अपना हृदय परमेश्वर को देने में व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है (भाग एक)

आज तुम लोग किन परीक्षणों को सहने में सक्षम हो? क्या तुममें यह कहने की हिम्मत है कि तुम्हारे पास एक नींव है, क्या तुम प्रलोभनों के सामने दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम हो? उदाहरण के लिए, क्या तुम लोग शैतान द्वारा पीछा किए जाने और सताए जाने के प्रलोभन या रुतबे और प्रतिष्ठा, विवाह या धन के प्रलोभनों पर विजय पाने में सक्षम हो? (हम इनमें से कुछ प्रलोभनों पर कमोबेश काबू पा सकते हैं।) प्रलोभन के कितने स्तर होते हैं? और तुम लोग किस स्तर पर काबू पा सकते हो? जैसे, यह सुनकर शायद तुम्हें डर न लगे कि किसी को परमेश्वर में विश्वास करने के कारण गिरफ्तार किया गया है और शायद दूसरों को गिरफ्तार होते और सताये जाते देखकर भी तुम्हें डर न लगे—लेकिन जब तुम गिरफ्तार किए जाते हो, जब तुम खुद को इस स्थिति में पाते हो तब क्या तुम दृढ़ता से खड़े होने में सक्षम हो? यह एक बड़ा प्रलोभन है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो तुम किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हो जो बहुत अच्छी मानवता वाला है, जो परमेश्वर में अपनी आस्था को लेकर उत्साही है, जिसने अपना कर्तव्य निभाने के लिए परिवार और आजीविका को त्याग दिया है और बहुत-सी कठिनाइयों का सामना किया है : एक दिन अचानक परमेश्वर में आस्था रखने के कारण उसे गिरफ्तार करके जेल की सजा सुनाई जाती है और तुम्हें पता चलता है कि बाद में उसे पीट-पीटकर मार दिया गया था। क्या यह तुम्हारे लिए प्रलोभन है? अगर तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्या करते? तुम इसे कैसे अनुभव करते? क्या तुम सत्य खोजते? तुम सत्य कैसे खोजते? इस तरह के प्रलोभन के दौरान, तुम कैसे अपने आप को दृढ़ रख पाओगे, और परमेश्वर का इरादा कैसे समझोगे, और इससे सत्य कैसे प्राप्त करोगे? क्या तुमने कभी ऐसी बातों पर विचार किया है? क्या ऐसे प्रलोभनों पर काबू पाना आसान है? क्या ये कुछ असाधारण चीजें हैं? असाधारण और मानवीय धारणाओं व कल्पनाओं का खंडन करने वाली चीजों का अनुभव कैसे किया जाना चाहिए? अगर तुम्हारे पास कोई रास्ता नहीं है तो क्या तुम शिकायत कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करने और समस्याओं का सार देखने में सक्षम हो? क्या तुम सत्य का उपयोग करके अभ्यास के सही सिद्धांतों का पता लगाने में सक्षम हो? क्या सत्य का अनुसरण करने वालों में यह गुण नहीं पाया जाना चाहिए? तुम परमेश्वर के कार्य को कैसे जान सकते हो? तुम्हें परमेश्वर के न्याय, शुद्धिकरण, उद्धार और पूर्णता का फल प्राप्त करने के लिए इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? परमेश्वर के प्रति लोगों की असंख्य धारणाओं और शिकायतों को दूर करने के लिए किन सत्यों को समझना चाहिए? वे कौन-से सबसे उपयोगी सत्य हैं जिनसे तुम्हें खुद को सुसज्जित करना चाहिए, जो विभिन्न परीक्षणों के बीच दृढ़ता से डटे रहने में तुम्हारी मदद करेंगे? अभी तुम लोगों का आध्यात्मिक कद कितना बड़ा है? तुम किस स्तर के प्रलोभनों पर काबू पा लेते हो? क्या इस बारे में तुम्हारे दिल में कोई निश्चितता है? अगर नहीं है तो यह संदेहास्पद मामला है। तुम लोगों ने अभी-अभी कहा कि तुम “इनमें से कुछ प्रलोभनों पर कमोबेश काबू पा” सकते हो। ये भ्रमित शब्द हैं। तुम लोगों को अपने आध्यात्मिक कद के बारे में स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए, तुम लोगों ने अभी तक खुद को कितने सत्यों से सुसज्जित किया है, तुम किन प्रलोभनों पर काबू पा सकते हो, किन परीक्षणों को स्वीकार कर सकते हो और किस परीक्षण में तुम्हारे पास कौन-सा सत्य, परमेश्वर के कार्य की कौन-सी जानकारी होनी चाहिए, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कौन-सा मार्ग चुनना है—तुम्हें इन सबके