असफलता, पतन, परीक्षण और शोधन झेलने के तरीकों के बारे में वचन (अंश 60)

कुछ लोगों को अतीत में कुछ असफलताओं का अनुभव करना पड़ा है, जैसे कि एक अगुआ होने के नाते कोई भी वास्तविक काम न करने या रुतबे के फायदों की लालसा करने के लिए बर्खास्त किया जाना। कई बार बर्खास्त होने के बाद इनमें से कुछ लोगों में थोड़ा-बहुत सच्चा बदलाव आ जाता है, तो क्या बर्खास्त होना लोगों के लिए अच्छी चीज है या बुरी? (यह एक अच्छी चीज है।) जब लोग पहली बार बर्खास्त किए जाते हैं तो उन्हें लगता है कि उन पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है। मानो किसी ने उनका दिल ही तोड़ दिया हो। वे खुद को संभाल भी नहीं पाते और उन्हें पता ही नहीं होता कि उन्हें किस दिशा में जाना है। लेकिन इस अनुभव के बाद वे सोचते हैं, “यह कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं थी। मेरा आध्यात्मिक कद पहले इतना छोटा क्यों था? आखिर मैं इतना अपरिपक्व कैसे हो सकता था?” इससे साबित होता है कि उन्होंने अपने जीवन में कुछ तरक्की कर ली है और यह भी कि वे परमेश्वर के इरादों, सत्य और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के उद्देश्य को थोड़ा-बहुत समझ गए हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की यही प्रक्रिया है। तुम्हें इन तरीकों को मान और स्वीकार लेना चाहिए जिन्हें परमेश्वर अपने कार्य में उपयोग करता है, अर्थात्, लगातार तुम्हारी काट-छाँट करना या तुम्हारे मामले में फैसला करना, यह कहना कि तुम निकम्मे हो, तुम बचाये नहीं जाओगे, और यहाँ तक कि तुम्हारी निंदा करना और तुम्हें धिक्कारना। हो सकता है कि तुम्हें नकारात्मक लगे लेकिन फिर सत्य खोजकर और आत्म-चिंतन करके और खुद को जान कर तुम जल्द ही इससे उबर लोगे, और परमेश्वर का अनुसरण कर अपने कर्तव्य सामान्य रूप से निभाने लगोगे। इसी को जीवन में संवृद्धि करना कहते हैं। तो, क्या अधिक बार बर्खास्त होना अच्छा है या बुरा? क्या परमेश्वर के कार्य का यह तरीका सही है? (बिल्कुल सही है।) लेकिन, कभी-कभी लोग इसे नहीं पहचानते और इसे स्वीकार नहीं कर पाते। विशेष रूप से पहली बार बर्खास्त होने पर उन्हें लगता है कि जैसे उनके साथ अन्याय किया जा रहा है, वे हमेशा परमेश्वर से तर्क-वितर्क कर उसके बारे में शिकायतें करते हैं और इस बाधा को पार नहीं कर पाते। वे इसे पार क्यों नहीं कर पाते? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर और सत्य के साथ समस्या खोज रहे हैं? इसका कारण यह है कि लोग सत्य को नहीं समझते, वे आत्म-चिंतन करना नहीं जानते, और वे अपने भीतर की समस्याओं की तलाश नहीं करते हैं। वे हमेशा दिल से आज्ञा मानने से इनकार करते हैं और जब उन्हें बर्खास्त किया जाता है तो वे परमेश्वर को चुनौती देना शुरू कर देते हैं। वे अपनी बर्खास्तगी को स्वीकार नहीं पाते और आक्रोश से भर जाते हैं। इस समय उनके भ्रष्ट स्वभाव बहुत तीव्र होते हैं, लेकिन जब वे बाद में इस मामले पर दुबारा नजर डालेंगे तो वे समझ लेंगे कि बर्खास्त होना उनके लिए सही था—यह उनके लिए एक अच्छी बात साबित हुई जिसने उन्हें जीवन में कुछ प्रगति करने में मदद की। जब उन्हें भविष्य में फिर से बर्खास्त किया जाएगा तो क्या वे तब भी इसे इसी तरह से चुनौती देंगे? (हर बार पहले से कम चुनौती देते जाएँगे।) इसमें धीरे-धीरे सुधार होना सामान्य बात है। लेकिन यदि कुछ भी नहीं बदलता तो इससे यह साबित हो जाएगा कि वे सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते और वे छद्म-विश्वासी हैं। फिर वे पूरी तरह बेनकाब कर हटा दिए जाते हैं और उनके पास उद्धार प्राप्त करने का कोई तरीका नहीं होता।

