के बीच होती हैं। इन चीजों का उचित यौन इच्छा और शादी से कोई लेना-देना नहीं है; ये अपवित्र, अनुचित चीजें हैं, और सकारात्मक चीजें नहीं हैं। क्या अब तुम्हें इसकी स्पष्ट समझ है? (हाँ।)

इस तरह से संगति करने के बाद, क्या अब तुम शादीशुदा लोगों की उन विकृत समझ और गतिविधियों को स्पष्ट रूप से समझ सकते हो, और उनमें से सही-गलत को पहचान सकते हो? (बिल्कुल।) जब तुम्हारा सामना आस्था में किसी नवागत व्यक्ति से होगा जो कहता है, “हमने परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा है, तो क्या एक शादीशुदा जोड़े के रूप में हमें अलग रहना होगा?” तब तुम क्या कहोगे? (हम मना कर देंगे।) तुम उससे पूछ सकते हो, “तुम्हें अलग रहने की क्या जरूरत है? क्या तुम दोनों में कोई बहस हुई है? क्या तुममें कोई इतनी जोर से खर्राटे मारता है कि दूसरे का सोना मुश्किल हो जाता हो? अगर ऐसा है, तो यह तुम्हारी समस्या है और तुम अलग रह सकते हो। अगर इसका कारण कुछ और है तो ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं।” कोई और व्यक्ति कहता है, “अरे, हम करीब चालीस साल से शादीशुदा जोड़े की तरह एक साथ रह रहे हैं। हम बूढ़े हो गए हैं, हमारे बच्चे बड़े हो गए हैं, तो क्या हमें अलग-अलग बिस्तर पर सोना चाहिए? हमें अब साथ नहीं सोना चाहिए, हमारे बच्चे हम पर हँसेंगे। हमें बुढ़ापे में अपनी शुद्धता बनाए रखनी चाहिए।” क्या यह तर्कसंगत बात है? (नहीं।) नहीं, ऐसा नहीं है। वे बुढ़ापे में अपनी शुद्धता बनाए रखना चाहते हैं; यह शुद्धता कैसी चीज है? वे जवानी में क्या कर रहे थे? क्या यह बस एक बहाना नहीं है? क्या ऐसे लोग घृणित नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) जब ऐसे लोगों से तुम्हारा सामना हो, तो उनसे कहो, “हम परमेश्वर में अपने विश्वास में ऐसी बातें नहीं कहते, न ही परमेश्वर के घर की ऐसी आवश्यकताएँ या नियम हैं। तुम समय के साथ जान जाओगे। तुम जैसे चाहो वैसे रह सकते हो; यह तुम्हारा अपना मामला है, और इसका परमेश्वर में विश्वास या सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं है, न ही उद्धार पाने से कोई सरोकार है। तुम्हें इन चीजों के बारे में पूछने की जरूरत नहीं है, न ही तुम्हें इनके लिए कुछ भी त्यागने की जरूरत है।” क्या तब मामला सुलझ नहीं गया? (बिल्कुल।) तो शादी में मानव यौन इच्छा का मसला हल हो गया—सबसे बड़ी कठिनाई दूर हो गई। इस तरह संगति करने से क्या तुम लोगों को इस मामले में पूरी स्पष्टता मिल चुकी है? क्या तुम्हें अभी भी यौन इच्छा रहस्यमयी लगती है? (नहीं।) क्या तुम्हें अभी भी लगता है कि यौन इच्छा अपवित्र या गंदी चीज है? (नहीं।) जहाँ तक यौन इच्छा की बात है, यह अपवित्र और गंदी नहीं है; यह उचित है। हालाँकि, अगर लोग इसके साथ खिलवाड़ करते हैं, तो यह उचित नहीं रहता और यह पूरी तरह से एक अलग चीज बन जाती है। जो भी हो, इस तरह से संगति करने के बाद, क्या शादी के बारे में लोगों की विभिन्न वास्तविक और अवास्तविक कल्पनाएँ हल नहीं हो गई हैं? (बिल्कुल।) शादी की परिभाषाओं और अवधारणाओं पर संगति करने के बाद, शादी के संबंध में तुम्हारे कुत्सित और विकृत लक्ष्य, आदर्श और इच्छाएँ मूल रूप से तुम्हारे मन से कुछ हद तक दूर हो गई हैं। जो कुछ बची हैं उन्हें तुम्हें धीरे-धीरे अपने अंदर पहचानना होगा और वास्तविक जीवन में अपने व्यक्तिगत अभ्यास के जरिए धीरे-धीरे अनुभव करना और सीखना होगा। बेशक, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों में शादी को लेकर सही समझ और परिप्रेक्ष्य होना चाहिए—यह बहुत महत्वपूर्ण है। चाहे तुम भविष्य में शादी करने की सोच रहे हो या नहीं, शादी के प्रति तुम्हारा रवैया और परिप्रेक्ष्य सत्य के तुम्हारे अनुसरण को प्रभावित करेगा, और इसलिए तुम्हें इस विषय पर परमेश्वर के वचनों को विस्तार से पढ़कर आखिर में शादी को लेकर सही परिप्रेक्ष्य और समझ जरूर हासिल करनी चाहिए, जो कम से कम सत्य के अनुरूप हो। जब इस विषय पर हमारी संगति समाप्त हो जाएगी, तब क्या तुम्हारा ज्ञान विस्तृत नहीं होगा? (जरूर होगा।) तब तुम इतने बचकाने और संकीर्ण सोच वाले नहीं रहोगे, है न? जब तुम भविष्य में लोगों के साथ इस मामले पर चर्चा करोगे, तो वे देखेंगे कि तुम युवा दिखते हो, मगर फिर भी तुम्हें इसकी समझ है, और वे पूछेंगे, “तुम्हारी शादी को कितने साल हो गए हैं?” तब तुम जवाब दोगे, “मैंने अभी तक शादी नहीं की है।” वे कहेंगे, “फिर तुममें शादी के बारे में ऐसी वयस्कों वाली समझ कहाँ से आई, तुम्हारी समझ तो वयस्कों से भी ज्यादा परिपक्व है?” तो तुम जवाब दोगे, “मैं सत्य समझता हूँ, और इन सत्यों का एक आधार है जिन्हें मैं समझता हूँ। अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं, तो मैं अपनी बाइबल लाकर तुम्हें वो स्थिति दिखाऊँगा जब परमेश्वर ने आदम को बनाया था, तब तुम्हें पता चलेगा कि मेरी बात सही है या नहीं।” अंत में, तुम्हारे शब्दों से उन्हें पूरा विश्वास हो जाता है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम जो कुछ भी कहते हो उसका आधार तुम्हारी स्पष्ट समझ और व्याख्या है, जिसमें मानवीय कल्पनाओं या धारणाओं या किसी भी विकृत मानवीय दृष्टिकोण की मिलावट नहीं है—तुम्हारी हर बात सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप है।

फुटनोट :

क. मूल पाठ में “सामान्य” शब्द शामिल नहीं है।

ख. मूल पाठ में “सामान्य” शब्द शामिल नहीं है।

The Bible verses found in this audio are from Hindi OV and the copyright to the Bible verses belongs to the Bible Society of India. With due legal permission, they are used in this production.

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