बारे में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। जब तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाती तो तुम उसका अनुभव कैसे करोगे? ऐसे मामलों में तुम्हें कौन-से सत्य—और सत्य के किन पहलुओं से—खुद को लैस करना चाहिए ताकि तुम न केवल अपनी धारणाओं का समाधान करते हुए, बल्कि परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हुए सहज तरीके से पार पा सको—क्या तुम्हें इसी की खोज नहीं करनी चाहिए? तुम लोग आम तौर पर किस प्रकार के प्रलोभनों का अनुभव करते हो? (रुतबा, प्रसिद्धि, लाभ, धन, पुरुष-महिलाओं में संबंध।) ये मूल रूप से सामान्य प्रलोभन हैं। और आज तुम्हारे आध्यात्मिक कद को देखा जाए तो तुम किन प्रलोभनों पर खुद काबू पाने और दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम हो? क्या तुम लोगों के पास इन प्रलोभनों पर काबू पाने के लिए वास्तविक आध्यात्मिक कद है? क्या तुम लोग वाकई यकीन दिला सकते हो कि अपना कर्तव्य ठीक से निभाओगे और ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जो सत्य के खिलाफ हो या जो विघ्न-बाधा डालने वाला हो या जो अवज्ञाकारी और विद्रोही हो या जो परमेश्वर के दिल को ठेस पहुँचाए? (नहीं।) तो अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? पहली बात, तुम्हें सभी चीजों में खुद की जाँच करनी चाहिए जिससे यह पता लगे कि तुम्हारा कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, कहीं तुम्हारा बर्ताव लापरवाह तो नहीं और कहीं तुममें विद्रोही या प्रतिरोधी तत्व तो नहीं हैं। अगर ऐसा है तो उन्हें हल करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना चाहिए। इसके अलावा, अगर कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें तुम पहचान नहीं सकते हो तो उनका समाधान करने के लिए भी तुम्हें अवश्य ही सत्य खोजना चाहिए। अगर तुम्हारे साथ काट-छाँट होती है तो तुम्हें उसे स्वीकार करके समर्पण करना चाहिए। अगर लोग तथ्यों के अनुसार बात करते हैं तो तुम उनके साथ बिल्कुल भी बहस और कुतर्क नहीं कर सकते; केवल तभी तुम खुद को पहचानकर सच्चा पश्चात्ताप कर पाओगे। लोगों को इन दो पहलुओं की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए और सच्चा प्रवेश करना चाहिए। इस तरह, वे सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हैं और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करके अपना कर्तव्य मानक तरीके से निभा सकते हैं।

कुछ लोगों का कहना है, “ज्यादातर समय जब मेरे साथ कुछ होता है तो मुझे नहीं पता होता कि सत्य की खोज कैसे करूँ और अगर सत्य की खोज करूँ तब भी मुझे कोई उत्तर नहीं मिलता। मैंने प्रार्थना की, सत्य खोजा और प्रतीक्षा की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। मुझे नहीं पता अब क्या करूँ। मैं इसे हल करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजना चाहता हूँ लेकिन वे बहुत सारे हैं, मुझे नहीं पता कि परमेश्वर के वचनों का कौन-सा खंड पढ़ना उचित होगा जो इस समस्या को हल कर सके।” ऐसे में उन्हें क्या करना चाहिए? इसके लिए एक न्यूनतम मानक है : जब तुम्हारे साथ कुछ होता है और तुम नहीं जानते कि क्या करना है तो तुम्हें सबसे बुनियादी चीज जो करनी चाहिए वह है अपनी अंतरात्मा की बात सुनना; यह एक जीवनरेखा है, यह एक आधार रेखा है जिसे सबसे अधिक तरजीह दी जानी चाहिए, और यह अभ्यास का एक सिद्धांत भी है। तो प्रत्येक व्यक्ति में अंतरात्मा का कितना अहम स्थान होता है? जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता, तो उसकी अंतरात्मा कितनी बड़ी भूमिका निभा सकती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें किस प्रकार की मानवता है। अगर यह व्यक्ति सत्य को नहीं समझता और अपनी अंतरात्मा के अनुसार व्यवहार नहीं करता, और तुम न तो उसके कृत्यों के किसी पहलू में परमेश्वर के इरादों के