एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास (भाग एक)

ईमानदार व्यक्ति होने का तुम्हारा निजी अनुभव कैसा है? (ईमानदार व्यक्ति होना सचमुच बहुत मुश्किल लगता है।) मुश्किल क्यों लगता है? (मैं सच में ईमानदार बनना चाहती हूँ। लेकिन जब मैं हर दिन खुद को जाँचती हूँ, तो पाती हूँ कि मैं कपटी हूँ और मेरी कथनी में ढेरों मिलावटें हैं। कभी-कभी मैं अपनी बातों में भावनाएँ डाल देती हूँ, या बोलते समय मेरी कुछ मंशाएँ होती हैं। कभी-कभी मैं छोटे-मोटे खेल खेलती हूँ, घुमा-फिरा कर बोलती हूँ, या ऐसी बातें कहती हूँ जो वास्तविकता के विरुद्ध होती हैं—छल-कपट वाली चीजें, आधा-सच और दूसरी तरह की झूठी बातें, सब अपना लक्ष्य साधने के लिए।) ये तमाम व्यवहार लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से उपजते हैं; ये लोगों के उस अंश से जुड़े होते हैं जो कुटिल और धोखेबाज होता है। लोग धोखेबाजी के खेल क्यों खेलते हैं? यह उनके अपने उद्देश्य पूरा करने के लिए होता है, अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए होता है और इसलिए वे छलपूर्ण तरीके इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करते हुए वे खुले और निष्कपट नहीं होते, और वे ईमानदार लोग नहीं होते। ऐसे ही समय में लोग अपनी धूर्तता और कपटीपन या अपनी दुर्भावना और घिनौनापन दिखाते हैं। दिलों में ऐसे भ्रष्ट स्वभाव लिए हुए लोगों को लगता है कि एक ईमानदार व्यक्ति बनना सचमुच खास तौर पर मुश्किल है। यहीं पर एक ईमानदार व्यक्ति होने में कठिनाई निहित होती है। लेकिन अगर तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो, और सत्य को स्वीकार करने में समर्थ हो, तो ईमानदार व्यक्ति बनना बहुत मुश्किल नहीं होगा। तुम्हें लगेगा कि यह तो अपेक्षाकृत काफी आसान है। निजी अनुभव वाले लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि ईमानदार व्यक्ति होने की राह में आने वाली सबसे बड़ी बाधाएँ हैं लोगों की धूर्तता, उनकी धोखेबाजी, उनकी दुर्भावना और उनकी घिनौनी मंशाएँ। जब तक उनके ये भ्रष्ट स्वभाव मौजूद रहेंगे, ईमानदार व्यक्ति होना बहुत मुश्किल होगा। तुम सभी लोग ईमानदार होने का प्रशिक्षण ले रहे हो, इसलिए तुम्हें इसका थोड़ा अनुभव है। तुम लोगों के अनुभव कैसे रहे हैं? (मैं हर दिन अपनी कही सारी झूठी बातें, सारा कूड़ा-करकट लिख डालता हूँ। फिर मैं खुद को जाँचता और अपना गहन-विश्लेषण करता हूँ। मुझे पता चला है कि इन ज्यादातर झूठी बातों के पीछे मेरी कोई मंशा होती है, और मैंने ये बातें अपने मिथ्याभिमान और नाक कटने से बचने के लिए बताई थीं। हालाँकि मैं जानता हूँ कि मेरी बातें सत्य के अनुरूप नहीं हैं, फिर भी मैं झूठ बोले या ढोंग किए बिना नहीं रह सकता।) यही है ईमानदार व्यक्ति होने की सबसे बड़ी मुश्किल। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम इससे अवगत हो या नहीं; अहम बात यह है कि यह जानते हुए भी कि जो तुम कर रहे हो वह गलत है, तुम जिद्दी होकर झूठ बोलते जाते हो, ताकि अपने लक्ष्य हासिल कर सको, अपनी छवि और अपना नाम बनाए रख सको, और इससे अनजान होने का कोई भी दावा झूठ है। एक ईमानदार व्यक्ति होने की कुंजी है अपनी मंशाओं, अपने इरादों और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना। यही झूठ बोलने की समस्या को जड़ से हल करने का एकमात्र तरीका है। अपने