एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास (भाग तीन)

जब तुम पहले-पहल अपनी आस्था की नींव रखना शुरू करते हो, तो तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर दृढ़ता से कदम रखने चाहिए। तुम्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रारंभरेखा पर होना चाहिए, न कि शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ करने की प्रारंभरेखा पर। तुम्हारा ध्यान सत्य वास्तविकता में प्रवेश, सभी चीजों में सत्य को खोजने और अभ्यास में लाने, सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करने और प्रत्येक चीज की इससे तुलना करने पर केंद्रित होना चाहिए। तुम्हें चिंतन करना चाहिए कि सत्य का अभ्यास कैसे करें, अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं, और सत्य का कैसा अभ्यास परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर उसे संतुष्ट करेगा। लेकिन लोगों में आध्यात्मिक कद का बड़ा अभाव होता है। वे हमेशा उन चीजों के बारे में पूछते हैं जो सत्य के अभ्यास से संबंधित नहीं हैं, जो आत्मज्ञान या एक ईमानदार व्यक्ति होने से संबंधित नहीं हैं। क्या यह दुखद नहीं है? क्या यह छोटा आध्यात्मिक कद नहीं दिखाता? कुछ लोगों ने परमेश्वर के कार्य का यह कदम उसके शुरू होते ही स्वीकार कर लिया, और वे आज तक विश्वासी बने हुए हैं। लेकिन अभी भी वे यह नहीं समझते कि सत्य वास्तविकता क्या है, या सत्य का अभ्यास करना क्या होता है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपनी आस्था के लिए अपना परिवार और करियर छोड़ दिया है और बहुत कुछ सहा है। तुम कैसे कह सकते हो कि मुझमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं है? मैंने अपना परिवार पीछे छोड़ दिया—क्या यह वास्तविकता नहीं है? मैंने अपनी शादी छोड़ दी—क्या यह वास्तविकता नहीं है? क्या यह सब सत्य का अभ्यास करने की अभिव्यक्ति नहीं हैं?” बाहरी तौर से तो तुमने परमेश्वर में विश्वास के लिए लौकिक चीजें छोड़ दी हैं, अपना परिवार छोड़ दिया है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? क्या इसके मायने ये हैं कि तुम परमेश्वर को समर्पित होने वाले ईमानदार व्यक्ति हो? क्या इसका अर्थ है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है, या तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास सत्य है, मानवता है? निश्चित रूप से नहीं। तुम्हारे ये बाहरी कर्म दूसरे लोगों को अच्छे लग सकते हैं—लेकिन इनका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो या परमेश्वर को समर्पित हो, और इनका निश्चित रूप से यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हो। लोगों का त्याग और उनका खपना बहुत ज्यादा मिलावटी हैं, सारे लोग आशीष पाने की मंशाओं से नियंत्रित हैं और वे परीक्षणों और शोधन से शुद्ध नहीं हुए हैं। इसीलिए बहुत-से लोग अभी भी अपने कर्तव्यों में लापरवाह हैं, और उन्हें कोई व्यावहारिक नतीजे नहीं मिलते; बल्कि वे कलीसिया कार्य में गड़बड़ करते हैं, बाधा डालते हैं, कमजोर करते हैं और उसमें तमाम मुसीबतें लाते हैं। वे प्रायश्चित्त के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते और जब कलीसिया उन्हें हटा देती है तब भी वे अपनी पैरवी के लिए नकारात्मकता फैलाते रहते हैं, झूठ बोलते रहते हैं, और तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं। कुछ लोग एक-दो दशक तक विश्वास रखने के बाद भी बेलगाम होकर सभी तरह की बुराई करते हैं। फिर उन्हें कलीसिया द्वारा या तो हटा दिया जाता है या निष्कासित कर दिया जाता है। यह तथ्य कि वे इतनी भयानक चीजें कर पाते हैं पर्याप्त सबूत है कि उनका चरित्र बहुत भयंकर होता है, वे बहुत कुटिल और कपटी होते हैं और वे जरा भी निष्कपट, आज्ञाकारी या समर्पित नहीं होते। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने की ज्यादा परवाह नहीं की। वे परमेश्वर में आस्था को ऐसा मामला मानते हैं : “अगर मैं अपना परिवार छोड़े रखता हूँ, परमेश्वर के लिए खुद को खपाता हूँ, कष्ट सहता हूँ, और कीमत चुकाता हूँ, तो परमेश्वर को मेरे कर्मों को याद रखना चाहिए और मुझे उसका उद्धार प्राप्त होना चाहिए।” यह बस सनक और खयाली पुलाव है। अगर तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, और सचमुच परमेश्वर के समक्ष आना चाहते हो, तो पहले तुम्हें परमेश्वर के पास यह खोजते हुए आना चाहिए : “हे परमेश्वर, मुझे किस चीज का अभ्यास करना चाहिए? लोगों को बचाने के लिए तुम्हारा मानक क्या है? तुम किस प्रकार के लोगों को बचाते हो?” हमें सबसे बढ़कर इन्हीं चीजों को खोजना और जानना चाहिए। सत्य पर अपनी बुनियाद स्थापित करो, सभी चीजों में सत्य और वास्तविकता के लिए मेहनत करो, और फिर तुम वह व्यक्ति बनोगे जिसकी बुनियाद होगी, जिसके पास जीवन है। अगर तुम अपनी बुनियाद शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर स्थापित करते हो, कभी किसी सत्य का अभ्यास नहीं करते, या किसी भी सत्य में मेहनत नहीं करते, तो तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसके पास कभी जीवन नहीं होगा। जब हम ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करते हैं, तो हममें जीवन, वास्तविकता और एक ईमानदार व्यक्ति का सार होता है। तब हम एक ईमानदार व्यक्ति जैसा अभ्यास और व्यवहार करते हैं, और कम-से-कम हमारा वह ईमानदार अंश परमेश्वर को खुशी देगा और वह उसे अपनी स्वीकृति देगा। लेकिन हम अभी भी अक्सर झूठ, चालबाजी और धोखेबाजी का प्रदर्शन करते हैं, जिसे शुद्ध