प्रति कोई विचारशीलता देखते हो, और न ही उसमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय ही देख सकते हो—अगर तुम्हें इनमें से कुछ भी नहीं दिखता है, तो क्या इस व्यक्ति को अंतरात्मा और मानवता वाला व्यक्ति माना जा सकता है? (नहीं।) यह किस प्रकार का व्यक्ति है? इस तरह के व्यक्ति को ठीक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो मानवता से रहित है। वह न तो विवेक और न ही अंतरात्मा के आधार पर काम करता है, और अपने आचरण की आधार रेखा को पार कर जाता है। कुछ लोग बहुत-से सत्यों को नहीं समझते। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सिद्धांतों को नहीं समझते, और समस्याओं से सामना होने पर वे उन्हें सँभालने का उचित तरीका नहीं जानते। इस स्थिति में उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? न्यूनतम मापदंड है अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना—यह आधार-रेखा है। तुम्हें अंतरात्मा के अनुसार कार्य कैसे करना चाहिए? ईमानदारी से कार्य करो, और परमेश्वर की दया, परमेश्वर द्वारा दिए गए इस जीवन, और उद्धार पाने के इस परमेश्वर-प्रदत्त अवसर के योग्य बनो। क्या यह तुम्हारी अंतरात्मा का प्रभाव है? जब तुम यह न्यूनतम मापदंड पूरा कर लेते हो, तो तुम एक सुरक्षा प्राप्त कर लेते हो और तुम गंभीर त्रुटियां नहीं करोगे। फिर तुम इतनी आसानी से परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने वाले काम नहीं करोगे या अपना कर्तव्य नहीं त्यागोगे, न ही तुम्हारे द्वारा अनमने ढंग से काम किए जाने की उतनी संभावना होगी। तुम अपने रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ और भविष्य के लिए षड्यंत्र करने में भी इतने प्रवृत्त नहीं होगे। अंतरात्मा यही भूमिका निभाती है। अंतरात्मा और विवेक दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाए तो वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति मानवता के लुप्त होने की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ दिखाता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से ठोस प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और नीच होते हैं।) स्वार्थी और नीच लोग अपने कार्यकलापों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं होते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने का कोई भार नहीं उठाते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। जब कभी वे कोई काम करते हैं तो किस बारे में सोचते हैं? उनका पहला विचार होता है, “अगर मैं यह काम करूँगा तो क्या परमेश्वर को पता चलेगा? क्या यह दूसरे लोगों को दिखाई देता है? अगर दूसरे लोग नहीं देखते कि मैं इतना ज्यादा प्रयास करता हूँ और मेहनत से काम करता हूँ, और अगर परमेश्वर भी यह न देखे, तो मेरे इतना ज़्यादा प्रयास करने या इसके लिए कष्ट सहने का कोई फायदा नहीं है।” क्या यह अत्यधिक स्वार्थपूर्ण नहीं है? यह एक नीच किस्म का इरादा है। जब वे ऐसी सोच के साथ कर्म करते हैं, तो क्या उनकी अंतरात्मा कोई भूमिका निभाती है? क्या इसमें उनकी अंतरात्मा पर दोषारोपण किया जाता है? नहीं, उनकी अंतरात्मा की कोई भूमिका नहीं है, न इस पर कोई दोषारोपण किया जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। जब वे लोगों को गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करते देखते हैं तो वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे बुरे लोगों को बुराई करते देखते हैं तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं और आराम में लिप्त रहते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, रुतबे और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है। ऐसे इंसान के क्रियाकलाप और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं : जब भी उन्हें अपनी इज्जत दिखाने