सत्य का अनुसरण कैसे करें (1) भाग दो
वे विभिन्न भावनाएँ जिन्हें त्यागने की जरूरत है, जिन पर आज हम चर्चा कर रहे हैं, वे लोगों की आत्मा में गहराई से पैठी हुई हैं। इन चीजों का तुम पर पड़नेवाला प्रभाव अस्थायी नहीं होता, बल्कि उनका प्रभाव दूरगामी और गहन होता है। जब आधी रात को तुम सो न पाओ, जब तुम बिल्कुल अकेले हो, तब वे लोग, घटनाएँ और चीजें जिनके कारण तुममें नकारात्मक भावनाएँ पैदा हुईं और जो तुम्हारी स्मृति में गहरी जड़ें जमाई हुई हैं, वे थोड़ा-थोड़ा कर तुम्हारे मन की सतह पर आने लगती हैं। कोई शब्द, ध्वनि, यहाँ तक कि कोई श्राप, पिटाई, या दृश्य, कोई चीज, लोगों का समूह, या आरंभ से अंत तक कोई घटनाक्रम—तुम्हारी स्मृति में गहरे पैठे ये सभी लोग, घटनाएँ, और चीजें जिन्होंने तुम्हारे भीतर हर प्रकार की नकारात्मक भावनाएँ पैदा कीं, तुम्हारे दिमाग में एक फिल्म की तरह चलने लगती हैं। ये निरंतर बार-बार तब तक चलती रहती हैं, जब तक कि तुम अनजाने में ही अपनी आत्मा में गहरे पैठी इन नकारात्मक भावनाओं में, और उस पल में वापस नहीं चले जाते जिसने तुम्हारी भावनाओं, मानवता, व्यक्तित्व और भावी जीवन पर प्रभाव डाला। जब तुम बिल्कुल अकेले होते हो, मुश्किलों से घिरे होते हो, मायूस होते हो, और जब तुम्हें कोई फैसला करना होता है, तब तुम कुछ नहीं कर पाते और खुद को पूरी तरह समेट लेते हो, हर किसी से बचते हो, अपने अंतरतम में, तुम्हें पीड़ा देनेवाली उस स्थिति, घटना और लोगों के समूह में वापस चले जाते हो। हालाँकि इन लोगों, घटनाओं और चीजों ने तुम्हें आक्रांत महसूस कराया, तुम्हारा दिल दुखाया और तुम्हारे भीतर हर तरह की नकारात्मक भावनाएँ भर दीं, फिर भी जब तुम उदास और मायूस होते हो, विफलता का सामना करते हो, तुम्हारी काट-छाँट भी हो रही हो, या भाई-बहनों ने तुम्हें ठुकरा दिया हो, तब तुम उस नकारात्मक भावना में लौटे बिना नहीं रह पाते जो तुम्हारे जीवन को प्रभावित करती है, चाहे वह मायूसी, नफरत, क्रोध हो या हीनता हो। हालाँकि इन भावनाओं ने तुम्हें हर प्रकार की पीड़ा दी, या तुम्हें बेचैन किया, तुम्हें रुलाया या चिड़चिड़ा बनाया, फिर भी तुम उस पल महसूस की हुई नकारात्मक भावना में हमेशा वापस लौटने से खुद को नहीं रोक पाते। जब तुम उस पल में वापस लौटते हो, तो तुम पर उस नकारात्मक भावना का प्रभाव फिर एक बार तीव्र हो जाता है। जब यह नकारात्मक भावना तुम्हें प्रभावित करती है, तुम्हें याद दिलाती और बार-बार सतर्क करती है, तो यह अदृश्य रूप से तुम्हारे परमेश्वर के वचन सुनने और सत्य सिद्धांत समझने को बाधित करती है। इन नकारात्मक भावनाओं के दोबारा तुम्हारे अंतरतम में उठने, तुम्हारे विचारों पर हावी हो जाने से सत्य में तुम्हारी रुचि कमजोर होती जाएगी, विरक्ति में भी बदलने लगेगी, या हो सकता है कि अवज्ञा की भावना पैदा होने लगे। अतीत में तुम्हें मिली पीड़ा और अनुचित व्यवहार के कारण हो सकता है कि तुम मानवजाति और समाज को अधिक बैर दृष्टि से देखने लगो, और जो कुछ हो चुका है, उसके साथ ही जो भविष्य में होने वाला है, उससे नफरत करो। ये भावनाएँ तुम्हारे दिल में निरंतर अभिव्यक्त होती हैं, और बारंबार तुम्हारी भावनाओं, दशा और हालत को प्रभावित करती हैं। वे कर्तव्य निर्वाह के समय की तुम्हारी भावना, साथ ही कर्तव्य-निर्वहन में तुम्हारे रवैये और दृष्टिकोण और सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा और संकल्प को भी बारंबार प्रभावित करती हैं। कभी-कभी तुमने सत्य का अनुसरण करने, और कभी मायूस न होने, खुद के अच्छे न होने पर कभी विश्वास न करने और कभी पीछे न हटने का संकल्प बस लिया ही होता है; लेकिन जब कोई क्षणिक नकारात्मक भावना तुम्हारे दिल में घर कर लेती है, तो सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा पल भर में बिना किसी चिह्न के पूरी तरह से गायब हो सकती है। जब ऐसी स्थिति में सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा बिना किसी चिह्न के