उद्धार पाने और पूर्ण बनाए जाने की प्रक्रिया के दौरान सभी लोगों को असफलताएँ, ठोकरें और बर्खास्तगी झेलनी होंगी, इसलिए इन पर बखेड़ा खड़ा मत करो। बर्खास्त लोगों की पीड़ा और निराशा देखकर उनका मजाक मत उड़ाओ, क्योंकि किसी दिन तुम्हें भी बर्खास्त किया जा सकता है और तुम्हारी हालत उनसे भी बदतर हो सकती है। यदि किसी दिन तुम लोगों को बर्खास्तगी का सामना करना पड़ता है तो क्या तुम नकारात्मक बनकर फूट-फूटकर रोने लगोगे? क्या तुम शिकायत करोगे? क्या तुम अपनी आस्था छोड़ना चाहोगे? यह इस पर निर्भर करता है कि क्या तुमने परमेश्वर में विश्वास करते समय सत्य को स्वीकार किया है या नहीं, तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं और जो सत्य तुम समझते हो, क्या वे तुम्हारी वास्तविकता हैं। यदि ये सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन गए हैं तो तुम्हारे पास इस परीक्षण और शोधन को पार करने का आध्यात्मिक कद होगा। यदि तुम्हारे साथ सत्य वास्तविकता नहीं होगी तो यह बर्खास्तगी तुम्हारे लिए एक आपदा बन जाएगी, और यदि इसका हश्र बुरा हुआ तो तुम ऐसे धराशायी होगे कि फिर से उठ भी नहीं पाओगे। कुछ लोगों में थोड़ा-सा जमीर होता है और वे कहते हैं, “मैंने परमेश्वर की इतनी अनुग्रह का आनंद लिया है, मैंने इतने वर्षों तक उपदेश सुने हैं और परमेश्वर ने मुझे बहुत स्नेह दिया है। मैं इसे भूल नहीं सकता। कम से कम मुझे परमेश्वर के प्रेम का बदला तो चुकाना ही चाहिए।” फिर वे अपने कर्तव्य नकारात्मक और निष्क्रिय रूप से निभाते हैं, वे सत्य खोजने के प्रयास नहीं करते और बिल्कुल भी जीवन प्रवेश नहीं करते। अगर तुम अपने कर्तव्य पर दृढ़ता से स्थिर रह सकते हो, तो तुम्हें जमीर रखने वाला माना जा सकता है। तुम्हें कम-से-कम इतना तो करना ही चाहिए। लेकिन यदि तुम अपने कर्तव्यों में हमेशा अनमने रहते हो, सिद्धांतों का पालन और जीवन प्रवेश नहीं करते और तुम्हें अपने कर्तव्य में कोई परिणाम नहीं मिल रहे हैं तो क्या इसे अपना कर्तव्य निभाना कहेंगे? यदि तुम हमेशा अनमने ढंग से अपना कर्तव्य पालन कर रहे हो तो क्या तुम आपदाओं में डटे रह पाओगे? क्या तुम यह गारंटी दे सकते हो कि परमेश्वर को धोखा नहीं दोगे? इसलिए अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास कम से कम जमीर और समझ तो होनी ही चाहिए; केवल अपने जमीर और समझ के अनुसार सच्चे ढंग से अपना कर्तव्य निभाकर वास्तविक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। यह न्यूनतम मानक है। यदि तुम इस मानक को भी पूरा नहीं कर सकते तो तुम अनमने हो, तुम परमेश्वर को धोखा देने और उसके साथ विश्वासघात करने में सक्षम हो और तुम ठीक से मजदूरी तक नहीं कर रहे हो। भले ही तुम परमेश्वर के घर को न छोड़ो, परमेश्वर तुम्हें बहुत पहले ही हटा चुका होगा। ऐसा व्यक्ति बचाने योग्य नहीं है। इसका कारण है जमीर और समझ की कमी और लगातार अपने कर्तव्य अनमने ढंग से निभाना। तुम्हारे पैरों के छाले उस रास्ते के कारण पड़े हैं जिस पर तुम चले हो और इसके लिए दूसरों को दोष नहीं दिया जा सकता। यदि अंततः तुम्हें बचाया नहीं जाता, बल्कि श्राप दिया जाता है और तुम्हारा अंत पौलुस की तरह होता है, तो तुम इसके लिए किसी और को दोष नहीं दे सकते। यह तुम्हारा अपना रास्ता है और इसे तुमने खुद चुना है। इसलिए लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं, इसकी आधाररेखा यह है कि उनमें जमीर और समझ है या नहीं। अगर लोग इस बात पर स्थिर रह