सत्य का अनुसरण कैसे करें (1) भाग एक

हमारी पिछली सभा में हमने किस विषय पर संगति की थी? (मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए।) संगति पूरी करने के बाद मैंने तुम सबको होमवर्क के तौर पर एक विषय दिया था—वह क्या था? (सत्य का अनुसरण कैसे करें।) क्या तुम सबने इस विषय पर चिंतन किया? (हे परमेश्वर, मैंने इस बारे में थोड़ा-बहुत चिंतन किया है। सत्य का अनुसरण कैसे करना है, इसकी बात करें तो यह प्रतिदिन हमारे सामने आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों में स्वयं की भ्रष्टताओं और भ्रष्ट स्वभावों के उद्गारों की जाँच करना है, और फिर इन मसलों को सुलझाने के लिए सत्य खोजना है। साथ ही, कर्तव्य-निर्वाह कुछ विशेष सिद्धांतों को स्पर्श करता है, इसलिए हमें विभिन्न कर्तव्य हाथ में लेते समय, इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का तरीका समझने के लिए संगत सत्य खोजने चाहिए—यह एक और तरीका है जिससे सत्य के अनुसरण का अभ्यास किया जाता है।) तो एक बात हुई, रोजमर्रा के जीवन में सत्य खोजना, और दूसरी हुई, अपना कर्तव्य करते समय सत्य सिद्धांत खोजना। क्या इस अनुसरण के कोई दूसरे पहलू भी हैं? यह कोई कठिन विषय नहीं होना चाहिए, है न? क्या तुम सबने “सत्य का अनुसरण कैसे करें” विषय पर चिंतन किया है? तुमने चिंतन कैसे किया? इस विषय पर चिंतन करने में कुछ समय इस बारे में सोचने में बिताना चाहिए, और फिर कुछ समय उस चिंतन से प्राप्त ज्ञान का विवरण लिखने में लगाना चाहिए। यदि तुम इस पर सिर्फ सरसरी नजर डालकर इस बारे में थोड़ा-सा सोचते हो, मगर इसमें समय नहीं देते या मेहनत नहीं करते, या इस पर सावधानी से नहीं सोचते, तो यह चिंतन नहीं है। चिंतन का अर्थ है कि तुम उस विषय पर गंभीरता से सोचो, इस पर चिंतन करने का वास्तविक प्रयास करो, थोड़ा ठोस ज्ञान प्राप्त करो, तुम्हें प्रबुद्धता और प्रकाश प्राप्त हो, और तुम्हें कुछ लाभ मिलें—चिंतन से ये परिणाम प्राप्त होते हैं। अब बोलो, क्या तुम सबने इस विषय पर वास्तव में चिंतन किया था? तुममें से किसी ने भी इस पर वास्तव में चिंतन नहीं किया, है न? पिछली बार, मैंने तुम लोगों को एक होमवर्क दिया था, एक विषय, ताकि तुम लोग तैयारी करो, लेकिन तुममें से किसी ने भी उस विषय पर चिंतन नहीं किया, और तुमने उसे गंभीरता से नहीं लिया। क्या तुम आशा कर रहे थे कि मैं तुम्हें तैयार करके दे दूँगा और तुम्हें कुछ नहीं करना पड़ेगा? या तुमने सोचा, “यह विषय बहुत आसान है, इसमें कोई गहराई नहीं है। हम इसे पहले ही बूझ चुके हैं, इसलिए हमें चिंतन करने की जरूरत नहीं है—हम इसे पहले ही समझते हैं”? या बात ऐसी है कि तुम्हें सत्य के अनुसरण से जुड़े प्रश्नों और विषयों में रुचि नहीं है? आखिर समस्या क्या है? ऐसा तो नहीं हो सकता कि तुम कामों में बहुत ज्यादा व्यस्त हो, है ना? बोलो, वास्तव में क्या कारण है? (परमेश्वर के प्रश्न सुनने और आत्मचिंतन करने के बाद, मेरे विचार से मुख्य कारण यह है कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता। मैंने परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से नहीं लिया, ईमानदारी से सत्य पर चिंतन नहीं किया। मुझे यह भी आशा थी कि बिना मेरे प्रयास किए मुझे इसका उत्तर दे दिया जाएगा। मुझे आशा थी कि जब परमेश्वर इस पर संगति पूरी कर लेगा, तब मैं इसे समझने में सक्षम हो जाऊंगा। मैंने यह रवैया अपना रखा था।) क्या ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं? ऐसा लगता है कि तुम लोगों को पकी-पकाई चीजें पाने की आदत है। सत्य की बात पर तुम लोग ज्यादा सतर्क नहीं हो, और तुम कुछ ज्यादा मेहनत नहीं करते। तुम लोगों को विशेष रूप से आँखें बंद कर काम करना और यहाँ-वहाँ दौड़ना पसंद है। तुम सिर्फ अपना समय ज़ाया करते हो; सत्य के साथ अपने व्यवहार में तुम भ्रमित हो, और तुम उसे गंभीरता से नहीं लेते। यह है तुम सबकी सच्ची दशा।

सत्य का अनुसरण कैसे करें उन विषयों में से एक है, जिन पर परमेश्वर के घर में सबसे अधिक संगति होती है। ज्यादातर लोग सत्य का अनुसरण कैसे करें के बारे में कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हैं, और वे उसके अभ्यास के कुछ मार्ग और तरीके जानते हैं। कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने परमेश्वर में लंबे समय से विश्वास रखा है, जिन्हें कुछ वास्तविक अनुभव हैं, जिन्होंने विफलताओं और पतन का भी अनुभव किया है, और जिनमें निराशा और कमजोरी रही है। सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में, उन्होंने अनेक उतार-चढ़ाव भी देखे हैं, और सत्य के अनुसरण में, उन्होंने अपने अनुभवों से सीखकर कुछ लाभ प्राप्त किए हैं। स्वाभाविक है, उन्होंने बहुत-सी मुश्किलों और बाधाओं, और साथ ही अपने जीवन या परिवेश में विभिन्न वास्तविक समस्याओं का भी सामना किया है। संक्षेप में, ज्यादातर लोगों को सत्य के अनुसरण के बारे में थोड़ी-बहुत समझ होती है, या तो सिर्फ इसके स्वरूप की या कुछ व्यावहारिक समस्याओं के जरिए, और उन्हें इसका थोड़ा धर्म-सैद्धांतिक ज्ञान भी होता है। एक बार जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, या सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने लगते हैं, तो चाहे उन्होंने उस मार्ग पर सचमुच कोई कीमत चुकाई हो, या फिर सत्य के अनुसरण के अपने तरीके में थोड़ी ही मेहनत की हो, उनमें से लगभग सभी को इसकी थोड़ी समझ तो होगी ही। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उनके लिए यह समझ, सच्चा और अनमोल लाभ दर्शाती है, लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उन्हें कोई अनुभव नहीं होता, उन्हें अपने अनुभव से कोई सीख नहीं मिलती, या लाभ नहीं मिलता। सारांश में, अधिकतर लोग सत्य का अनुसरण करते समय संकोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं, और “प्रतीक्षा करो और देखो” का रवैया अपना रहे हैं, और साथ ही इसके अनुसरण से कैसा लगता है, इसका थोड़ा-सा अनुभव कर रहे हैं। ज्यादातर लोगों की सोच, विचारों या चेतना में, सत्य का अनुसरण एक सकारात्मक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण चीज है। वे इसे जीवन के एक लक्ष्य के रूप में मानते हैं, जिसका लोगों को अनुसरण करना चाहिए, और इससे भी बढ़कर, उस सही मार्ग के रूप में देखते हैं, जिसका उन्हें जीवन में अनुसरण करना चाहिए। सैद्धांतिक स्तर पर हो, या उनके वास्तविक अनुभवों और ज्ञान के आधार पर, सभी लोग सत्य के अनुसरण को एक अच्छी और सबसे सकारात्मक चीज मानते हैं। मानवजाति द्वारा अपनाया जाने वाला ऐसा कोई अनुसरण या मार्ग नहीं है, जिसकी तुलना सत्य के अनुसरण या इस अनुसरण के मार्ग से की जा सके। सत्य का अनुसरण ही एकमात्र सही मार्ग है, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए। मानवजाति के एक सदस्य के रूप में, सत्य का अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, और उन्हें इसे लोगों के चलने हेतु सही मार्ग के रूप में देखना चाहिए। तो, किसी व्यक्ति को सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए? अभी-अभी तुम लोगों ने कुछ सरल, सैद्धांतिक विचार प्रस्तुत किए हैं, जिनसे अधिकतर लोग शायद सहमत होंगे। सभी लोग सोचते हैं कि इस किस्म के अनुसरण और अभ्यास सत्य के अनुसरण से संबंधित हैं। उनका मानना है कि सत्य के अनुसरण से विशेष रूप से संबंधित चीजें सिर्फ ये हैं : आत्मज्ञान पाना, पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करना, फिर परमेश्वर के वचनों में से अभ्यास करने के लिए सत्य सिद्धांत खोज निकालना, और आखिरकार, अपने रोजमर्रा के जीवन में उसके वचनों के अनुरूप जीना, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना। सत्य का अनुसरण कैसे करें, इस बारे में ज्यादातर लोगों की आम समझ और बोध यही है। जिन तरीकों को तुम पहचान और समझ सकते हो, उनके अलावा मैंने सत्य का अनुसरण करने के अभ्यास के कुछ और विशेष मार्गों और तरीकों का सारांश तैयार किया है। आज हम सत्य का अनुसरण कैसे करें, पर और अधिक विस्तार से संगति करेंगे।

तुम लोगों द्वारा बताए गए कुछ तरीकों के अलावा, मैंने और अधिक विस्तार में जाकर सत्य का अनुसरण करने के दो और तरीकों को सार रूप में प्रस्तुत किया है। एक तरीका है “जाने देना।” क्या यह आसान है? (हाँ, आसान है।) यह न अस्पष्ट है न पेचीदा। इसे याद रखना और समझना भी आसान है। बेशक, इसके अभ्यास में थोड़ी कठिनाई हो सकती है। देखो, यह तरीका तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत तरीकों से काफी आसान है। तुम्हारी बातें बस सिद्धांतों का पुलिंदा थीं। ये ऊँचे, गहरे लगते हैं, निस्संदेह उनका एक ठोस पक्ष भी है, लेकिन वे मेरे अभी बताए तरीकों से बहुत ज्यादा जटिल हैं। पहला तरीका है “जाने देना,” और दूसरा है “समर्पित करना।” बस सिर्फ ये दो तरीके, कुल मिलाकर चार शब्द। लोग इन्हें देखते ही समझ सकते हैं, और लोग इनके बारे में संगति किए बिना भी इनके अभ्यास का तरीका जानते हैं—इन्हें याद रखना भी आसान है। पहला तरीका क्या है? (जाने देना।) और दूसरा? (समर्पित करना।) देखा तुमने? क्या ये सरल नहीं हैं? (ये सरल हैं।) ये तुम्हारे बताए तरीकों से कहीं ज्यादा संक्षिप्त हैं। इसे क्या कहा जाता है? इसे प्रभावशाली होना कहा जाता है। क्या थोड़े शब्दों का प्रयोग करने का अर्थ है कि कोई चीज अनिवार्यतः प्रभावशाली है? (ऐसा नहीं है।) कोई चीज प्रभावशाली है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। अहम यह होता है कि मुख्य बात कही जा रही है या नहीं और क्या यह लोगों द्वारा अमल में लाए जाते समय कार्यात्मक होती है। इसके अलावा, इस बात पर गौर करना महत्वपूर्ण है कि इसका अभ्यास करने पर कौन-से परिणाम प्राप्त होते हैं; क्या यह लोगों की व्यावहारिक कठिनाइयों को सुलझा सकता है; क्या यह सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में लोगों की मदद करता है; क्या यह लोगों को अपने भ्रष्ट स्वभाव को जड़ से खत्म करने देता है; और क्या इसके अभ्यास से लोगों को परमेश्वर के समक्ष आने, उसके वचन और सत्य को स्वीकार करने में मदद मिलती है, क्या इसके फलस्वरूप वे परिणाम और लक्ष्य प्राप्त हो जाते हैं, जो सत्य के अनुसरण से प्राप्त होने चाहिए। क्या यह सही है? (बिल्कुल।) तुम लोगों ने अभी “जाने देना” और “समर्पित करना” इन दो तरीकों को सुना और तुम इन्हें जानते हो। इन दो तरीकों और सत्य के अनुसरण के बीच क्या संबंध हैं? क्या ये तुम्हारे बताए तरीकों से जुड़े हुए हैं या उनसे टकराव में हैं? यह अब भी बहुत स्पष्ट नहीं है, है न? (हाँ, यह अभी भी बहुत स्पष्ट नहीं है।) सामान्य रूप से कहा जाए, तो सत्य का अनुसरण करने के वही दो विशेष तरीके हैं जिनकी मैंने अभी-अभी चर्चा की। इन दो तरीकों में, पहले तरीके : जाने देना की विशेष विषयवस्तु क्या है? जब तुम “जाने देना” शब्द सुनते हो, तो वह सबसे सरल और सीधी चीज क्या है जो तुम्हारे मन में कौंधती है? इस तरीके को कैसे अमल में लाया जा सकता है? इसके विशेष भाग और विषयवस्तु क्या हैं? (अपने भ्रष्ट स्वभाव को जाने देना।) अपने भ्रष्ट स्वभाव के अलावा और क्या? (धारणाएँ और कल्पनाएँ।) धारणाएँ और कल्पनाएँ, भावनाएँ, अपनी इच्छा और अपनी पसंद। इसके अलावा? (सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे, जीवन को लेकर गलत मूल्य और नजरिये।) (व्यक्ति के इरादे और कामनाएं।) संक्षेप में, जब लोग उन चीजों के बारे में सोचने की कोशिश करते हैं, जिन्हें उन्हें जाने देना चाहिए, तो भ्रष्ट स्वभाव से जुड़े विविध व्यवहार के अलावा, वे उन चीजों के बारे में भी सोचते हैं, जिनसे मिलकर लोगों की सोच और विचार बनते हैं। तो, दो प्रमुख अंश हैं : एक भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित है और दूसरा लोगों की सोच और विचारों से। इन दोनों के अलावा, तुम लोग और क्या सोच सकते हो? तुम सब उलझन में हो, है न? इसका कारण क्या है? कारण यह है कि जो चीजें फौरन तुम्हारे दिमाग में आती हैं, वे परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से, रोजमर्रा जीवन की वे बातें हैं जिनसे तुम्हारा अक्सर सामना होता है और जिनके बारे में लोग अक्सर बात करते हैं। लेकिन जब उन समस्याओं की बात आती है, जिनका कोई जिक्र नहीं करता मगर जो लोगों में होती हैं—तुम सब उन्हें नहीं जानते, तुम उनसे अवगत नहीं हो, तुम उनका जिक्र नहीं कर पाए, और तुमने उन्हें कभी भी चिंतन के लायक समस्या के रूप में भी नहीं देखा। इसी कारण से तुम उलझन में हो। मैं तुम लोगों से इसकी चर्चा इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि तुम हमारी अगली संगति के मुद्दे के बारे में सोचो और सावधानी से विचार करो, ताकि तुम पर इसकी गहरी छाप पड़े।