या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका मिलता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब उन्हें अपना रुतबा दिखाने का कोई मौका नहीं मिलता या जैसे ही कष्ट उठाने का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नजरों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में अंतरात्मा और विवेक होता है? (नहीं।) क्या अंतरात्मा और विवेक से रहित कोई व्यक्ति जो इस तरीके से पेश आता है, आत्म-निंदा का एहसास करता है? इस प्रकार के व्यक्ति में आत्म-निंदा की कोई भावना नहीं होती; इस प्रकार के इंसान की अंतरात्मा किसी काम की नहीं होती। उन्हें कभी भी अपनी अंतरात्मा से आत्म-निंदा का एहसास नहीं होता, तो क्या वे पवित्र आत्मा की निंदा या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते।

पवित्र आत्मा का कार्य सैद्धांतिक है और इसकी कुछ जरूरी शर्तें हैं। पवित्र आत्मा आम तौर पर किस प्रकार के व्यक्ति पर अपना कार्य करता है? पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के लिए किसी व्यक्ति को कौन-सी जरूरी शर्तें पूरी करनी चाहिए? जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें यह तो समझना ही चाहिए कि पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने के लिए उनके पास कम से कम क्या कुछ होना जरूरी है। उनके पास कम से कम अंतरात्मा और ईमानदार दिल होना चाहिए, और उनकी अंतरात्मा में ईमानदारी का एक तत्व होना चाहिए। तुम्हारा दिल ईमानदार और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारने वाला होना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने का साहस नहीं करते वे ईमानदार लोग नहीं हैं और वे सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। लोग हमेशा कहते हैं कि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच-पड़ताल करता है, वह सब कुछ देखता है और मनुष्य बाहरी चीजों को देखता है जबकि परमेश्वर हृदय को देखता है, फिर भी लोग परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को क्यों नहीं स्वीकार पाते? वे परमेश्वर के वचन क्यों नहीं सुन पाते और उसके प्रति समर्पित क्यों नहीं हो पाते? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत को समझते हैं, पर सत्य से प्रेम नहीं करते। कुछ लोगों को कभी-भी पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त क्यों नहीं हो पाता है, वे हमेशा नकारात्मक, मायूस, नाखुश या अशांत अवस्था में क्यों रहते हैं? अगर तुम उनकी स्थितियों को ध्यान से देखो तो तुम्हें पता चलेगा कि उन्हें आम तौर पर अपनी अंतरात्मा के बारे में पता नहीं होता, उनका दिल ईमानदार नहीं होता, उनमें काबिलियत कम होती है, और वे सत्य खोजने की कोशिश नहीं करते, इसलिए उनकी स्थितियाँ शायद ही कभी सामान्य होती हैं। जो सत्य से प्रेम करते हैं वे अलग लोग होते हैं। वे हमेशा सत्य की ओर प्रयास करते हैं, जैसे-जैसे वे सत्य के अंश समझते जाते हैं उनकी दशा सुधरती जाती है और जैसे-जैसे वे सत्य के अंश समझते जाते हैं वे कुछ वास्तविक समस्याओं को हल कर लेते हैं, इसलिए उनकी दशाएँ लगातार सुधरती और सामान्य होती जाती हैं। चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए, वे शायद ही कभी निराश होते हैं और वे परमेश्वर की मौजूदगी में रहने में सक्षम होते हैं। अनुभव की किसी भी पूरी अवधि में, उनके पास हमेशा लाभ और ज्ञान होता है और अपना कर्तव्य निभाने में उन्हें हमेशा उपलब्धियाँ मिलती हैं। वे सुसमाचार का प्रचार कर लोगों को जीतने में सक्षम होते हैं और चाहे उनका कर्तव्य जो भी हो वे उसे सैद्धांतिक तरीके से करते हैं। ये लाभ कहाँ से आते हैं? ये परमेश्वर के वचनों को अक्सर पढ़ने और प्रबोधन, रोशनी, और सत्य की समझ प्राप्त करने के परिणाम हैं, ये पवित्र आत्मा के कार्य के माध्यम से प्राप्त किए गए परिणाम हैं। जब तुम्हारे पास एक