सत्य का अनुसरण कैसे करें (1) भाग तीन
जहाँ तक उस पुरानी नफरत और गुस्से को जाने देने के तरीके का प्रश्न है जिसकी हम चर्चा करते रहे हैं, तो एक पहलू इन तथाकथित गैर-मानवों को स्पष्ट रूप से देखना है, स्पष्ट रूप से देखना है कि उनकी प्रकृति और सार राक्षसों और शैतान के हैं, उनका सार लोगों के लिए हानिकारक है, उनका सार दानव शैतान के समान है और इसका उद्गम भी वही है जो दानव शैतान और बड़े लाल अजगर का है, वे तुम्हें फँसाते हैं, तुम्हें नुकसान पहुँचाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है। एक बार यह बात समझ लेने पर क्या तुम कुछ हद तक अपनी नफरत और गुस्से की भावनाओं को जाने नहीं देते? (बिल्कुल।) कुछ लोग कहते हैं, “इन चीजों को समझ लेना ही काफी नहीं है। कभी-कभी मैं बस इस बारे में सोचकर ही दुखी हो जाता हूँ!” दुखी होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए। क्या तुम बिल्कुल बिना किसी दुख के रह सकते हो? दाग हमेशा अपनी निशानी छोड़ देते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि ऐसी निशानियाँ होना बुरी बात है। समाज में अन्याय की ये परिघटनाएँ, और तुममें नफरत और गुस्सा पैदा करनेवाले ये लोग, घटनाएँ और चीजें ही तुम्हें समाज के अन्याय और मानवजाति के द्वेष, दुर्भावना और दुष्टता का आभास होने देती हैं, और जो तुम्हें संसार के अन्याय और सूनेपन का आभास करवाती हैं, जिसके कारण तुममें प्रकाश की लालसा और उद्धारकर्ता द्वारा तुम्हें इन सब कष्टों से बचाने की ललक जागती है। तो, क्या इस आकांक्षा का कोई संदर्भ है? (हाँ।) क्या यह आकांक्षा आसानी से जाग जाती है? (नहीं।) अगर मानवजाति के बीच या समाज में तुम्हें कभी नुकसान नहीं पहुँचाया गया, तो तुम सोचोगे कि इर्द-गिर्द बहुत-से नेक लोग हैं। अगर तुम बाहर जाओ, लड़खड़ा कर गिर जाओ, और कोई तुम्हारी मदद को आ जाए, या तुम खरीदारी करने जाओ और पैसे कम पड़ जाएँ तो तुम्हारे पास खड़ा व्यक्ति तुम्हारी मदद कर दे, या तुम्हारा बटुआ खो जाए और कोई उसे ढूंढ़कर तुम्हें लौटा दे, तो तुम सोचोगे कि इर्द-गिर्द बहुत-से अच्छे लोग हैं। ऐसी मनःस्थिति में और समाज के बारे में अपनी ऐसी समझ के साथ, तुम परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार या परमेश्वर द्वारा उद्धार का कार्य करने की आवश्यकता के प्रति कितनी समझ रखोगे? उद्धारकर्ता के आने और दुख के महासागर से तुम्हें बचाने की तुम्हारी आकांक्षा कितनी प्रबल होगी? तुम्हारी चाह बहुत बलवती नहीं होगी, है न? यह बस एक कामना-जैसी होगी, एक किस्म की कपोल-कल्पना। कोई व्यक्ति दुनिया में जितनी ज्यादा तकलीफें और दुख सहता है, हर तरह का अनुचित व्यवहार झेलता है, या दूसरे शब्दों में कहें, तो कोई व्यक्ति समाज में और लोगों के बीच जितने लंबे समय तक जिया है, जिसमें मानवजाति और समाज के प्रति भयंकर नफरत और गुस्सा पैदा हो चुका है, उतना ही अधिक वह चाहेगा कि परमेश्वर जितनी जल्दी हो सके इस बुरे युग का अंत कर दे, जितनी जल्दी हो सके इस दुष्ट मानवजाति को नष्ट कर दे, जितनी जल्दी हो सके उन्हें दुख के महासागर से बचा ले, दुष्ट लोगों से बदला ले और नेक लोगों की रक्षा करे—क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तो अब, इस मुकाम पर, तुम सोचने लगते हो, “ओह, मुझे सचमुच उन दानवों का धन्यवाद करना चाहिए। मुझसे अनुचित व्यवहार और भेदभाव करने, मेरा अपमान और दमन करने के लिए मुझे उनका धन्यवाद करना चाहिए। उनकी बुरी करतूतों और मुझे पहुँचाए नुकसान ने ही मुझे परमेश्वर के समक्ष आने पर मजबूर किया है, इन्हीं के कारण मैं अब संसार या इन लोगों के बीच जीवन की चाहत नहीं रखता हूँ, और अब परमेश्वर के घर में आने, परमेश्वर के समक्ष आने, अपनी इच्छा से परमेश्वर के लिए खपने, अपना पूरा जीवन समर्पित करने, सार्थक जीवन जीने, और दुष्ट लोगों से संबंध न रखने को तैयार हो गया हूँ। वरना, मैं अभी भी बस उन जैसा ही रहता, सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागता, शोहरत, लाभ, बढ़िया जीवन, देह-सुख और एक अद्भुत भविष्य के पीछे