अब सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए, विषय से संबंधित दो मुख्य चीजों पर हम संगति करेंगे : पहला है जाने देना, और दूसरा समर्पित करना। आओ पहली चीज—जाने देना पर संगति से शुरू करें। यह सिर्फ भावनाओं, सांसारिक आचरण के फलसफों, हठ, आशीष की कामना और ऐसी ही दूसरी व्याख्याओं को जाने देना नहीं है। “जाने देना” का अभ्यास, जिस पर आज मैं संगति करूँगा, उसका एक अधिक विशेष उद्देश्य भी है और जरूरी है कि लोग इसे जाँचें और अपने रोजमर्रा के जीवन में इसे अमल में लाएँ। जाने देने को लेकर सबसे पहले किसका जिक्र होना चाहिए? सबसे पहली चीज जिसे लोगों को अपने सत्य के अनुसरण में जाने देना है, वे हैं विविध मानवीय भावनाएँ। जब मैं इन विविध मानवीय भावनाओं का जिक्र करता हूँ, तो तुम लोग किनके बारे में सोचते हो? इन भावनाओं में क्या शामिल हैं? (उग्र स्वभाव, मनमानी, और निष्क्रियता।) क्या उग्र स्वभाव एक भावना है? (मैं भावनाओं का यह अर्थ समझता हूँ कि लोग अपना कर्तव्य निभाते समय जैसा महसूस करते हैं वैसा करते हैं। लोग अच्छा महसूस करने या न करने के आधार पर अलग-अलग रवैये अपनाते हैं।) क्या मैं इन्हीं भावनाओं की बात करता रहा हूँ? क्या भावनाओं को इस तरह समझाना चाहिए? (हे परमेश्वर, भावनाओं के बारे में मेरी समझ यह है कि इनमें ज्यादातर चिड़चिड़ापन, खीझ, आनंद, गुस्से, दुख, और उल्लास शामिल होते हैं।) यह एक उपयुक्त सामान्यीकरण है। तो लोग जो महसूस करते हैं, उसके अनुसार काम करने के बारे में अभी जो जिक्र किया गया था, क्या वह एक भावना है? (वह बस एक अभिव्यक्ति है।) यह भावना की अभिव्यक्ति का एक प्रकार है। बुरा लगना, चिड़चिड़ा और मायूस महसूस करना—ये सब भावना की अभिव्यक्तियाँ हैं, लेकिन ये भावना की परिभाषा हैं ही नहीं। तो लोगों को उस पहली चीज को जिसे सत्य के अनुसरण में उन्हें जाने देना चाहिए, अर्थात विविध भावनाओं को कैसे समझना चाहिए? जब लोग विविध भावनाओं को जाने देते हैं तो वे क्या जाने देते हैं? यह उन मनोदशाओं, विचारों, और भावनाओं को जाने देना है जो विभिन्न हालात और संदर्भों में, साथ ही विभिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों के साथ पैदा होती हैं। इनमें से कुछ भावनाएँ व्यक्ति का हठ बन जाती हैं। और हालाँकि इनमें से कुछ व्यक्ति का हठ नहीं बनतीं, फिर भी ये उसके कार्य में उसके रवैये को प्रभावित कर सकती हैं। तो फिर इन भावनाओं में क्या शामिल हैं? उदाहरण के लिए, इनमें शामिल हैं मायूसी, नफरत, गुस्सा, चिड़चिड़ापन, बेचैनी, साथ ही दमन, हीनभावना, और खुशी के आँसू रोना—इन सबको भावनाएँ माना जा सकता है। क्या ये भावनाओं की ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं? (हाँ।) यह कहने के बाद, क्या तुम जानते हो कि भावना क्या है? क्या इसका तुम्हारी बताई गई निष्क्रियता, और उग्र स्वभाव से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इनका कोई संबंध नहीं है। तो वे चीजें क्या हैं जिनका तुम सबने जिक्र किया? (भ्रष्ट स्वभाव।) वे भ्रष्ट स्वभावों की एक प्रकार की अभिव्यक्ति हैं। अभी मैंने जिन भावनाओं को सूचीबद्ध किया, दमन, मायूसी, हीनभावना, इत्यादि, उनका भ्रष्ट स्वभावों से कोई लेना-देना है? (जिन भावनाओं का परमेश्वर ने अभी जिक्र किया, वे भ्रष्ट स्वभावों से असंबद्ध हैं, वे भ्रष्ट स्वभाव का हिस्सा नहीं हैं, या फिर वे अभी तक भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक नहीं पहुँची हैं।) तो फिर वे क्या हैं? वे हैं आनंद, गुस्से, दुख, और सामान्य मानवता का उल्लास, और वे लोगों के कुछ विशेष स्थितियों का सामना करने पर उठने वाली भावनाएँ हैं और उनके द्वारा दिखाई जाने वाली अभिव्यक्तियाँ हैं। इनमें से कुछ शायद भ्रष्ट स्वभाव से पैदा होती हैं, जबकि दूसरी अभी उस स्तर पर नहीं पहुँची हैं, और भ्रष्ट स्वभावों से उतनी अधिक जुड़ी हुई नहीं हैं, फिर भी ये चीजें लोगों की सोच में अवश्य मौजूद होती हैं। ऐसी परिस्थितियों में, लोग किसी भी स्थिति का सामना करें, या जो भी संदर्भ हो, ये भावनाएँ स्वाभाविक रूप से अक्सर कुछ हद तक उनकी परख और विचारों को प्रभावित करेंगी, और उस अभिमत और मार्ग को भी प्रभावित करेंगी, जिसे लोगों को अपनाना और जिस पर उन्हें चलना चाहिए। हमने अभी जिन विविध भावनाओं की बात की, ये ज्यादातर नकारात्मक-सी हैं। क्या ऐसी भी कुछ हैं जो थोड़ी तटस्थ हैं, न बहुत नकारात्मक, न सकारात्मक? नहीं, ऐसी एक भी भावना नहीं है जो थोड़ी सकारात्मक हो। अवसाद, मायूसी, नफरत, गुस्सा, हीनभावना, चिड़चिड़ापन, बेचैनी, और दमन—ये सभी बहुत नकारात्मक भावनाएँ हैं। क्या इनमें से कोई भी भावना लोगों को इस योग्य बना सकती है कि वे जीवन, मानव अस्तित्व, और जीवन में सामने आने वाली स्थितियों को सकारात्मक रूप से झेल सकें? क्या एक भी ऐसी नहीं है जो सकारात्मक हो? (नहीं।) ये सब अपेक्षाकृत नकारात्मक भावनाएँ हैं। तो कौन-सी भावनाएँ थोड़ी बेहतर हैं? तड़प और याद करना कैसे हैं? (वे थोड़े तटस्थ हैं।) हाँ, ये तटस्थ हो सकते हैं। और कौन-सी? स्मृतियाँ, लालसा और संजोना। हम जिन भावनाओं की बात कर रहे हैं, उनका संदर्भ किससे