ईमानदार दिल, अंतरात्मा और विवेक हो, जो मानवता के पास होना चाहिए, तभी पवित्र आत्मा तुम पर अपना कार्य कर सकता है। क्या तुम सभी को पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में नियमों की समझ है? पवित्र आत्मा किस प्रकार के व्यक्ति पर अपना कार्य करता है? पवित्र आत्मा आम तौर पर अपना कार्य उन लोगों पर करता है जो दिल से ईमानदार होते हैं। वह लोगों पर तब कार्य करता है जब वे कठिनाइयों का सामना करते हैं और सत्य खोजते हैं। परमेश्वर उन लोगों पर कोई ध्यान नहीं देता जिनमें कोई मानवता नहीं होती, जिनके पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं होता। अगर कोई ईमानदार है लेकिन उसका दिल अस्थायी रूप से परमेश्वर से दूर हो जाता है, वह बेहतर बनने की कोशिश नहीं करना चाहता, निराश स्थिति में फँसा रहता है, इन समस्याओं को हल करने के लिए न तो प्रार्थना करता है और न ही सत्य खोजता है, सहयोग करने को भी तैयार नहीं होता—तो अस्थायी अंधकार, अस्थायी अवनति की इस अवस्था में पवित्र आत्मा अपना कार्य नहीं करता है। वह किसी ऐसे व्यक्ति के लिए कितना कम कार्य करेगा जिसके पास बुनियादी तौर पर मानवता का कोई बोध नहीं है? वह निश्चित रूप से कार्य नहीं करेगा। परमेश्वर इस तरह के लोगों का क्या करता है जिनके पास न तो अंतरात्मा है और न ही विवेक, जो सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करते? परमेश्वर उन पर कोई ध्यान नहीं देता। क्या इन लोगों के लिए कोई उम्मीद है? उनके लिए उम्मीद की बस एक ही डोर है। सच्चा पश्चात्ताप करना, ईमानदार बनना ही उनके लिए एकमात्र रास्ता है और केवल तभी उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त हो सकता है। कोई ईमानदार व्यक्ति कैसे बनता है? सबसे पहले, तुम्हें अपना दिल परमेश्वर के सामने खोलकर रखना होगा और उससे सत्य खोजना होगा, और जब तुम सत्य समझ जाओ तो तुम्हें इसे अभ्यास में लाने और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना होगा, जो परमेश्वर को अपना दिल देने के बराबर है। केवल तभी परमेश्वर तुम्हें स्वीकारेगा। तुम्हें पहले अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करना होगा; अपना घमंड, अभिमान त्यागना होगा, अपने हित त्यागने होंगे, तन और मन दोनों से अपने-आप को अपने कर्तव्य में झोंक देना होगा, विनम्र हृदय से अपना कर्तव्य निभाना होगा, और अपने हृदय में यह विश्वास रखना होगा कि जब तक तुम परमेश्वर को संतुष्ट रखते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कष्ट सह रहे हो। कठिनाइयों का सामना करते हुए अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और सत्य खोजते हो तो तुम देखो कि परमेश्वर कैसे तुम्हें मार्ग दिखाता है, और पता करो कि तुम्हारे हृदय में शांति और खुशी है या नहीं, तुम्हारे पास यह साक्ष्य है या नहीं। अगर तुम पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना चाहते हो तो सबसे पहले तुम्हें सचमुच पश्चात्ताप करना होगा, अपने आपको परमेश्वर को सौंपना होगा, उसके सामने अपना दिल खोलकर रखना होगा और जिन बेकार की चीजों को तुम इतना सँजोते हो उनका त्याग करना होगा, जैसे कि प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा। अगर तुम इन चीजों के पीछे भागते रहते हो और फिर भी परमेश्वर से महान आशीषों की माँग करना चाहते हो तो क्या वह तुम्हें स्वीकारेगा? पवित्र आत्मा के कार्य की पूर्व शर्ते हैं। परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से बेइंतहा नफरत करता है, और वह पवित्र परमेश्वर है। अगर लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते रहे और शुरू से अंत तक वे इन चीजों को त्याग नहीं पाए, अगर उनके दिल परमेश्वर के लिए बंद रहते हैं, अगर वे उसके सामने अपना दिल खोलने की हिम्मत नहीं करते, अगर वे हमेशा उसके कार्य और मार्गदर्शन को ठुकराते हैं, तो वह कुछ नहीं करता। परमेश्वर