गायब हो जाती है, तब तुम्हें लगता है कि सत्य का अनुसरण अरुचिकर है, और परमेश्वर में विश्वास रखने और बचाए जाने का तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता है। इस प्रकार की भावना और दशा के पैदा होने के कारण, तुम्हारे मन में परमेश्वर के वचनों को अमल में लाने और सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प या आकांक्षा होना तो दूर, फिर से परमेश्वर के समक्ष आने, और परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करने या परमेश्वर के वचन सुनने की भी इच्छा नहीं होती। यह है वो जबरदस्त व्यवधान और प्रभाव, जो इन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने वाले लोगों पर पड़ता है। अधिक सटीक ढंग से कहें, तो ये लोगों को बाधित करती और हानि पहुँचाती हैं और समय-समय पर, जो थोड़ा-सा आत्मविश्वास तुमने अर्जित किया है, और आचरण के थोड़े-से सिद्धांत जो तुमने अभी-अभी समझे हैं, उन्हें वे तुमसे छीनकर शून्य में बदल देती हैं। पल भर में, ये तुम्हें अपने अंतरतम में परमेश्वर के अस्तित्व, उसके आशीष, उसकी संप्रभुता और तुम्हारे लिए उसके पोषण को समझ पाने में असमर्थ बना देती हैं, और उसी क्षण इनमें से कोई भी एक नकारात्मक भावना तुम्हारे अंदर भर जाती है। इन नकारात्मक भावनाओं के भर जाने पर, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें फौरन भीतर से काबू कर लेंगे। भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में आ जाने के बाद तुम तुरंत एक अलग व्यक्ति बन जाते हो, और अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों को एक अलग चेहरा दिखाते हो। पहले वाला तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा धैर्य जा चुका होता है, कष्ट सहने, कीमत चुकाने, कठिनाइयाँ सहने और कड़ी मेहनत करने की शक्ति जा चुकी होती है, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए एक समय का खाना न खाने और थोड़ा कम सोने की अभिप्रेरणा जा चुकी होती है, और इसका स्थान प्रत्येक व्यक्ति के प्रति शत्रुता ले लेती है। सबके प्रति शत्रुता की तुम्हारी इस भावना का पहला स्रोत क्या है? यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से आती है, मगर साथ ही स्थितियों, लोगों और घटनाओं और चीजों से भी आती है जिनका तुमने अतीत में अनुभव किया है, और जिनसे तुम्हारे भीतर नकारात्मक भावनाएँ पैदा हुई हैं। तुम कहते हो, “मैं दूसरों को बरदाश्त करता हूँ, मगर मुझे कौन बरदाश्त करता है? मैं दूसरों को समझता हूँ, पर मुझे कौन समझता है? मेरे माता-पिता और भाई-बहन भी मुझे नहीं समझते! दूसरे तमाम लोग गलतियाँ करते हैं, मैं भी तो कर सकता हूँ! दूसरे लोग काट-छाँट होने पर नकारात्मकता की भड़ास निकालते हैं, तो मैं क्यों नहीं? दूसरे लोग प्रभावशाली बनने और पद के लिए होड़ लगाते हैं, तो मैं क्यों नहीं? अगर तुम कर सकते हो, तो मैं भी कर सकता हूँ। दूसरे लोग धोखा देते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय अपनी जिम्मेदारियों से जी चुराने की कोशिश करते हैं, तो मैं भी करूँगा। दूसरे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो मैं भी नहीं करूँगा। दूसरे लोग सिद्धांतों के बिना कार्य करते हैं, तो मैं भी करूँगा। दूसरे लोग परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो मैं भी नहीं करूँगा। मैं उसी राह चलूँगा जिस पर सब चलते हैं। इसमें गलत क्या है?” यह किस प्रकार की अभिव्यक्ति है? हम इसे तुम्हारी सोच या जो स्वभाव तुम दर्शाते हो उसके आधार पर देखें, तो यह तुम्हारे पूरी तरह पलट जाने से कुछ कम नहीं है, मानो तुम कोई और ही इंसान बन गए हो। यहाँ क्या हो रहा है? इसका मूल कारण यह है कि तुम भीतर से बदल गए हो। तुम ऊपर से पहले जैसे दिख सकते हो, तुम्हारे रोजमर्रा के कामों में कोई बदलाव नहीं आया है, तुम्हारे बोलने का लहजा नहीं बदला है, तुम्हारा रंग-रूप नहीं बदला है, और कोई भी तुम्हें भटका नहीं रहा है, न