है? ये ऐसी चीजें हैं जो अक्सर इंसानी दिल और आत्मा की गहराई में छिपी होती हैं; ये अक्सर लोगों के दिलों और सोच पर हावी हो सकती हैं और लोगों की मनोदशाओं, और काम करने के प्रति उनके विचारों और रवैयों को प्रभावित कर सकती हैं। इसलिए ये भावनाएँ लोगों के असल जीवन में मिलें, या परमेश्वर में उनकी आस्था या सत्य के अनुसरण में, ये थोड़ा-बहुत लोगों के रोजमर्रा के जीवन में दखल देंगी या उसे प्रभावित करेंगी और अपने कर्तव्य के प्रति उनके रवैये पर असर डालेंगी। स्पष्ट है कि ये सत्य का अनुसरण करते समय लोगों की परख और उनके अभिमत पर भी असर डालेंगी, और विशेष रूप से ये थोड़ी निष्क्रिय और नकारात्मक भावनाएँ लोगों पर जबरदस्त प्रभाव डालेंगी। जब लोग स्मृतियाँ बना लेते हैं, उन्हें अपनी विविध भावनाओं का आभास होने लगता है, या उनमें एक जागरूकता आने लगती है जिससे वे घटनाओं और चीजों, माहौल, और दूसरे लोगों को पहचानने लगते हैं, तो उनकी विविध भावनाएँ धीरे-धीरे उठकर आकार लेने लगती हैं। एक बार जब ये आकार ले लेती हैं, तो जैसे-जैसे लोगों की उम्र बढ़ती है और वे अधिक सांसारिक मामलों का अनुभव करते हैं, ये भावनाएँ धीरे-धीरे उनके भीतर, उनके दिलों की गहराइयों में गहरे पैठने लगती हैं, और उनकी निजी मानवता का प्रमुख गुण बन जाती हैं। ये धीरे-धीरे उनके निजी व्यक्तित्व, उनके आनंद, गुस्से, दुख और उल्लास, उनकी दुविधाओं और साथ ही जीवन में उनके लक्ष्यों और दिशाओं इत्यादि को निर्देशित करने लगती हैं। इसीलिए, ये भावनाएँ प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब एक बार लोगों को अपने इर्द-गिर्द के माहौल की व्यक्तिपरक जागरूकता होने लगती है, तो ये भावनाएँ उनके आनंद, गुस्से, दुख, और उल्लास को प्रभावित करने लगती हैं, लोगों, घटनाओं और चीजों की उनकी परख और संज्ञान को, और उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करने लगती हैं। जाहिर है, ये लोगों, घटनाओं और इर्द-गिर्द की चीजों का सामना करने को लेकर लोगों के रवैयों, और दृष्टिकोणों को भी प्रभावित करेंगी। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि ये नकारात्मक भावनाएँ उन तरीकों और सिद्धांतों को भी प्रभावित करती हैं जो लोगों के आचरण के तरीकों और साथ ही उनके अनुसरण के लक्ष्यों और मानव आचरण की आधाररेखा को नियंत्रित करती हैं। शायद तुम लोगों को लगे कि मेरी यह बात समझना आसान नहीं है और यह थोड़ी अस्पष्ट है। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ, फिर तुम लोग थोड़ा बेहतर समझ सकोगे। उदाहरण के लिए, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन में देखने में साधारण थे, ठीक से बात नहीं कर पाते थे, और हाजिर-जवाब नहीं थे, जिससे उनके परिवार और सामाजिक परिवेश के लोगों ने उनके बारे में प्रतिकूल राय बना ली, और ऐसी बातें कहीं : “यह बच्चा मंद-बुद्धि, धीमा और बोलचाल में फूहड़ है। दूसरे लोगों के बच्चों को देखो, जो इतना बढ़िया बोलते हैं कि वे लोगों को अपनी कानी उंगली पर घुमा सकते हैं। और यह बच्चा है जो दिन भर यूँ ही मुँह बनाए रहता है। उसे नहीं मालूम कि लोगों से मिलने पर क्या कहना चाहिए, उसे कोई गलत काम कर देने के बाद सफाई देना या खुद को सही ठहराना नहीं आता, और वह लोगों का मन नहीं बहला सकता। यह बच्चा बेवकूफ है।” माता-पिता, रिश्तेदार और मित्र, सभी यह कहते हैं, और उनके शिक्षक भी यही कहते हैं। यह माहौल ऐसे व्यक्तियों पर एक खास अदृश्य दबाव डालता है। ऐसे माहौल का अनुभव करने के जरिए वे अनजाने ही एक खास किस्म की मानसिकता बना लेते हैं। किस प्रकार की मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे देखने में अच्छे नहीं हैं, ज्यादा आकर्षक नहीं हैं, और दूसरे उन्हें देखकर कभी खुश नहीं होते। वे मान लेते हैं कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे नहीं हैं, धीमे हैं, और दूसरों के सामने अपना मुँह खोलने में और बोलने में हमेशा शर्मिंदगी महसूस करते हैं। जब लोग उन्हें कुछ देते हैं तो वे धन्यवाद कहने में भी लजाते हैं, मन में सोचते हैं, “मैं कभी बोल क्यों नहीं पाता? बाकी लोग इतनी चिकनी-चुपड़ी बातें कैसे कर लेते हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!” अवचेतन रूप से वे सोचते हैं कि वे बेकार हैं, फिर भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि वे इतने बेकार हैं, इतने बेवकूफ हैं। मन-ही-मन वे खुद से हमेशा पूछते हैं, “क्या मैं इतना बेवकूफ हूँ? क्या मैं सचमुच इतना अप्रिय हूँ?” उनके माता-पिता उन्हें पसंद नहीं करते, न ही उनके भाई-बहन, न शिक्षक और सहपाठी। और कभी-कभी उनके परिवारजन, उनके रिश्तेदार और मित्र उनके बारे में कहते हैं, “वह नाटा है, उसकी आँखें और नाक छोटी हैं, ऐसे रंग-रूप के साथ बड़ा होकर वह सफल नहीं हो पाएगा।” इसलिए जब वे आईना देखते हैं, तो देखते हैं कि उनकी आँखें सचमुच छोटी हैं। ऐसी स्थिति में, उनके दिल की गहराइयों में पैठा प्रतिरोध, असंतोष, अनिच्छा और अस्वीकृति धीरे-धीरे उनकी अपनी कमियों, खामियों, और समस्याओं को स्वीकार कर मान लेने में बदल जाती है। हालाँकि वे इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं, मगर उनके दिलों की गहराइयों में एक स्थाई भावना सिर उठा लेती है। इस भावना को क्या कहा जाता है? यह है हीनभावना। जो लोग हीन महसूस करते हैं, वे नहीं जानते कि उनकी खूबियाँ क्या हैं। वे बस यही सोचते हैं कि उन्हें कोई पसंद नहीं कर सकता, वे हमेशा बेवकूफ महसूस करते हैं, और नहीं जानते कि चीजों के साथ कैसे निपटें। संक्षेप में, उन्हें लगता है कि वे कुछ भी नहीं कर सकते, वे आकर्षक नहीं हैं, चतुर नहीं हैं, और उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हैं। वे दूसरों के मुकाबले साधारण हैं, और पढ़ाई-लिखाई में अच्छे अंक नहीं ला पाते। ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद, हीनभावना की यह मानसिकता धीरे-धीरे हावी हो जाती है। यह एक प्रकार की स्थाई भावना में बदल जाती है, जो उनके दिलों में उलझकर दिमाग में भर जाती है। तुम भले ही बड़े हो चुके हो, दुनिया में अपना रास्ता बना रहे हो, शादी कर चुके हो, अपना करियर स्थापित कर चुके हो, और तुम्हारा सामाजिक स्तर चाहे जो हो गया हो, बड़े होते समय यह जो हीनभावना तुम्हारे परिवेश में रोप दी गयी थी, उससे मुक्त हो पाना असंभव हो जाता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करके कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद भी, तुम सोचते रहते हो कि तुम्हारा रंग-रूप मामूली है, तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कमजोर है, तुम ठीक से बात भी नहीं कर पाते, और कुछ भी नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, “मैं बस उतना ही करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। मुझे अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा रखने की जरूरत नहीं, मुझे गूढ़ सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मैं सबसे मामूली बनकर संतुष्ट हूँ, और दूसरे मुझसे जैसा भी बर्ताव करना चाहें, करें।” जब मसीह-विरोधी और नकली अगुआ प्रकट होते हैं, तो तुम्हें नहीं लगता कि तुम उनमें भेद करने और उन्हें उजागर करने में सक्षम हो, तुम ऐसा करने के लिए नहीं बने हो। तुम्हें लगता है कि अगर तुम खुद एक नकली अगुआ या मसीह-विरोधी नहीं हो, तो काफी है, तुम गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा नहीं करते, तो ठीक है, और अगर तुम अपनी सोच पर टिके रहते हो, तो ठीक है। तुम अपने दिल की गहराइयों में महसूस करते हो कि तुम उतने अच्छे नहीं हो और दूसरे लोगों जितने बढ़िया नहीं हो, दूसरे लोग उद्धार के पात्र हैं, पर तुम ज्यादा-से-ज्यादा एक सेवाकर्मी ही हो, इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने योग्य नहीं हो। तुम चाहे जितना भी सत्य समझने में सक्षम हो, पर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ने पहले से तुम्हारी जिस प्रकार की क्षमता और रंग-रूप का निर्धारण किया है, उसके अनुसार तो शायद उसने तुम्हें सिर्फ एक सेवाकर्मी बनाना तय कर रखा है, और सत्य का अनुसरण करने, अगुआ बनने और किसी जिम्मेदार ओहदे पर बैठने, या बचाए जाने के साथ तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है; इसके बजाय, तुम सबसे तुच्छ व्यक्ति बनने को तैयार हो। यह हीनभावना शायद तुममें पैदाइशी न हो, लेकिन एक दूसरे स्तर पर, तुम्हारे पारिवारिक माहौल, और जिस माहौल में तुम बड़े हुए हो, उसके कारण तुम्हें मध्यम आघातों या अनुचित आलोचनाओं का पात्र बनाया गया, और इस कारण से तुममें हीनभावना पैदा हुई। यह भावना तुम्हारे अनुसरण की सही दिशा को प्रभावित करती है, तुम्हारे अनुसरण की उचित आकांक्षा पर असर डालती है, और यह तुम्हारे उचित अनुसरणों में भी रुकावट पैदा करती है। अपनी मानवता में जो उचित अनुसरण और उचित संकल्प तुममें होने चाहिए, जब उन्हें एक बार रोक दिया जाए, तो सकारात्मक चीजें करने और सत्य का अनुसरण करने की तुम्हारी अभिप्रेरणा दब जाती है। यह दबाव तुम्हारे इर्द-गिर्द के माहौल या किसी व्यक्ति के कारण नहीं होता, और निस्संदेह परमेश्वर ने तय नहीं किया है कि तुम्हें यह सहना चाहिए, बल्कि तुम्हारे दिल की गहराई में पैठी सशक्त नकारात्मक भावना के कारण ऐसा होता है। क्या यही बात नहीं है? (बिल्कुल है।)

सतह पर तो हीनभावना एक भावना है जो लोगों में अभिव्यक्त होती है; लेकिन दरअसल इसका मूल कारण समाज, मानवजाति और वह माहौल है जिसमें लोग जीते हैं। यह लोगों के अपने वस्तुनिष्ठ कारणों से भी पैदा होती है। कहने की जरूरत नहीं कि समाज और मानवजाति शैतान से आते हैं, क्योंकि पूरी मानवजाति उस दुष्ट की सत्ता के अधीन है, शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट है और संभवतः कोई भी व्यक्ति अगली पीढ़ी को सत्य या परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार शिक्षा नहीं दे सकता, बल्कि वह शैतान से आई चीजों के अनुसार शिक्षा देता है। इसलिए, लोगों के स्वभाव और सार को भ्रष्ट करने के अलावा अगली पीढ़ी और मानवजाति को शैतान की चीजों की शिक्षा देने का परिणाम यह है कि इससे लोगों में नकारात्मक भावनाएँ पैदा होती हैं। यदि पैदा हुई नकारात्मक भावनाएँ अस्थाई हों, तो उनका व्यक्ति के जीवन पर अत्यधिक असर नहीं होगा। लेकिन यदि नकारात्मक भावना व्यक्ति के अंतरतम और अंतरात्मा में गहरे पैठ जाए और अमिट रूप से चिपक जाए, यदि वह इसे भुलाने या इससे मुक्त होने में पूरी तरह असमर्थ हो जाए, तो यह उसके हर फैसले, हर प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों से पेश आने के तरीके, सिद्धांत के प्रमुख मामलों से सामना होने पर विकल्प चुनने और जीवन में उसके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग को अनिवार्य रूप से प्रभावित करेगी—यह है वह प्रभाव जो प्रत्येक व्यक्ति पर वास्तविक मानव समाज डालता है। दूसरा पहलू है लोगों के अपने वस्तुनिष्ठ कारण। यानी, बड़े होते समय लोगों द्वारा प्राप्त शिक्षा और सीख, उनकी हर सोच और विचार के साथ-साथ, वे आचरण के जो तरीके स्वीकारते हैं, और साथ ही विभिन्न इंसानी कहावतें, सब-कुछ शैतान से ही आते हैं, इस हद तक कि लोगों का जिन मसलों से सामना होता है, उनको सही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से संभालने और दूर करने की क्षमता उनमें नहीं होती। इसलिए, अनजाने ही इस कठिन माहौल के प्रभाव में, उससे दबे और नियंत्रित रहते हुए, मनुष्य नकारात्मक भावनाएँ विकसित करने और जिन समस्याओं को सुलझाने, बदलने या दूर करने की क्षमता उसमें नहीं है, उनका प्रतिरोध करने की कोशिश में उनका प्रयोग करने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए हीनभावना को लेते हैं। तुम्हारे माता-पिता, शिक्षक, तुम्हारे बड़े-बुजुर्ग और तुम्हारे आसपास के सभी लोग तुम्हारी क्षमता, मानवता, और व्यक्तित्व का