भागता। अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए अब उस टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलने की कोई जरूरत नहीं है। अब मैं उन लोगों को बैर-भाव से नहीं देखता। मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ कि वे हमेशा से कौन थे। वे सेवा करने के लिए हैं और परमेश्वर के कार्य के लिए विषमता हैं। उनके बिना मैं यह देख नहीं पाता कि इस संसार और मानवजाति का सार वास्तव में क्या है, और अब भी सोचता रहता कि यह संसार और यह मानवजाति बहुत अधिक अद्भुत हैं। अब चूँकि मैंने ये कष्ट झेल लिए हैं, मैं इस संसार से या किसी महान व्यक्ति के हाथों में अपनी अभिलाषाएँ और आशाएँ नहीं रखूँगा। इसके बजाय, मैं परमेश्वर के राज्य के आने, और परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता के सत्ता हाथ में लेने की आशा करता हूँ।” इस प्रकार चिंतन करके, क्या नफरत और गुस्से की तुम्हारी भावनाएँ धीरे-धीरे कम नहीं हो जातीं? (कम हो जाती हैं।) वे कम हो जाती हैं। और क्या तुम्हारे दिल में लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे परिप्रेक्ष्य और विचारों में बदलाव नहीं आया है? क्या इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भविष्य में तुम जिस मार्ग पर चलोगे, और तुम्हारे चुनाव, तुम्हारे उद्देश्य धीरे-धीरे बदल रहे हैं, और तुम धीरे-धीरे सही लक्ष्यों और दिशा का अनुसरण करने की ओर बढ़ रहे हो? (बिल्कुल।) तुम अतीत की उन बातों के बारे में सोचते हो जिनसे तुम्हारा दिल टूटा, और जिनके कारण तुम संसार से नफरत करने लगे, और एक बार जब तुम उनके अर्थ और सार को स्पष्ट रूप से समझ लेते हो, तो तुम्हारा हृदय परमेश्वर के प्रति आभार से ओतप्रोत हो जाता है। जब तुम आभार से सराबोर हो जाते हो, तब क्या तुम स्वयं को इसके आनंद में नहीं डुबो लेते? तब क्या तुम नहीं सोचते, “उन गैर-विश्वासियों को, जो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, अभी भी स्वयं दानवों का राजा शैतान गुमराह कर रहा है, नुकसान पहुँचा रहा और निगल रहा है। यह बहुत दयनीय है! यदि मैंने परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता, और परमेश्वर के समक्ष नहीं आया होता, तो मैं उन जैसा ही रहता, संसार के पीछे चलता, शोहरत, लाभ, और रुतबा हासिल करने के पीछे भागता रहता, बहुत-से कष्ट सहता रहता, और रास्ता बदलने की बात मन में कभी आती ही नहीं। मैं उन पापों में डूबा रहता जिनसे बच निकलना असंभव है—कितने दुख की बात होती! अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए सत्य समझता हूँ, और इस बात की असलियत देख सकता हूँ। लोगों को जिस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए वह सत्य के अनुसरण का है—यह सर्वाधिक मूल्यवान है, सबसे सार्थक है। अब चूँकि परमेश्वर ने मुझे ऐसी दया दिखाई है जिसके कारण मुझे वे कष्ट नहीं सहने हैं, तो मैं यह संकल्प करूँगा कि अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करूँ, उसके वचन सुनूँ, उसके वचनों के अनुसार जियूँ, और पहले की तरह न जियूँ, जब मैं मनुष्य की तरह बिल्कुल नहीं जी रहा था।” देख रहे हो न, यह शुभाकांक्षा जाग चुकी है, है न? क्या लोगों की सोच और जागृति में सही लक्ष्यों और जीवन दिशा ने धीरे-धीरे आकार नहीं ले लिया है? और क्या वे अब जीवन में सही मार्ग पर कदम रखने में समर्थ नहीं हो गए हैं? (हो गए हैं।) तो, इन सकारात्मक भावनाओं और आकांक्षाओं के पैदा हो जाने पर भी क्या उन नकारात्मक भावनाओं के बारे में सोचना जरूरी है? थोड़ी देर तक उनके बारे में अच्छे से सोचने, या उन्हें समझने तक बारंबार उनके बारे में सोचने के बाद, जब ये मामले तुम्हें परेशान नहीं करते, या उस मार्ग को नियंत्रित नहीं करते जिस पर तुम चलते हो, तो अनजाने ही, तुम नफरत और गुस्से की इन भावनाओं को जाने देते हो, वे अब तुम्हारे दिल पर हावी नहीं होतीं, और समय के साथ तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को दूर कर लेते हो। क्या तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने की बात सत्य के अनुसरण से जुड़ी हुई है? (हाँ।) और