पीछे से उकसा रहा है, तो फिर एकाएक भावनाओं का यह उफान क्यों? एक कारण यह है कि यह तुम्हारे दिल में गहरे पैठी नकारात्मक भावनाओं की वजह से हुआ है। जो व्यक्ति, अपने भीतर नफरत और गुस्से की नकारात्मक भावनाएँ बसाए हुए है, वह अच्छी दशा होने पर अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करेगा, परमेश्वर के वचन पढ़ेगा, और यह सुनिश्चित करेगा कि सत्य का अनुसरण करते समय और अपना कर्तव्य निभाते समय सब-कुछ सामान्य ढंग से हो। अगर किसी ऐसी चीज से उसका सामना हो जिसे वह पसंद नहीं करता, या काम या जीवन में उसके सामने कोई अवरोध, विफलता या शर्मिंदगी आती है, या उसकी नाक कट जाती है या उसके हितों को हानि होती है, तो उसके भीतर की नकारात्मक भावनाओं से उपजी नफरत और गुस्से के कारण वह गुस्से से पागल होकर उन्मत्त हो जाता है। शायद पहले उसने कुछ असामान्य घटनाओं का सामना किया था, जैसे कि दुर्व्यवहार, बुरे लोगों द्वारा पिटाई, उसकी संपत्ति जब्त कर ली गयी हो, उसे बुरे लोगों ने धमकाया हो या तिरस्कृत भी किया हो; हो सकता है कुछ लोगों के सहयोगियों या वरिष्ठों ने काम में उनके लिए मुश्किलें खड़ी की हों, कुछ लोगों ने कमजोर शैक्षणिक प्रदर्शन, घर के कमजोर हालात, या उनके माता-पिता के किसान या समाज के निचले तबके से होने के कारण, सहपाठियों और शिक्षकों का अनुचित व्यवहार झेला हो, इत्यादि। जब कोई व्यक्ति समाज में हर प्रकार का अनुचित व्यवहार सहता है, उसके मानव अधिकार छीन लिए जाते हैं, या उसके हितों को हर लिया जाता है या उससे उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है, तो उसके दिल की गहराई में स्वाभाविक रूप से नफरत के बीजों की बुआई हो जाती है, और स्वभावतः इस नफरत को वह समाज, मानवजाति और अपने परिवार, मित्रों और रिश्तेदारों के प्रति अपने नजरिये में भी ले आता है। जिन लोगों के दिलों में इस नफरत के बीज बोये होते हैं, उनके दृष्टिकोण पर इस नफरत का असर होता है और स्वाभाविक रूप से उनकी भावनाएँ भी इस रंग में रंग जाती हैं।
जब नफरत ने किसी व्यक्ति के दिल में गहरी जड़ें जमा ली हों, तो स्वाभाविक रूप से यह एक भावना बन जाती है, और जब कोई नफरत की इस भावना में जीता है, तो मानवजाति और किसी भी मामले के बारे में उसका परिप्रेक्ष्य उचित नहीं रह जाता। लोगों और चीजों के बारे में उसके विचार, अपने सामान्य रूप से बदलकर विकृत और विपरीत हो जाते हैं। वह किसी भी सामान्य और उचित व्यक्ति, घटना या चीज का सही बोध कर पाने में सक्षम नहीं रह जाता, और उनकी आलोचना और निंदा भी करता है। वह हमेशा अपनी शिकायतों और नफरत की भड़ास निकालने का मौका ढूँढ़ता है। उसे आशा होती है कि एक दिन उसके पास सत्ता होगी, प्रभाव होगा, और वह इन सभी शिकायतों का समाधान करेगा और जिन लोगों ने अतीत में उसे धमकाया है, उसका दिल दुखाया है, उनसे बदला ले सकेगा। वैसे फिलहाल उनके पास ये हासिल करने के कोई उपयुक्त साधन न होने के कारण इनमें से कुछ लोग आखिर परमेश्वर में विश्वास रखने लगेंगे। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद वे सोचते हैं, “ओह, अब मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, अब मैं सिर उठाकर चल सकता हूँ। मैं अपने फैसले परमेश्वर को सौंप दूँगा ताकि इन बुरे लोगों को सबक मिल सके। क्या बात है!” तो, अब परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण वे नफरत और गुस्से को अपने भीतर गहराई में दबा देते हैं, खुद को खपाने में कड़ी मेहनत करते हैं, कीमत चुकाते हैं, कष्ट सहते हैं, परमेश्वर के घर में यहाँ-वहाँ दौड़-भागकर काम करते हैं, इस आशा में कि एक दिन उनकी मेहनत उनका भाग्य संवारेगी और चीजें पलट जाएँगी, और वह दिन आने पर जब वे कमजोर न रहकर शक्तिशाली बन जाएँगे, तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि जिन लोगों ने उन्हें डराया-धमकाया है, उनका तिरस्कार किया है, उन्हें दंड मिले। ये सब करने के पीछे उनका उद्देश्य है अपनी आँखों से