करना जरूरी है। इसीलिए हमें सत्य का अनुसरण जारी रखना चाहिए और ढर्रे में नहीं फँसना चाहिए। परमेश्वर हमारी प्रतीक्षा में है, हमें मौका दे रहा है। अगर तुम कभी ईमानदार व्यक्ति बनने की योजना नहीं बनाते, यदि तुम कभी नहीं खोजते कि कैसे ईमानदारी से और दिल से बोलें, बनावटीपन या धोखे की मिलावट के बिना कैसे काम करें और एक ईमानदार व्यक्ति की तरह कैसे बर्ताव करें, तो ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे तुम ईमानदार मानव के समान जी सको या ईमानदार व्यक्ति की सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सको। अगर तुमने सत्य के किसी एक पहलू की वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है, तो तुमने सत्य के उस पहलू को प्राप्त कर लिया है; अगर तुम्हारे पास वह वास्तविकता नहीं है, तो तुम्हारे पास वह जीवन या आध्यात्मिक कद नहीं है। परीक्षणों और प्रलोभनों का सामना होने पर या तुम्हें कोई आदेश मिलने पर अगर तुम में बिल्कुल कोई वास्तविकता नहीं होती, तो तुम आसानी से लड़खड़ा कर गलतियाँ करोगे; परमेश्वर का अपमान और उसके खिलाफ विद्रोह में प्रवृत्त हो जाओगे। तुम अपनी मदद नहीं कर पाओगे। बहुत-से लोग अपने कर्तव्यों में बेलगाम होकर व्यवहार करते हैं, सलाह लेने से इनकार कर देते हैं, सुधर नहीं पाते, कलीसिया के कार्य में गंभीर रूप से गड़बड़ी करते और बाधा डालते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को गंभीर हानि पहुँचाते हैं। अंत में ऐसे लोग या तो हटा दिए जाते हैं या निष्कासित कर दिए जाते हैं—यही अनिवार्य नतीजा होता है। लेकिन अगर तुम फिलहाल ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सत्य का अभ्यास कर रहे हो, तो ईमानदार व्यक्ति के रूप में तुम्हारी अनुभवजन्य गवाही को परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। कोई भी यह तुमसे नहीं ले सकता, कोई भी तुमसे यह वास्तविकता, यह जीवन नहीं छीन सकता। कुछ लोग पूछते हैं, “मैं लंबे समय से ईमानदार व्यक्ति रहा हूँ। क्या मैं फिर से धोखेबाज व्यक्ति बन सकता हूँ?” अगर तुमने अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग दिया है; अगर तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति बनने की सत्य वास्तविकता प्राप्त है; अगर तुम मानवीयता के समान जी रहे हो और तुम्हें बनावटीपन, धोखेबाजी और गैर-विश्वासी संसार से दिल से घृणा है, तो तुम शैतान की सत्ता के अधीन वापस नहीं जा सकते। ऐसा इसलिए कि तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम हो; तुम पहले से ही प्रकाश में जी रहे हो। धोखेबाज व्यक्ति से ईमानदार इंसान में बदलना आसान नहीं है। परमेश्वर को सचमुच आनंदित करने वाले ईमानदार व्यक्ति से धोखेबाज व्यक्ति में वापस बदलना नामुमकिन होगा, और भी ज्यादा मुश्किल होगा। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे ईमानदार व्यक्ति होने का कई वर्षों का अनुभव है। मैं अधिकतर समय सत्य बोलता हूँ और मैं काफी ईमानदार हूँ। लेकिन कभी-कभार मैं ऐसी बातें कह देता हूँ जो असत्य, अप्रत्यक्ष और धोखेबाजी की होती हैं।” इस समस्या को ठीक करना ज्यादा आसान है। जब तक तुम सत्य खोजने और सत्य के लिए प्रयास करने पर ध्यान देते हो, तो तुम्हें भविष्य में बदल न पाने को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है। तुम निश्चित रूप से सुधरते रहोगे। मिट्टी में बोए गए अंकुर की तरह अगर तुम उसमें समय पर पानी डालोगे, रोज धूप में रखोगे, तो तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं कि बाद में इसमें फल लगेंगे या नहीं, और शरद ऋतु में यकीनन फसल होगी। अभी तुम लोगों को सबसे ज्यादा चिंता इस बारे में होनी चाहिए : क्या तुम लोगों ने ईमानदार व्यक्ति होने में प्रवेश किया है? क्या तुम कम और कम झूठ बोलते जा रहे हो? क्या तुम कह सकते हो कि कुल मिलाकर अब तुम ईमानदार व्यक्ति हो? यही अहम सवाल हैं। अगर कोई कहता है : “मैं जानता हूँ कि मैं धोखेबाज व्यक्ति हूँ, लेकिन मैंने कभी भी ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास नहीं किया है,” तब तुममें ईमानदार व्यक्ति होने की कोई भी वास्तविकता नहीं है। तुम्हें कड़ी मेहनत करने की जरूरत है, अपने जीवन के हर छोटे पहलू, हर तरह के बर्तावों, धोखेबाजी के सभी पैंतरों, और दूसरों से पेश आने के तरीकों को गहन-विश्लेषण के लिए सामने रखना चाहिए। इन चीजों का गहन-विश्लेषण करने से पहले तुम अपने-आपसे बहुत खुश हो सकते हो, तुमने जो कुछ किया है उससे बहुत आत्म-संतुष्ट हो सकते हो। लेकिन एक बार परमेश्वर के वचनों से उनका तुलनात्मक गहन-विश्लेषण करने के बाद तुम्हें झटका लगेगा, “मुझे एहसास नहीं था कि मैं इतना घिनौना हूँ, इतना दुर्भावनापूर्ण और धूर्त हूँ!” तुम अपना सही रूप देखोगे और सचमुच अपनी मुश्किलों, खामियों और धोखेबाजी को पहचानोगे। अगर तुम कोई गहन-विश्लेषण नहीं करते, और हमेशा के लिए खुद को ईमानदार व्यक्ति और धोखेबाजी से मुक्त इंसान मानते हो, फिर भी खुद को धोखेबाज कहते हो, तो तुम कभी नहीं बदलोगे। अगर तुम अपने दिल में पैठी उन घिनौनी, दुष्ट मंशाओं को खोद कर नहीं निकालते, तो तुम अपनी कुरूपता और भ्रष्टता को कैसे देखोगे? अगर तुम अपनी भ्रष्ट दशाओं पर आत्मचिंतन कर उनका गहन-विश्लेषण नहीं करते, तो क्या तुम उस सत्य को देख पाओगे कि तुम कितनी गहराई से भ्रष्ट हो? अपने भ्रष्ट स्वभाव की समझ के बिना तुम यह नहीं जान पाओगे कि समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य को कैसे खोजें, तुम नहीं जानोगे कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सत्य का अनुसरण कैसे करें और वास्तविकता में प्रवेश कैसे करें। इस वाक्यांश का सच्चा अर्थ यही है : “अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते तो तुम्हें कभी भी वास्तविकता प्राप्त नहीं होगी।”