सकते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनमें जमीर और समझ है। ऐसे लोगों के उद्धार की आशा होती है। अगर वे इस मर्यादा को लांघते हैं, तो उन्हें हटा दिया जाएगा। तुम लोगों की लाल रेखा कौन-सी है? तुम कहते हो, “भले ही परमेश्वर मुझे पीटे, डांटे, मुझे ठुकरा दे और न बचाए, मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। मैं बैल या घोड़े की तरह हो जाऊंगा : मैं बिल्कुल अंत तक मजदूरी करके परमेश्वर के प्रेम का प्रतिफल दूँगा।” यह सब सुनने में बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन क्या तुम वाकई ऐसा कर सकते हो? अगर सच में तुम्हारा चरित्र और संकल्प ऐसा है, तो मैं तुम्हें स्पष्टता से कहता हूँ : तुम्हारे उद्धार पाने की आशा है। अगर तुम्हारा चरित्र ऐसा नहीं है, तुममें जमीर और समझ नहीं है तो अगर तुम मजदूरी करना भी चाहो तो अंत तक टिक नहीं पाओगे। जानते हो परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसे पेश आएगा? तुम नहीं जानते। जानते हो परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण कैसे करेगा? तुम यह भी नहीं जानते। अगर अपना आचरण करने के लिए तुम्हारे पास जमीर और विवेक की कोई आधाररेखा नहीं है, तुम्हारे पास अनुसरण का उचित तरीका नहीं है, और जीवन के प्रति तुम्हारे विचार और मूल्य सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो जब तुम्हारा सामना असफलताओं और शिकस्तों या परीक्षणों और शोधनों से होगा तो तुम दृढ़ नहीं रह पाओगे—तब तुम खतरे में होगे। जमीर और समझ की क्या भूमिका होती है? अगर तुम कहते हो, “मैं इतने सारे उपदेश सुन चुका हूँ और मुझे वास्तव में सत्य की कुछ समझ भी है। लेकिन मैं इन्हें व्यवहार में नहीं लाया, मैंने परमेश्वर को संतुष्ट नहीं किया है, परमेश्वर मेरा समर्थन नहीं करता—अगर अंततः परमेश्वर मुझे त्याग देता है और मुझे नहीं चाहता है, तो यह परमेश्वर की धार्मिकता होगी। भले ही परमेश्वर मुझे दंड दे, धिक्कारे, मैं परमेश्वर को नहीं त्यागूँगा। मैं कहीं भी जाऊँ, लेकिन परमेश्वर का सृजित प्राणी ही रहूँगा, हमेशा परमेश्वर में विश्वास रखूँगा और भले ही मुझे बैल या घोड़े की तरह काम करना पड़े, मैं परमेश्वर का अनुसरण करना नहीं छोड़ूँगा, और अपने परिणाम की परवाह नहीं करूँगा”—अगर वास्तव में तुम्हारे पास ऐसा संकल्प, जमीर और विवेक है, तो तुम दृढ़ रह पाओगे। लेकिन अगर तुम लोगों में इस संकल्प की कमी है और इन चीजों के बारे में कभी सोचा नहीं है, तो निस्संदेह तुम लोगों के चरित्र में, तुम्हारे जमीर और विवेक में समस्या है। क्योंकि तुम लोगों ने कभी भी परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य दिल से नहीं निभाना चाहा। तुम हमेशा बस परमेश्वर से आशीष माँगते रहे हो। तुम मन ही मन यह हिसाब लगाते रहे हो कि परमेश्वर के घर में प्रयास करने या कष्ट उठाने से तुम्हें क्या आशीष मिलेगा। अगर तुम इन्हीं चीजों का हिसाब लगाते रहते हो, तो तुम्हारे लिए दृढ़ रहना बहुत मुश्किल होगा। तुम्हें बचाया जा सकता है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुममें जमीर और विवेक है या नहीं। अगर तुममें जमीर और विवेक नहीं है, तो तुम बचाए जाने के योग्य नहीं हो, क्योंकि परमेश्वर राक्षसों और जानवरों को नहीं बचाता। अगर तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने का मन बनाते हो, पतरस के मार्ग पर चलते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, सत्य समझने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हारे लिए ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करेगा जो तुम्हें अनेक परीक्षणों और शोधन का अनुभव कराकर पूर्ण बनाएँगी। यदि तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग को नहीं चुनते, बल्कि मसीह-विरोधी पौलुस के मार्ग पर चलते हो, तो क्षमा करना—परमेश्वर फिर भी तुम्हारा परीक्षण करेगा और जाँच करेगा। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तुम परमेश्वर की परीक्षा में टिक नहीं पाओगे; अगर तुम्हारे साथ कुछ बुरा होता है, तो तुम परमेश्वर की शिकायत करोगे, और जब तुम परीक्षणों का सामना करोगे, तो तुम परमेश्वर को त्याग दोगे। उस समय तुम्हारा जमीर और विवेक किसी काम नहीं आएँगे और तुम निकाल दिए जाओगे। जिनमें जमीर या विवेक नहीं होता, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता; यह न्यूनतम मानक है।

तुम्हें कम से कम जमीर और विवेक के मानक पर खरा उतरना चाहिए। अर्थात्, यदि परमेश्वर अब तुम्हें नहीं चाहता तो तुम्हें उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, “परमेश्वर ने मुझे यह साँसें दी हैं। परमेश्वर ने मुझे चुना है। आज मैंने सृष्टिकर्ता को जाना और बहुत सारे सत्यों को समझा, लेकिन मैंने उन्हें अभ्यास में नहीं लाया है। सत्य को नापसंद करना मेरी प्रकृति में है और मुझमें जमीर नहीं है। लेकिन भले ही मैं भविष्य में सत्य का अभ्यास कर पाऊँ या न कर पाऊँ और मैं बचाया जाऊँ या नहीं, मैं हमेशा परमेश्वर को स्वीकारूँगा और यह भी स्वीकारूँगा कि सृष्टिकर्ता धार्मिक है। इस तथ्य को बदला नहीं जा सकता। मनुष्य को केवल इस कारण परमेश्वर और सृष्टिकर्ता को स्वीकारना बंद नहीं करना चाहिए कि उसके उद्धार की कोई आशा नहीं है या उसके लिए कोई परिणाम या कोई मंजिल नहीं है। यह एक विद्रोही विचार होगा। अगर मैं ऐसा सोचूँ तो मुझे धिक्कार है। परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, मनुष्य को समर्पण करना चाहिए; इसी को विवेक कहते हैं। मेरा आध्यात्मिक कद इतना छोटा है कि मैं समर्पण नहीं कर सकता और यदि मैं परमेश्वर से विद्रोह या विश्वासघात करता हूँ तो मुझे दण्डित किया जाना चाहिए। लेकिन परमेश्वर मेरे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, परमेश्वर का अनुसरण करने का मेरा दृढ़ संकल्प नहीं बदलेगा। मैं हमेशा परमेश्वर का सृजित प्राणी रहूंगा। चाहे परमेश्वर मुझे स्वीकार करे या न करे, मैं परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन एक मोहरा, सेवाकर्ता और सहायक चरित्र बनने को तैयार हूँ। मेरा यह दृढ़ संकल्प होना चाहिए।” चाहे अभी तुम्हारे मन में यह विचार हो या न हो, चाहे तुमने पहले कभी इस तरह से सोचा हो या यह दृढ़ संकल्प किया हो, फिर भी तुममें यह विवेक तो होना ही चाहिए। यदि तुम्हारे पास यह विवेक या इस प्रकार की मानवता नहीं है तो फिर तुम्हारे लिए उद्धार केवल खोखली बात है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? यह बिल्कुल ऐसा ही है। तुम्हें न्यूनतम मानक बता दिया गया है। जब तुम्हें समस्याओं का सामना करना पड़े तो तुम्हें इस पहलू के बारे में अधिक सोचना चाहिए। यह तुम्हारे लिए अच्छा है और तुम्हारे लिए अपनी रक्षा करने का एक तरीका है। यदि तुम्हारे अंदर सच में मानवता का यह पहलू नहीं है तो तुम बहुत खतरे में हो। तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, “हे परमेश्वर! मैंने कभी भी तुम्हें परमेश्वर मानकर व्यवहार नहीं किया। मैंने तुम्हें हवा मानकर ही व्यवहार किया है, मानो कोई अस्पष्ट और अदृश्य चीज हो। आज इस समस्या का सामना करते हुए मुझे लगता है कि मुझे