उन लोगों को मिलनेवाला दंड और प्रतिकार देखना जिन्होंने उन्हें ऐसी अंतहीन पीड़ा दी और अपमान किया था। वे अपनी इस भावना को परमेश्वर में अपनी आस्था, कीमत चुकाने, और खुद को खपाने में भी ले जाते हैं। ऊपर से लगता है मानो वे कभी शिकायत नहीं करते, न ही उनकी कोई इच्छा या अपेक्षा है, जैसे वे पूरी लगन से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में जुटे हुए हैं, और जितने भी कष्ट सहने पड़ें, उनके लिए ज्यादा नहीं हैं। मगर वास्तविकता में, उनके दिल में गहरे पैठी नफरत और गुस्से की वे भावनाएँ अनसुलझी रह जाती हैं, और उन्होंने उन्हें जाने नहीं दिया है। जैसे ही उन्हें कोई अपनी राय देता है, उनके भ्रष्ट स्वभाव की ओर इशारा करता है, तो वे फौरन अवचेतन रूप में नफरत और गुस्से की अपनी भावनाओं में वापस लौट जाते हैं ताकि वे इस समस्या का सामना कर उसे सुलझा सकें। वे सोचते हैं, “क्या तुम मुझे नीचा दिखा रहे हो? क्या तुम मुझे निष्कपट समझकर डरा-धमका रहे हो। बहुत सारे लोग मुझे डराते-धमकाते हैं, मगर तुम रुको और देखो उनका क्या हश्र होनेवाला है!” कोई जरा-सा भी कुछ कह दे तो वे आहत हो जाते हैं, भले ही वह बात जान-बूझ कर नहीं कही गई हो। लेकिन अगर वह व्यक्ति किसी दुखती रग पर हाथ रख देता है, तो नफरत और गुस्से की उनकी भावनाएँ सिर उठा लेती हैं, जिससे वे अनजाने ही सभी चीजों के बारे में नफरत करने की भावना में दुबक जाते हैं। स्पष्ट है कि इस दृष्टिकोण, इस भावना ने लोगों और चीजों के प्रति उनके परिप्रेक्ष्य और रवैये, और उनके आचरण और कार्य करने के तरीकों और साधनों को प्रभावित कर दिया है। उन्हें चाहे कोई भी व्यक्ति न्यायसंगत राय और सुझाव दे, वे हमेशा सोचते हैं, “ये मुझे नीची नजरों से देख रहे हैं, और मुझे डराना-धमकाना चाहते हैं। क्या उन्हें लगता है कि मुझे आसानी से कहीं भी धकेला जा सकता है?” वे स्थिति से निपटने के लिए इस दृष्टिकोण और काम के इस तरीके का प्रयोग करते हैं, और ऐसा करते समय नफरत और गुस्से की भावनाएँ उनके दिल में और गहरे पैठ जाती हैं। एक बार जब नफरत और गुस्से की भावनाएँ उनके अंतरतम में गहराई से बैठ जाती हैं, तो वे निरंतर बढ़ती रहती हैं और व्यक्ति हर प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करने के लिए इनका प्रयोग करता रहता है, और ये उन्हें निरंतर याद दिलाती रहती हैं कि उन्हें सभी से नफरत करनी है, और कोई भी उनके साथ अच्छा नहीं है। भले ही पल भर के लिए वे मान लें कि कोई व्यक्ति उनके साथ अच्छा है, तो भी बहुत जल्द अनायास वे अवचेतन रूप से खुद से कहेंगे, “ऐसा मत सोच। सचमुच नेक सिर्फ परमेश्वर है, और कोई भी नहीं। सभी लोग तेरे दुर्भाग्य पर खुश होते हैं, और कोई तेरा भला नहीं सोचता। उन्हें लगता है तू निष्कपट है, इसीलिए वे तुझे डराते-धमकाते हैं, और जब वे तुझे किसी काम में सफल होते देखते हैं, तो तेरी खुशामद कर तेरा अनुग्रह पाने की कोशिश करते हैं। इसलिए किसी पर विश्वास मत कर, किसी को भी दया से मत देख। तुझे दूसरे लोगों के प्रति सतर्क और शक्की होना चाहिए।” कोई उनसे एक शब्द भी कहता है, तो वे यह सोचकर उसका विश्लेषण करते हैं, “क्या यह मुझे परेशान करना चाहता है? उसने ऐसा क्यों कहा? क्या वह मुझ पर हमला करना चाहता है और किसी चीज के लिए मुझसे बदला लेना चाहता है? क्या वह मुझे डराना-धमकाना चाहता है?” संदेह, नफरत और गुस्से की ये भावनाएँ उसे बार-बार याद दिलाती हैं और हर प्रकार के लोगों, घटनाओं, और चीजों को देखने और उनसे निपटने के लिए अवचेतन रूप से इन भावनाओं का प्रयोग करवाती हैं, और फिर भी वह स्वयं अवगत नहीं होता कि ये सभी नकारात्मक भावना के प्रकार हैं। ये नकारात्मक भावनाएँ उसकी परख पर सख्त नियंत्रण करती हैं और उसकी सोच को कसकर बाँध लेती हैं, किसी भी व्यक्ति, घटना या चीज को सही परिप्रेक्ष्य या दृष्टिकोण से नहीं देखने देतीं। जब व्यक्ति इन नकारात्मक भावनाओं के फेर में जीने लगता है, तो उनके नियंत्रण से बच पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। इन नकारात्मक भावनाओं को त्यागने से पहले व्यक्ति अनजाने ही इनके अधीन जीता रहता है, उन्हीं के द्वारा लोगों, घटनाओं और चीजों को देखता है, और नकारात्मक भावनाओं से पैदा हुए गलत विचारों के नजरिये से लोगों, घटनाओं और चीजों को देखता है। अव्वल तो इससे अनिवार्य रूप से उग्रवाद, संदेह, शक और गर्ममिजाजी पनपेगी, और वह दूसरों को बैर-भाव से देखकर उन पर हमला भी करेगा। ये नकारात्मक भावनाएँ व्यक्ति के दिल के भीतर की सोच, उसके विचारों, और उसके प्रत्येक शब्द और कार्य को निर्देशित करती हैं। इसीलिए इन नकारात्मक भावनाओं में फँस जाने पर, यदि वह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करनेवाला हुआ, तो ये नकारात्मक भावनाएँ उसके दिल में व्यवधान पैदा करती हैं और उसके दिलो-दिमाग पर असर डालती हैं, जिस कारण उसका सत्य पर अमल बहुत कम हो जाता है। इन नकारात्मक भावनाओं से होनेवाली मिलावट, व्यवधान और नुकसान के कारण जिस सत्य पर वह अमल कर पाता है वह सीमित हो जाता है, फिर जब किसी स्थिति से उसका सामना होता है तो वह हमेशा अपनी भावनाओं से प्रभावित हो जाता है। बेशक, इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह है कि वह इन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के प्रभाव में आ जाता है, और इसलिए सत्य का अनुसरण करना उसके लिए थकाऊ हो जाता है। वह न तो सामान्य मानवता के जमीर और समझ का प्रयोग कर पाता है, न ही परमेश्वर द्वारा सृजित स्वतंत्र इच्छा और सहज ज्ञान का, न ही आसपास के लोगों और चीजों की परख, और आसपास के लोगों और चीजों के प्रति अपने नजरिये में उन सत्य सिद्धांतों का प्रयोग कर पाता है, जिन्हें मनुष्य को अमल में लाना और पालन करना चाहिए।
जिन चीजों पर मैंने अब तक बात की है, उनके आधार पर तुम चाहे जैसे देखो, यह स्पष्ट है कि विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ प्रत्येक व्यक्ति के मन को कमोबेश घेरे रहती हैं। उनके लोगों के मन में बैठे होने के कारण, सत्य पर अमल करते समय उन्हें थोड़ी मुश्किल तो होगी ही। इसीलिए, जब वे सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया से गुजरते हैं, तब लोगों को निरंतर उन लोगों, घटनाओं और चीजों को जाने देना चाहिए, जो उनमें नकारात्मक भावनाएँ पैदा करती हैं। उदाहरण के लिए, हीनता की नकारात्मक भावना, जिसकी चर्चा हमने पहले की थी। तुममें हीनभावना किसी भी स्थिति के कारण, या किसी भी व्यक्ति या घटना के कारण पैदा हुई हो, तुम्हें अपनी योग्यता, खूबियों, प्रतिभाओं, और अपनी मानवता की गुणवत्ता की सही समझ होनी चाहिए। हीन महसूस करना सही नहीं है, न ही ऊँचा महसूस करना सही है—ये दोनों ही नकारात्मक भावनाएँ हैं। हीनभावना तुम्हारे कार्यों, तुम्हारी सोच को बाँध सकती है, तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकती है। इसी तरह, ऊँचे होने की भावना का भी यही नकारात्मक प्रभाव होता है। इसलिए, हीनता हो या कोई और नकारात्मक भावना, तुम्हें उन व्याख्याओं के प्रति सही समझ रखनी चाहिए जिनके कारण यह भावना पैदा होती है। अव्वल तो तुम्हें समझ लेना चाहिए कि ये व्याख्याएँ गलत हैं, और चाहे ये तुम्हारी योग्यता, प्रतिभा या तुम्हारी मानवता की गुणवत्ता के बारे में हों, तुम्हारे बारे में किए गए उनके आकलन और निष्कर्ष हमेशा गलत होते हैं। तो फिर तुम स्वयं का सही आकलन कर स्वयं को कैसे जान सकते हो, और हीनभावना से कैसे दूर हो सकते हो? तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें गाना पसंद था और तुम अच्छा गाते थे, मगर कुछ लोग यह कहकर तुम्हारी आलोचना करते और तुम्हें नीचा दिखाते थे कि तुम तान-बधिर हो, और तुम्हारा गायन सुर में नहीं है, इसलिए अब तुम्हें लगने लगा है कि तुम अच्छा नहीं गा सकते और फिर तुम दूसरों के सामने गाने की हिम्मत नहीं करते। उन सांसारिक लोगों, उन भ्रमित लोगों और औसत दर्जे के लोगों ने तुम्हारे बारे में गलत