परमेश्वर जो भी कहता है वह सत्य है। उसके प्रत्येक अंतिम वचन में सत्य वास्तविकता होती है, और यह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। इसलिए लोगों को अभ्यास और प्रवेश करने के लिए परमेश्वर के वचनों को अपने दैनिक जीवन में लाना चाहिए। परमेश्वर का प्रत्येक वचन मानवजाति की जरूरत को लक्ष्य करके होता है और प्रत्येक वचन लोगों के उससे अपनी तुलना करने के लिए है। ये यूँ ही सरसरी नजर डालने के लिए नहीं हैं, न ही तुम्हारी कुछ आध्यात्मिक जरूरतें पूरी करने के लिए हैं, न ही वे बनावटी बातें करने के लिए या शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करने की तुम्हारी जरूरत पूरी करने के लिए हैं। परमेश्वर के प्रत्येक वचन में सत्य की वास्तविकता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं लाते, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का कोई रास्ता नहीं होगा—तुम हमेशा ऐसे इंसान रहोगे जिसका वास्तविकता से कोई रिश्ता नहीं है। अगर तुम ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करते हो, तो तुम्हारे पास ईमानदार होने की वास्तविकता होगी, और तुम झूठे ढोंग करने के बजाय एक ईमानदार व्यक्ति होने की सच्ची दशा में जी सकोगे। तुम यह भी समझ पाओगे कि कैसा व्यक्ति ईमानदार होता है और कैसा व्यक्ति नहीं, और परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा क्यों करता है। तुम ईमानदार व्यक्ति होने के महत्त्व को सचमुच समझ जाओगे; तुम अनुभव करोगे कि लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रखकर परमेश्वर कैसा महसूस करता है, और वह लोगों से यह अपेक्षा क्यों रखता है। यह पता लगने पर कि तुम अत्यंत धोखेबाज हो, तुम अपनी धोखेबाजी और कुटिलता से घृणा करोगे। तुम्हें इस बात से घृणा होगी कि अपने धोखेबाज और कुटिल स्वभाव के साथ तुम बेशर्मी से कैसे जीते रहे हो। इस तरह तुम बदलाव के लिए उत्सुक हो जाओगे। इस तरह तुम्हें यह और ज्यादा महसूस होगा कि ईमानदार व्यक्ति होना ही सामान्य मानवता वाला और सार्थक जीवन जीने का एकमात्र रास्ता है। तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर का लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा रखना अत्यंत अर्थपूर्ण है। तुम्हें लगेगा कि ऐसा करके ही तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो पाओगे, कि सिर्फ ईमानदार लोगों को ही उद्धार मिलेगा, और यह कि परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा वह पूरी तरह से सही है! तुम लोग मुझे बताओ : क्या लोगों से ईमानदार होने की परमेश्वर की अपेक्षा अर्थपूर्ण है? (हाँ, जरूर है।) फिर तुम लोगों को अपने धोखेबाज और कुटिल अंशों का गहन-विश्लेषण अभी से शुरू कर देना चाहिए। उनका गहन-विश्लेषण करने के बाद तुम पाओगे कि धोखेबाजी के हर काम के पीछे एक इरादा है, एक खास लक्ष्य, एक इंसानी कुरूपता है। तुम पाओगे कि यह धोखा लोगों की मूर्खता, स्वार्थ और घिनौनापन दर्शाता है। जब तुम्हें यह पता चलेगा, तब तुम अपना असली चेहरा देखोगे, और जब तुम अपना असली चेहरा देखोगे, तुम खुद से घृणा करोगे। खुद से घृणा करना शुरू करने और सचमुच यह जान लेने के बाद कि तुम किस किस्म के इंसान हो, क्या तुम शान बघारते रहोगे? क्या हर मोड़ पर तुम डींग हाँकते रहोगे? क्या तुम्हें हमेशा दूसरों से अभिनंदन और प्रशंसा की चाह रहेगी? क्या तुम अब भी कहोगे कि परमेश्वर की माँगें बहुत ऊँची हैं, कि ये जरूरी नहीं हैं? तुम उस तरह कार्य नहीं करोगे, वैसी बातें नहीं कहोगे। तुम परमेश्वर की बातों से सहमत हो जाओगे और “आमीन” कहोगे। तुम्हें दिलो-दिमाग और अपनी आँखों से यकीन हो जाएगा। जब ऐसा होता है तो इसका अर्थ है कि तुमने परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना शुरू कर दिया है, तुमने वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है और तुम्हें नतीजे दिखाई देने लगे हैं। जितना ही तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करोगे, तुम्हें उतना ही महसूस होगा कि वे कितने सही और जरूरी हैं। मान लो कि तुम उनका अभ्यास नहीं करते। इसके बजाय तुम हमेशा बड़बड़ाते रहते हो, “अरे, मैं बेईमान हूँ, धोखेबाज हूँ,” और फिर भी किसी हालात का सामना होने पर तुम धोखेबाजी से काम लेते हो, इस दौरान यह सोचते रहते हो कि यह धोखेबाजी नहीं है, खुद को अभी भी ईमानदार मानते हो, और मामले को यूँ ही गुजर जाने देते हो। और अगली बार कोई मामला आने पर तुम फिर से चालबाजी करते हो, कुटिलता और धोखेबाजी में लग जाते हो, और मुँह खोलते ही झूठ बोलने लगते हो। बाद में तुम्हें ताज्जुब होता है “क्या मैं फिर से कुटिल और धोखेबाज बन गया था? क्या मैं दोबारा झूठ बोल रहा था? मुझे नहीं लगता इसकी कोई अहमियत है,” और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, तुम देख रहे हो मैं किस तरह साजिशों का सहारा लेता हूँ, हमेशा कुटिल और धोखेबाज रहता हूँ। मुझे माफ कर दो। अगली बार मैं वैसा नहीं रहूँगा; अगर मैं वैसा रहा तो मुझे अनुशासित करना,” इन मामलों को हल्के में लेकर तुम उन्हें दबा देते हो। यह कैसा व्यक्ति है? यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता और सत्य का अभ्यास करने को तैयार नहीं होता। हो सकता है तुमने