क्या इसका अर्थ यह है कि तुम जीवन में सही मार्ग पर कदम रख चुके हो? सही मार्ग पर चल पड़ना कठिन नहीं है; पहले तो तुम्हें संसार, अपनी मानवता, और मानवजाति के बारे में अपने उन विविध विचारों को जाने देना होगा, जो तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं। तुम उन विचारों को स्पष्टता से कैसे देख सकते हो जो तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं? उन्हें कैसे सुलझा सकते हो? जो विचार तथ्यों के अनुरूप नहीं हैं, वे तुम्हारे दिल की भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं, और तुम्हारी मानवता की परख और सोच को, और साथ ही तुम्हारे चरित्र, तुम्हारी वाणी और कार्यों, और अनिवार्य रूप से तुम्हारे जमीर और समझ को ये भावनाएँ निर्देशित करती हैं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, वे जीवन में तुम्हारे उद्देश्यों और तुम्हारे चलने के मार्ग को निर्देशित और प्रभावित करते हैं। इसलिए, सभी नकारात्मक भावनाओं को जाने दो, और उन सभी भावनाओं को जाने दो, जो तुम्हें नियंत्रित करती हैं—यह पहला चरण है जिसका तुम्हें सत्य के अनुसरण में अभ्यास करना चाहिए। पहले विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का मसला सुलझाओ, जैसे-जैसे देखो, सुलझाते जाओ, कोई मुसीबत पीछे न छोड़ो। इन मसलों के सुलझ जाने पर, तुम जंजीरों में जकड़े नहीं रहोगे, सत्य के अनुसरण में तुम नकारात्मक भावनाओं को ढोते नहीं रहोगे, और जब तुम भ्रष्ट स्वभाव दर्शाओगे, तो सत्य खोज कर उसे दूर कर पाओगे। क्या इसे हासिल करना आसान है? यह दरअसल उतना आसान नहीं है।
इन नकारात्मक भावनाओं पर मेरी संगति और विश्लेषण के दौरान क्या तुम लोग मेरी बातों को खुद पर लागू करते रहे हो? कुछ लोग कहते हैं, “मैं छोटा हूँ, मुझे जीवन का अधिक अनुभव नहीं है। मैं रुकावटों, विफलताओं या सदमों से होकर कभी नहीं गुजरा हूँ। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि मुझमें कोई नकारात्मक भावनाएँ नहीं हैं?” ये सभी में होती हैं; सभी लोगों का अनेक कठिनाइयों से सामना होता है जिनके कारण उनमें नकारात्मक भावनाएँ पैदा होने की संभावना होती हैं। उदाहरण के लिए, इस युग में समाज की बुरी प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि के कारण, बहुत-से बच्चे केवल माँ या केवल पिता के घर में बड़े हो रहे हैं, कुछ माँ के प्रेम से वंचित, और कुछ पिता के प्रेम से। यदि कोई माता या पिता के प्रेम से वंचित होता है, तो माना जा सकता है कि उसे किसी चीज की कमी है। किसी भी उम्र में तुम अपनी माता या अपने पिता का प्रेम खो दो, सामान्य मानवता के परिप्रेक्ष्य में यह कमोबेश तुम्हें प्रभावित करेगा। कुछ लोग खुद को सबसे अलग कर लेंगे, कुछ हीन महसूस करेंगे, कुछ चिड़चिड़े हो जाएँगे, कुछ बेचैन और असुरक्षित महसूस करेंगे, और कुछ लोग विपरीत लिंग से भेदभाव कर उनसे दूर रहेंगे। किसी भी स्थिति में, जो लोग इस खास परिवेश में बड़े होते हैं, उनकी सामान्य मानवता में कमोबेश कुछ असामान्यताएँ विकसित होती हैं। आधुनिक बोलचाल में, वे थोड़े विकृत हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, जो लड़कियाँ पिता के प्रेम के बिना बड़ी होती हैं, वे पुरुषों के मामले में थोड़ी कम अनुभवी होती हैं। उन्हें छोटी आयु से ही अपनी खुद की बुनियादी जरूरतों का ख्याल रखना सीखना पड़ता है, और अपनी माँ की तरह, परिवार की आर्थिक जरूरतों और दूसरे कामों का भारी बोझ भी उठाना पड़ता है, इससे वे अनजाने ही चीजों की फिक्र और देखभाल करना, और अपनी, अपनी माँ और अपने परिवार की रक्षा करना जल्दी ही सीख लेती हैं। वे खुद की सुरक्षा को लेकर बहुत जागरूक होती हैं, और उनमें हीनभावना भी गहरे जड़ें जमाए होती है। इस खास परिवेश में बड़े होने पर, वे अनजाने ही अपने अंतरतम में गैर-इरादतन महसूस करती हैं मानो उनमें कोई कमी है, और इस भावना ने अतीत में उनके फैसले या निर्णयों को चाहे कभी भी गंभीरता से प्रभावित किया हो या न किया हो, फिर भी यह भावना उनमें होती है। संक्षेप में, एक बार व्यक्ति पूरा बड़ा हो जाए, तो