निकाल दिया गया है और मेरी कोई अच्छी मंजिल नहीं है। तुम मेरा चाहे जो परिणाम तय करो, मैं तुम्हारे प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हूँ। मुझे तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए और मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। जो लोग तुम्हें छोड़ देते हैं और शैतान की सत्ता के अधीन रहते हैं वे इंसान नहीं हैं। वे शैतान हैं। मैं शैतान नहीं बनना चाहता। मैं इंसान बनना चाहता हूँ। मैं परमेश्वर के पीछे चलना चाहता हूँ, शैतान के नहीं।” यदि तुम हर दिन इस मामले के लिए प्रार्थना कर सको और ऊपर बढ़ सको तो तुम्हारा दिल अधिक से अधिक निर्मल होता जाएगा और तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग होगा। कठिनाइयों का सामना करते समय यदि किसी व्यक्ति का विद्रोही स्वभाव होता है, तो उसका दिल अड़ियल बन जाता है और फिर वे सत्य के लिए प्रयास करने को तैयार नहीं होते। भले ही वे कोई गलती करें, वे इसकी परवाह नहीं करते। वे जो जी में आए वही करते हैं। वे मनमाना और अनियंत्रित बनने लगते हैं और प्रार्थना नहीं करना चाहते। ऐसी घड़ी में क्या करना चाहिए? एक सबसे बुनियादी सिद्धांत है जो तुम्हारी रक्षा कर सकता है। वह यह है कि जब तुम खुद को सबसे अधिक नकारात्मक और कमजोर महसूस करो और यदि तुम्हारे दिल में परमेश्वर से विद्रोह करने, उसका विरोध करने, उसकी निन्दा और उसका न्याय करने जैसे विचार आते हैं तो उन्हें जोर से मत कहो, न ही कुछ ऐसा करो जो दूसरों को परमेश्वर का विरोध करने के लिए उकसाए। इस प्रकार, जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे और उससे संरक्षण मांगोगे तो तुम समस्याओं को दूर कर सकते हो। यही सबसे महत्वपूर्ण है। जब तुम्हारे पास सामान्य तार्किकता होगी, जब तुम नकारात्मक, पथभ्रष्ट, आसक्तिपूर्ण या प्रतिरोधी दशाओं से बाहर आओगे, तो तुम मन ही मन सोचोगे, “अच्छा हुआ, मैंने शुरुआत में ऐसा नहीं किया। यदि मैंने ऐसा किया होता, तो मैं एक ऐसा पापी बन जाता जिसे युगों-युगों तक धिक्कारा जाता और जो अक्षम्य दुष्टता का अपराधी होता।” यह रास्ता कैसा है? (यह अच्छा रास्ता है।) इसमें क्या अच्छाई है? (यह रास्ता लोगों को परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने से रोक सकता है।) परमेश्वर के स्वभाव को नाराज मत करो। एक बार तुमने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने वाली कोई बात जोर से कह दी तो क्या उसे वापस ले सकते हो? एक बार शब्द बोल दिया जाए, तो फिर यह एक तय तथ्य बन जाता है। परमेश्वर इसकी निंदा करता है। एक बार परमेश्वर तुम्हारी निंदा कर दे तो तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है, तो वह चाहे कितना भी कष्ट सह ले, खुद को कितना भी खपा ले या परमेश्वर में कैसे भी विश्वास रखे, उद्देश्य यह नहीं है कि परमेश्वर धिक्कारे या निंदा करे, बल्कि सृष्टिकर्ता से यह सुनना है, “परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देता है। तुम बच सकते हो और परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य हो।” यह हासिल कर सकना मुश्किल है। यह आसान नहीं है, इसलिए लोगों को एक दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए। कभी भी कोई ऐसी बात न करो जो तुम्हारे उद्धार के लिए हानिकारक हो। तुम्हें अहम मौकों पर खुद पर संयम रखना चाहिए और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे तुम्हें परेशानी हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि जैसे ही तुम परेशानियाँ खड़ी करते हो और