अपना कर्तव्य निभाने, परमेश्वर की सेवा करने या धर्मोपदेश सुनने में थोड़ी कीमत चुकाई हो, थोड़ा वक्त लगाया हो। हो सकता है तुमने अपने थोड़े कामकाजी समय का भी त्याग किया हो और थोड़ा कम पैसा कमाया हो। लेकिन असल में तुमने सत्य का जरा भी अभ्यास नहीं किया है, और तुमने सत्य का अभ्यास करने के विषय को गंभीरता से नहीं लिया है। तुम सतही और लापरवाह रहे हो, इसे कभी अहमियत नहीं दी। अगर तुम सत्य का अभ्यास सिर्फ बिना रुचि के करते हो, तो इससे साबित होता है कि सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया प्रेम का नहीं है। तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने को तैयार नहीं है; तुम सत्य से बहुत दूर हो और सत्य से विमुख हो। तुमने आशीष प्राप्त करने के लिए आस्था रखी है, और तुम परमेश्वर से सिर्फ इसलिए दूर नहीं गए क्योंकि तुम्हें दंडित होने का डर है। इसलिए तुम अपनी आस्था किसी तरह निभा लेते हो, खुद को अच्छा दिखाने के लिए शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करने की कोशिश करते हो, थोड़ी आध्यात्मिक शब्दावली और कुछ लोकप्रिय भजन सीख लेते हो, सत्य पर संगति करने के लिए कुछ सूत्रवाक्य और अपनी आस्था से जुड़े प्रचलित बोल सीख लेते हो। तुम खुद को आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह अलंकृत करते हो, यह सोचकर कि तुम वह व्यक्ति हो जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है और परमेश्वर के उपयोग के लायक है। तुम बेपरवाह होकर खुद को भूल जाते हो। तुम इस सतही छवि, इस पाखंडी व्यवहार के फेर में आकर बेवकूफ बन जाते हो। तुम अपनी मृत्यु तक इनसे बेवकूफ बनते रहते हो, और हालाँकि तुम्हें लगता है कि तुम स्वर्ग में आरोहण करोगे, सच पूछो तो तुम नरक में उतरोगे। वैसी आस्था रखने का भला क्या अर्थ है? तुम्हारी इस तथाकथित “आस्था” में कुछ भी वास्तविक नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा तुमने मान लिया है कि एक परमेश्वर है, मगर तुमने सत्य वास्तविकता में जरा भी प्रवेश नहीं किया है। तो अंत में तुम्हारा नतीजा भी वही होगा जो गैर-विश्वासियों का होता है—तुम नरक में जाओगे, बिना किसी अच्छे अंतिम नतीजे के। परमेश्वर कहता है : “मैं जो माँगता हूँ वे केवल उजले, रंग-बिरंगे फूल ही नहीं, बल्कि भरपूर फल हैं।” तुम्हारे पास चाहे जितने फूल हों या वे चाहे जितने भी सुंदर हों, वे परमेश्वर को नहीं चाहिए। इसका अर्थ यह है कि तुम चाहे जितना भी मीठा बोलो या चाहे तुम जितने भी खपते, चढ़ावा देते, त्याग करते नजर आओ, यह वह नहीं है जिससे परमेश्वर को आनंद मिलता है। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि तुम्हें वास्तव में सत्य की कितनी समझ है और तुमने कितना अभ्यास किया है, परमेश्वर के वचनों की कितनी सत्य वास्तविकता तुमने जी है, क्या तुम्हारे जीवन स्वभाव में सच्चा बदलाव हुआ है, तुम्हारे पास कितनी सच्ची अनुभवजन्य गवाही है, तुमने कितने नेक कर्म किए हैं, तुमने परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए कितना कार्य किया है, और क्या तुमने अपना कर्तव्य मानक स्तरीय ढंग से निभाया है। परमेश्वर यही चीजें देखता है। जब लोग परमेश्वर को नहीं समझते और उसके इरादों को नहीं जानते, तो वे हमेशा इसका गलत अर्थ निकालते हैं और उसके साथ हिसाब चुकाने के तरीके के रूप में उसे कुछ सतही चीजें पेश करते हैं। वे कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं कई वर्षों से विश्वासी रहा हूँ। मैंने सब जगहों की यात्रा की है, सुसमाचार का प्रचार किया है, और बहुत-से लोगों का धर्म-परिवर्तन किया है। मैं तुम्हारे वचनों के अनेक अंशों का पाठ कर सकता हूँ, और बहुत-से भजन गा सकता हूँ। किसी बड़ी या मुश्किल चीज के आने पर मैं हमेशा उपवास और प्रार्थना करता हूँ, और मैं पूरे समय तुम्हारे वचन पढ़ता रहता हूँ। मैं तुम्हारे इरादों के अनुरूप कैसे नहीं हूँ?” फिर परमेश्वर उनसे कहता है : “क्या तुम अब ईमानदार व्यक्ति हो? क्या तुम्हारी धोखेबाजी बदल गई है? क्या तुमने ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए कभी कोई कीमत चुकाई है? क्या तुम कभी भी अपने द्वारा किए गए धोखेबाजी के तमाम कामों, धोखेबाजी के सभी खुलासों को मेरे पास लाए हो, और उन्हें रोशन किया है? क्या तुम मेरे साथ कम बेईमान हो? मुझसे झूठी शपथ या खोखले वादे करते समय या मुझे मूर्ख बनाने के लिए बढ़िया बातें करते समय क्या तुम उन्हें पहचानते हो? क्या तुमने इन चीजों को जाने दिया है?” जब तुम उस बारे में सोचते हो और पाते हो कि तुमने इन्हें बिल्कुल जाने नहीं दिया है, तो तुम हक्के-बक्के रह जाओगे। तुम इस तथ्य के प्रति आगाह होगे कि तुम परमेश्वर से किसी भी तरह हिसाब नहीं चुका सकते। तुम लोग खुद को जान सको इसके लिए मैं तुम लोगों की भ्रष्ट दशा को उजागर करता हूँ; मैं इतना इसलिए बोलता हूँ ताकि तुम लोग सत्य का अभ्यास करके वास्तविकता में प्रवेश कर सको। कोई भी वचन, कोई भी संगति या सत्य लोगों के हर जगह पाठ करने के लिए नहीं हैं; वे अभ्यास में लाने के लिए हैं। तुम लोगों को हमेशा सत्य को स्वीकार करने और अभ्यास में लाने को क्यों कहा जा रहा है? इसलिए कि केवल सत्य ही तुम लोगों की भ्रष्टता को शुद्ध कर सकता है और जीवन और तुम्हारे मूल्यों के प्रति नजरिए को बदल सकता है और केवल सत्य ही किसी का जीवन बन सकता है। जब तुम सत्य स्वीकारते हो, तो इसे अपना जीवन बनाने के लिए तुम्हें इसका अभ्यास भी करना चाहिए। अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम्हें