उसके विचारों को निर्देशित करनेवाली ऐसी कुछ नकारात्मक भावनाएँ होंगी जो लंबे समय से मौजूद रही हैं और उनके मौजूद होने का हमेशा कोई कारण होगा। उदाहरण के लिए, यदि कुछ लड़के पिता के बिना, सिर्फ अकेली माता वाले घर में बड़े होते हैं, तो वे छोटी उम्र से ही अपनी माँ के साथ रोजमर्रा के घरेलू कामकाज सँभालना सीख लेते हैं, और उनका व्यक्तित्व थोड़ा माँ-सदृश हो जाता है। उन्हें लड़कियों की देखभाल करने में आनंद आता है, वे लड़कियों से सहानुभूति रखते हैं, उनके प्रति समावेशी महसूस करते हैं, उनकी रक्षा करना उन्हें अच्छा लगता है, और वे पुरुषों के प्रति अपेक्षाकृत पूर्वाग्रही होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें भीतर गहराई से पुरुषों के प्रति अरुचि और विरक्ति होती है, और यह मानकर कि सारे पुरुष लापरवाह और गैरजिम्मेदार होते हैं, सही और उचित काम नहीं करते, वे उनके साथ भेदभाव करते हैं। निस्संदेह, इन लोगों में कुछ ऐसे भी होते हैं, जो काफी सामान्य होते हैं। हालाँकि, यह अपरिहार्य है कि कुछ लोग ऐसे भी हों जिनमें पुरुषों या स्त्रियों के बारे में कुछ खास, अवास्तविक, और अनुपयुक्त विचार हों, और इन सबकी मानवता में कुछ न कुछ कमियाँ या खामियाँ होती हैं। यदि किसी को पता चल जाए कि तुममें ऐसी कोई समस्या है, और वे तुम्हारा ध्यान इस ओर खींचें, या आत्म-परीक्षा से तुम्हें स्वयं पता चले और तुम जान लो कि तुम्हारे अंदर ऐसी गंभीर नकारात्मक भावना है, और यह लोगों और चीजों के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण, तुम्हारे आचरण और कार्य के तरीके को लेकर तुम्हारे चुनावों और अभ्यास को पहले ही प्रभावित कर रही हैं, तो तुम्हें आत्मचिंतन कर स्वयं को जानना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में इस नकारात्मक भावना को पहचान कर उसे दूर करना चाहिए, इस नकारात्मक भावना के बंधनों, नियंत्रण और प्रभाव को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, अपनी मानवता के सुख, गुस्से, दुख, उल्लास, सोच, परख, जमीर और समझ को विकृत होने, उग्र रूप धरने या हद पार करने से रोकना चाहिए। इसके अलावा और कुछ? एक बार जब तुम इन चीजों को होने से रोकने का प्रयास कर चुके होगे, तो तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदत्त सामान्य मानवता के सहज-ज्ञान और स्वतंत्र इच्छा के साथ सामान्य मानवता के जमीर और समझ वाला सामान्य जीवन जीने में सक्षम हो जाओगे। यानी, तुम अपने विचारों, सहज-ज्ञान, स्वतंत्र इच्छा, फैसले की क्षमता और अपने जमीर और समझ को परमेश्वर द्वारा निर्धारित सामान्य मानवता के दायरे में रखने का प्रयास करोगे। इसलिए, तुम जिस नकारात्मक भावना के काबू में हो, तुम्हारी सामान्य मानवता के उस पहलू के साथ समस्या है। तुम इसे समझते हो, है न? (बिल्कुल।)
लोग सामान्य मानवता के सामान्य जमीर, समझ, सहज-ज्ञान और स्वतंत्र इच्छा तथा विभिन्न प्रकार की सामान्य मानवीय भावनाओं के आधार पर सत्य का अनुसरण कर पाते हैं। देखो, परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदत्त सामान्य मानवता के दायरे में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो अति, अत्यधिक और विकृत हो, और व्यक्तित्व का कोई विखंडन या विकार भी नहीं है। अत्यधिक होने की अभिव्यक्ति कैसे होती है? हमेशा सोचते रहना कि तुम किसी काम के नहीं हो, तुच्छ हो—क्या यह अत्यधिक नहीं है? क्या यह अवास्तविक नहीं है? (अवश्य है।) आँख बंद कर पुरुषों को ऊँचा मानना, मान लेना कि पुरुष नेक होते हैं, वे महिलाओं से अधिक सक्षम होते हैं, महिलाएँ अयोग्य होती हैं, किसी काम की नहीं होतीं, वे पुरुषों जितनी काबिल नहीं होतीं, और कुल मिलाकर वे पुरुषों जितनी अच्छी नहीं होतीं—क्या यह अत्यधिक नहीं है? (जरूर है।) चीजों को अति तक ले जाने की अभिव्यक्ति कैसे होती है? तुम सहज-ज्ञान से जो प्राप्त कर सकते हो, यह हमेशा उससे आगे जाने और हमेशा अपनी सीमाओं को आगे बढ़ाने की चाह है। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरे रात में सिर्फ पाँच घंटे सोकर भी दिन भर सामान्य रूप से काम करने में समर्थ हैं, तो सोचते हैं कि स्वयं उन्हें रात में चार घंटे सोकर देखना चाहिए कि वे कितने दिन खींच सकते हैं। कुछ लोग दूसरों को दिन में दो बार आहार लेकर भी ताकत से भरपूर, दिन भर काम करते हुए देखते हैं, तो सोचते हैं कि स्वयं उन्हें दिन में एक आहार लेना चाहिए—क्या यह शारीरिक रूप से हानिकारक नहीं है? हमेशा अपनी क्षमता से ज्यादा काबिल दिखने की कोशिश करने का क्या अर्थ है? तुम अपने ही शरीर के साथ होड़ क्यों लगा रहे हो? पचास वर्ष की उम्र के कुछ लोगों के दांत ढीले होते हैं, और वे हड्डियाँ या गन्ना भी नहीं चबा सकते। वे कहते हैं, “फिक्र मत करो, दो-चार दांत गिर जाएँ, तो भी कोई बात नहीं, मैं चबाता रहूँगा! मुझे इस मुश्किल को काबू में करना है। अगर मैंने इस पर काबू करने की कोशिश नहीं की, तो फिर मैं कमजोर और बेकार हूँ!” क्या यह अति करना नहीं है? (हाँ, जरूर है।) तुम्हें लगता है कि जो तुम नहीं पा सकते, जो तुम्हारी मानवता सहज-ज्ञान से प्राप्त नहीं कर सकती, वह तुम्हें पाना ही है। तुम उन्हें अपनी प्रतिभा, बुद्धिमत्ता, आध्यात्मिक कद, सीखी हुई चीजों, या अपनी उम्र और लिंग से हासिल नहीं कर सकते, लेकिन हासिल करने में असमर्थ होने के बावजूद भी तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसे हासिल करना चाहिए। कुछ महिलाएँ यह कहकर अपनी खूबियाँ बढ़ा-चढ़ा कर बताती हैं, “हम महिलाएँ वो सारे काम कर सकती हैं जो पुरुष कर सकते हैं। पुरुष इमारतें खड़ी कर सकते हैं, हम भी कर सकती हैं; पुरुष विमान उड़ा सकते हैं, हम भी उड़ा सकती हैं; पुरुष मुक्केबाजी कर सकते हैं, हम भी कर सकती हैं; पुरुष एक बोरी में दो सौ पौंड वजन ढो सकते हैं, हम भी ढो सकती हैं।” लेकिन अंत में, वे इससे इतनी कुचल जाती हैं कि उनके मुँह से खून निकलने लगता है। क्या वे अभी भी जितनी सक्षम हैं, उससे अधिक दिखने की कोशिश कर रही हैं? क्या यह अति नहीं है? क्या यह अत्यधिक नहीं है? ये सभी अभिव्यक्तियाँ अति और अत्यधिक हैं। बेतुके लोग अक्सर समस्याओं पर इसी तरह विचार करते हैं और लोगों, घटनाओं और चीजों को इसी दृष्टि से देखते हैं, और वे समस्याओं से भी इसी तरह पेश आकर सुलझाने की कोशिश करते हैं। इसलिए, यदि लोग इन अत्यधिक अभिव्यक्तियों का समाधान करना चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें इन अति वाली चीजों को खत्म कर उन्हें जाने देना चाहिए। इनमें से सबसे गंभीर हैं उनके अंतरतम की अति वाली विविध भावनाएँ। कुछ विशिष्ट हालात में, इन भावनाओं के कारण वे अक्सर अतिवादी विचार रखते हैं और अतिवादी तरीकों का प्रयोग करते हैं, जिससे वे भटक जाते हैं। इन अति वाली भावनाओं के कारण लोग न सिर्फ मूर्ख, अज्ञानी, और बेवकूफ दिखाई देते हैं, बल्कि वे रास्ता भटक कर नुकसान उठाते हैं। परमेश्वर को चाहिए सत्य का अनुसरण करनेवाला एक सामान्य व्यक्ति, वह सत्य का अनुसरण करने के लिए एक बेतुका, अत्यधिक और अति करनेवाला व्यक्ति नहीं चाहता। ऐसा क्यों है? जो लोग बेतुके और अति करने वाले होते हैं, वे चीजों को सही ढंग से समझने में भी सक्षम नहीं होते, सत्य को शुद्धता के साथ समझना तो दूर की बात है। जो लोग अति करनेवाले और विकृतियों की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे सत्य को समझने, उससे पेश आने और उसे अमल में लाने के लिए भी चरम विधियों का प्रयोग करते हैं—यह उनके लिए अत्यंत खतरनाक और परेशानी खड़ी करने वाला होता है। उन्हें बहुत नुकसान होता है और इससे परमेश्वर का भी गंभीर अनादर होता है। परमेश्वर को जरूरत नहीं है कि तुम अपनी सीमाओं के परे जाओ, या सत्य पर अमल करने के लिए अति और अतिवादी विधियों का प्रयोग करो। इसके बजाय, वह चाहता है कि जिन परिस्थितियों में तुम्हारी मानवता हर दृष्टि से सामान्य हो और मानवता के उस दायरे में जिसे तुम समझकर हासिल कर सकते हो, उनमें तुम परमेश्वर के वचनों को अमल में लाओ, सत्य पर अमल करो, और उसकी अपेक्षाएँ पूरी करो। अंतिम लक्ष्य है तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव करना, धीरे-धीरे तुम्हारे सभी विचारों और नजरियों में सुधार लाना, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की तुम्हारी समझ और परमेश्वर के बारे में तुम्हारे ज्ञान में गहराई लाना, और इस तरह परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण को और अधिक ठोस और व्यवहारिक बनाना—इसी तरीके से तुम उद्धार पा सकोगे।