निजी लक्ष्य हासिल करना यानी व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित होना, किसी स्थिति का फायदा उठाना, खुद को अच्छा दिखाना, या दूसरों की स्वीकृति पाना—ये झूठ बोलते वक्त लोगों के इरादे और लक्ष्य होते हैं। इस प्रकार से झूठ बोलना भ्रष्ट स्वभाव दर्शाता है और झूठ बोलने को लेकर तुम्हें भेद की पहचान की जरूरत है। तो इस भ्रष्ट स्वभाव को कैसे हल करना चाहिए? इन सबका दारोमदार इस बात पर है कि तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं। अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो और अपनी वकालत किए बिना बोल सकते हो; अगर तुम अपने हितों पर ध्यान देना छोड़कर कलीसिया के कार्य, परमेश्वर के इरादों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों का विचार कर सकते हो, तो तुम झूठ बोलना छोड़ दोगे। तुम सच्चाई और साफगोई से बोल पाओगे। इस आध्यात्मिक कद के बिना तुम सच्चाई से नहीं बोल पाओगे, जिससे यह साबित होगा कि तुम्हारे आध्यात्मिक कद में कमी है, और तुम सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ हो। इसलिए एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सत्य की समझ और आध्यात्मिक कद में बढ़ने की प्रक्रिया की जरूरत होती है। जब हम इसे इस रूप में देखते हैं, तो आठ-दस साल के अनुभव के बिना ईमानदार व्यक्ति होना असंभव लगता है। यह अवधि किसी के जीवन में बढ़ने की प्रक्रिया की है, सत्य को समझने और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया की है। शायद कुछ लोग यह पूछें : “झूठ बोलने की समस्या का हल और ईमानदार व्यक्ति बनना क्या सचमुच इतना कठिन हो सकता है?” यह इस पर निर्भर करता है कि तुम किसकी बात कर रहे हो। अगर वह सत्य से प्रेम करने वाला है, तो वह कुछ मामलों में झूठ बोलना छोड़ पाएगा। लेकिन अगर वह ऐसा है जो सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसके लिए झूठ बोलना छोड़ना और ज्यादा मुश्किल हो जाएगा।

ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना मुख्य रूप से झूठ बोलने की समस्या को हल करने और साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने का मामला है। इसे करने में एक अहम अभ्यास जुड़ा होता है : जब तुम्हें यह एहसास हो जाए कि तुमने किसी से झूठ बोला है, उसके साथ चाल चली है, तो तुम्हें उसके सामने पूरी तरह खुल जाना चाहिए, खुद को उजागर कर देना चाहिए और माफी माँग लेनी चाहिए। झूठ बोलने की समस्या हल करने के लिए यह अभ्यास बहुत लाभकारी है। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने किसी के साथ चाल चली या तुमने उससे जो बातें कीं, उनमें थोड़ी मिलावट थी या तुम्हारे निजी इरादे थे, तो तुम्हें उससे मिलकर अपना विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें उसे बताना चाहिए : “मैंने तुम्हें जो बताया वह झूठ था, अपने गौरव की रक्षा के लिए था। यह कहने के बाद मैं परेशान हो गया था, इसलिए मैं अब तुमसे क्षमा माँग रहा हूँ। कृपया मुझे माफ कर दो।” उस व्यक्ति को यह बात बहुत ताजगी देने वाली लगेगी। वह सोचेगा कि ऐसा कोई कैसे हो सकता है जो झूठ बोलने के बाद उसके लिए माफी माँगे। ऐसे साहस की वे सचमुच सराहना करते हैं। ऐसा अभ्यास करने के बाद किसी व्यक्ति को क्या लाभ हासिल होते हैं? इसका प्रयोजन दूसरों की सराहना पाना नहीं, बल्कि खुद को