सत्य की समझ है मगर तुमने इसका अभ्यास नहीं किया है और यह तुम्हारा जीवन नहीं बन पाया है, तो संभवतः तुम नहीं बदल सकते। चूँकि तुमने सत्य को स्वीकार नहीं किया है, इसलिए तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के शुद्ध होने का कोई रास्ता नहीं है। अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो तुम नहीं बदलोगे। अंततः अगर सत्य ने तुम्हारे दिल में जड़ें नहीं जमाई हैं और यह तुम्हारा जीवन नहीं बन पाया है, तो जब एक विश्वासी के रूप में तुम्हारा समय समाप्त होने को होगा, तो तुम्हारी नियति और परिणाम का फैसला हो जाएगा। इस संगति के प्रकाश में क्या तुम सभी लोगों को लग रहा है कि शीघ्रता से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? तीन साल, पाँच साल या और भी ज्यादा प्रतीक्षा करने के बाद ही इसका अभ्यास शुरू न करो। सत्य पर अभ्यास करने को लेकर कोई भी समय बहुत जल्द या बहुत देर का नहीं होता; अगर तुम इसका शीघ्र अभ्यास करोगे, तो शीघ्र बदलोगे, अगर तुम इसका बाद में अभ्यास करोगे, तो बाद में बदलोगे। अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य और परमेश्वर द्वारा मानवजाति की पूर्णता का मौका चूक गए तो विनाशों के आने पर तुम खतरे में पड़ जाओगे। फिर जब मानवजाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा, तो कोई भी मौके नहीं बचेंगे। अगर मौके चूक जाने के बाद तुम कहोगे : “तब मैंने उसके लिए कोई मेहनत नहीं की, मगर अब मैं इस पर अमल करूँगा,” तो बहुत देर हो जाएगी, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें पूरा किए जाने की संभावना नहीं रहेगी। ऐसा इसलिए कि अब पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा, और सभी चीजों, सभी सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत उथली होगी। अब तमाम हालात पैदा हो रहे हैं, और सत्य पर संगति के जरिए तुम लोगों की आस्था बढ़ रही है और तुममें परमेश्वर का अनुसरण करने का जोश ज्यादा है। अगर कुछ समय तक हालात न बने होते, तो तुम लोग यकीनन नकारात्मक और अनुशासनहीन हो जाते, परमेश्वर से दूर और दूर हो जाते। तुम ठीक धार्मिक संसार के लोगों की तरह ही हो जाते, बिल्कुल सत्य वास्तविकता के बिना सभाओं और धार्मिक अनुष्ठानों के खाकों का निरीक्षण करने वाले। फिर रोने-धोने से तुम लोगों का क्या भला होता?

मुझे बताओ, क्या धोखेबाज लोगों के साथ-साथ जीना थकाऊ होता है? (जरूर होता है।) क्या वे भी थके हुए नहीं हैं? दरअसल वे भी थके हुए हैं मगर उन्हें अपनी थकान महसूस नहीं होती। ऐसा इसलिए कि धोखेबाज और ईमानदार लोग अलग-अलग होते हैं : ईमानदार लोग ज्यादा सरल होते हैं। उनके विचार उतने पेचीदा नहीं होते, वे वही बोलते हैं जो सोचते हैं। दूसरी ओर धोखेबाज लोगों को हमेशा घुमा-फिरा कर बोलना पड़ता है। वे कोई भी बात सीधे तौर पर नहीं करते—बल्कि हमेशा धोखेबाजी के खेल खेलते हैं, अपने झूठ छिपाते हैं। वे हमेशा अपने दिमाग चलाते रहते हैं, हमेशा सोचते रहते हैं, डरते हैं कि जरा भी लापरवाह हुए तो वे कोई चूक कर बैठेंगे। कुछ लोग किस हद तक धोखेबाजी के खेल खेलते हैं? वे चाहे जिससे भी बातचीत कर रहे हों, हमेशा समझने की कोशिश में रहते हैं कि कौन ज्यादा मतलबी है, कौन ज्यादा होशियार है, कौन सबसे ऊपर है, और आखिरकार प्रतिस्पर्धा की उनकी भावना मानसिक विकार बन जाती है। वे रात में सो नहीं पाते, फिर भी उन्हें दर्द महसूस नहीं होता और यहाँ तक कि यह सामान्य लगता है। फिर क्या वे जीवित दानव नहीं बन चुके हैं? जब परमेश्वर लोगों को बचाता है, तो वह उन्हें ईमानदार लोग होने और उसके वचनों के अनुसार जीने के लिए शैतान के प्रभाव से मुक्त होने और अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने देता है। एक ईमानदार व्यक्ति की तरह जीना स्वतंत्रता और मुक्ति देने वाला और काफी कम दर्दनाक होता है। यह सबसे खुशहाल जीवन होता है। ईमानदार लोग ज्यादा सरल होते हैं। वे अपने दिल की बात करते हैं, वही बोलते हैं जो वे सोचते हैं। अपने कथनों और कृत्यों में वे अपने जमीर और समझ का अनुसरण करते हैं। वे सत्य के लिए मेहनत करने को तैयार रहते हैं और उसे समझ लेने के बाद वे उसका अभ्यास करते हैं। जब वे कोई बात समझ नहीं पाते, तो सत्य खोजने को तैयार रहते हैं, और फिर वे वही करते हैं जो सत्य के अनुरूप होता है। वे हर जगह और हर चीज में परमेश्वर की इच्छाएँ खोजते हैं, और फिर अपने कार्यों में उनका पालन करते हैं। ऐसे कुछ क्षेत्र हो सकते हैं जिनमें वे बेवकूफ होते हैं और जिनमें उन्हें सत्य सिद्धांतों से लैस होना चाहिए, और इसके लिए जरूरी है कि वे निरंतर विकास करें। इस तरह अनुभव करने का अर्थ है कि वे ईमानदार और बुद्धिमान हो सकते हैं, और पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकते हैं। लेकिन धोखेबाज लोग ऐसे नहीं होते। वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, अपनी भ्रष्टता का खुलासा करते रहते हैं, फिर भी डरते हैं कि ऐसा करने से कहीं दूसरे लोग उनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ पता न लगा लें। इसलिए वे जवाब में कुटिल, धोखेबाज चालें चलते हैं। वे उस समय से डरते हैं जब तमाम चीजों का खुलासा होगा, इसलिए वे झूठ बनाने और उन्हें छिपाने के सभी साधन इस्तेमाल करते हैं जो उनके वश में हैं, और जब कुछ अंतराल नजर आता है तो उसे भरने के लिए वे और झूठ बोलते हैं। हमेशा झूठ बोलना और अपना झूठ छिपाना—क्या यह जीने का एक थकाऊ तरीका नहीं है? वे हमेशा झूठ और उन्हें दबाने के तरीके सोचने के लिए अपने दिमाग