क्या मेरे लिए इस विषय पर संगति करना अर्थपूर्ण है कि विविध नकारात्मक भावनाओं को कैसे जाने दें? (बिल्कुल।) ऐसा करने के पीछे मेरा प्रयोजन क्या है? वह यह है कि भले ही ये विविध नकारात्मक भावनाएँ बहुत लंबे समय पहले पैदा हुई हों, या ये अभी वर्तमान में पैदा हो रही हों, तुम उनसे सही ढंग से पेश आने में सक्षम हो पाओ, उन्हें सही ढंग से दूर कर सुलझा सको, इन गलत नकारात्मक भावनाओं को पीछे छोड़ दो, और धीरे-धीरे ऐसे मुकाम पर पहुँचो जहाँ चाहे जो भी हो, तुम इन नकारात्मक भावनाओं में न फँसो। जब विविध नकारात्मक भावनाएँ फिर से पैदा होंगी, तो तुममें जागरूकता और विवेक होगा, तुम उनसे स्वयं को होनेवाली हानि जानोगे और निस्संदेह तुम्हें धीरे-धीरे उन्हें जाने भी देना चाहिए। जब ये भावनाएँ पैदा होंगी, तब तुम आत्म-नियंत्रण का अभ्यास कर सकोगे, बुद्धि का प्रयोग कर सकोगे, और तुम उन्हें जाने दे सकोगे, या उन्हें सुलझा कर संभालने के लिए सत्य खोज सकोगे। किसी भी स्थिति में, इनका तुम्हारे सही विधियों, सही रवैये, और लोगों और चीजों के प्रति और अपने आचरण और कार्य के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाने पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रकार, सत्य के अनुसरण के तुम्हारे मार्ग की रुकावटें और बाधाएँ और भी कम हो जाएँगी, तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सामान्य मानवता के दायरे में बाधारहित या कम बाधाओं के साथ सत्य का अनुसरण करने में सक्षम हो सकोगे, और हर प्रकार की स्थितियों में अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर पाओगे। क्या अब विविध नकारात्मक भावनाओं को दूर करने के तरीके के बारे में तुम्हें आगे का रास्ता मिल गया है? सबसे पहले, स्वयं द्वारा प्रकट भ्रष्टता के बारे में आत्म-परीक्षण करो और देखो कि क्या ये नकारात्मक भावनाएँ तुम्हें भीतर से प्रभावित कर रही हैं और क्या तुम लोगों और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण और अपने आचरण और कार्य के तरीके पर इन नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव पड़ने दे रहे हो। इसके अतिरिक्त, तुम अपने अंतरतम के भीतर स्मृति की गहराई में पैठी हुई बातों को जाँचो और देखो कि क्या तुम्हारे साथ घटी इन चीजों ने कुछ दाग या निशानियाँ छोड़ी हैं, और क्या ये तुम्हारे लोगों और चीजों को देखने और तुम्हारे आचरण और कार्य की सही विधियों और तरीकों के प्रयोग को निरंतर नियंत्रित कर रही हैं। इस प्रकार, अतीत में तुम्हारे आहत होने पर पैदा हुई विविध नकारात्मक भावनाओं के उभर आने के बाद तुम्हें यह करना चाहिए कि सत्य के अनुसार एक-एक कर उनका विश्लेषण करो, परखो, और सुलझाओ। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को कई बार अगुआ बनने के लिए पदोन्नत किया गया, लेकिन फिर कई बार उनका स्थान किसी और को दे दिया गया, या उन्हें किसी और काम पर लगा दिया गया, जिससे उनमें एक अत्यधिक नकारात्मक भावना पैदा हो गई। पदोन्नत होने और फिर उनका स्थान किसी और को दे दिए जाने या उन्हें कोई दूसरा काम सौंप दिए जाने की बार-बार होने वाली इस पूरी प्रक्रिया के दौरान वे कभी नहीं समझ पाते कि ऐसा आखिर क्यों हो रहा है, और इसलिए वे कभी नहीं जान पाते कि उनकी कमियाँ और खामियाँ, उनकी स्वयं की भ्रष्टता, या उनके उल्लंघनों की जड़ में क्या है। वे कभी भी इन समस्याओं को दूर नहीं करते, उनके भीतर गहरे कहीं एक छाप पड़ जाती है और वे सोचते हैं, “परमेश्वर का घर इस तरह लोगों का उपयोग करता है। काम होने पर तुम ऊपर उठाए जाते हो, और काम न होने पर हटा दिए जाते हो।” ऐसी भावना वाले लोगों का इस समाज में स्थान हो सकता है जहाँ वे अपनी भड़ास निकाल सकते हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में