को प्रत्येक व्यक्ति पर अपना कार्य करने और तुम्हें इधर-उधर के काम करने के लिए मजबूर करने की आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर तुम्हें बाध्य नहीं करता है। केवल दुष्ट आत्माएँ ही लोगों को इधर-उधर के काम करने के लिए बाध्य करती हैं, यहाँ तक कि किसी व्यक्ति को अपने वश में करने के लिए जबरन उन पर हावी हो जाती हैं। पवित्र आत्मा का कार्य विशेष रूप से सौम्य होता है, इस तरह कि जब वह तुम्हें स्पर्श करता है तो तुम्हें महसूस भी नहीं होता। तुम्हें लगेगा कि तुम अनजाने में समझ गए हो और जग गए हो। पवित्र आत्मा इसी तरह लोगों को प्रेरित करता है। इसलिए अगर कोई पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करना चाहता है तो उसे सचमुच पश्चात्ताप और सहयोग करना होगा।

तुम अपना दिल परमेश्वर को कैसे सौंपते हो? जब तुम्हारे साथ कुछ हो जाए तो तुम्हें परमेश्वर को यह बताना चाहिए कि तुम खुद पर निर्भर नहीं रहोगे। परमेश्वर को अपना दिल सौंपने का मतलब है उसे अपने घर का स्वामी बनाना। इसके साथ ही, तुम्हें उन चीजों का त्याग करना होगा जो तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं, जैसे प्रतिष्ठा, रुतबा, अहंकार और घमंड; परमेश्वर को अपनी अगुआई करने दो, अपने दिल को उसके प्रति समर्पित होने दो, उसे अपने दिल पर शासन करने दो और उसके वचनों के अनुसार कार्य करो। जब तुम उन चीजों को त्यागने में सक्षम हो जाते हो जो देह को पसंद हैं, और परमेश्वर देखता है कि अब तुम कोई बोझ नहीं ढो रहे हो, बल्कि उसके सामने एक विनम्र दिल लेकर आए हो, उसके वचनों को सुनना और उसकी व्यवस्थाओं और योजनाओं के प्रति समर्पित होना चाहते हो, उसे कार्य करने देते हो, अगुआई करने देते हो—जब परमेश्वर देखता है कि तुम इतने ईमानदार हो तभी पवित्र आत्मा अपना कार्य करेगा। सबसे पहले, तुम्हें सचमुच पश्चात्ताप करना होगा, अपना दिल परमेश्वर की ओर मोड़ना होगा, उसके इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी होगी, और सत्य खोजने की कोशिश करनी होगी। तुम निराश या आलसी नहीं हो सकते, हठी तो बिल्कुल भी नहीं हो सकते। अगर तुम हमेशा प्रभारी बने रहना चाहते हो, अपने घर के मालिक बने रहना चाहते हो और अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार काम करना चाहते हो तो यह किस तरह का रवैया है? यह कैसी अवस्था है? यह विद्रोह और प्रतिरोध है। क्या तुम यह सोचते हो कि परमेश्वर को तुम्हें बचाना ही होगा, वह तुम्हारे बिना नहीं रह सकता? क्या ऐसी बात है? अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य अन्य-जाति राष्ट्रों की ओर क्यों मुड़ गया है? वह इस्राएल में कार्य क्यों नहीं कर रहा है? धार्मिक दुनिया में कार्य क्यों नहीं कर रहा है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर के प्रति बहुत विद्रोही और प्रतिरोधी हो गए हैं, इसलिए उसने अपना कार्य अन्य-जाति राष्ट्रों की ओर मोड़ लिया है। परमेश्वर इस मामले को किस नजरिए से देखता है? परमेश्वर उन्हें बचाता है जो सत्य स्वीकारते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे धर्म के भीतर से परिवर्तित हैं या वे अविश्वासी हैं जो इस कार्य को स्वीकार करते हैं—परमेश्वर उन पर अनुग्रह करता है और उन्हें बचाता है जो सत्य को स्वीकारते हैं। क्या अब तुम लोगों को ये सारी बातें स्पष्ट हैं? परमेश्वर जो भी करता है वह अत्यंत सार्थक होता है, और उसमें परमेश्वर का स्वभाव और बुद्धि होती है। बेशक, परमेश्वर की इच्छाओं को समझने या उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने पर लोगों के पास डींगें हाँकने के लिए कुछ नहीं होता है। यह मत सोचो कि तुम चतुर हो या तुम सत्य से प्रेम करते हो या तुम अन्य लोगों से ज्यादा मजबूत हो। सिर्फ इसलिए कि तुम एक मामले में होशियार हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम दूसरे मामलों में भी होशियार होगे, इसलिए तुम्हें अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए और सभी चीजों में सत्य खोजना चाहिए। तुम्हें यह देखने के लिए अपने सभी कार्यों की जाँच करनी चाहिए कि तुममें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है या नहीं, तुम्हारे कार्य सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और वे परमेश्वर के इरादों को पूरा करने में सक्षम हैं या नहीं।