आकलन कर तुम्हारी आलोचना की, इसलिए तुम्हारी मानवता को जो अधिकार मिलने चाहिए थे, उनका हनन किया गया और तुम्हारी प्रतिभा दबा दी गई। नतीजा यह हुआ कि तुम एक भी गाना गाने की हिम्मत नहीं करते, और तुम बस इतने ही बहादुर हो कि किसी के आसपास न होने पर या अकेले होने पर ही खुलकर गा पाते हो। चूँकि तुम साधारण तौर पर बहुत अधिक दबा हुआ महसूस करते हो, इसलिए अकेले न होने पर गाना गाने की हिम्मत नहीं कर पाते; तुम अकेले होने पर ही गाने की हिम्मत कर पाते हो, उस समय का आनंद लेते हो जब तुम खुलकर साफ-साफ गा सकते हो, यह समय कितना अद्भुत और मुक्ति देनेवाला होता है! क्या ऐसा नहीं है? लोगों ने तुम्हें जो हानि पहुँचाई है, उस कारण से तुम नहीं जानते या साफ तौर पर नहीं देख सकते कि तुम वास्तव में क्या कर सकते हो, तुम किस काम में अच्छे हो, और किसमें अच्छे नहीं हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें सही आकलन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को सही मापना चाहिए। तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्मचिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं। अगर तुम अपनी समस्याओं को नहीं समझ सकते या उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं पा सकते, तो उन लोगों से पूछो जिनमें तुम्हारा आकलन करने की समझ है। उनकी बातें सही हों या न हों, उनसे कम-से-कम तुम्हें एक संदर्भ और विचारसूत्र मिल जाएगा जो तुम्हें इस योग्य बनाएगा कि स्वयं की बुनियादी परख या निरूपण कर सको। फिर तुम हीनता जैसी नकारात्मक भावनाओं की अनिवार्य समस्या को सुलझा सकोगे, और धीरे-धीरे उससे उबर सकोगे। अगर कोई ऐसी हीनभावनाओं को पहचान ले, उनके प्रति जागरूक होकर सत्य खोजे, तो वे आसानी से सुलझाई जा सकती हैं।
जिन लोगों के साथ समाज में, उनके विविध व्यवसायों और विभिन्न परिवेशों में बराबरी का बर्ताव नहीं किया गया, बुरा व्यवहार और भेदभाव किया गया है, क्या उनमें पैदा होने वाली नफरत और गुस्से की भावनाओं को आसानी से दूर किया जा सकता है? (हाँ।) इन्हें कैसे दूर किया जाता है? (उन्हें चाहिए कि सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार मानें, नफरत और गुस्से की इन नकारात्मक भावनाओं को जाने दें, और अतीत में जिन लोगों, घटनाओं और चीजों ने उन्हें आहत किया, उन्हें जाने दें।) “जाने देना” तो बस शब्द हैं—तुम कैसे जाने दोगे? उदाहरण के लिए एक महिला एक पुरुष को डेट करती है और आखिर वह पुरुष चालबाजी से उसके साथ शारीरिक संबंध बना लेता है और उसे धोखे से पैसे देने को मजबूर करता है; जब भी वह इस बारे में सोचती है, उसके मन में एकाएक गुस्सा उफनता है, और यह गुस्सा पैदा होने पर वह अपनी मुट्ठियाँ भींच लेती है और उसका अंतरतम नफरत से भर जाता है। वह उस आदमी के चेहरे, उसकी कही हर बात और उसके हर उस काम के बारे में सोचती है जिससे वह आहत हुई; वह इन चीजों के बारे में जितना सोचती है उतनी ही ज्यादा क्रोधित और आगबबूला हो जाती है, गुस्से की आग में जलने लगती है, और उसकी नफरत उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है। वह इस बारे में सोचती रहती है, अब अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती, बेहद बुरा महसूस करती है, खुद से कहती रहती है कि आराम मत कर, बस दूसरे लोगों के साथ काम कर, बात करती रह, और रात को नींद न आए, तो सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा ले। वह अकेले रहने या मन को शांत रखने की हिम्मत नहीं कर पाती। जैसे ही वह खुद को अकेला पाती है, जैसे ही आराम करती है, वैसे ही उसमें यह नफरत उफनती है, वह बदला लेना चाहती है, जिसने उसका दिल दुखाया, उसे मार डालना चाहती है, और उसकी मौत जितनी दुखदाई हो उतनी ही बेहतर। जब किसी दिन वह वास्तव में यह खबर सुन लेती है कि उस आदमी की बहुत दुखदाई मौत हुई है, तभी वह अपनी नफरत और गुस्से की भावनाओं को जाने दे पाती है। इस बारे में सोचो : अगर वह सच