उन्हें लगता है कि भड़ास निकालने का कोई स्थान नहीं है, कोई तरीका नहीं है, कोई माहौल नहीं है, और इसलिए बस उसे निगल सकते हैं। यह निगल जाना असल में जाने देना नहीं है, बल्कि यह उनका इसे भीतर गहराई में दफन कर देना है। कुछ ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि एक दिन वे अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाएँगे, और अगर उनके भाई-बहन यह देखेंगे तो वे उन्हें फिर से अगुआ चुन लेंगे; कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शांति से अपना कर्तव्य निभाते रहना चाहते हैं, और दोबारा अगुआ नहीं बनना चाहते, वे कहते हैं, “कोई भी मेरी पदोन्नति करे, मैं अगुआ नहीं बनूँगा। मैं नाक नहीं कटा सकता, और वह दर्द नहीं सह सकता। कोई अगुआ बने, किसी का स्थान कोई ले, मेरी बला से। मैं दोबारा अगुआ नहीं बनूँगा, ताकि मुझे बदल दिए जाने के कारण दुख न सहना पड़े और ऐसा न लगे कि मुझ पर हमला हुआ है। मैं बस अपना काम ठीक ढंग से करूँगा, और यह जिम्मेदारी उठाऊँगा, और मेरी कौन-सी मंजिल और नियति होगी, यह मैं परमेश्वर के हाथों में सौंप दूँगा—यह परमेश्वर पर है।” यह किस प्रकार की भावना है? यह कहना पूरी तरह से सही नहीं कि यह हीनभावना है; मेरे ख्याल से इसे अवसाद कहना उचित होगा—अवसाद, मायूसी, अलग-थलग और दबा-कुचला महसूस करना। वे सोचते हैं, “परमेश्वर का घर ऐसा स्थान है जहाँ न्याय कायम होता है, फिर भी मुझे अक्सर पदोन्नत कर बदल दिया जाता है। मुझे लगता है कि मेरे साथ बहुत गलत हुआ है, लेकिन इसके विरुद्ध मैं बहस नहीं कर सकता, इसलिए मैं बस समर्पण कर दूँगा! यह परमेश्वर का घर है, मैं अपने मामले की पैरवी करने के लिए और कहाँ जाऊँ? मैं इस तरह रहने का आदी हूँ। दुनिया में कोई भी मुझे कुछ नहीं मानता और परमेश्वर के घर में भी वैसा ही है। भविष्य में क्या होगा, इसके बारे में मैं सोचूंगा ही नहीं।” वे दिन भर उदास रहते हैं, किसी भी चीज में रुचि नहीं ले पाते, वे जो भी करते हैं उसे बस यूँ ही निपटाते हैं, जो उनकी क्षमता में है, उसमें से थोड़ा-सा ही करते हैं और कुछ नहीं; वे अध्ययन नहीं करते, कोई प्रयास नहीं करते, वे किसी भी विषय पर गहराई से नहीं सोचते, और वे कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। अंत में, वे तेजी से शक्तिहीन हो जाते हैं, उनका शुरुआती उत्साह ठंडा पड़ जाता है, वे सोचते हैं कि उनका किसी भी चीज से लेना-देना नहीं, और वे पहले जो थे, वह खत्म हो गया। क्या यह मायूसी नहीं है? (हाँ, जरूर है।) कोई उनसे पूछता है, “तुम्हारी जगह किसी और को दे देने पर कैसा लगता है?” वे उत्तर देते हैं, “हाँ, मेरी योग्यता निचले स्तर की है। मुझे कैसा लगना चाहिए? मुझे नहीं पता।” और एक दूसरा व्यक्ति उनसे पूछता है, “अगर तुम्हें फिर से अगुआ चुना जाना हो, तो क्या तुम बनना चाहोगे?” और वे उत्तर देते हैं, “मैं ऐसा किस लिए करना चाहूँगा? यह व्यावहारिक नहीं है! मेरी क्षमता निचले स्तर की है और मैं परमेश्वर के इरादे संतुष्ट नहीं कर सकता।” यह कहना कि वे मायूस हैं और उन्होंने हार मान ली है, पूरी तरह से वास्तविक नहीं है। वे बस हमेशा उदास, अवसादग्रस्त, अलग-थलग और मायूस महसूस करते हैं। वे अपने मन की बात किसी से भी नहीं कहना चाहते, खुलना नहीं चाहते, और अपनी समस्याओं, दिक्कतों, भ्रष्ट दशाओं और भ्रष्ट स्वभावों को दूर नहीं करना चाहते—वे बस एक साहसी चेहरा दिखाते हैं। यह कौन-सी भावना है? (अवसाद।) वे एक विचार से भी चिपके रहते हैं : “मैं वो करूँगा जो परमेश्वर मुझसे कहेगा, और कलीसिया मेरे लिए जिस भी काम की व्यवस्था करेगी, उसे कड़ी मेहनत से करूँगा। अगर मैं काम पूरा न कर सका, तो मुझे दोष मत देना क्योंकि मैंने खुद ही स्वयं को कम क्षमता वाला नहीं बनाया!” ऐसे व्यक्ति दरअसल परमेश्वर में सच में विश्वास रखते हैं, और उनमें संकल्प होते हैं। वे कभी भी परमेश्वर को नहीं छोड़ेंगे, कभी भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ेंगे, और हमेशा परमेश्वर का अनुसरण करेंगे। बात बस इतनी है कि वे जीवन-प्रवेश या आत्मचिंतन, या अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने पर ध्यान नहीं देते। यह किस प्रकार की समस्या है? क्या इस तरह विश्वास रखकर वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या यह उनके लिए परेशानी खड़ी करने वाली बात नहीं है? (हाँ, जरूर है।) अगर उन्हें इतना मारा जाए कि वे मर भी जाएँ तो भी उनके लिए यह कहना संभव नहीं है कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते। लेकिन, कुछ खास हालात, कुछ विशेष स्थितियों और परिदृश्यों का अनुभव करने के कारण और चूँकि कुछ खास लोगों ने उनसे कुछ बातें कह दी हैं, वे ऐसे गिर पड़े हैं और मुरझा गए हैं कि वे दोबारा खड़े नहीं हो पा रहे हैं, और कोई शक्ति नहीं जुटा पा रहे हैं। क्या यह नहीं दर्शाता कि उनमें नकारात्मक भावनाएँ हैं? (बिल्कुल।) नकारात्मक भावनाएँ होना साबित करता है कि उनके साथ कोई समस्या है। और जब कोई समस्या हो तो तुम्हें उसे सुलझाना चाहिए। जिन समस्याओं को सुलझाया जाना चाहिए, उन्हें सुलझाने की हमेशा एक विधि और एक मार्ग होता है—ऐसा नहीं है कि उन्हें सुलझाना असंभव है। यह बस इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम समस्या का सामना कर सकते हो, और तुम उसे सुलझाना चाहते हो या नहीं। अगर तुम चाहते हो, तो फिर इतनी कठिन कोई भी समस्या नहीं है जिसे सुलझाया नहीं जा सकता। तुम परमेश्वर के समक्ष आओ, उसके वचनों में सत्य खोजो, और तुम हर कठिनाई को दूर कर सकते हो। लेकिन तुम्हारा अवसाद, निराशा, मायूसी और दमन तुम्हारी समस्या सुलझाने में तुम्हारी मदद तो करते नहीं, बल्कि इसके विपरीत ये तुम्हारी समस्याओं को और अधिक गंभीर और बद से बदतर बना सकते हैं। क्या तुम लोग यह मानते हो? (हाँ।) इसलिए, फिलहाल तुम जिन भी भावनाओं से चिपके हुए हो, या जिन भी भावनाओं में अब डूबे हो, मैं आशा करता हूँ कि तुम इन गलत भावनाओं को पीछे छोड़ पाओगे। तुम्हारे कोई भी कारण या बहाने हों, जैसे ही तुम एक असामान्य भावना में डूबते हो, वैसे ही तुम एक अति भावना में डूब जाते हो। जब तुम इस अति भावना में डूब जाते हो, तो यह यकीनन तुम्हारे अनुसरण, तुम्हारे संकल्प, कामनाओं और साथ ही निस्संदेह, तुम जीवन में जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हो, उन्हें नियंत्रित करेगी, और इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं।
अंत में, एक ऐसी बात है जो मैं तुम सबको बताना चाहता हूँ : एक मामूली-सी भावना या एक सरल, तुच्छ भावना को अपने शेष जीवन को उलझाने मत दो, जिससे वह तुम्हारी उद्धार-प्राप्ति को प्रभावित कर दे, उद्धार की तुम्हारी आशा को नष्ट कर दे, समझे? (बिल्कुल।) तुम्हारी यह भावना सिर्फ नकारात्मक नहीं, और सटीक रूप से कहें तो यह वास्तव में परमेश्वर और सत्य के विरुद्ध है। तुम सोच सकते हो कि यह तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर की एक भावना है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, यह बस भावना की एक मामूली बात नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरोध की पद्धति है। यह नकारात्मक भावनाओं द्वारा चिह्नित पद्धति है जो लोग परमेश्वर, उसके वचनों और सत्य का प्रतिरोध करने में प्रयोग करते हैं। इसलिए, यह मानकर कि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, मुझे आशा है कि तुम बारीकी से आत्म-परीक्षण करोगे और देखोगे कि क्या तुम इन नकारात्मक भावनाओं को पाले हुए हो, और जिद्दी होकर बेवकूफी से परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसके साथ होड़ लगा रहे हो। यदि परीक्षा के जरिये तुमने उत्तर पा लिया है, यदि तुम्हें आभास हो गया है और तुम एक स्पष्ट जागरूकता पा चुके हो, तो सबसे पहले मैं तुमसे आग्रह करूँगा कि इन भावनाओं को जाने दो। इन्हें सँजोकर मत रखो, या इन्हें मत पालो, क्योंकि ये तुम्हें नष्ट कर देंगी, तुम्हारी मंजिल बरबाद कर देंगी, और सत्य के अनुसरण और उद्धार प्राप्त करने की तुम्हारी आशा को खत्म कर देंगी। इसी स्थान पर आज मैं इस संगति का समापन करूँगा।
24 सितंबर 2022
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