झूठ बोलने से ज्यादा असरदार तरीके से संयमित करना और रोकना है। इसलिए झूठ बोलने के बाद तुम्हें इसके लिए माफी माँगने का अभ्यास करना चाहिए। तुम इस तरह लोगों के सामने अपना विश्लेषण करने, खुद को उजागर करने और माफी माँगने का जितना ज्यादा अभ्यास करोगे, नतीजे उतने ही बेहतर होंगे—और तुम्हारी झूठी बातों की मात्रा कम और कम होती जाएगी। ईमानदार बनने और खुद के झूठ बोलने पर नियंत्रण करने के लिए अपना गहन-विश्लेषण कर खुद को उजागर करने का अभ्यास करने के लिए साहस चाहिए और किसी से झूठ बोलने के बाद उससे माफी माँगने के लिए और भी ज्यादा साहस चाहिए। अगर तुम लोग साल-दो साल—या शायद तीन से पाँच साल—इसका अभ्यास करो, तो तुम्हें यकीनन स्पष्ट नतीजे मिलेंगे और झूठ बोलने से छुटकारा पाना मुश्किल नहीं होगा। खुद को झूठ से छुटकारा दिलाना ईमानदार व्यक्ति बनने की ओर पहला कदम है और यह तीन से पाँच साल के प्रयास के बिना नहीं किया जा सकता। झूठ बोलने की समस्या हल होने के बाद, दूसरा कदम धोखेबाजी और चालबाजी की समस्या को हल करना है। कभी-कभी चालबाजी और धोखेबाजी के लिए व्यक्ति का झूठ बोलना जरूरी नहीं होता—ये चीजें सिर्फ कार्य से भी हासिल की जा सकती हैं। हो सकता है कि कोई व्यक्ति बाहर से शायद झूठ न बोले, मगर फिर भी उसके दिल में धोखेबाजी और चालबाजी छिपी हुई हो। यह बात वे किसी और से ज्यादा जानते हैं क्योंकि उन्होंने बड़ी गहराई से इस बारे में सोचा और सावधानी से इस पर विचार किया है। बाद में चिंतन के बाद इसे पहचानना उनके लिए आसान होगा। एक बार झूठ बोलने की समस्या हल हो जाए, तो धोखेबाजी और चालबाजी की समस्याएँ दूर करना अपेक्षाकृत थोड़ा आसान होगा। लेकिन व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने वाला होना चाहिए क्योंकि धोखेबाजी और चालबाजी करते समय मनुष्य पर नीयत हावी होती है। लोग बाहर से इसे बूझ नहीं पाते, न ही वे इसका भेद पहचान पाते हैं। सिर्फ परमेश्वर ही इसकी पड़ताल कर सकता है और सिर्फ वही इस बारे में जानता है। इसलिए कोई व्यक्ति धोखेबाजी और चालबाजी की समस्या को सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना पर भरोसा करके और उसकी जाँच-पड़ताल को स्वीकार करके ही हल कर सकता है। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता या दिल से परमेश्वर का भय नहीं मानता, तो उसकी धोखेबाजी और चालबाजी की समस्या हल नहीं हो सकती। हो सकता है तुम परमेश्वर से प्रार्थना करो, अपनी गलतियाँ मान लो, पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करो, या हो सकता है अपने भ्रष्ट स्वभाव का गहन-विश्लेषण करो—सच्चाई से बताओ कि उस वक्त तुम क्या सोच रहे थे, तुमने क्या कहा, तुम्हारी नीयत क्या थी, और तुमने धोखा कैसे किया। ये सब करना अपेक्षाकृत आसान है। हालाँकि अगर तुम्हें किसी दूसरे व्यक्ति के सामने खुद को उजागर करने को कहा जाए, तो हो सकता है अपनी नाक कटने से बचने के लिए तुम अपना साहस और संकल्प खो दो। तब तुम्हारे लिए खुलने और खुद को उजागर करने का अभ्यास करना बहुत मुश्किल होगा। शायद तुम एक सामान्य ढंग से स्वीकार लो कि तुम कभी-कभी अपने निजी लक्ष्यों और नीयत के आधार पर बोलते या कार्य करते हो; तुम्हारी कथनी और करनी में एक स्तर की धोखेबाजी, मिलावट, झूठ या चालबाजी है। लेकिन फिर, कुछ हो जाए और शुरू से अंत तक की घटनाएँ उजागर कर, यह बता कर कि