अवास्तविक आकलन करते हैं, और आखिरकार यह तुम पर हमला करता है, तुम्हें सताता, दबाता, और अवरुद्ध कर बाँध लेता है। अंततः जब तुममें प्रतिरोध की शक्ति नहीं होती, तो तुम्हारे पास चुपचाप अपमान और तिरस्कार स्वीकारने, और इस प्रकार की अनुचित और अन्यायपूर्ण वास्तविकता को स्वीकारने का जीवन चुनने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता, भले ही तुम जानते हो कि यह गलत है। जब तुम इस वास्तविकता को स्वीकार करते हो, तो आखिरकार तुममें जो भावनाएँ पैदा होती हैं, वो आनंदित, संतुष्ट, सकारात्मक या प्रगतिशील नहीं होतीं; मानव जीवन के सही और वास्तविक लक्ष्यों का अनुसरण करना तो दूर, तुम अधिक अभिप्रेरणा और दिशा के साथ भी नहीं जीते, बल्कि तुम्हारे भीतर एक गहन हीनभावना पैदा हो जाती है। जब तुममें यह भावना पैदा होती है तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास अब कोई रास्ता नहीं रहा। जब किसी ऐसे मसले से तुम्हारा सामना होता है जिस पर तुम्हें एक विचार व्यक्त करना होता है, तो तुम अपने अंतरतम में न जाने कितनी बार विचार करोगे कि तुम्हें क्या कहना है और कौन-से विचार व्यक्त करने हैं, फिर भी तुम इसे जोर से बोलने के लिए तैयार नहीं हो पाओगे। जब दूसरा कोई तुम्हारे ही विचार व्यक्त कर देता है तो भीतर यह पुष्टि महसूस करोगे कि तुम सही थे, दूसरों की अपेक्षा तुम बुरे नहीं हो। लेकिन जब वही स्थिति दोबारा आती है, तो भी तुम खुद से कहते हो, “मैं यूँ ही नहीं बोल सकता, लापरवाही नहीं कर सकता, या खुद का मजाक नहीं बनने दे सकता। मैं अच्छा नहीं हूँ, बेवकूफ हूँ, मूर्ख हूँ, जड़बुद्धि हूँ। मुझे सीखने की जरूरत है कि कैसे छुपकर रहूँ और बस सुनूँ, बोलूँ नहीं।” इससे हम देख सकते हैं कि हीनभावना के पैदा होने से लेकर उसके व्यक्ति के अंतरतम में गहराई से पैठने तक, क्या व्यक्ति अपनी स्वतंत्र इच्छा और उसे परमेश्वर द्वारा प्रदत्त न्यायसंगत अधिकारों से वंचित नहीं है? (बिल्कुल।) वह इन चीजों से वंचित है। उसे इन चीजों से किसने वंचित किया है? तुम निश्चित रूप से नहीं कह सकते, है न? तुममें से कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में, तुम सिर्फ पीड़ित ही नहीं अपराधी भी हो—तुम दूसरे लोगों द्वारा पीड़ित हो, और स्वयं से भी पीड़ित हो। ऐसा क्यों है? मैंने अभी-अभी कहा कि तुममें पैदा होने वाली हीनभावना की वजह तुम्हारे अपने वस्तुनिष्ठ कारण हैं। जब से तुम स्वयं को जानने लगे, घटनाओं और चीजों को परखने का तुम्हारा आधार-स्रोत शैतान की भ्रष्टता में था, और तुममें ये विचार समाज और मानवजाति ने बिठाए हैं, ये तुम्हें परमेश्वर ने नहीं सिखाए हैं। इसलिए, तुम्हारी हीनभावना जब भी और जिस भी संदर्भ में पैदा हुई हो, और तुम्हारी हीनभावना जिस हद तक भी विकसित हुई हो, तुम असहाय ढंग से इन भावनाओं से बंधे हुए और नियंत्रित हो, और तुम लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण में शैतान द्वारा तुममें बिठाए गए तरीकों का प्रयोग करते हो। जब हीनभावना तुम्हारे दिल में गहरे बिठा दी जाती है, तो इसका न सिर्फ तुम पर गहरा असर होता है, यह लोगों और चीजों पर तुम्हारे विचारों, और तुम्हारे आचरण और कार्यों पर भी हावी हो जाती है। तो वो लोग जिन पर हीनभावना हावी होती है, लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखते हैं? वे दूसरों को खुद से बेहतर मानते हैं, मसीह-विरोधियों को भी खुद से बेहतर समझते हैं। हालाँकि मसीह-विरोधी दुष्ट स्वभाव और बुरी मानवता के होते हैं, फिर भी वे उन्हें अनुकरणीय और सीखने के लिए आदर्श मानते हैं। वे अपने आपसे यह भी कहते हैं, “देखो, हालाँकि वे दुष्ट स्वभाव और बुरी मानवता वाले हैं, फिर भी वे गुणवान हैं, कार्य में मुझसे अधिक सक्षम हैं। वे दूसरों के सामने आराम से अपनी क्षमताएँ प्रदर्शित कर सकते हैं, और शरमाए या घबराए बिना इतने सारे लोगों के सामने बोल सकते हैं। उनमें सचमुच हिम्मत है। मैं उनकी बराबरी नहीं कर सकता। मैं बिल्कुल भी बहादुर नहीं हूँ।” ऐसा किस कारण से हुआ? यह कहना होगा कि इसका एक कारण यह है कि तुम्हारी हीनभावना ने लोगों के सार की तुम्हारी परख, और साथ ही दूसरे लोगों को देखने के तुम्हारे परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को प्रभावित कर दिया है। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल है।) तो हीनभावना तुम्हारे आचरण को कैसे प्रभावित करती है? तुम खुद से कहते हो : “मैं मूर्ख पैदा हुआ था, बिना गुणों या खूबियों के, मैं हर चीज सीखने में बहुत धीमा हूँ। उस व्यक्ति को देखो : हालाँकि वह कभी-कभी बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा करता है, मनमानी और लापरवाही से कार्य करता है, फिर भी कम-से-कम वह गुणवान और खूबियों वाला है। जहाँ भी जाओ, लोग ऐसे ही लोगों से काम लेना चाहते हैं, और मैं वैसा नहीं हूँ।” जब कभी कुछ होता है तो तुम पहली चीज यह करते हो कि खुद पर एक फैसला सुनाकर स्वयं को सबसे अलग कर लेते हो। मसला जो भी हो, तुम पीछे हटकर पहल करने से बचते हो, तुम्हें कोई भी जिम्मेदारी लेने से डर लगता है। तुम खुद से कहते हो, “मैं मूर्ख पैदा हुआ था। जहाँ भी जाता हूँ, मुझे कोई पसंद नहीं करता। मैं ओखली में सिर नहीं दे सकता, मुझे अपनी मामूली क्षमताएँ नहीं दिखानी चाहिए। अगर कोई मेरी सिफारिश करे, तो उससे साबित होता है कि मैं ठीक हूँ। लेकिन अगर कोई भी मेरी सिफारिश न करे, तो पहल करके कहना कि मैं यह काम हाथ में लेकर उसे अच्छे ढंग से कर सकता हूँ, मेरे बस की बात नहीं है। अगर मैं इस बारे में आश्वस्त नहीं हूँ, तो मैं ऐसा नहीं कह सकता—मैंने गड़बड़ कर दी तो क्या होगा, तब मैं क्या करूँगा? मेरी काट-छाँट हुई तो क्या होगा? मैं बेहद शर्मसार हो जाऊँगा! क्या यह अपमानजनक नहीं होगा? मैं अपने साथ ऐसा नहीं होने दे सकता।” गौर करो—क्या इसने तुम्हारे आचरण को प्रभावित नहीं किया है? एक हद तक, तुम्हारे आचरण के प्रति तुम्हारे रवैये को तुम्हारी हीनभावना प्रभावित और नियंत्रित करती है। एक हद तक इसे तुम्हारी हीनभावना का परिणाम माना जा सकता है।

