मनुष्य नए युग में कैसे प्रवेश करता है (भाग दो)

क्या तुम लोग यह सब जो मैंने कहा है, वास्तव में समझ गए हो? क्या तुम लोग जानते हो कि नए युग में कैसे जाना है? और क्या तुम जानते हो कि तुम्हें किन पहलुओं को बदलने की जरूरत है, किन पहलुओं में प्रवेश करना है? शायद तुम लोग यह नहीं समझते। यद्यपि लोगों ने अतीत में कुछ प्रवेश प्राप्त किया था, फिर भी उनमें अभी भी अनेक पहलुओं में कमी थी और वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने में असमर्थ थे। अब, लोगों को नए युग में ले जाने के लिए परमेश्वर बहुत सारे वचन बोलता है। ऐसा क्यों है कि लोग परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में हमेशा धारणाएँ पाले रहते हैं? यह दिखाता है कि उन्होंने पहले सत्य हासिल नहीं किया और उनके पास सत्य-वास्तविकता नहीं है। यद्यपि तुम अब परमेश्वर के वचन पढ़कर इन्हें स्वीकारने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन ऐसा क्यों है कि अपने वास्तविक जीवन में तुम सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, और इसके बजाय हमेशा परमेश्वर के प्रति विद्रोहपूर्ण व्यवहार करते हुए उसका विरोध करते हो? ऐसा क्यों है कि जब तुम्हारे साथ चीजें घटित होती हैं, तो तुम्हारे पास हमेशा अपने विचार होते हैं और तुम अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो पाते? इसका कारण यह है कि तुम्हारे भीतर बहुत सारी दैहिक और मनमानी चीजें हैं और तुम हमेशा यही सोचते हो कि तुम्हारा रास्ता ही सही रास्ता है। उपदेश सुनते हुए तुम लोग बहुत अच्छा महसूस करते हो और कोई धारणा नहीं पालते, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो तुम सत्य का अभ्यास तो करना चाहते हो, लेकिन नियंत्रण खो बैठते हो, और तुम्हारे अंदर की विद्रोही चीजें दिख जाती हैं। मैं कहता हूँ, तुम लोग बहुत विद्रोही हो और अगर मुझ पर विश्वास न हो तो तुम यह बात दर्ज कर सकते हो। हर बार जब तुम परमेश्वर का कोई कथन सुनो, तो यह बात दर्ज करो कि तुम्हारे दिल में कौन-सी धारणाएँ उठती हैं और तुम्हारे विचार क्या हैं, और फिर अपने अंदर की चीजें बाहर निकालो, उनका गहन-विश्लेषण करो, उन्हें परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसो, तब तुम्हें पता चलेगा कि तुममें कितनी विद्रोहशीलता है। इस तरह से अभ्यास करना तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए लाभकारी है। तुम्हें तथ्यों का सामना करने का साहस करना चाहिए और खुद को उजागर करने का साहस करना चाहिए। जब तुम खुद को उजागर करने का साहस करते हो, तो यह साबित करता है कि तुम्हारे पास ऐसा दिल है जो सत्य स्वीकारता है, ऐसा दिल जो धारणाओं को त्याग कर परमेश्वर के प्रति समर्पित होता है। तुम्हें अपने विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए; लगातार परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह मत करते रहो, क्योंकि यह गलत है। परमेश्वर में विश्वास करना लेकिन यह न जानना कि उसके प्रति समर्पण कैसे किया जाए, इससे काम नहीं चलेगा। ऐसे समय जब परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान लगता है, तभी तुम्हारे दिल में शांति और आनंद होगा; जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ोगे तो तुम्हें बहुत आनंद आएगा, जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे तो तुम्हें कहने के लिए शब्द मिलेंगे और तुम उसके ज्यादा से ज्यादा करीब आते जाओगे। जो लोग हमेशा परमेश्वर से विद्रोह करते रहते हैं, वे कभी सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे वचन उनके अंदर नहीं उतरते—उनके दिलों में कौन-सी शांति और कौन-सा आनंद हो सकता है? जब लोग समस्याओं का सामना करते हैं, तो उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ सतह पर आ जाती हैं, और वे उनसे बच नहीं पाते। तब तुम्हें चिंतन-मनन कर सोचना चाहिए, “यह समस्या कैसे उत्पन्न हुई? ऐसी धारणा कैसे उपजी? इसका स्रोत कहाँ पाया जा सकता है?” तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए, इस मामले की असलियत देखनी चाहिए और जब समस्या सुलझ जाएगी तो तुम्हें जीवन प्रवेश हासिल हो चुका होगा। अगर तुम इस तरीके से अपनी समस्याएँ व्यावहारिक रूप से नहीं सुलझाते, हमेशा यह विश्वास करते रहते हो कि कुछ धारणाएँ पालना कोई बड़ी बात नहीं है, कुछ दिन बाद वे अपने-आप दूर हो जाएँगी, और जब वे दूर हो जाएँगी तो इसका मतलब है कि तुम कोई धारणा नहीं पाल रहे, तो तुम्हें हमेशा यही लगेगा कि तुममें कोई धारणा नहीं है, जबकि वास्तव में जब धारणाएँ उत्पन्न हुईं तो तुमने उन्हें अनदेखा कर पनपने दिया। उस समय तुम्हें लगा कि इससे कोई नुकसान तो हुआ नहीं, और बाद में तुम यह मानने से ही इनकार कर देते हो कि तुममें कोई धारणा थी भी। साधारणतया जब लोग काट-छाँट से नहीं गुजरते, जब उन्हें किसी विपरीत स्थिति से नहीं सुलटना पड़ता, वे कोई धारणा नहीं पालते और भूल जाते हैं कि उनमें कभी कोई धारणा थी भी। वे खुद को अद्भुत समझते हैं, कि उनमें वाकई कोई धारणा नहीं है। लेकिन जब कुछ बुरा घटित होता है, तो धारणाएँ उत्पन्न होती हैं और वे परमेश्वर का विरोध करते हैं, और कुछ समय बाद धारणाएँ गायब हो जाती हैं और वे उनके बारे में भूल जाते हैं, और एक बार फिर उन्हें लगने लगता है कि वे एक अद्भुत अवस्था में हैं और परमेश्वर के बारे में कोई धारणा नहीं रखते—उनकी समस्या क्या है? यही है कि वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते और उन्होंने अपनी धारणाएँ जड़ पर ही हल नहीं की हैं। इसीलिए इस प्रकार की धारणाएँ तब तक बार-बार उत्पन्न होती रहती हैं, जब तक कोई उनके साथ सत्य के बारे में गहराई से संगति नहीं करता, और तब उनकी धारणाएँ हमेशा के लिए हल होती हैं। जब अपनी धारणाएँ दूर करने की बात आती है तो मनोयोग से सत्य खोजे बिना काम नहीं चलेगा—महज धर्म-सिद्धांत समझना बेकार है। जो लोग सत्य को नहीं समझते, उन्हें अपने बारे में सीमित, सतही ज्ञान होता है। कभी-कभी जब उनमें धारणाएँ उत्पन्न होती हैं, तो वे उन्हें खोज नहीं पाते, यहाँ तक कि उन्हें भाँप भी नहीं पाते। अनसुलझी रह जाने वाली किसी छोटी धारणा के कारण कोई ठोकर नहीं खाएगा, लेकिन अनसुलझी रह गई कोई बड़ी धारणा उसे फौरन ठोकर खिला बैठेगी। खुद को जानने के लिए तुम्हें पहले अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का समाधान करना होगा, और उन गलत विचारों का भी समाधान करना होगा जो अक्सर पैदा हो जाते हैं। फिर सतही से लेकर गहरे स्वभाव तक, अपने तमाम भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करो, ऐसा करके तुम धीरे-धीरे सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। खुद को जानने की शुरुआत पहले अपने अंदर मौजूद धारणाओं और कल्पनाओं को जानने से होती है। जैसे-जैसे तुम्हारी सत्य की समझ गहरी होती जाती है, वैसे-वैसे तुम खुद को भी पहले से कहीं ज्यादा गहराई से जानने लगोगे। जब खुद को जानने की बात आती है तो तुम्हें अवश्य ही बारीकी में उतरना चाहिए। अगर तुम कभी खुद को जानने में सक्षम नहीं होते, तो तुम्हें जीवन प्रवेश नहीं मिलेगा; जीवन प्रवेश खुद को जानने से शुरू होता है। अगर तुम जीवन प्रवेश प्राप्त करना चाहते हो तो फिर तुम्हें गंभीरता से सत्य खोजना होगा, अपनी समस्याएँ हल करने के मौकों का फायदा उठाना होगा और एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देना होगा। अपनी धारणाएँ नोट कर लेने के बाद तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, अपने बारे में खुलकर बोलना चाहिए और संगति में संलग्न होना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इस तरह