तुम्हारी कौन-सी बातें कपटपूर्ण थीं, उनके पीछे क्या नीयत थी, तुम क्या सोच रहे थे, तुम दुर्भावनापूर्ण या धूर्त थे या नहीं, तुम्हें अपना गहन-विश्लेषण करने पर मजबूर किया जाए, तो तुम बारीकियों में नहीं जाना चाहते या विस्तार से नहीं बताना चाहते। कुछ लोग यह कहकर चीजें छिपाते भी हैं : “बात ऐसी ही है। मैं बस बहुत धोखेबाज, धूर्त और अविश्वसनीय व्यक्ति हूँ।” यह दर्शाता है कि वे अपने भ्रष्ट सार का उचित ढंग से सामना करने के लायक नहीं हैं और यह भी कि वे कितने धोखेबाज और धूर्त हैं। ये लोग हमेशा टालमटोल के अंदाज और दशा में होते हैं। ये लोग हमेशा खुद को माफ करते और समायोजित करते रहते हैं, और ईमानदार बनने के सत्य का अभ्यास करने का कष्ट सहने या कीमत चुकाने में असमर्थ होते हैं। कई लोग हमेशा यह कहते हुए वर्षों से शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते रहे हैं : “मैं अत्यंत धोखेबाज और धूर्त हूँ, मेरे कृत्यों में अक्सर चालबाजी होती है, मैं लोगों से बिल्कुल ईमानदारी से पेश नहीं आता।” लेकिन वर्षों तक यूँ चिल्लाने के बाद भी वे पहले जितने ही धोखेबाज बने रहते हैं क्योंकि जब वे अपनी धोखेबाजी की दशा दिखाते हैं, तब कोई कभी उनसे सच्चा विश्लेषण या पछतावा नहीं सुनता। वे कभी भी दूसरों के सामने खुद को उजागर नहीं करते या लोगों से झूठ बोलने या उनसे चालबाजी करने के बाद माफी नहीं माँगते, सभाओं में आत्म-विश्लेषण और आत्मज्ञान की अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में संगति तो वे करते ही नहीं। न वे कभी यह बताते हैं कि वे खुद को कैसे जान पाए, या ऐसी बातों को लेकर उन्होंने प्रायश्चित कैसे किया। वे इनमें से कुछ भी नहीं करते, जो यह साबित करता है कि वे खुद को नहीं जानते और उन्होंने सचमुच प्रायश्चित्त नहीं किया है। जब वे कहते हैं कि वे धोखेबाज हैं और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हैं, तो वे महज नारे लगाते हैं, धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हैं, और कुछ नहीं। हो सकता है कि वे ये चीजें इसलिए करते हैं क्योंकि वे बने-बनाए ढर्रे पर चलने और दूसरों के पीछे चलने की कोशिश करते हैं। या हो सकता है कि कलीसिया के जीवन का माहौल उन्हें बिना दिलचस्पी के सतही तौर पर काम करने और दिखावा करने को मजबूर करता है। चाहे जो हो, ऐसे नारे लगाने वाले और धर्म-सिद्धांत प्रचारक कभी सच्चे दिल से प्रायश्चित्त नहीं करेंगे और यकीनन परमेश्वर का उद्धार नहीं पा सकेंगे।

परमेश्वर लोगों से जिस भी सत्य के अभ्यास की अपेक्षा रखता है उसके लिए उन्हें कीमत चुकाने और अपने असली जीवन में उसका व्यवहारिक रूप में अभ्यास और अनुभव करने की जरूरत होती है। परमेश्वर लोगों से नहीं कहता कि महज शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ करो, आत्मज्ञान की बातें करो, मान लो कि तुम कपटी, झूठे, कुटिल, धोखेबाज और चालबाज हो या ये चीजें दो-चार बार जोर-जोर से बोलकर अपनी बात खत्म कर दो। अगर कोई ये तमाम चीजें मान ले, मगर इस सच्चाई के बाद जरा भी न बदले; अगर वह झूठ बोलना, छलना और धोखेबाजी करना जारी रखे; किसी चीज का सामना होने पर वह वही शैतानी चालबाजियाँ, वही शैतानी तरीके चलाता रहे; अगर उसके उपाय और तरीके कभी न बदलें, तो क्या यह व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के योग्य है? क्या वह कभी भी