परमेश्वर तुम्हें धिक्कारता है, यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करते हो तो तुम इसे कभी उलट नहीं पाओगे। बिना सोचे समझे कुछ मत करो या कहो। तुम्हें खुद पर संयम रखना चाहिए और आसक्त नहीं होना चाहिए। अगर तुमने खुद पर संयम रख लिया तो इससे साबित होता है कि तुम्हारी एक आधाररेखा है। यदि तुम खुद पर संयम रखते हो, परमेश्वर के अस्तित्व को मानते हो, परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करते हो और अंत तक अपने दिल में परमेश्वर का भय मानते हो तो परमेश्वर इसे देखेगा। तुमने ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे परमेश्वर नाराज हुआ हो, न ही कोई पाप किया है। परमेश्वर तुम्हारे दिल के विचारों की पड़ताल कर सकता है। चूँकि तुम्हारे पास कुछ-कुछ परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, भले ही तुम्हारे बेतुके विचार भी हैं, फिर भी तुमने किसी के सामने इन्हें जोर से नहीं कहा है, न ही परमेश्वर का विरोध करने के लिए कुछ किया है। परमेश्वर तुम्हारे इस व्यवहार को स्वीकार करने योग्य मानेगा। परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर ऐसे संकटों से बाहर निकलने के लिए तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहेगा। तो क्या तुम्हारे पास अभी भी उद्धार की उम्मीद है? यह उम्मीद होना बहुत ही दुर्लभ बात है। समस्याओं का सामना करते समय क्या करना चाहिए? खुद को नियंत्रित करो और कभी भी लिप्त मत हो। जब तुम लिप्त होते हो, तो यह आवेगपूर्ण भावनाओं का परिणाम होता है। तुम्हारी अहंकारी प्रकृति फूटने की कगार पर है और तुम शिकायतों और बहानों से भरे होते हो। तुम बहुत क्रोधित हो जाते हो और बोलने के लिए मजबूर महसूस करते हो। इस समय खुद पर संयम रखना असंभव होता है। नतीजे में तुम्हारे शैतानी स्वभाव का कुरूप पक्ष उजागर हो जाता है और बहुत संभावना है कि इस समय परमेश्वर का स्वभाव नाराज हो चुका है। संयम का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य अपने शब्दों, कर्मों और कदमों के प्रति सतर्क रहना है ताकि अपनी रक्षा की जा सके, परमेश्वर के स्वभाव को नाराज न किया जाए और अपने पास उद्धार के लिए आशा की अंतिम किरण रख छोड़ी जाए। इसलिए, खुद पर संयम रखना बहुत आवश्यक है। चाहे तुम्हें अपने साथ कितना ही अन्याय होता लगे, चाहे तुम्हारा दिल कितना ही पीड़ित और उदास हो, तुम्हें खुद पर संयम रखना चाहिए। यह सबसे सार्थक प्रयास है! खुद पर संयम रखने के बाद तुम्हें पछतावा हो ही नहीं सकता। इस तरीके से अभ्यास करना लोगों के लिए कुल मिलाकर फायदेमंद होता है, चाहे यह परमेश्वर में विश्वास करने के साधन के रूप में किया जाए या खुद की रक्षा के लिए एक गुप्त चाल के रूप में किया जाए। भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग कभी-कभी एक निश्चित स्तर का पागलपन प्रकट करते हैं और उनके क्रियाकलापों में तार्किकता और सिद्धांत नहीं होते हैं। तुम्हें तो यह भी नहीं पता कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कब भड़क उठेगा। जब तुम फूट कर कुछ ऐसा कह डालते हो जो परमेश्वर को नकारता हो और उसकी निंदा होती है, तो बहुत देर हो चुकी होती है और इस पर पछताने से कोई फायदा नहीं होता। इसके परिणाम अकल्पनीय होते हैं। तुम्हें निकाला जा सकता है और पवित्रात्मा तुम पर कार्य नहीं करेगा। क्या इसका यह मतलब नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया है? तुम्हारे पास उद्धार की कोई आशा नहीं होगी।

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