की धारणाएँ पूरी तरह मिट जाएँगी। अगर वही मामला तुम्हारे सामने फिर आता है और तुम्हारा दिल अभी भी उससे बाधित होता है, तो यह दिखाता है कि तुमने वास्तव में सत्य को नहीं समझा है, बल्कि तुमने सिर्फ धर्मसिद्धांत को समझा है, इसलिए तुम्हारी धारणाएँ कायम हैं। जब तुम सत्य को सचमुच समझोगे, तभी तुम्हारी धारणाएँ पूरी तरह गायब होंगी, और अगर वे भविष्य में दोबारा उत्पन्न होती भी हैं तो भी वे आसानी से हल हो जाएँगी और तुम उनसे बाधित नहीं होगे, क्योंकि तुम सत्य को समझते हो। मुझे बताओ, क्या इस तरीके से खुद को जानना और सत्य में प्रवेश करना कठिन है? क्या इसमें बहुत मेहनत लगती है? लगती है! यदि तुम्हारे आत्म-ज्ञान में केवल सतही चीजों की सरसरी पहचान शामिल है—अगर तुम केवल कहते हो कि तुम अभिमानी और दंभी हो, कि तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो और उसका विरोध करते हो—तो यह सच्चा ज्ञान नहीं है, बल्कि सिद्धांत है। तुम्हें इसमें तथ्य एकीकृत करने चाहिए : जिन मामलों में तुम्हारे गलत इरादे और विचार हों या विकृत मत हों, तुम्हें उन्हें संगति और गहन-विश्लेषण के लिए प्रकाश में लाना चाहिए। केवल यही वास्तव में खुद को जानना है। तुम्हें केवल अपने कार्यों से अपने बारे में समझ हासिल नहीं करनी चाहिए; तुम्हें समस्या का मर्म समझकर समूल समाधान करना चाहिए। कुछ समय बीतने के बाद तुम्हें आत्म-चिंतन कर यह सारांश निकालना चाहिए कि तुम किन समस्याओं का समाधान कर चुके हो और कौन-सी अभी बची हुई हैं। इसी तरह इन समस्याओं का भी समाधान करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना होगा। तुम्हें निष्क्रिय नहीं होना चाहिए, तुम्हें हमेशा यह जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि चीजें करने के लिए दूसरे लोग तुम्हें मनाएँ या मजबूर करें या यहाँ तक कि तुम्हारी नाक पकड़कर अगुवाई करें; जीवन प्रवेश के लिए तुम्हारे पास अपना रास्ता होना चाहिए। तुम्हें बार-बार यह जाँच करके देखना चाहिए कि तुमने ऐसी कौन-सी चीजें कही या की हैं, जो सत्य के विरुद्ध हैं, तुम्हारे कौन-से इरादे गलत हैं और तुमने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं। अगर तुम हमेशा इसी तरह से अभ्यास और प्रवेश करते हो—अगर तुम खुद से सख्त अपेक्षाएँ करते हो—तो तुम धीरे-धीरे सत्य समझने में सक्षम हो जाओगे और तुम्हारे पास जीवन प्रवेश होगा। जब तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम देख लोगे कि तुम वास्तव में कुछ नहीं हो। इसका एक कारण तो यह है कि तुम्हारा स्वभाव गंभीर रूप से भ्रष्ट है; दूसरा कारण यह कि तुममें बहुत ज्यादा कमी है, और तुम किसी सत्य को नहीं समझते। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब तुम्हारे पास सचमुच ऐसा आत्म-ज्ञान हो तो तुम अब और अहंकार नहीं कर पाओगे, बहुत-से मामलों में तुम्हारे पास विवेक होगा और तुम समर्पण में सक्षम रहोगे। अभी मुख्य मुद्दा क्या है? धारणाओं के सार पर संगति और उसके गहन-विश्लेषण के जरिए लोग यह समझने लगे हैं कि वे धारणाएँ क्यों बनाते हैं; वे कुछ धारणाओं का समाधान करने में सक्षम रहते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे हर धारणा का सार स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, इसका अर्थ सिर्फ यह है कि उनमें कुछ आत्म-ज्ञान है, लेकिन उनका ज्ञान अभी पर्याप्त गहरा या पर्याप्त स्पष्ट नहीं है। दूसरे शब्दों में, वे अभी भी अपना प्रकृति-सार स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, न ही वे यह देख सकते हैं कि उनके दिलों में किन भ्रष्ट स्वभावों ने जड़ें जमा ली हैं। इस बात की एक सीमा है कि इस तरीके से व्यक्ति अपने बारे में कितना ज्ञान प्राप्त कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे पता है कि मेरा स्वभाव बेहद अहंकारी है—क्या इसका यह मतलब नहीं कि मैं खुद को जानता हूँ?” ऐसा ज्ञान बहुत सतही है; यह समस्या हल नहीं कर सकता। अगर तुम सचमुच खुद को जानते हो, तो तुम अभी भी व्यक्तिगत उन्नति क्यों चाहते हो, तुम अभी भी रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए क्यों लालायित रहते हो? इसका मतलब है कि तुम्हारी अहंकारी प्रकृति मिटी नहीं है। इसलिए बदलाव तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों से और तुम्हारी कथनी-करनी के पीछे छिपे इरादों से शुरू होना चाहिए। क्या तुम लोग स्वीकारते हो कि लोगों की कही अधिकांश बातें तीखी और विषैली होती हैं, और उनके लहजे में अहंकार का पुट होता है? उनके शब्दों में उनके इरादे और व्यक्तिगत मत निहित होते हैं। जिन लोगों के पास अंतर्दृष्टि है, वे इसे सुनने पर इसका भेद पहचानने में सक्षम होंगे। कुछ लोगों में जब उनका अहंकार प्रकट नहीं होता, तो वे अधिकांश समय एक खास तरीके से बात करते हैं और खास भाव-भंगिमाएँ दिखाते हैं, लेकिन अहंकार प्रकट होने पर उनका व्यवहार बहुत अलग होता है। कभी-कभी वे लगातार अपने ही आडंबरपूर्ण विचारों के बारे में बातें करेंगे, कभी-कभी वे अपने नुकीले दाँत और पंजे निकालकर सिर ऊँचा कर लेंगे। वे सोचते हैं कि वे पहाड़ के राजा हैं, और इसमें शैतान का बदसूरत चेहरा उजागर हो जाता है। हर व्यक्ति के भीतर तमाम तरह के इरादे और भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। जिस तरह कपटी लोग बात करते वक्त आँख मारते हैं और लोगों को कनखियों से देखते हैं—इन हरकतों के भीतर भ्रष्ट स्वभाव छिपा होता है। कुछ लोग गोलमोल शब्दों में बात करते हैं, और दूसरे लोगों को कभी पता नहीं चलता कि उनका मतलब क्या है। उनके शब्दों में हमेशा गूढ़ अर्थ और चालें होती हैं, लेकिन बाहर से वे बहुत शांत और प्रकृतिस्थ होते हैं। ऐसे लोग और भी ज्यादा कपटी होते हैं, और उनके लिए सत्य स्वीकारना और भी कठिन होता है। उन्हें बचाना बहुत मुश्किल है।

पहले लोग जब परमेश्वर में विश्वास करते थे, तो हमेशा इसी बात से संतुष्ट हो जाते थे कि उनके पास एक शांतिमय घर हो और जो भी वे करें वह सुचारु रूप से चलता रहे, और मानते थे कि इसका मतलब है कि परमेश्वर उनसे निश्चित रूप से प्रेम करता है और उनसे खुश है। अगर तुम सिर्फ इन्हीं चीजों से संतुष्ट हो जाते हो, तो सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कभी नहीं चलोगे। इस बात से संतुष्ट मत होओ कि बाहर से तुम्हारा जीवन कैसे ठीक या सुचारु रूप से चल रहा है; ये सतही चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। परमेश्वर द्वारा लोगों के उद्धार में अब लोगों में गहरे समाई उन चीजों को, जो शैतान की हैं, शुद्ध करके बदलना, उन्हें जड़ समेत उखाड़ना और उन्हें मनुष्य के सार और प्रकृति से बाहर निकालना शामिल है। परमेश्वर हमेशा मनुष्य के विचारों और इरादों का गहन-विश्लेषण क्यों करता रहता है? इसका कारण यह है कि मनुष्य की प्रकृति की जड़ें बहुत गहरी जमी हुई हैं। परमेश्वर यह नहीं देखता कि तुम चीजों को कैसे करते हो या तुम कैसे दिखते हो या तुम कितने लंबे हो, न वह यह देखता है कि तुम्हारा परिवार किस प्रकार का है या फिर तुम्हारे पास नौकरी है या नहीं—परमेश्वर इन चीजों को नहीं देखता। तुम्हारी समस्याएँ सार से हल करने और जड़ से उखाड़ने के लिए परमेश्वर जो मुख्य चीज देखता है, वह है तुम्हारा सार। इसलिए सिर्फ एक शांतिमय घर होने और सब-कुछ सुचारु रूप से चलने से और फिर यह सोचकर कि परमेश्वर तुम्हें आशीष दे रहा है, संतुष्ट मत हो जाओ—यह गलत है। इन बाहरी चीजों के पीछे मत भागो, इनमें मत फँसो। अगर तुम इन्हीं चीजों से संतुष्ट हो जाते हो, तो यह दिखाता है कि परमेश्वर में विश्वास करने में तुम जिस लक्ष्य का अनुसरण कर रहे हो, वह बहुत छोटा है, और तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने से बहुत पीछे हो। तुम्हें स्वभावगत बदलाव पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और इसकी शुरुआत अपने स्वभाव और अपनी मानवता के साथ-साथ परमेश्वर में विश्वास करने में तुम जो इरादे और विचार रखते हो, उन्हें बदलने से करनी चाहिए। इस तरह से जब तुम उन लोगों के संपर्क में आओगे, जिन्होंने अभी-अभी परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है या जिन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया है, तो वे तुम्हारे रूप-रंग से यह देख सकेंगे कि तुम्हारे भीतर बदलाव आ गया है और तुम जिस चीज का अनुसरण कर रहे हो, वह वास्तव में अलग है। वे कहते हैं, “परमेश्वर में अपने विश्वास में हम पैसा, रुतबा, अपने बच्चों के लिए कॉलेज की शिक्षा और अपनी बेटियों के लिए उपयुक्त जीवनसाथी का अनुसरण करते हैं। तुम इन चीजों का अनुसरण क्यों नहीं करते? तुम इन चीजों को ऐसे देखते हो, मानो वे गोबर और पूरी तरह से बेकार हों। फिर तुम कैसे परमेश्वर पर विश्वास करते हो?” तब तुम उनके साथ इस बारे में संगति करते हो कि तुम्हारा अनुभव कैसा है, तुममें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, परमेश्वर कैसे तुम्हारी काट-छाँट करता है, तुम्हें ताड़ना देता है और तुम्हारा न्याय करता है, कैसे तुम आत्म-चिंतन कर चीजों को समझते हो और कैसे तुम पश्चात्ताप करते और खुद को बदलते हो। जब लोग तुमसे मिलते हैं, तो उन्हें इस बात का बोध होता है कि तुम्हारी संगति कितनी ज्यादा व्यावहारिक है, उससे उन्हें कुछ हद तक पोषण प्राप्त होता है, और वह उन लोगों के लिए फायदेमंद है, और तुम लोगों को फुसलाने और समझाने के लिए उन्हें महज सतही उपदेश नहीं दे रहे हो। तुम जीवन प्रवेश और आत्म-ज्ञान के बारे में बात करने में सक्षम होगे और यह साबित करेगा कि तुम वास्तव में नए युग के व्यक्ति हो, वास्तव में एक नए व्यक्ति हो। अब कुछ लोग हैं, जो अभी भी अतीत की चीजों के बारे में बात कर कहते हैं, “मैं प्रभु यीशु में विश्वास करता था, और जहाँ भी मैं कार्य करने गया, पवित्र आत्मा ने महान कार्य किया। जब मैंने सुसमाचार का प्रचार किया, तो बहुत सारे लोग मुझे सुनने को तैयार रहते थे, और जिसके लिए भी मैंने प्रार्थना की, वह बहुत जल्दी ठीक हो गया...।” वे अभी भी इन चीजों के बारे में बात करते हैं, और यह कितना पिछड़ापन है! तुम लोगों को सत्य पर संगति करने, जीवन प्रवेश, स्वभाव में बदलाव, आत्म-ज्ञान और जीवन प्रवेश से संबंधित अन्य अनिवार्य चीजों के बारे में बात करने में अधिक समय लगाना चाहिए। जिन मामलों का सत्य से कोई सरोकार न हो, उनकी बात न करो। यदि तुम लोग अक्सर इस तरीके से अभ्यास करते हो तो तुम कुछ सत्य वास्तविकताएँ हासिल कर लोगे। अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद में तुम लोग उस कार्य को करने में सक्षम नहीं हो जो जीवन के लिए प्रावधान देता है, न ही तुम समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग कर सकते हो। तुम केवल लोगों को समझा-बुझा और प्रोत्साहित कर यह नसीहत दे सकते हो : “परमेश्वर के प्रति विद्रोह या उसका प्रतिरोध मत करो। इसके बावजूद कि हम बहुत भ्रष्ट हैं, परमेश्वर हमें बचाता है, इसलिए हमें परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना चाहिए और उसके सम्मुख समर्पण करना चाहिए।” यह सुनने के बाद लोग धर्म-सिद्धांत समझ लेते हैं, लेकिन उनमें अभी भी ऊर्जा की कमी होती है और वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव कैसे करें। यह साबित करता है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में तुम लोगों के पास भी सत्य वास्तविकता नहीं है। अगर तुमने खुद प्रवेश हासिल नहीं किया है तो दूसरों का निर्वाह कैसे करोगे? तुम अन्य लोगों की कठिनाइयों और भ्रष्ट स्वभावों की जड़ तक नहीं पहुँच सकते हो, तुम मूल बात को समझ नहीं सकते हो, क्योंकि तुम अभी भी खुद को नहीं जानते हो। इस प्रकार कलीसिया के अपने कार्य में जीवन प्रदान करना तुम लोगों की क्षमता से परे है, और केवल लोगों को प्रोत्साहित करके और उन्हें अच्छे बनने और ईमानदारी से आज्ञापालन करने की नसीहत देकर तुम असली समस्याएँ हल करने लायक नहीं हो। यह इस बात का पर्याप्त सबूत है कि तुम लोगों ने सत्य को सचमुच नहीं समझा है या कोई जीवन प्रवेश हासिल नहीं किया है। तुममें से अधिकांश लोग केवल धर्म-सिद्धांत और खोखले धर्मशास्त्र का प्रचार करना जानते हैं, लेकिन तुम जीवन का प्रावधान नहीं दे सकते हो; इसलिए तुम सभी का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। परमेश्वर में आस्था के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण में अभी परिवर्तन होना बाकी है। तुम्हारी समझ और तुम्हारे इरादे पहले जैसे ही हैं। अगर तुमने खुद अपनी समस्याएँ ही नहीं सुलझाई हैं, तो क्या दूसरों को बदलने के लिए कहने पर तुम्हारे पास आगे कोई मार्ग होगा? क्या तुम दूसरों को पोषण प्रदान कर सकोगे? क्या तुम उनकी समस्याएँ सुलझा सकोगे? अगर तुम इनमें से कोई काम करने में सक्षम नहीं हो, तो दूसरों को बदलने के लिए कहकर तुम क्या नतीजा प्राप्त कर सकते हो? अगर तुम लोगों को भाषण और नसीहत देने के लिए शब्दों और धर्मसिद्धांतों का उपदेश ही दे सकते हो, तो क्या तुम दूसरों को सत्य समझा सकते हो? अगर तुम्हें खुद ही परमेश्वर के कार्य की सच्ची समझ नहीं है, तो क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग तुम्हारी संगति सुनकर परमेश्वर के कार्य को समझ सकेंगे? जब तुम खुद ही सिद्धांतों के बिना अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों से कैसे अच्छे से कर्तव्य करवाओगे? वे परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए ऊर्जा कैसे जुटाएँगे? जो लोग अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम करते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए और इस मामले में सिद्धहस्त होना चाहिए कि कलीसिया के तमाम तरह के लोगों की दशाएँ क्या हैं, उनमें से किसके पास परमेश्वर के वचनों की अनुभवजन्य समझ है और उनमें से कौन सचमुच आत्म-ज्ञान रखता है और वास्तव में पश्चात्ताप करता है। जो अगुआ और कार्यकर्ता इन चीजों में महारत हासिल करने में सक्षम हैं, वे कुछ व्यावहारिक कार्य करने में सक्षम होंगे। अपने कर्तव्य में तुम जिन लोगों के साथ काम करते हो, अगर वे भी बिल्कुल तुम्हारी तरह ही हैं और बिना किसी आत्म-ज्ञान के दूसरों को भाषण देते हैं तो यह साबित करता है कि तुम्हारे पास भी सत्य वास्तविकता नहीं है, कि तुम खुद को नहीं जानते और तुम्हारे बीच कोई फर्क नहीं है। क्या तुम लोगों ने इन चीजों के बारे में पहले कभी सोचा है? तुम लोग केवल यह जानते हो, “मुझे यहाँ शक्ति दी गई है, मेरे पास रुतबा है, मैं कलीसिया में अधिकारी हूँ और अब मेरे पास एक जगह है जहाँ मैं दूसरों को भाषण दे सकता हूँ।” तुम केवल रुतबे और प्रतिष्ठा पर ध्यान देते हो, इस बात पर ध्यान देते हो कि दूसरों को कैसे डपटें और उपदेश दें, ऐसा क्या कहें ताकि दूसरों को अपनी बात सुनवा लो, खुद को कई कलीसियाओं में प्रभाव और उच्च प्रतिष्ठा दिलवा लो और अपनी स्थिति मजबूती से स्थापित करवा लो। सिर्फ इन्हीं चीजों पर ध्यान देना यह साबित करता है कि तुम भटक गए हो। पुराने युग से नए युग में प्रवेश करने का अर्थ केवल यह नहीं है कि लोगों के चीजें करने और कहने के तरीके बदलें, बल्कि यह भी जरूरी है कि लोगों के पास उच्चतर प्रवेश हो, वे ऊँची कीमत चुकाएँ, वे अपनी देह के खिलाफ हमेशा-हमेशा के लिए विद्रोह करने में सक्षम हों, देह के प्रति झुकाव त्याग दें, अपने जीवन के रूप में सिर्फ सत्य का अनुसरण करें और सच्चे मानव के समान जिएँ। सिर्फ इसी तरह से वे वास्तव में संपूर्ण बदलाव से गुजर सकते हैं। नया कार्य करने में परमेश्वर को आवश्यक रूप से मनुष्य से नई अपेक्षाएँ करनी होंगी, और उन पुरानी, परंपरागत धारणाओं से चिपके रहकर मनुष्य सिर्फ चीजों को धीमा करता है। कुछ लोगों की बाइबल पर अंधी आस्था होती है और वे उससे कभी नहीं डिगते—क्या वे ऐसा करके जीवन प्राप्त करने और परमेश्वर को जानने में सक्षम होते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। पीढ़ियों तक फरीसियों ने बाइबल पढ़ी, फिर अंततः उन्होंने उसी प्रभु यीशु को सूली पर टाँग दिया जो सत्य व्यक्त कर रहा था—ऐसा क्यों हुआ? अगर उन्होंने बाइबल को सचमुच समझा होता तो उन्हें परमेश्वर को जानना चाहिए था, और जब प्रभु यीशु आया तो उसका स्वागत करना चाहिए था, न कि उसकी निंदा करनी चाहिए थी। अब भी ऐसे अनेक लोग हैं, जो इस मामले में पैनी समझ नहीं रखते। अपने दिलों में वे हमेशा यही सोचते रहते हैं कि परमेश्वर अब कितने भी कथन क्यों न कहे, उन्हें अभी भी बाइबल पढ़नी चाहिए और उससे डिगना नहीं चाहिए। इसका मतलब यह है कि वे बाइबल में लिखी बहुत-सी बातें याद रखने में तो सक्षम रहते हैं, लेकिन परमेश्वर जिन सत्यों को अब व्यक्त कर रहा है उन्हें समझने या अभ्यास में लाने में सक्षम नहीं होते। अंत में वे कोई वास्तविक अनुभवजन्य गवाही बिल्कुल नहीं दे पाते और निकाल दिए जाते हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं है? असल में, अब ऐसे अनेक लोग हैं, जो अभी भी अक्सर बाइबल पढ़ते हैं लेकिन परमेश्वर के वचन बहुत कम पढ़ते हैं—ऐसा करना होशियारी है या मूर्खता? पहले जब लोग प्रभु में विश्वास करते थे, तो वे मानते थे कि अति उत्साह का मतलब उत्तम जीवन और अच्छी आस्था है। अब जब यह कहा जाता है कि सिर्फ उत्साह के साथ और स्वभावगत बदलाव के बिना व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पाएगा तो कुछ लोग हमेशा यह सोचते हैं कि परमेश्वर ऐसे लोगों से अन्यायपूर्ण ढंग से पेश आता है। मैंने ऐसे कुछ लोगों की पहले काट-छाँट की है और उनमें से कुछ ने इसे स्वीकारा नहीं और यह कहते हुए ऐसे लोगों का बचाव किया, “उन्होंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है। उन्होंने कीमत चुकाई है और बहुत कष्ट भोगे हैं, और भले ही उन्होंने कोई योगदान न दिया हो लेकिन कड़ी मेहनत तो की ही है। तुम उनके साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकते हो?” कुछ लोग अपने विचारों में सुधार नहीं कर पाते। क्या इसे समझना मुश्किल है? लोग यह देखते हैं कि दूसरे लोग बाहरी तौर पर चीजें कैसे करते हैं, जबकि परमेश्वर उनका सार देखता है, और यह बहुत अलग चीज है। तुम केवल यह देखते हो कि कोई व्यक्ति बाहर से कितना श्रद्धावान दिखता है, वह कितनी अच्छी तरह बोल सकता है, कितनी भाग-दौड़ कर सकता है और कीमत चुका सकता है। तुम यह क्यों नहीं कहते कि वह कितनी धारणाएँ पालता है, या वह कितना आत्म-तुष्ट और अहंकारी है? तुम ये चीजें क्यों नहीं देखते? इसीलिए मैं कहता हूँ कि चीजों के बारे में तुम्हारे विचार अभी भी बहुत पुराने और पिछड़े हुए हैं। परमेश्वर अब यह नहीं देखता कि लोग बाहरी तौर पर कितनी कीमत चुकाते हैं; वह चुकाई गई कीमत या तुम्हारी पूँजी के बारे में बात नहीं करता, न इस बारे में कि तुमने कितना कष्ट भोगा है—वह तुम्हारा सार देखता है। पिछले युग में लोगों का उपयोग करने के क्या सिद्धांत थे? जो कोई खूब उत्साही होता, भाग-दौड़ कर खुद को खपा पाता, सबसे लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहा होता और सबसे बूढ़ा और अविवाहित होता—इस ब्योरे में जो कोई ज्यादा फिट बैठता, उसकी उतनी ही ज्यादा प्रतिष्ठा होती और वह अगुआ बनने के लिए उतना ही ज्यादा काबिल होता। ये चीजें अब महत्वपूर्ण नहीं रहीं। व्यक्ति का सार ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास के लिए मुख्य चीज यह है कि व्यक्ति का सार कैसा है, क्या वह परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है, और क्या वह परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने में सक्षम है। अब जबकि परमेश्वर देहधारण कर चुका है, अगर तुम उसे नहीं जानते तो यह तुम्हारे सार के बारे में क्या बताता है? क्या ऐसा नहीं है कि तुम्हारा सार परमेश्वर का विरोध करता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारे दृष्टिकोण और मंशाएँ परमेश्वर के अनुरूप हो सकते हैं या नहीं। अगर तुम सच्चा मार्ग स्वीकारने और अपने पुराने इरादों और धारणाओं के प्रति विद्रोह करने में सक्षम हो, तो तुम जैसे लोग परमेश्वर द्वारा स्वीकारे और धन्य किए जा सकेंगे। परमेश्वर द्वारा लोगों का अपने काम में उपयोग करने के सिद्धांत हैं। वह तुम्हारी पूँजी, पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रतिष्ठा या हैसियत नहीं देखता। वह उन लोगों का उपयोग नहीं करता जो उसका विरोध करते हैं—क्या इससे उसके कार्य में सिर्फ देरी नहीं होगी? लोग हमेशा अपनी पूँजी के बारे में बात करते रहते हैं, वे बेहिसाब अहंकारी होते हैं—वे राक्षस हैं! हम चढ़ावे, खुद को खपाने, पूँजी और प्रतिष्ठा जैसी चीजों की बात नहीं करते—इन चीजों की बात करना फिजूल है! जो कोई भी परमेश्वर के प्रति सर्वाधिक निश्छल और उसके प्रति सर्वाधिक समर्पण करने का इच्छुक है, उसी के पास सत्य वास्तविकता होगी और हम ऐसे लोगों का अनुमोदन करते हैं। क्या बाहर देखने का कोई तुक है? किसी व्यक्ति की कुछ चीजें बाहरी तौर पर बदल सकती हैं, लेकिन उसकी प्रकृति के भीतर अनेक चीजें नहीं बदली होंगी, और समय आने पर वे उभर जाएँगी। इसलिए तुम्हें इन चीजों को जानना और खोजकर बाहर निकालना होगा। व्यक्ति की प्रकृति के भीतर कई चीजें होती हैं! बेशक मनुष्य की प्रकृति अहंकारी, आत्म-तुष्ट और विद्रोही होती है, और ये सबसे बड़ी और सबसे गहरी समस्याएँ हैं। इनके अलावा मनुष्य के भीतर कई भ्रष्ट स्वभाव भी होते हैं। इसलिए खुद को जानना आसान काम नहीं है। कुछ हद तक काबिलियत वाले लोग जब कुछ गलत करते हैं या कोई पाप करते हैं, तो आसानी से इसे जान और समझ लेते हैं। लेकिन अपनी प्रकृति के भीतर की चीजें, अपने स्वभाव के भीतर की चीजें, और खासकर वे चीजें देखना और जानना, जो उनकी बड़ी कमजोरियों से संबंधित होती हैं, उनके लिए सबसे कठिन होता है। यह मत सोचो कि जब तुम कुछ गलत करते हो और परमेश्वर से प्रार्थना कर लेते हो या कोई पाप करते हो और इसे परमेश्वर के सामने कबूल कर लेते हो तो इसका मतलब यह है कि तुम खुद को जानते हो—यह आत्म-ज्ञान से बहुत दूर की बात है। अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास न हो, तो फिर आगे बढ़ो और देखो। शायद एक दिन ऐसा आए जब तुम किसी समस्या का सामना करते हुए गिर पड़ो या शायद ऐसा समय आए जब तुम गिरफ्तार कर लिए जाओ और रातोरात यहूदा बन जाओ, और हक्के-बक्के रह जाओ। अगर तुम जीवन प्रवेश पाना चाहते हो तो तुम्हें पहले खुद को जानना होगा; अगर तुम स्वभावगत बदलाव हासिल करना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के जरिए और भी अधिक आत्म-चिंतन कर खुद को जानना होगा। जब तुम्हें आत्म-ज्ञान में आगे बढ़ने का रास्ता मिल जाता है, जब तुम्हारा आत्म-ज्ञान गहराता जाता है और जब तुम जान जाते हो कि सत्य को अभ्यास में कैसे लाना है तो तुम स्वाभाविक रूप से जीवन प्रवेश प्राप्त कर लोगे। स्वभावगत बदलाव इस बिंदु पर भी शुरू होता है। अगर तुम खुद को जानने में सचमुच सक्षम हो गए तो फिर तुम्हारे पास जीवन प्रवेश और स्वभावगत बदलाव के साथ आगे बढ़ने का रास्ता होगा और ये चीजें तुम्हारे लिए आसान हो जाएँगी।

1995 के अंत में

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