में मर गया, उसे उसकी करतूतों का फल मिल गया और उसे दंडित कर दिया गया, फिर भी क्या तुम उस घटना को, जिसके कारण नफरत और गुस्सा पैदा हुआ और उस याद को जो तुम्हारे अंतरतम में कहीं गहरे दबी हुई है, मिटा सकते हो? क्या तुम सचमुच उस घटना की नफरत को जाने देने में समर्थ हो सकते हो? क्या वह सचमुच गायब हो सकती है? (नहीं।) तो, क्या तुम्हें आहत करनेवाले उस व्यक्ति का गायब हो जाना, दंड पाना, बेहद बुरी मौत मरना, प्रतिकार सहना या बुरे अंजाम तक पहुँचना, नफरत और गुस्से को खत्म करने का तरीका है? क्या यह नफरत और गुस्से को जाने देने का तरीका है? (नहीं।) और इसलिए कुछ लोग कहते हैं, “जब तुम पाते हो कि तुमने नफरत और गुस्से की ये भावनाएँ पाल रखी हैं, तो तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए।” क्या यह अभ्यास का मार्ग है? (नहीं।) तो जब कोई कहता है, “तुम्हें इन्हें जाने देना चाहिए,” तो यह क्या है? (यह धर्म-सिद्धांत है।) सही है, यह धर्म-सिद्धांत है, अभ्यास का मार्ग नहीं। मैंने तुम लोगों को अभी-अभी बताया कि हीनभावना को कैसे दूर किया जाए, और हीनभावना को जाने देने का यह एक तरीका है। क्या अब तुम लोगों के पास अभ्यास का मार्ग है? (हाँ।) तो तुम नफरत और गुस्से को कैसे जाने दे सकते हो? क्या उनके बारे में न सोचना अभ्यास का मार्ग है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं कि इन्हें अपनी यादों से मिटा दो—क्या यह समस्या को सुलझाने का एक तरीका है? क्या इसका अर्थ यह होगा कि तुमने इन चीजों को जाने दिया है? (नहीं, यह अर्थ नहीं होगा।) सिर हिला देना, आँखें बंद कर लेना और किसी भी चीज के बारे में न सोचना, या खुद को व्यस्त रखना इस समस्या को सुलझाने का तरीका नहीं है, और यह इन नकारात्मक भावनाओं को जाने देने के अभ्यास का सही मार्ग नहीं है। तो फिर विशिष्ट रूप से अभ्यास का मार्ग क्या है? तुम इन चीजों को कैसे जाने दे सकते हो? तुम इस मामले को कैसे सुलझा सकते हो? क्या तुम लोगों के पास यह करने का कोई अच्छा तरीका है? इन चीजों को जाने देने के लिए तुम्हें उनका सामना करना चाहिए, उनसे छुपना या भागना नहीं चाहिए। क्या तुम्हें अकेले रहने से डर नहीं लगता? क्या तुम्हें इस घटना के याद आने का डर नहीं लगता? क्या तुम्हें डर नहीं लगता कि कोई तुम्हारा घाव फिर से कुरेद देगा? तो इसका सामना करो, और उन सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को लो, जिन्होंने अतीत में तुम्हें घाव दिए, तुममें नफरत और गुस्सा पैदा किया, और उन सभी लोगों को लो, जिन्होंने तुम पर गहरी छाप छोड़ी, और जिन्हें तुम याद कर सकते हो, और उन सबके बारे में लिखो, परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक-एक कर उनकी मानवता को पहचानो, उनके स्वभाव को जानो, उनके सार का विश्लेषण करो, खुलासा कर उसे जानो, और समझो कि वे लोग वास्तव में क्या हैं। तुम्हारा अंतिम निष्कर्ष—एकमात्र निष्कर्ष जो तुम निकाल सकते हो—यह होगा कि वे सभी लोग दुष्ट हैं, दानव हैं, इंसान नहीं! वे तुम्हें आहत करने, फँसाने या नुकसान पहुँचाने का कोई भी तरीका प्रयोग करते हों, उनका सार दानवों का है, इंसानों का नहीं, और वे बिल्कुल भी परमेश्वर द्वारा चुने हुए नहीं हैं। उन लोगों में से एक भी परमेश्वर के घर में आने योग्य नहीं है, जबकि तुम परमेश्वर के चुने हुए हो। अब तुम परमेश्वर के घर में धर्मसंदेश सुन सकते हो, उसके घर में अपना कर्तव्य निभा सकते हो, और तुम परमेश्वर के समक्ष आ सकते हो—यह परमेश्वर द्वारा तुम्हें ऊपर उठाना है, तुम्हारे प्रति दयालुता दिखाना है। दूसरी ओर, परमेश्वर ने कभी भी इन लोगों को इंसान के रूप में नहीं देखा है। इसलिए, एक बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, तुम्हें उन लोगों से दूरी बना लेनी चाहिए। अगर तुम अब भी उनके साथ जुड़े रहना चाहते हो, तो यकीनन उनसे जीत नहीं पाओगे, और वे तुम्हारा दमन कर तुम्हें दंडित करेंगे, तुमसे भेदभाव कर तुम्हें