लगाते रहते हैं। यह बहुत ज्यादा थकाऊ होता है। इसीलिए झूठ तैयार करने और उन्हें छिपाने में दिन बिताने वाले धोखेबाज लोगों का जीवन हमेशा इतना थकाऊ और दर्दनाक होता है! लेकिन ईमानदार लोगों के साथ बात अलग है। ईमानदार व्यक्ति को बोलते और कर्म करते समय इतनी सारी चीजों पर विचार नहीं करना पड़ता। ज्यादातर स्थितियों में ईमानदार व्यक्ति बस सच्चाई से बोल सकता है। सिर्फ जब कोई खास मामला उनके हितों को प्रभावित करता है, तभी वे अपना दिमाग थोड़ा ज्यादा चलाते हैं—वे अपने हितों की रक्षा करने और अपना अभिमान और गर्व बनाए रखने के लिए थोड़ा झूठ बोल सकते हैं। ऐसे झूठ सीमित होते हैं, इसलिए ईमानदार लोगों के लिए बोलना और कार्य करना उतना थकाऊ नहीं होता। धोखेबाज लोगों के इरादे ईमानदार लोगों के मुकाबले काफी पेचीदा होते हैं। उनके ध्यान देने योग्य विचार बहुत ज्यादा बहुआयामी होते हैं : उन्हें अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे के साथ ही अपनी प्रतिष्ठा और इज्जत का विचार करना होता है; और उन्हें अपने हितों की रक्षा करनी होती है—और ये सब लोगों को खामियाँ दिखाए बिना या खेल का खुलासा किए बिना, इसलिए उन्हें झूठ तैयार करने के लिए अपना दिमाग लगाना पड़ता है। इसके अलावा धोखेबाज लोगों की बहुत बड़ी और अत्यधिक आकांक्षाएँ और कई माँगें होती हैं। उन्हें अपने लक्ष्य पाने के लिए तरीके ईजाद करने होते हैं, इसलिए उन्हें झूठ बोलते और ठगते रहना पड़ता है, और वे जितने ज्यादा झूठ बोलते हैं, उतने ज्यादा झूठ उन्हें छिपाने पड़ते हैं। इसीलिए धोखेबाज व्यक्ति का जीवन ईमानदार व्यक्ति के जीवन की अपेक्षा बहुत ज्यादा थकाऊ और पीड़ादायक होता है। कुछ लोग अपेक्षाकृत ईमानदार होते हैं। उन्होंने चाहे जो भी झूठ बोले हों, अगर वे इसकी परवाह किए बिना सत्य का अनुसरण कर आत्मचिंतन कर सकते हैं, जिस चालबाजी में वे शामिल हैं उसे पहचान सकते हैं, चाहे वह जो भी हो, उसका गहन-विश्लेषण करने, समझने और फिर उसे बदलने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में उसे देख सकते हैं, तो फिर वे कुछ ही वर्षों में अपने झूठ और चालबाजी से काफी हद तक छुटकारा पा सकेंगे। फिर वे वैसे व्यक्ति बन चुके होंगे जो बुनियादी तौर पर ईमानदार हैं। इस तरह जीना उन्हें न सिर्फ अधिक पीड़ा और थकान से मुक्त कर देता है, इससे उन्हें शांति और खुशी भी मिलती है। कई मामलों में वे शोहरत, लाभ, रुतबे, अभिमान और गौरव के बंधनों से स्वतंत्र रह कर स्वाभाविक रूप से आजाद और मुक्त जीवन जिएँगे। लेकिन हालाँकि धोखेबाज लोगों की बातों और कृत्यों के पीछे हमेशा गुप्त मंसूबे होते हैं। वे लोगों को गुमराह करने और चालबाजी करने के लिए तरह-तरह के झूठ बनाते हैं और उजागर होते ही वे अपने झूठों को छिपाने के तरीके सोचने लगते हैं। तरह-तरह से उत्पीड़ित होकर उन्हें भी लगता है कि उनका जीवन थकाऊ है। उनके लिए हर स्थिति में इतने सारे झूठ बोलना बहुत थकाऊ होता है, और फिर उन झूठों को छिपाना और भी ज्यादा थकाऊ होता है। उनकी हर बात कोई लक्ष्य साधने के लिए होती है, इसलिए वे अपने प्रत्येक शब्द पर बहुत ज्यादा मानसिक ऊर्जा खपाते हैं। और जब उनकी बात खत्म हो जाती है तो वे डर जाते हैं कि तुमने उनके भीतर झाँक लिया है, तो उन्हें अपने झूठ छिपाने के लिए अपना दिमाग लगाना पड़ता है, तुम्हें दृढ़ निश्चय से चीजें समझानी पड़ती हैं, तुम्हें यकीन दिलाने की कोशिश करनी पड़ती है कि वे झूठ नहीं बोल रहे हैं, धोखा नहीं दे रहे हैं, और वे एक नेक इंसान हैं। धोखेबाज लोग ऐसे काम करने में तत्पर होते हैं। अगर दो धोखेबाज लोग साथ हों, तो साजिश, संघर्ष और षड्यंत्र का होना लाजिमी है। यह तकरार कभी खत्म नहीं होती, जिससे और गहरी नफरत पैदा होती है और वे कट्टर दुश्मन बन जाते हैं। अगर किसी धोखेबाज व्यक्ति के साथ तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, तो ये बर्ताव तुम्हें यकीनन परेशान कर देंगे। अगर वे बस यहाँ-वहाँ वैसे कर्म करते रहे, तो तुम कहोगे कि हरेक का स्वभाव भ्रष्ट है, और ऐसी चीजों से बचना मुश्किल है। लेकिन अगर वे सारा समय यूँ ही करते रहे, तो तुम्हें इन तरीकों से खास तौर पर घृणा होगी, नफरत होगी; तुम्हें उनके इस पहलू और उनके इन इरादों से नफरत हो जाएगी। जब तुम इस हद तक नफरत करोगे, तो उनसे घृणा कर उन्हें ठुकरा सकोगे। यह बहुत सामान्य बात है। जब तक वे प्रायश्चित्त नहीं करते और थोड़ा बदलाव नहीं दिखाते, उनसे बातचीत नहीं की जा सकती।

तुम लोग क्या कहते हो—क्या धोखेबाज लोगों का जीवन थकाऊ नहीं है? वे अपना पूरा समय झूठ बोलने और फिर उन्हें छिपाने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने और चालबाजी करने में लगा देते हैं। वे ही खुद को इतना थकाते हैं। वे जानते हैं कि इस तरह जीना थकाऊ है—फिर भी वे क्यों धोखेबाज बने रहना चाहते हैं, एक ईमानदार व्यक्ति क्यों नहीं बनना चाहते? क्या तुम लोगों ने कभी इस सवाल पर विचार किया है? यह लोगों के अपनी शैतानी प्रकृति द्वारा बेवकूफ बनाए जाने का नतीजा है; यह उन्हें ऐसे जीवन और ऐसे स्वभाव से छुटकारा पाने से रोकता है। लोग इस तरह बेवकूफ बनाए जाने और इस तरह जीने को तैयार रहते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते, प्रकाश के मार्ग पर नहीं चलना चाहते। तुम्हें लगता है कि इस तरह जीना थकाऊ है और इस तरह कार्य करना जरूरी नहीं है—लेकिन धोखेबाज लोग सोचते हैं कि यह पूरी तरह से जरूरी है। वे सोचते हैं कि ऐसा न करने से उनका अपमान होगा, उनकी छवि, प्रतिष्ठा और हितों को भी नुकसान पहुँचेगा, और वे बहुत-कुछ खो