इस हीनभावना के प्रभाव में, विभिन्न किस्म के लोगों के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण पर कैसा असर पड़ता है, चाहे वे मानवता वाले लोग हों, मामूली मानवता वाले हों, बिना किसी मानवता के हों या बुरी मानवता वाले हों? लोगों पर तुम्हारे कोई भी विचार सत्य या परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं होते, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना तो दूर की बात है। साथ-ही-साथ, इस हीनभावना के प्रभाव में, तुम सावधान, सतर्क और दबकर रहते हुए व्यवहार करने का विकल्प चुनते हो, और ज्यादातर समय तुम निष्क्रिय और मायूस रहते हो। तुममें कोई उत्साहपूर्ण संकल्प या अभिप्रेरणा नहीं होती, और जब कभी तुम्हारा रुझान सकारात्मक और सक्रिय होता है, और तुम थोड़ा काम हाथ में लेना चाहते हो, तब तुम सोचते हो, “क्या मैं अहंकारी नहीं हो रहा हूँ? क्या मैं खुद को आगे नहीं बढ़ा रहा हूँ? क्या मैं अपनी अकड़ नहीं दिखा रहा हूँ? दिखावा नहीं कर रहा हूँ? क्या यह मेरी रुतबे की कामना नहीं है?” तुम नहीं समझ सकते कि तुम्हारे कार्यों की असल प्रकृति क्या है। मानवता की न्यायसंगत जरूरतें, आकांक्षाएँ, संकल्प और कामनाएँ, और साथ ही वो जिन्हें पाने का तुम प्रयास कर सकते हो, जो उचित है और जो तुम्हें करना चाहिए, तुम इन पर बार-बार सोचोगे और मन-ही-मन इन पर लगातार चिंतन करोगे। रात को नींद न आने पर, तुम इस पर बार-बार चिंतन करोगे, “क्या मुझे यह कार्य हाथ में लेना चाहिए? नहीं, मैं उतना अच्छा नहीं हूँ, इसे करने की हिम्मत न करूँ तो बेहतर है। मैं बेवकूफ और मंदबुद्धि हूँ। मुझमें वो गुण या योग्यताएँ नहीं हैं जो उस व्यक्ति में हैं!” भोजन करते समय तुम सोचते हो, “ये लोग दिन में तीन बार आहार लेते हैं और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाते हैं, उनके जीवन का मूल्य है। मैं दिन में तीन आहार तो लेता हूँ, मगर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाता, और मेरे जीवन का कोई मूल्य नहीं है। मैं परमेश्वर और अपने भाई-बहनों का ऋणी हूँ! मैं दिन में एक बार भी आहार लेने के योग्य नहीं हूँ और मुझे एक प्लेट खाना भी नहीं खाना चाहिए।” जब कोई व्यक्ति बहुत कायर होता है तो वह बेकार होता है, वह कुछ भी हासिल करने में समर्थ नहीं होता। जब कायर लोगों के सामने कोई कठिनाई आती है, तो उन्हें कुछ भी हो जाए, वे पीछे हट जाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? एक तो यह उनकी हीनभावना के कारण होता है। हीनभावना से ग्रस्त होने के कारण वे लोगों के सामने जाने की हिम्मत नहीं करते, वो दायित्व और जिम्मेदारियाँ भी नहीं ले सकते जो उन्हें लेनी चाहिए, न ही वे वो चीजें हासिल कर पाते हैं जो वे अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार और अपनी मानवता के अनुभव के दायरे के भीतर प्राप्त करने में सक्षम हैं। यह हीनभावना उनकी मानवता के हर पहलू को प्रभावित करती है और स्पष्ट रूप से उनके चरित्र को भी प्रभावित करती है। दूसरे लोगों के साथ होने पर, वे विरले ही अपने विचार व्यक्त करते हैं, और उन्हें शायद ही कभी अपने दृष्टिकोण या राय के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए देखा जा सकता है। जब किसी मसले से उनका सामना होता है, तो वे बोलने की हिम्मत नहीं करते, बल्कि इसके बजाय निरंतर पीछे हट जाते हैं। थोड़े-से लोगों के बीच तो वे बैठने का साहस दिखाते हैं, लेकिन जब ज्यादा लोग होते हैं, तो वे अंधेरे कोने में दुबक जाते हैं, दूसरे लोगों के बीच आने की हिम्मत नहीं करते। जब कभी वे यह दिखाने के लिए कि उनकी सोच सही है, सकारात्मक और सक्रिय रूप से कुछ कहना और अपने विचार और राय व्यक्त करना चाहते हैं, तब उनमें ऐसा करने की भी हिम्मत नहीं होती। जब कभी उनके मन में ऐसे विचार आते हैं, उनकी हीनभावना एक ही बार में उफन पड़ती है, उन पर नियंत्रण कर उन्हें दबा देती है और कहती है, “कुछ मत कहो, तुम किसी काम के नहीं हो। अपने विचार व्यक्त मत करो, अपने तक ही रखो। अगर तुम सचमुच अपने दिल की कोई बात कहना चाहते हो, तो कंप्यूटर पर लिखकर उस बारे में खुद ही मनन करो। तुम्हें इस बारे में किसी और को जानने नहीं देना चाहिए। तुमने कुछ गलत कह दिया तो क्या होगा? यह बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी!” यह आवाज तुमसे कहती रहती है, यह मत करो, वह मत करो, यह मत बोलो, वह मत बोलो, जिस वजह से तुम्हें अपनी हर बात निगलनी पड़ती है। जब तुम ऐसी कोई बात कहना चाहते हो जिस पर तुमने मन-ही-मन बहुत मनन किया है, तब तुम पीछे हट जाते हो, कहने की हिम्मत नहीं करते या कहने में शर्मिंदा महसूस करते हो, यह सोचते हो कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, और अगर ऐसा कर देते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुमने कोई नियम तोड़ा है या कानून का उल्लंघन किया है। और जब किसी दिन तुम सक्रिय होकर अपने विचार व्यक्त कर देते हो, तो भीतर गहराई में बेहद बेचैन और विचलित हो जाते हो। हालाँकि अत्यधिक बेचैनी की यह भावना धीरे-धीरे धूमिल हो जाती है, फिर भी तुम्हारी हीनभावना धीरे-धीरे बोलने, विचारों को व्यक्त करने, एक सामान्य व्यक्ति बनने और बाकी सभी की तरह बनने की तुम्हारी इच्छा, विचारों, इरादों और योजनाओं को दबा देती है। जो लोग तुम्हें नहीं समझते उन्हें लगता है कि तुम कम बोलने वाले, शांत, संकोची, भीड़ में अलग न दिखने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति हो। जब तुम बहुत-से दूसरे लोगों के सामने बोलते हो, तो तुम्हें शर्मिंदगी महसूस होती है, और तुम्हारा चेहरा लाल हो जाता है; तुम थोड़े अंतर्मुखी हो, वास्तव में सिर्फ तुम्हीं जानते हो कि तुम हीनभावना से ग्रस्त हो। तुम्हारा दिल हीनभावना से सराबोर है, यह भावना बड़े लंबे समय से रही है, यह कोई अस्थाई भावना नहीं है। इसके बजाय यह तुम्हारी अंतरात्मा के विचारों पर सख्ती से नियंत्रण करती है, यह तुम्हारे होंठों को कसकर बंद कर देती है, और इसलिए तुम चीजों को कितने भी सही ढंग से समझो या लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और राय जो भी हों, तुममें सिर्फ अपने मन में ही सोचकर चीजों पर बारंबार विचार करने की हिम्मत होती है, कभी जोर से बोलने की हिम्मत नहीं होती। चाहे दूसरे लोग तुम्हारी बात स्वीकार करें, या उसमें सुधार कर तुम्हारी आलोचना करें, तुममें ऐसा परिणाम देखने या उसका सामना करने की हिम्मत नहीं होती। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी हीनभावना तुम्हारे भीतर है, तुम्हें बता रही है, “यह मत करो, तुम इस लायक नहीं हो। तुममें ऐसी योग्यता नहीं है, तुममें ऐसी वास्तविकता नहीं है, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम ऐसे बिल्कुल भी नहीं हो। अभी कुछ करो या सोचो मत। हीनभावना में जीकर ही तुम असल रहोगे। तुम इस योग्य नहीं हो कि सत्य का अनुसरण करो, या अपना दिल खोलकर जो मन में हो वह कहो और दूसरे लोगों की तरह बाकी सबसे जुड़ो। ऐसा इसलिए क्योंकि तुम किसी काम के नहीं हो, तुम उनके जितने अच्छे नहीं हो।” लोगों के दिमाग में उनकी सोच को यह हीनभावना ही निर्देशित करती है; सामान्य व्यक्ति को जो दायित्व निभाने चाहिए, उन्हें निभाने और जो सामान्य मानवता का जीवन उन्हें जीना चाहिए, उसे जीने से यह रोकती है, साथ ही यह लोगों और चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनके आचरण और कार्य के तरीकों और साधनों और दिशा और लक्ष्यों का निर्देशन भी करती है। भले ही उन्हें यकीन हो कि उन्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए और एक ईमानदार व्यक्ति होना उन्हें अच्छा लगता है, फिर भी वे एक ईमानदार व्यक्ति होने के जीवन में प्रवेश करने के लिए कभी भी अपनी कथनी और करनी में ऐसा बनने की अपनी इच्छा व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करते। अपनी हीनभावना के कारण वे एक ईमानदार व्यक्ति बनने की हिम्मत भी नहीं करते—उनमें बिल्कुल साहस नहीं होता। जब वे ईमानदारी से कोई बात कहते भी हैं, तो फौरन अपने आसपास के लोगों को देखते हैं, और सोचते हैं, “क्या कोई मेरे बारे में कोई राय बना रहा है? क्या वे सोचेंगे, ‘क्या तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश कर रहे हो? क्या तुम ईमानदार व्यक्ति बस इसलिए बनना नहीं चाहते कि तुम बचाए जा सको? क्या यह बस आशीष पाने की इच्छा नहीं है?’ नहीं नहीं, अच्छा होगा मैं कुछ न कहूँ। वे सब ईमानदारी से बोल सकते हैं, सिर्फ मैं ही हूँ जो नहीं बोल सकता। मैं उनकी तरह योग्य नहीं हूँ, मैं सबसे निचले पाएदान पर हूँ।” इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों और खुलासों से हम देख सकते हैं कि जब एक बार यह एक नकारात्मक भावना—हीनभावना—प्रभाव डालने लगती है, और लोगों के अंतरतम में जड़ें जमा लेती है, तो जब तक वे सत्य का अनुसरण न करें, उनके लिए इसे निर्मूल कर इसकी बाध्यता से निकलना बहुत कठिन होगा, वे अपने हर काम में इससे बाध्य होंगे। हालाँकि इस भावना को भ्रष्ट स्वभाव नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह पहले ही बहुत गंभीर नकारात्मक प्रभाव डाल चुकी है; यह उनकी मानवता को गंभीर नुकसान पहुँचाती है, उनकी विविध भावनाओं, और उनकी सामान्य मानवता की बातों और कार्यों पर बहुत नकारात्मक प्रभाव डालती है जिसके अत्यंत गंभीर परिणाम होते हैं। उसका गौण प्रभाव उनके चरित्र, उनकी दुविधाओं, और उनकी आकांक्षाओं पर पड़ता है; इसका प्रमुख प्रभाव जीवन के उनके उद्देश्यों और दिशा पर पड़ता है। इस हीनभावना को इसके कारणों, इसकी प्रक्रिया और व्यक्ति पर होने वाले इसके परिणामों में से चाहे जिस भी पहलू से देखो, क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसे लोगों को जाने देना चाहिए? (बिल्कुल।) कुछ लोग कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि मैं हीन हूँ, और मैं किसी प्रकार की बाध्यता के अधीन नहीं हूँ। किसी ने भी मुझे उकसाया नहीं है, न नीचा दिखाया है, और न ही किसी ने मुझे दबाया है। मैं बड़ी आजादी के साथ जीता हूँ, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि मुझमें यह हीनभावना नहीं है?” क्या यह सही है? (नहीं, कभी-कभी हममें तब भी हीनभावना होती है।) तुममें कमोबेश यह अब भी हो सकती है। शायद यह तुम्हारे अंतरतम पर हावी न हो, लेकिन कुछ स्थितियों में यह पल भर में पैदा हो सकती है। उदाहरण के लिए, तुम जिसे आदर्श मानते हो, जो तुमसे बहुत अधिक प्रतिभाशाली हो, जिसमें तुमसे अधिक विशेष कौशल और गुण हों, जो तुमसे ज्यादा दबंग हो, तुमसे ज्यादा रोबदार हो, तुमसे ज्यादा बुरा हो, तुमसे ज्यादा लंबा और तुमसे ज्यादा आकर्षक हो, जिसकी समाज में हैसियत हो, अमीर हो, तुमसे अधिक पढ़ा-लिखा, और रुतबे वाला हो, जो तुमसे बड़ा हो और जिसने तुमसे ज्यादा लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, जिसमें परमेश्वर की आस्था का ज्यादा अनुभव और वास्तविकता हो, ऐसा कोई व्यक्ति तुम्हारे सामने आ जाए, तो तुम अपनी हीनभावना को सिर उठाने से नहीं रोक सकते। जब यह भावना पैदा होती है, तो तुम्हारा “बड़ी आजादी के साथ जीना” गायब हो जाता है, तुम दब्बू हो जाते हो, घबराने लगते हो, तुम सोचने लगते हो कि अपनी बात कैसे कहूँ, तुम्हारे चेहरे के हावभाव अस्वाभाविक हो जाते हैं, तुम अपने बोल और चाल-ढाल में बाधित महसूस करते हो, और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करने लगते हो जैसे तुम नहीं हो। ये और दूसरी अभिव्यक्तियाँ तुममें हीनभावना पैदा होने के कारण होती हैं। बेशक, यह हीनभावना क्षणिक है, और जब यह भावना पैदा होती है, तो तुम्हें बस खुद को जाँचना चाहिए, विवेकपूर्ण होना चाहिए, और उसके द्वारा बाध्य नहीं होना चाहिए।

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें