मनुष्य नए युग में कैसे प्रवेश करता है (भाग एक)
आज हमारी संगति का विषय है मनुष्य का नए युग—राज्य के युग में प्रवेश, और लोगों को राज्य के युग में कैसे रहना चाहिए और उन्हें राज्य के युग में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करना चाहिए और कैसे वास्तव में नए युग में जाना चाहिए। मनुष्य नए युग में कैसे जाता है, इस विषय पर यह चर्चा मुख्य रूप से किस चीज पर केंद्रित होगी? राज्य के युग में परमेश्वर इतने अधिक वचन व्यक्त करता है और वह न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को यह सटीक रूप से जानना चाहिए कि राज्य के युग में परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए मनुष्य को उसमें किस प्रकार विश्वास करना चाहिए। अतीत में अधिकतर लोगों ने प्रभु में विश्वास कर परमेश्वर का खूब अनुग्रह प्राप्त किया। अभी वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के कार्य का अनुभव लेना शुरू कर रहे हैं, इसलिए वे परमेश्वर में विश्वास के पुराने विचार छोड़कर परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने वाले नए विचार कैसे अपना सकते हैं? परमेश्वर में विश्वास के तुम्हारे पुराने विचार चाहे सही रहे हों या गलत, यह जाँच का विषय नहीं होगा, तुम्हें वास्तविकता का सामना करना चाहिए और यह जानना चाहिए कि अब किस तरह विश्वास करें और किस तरह अनुसरण करें। अगर तुम इसी आधार पर अनुसरण करते रहे कि तुम पहले अनुग्रह के युग में किस तरह विश्वास करते थे, और अपने पुराने विचारों के आधार पर ही परमेश्वर में विश्वास करते रहे, तो तुम नए युग में प्रवेश नहीं कर पाओगे। चलो, पहले मैं उदाहरण के रूप में एक वाक्यांश सुनाता हूँ, जो इस मुद्दे को समझाएगा। वह कौन-सा वाक्यांश है? अनुग्रह के युग में यह वाक्यांश अक्सर बोला जाता था : “जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है तो उसका पूरा परिवार धन्य होता है।” अर्थात्, जब कोई एक व्यक्ति यीशु में विश्वास करता था, तो इस जुड़ाव से उसके परिवार में बड़े से लेकर छोटे तक सभी लाभान्वित होते थे और वे सभी शांति और आनंद का सुख भोगते थे। चूँकि यीशु ने छुटकारे का कार्य किया, इसलिए वह मनुष्य के प्रति असीम रूप से सहनशील, धैर्यवान, क्षमाशील और पापमोचक था। तुम्हारा जीवन-प्रवेश चाहे जैसा रहा हो, या तुम्हारी काबिलियत जैसी भी रही हो, या अतीत में तुमने चाहे जितने ज्यादा पाप किए हों, तुम्हें बस प्रभु के सामने उन्हें कबूलना भर होता था और वे सब पाप क्षमा कर दिए जाते थे और तुम्हें शांति और आनंद प्रदान कर दिए जाते थे। तुम्हें केवल “विश्वास” करने की जरूरत थी और यही पर्याप्त था—यह इतना सरल था। क्या अब भी ऐसा ही मामला है कि जब एक व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है, तो उसका पूरा परिवार धन्य हो जाता है? नहीं। वह कार्य अब क्यों नहीं किया जाता? क्योंकि समय आ गया है, परमेश्वर यहाँ न्याय का कार्य करने और मानवजाति को हमेशा-हमेशा के लिए शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए आ गया है। यही कारण है कि परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा करता है कि वे उसके प्रति वफादार और निष्ठावान हों, उसकी आराधना करें और उसके प्रति समर्पित हों, और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखें—ये वे चीजें हैं, जो लोगों को करनी ही चाहिए। अगर परमेश्वर में विश्वास करने वाले सत्य को समझ-बूझ सकें, सत्य को स्वीकार और हासिल कर सकें, तो वे पूर्णतया बचा लिए जाएँगे। लेकिन जो लोग सत्य को नहीं स्वीकारते और सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह का लोभ करते हैं, वे निकाल दिए जाएँगे। अगर तुम अब भी यह माँग करते हो कि परमेश्वर अनुग्रह के युग का ही कार्य करता रहे, और अभी भी यही सोचते हो कि जब तुम परमेश्वर में विश्वास करोगे तो तुम्हारा पूरा परिवार धन्य हो जाएगा, तो यह मूर्खतापूर्ण है! परमेश्वर अब अनुग्रह के युग का कार्य नहीं कर रहा। वह युग बीत चुका है। तुम यह समझते हो, है न?
इस कथित “नए युग में जाने” का अर्थ है आज के राज्य के युग में प्रवेश करना, और परमेश्वर में विश्वास के बारे में तुम्हारे विचार, तुम्हारे इरादे, तुम्हारी आस्था, तुम्हारे जीवन जीने का तरीका और चीजों को अनुभव करने का तरीका, यह सब बदलना चाहिए। अगर तुम सिर्फ एक चीज बदलते हो, अगर तुम यीशु पर विश्वास किया करते थे लेकिन आज सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करते हो, और जिस परमेश्वर में तुम विश्वास करते हो उसका सिर्फ नाम बदला है, तो फिर वास्तव में जिस तरीके से तुम विश्वास करते हो, जिस मार्ग पर तुम चलते हो और जिन चीजों का तुम अनुसरण करते हो, वे नहीं बदले हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हारे अनुसरण, तुम्हारी समझ और तुम्हारे विचारों में कुछ परिवर्तन होने चाहिए। जब तुम इस आधार पर सत्य का अनुसरण करते हो, केवल तभी तुम्हारी आस्था शुद्ध और सच्ची होगी। कुछ लोग अब हमेशा नकारात्मक क्यों रहते हैं और यह सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास निरर्थक है और वे अपनी आस्था में वे उतने जोश से भरे नहीं रहते जैसे पहले रहा करते थे? इसका कारण यह है कि परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनके विचार अभी तक बदले नहीं हैं। वे अब भी अपने उन्हीं विचारों पर कायम हैं जो यीशु में विश्वास करते समय थे और वे अपना ध्यान जरा-सा अनुग्रह पाने या खुद को अधिक खपाने और अधिक दौड़-भाग करने पर ही केंद्रित रखते हैं; वे अपना ध्यान उपहारों, सतही कार्यों और सतही उपदेशों, और उत्साह पर ही केंद्रित रखते हैं। फिर भी वे परमेश्वर के वर्तमान कार्य के साथ कदमताल मिलाकर नहीं चलते, परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध नहीं किए जाते, इसलिए वे हमेशा नकारात्मक महसूस करते हैं। इस तरह के लोग ऐसे दिखते हैं मानो वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जबकि असल में उन्होंने अपने दिल में सत्य नहीं स्वीकारा होता, इसीलिए उनकी नकारात्मक स्थिति कभी ठीक नहीं हो पाती। उनके पास जीवन-प्रवेश बिल्कुल नहीं होता, वे अब भी बिना बदले परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपने पुराने विचारों से चिपके रहते हैं। क्या यही मामला नहीं है? पवित्र आत्मा का कार्य बदल चुका है, और पवित्र आत्मा के कार्य के साथ-साथ परमेश्वर में मनुष्य का विश्वास भी बदलना चाहिए। अगर तुम्हारा अनुसरण, तुम्हारे जीने का तरीका, तुम्हारे अनुभव करने का तरीका, परमेश्वर में विश्वास के प्रति तुम्हारा रवैया, और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हारे उद्देश्य और विचार नहीं बदले हैं, तो यह दिखाता है कि तुमने पवित्र आत्मा के कार्य के साथ कदमताल नहीं मिलाई है। यदि लोग पवित्र आत्मा के नए कार्य के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते हैं, नए तरीकों से बदलना चाहते हैं और नई समझ हासिल करना चाहते हैं, तो उन्हें सत्य खोजना चाहिए, उसमें प्रवेश करना चाहिए और अपने हर कदम और कार्य, अपने सोच-विचार, अपने इरादे और दृष्टिकोण जैसी अपनी सूक्ष्म चीजों में बदलाव अवश्य लाना चाहिए—तभी वे प्रगति करेंगे। यदि लोग इस बारे में केवल जबानी जमाखर्च करते हैं, और अपने व्यवहार में सिर्फ थोड़ा-सा बदलाव करते हैं, तो इसे बदलाव नहीं माना जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें अपने विचारों और दृष्टिकोणों और अपने जीने के तरीके में बदलाव लाना होगा। अगर तुम अपनी पुरानी धारणाओं और कल्पनाओं को त्याग सकते हो और परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपने पुराने विचारों का भेद पहचान और ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तो यह साबित करेगा कि तुम बदल चुके हो। अपनी जाँच करके देखो कि तुम लोगों के कौन-से हिस्से अभी तक नहीं बदले हैं, क्या तुमने बोलने या चीजों को देखने के पुराने तरीके अभी भी बरकरार रखे हैं, और अतीत की तुम्हारी कौन-सी गहरे जमी हुई चीजें हैं, जो अभी तक सामने नहीं आई हैं। अगर तुम गहरे नहीं खोजोगे तो तुम्हें लग सकता है कि वहाँ कुछ नहीं है, लेकिन जब तुम गहरे खोजोगे तो पाओगे कि बहुत-कुछ सामने लाना बाकी है। ऐसा क्यों है कि कुछ लोग अब कभी परमेश्वर के कार्य के साथ कदम मिलाकर नहीं चल पाते? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों के भीतर ऐसी कई चीजें हैं जो उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं, क्योंकि लोगों को नई चीजों की समझ नहीं है और वे उन्हें समझ नहीं सकते। लोग हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ क्यों पालते हैं? वे परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में धारणाएँ रखते हैं, वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बारे में भी धारणाएँ रखते हैं, वे यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि परमेश्वर किन लोगों को बचाता है और किन्हें निकाल देता है, और वे इस तथ्य से आगे नहीं जा पाते कि परमेश्वर संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता। इसका ठीक-ठीक क्या कारण है? एक कारण तो यही है कि यह मनुष्य की अहंकारी और आत्मतुष्ट प्रकृति से तय होता है, और वह इसलिए कि लोग हमेशा हर मामले में अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ रखते हैं—यही समस्या की जड़ है; दूसरा कारण वस्तुनिष्ठ है, और वह यह है कि लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में कई गलत धारणाएँ पालते हैं जो बदली नहीं हैं, वह इसलिए कि ये गहरे पैठी चीजें अभी तक बदली नहीं गई हैं। यीशु या यहोवा में अपने विश्वास से चीजें कहने के वे पुराने तरीके अभी भी उनके दिलों में जड़ें जमाए हुए हैं, इसलिए जब उनका परमेश्वर के नए कार्य से सामना होता है, वे सच्चे मार्ग को तो स्वीकारते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के बोलने और कार्य करने के नए तरीके नहीं समझ पाते। तुम इन नई चीजों को क्यों नहीं समझ पाते? वह इसलिए कि तुम अभी भी अतीत की उन पुरानी चीजों से चिपके हुए हो और उन्हें छोड़ नहीं सकते, जो तुम्हें इन नई चीजों का विरोध करने के लिए प्रेरित करती हैं। अगर तुम्हारे भीतर अतीत की ये चीजें न होतीं, तो तुम उस चीज को स्वीकार लेते जो परमेश्वर अब करता है। अगर तुम अतीत की वे चीजें नहीं छोड़ सकते, तो तुममें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित करने और उससे विद्रोह करने की संभावना है, और नतीजे में तुम नुकसान झेलोगे। यदि तुम परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होते हो, तो तुम्हें परमेश्वर द्वारा निकाले जाने का खतरा रहेगा, और परमेश्वर तुम्हें दंडित करेगा।
तुम्हें गहराई तक जाकर यह जाँच करनी चाहिए कि चीजों को करने और समझने के कौन-से पुराने तरीके और अतीत के विचार अभी भी तुम्हारे भीतर गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। तुम्हें एक सरल उदाहरण देता हूँ। कुछ लोगों ने मसीह को न तो कभी देखा है, न बोलते सुना है। उन्होंने सिर्फ मसीह द्वारा व्यक्त वचन पढ़े हैं, और वे कहते हैं कि ये अच्छे और आधिकारिक वचन हैं, ये न्याय के वचन हैं लेकिन हकीकत में जब वे मसीह के संपर्क में आते हैं तो उनके भीतर धारणाएँ जन्म लेने लगती हैं, और वे सोचते हैं, “परमेश्वर इतनी सख्ती से क्यों बोलता है? परमेश्वर लोगों को इस तरह उपदेश क्यों देता है? वह इतनी भारी-भरकम बातें क्यों कहता है? उसके बात करने का ढंग बेहद डरावना है, वह हमेशा लोगों को उजागर कर उनका न्याय करता है। इसे कौन स्वीकारेगा? यीशु पर हमारा विश्वास अलग है। सभी मृदुभाषी हैं और परस्पर मिल-जुल कर रहते हैं। उसकी तरह कोई नहीं बोलता। मैं उस तरह के परमेश्वर को न तो स्वीकार सकता हूँ, न उसके समान परमेश्वर को सहन कर सकता हूँ। अगर वह प्रभु यीशु की तरह मृदुल और सौहार्दपूर्ण ढंग से बोलता, लोगों के प्रति दयालु और मिलनसार होता तो मैं उसे स्वीकार कर पाता। लेकिन मैं इस तरह के परमेश्वर को स्वीकार नहीं सकता। उससे तो मैं मेलजोल भी नहीं कर सकता हूँ!” तुम स्वीकारते हो कि यही सच्चा मार्ग है, कि ये देहधारी के वचन हैं, और तुम पूरे दिल से आश्वस्त हो चुके हो तो फिर जब तुम मसीह के संपर्क में आते हो तो उसके लहजे, उसके द्वारा व्यक्त वचनों और बोलने की शैली को लेकर ऐसी धारणाएँ क्यों पालते हो जिन्हें छोड़ने में असमर्थ हो? इससे क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि तुम्हारे दिल में मौजूद वे पुरानी बातें पहले ही हावी हो चुकी हैं और धारणाएँ और विनियम बन चुकी हैं। तथ्य यह है कि वे सारी चीजें मनुष्य से आती हैं, वे मनुष्य के फैसले और उसकी कपोल-कल्पनाएँ हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं। अगर किसी ने इन बातों को आज के परमेश्वर पर थोपने की कोशिश की तो वह ऐसा करने में असमर्थ तो रहेगा ही, साथ ही उसके परमेश्वर का विरोध करने की भी संभावना होगी। परमेश्वर अलग-अलग युग में अलग-अलग कार्य करता है, इसलिए वह जो स्वभाव प्रकट करता है वह भी भिन्न होता है, और परमेश्वर के पास जो है और जो वह स्वयं है, उसे वह प्रकट करता है वह भी अलग-अलग होता है। तुम इस बारे में विनियम लागू नहीं कर सकते; ऐसा करोगे तो बहुत संभव है कि तुममें परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित होंगी, और तुम परमेश्वर का विरोध करने में सक्षम हो जाओगे। यदि तुम अपने बारे में चिंतन नहीं करते और पश्चात्ताप करने से साफ मना करते हो तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा करेगा और तुम्हें दंड देगा। परमेश्वर का कार्य हर युग में ऐसा ही है—हमेशा कुछ ऐसे लोग होंगे जो परमेश्वर को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित होते हैं और उससे आशीष पाते हैं, तो कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो परमेश्वर का विरोध और निंदा करते हैं और उसके हाथों नष्ट हो जाते हैं। अंत के दिनों के अपने कार्य में परमेश्वर बहुत सारे वचन और सत्य व्यक्त करता है। चिंता की बात यह नहीं है कि लोग अपने मन में धारणाएँ पाल सकते हैं; चिंता की बात यह है कि लोग उसके वचन नहीं पढ़ेंगे या उसके द्वारा व्यक्त सत्यों को नहीं स्वीकारेंगे—यही सबसे डरावनी बात है। अगर तुम्हारी धारणाएँ और विचार परमेश्वर के बताए सत्यों के अनुरूप नहीं हैं तो फिर वे सत्य के विपरीत हैं, वे परमेश्वर विरोधी हैं, और उनका समर्थन नहीं किया जा सकता है। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे विद्रोही और प्रतिरोधी होते हैं, और उनके अपने विचार होते हैं—ऐसा क्या है जो उनके विचारों पर हावी होता है? वे लोगों के इरादों, और उनके उस दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य से प्रभावित होते हैं जिससे लोग चीजों को देखते हैं, इसलिए तुम्हारे विचार न तो पवित्र आत्मा से आते हैं, न ही सत्य की नींव पर खड़े होते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि तुम्हारी धारणाएँ और विचार मनुष्य और देह की चीजें हैं? वह इसलिए क्योंकि तुम्हारे विचारों पर सत्य का प्रभुत्व नहीं है, न वे सत्य आधारित चिंतन से ही उपजते हैं। कुछ लोगों के विचार बाइबल-आधारित चिंतन से आते हैं, और यह तो और भी गलत है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि बाइबल ही गलत है, बल्कि सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि परमेश्वर के अतीत में किए गए कार्य की तुलना उसके नए कार्य से करना अनुचित है—तुम्हें उसके कार्य की इस तरह तुलना नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, क्या अनुग्रह के युग में लोगों का यहोवा के कार्य की तुलना प्रभु यीशु के कार्य से करना उचित होता? क्या राज्य के युग में, प्रभु यीशु के कार्य की तुलना परमेश्वर के आज के कार्य से करना उचित है? बिल्कुल नहीं, इनकी तुलना नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि परमेश्वर के कार्य का हर चरण पिछले चरण से अधिक उन्नत होता है, और वह अपने कार्य को दोहराता नहीं है। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर जब भी नए चरण का कार्य करता है और एक नया युग शुरू करता है तो हमेशा लोगों का एक समूह या बहुसंख्यक लोग परमेश्वर के कार्य का विरोध करते हुए उसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं? हर युग में ऐसा ही क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोग परमेश्वर के नए कार्य को चाहे स्वीकार करें या न करें, उनकी बाइबल की पिछली व्याख्याओं के साथ ही साथ परमेश्वर के नाम, उसकी छवि और उस पर विश्वास को लेकर उनके विचार और परमेश्वर में विश्वास करने के उनके तरीके पहले ही उनके दिल में आकार ले चुके होते हैं। यही नहीं, वे इन चीजों को सँजोए रखते हैं, और यह मानते हुए कि उन्होंने कुछ लाभ कमाया है, वे असीम रूप से अहंकारी हो जाते हैं, और अपने आप को इतना अच्छा और निराला समझने लगते हैं कि परमेश्वर के आज के कार्य को उसके अतीत के कार्य से इतना भिन्न देखकर उसकी आलोचना करने लगते हैं। वे हमेशा अनुग्रह के युग की चीजें उठाकर उनकी तुलना आज के परमेश्वर, उसके आज के कार्य और आज के सत्य के साथ करने लगते हैं—क्या ये तुलना योग्य हैं? चीजों पर विनियम लागू करने के बजाय तुम्हें इसका भान होना चाहिए : “अब मैंने परमेश्वर का नया कार्य स्वीकार लिया है, लेकिन कुछ चीजें हैं जिन्हें मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं उनका अनुभव लेकर धीरे-धीरे उन्हें जानूँगा, मैं थोड़ा-थोड़ा करके उनका अनुसरण करूँगा, जैसे कोई चींटी हड्डी को कुतरती है, ठीक उसी तरह मैं उनसे थोड़ा-थोड़ा करके निपटूँगा और समय बीतने के साथ उन्हें समझ लूँगा।” परमेश्वर का कार्य अनंत रहस्यमय और अथाह है; इसकी तह तक मनुष्य कभी नहीं पहुँच सकता। एक-दो साल तक इसका अनुभव करने के बाद, लोगों को इसकी कुछ समझ मिल सकती है; तीन-चार साल में थोड़ी और समझ आ सकती है, और इसी तरह धीरे-धीरे वे बढ़ेंगे और बदलेंगे। उन पुरानी चीजों को लेकर उनके विचार धीरे-धीरे बदलेंगे और थोड़ा-थोड़ा करके वे उन्हें त्याग देंगे; जब लोग उन पुरानी चीजों को त्याग देंगे, तभी नई चीजों को समझ सकेंगे। वे पुरानी चीजें तुममें अभी तक गहरे पैठी हुई हैं और तुमने उनका पता लगाना भी शुरू नहीं किया है, फिर भी तुम स्वेच्छा से अपनी धारणाएँ फैलाने और अपनी राय व्यक्त करने की जुर्रत करते हो, और जो चाहो बोलते हो—इसमें कोई विवेक नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि लोग बेहद अहंकारी बन जाते हैं? उसका कारण यही है। लोगों के भीतर की वे सड़ी-गली चीजें किसी काम की नहीं हैं, फिर भी वे इन्हें स्वेच्छा से व्यक्त करने और फैलाने की हिम्मत करते हैं। क्या यह विवेक से पूरी तरह रहित नहीं है? इसलिए, कुछ लोगों ने इस चरण का कार्य तो स्वीकार लिया है, परमेश्वर के वचन भी पढ़ लिए हैं लेकिन वे उन पुरानी चीजों को छोड़ने के बजाय इन्हें अपने भीतर ढोते रहते हैं। ऐसा क्यों है कि कुछ स्थानों के अगुआ और कार्यकर्ता अपनी धारणाओं से मेल खाते कार्य को तो लागू कर देते हैं मगर जब कार्य उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और वे इसे नहीं करना चाहते तो इसे लागू नहीं करते हैं? ऐसी स्थिति कैसे आती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग जिन पुरानी चीजों को अपने भीतर ढोते रहते हैं उन्हें छोड़ नहीं पाते। तुम्हारे भीतर की वे पुरानी चीजें जितनी ज्यादा आकार लेती हैं, तुम उतना ही तीव्र विरोध करते हो। क्या यही बात नहीं है? ऐसा क्यों है कि इस समय धार्मिक संसार में कुछ अगुआ, जो जितने ज्यादा उच्च पद पर आसीन होते हैं और जितने ज्यादा लोगों की अगुआई करते हैं, उतने ही ज्यादा अहंकारी बन जाते हैं और अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने में उतने ही कम सक्षम होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग हमेशा अतीत की चीजों से चिपके रहते हैं, वे परमेश्वर के वचनों को सत्य और जीवन के रूप में ग्रहण नहीं करते, और वे परमेश्वर को सर्वोच्च और महान मानकर उसका आदर करने में सक्षम नहीं हैं। बल्कि वे अपनी धार्मिक धारणाओं और अपने विचारों और दृष्टिकोणों को सत्य और सच्चा मार्ग मानते हैं—क्या यह भयंकर भूल नहीं है? इस तरीके से क्या तुम कहीं भी सत्य पा सकोगे? अगर तुम अपनी उन बातों को सत्य मानते हो तो क्या तुम अब भी परमेश्वर से सत्य प्राप्त करने में सक्षम रहोगे? क्या तुम तब भी सत्य की खोज और इसकी कामना कर सकोगे?
कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर के अनेक वचन पढ़े हैं, परमेश्वर की वाणी सुनी है, मैं सच्चा मार्ग स्वीकारता हूँ और जानता हूँ कि परमेश्वर के वचन कैसे पढ़ने चाहिए। मैं अपनी समस्याएँ खुद हल करता हूँ, मुझे दूसरों की मदद की जरूरत नहीं है और यह सुनिश्चित करता है कि मेरा जीवन उन्नति कर सकता है।” जब तुम इस तरह बोलते हो, तो चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर कहते हो। अगर तुम सिर्फ अपने भरोसे रहकर परमेश्वर के वचन पढ़ो और पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध न करे तो क्या तब तुम उन्हें समझ सकते हो? अगर परमेश्वर के वचन तुम्हें उजागर न करें और तुम्हारे भीतर की भ्रष्टता का गहन-विश्लेषण न करें तो तुम बदलने और समझने में असमर्थ होगे—तुम्हारे लिए किसी समझ पर पहुँचना मुश्किल होगा। लोग जब उपन्यास पढ़ते हैं तो वे उन्हें अच्छी तरह समझते हैं, उनके कई दृश्य उन्हें याद रहते हैं और पढ़ने के बाद वे तुरंत लोगों को उसके बारे में बता सकते हैं। लेकिन जीवन के मामले किसी भी दूसरी चीज से भिन्न होते हैं। जीवन के मामले बहुत गहन होते हैं और इन्हें थोड़ा-सा भी समझ पाने से पहले तुम्हें बरसों विश्वास करना होता है। तुम जीवन भर परमेश्वर के एक कथन को अनुभव कर सकते हो, फिर भी उसे कभी पर्याप्त अनुभव नहीं कर सकते। परमेश्वर चाहे जो भी कथन कहे, तुम्हें आजीवन उसका पर्याप्त अनुभव नहीं होगा; तुम्हारी काबिलियत चाहे जितनी भी अच्छी हो, फिर भी सत्य को समझ पाने से पहले तुम्हें परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करने पर निर्भर रहना होगा। उदाहरण के लिए, एक ईमानदार व्यक्ति बनने को लो। अपनी झूठ बोलने की समस्या हल करने से पहले तुम्हें कितने साल का अनुभव होना चाहिए? ऐसा नहीं है कि तुमने सिर्फ एक-दो साल का अनुभव लिया और काम हो गया, तुम और झूठ नहीं बोलोगे, और धोखा नहीं दोगे, और अब तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन गए। यह असंभव है। यह नतीजा पाने से पहले तुम्हें दशकों का अनुभव होना चाहिए। इसका कारण यह है कि लोग बहुत जटिल हैं, उनके भ्रष्ट स्वभाव उनके भीतर गहरी जड़ें जमाए हुए हैं, उनकी धारणाएँ उन्हें सत्य में प्रवेश करने और परमेश्वर को जानने से रोकती हैं, उनके इरादे उनके स्वभावों को बदलने से और उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकते हैं, और अपनी कथनी-करनी के बारे में वे जो विचार और रुख अपनाते हैं, वे उन्हें सत्य समझने से रोकते हैं। अगर तुम सत्य के पक्ष में बोलने और कार्य करने में सक्षम हो, उस सत्य के पक्ष में, जिसे प्राप्त करने की अपेक्षा परमेश्वर राज्य के युग में मनुष्य से करता है, तो तुम उसके कार्य के प्रति आसानी से समर्पण कर पाओगे और परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर प्रवेश कर सकोगे। अगर तुम सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते, तो तुम परमेश्वर से बहुत दूर भटक गए होगे या फिर तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े होगे। यह मत सोचना कि इतने सारे उपदेश सुनने और इतने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करने भर से तुम्हारा आध्यात्मिक कद अब ज्यादा छोटा नहीं रहा! सत्य का अनुसरण जीवन पाने का मामला है, यह अनंत जीवन प्राप्त करने का मामला है। सत्य सदा अपरिवर्तनीय, सदा प्रयोज्य, सदा अत्याज्य, अकाट्य, निर्विवाद है—यही सत्य का मूल्य और महत्व है। सत्य सर्वोच्च, सबसे गहन और सबसे मूल्यवान चीज है। यह बहुमूल्य है, और व्यक्ति जीवन भर के अनुभव के बाद क्या समझ सकता और हासिल कर सकता है, इसकी एक सीमा है।
कोई कहता है, “मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करता हूँ और घर पर अकेले ही अपनी आस्था पर चलता हूँ, और इसी तरह मैं भजन गाता हूँ और परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ। कार्य चाहे किसी भी चरण पर हो, मैं उसका अनुसरण करता हूँ और इस आस्था को अंत तक बनाए रखने से परमेश्वर मुझे नहीं छोड़ेगा।” इस बारे में तुम्हारा क्या विचार है? घर पर अपनी आस्था पर चलने से तुम सत्य का अनुसरण कैसे कर सकते हो? अपना कर्तव्य निभाए बिना तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे कर सकते हो? यदि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाते, तो तुम्हारे कुछ भ्रष्ट स्वभाव प्रकट नहीं होंगे, फिर तुम आत्म-निरीक्षण कैसे करोगे? परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव कैसे करोगे? परमेश्वर के वचन तुम्हें उजागर कैसे करेंगे और तुम्हारी काट-छाँट कैसे करेंगे? लोग घर पर इन चीजों का अनुभव करने में असमर्थ रहते हैं। क्या तुम व्यावहारिक अनुभव के बिना वाकई खुद को जान सकते हो? क्या तुम वाकई बदल सकते हो? बदलाव असंभव होगा। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए तुम्हें कलीसियाई जीवन जीना चाहिए और सिर्फ अपना कर्तव्य निभाकर ही तुम चीजों का सही तरह से अनुभव कर सकते हो। अगर तुम घर पर रहकर लगभग दस-बीस साल अपनी आस्था पर चलते हो और बड़े लाल अजगर को गिरा दिया जाता है और महाविनाश खत्म हो चुके हैं, तो क्या तुम वास्तविक अनुभवात्मक गवाही के बारे में बताने में सक्षम होगे? क्या तुमने परमेश्वर की तरह कष्ट सहे होंगे? इतनी सुंदर गवाही वाले परमेश्वर के लोग सचमुच बदल चुके होंगे, वे परमेश्वर के प्रति सचमुच समर्पण करेंगे और उसके प्रति सचमुच निष्ठावान होंगे—क्या तुम ऐसी गवाही देने में सक्षम होगे? मुझे डर है कि उस समय तुम बहुत लज्जित होगे। परमेश्वर ने ऐसा क्यों कहा है कि बुलाए तो बहुत जाते हैं, लेकिन चुने बहुत कम जाते हैं? इसका कारण यही है कि भ्रष्ट मानवजाति में सत्य से प्रेम करने वाले लोग बहुत कम हैं। अधिकतर लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, सत्य को स्वीकारने में तो वे और भी कम सक्षम हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने लगते हैं, और जब घर में सब-कुछ ठीक होता है, वे कोई शिकायत नहीं करते। लेकिन जब कुछ बिगड़ जाता है, जब घर का कोई सदस्य बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो जाता है, या बच्चे को कॉलेज में दाखिला नहीं मिलता, या कोई आपदा आती है, तो वे मेज पर मुट्ठियाँ मारकर परमेश्वर से शिकायत करते हैं, “हुँह! परमेश्वर में विश्वास करके मुझे क्या मिला? परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया! तुम्हें मुझे आशीष देना चाहिए, मुझसे संबंधित सभी को आशीष देना चाहिए, मेरे पूरे परिवार, मेरे बच्चों, मेरे पति (या मेरी पत्नी), मेरे माँ-बाप, सभी को। अगर मेरे परिवार के साथ ऐसा न हुआ होता तो क्या मैं मनोयोग से सत्य का अनुसरण न कर रहा होता?” वे सत्य हासिल न करने के ऐसे बहाने बनाते हैं! क्या उनके बहाने सत्य का स्थान ले सकते हैं? वे मानते हैं कि उनके बहाने पूरी तरह से पर्याप्त और तर्कसंगत हैं, और शिकायत करना जायज है। लोग जब परीक्षणों और क्लेशों से नहीं गुजर रहे होते, तो परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करते। वे चिल्लाते हैं कि परमेश्वर कितना महान और अद्भुत है। लेकिन जैसे ही परीक्षण और क्लेश आते हैं, परमेश्वर के बारे में शिकायत करने की उनकी इच्छा किसी भी क्षण फूट सकती है। वे चीजों पर चिंतन नहीं करते, उनके बारे में कोई सोच-विचार नहीं करते; वे बस स्वाभाविक रूप से अपनी भड़ास निकाल देते हैं। कुछ लोगों के परिवार के बजाय पशुओं के साथ कुछ होता है, तो भी वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करने लगते हैं। क्या यह निहायत बेवकूफी नहीं है? अगर व्यक्ति उस स्थिति में पहुँच सके, जहाँ उसके परिवार के साथ चाहे जो भी हो या उस पर जो भी आपदा आ पड़े, वह परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करता या मामला दिल पर नहीं लेता, या चाहे जो हो जाए वह अपने कर्तव्य में या परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में देरी नहीं करता, जब परमेश्वर के प्रति उसका समर्पण प्रभावित नहीं होता, और जब जो उसके साथ हुआ कुछ भी उसे परमेश्वर की स्तुति करने से नहीं रोकता, तो यह साबित करता है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाला उसका हृदय शुद्ध है। यह दृष्टिकोण कि “जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है तो उसका पूरा परिवार धन्य होता है” गलत है। अगर तुम परमेश्वर में अपने विश्वास में इस दृष्टिकोण से चिपके रहते हो, तो तुम्हें कभी सत्य हासिल नहीं होगा। अपने अविश्वासी परिजनों और सगे-संबंधियों को देखो, जो रोज अपनी जिंदगी जीने में व्यस्त हैं; जब आपदाएँ आएँगी, तो क्या वे उनसे बच पाएँगे? नहीं, वे नहीं बच पाएँगे। अगर परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और ठीक अपने सगे-संबंधियों की तरह बने रहते हो, आपदाओं की सजा से बचने में असमर्थ, तो तुम भी उनके साथ नष्ट हो जाओगे। लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो और उनके सार की असलियत देख लेते हो तो तुम शैतानों को ठुकराने में सक्षम होगे और सोचोगे, “वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। वे राक्षस हैं और उन्हें आपदाओं में नष्ट हो जाना चाहिए। वे मुझे परमेश्वर में विश्वास करने से रोका करते थे, परमेश्वर की अवज्ञा में ऐसी चीजें कहते थे जो ईशनिंदक थीं। आपदाओं में मर जाने से उन्हें उनकी करनी का फल मिला। इसमें परमेश्वर के वचन सचमुच पूरे हो गए हैं।” तुममें पहले यह आस्था नहीं थी और राक्षसों को शाप देने का साहस नहीं था। अब तुम राक्षसों के असली चेहरे देखते हो और तुम्हारा दिल इन परमेश्वर-विरोधी राक्षसों से घृणा करने लगता है, और अगर ये मर जाते हैं, तो तुम्हें बस इन्हें दफनाना होगा। उनसे इस तरीके से निपट पाना यह दर्शाता है कि तुम्हारा दिल सचमुच परमेश्वर की ओर मुड़ चुका है। अगर तुम अपने दिल में अभी भी धारणाएँ और कल्पनाएँ रखते हो और हमेशा यह मानते हो कि “जब कोई व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास करता है तो उसका पूरा परिवार धन्य होता है, यहाँ तक कि परिवार द्वारा पाले गए पशु भी धन्य होते हैं, मकान भी धन्य होता है, जमीन में उगी फसलें भी धन्य होती हैं,” तो ये चीजें तुम्हें सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने से रोकेंगी। यदि व्यक्ति का हृदय विशुद्ध रूप से परमेश्वर की ओर, सिर्फ परमेश्वर की ओर मुड़ जाता है, तो उसका हृदय बहुत शुद्ध और सरल हो जाता है, और जब वह समय आता है तो उसे बहुत कम कष्ट होता है। ऐसा क्यों है कि तुम अभी इतना कष्ट पा रहे हो? ऐसा इसलिए है कि तुम पूरा दिन अपने परिवार और बच्चों के लिए भागदौड़ करने में बिताते हो, उनके लिए बहुत प्रयास करते हो। अगर तुमने खुद को पूरी तरह कलीसिया के लिए खपाया तो मुझसे लिखवाकर रख लो कि तुम कहीं ज्यादा सहज रहोगे, क्या ऐसा नहीं है? यह ठीक इसलिए है कि तुम अभी पारिवारिक मामलों में बहुत अधिक व्यस्त रहते हो और कलीसिया के मामलों में बहुत कम, और तुम्हारे घरेलू मामले इतने दूभर हो जाते हैं कि तुम उन्हें सह नहीं सकते, तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करना शुरू कर देते हो। लेकिन तुमने वास्तव में परमेश्वर को कितना अर्पित किया है? तुमने कुछ भी उल्लेखनीय अर्पित नहीं किया है! तुम अभी भी घरेलू मामलों और अपनी ही देह के स्वार्थों के लिए भागदौड़ करने में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हो तो फिर तुम कैसे परमेश्वर के बारे में शिकायत कर सकते हो? तुम्हें अब परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए। जो भी परमेश्वर में विश्वास करता है, वह सत्य हासिल करने में सक्षम है और उसके पास परमेश्वर को जानने का मौका है—यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, अन्य किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण, और इसका सीधा संबंध इस बात से है कि तुम उद्धार पाओगे या नहीं। लेकिन पहले तुम्हें अपने अतीत के गलत इरादों, दृष्टिकोणों और समझ के साथ-साथ उन चीजों को भी लेना होगा जिनका तुम मन ही मन अनुसरण करते हो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन-विश्लेषण करना होगा और उन्हें जानना होगा। जब तुम इन चीजों को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो जाते हो, तब तुम इन्हें कम करने और छोड़ने का अभ्यास कर सकते हो। तुम जितनी स्पष्टता और गहनता से इन चीजों को देख सकोगे, उतनी ही अधिक चीजों को छोड़ सकोगे, जब तक कि तुम इन सभी पुरानी, गलत चीजों को छोड़ने में सक्षम नहीं हो जाते। तब तुम बहुत अधिक सहज महसूस करोगे, और जब तुम उन सत्यों को अभ्यास में लाओगे जिन्हें तुम समझते हो और उनकी गवाही देने में सक्षम होते हो, तो तुम थोड़ा-थोड़ा करके बदलने लगोगे। तुम्हें अब इस दिशा में अभ्यास करना और प्रशिक्षण लेना शुरू कर देना चाहिए और फिर तुम धीरे-धीरे उन चीजों से बाधित और परेशान होना बंद कर दोगे—तब तुम परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश कर चुके होगे।
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