अपना स्वभाव बदल पाएगा? नहीं—कभी नहीं! तुम्हें चिंतन कर खुद को जानने में समर्थ होना चाहिए। तुम्हें भाई-बहनों की मौजूदगी में खुद को उजागर करने और अपनी सच्ची दशा के बारे में संगति करने की हिम्मत दिखानी चाहिए। अगर तुममें उजागर करने की हिम्मत नहीं है या अपने भ्रष्ट स्वभाव का गहन-विश्लेषण नहीं कर सकते; अगर तुम अपनी गलतियाँ मानने की हिम्मत नहीं रखते, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, खुद को जानने वाला व्यक्ति होना तो दूर की बात है। अगर सभी लोग उन धार्मिक लोगों जैसे हों जो दूसरों की सराहना पाने के लिए दिखावा करते हैं, जो गवाही देते हैं कि वे परमेश्वर से कितना प्रेम करते हैं, उसके प्रति कितने समर्पित हैं, उसके प्रति कितने वफादार हैं, और परमेश्वर उनसे कितना प्रेम करता है, तो यह सब वे दूसरों का आदर और सराहना पाने के लिए करते हैं; अगर हरेक अपनी निजी योजनाएँ छिपाए रखे और अपने दिलों में निजी स्थान बनाए रखे, तो कोई भी सच्चे अनुभवों की बात कैसे कर सकता है? किसी के पास एक-दूसरे को बताने के लिए सच्चे अनुभव कैसे होंगे? तुम्हारे अनुभवों को साझा करने और उनके बारे में संगति करने का अर्थ है तुम्हारा अपने अनुभवों और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान पर संगति करना। यह तुम्हारे दिल के हर विचार, तुम्हारी हर दशा और तुममें प्रकट भ्रष्ट स्वभाव को वाणी देना है। यह दूसरों को इन चीजों का भेद पहचानने और फिर सत्य पर संगति करके समस्या को सुलझाने के बारे में है। अनुभवों पर इस प्रकार संगति करके ही सभी लोग लाभ और फल पाते हैं। केवल यही सच्चा कलीसिया जीवन है। अगर ये परमेश्वर के वचनों या किसी भजन पर तुम्हारी अंतर्दृष्टि के बारे में महज थोथी बातें हों, और फिर तुम इस पर आगे बोले बिना मनचाहे ढंग से संगति करो, अपनी वास्तविक दशाओं या समस्याओं का खुलासा न करो, तो ऐसी संगति से कोई लाभ नहीं मिलने वाला। अगर हरेक सैद्धांतिक या मीमांसात्मक ज्ञान के बारे में बताए, मगर वास्तविक अनुभवों से हासिल ज्ञान के बारे में कुछ न बोले; और अगर सत्य पर संगति करते समय वे अपने निजी जीवन, असली जीवन की समस्याओं और अपने भीतरी संसार के बारे में बोलने से बचें, तो फिर सच्चा संचार कैसे हो पाएगा? कोई वास्तविक भरोसा कैसे होगा? हो ही नहीं सकेगा! अगर कोई पत्नी अपने मन की बात पति से कभी न कहे, तो क्या इसे अंतरंगता कहा जाएगा? क्या वे जान पाएँगे कि एक-दूसरे के मन में क्या है? (नहीं, वे नहीं जान सकते।) फिर मान लो कि वे निरंतर कहते रहते हैं, “मैं तुमसे प्यार करता हूँ।” वे सिर्फ यही कहते हैं, मगर कभी खुद को उजागर नहीं करते या एक-दूसरे को नहीं बताते कि वे वास्तव में भीतर गहरे क्या सोच रहे हैं, उन्हें अपने साथी से क्या अपेक्षा है, या वे किन समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे कभी भी एक-दूसरे को अपने मन की बात नहीं बताते, और साथ होने पर उनके बीच एक-दूसरे के लिए सतही मीठी बातों के अलावा कुछ नहीं होता। तो क्या वे सचमुच पति-पत्नी हैं? यकीनन नहीं! इसी तरह, अगर भाई-बहनों को एक-दूसरे से अपने मन की बात कहने लायक होना हो, एक-दूसरे की मदद करनी हो, और एक-दूसरे की जरूरत पूरी करनी हो, तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे अनुभवों के बारे में बताना चाहिए। अगर तुम अपने सच्चे अनुभवों के बारे में कुछ नहीं