देंगे। वे ये चीजें सँजोते हैं, वे अपनी छवि, प्रतिष्ठा और हैसियत को सँजोते हैं। यह उन लोगों का असली चेहरा है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। संक्षेप में, लोग एक ईमानदार व्यक्ति बनने या सत्य का अभ्यास करने को इसलिए तैयार नहीं होते क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। अपने दिल में वे प्रतिष्ठा और हैसियत जैसी चीजों को सँजोते हैं, वे सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागना और शैतान की सत्ता के अधीन रहकर जीना पसंद करते हैं। यह उनकी प्रकृति की समस्या है। अभी ऐसे लोग हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, अनेक धर्मोपदेश सुने हैं और जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है। लेकिन फिर भी वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और जरा भी नहीं बदले हैं—ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझते हों, फिर भी वे उसका अभ्यास नहीं कर पाते। ऐसे लोग परमेश्वर में चाहे जितने वर्ष विश्वास रख लें, वह कुछ भी नहीं होगा। क्या सत्य से प्रेम न करने वालों को बचाया जा सकेगा? यह बिल्कुल नामुमकिन है। सत्य से प्रेम न करना किसी व्यक्ति के दिल, उसकी प्रकृति की समस्या है। इसे दूर नहीं किया जा सकता। अपनी आस्था में कोई बचाया जा सकता है या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सिर्फ सत्य का प्रेमी ही सत्य को स्वीकार सकता है; सिर्फ वही मुश्किलें झेल सकता है और सत्य की खातिर कीमत चुका सकता है, सिर्फ वही परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा कर सकता है। सिर्फ वही सत्य को खोज सकता है, और अपने अनुभवों के जरिए आत्मचिंतन कर खुद को जान सकता है, देह-सुख के विरुद्ध विद्रोह करने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को समर्पित होने का साहस रखता है। सिर्फ सत्य के प्रेमी ही उसका इस तरह अनुसरण कर सकते हैं, उद्धार के पथ पर चल सकते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। इसके सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं है। सत्य से प्रेम न करने वालों के लिए इसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि अपनी प्रकृति से ही वे सत्य से विमुख होते हैं और उससे घृणा करते हैं। अगर वे परमेश्वर का प्रतिरोध करना बंद कर देना चाहें या बुरे कर्म न करना चाहें, तो ऐसा करना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि वे शैतान के हैं और वे पहले ही दानव और परमेश्वर के शत्रु बन चुके हैं। परमेश्वर मानवजाति को बचाता है, वह दानवों या शैतान को नहीं बचाता। कुछ लोग ऐसे सवाल पूछते हैं : “मैं वास्तव में सत्य को समझता हूँ। मैं सिर्फ उसका अभ्यास नहीं कर सकता। मैं क्या करूँ?” यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे समझ कर भी वह उसका अभ्यास नहीं कर सकता क्योंकि दिल से वह ऐसा करने को तैयार नहीं है, और उसे सत्य पसंद नहीं है। ऐसा व्यक्ति उद्धार से परे है। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे लगता है कि ईमानदार व्यक्ति बन कर तुम बहुत-सी चीजें खो देते हो, इसलिए मैं ऐसा व्यक्ति नहीं होना चाहता हूँ। धोखेबाज लोग कभी खोते नहीं—यहाँ तक कि वे दूसरों का फायदा उठाकर लाभान्वित होते हैं। तो मैं धोखेबाज बनना पसंद करूँगा। मैं दूसरों को अपना निजी व्यवसाय जानने देने, मुझे जानने या समझने देने को तैयार नहीं हूँ। मेरा भाग्य मेरे अपने हाथों में होना चाहिए।” फिर ठीक है, हर तरह से आजमा कर देख लो। देखो तुम्हें कैसे नतीजा मिलता है; देखो अंत में कौन नरक में जाता है और कौन दंडित होता है।

क्या तुम सब ईमानदार लोग बनने को तैयार हो? इस संगति को सुनने के बाद तुम लोग क्या करना चाहते हो? तुम पहले किस बात से शुरू करोगे? (मैं झूठ न बोलकर शुरू करूँगा।) अभ्यास करने का यह सही तरीका है, मगर झूठ न बोलना आसान नहीं होता। लोगों के झूठों के पीछे अक्सर इरादे होते हैं, लेकिन कुछ झूठों के पीछे कोई इरादा नहीं होता, न ही उनकी जान-बूझकर योजना बनाई जाती है। बजाय इसके वे सहज ही निकल आते हैं। ऐसे झूठ आसानी से सुलझाए जा सकते हैं; जिन झूठों के पीछे इरादे होते हैं उन्हें सुलझाना मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि ये इरादे व्यक्ति की प्रकृति से आते हैं और शैतान की चालबाजी दर्शाते हैं, और ये ऐसे इरादे होते हैं जो लोग जान-बूझकर चुनते हैं। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह देह-सुख के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकता—इसलिए उसे परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए, और मसला सुलझाने के लिए सत्य खोजना चाहिए। लेकिन झूठ को एक ही बार में पूरी तरह नहीं सुलझाया जा सकता। ये कभी-कभी लौट आते हैं और कई-कई बार ऐसा होता है। यह सामान्य स्थिति है, और जब तक तुम अपने बताए प्रत्येक झूठ को सुलझाते जाओगे, और ऐसा करते रहोगे, तो वह दिन आएगा जब तुमने सभी झूठ सुलझा लिए होंगे। झूठ का समाधान एक लंबा युद्ध है : जब तुम्हारे मुँह से एक झूठ बाहर आ जाए तो आत्मचिंतन करो और फिर परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब दूसरा झूठ बाहर आए, तो दोबारा आत्मचिंतन कर परमेश्वर से प्रार्थना करो। तुम परमेश्वर से जितनी ज्यादा प्रार्थना करोगे, अपने भ्रष्ट स्वभाव से उतनी ही घृणा करोगे, और उतने ही सत्य का अभ्यास करने और उसे जीने को लालायित होगे। इस तरह तुम्हें झूठ का परित्याग करने की शक्ति मिलेगी। ऐसे अनुभव और अभ्यास के थोड़े समय के बाद तुम देख पाओगे कि तुम्हारे झूठ बहुत कम हो गए हैं, तुम ज्यादा आसानी से जी रहे हो, और अब तुम्हें झूठ बोलने या अपने झूठ छिपाने की जरूरत नहीं है। हालाँकि तुम शायद हर दिन ज्यादा न बोलो, मगर तुम्हारा हर वाक्य तुम्हारे दिल से आएगा और सच्चा होगा, जिसमें झूठ बहुत कम होंगे। इस तरह जीना कैसा लगेगा? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त करने वाला नहीं होगा? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें बाधित नहीं करेगा, तुम उसके बंधन में नहीं रहोगे, और कम-से-कम तुम ईमानदार व्यक्ति बनने के परिणाम देखना शुरू कर दोगे। बेशक विशेष हालात का सामना होने पर तुम शायद कोई छोटा-मोटा झूठ बोल दो। ऐसे मौके भी आ सकते हैं जब तुम्हारा सामना किसी खतरे या मुसीबत से हो, या तुम अपनी सुरक्षा बनाए रखना चाहो, तब झूठ बोलने से बचा नहीं जा सकता। फिर भी तुम्हें उस पर आत्मचिंतन कर उसे समझना चाहिए और समस्या को हल करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर कहना चाहिए : “मुझमें अभी भी झूठ और चालबाजी हैं। परमेश्वर मुझे सदा के लिए मेरे भ्रष्ट स्वभाव से बचाए।” जब कोई जान-बूझकर बुद्धि का प्रयोग करता है, तो यह भ्रष्टता का खुलासा नहीं माना जाता। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए इंसान को इसका अनुभव करना पड़ता है। इस तरह तुम्हारे झूठ और भी कम हो जाएँगे। आज तुम दस झूठ बोलते हो, कल शायद नौ बोलो, और परसों आठ। बाद में तुम सिर्फ दो-तीन ही बोलोगे। तुम ज्यादा-से-ज्यादा सत्य बोलोगे, और ईमानदार व्यक्ति बनने का तुम्हारा अभ्यास परमेश्वर के इरादों, उसके अपेक्षित मानकों के और ज्यादा करीब पहुँच जाएगा—और यह कितना अच्छा होगा! एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने के लिए तुम्हारे पास एक पथ और एक लक्ष्य होना चाहिए। सबसे पहले झूठ बोलने की समस्या को हल करो। तुम्हें अपने ये झूठ बोलने के पीछे के सार को जानना चाहिए। तुम्हें यह भी गहन-विश्लेषण करना चाहिए कि कौन-से इरादे और मंशाएँ तुम्हें ये झूठ बोलने को प्रेरित करती हैं, तुम्हारे भीतर ऐसे इरादे क्यों हैं, और उनका सार क्या है। जब तुम इन सभी मसलों का स्पष्टीकरण कर लोगे, तो तुम झूठ बोलने की समस्या को अच्छी तरह समझ चुके होगे, और कुछ घटित होने पर तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होंगे। अगर तुम ऐसे अभ्यास और अनुभव के साथ आगे बढ़ोगे, तो यकीनन तुम्हें परिणाम मिलेंगे। एक दिन तुम कहोगे : “ईमानदार व्यक्ति होना आसान है। धोखेबाज होना बहुत थकाऊ है! मैं अब और धोखेबाज इंसान नहीं रहना चाहता, मुझे हमेशा सोचना पड़ता है कि कौन-सा झूठ बोलूँ और अपने झूठ कैसे छिपाऊँ। यह एक मानसिक रोगी होने की तरह है, जो विरोधाभासी बातें करता है—ऐसा जो ‘इंसान’ कहने लायक नहीं है! ऐसा जीवन बहुत थकाऊ है, अब मैं और उस तरह नहीं जीना चाहता!” इस समय तुम्हें सचमुच एक ईमानदार व्यक्ति होने की आशा होगी और इससे साबित होगा कि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की ओर आगे बढ़ रहे हो। यह एक कामयाबी है। बेशक तुममें से कुछ लोग होंगे जो तुम्हारे अभ्यास शुरू करते समय ईमानदार बातें कहेंगे और खुद को खोलकर पेश करने के बाद अपमानित महसूस करेंगे। तुम्हारा चेहरा लाल हो जाएगा, तुम शर्मिंदा महसूस करोगे, और तुम लोगों की हँसी से डरोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? तब भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे शक्ति देने की विनती करनी चाहिए। तुम कहो : “हे परमेश्वर, मैं ईमानदार व्यक्ति बनना चाहता हूँ, लेकिन मुझे डर है कि मेरे सत्य बोलने पर लोग मुझ पर हँसेंगे। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरे शैतानी स्वभाव के बंधन से बचा लो; मुझे स्वतंत्र और मुक्त होकर तुम्हारे वचनों के अनुसार जीने दो।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे दिल में और ज्यादा उजाला हो जाएगा, और तुम खुद से कहोगे : “इसे अभ्यास में लाना अच्छा है। आज मैंने सत्य का अभ्यास किया है। आखिरकार अब मैं ईमानदार व्यक्ति बन गया हूँ।” जब तुम इस तरह प्रार्थना करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय में कार्य करेगा, वह तुम्हें प्रेरित करेगा, तुम्हें इस बात की सराहना करने देगा कि ईमानदार बन कर कैसा महसूस होता है। सत्य को इसी तरह अभ्यास में लाना चाहिए। बिल्कुल शुरुआत में तुम्हारे सामने कोई पथ नहीं होगा, लेकिन सत्य को खोजने से तुम्हें पथ मिल जाएगा। जब लोग सत्य को खोजना शुरू करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उनमें आस्था हो। पथ न होने से लोगों को बड़ी मुश्किल होती है, लेकिन जब एक बार वे सत्य को समझ लेते हैं, और उनके सामने अभ्यास का पथ होता है तो उनके दिलों को उसमें आनंद मिलने लगता है। अगर वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाते हैं, तो उनके दिलों को आराम मिलेगा, उन्हें स्वतंत्रता और मुक्ति हासिल होगी। अगर तुम्हें परमेश्वर का थोड़ा सच्चा ज्ञान है, तो तुम इस संसार की तमाम चीजें स्पष्ट देख पाओगे; तुम्हारा हृदय प्रकाशित होगा, और तुम्हारे सामने एक पथ होगा। फिर तुम संपूर्ण मुक्ति और स्वतंत्रता प्राप्त करोगे। उस समय तुम समझ जाओगे कि सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर को संतुष्ट करने और एक सच्चा व्यक्ति बनने का क्या अर्थ होता है—और इसमें तुम परमेश्वर में अपने विश्वास के सही रास्ते पर चलोगे।

शरद ऋतु 2007

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