चाहे तुम लोगों की मानवता मानक के अनुरूप हो या नहीं या चाहे वह सामान्य जमीर और विवेक के मानदंड तक पहुँचती हो या नहीं, परमेश्वर केवल उन लोगों से प्रसन्न होता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं। सत्य का अनुसरण और जीवन प्रवेश का कोई अंत नहीं है। अगर किसी के पास केवल अंतरात्मा है और वह अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करता है तो यह सिद्धांत सत्य के स्तर के अनुरूप नहीं है। उसे सत्य खोजने की कोशिश करने के लिए कीमत भी चुकानी होगी, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना होगा और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाना होगा। केवल इस तरह से अनुसरण करके ही वह जीवन प्रवेश प्राप्त कर सकता है, सत्य को समझ और हासिल कर सकता है, और परमेश्वर के इरादों को पूरा कर सकता है। ऐसे लोग भी हैं जिनमें थोड़ी मानवता होती है, जिनके पास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक होता है, और इसलिए वे सोचते हैं : “अपनी अंतरात्मा के अनुसार कर्तव्य निभाना परमेश्वर के योग्य होगा।” क्या यह सही है? क्या अंतरात्मा का स्तर सत्य का स्थान ले सकता है? क्या तुम अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करके परमेश्वर को समर्पित हो सकते हो? क्या तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल सकते हो? क्या तुम शैतान से घृणा कर उसके खिलाफ विद्रोह कर सकते हो? क्या तुम सच में परमेश्वर से प्रेम कर सकते हो? क्या तुम शैतान को शर्मिंदा कर सकते हो? क्या अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना सच्ची गवाही है? इसमें से कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है। अंतरात्मा का मानक क्या होता है? अंतरात्मा किसी व्यक्ति के हृदय की एक भावना है, दिल का निर्णय है, और यह सामान्य मानवता की प्राथमिकताओं को दर्शाता है। अक्सर, कानून के कई लेख और नैतिकता की धारणाएँ अंतरात्मा की भावनाओं पर आधारित होती हैं, और इस प्रकार अंतरात्मा की भावनाएँ कानून के लेखों और नैतिकता की धारणाओं को आसानी से एक मानक के रूप में उपयोग करती हैं। इसलिए, अंतरात्मा की भावनाएँ सत्य के मानक से बहुत पीछे रह जाती हैं; इतना ही नहीं, वे भावनात्मक बाधाओं के अधीन होती हैं, या उन्हें चिकनी-चुपड़ी बातों से धोखा दिया और गुमराह किया जा सकता है, जिससे कई विचलन उत्पन्न हो जाते हैं। अगर लोग सत्य को नहीं समझते हैं तो वे दानवों से धोखा खा सकते हैं और शैतान को अपना फायदा उठाने देते हैं। इसलिए, अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत कम है। तुम्हें सत्य खोजने की भी कोशिश करनी चाहिए। जब तुम सत्य समझते हो और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते हो तभी तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हो। सत्य का मानक अंतरात्मा के मानक से कहीं अधिक है। अगर तुम केवल अपनी अंतरात्मा के अनुसार कर्तव्य निभाते हो, तो क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे? नहीं कर पाओगे। क्योंकि अंतरात्मा सत्य का स्थान नहीं ले सकती, परमेश्वर की अपेक्षाओं का तो बिल्कुल भी नहीं, इसलिए तुम अपनी अंतरात्मा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाकर संतुष्ट नहीं हो सकते। इससे तुम्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती।

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