अपमानित करेंगे, नुकसान पहुँचाएँगे, और तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार भी करेंगे। उनका हर काम वही दर्शाता है जो दानव करते हैं, और शैतान करता है। अगर तुम्हें उनके साथ जुड़ने और उनसे लड़ने में आनंद आता है, तो तुम भी इंसान नहीं हो। तुम भी उन जैसे हो, और उन जैसे ही काम करने में सक्षम हो। ऐसा इसलिए कि दानव न सिर्फ लोगों को फँसाते हैं, बल्कि एक-दूसरे को भी नुकसान पहुँचाते हैं—यह दानव की प्रकृति है। यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर द्वारा चुने गए हो, और परमेश्वर द्वारा रची गई मानवजाति से हो, दानव तुम्हें कैसे नहीं पकड़ेंगे? वे तुम्हें नुकसान पहुँचाए बिना और फँसाए बिना कैसे रह सकते हैं? वे सभी को हानि पहुँचाते हैं। वे एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाते हैं, तो यह तो होगा ही कि वे लोगों को अकेले नहीं छोड़ेंगे! यह दर्शाता है कि यह संसार और मानवजाति दानवी है, और शैतान की करतूतों से कूट-कूट कर पटी हुई है। एक नेक इंसान बनना बेहद मुश्किल है, और एक ऐसा साधारण इंसान बनना भी बेहद मुश्किल है, जो किसी से भी धौंस नहीं खाना चाहता। तुम बचने की कोशिश करोगे, तो भी बच नहीं सकते। दुनिया ऐसी ही है। जब से इतनी समझ आ जाती है कि व्यक्ति स्कूल जाना शुरू कर सके, तब से लेकर समाज में प्रवेश कर काम शुरू करने, और अंत में मृत्यु आने तक ऐसा कौन होगा जिसने कभी भी अपने जीवनकाल में धौंस न खाई हो, धोखा न खाया हो या सताया न गया हो? ऐसा बिल्कुल कोई भी नहीं है। तुम चाहे जितने भी कुशल या सक्षम क्यों न हो, हमेशा तुमसे ज्यादा सशक्त कोई ऐसा जरूर होगा जो तुम्हें धौंस देगा। लेकिन फर्क यह है कि सबके जीने के फलसफे अलग होते हैं। कुछ लोग विषमताओं के आगे घुटने टेककर सहन करते हैं, मगर, कुछ लोग अलग होते हैं। कई बार धोखा खाने और बरदाश्त के बाहर हो जाने की हद तक सताए जाने और अत्यंत गंभीर कष्ट सहने के अनुभव के बाद, उनमें नफरत और गुस्से जैसी भावनाएँ पैदा होती हैं, और वे मानवजाति और समाज दोनों से नफरत करने लगते हैं। एक बार जब तुम्हें नुकसान पहुँचाने वाले लोगों के सार और प्रकृति को तुम साफ तौर पर देख लेते हो, और यह समझ लेते हो कि उनका सार दानवों का है, तो जो नफरत और गुस्सा तुम महसूस करते हो, उसका निशाना अब लोग नहीं, बल्कि दानव होते हैं, तब क्या तुम्हारी नफरत थोड़ी कम नहीं हो जाती? (जरूर।) तुम्हारी नफरत थोड़ी कम हो जाती है। और इसके थोड़ा कम होने का क्या फायदा है? वो यह है कि जब तुम वैसी स्थिति का दोबारा सामना करोगे, तो फिर से भावुक नहीं होगे, और उस स्थिति को गर्म-मिजाज होकर नहीं देखोगे। इसके बजाय, तुम इसे सही ढंग से लोगे, परमेश्वर के वचनों और सत्य का प्रयोग कर इसे पहचानोगे और इससे पेश आओगे, तुम्हें फिर से नुकसान पहुँचाने वाले लोगों को मानवता के जमीर और समझ के नजरिये से देखोगे, और उनके प्रति अपने दृष्टिकोण में तुम परमेश्वर द्वारा सिखाई विधि, परमेश्वर द्वारा सिखाए तरीके और सिद्धांतों का प्रयोग करोगे। जब तुम परमेश्वर द्वारा बताए गए तरीके का प्रयोग कर उनसे पेश आओगे, तो तुममें फिर से नफरत और गुस्सा पैदा नहीं होगा, बल्कि इसके बजाय तुम मानवजाति की भ्रष्टता और दानवों के चेहरे को जानोगे, और पुष्टि कर सत्यापित करोगे कि परमेश्वर के वचन अत्यंत गूढ़ और प्रगतिशील रूप से सत्य हैं। जब तुम ऐसे मामलों को देखने के लिए परमेश्वर के वचनों और उसके बताए और सिखाए तरीके का प्रयोग करोगे, तो फिर यह मामला न सिर्फ तुम्हें दोबारा नुकसान नहीं पहुँचाएगा, न सिर्फ यह तुम्हारी नफरत और गुस्से को गहराने नहीं देगा, बल्कि यह तुम्हारे अंतरतम की नफरत और गुस्से को धीरे-धीरे कम कर देगा, और जैसे-जैसे तुम्हें ऐसे मामले का बार-बार अनुभव होगा, तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, और तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा।
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