कहते—अगर तुम सिर्फ मनुष्य को समझ आने वाले शब्द और धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हो, अगर तुम सिर्फ परमेश्वर में विश्वास को लेकर थोड़ा धर्म-सिद्धांत का प्रचार करते हो, सिर्फ बकबक करते रहते हो और अपने दिल की बात खुल कर नहीं कहते—तो तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो और ईमानदार व्यक्ति बनने में असमर्थ हो। अगर इसी मिसाल का इस्तेमाल करें : कई वर्षों तक साथ जीते हुए पति-पत्नी, कभी-कभी आपस में भिड़ते हुए, एक-दूसरे का आदी होने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर तुम दोनों सामान्य मानवता वाले हो, और हमेशा जीवन और काम की अपनी समस्याओं, अपनी गहरी सोच, चीजें ठीक करने की अपनी योजना, या अपने बच्चों के भविष्य के बारे में अपने विचारों और योजनाओं के बारे में तुम उससे और वह तुमसे दिल खोलकर बातें करते हो, और अपने साथी को ये सब बताते हो, तो फिर क्या तुम दोनों लोग विशेष रूप से एक-दूसरे के साथ अंतरंग महसूस नहीं करोगे? लेकिन अगर वह तुम्हें कभी अपने अंतर्मन की बातें न बताए, बस सिर्फ वेतन घर ले आए; अगर तुम अपने विचार कभी उसे न बताओ और तुम दोनों एक-दूसरे को दिल की बातें न बताओ, तो क्या तुम दोनों लोगों के बीच भावनात्मक दूरी नहीं होगी? जरूर होगी, क्योंकि तुम एक-दूसरे के विचारों और योजनाओं को नहीं समझते। आखिरकार, तुम यह नहीं बता सकोगे कि तुम्हारा जीवनसाथी किस किस्म का व्यक्ति है, न ही वह यह बता सकेगा कि तुम किस किस्म के व्यक्ति हो। तुम उसकी जरूरतें नहीं समझोगे, न ही वह तुम्हारी जरूरतें समझेगा। अगर लोगों के बीच कोई बोलचाल या आध्यात्मिक संचार न हो, तो उनके बीच अंतरंगता की कोई संभावना नहीं होती, और वे एक-दूसरे की जरूरतें पूरी नहीं कर सकते या एक-दूसरे की मदद नहीं कर सकते। तुम लोगों को ऐसा अनुभव हुआ होगा, हुआ है न? अगर तुम्हारा मित्र तुमसे अपने दिल की सारी बातें कहे, वह जो भी सोच रहा है, उसे जो भी तकलीफ या खुशी है, उनके बारे में तुम्हें खुलकर बताए, तो क्या तुम खुद को विशेष रूप से उसके करीब महसूस नहीं करोगे? वे तुम्हें ये सब बताने को इसलिए तैयार होते हैं क्योंकि तुमने भी अपने अंतरंग विचार उन्हें बताए हैं। तुम लोग खास तौर पर करीब हो, और इसी वजह से तुम लोगों की आपस में बहुत बनती है और तुम एक-दूसरे की मदद कर पाते हो। कलीसिया के भाई-बहन आपस में इस प्रकार के संचार और बातचीत के बिना एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर नहीं रह सकेंगे और उनके लिए अपने कर्तव्य निभाते समय सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए सत्य पर संगति करने के लिए आध्यात्मिक संचार और दिल से बात करने की सामर्थ्य जरूरी होती है। यह उन सिद्धांतों में से एक है जो ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए किसी में होना चाहिए।

जब कुछ लोग यह सुनते हैं कि ईमानदार बनने के लिए सत्य बोलना चाहिए और दिल की बात कहनी चाहिए और अगर वे झूठ बोलें या धोखा दें तो उन्हें खुलकर बताना चाहिए, खुद को उजागर करना चाहिए और अपनी गलती मान लेनी चाहिए, तो वे कहते हैं : “एक ईमानदार व्यक्ति होना कठिन है। क्या मुझे हर वह चीज दूसरों को बता देनी चाहिए जो मैं सोचता हूँ? क्या सिर्फ सकारात्मक चीजों पर संगति करना काफी नहीं है? मुझे दूसरों को अपने काले या भ्रष्ट हिस्से के बारे में बताने की जरूरत नहीं है, है न?” अगर तुम खुद को दूसरों के सामने खोलकर पेश नहीं करते, और अपना विश्लेषण नहीं करते, तो तुम कभी खुद को नहीं जान पाओगे। तुम कभी नहीं पहचानोगे कि तुम किस किस्म की चीज हो, और दूसरे तुम पर कभी भरोसा नहीं कर पाएँगे। यह एक तथ्य है। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर भरोसा करें, तो पहले तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए। ईमानदार व्यक्ति होने के लिए तुम्हें पहले अपना दिल खोलकर रखना चाहिए ताकि सभी उसके भीतर झाँक सकें, तुम्हारी सोच और तुम्हारा असली चेहरा देख सकें। तुम्हें भेस बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तभी दूसरे तुम पर भरोसा करेंगे, और तुम्हें ईमानदार व्यक्ति मानेंगे। यह सबसे बुनियादी अभ्यास है, और ईमानदार व्यक्ति बनने की पहली शर्त है। अगर तुम हमेशा दिखावा करते हो, हमेशा पवित्रता, कुलीनता, महानता और उच्च चरित्र का स्वाँग करते हो; अगर तुम लोगों को अपनी भ्रष्टता और खामियाँ नहीं देखने देते; अगर तुम लोगों को अपनी नकली छवि दिखाते हो, ताकि वे तुम्हारी ईमानदारी पर यकीन करें, यह मानें कि तुम महान, आत्मत्यागी, न्यायप्रिय, और निस्वार्थ हो—तो क्या यह धोखेबाजी और झूठ नहीं है? क्या समय के साथ लोग तुम्हारी असलियत नहीं देख पाएँगे? तो लबादा मत ओढ़ो, खुद को मत छिपाओ। इसके बजाय दूसरों के देखने के लिए खुद को और अपने दिल को उजागर कर दो। अगर तुम दूसरों के देखने के लिए अपने दिल को उजागर कर सकते हो, अगर तुम अपने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के विचारों और योजनाओं को उजागर कर सकते हो—तो क्या यह ईमानदारी नहीं है? अगर तुम दूसरों के देखने के लिए खुद को उजागर कर सकते हो, तो परमेश्वर भी तुम्हें देखेगा। वह कहेगा : “अगर तुमने दूसरों के देखने के लिए खुद को उजागर कर दिया है, तो तुम यकीनन मेरे समक्ष ईमानदार हो।” लेकिन अगर तुम दूसरे लोगों की दृष्टि से दूर होने पर सिर्फ परमेश्वर के सामने खुद को उजागर करते हो और दूसरे लोगों के साथ होने पर हमेशा महान, कुलीन या निस्वार्थ होने का दिखावा करते हो, तो फिर परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? वह क्या कहेगा? वह कहेगा : “तुम पूरी तरह धोखेबाज हो। पूरी तरह पाखंडी और नीच हो, तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो।” परमेश्वर इस तरह तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम ईमानदार बनना चाहते हो, तो तुम चाहे परमेश्वर के सामने रहो या दूसरे लोगों के सामने, तुम्हें अपनी भीतरी दशा और अपने दिल की बातों का शुद्ध और खुला हिसाब पेश करने में समर्थ होना चाहिए। क्या ऐसा कर पाना आसान है? इसके लिए कुछ समय तक प्रशिक्षण और परमेश्वर से अक्सर प्रार्थना कर उस पर भरोसा करने की जरूरत है। तुम्हें हर विषय पर अपने दिल की बात को सरल ढंग से खुलकर बोलने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना होगा। ऐसे प्रशिक्षण से तुम तरक्की कर सकोगे। अगर तुम्हारे सामने कोई बड़ी मुश्किल आए तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य को खोजना चाहिए; जब तक कि तुम सत्य का अभ्यास न कर लो, तुम्हें अपने दिल में युद्ध कर देह को जीतना चाहिए। खुद को इस प्रकार प्रशिक्षित करने से थोड़ा-थोड़ा करके तुम्हारा दिल धीरे-धीरे खुल जाएगा। तुम और ज्यादा शुद्ध हो जाओगे, तुम्हारे कथन और कार्य के प्रभाव पहले से अलग होंगे। तुम्हारी झूठी बातें और चालबाजी धीरे-धीरे कम होती जाएँगी और तुम परमेश्वर के समक्ष जी पाओगे। फिर तुम मूल रूप से ईमानदार व्यक्ति बन चुके होगे।

शैतान द्वारा भ्रष्ट होकर पूरी मानवजाति शैतानी स्वभाव के साथ जीती है। शैतान की तरह लोग हर पहलू में भेस बदलकर खुद को बढ़िया ढंग से पेश करते हैं, और हर मामले में धोखाधड़ी और चालबाजी करते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए वे धोखाधड़ी और चालबाजी का सहारा नहीं लेते। कुछ लोग खरीदारी जैसी आम गतिविधियों में भी धोखाधड़ी के खेल खेलते हैं। मिसाल के तौर पर हो सकता है उन्होंने सबसे फैशनेबल पोशाक खरीदी हो, मगर—बहुत पसंद होने पर भी—वे उसे कलीसिया में पहनने की हिम्मत नहीं करते, इस डर से कि भाई-बहन उनके बारे में बातें बनाएँगे और उन्हें ओछा कहेंगे। इसलिए वे इसे दूसरों की पीठ पीछे पहनते हैं। यह कैसा बर्ताव है? यह धोखेबाज और छल करने के स्वभाव का खुलासा है। कोई फैशनेबल पोशाक खरीद कर भी भाई-बहनों के सामने पहनने की हिम्मत क्यों नहीं करेगा? फैशनेबल चीजें उनकी दिली पसंद हैं और वे गैर-विश्वासियों की ही तरह दुनिया के चलन के पीछे भागते हैं। वे डरते हैं कि भाई-बहन उनकी असलियत न जान लें, यह न देख लें कि वे कितने ओछे हैं, और वे एक सम्मानित और सुसंस्कृत व्यक्ति नहीं हैं। दिल से वे फैशनेबल चीजों के पीछे भागते हैं, और उन्हें जाने देना उनके लिए मुश्किल होता है, इसलिए वे उन्हें सिर्फ घर पर ही पहन सकते हैं, और डरते हैं कि भाई-बहन उन्हें देख न लें। अगर उनकी पसंदीदा चीजें लोगों के सामने नहीं आ सकतीं, तो फिर वे उन्हें छोड़ क्यों नहीं सकते? क्या कोई शैतानी स्वभाव उनका नियंत्रण नहीं कर रहा है? वे निरंतर शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, सत्य को समझते हुए-से लगते हैं, फिर भी वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते। यह वह व्यक्ति है जो शैतानी स्वभाव के साथ जीता है। अगर कोई व्यक्ति कथनी और करनी दोनों में ढोंगी है, दूसरों को अपना असली रूप नहीं देखने देता, और दूसरों के सामने हमेशा एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति होने की छवि पेश करता है, तो फिर उसमें और किसी फरीसी में क्या फर्क है? ऐसे लोग एक वेश्या का जीवन जीना चाहते हैं, मगर साथ ही अपनी शुचिता का एक स्मारक भी बनवाना चाहते हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि वे अपनी आकर्षक पोशाक जनता के बीच नहीं पहन सकते, तो फिर उन्होंने उसे खरीदा क्यों? क्या यह पैसे की बर्बादी नहीं थी? सिर्फ इसलिए कि उन्हें ऐसी चीज पसंद है और उनका पोशाक पर दिल आ गया था, उन्हें लगा कि यह खरीद लेनी चाहिए। लेकिन खरीद लेने के बाद वे इसे बाहर नहीं पहन सकते। कुछ साल गुजर जाने के बाद, उन्हें इसे खरीदने पर पछतावा होता है, एकाएक उन्हें एहसास होता है : “मैं इतना मूर्ख कैसे था, इतना घिनौना कि मैंने यह किया?” अपने कृत्य पर उन्हें खुद भी घृणा होती है। लेकिन वे अपने क्रियाकलापों को नियंत्रित नहीं कर सकते क्योंकि वे उन चीजों को त्याग नहीं सकते जिन्हें वे पसंद करते हैं और जिनके पीछे भागते हैं। इसलिए वे खुद को संतुष्ट करने के लिए दोमुँही युक्ति और चाल चलते हैं। अगर वे ऐसे तुच्छ मामले में धोखेबाजी वाला स्वभाव दिखाते हैं, तो कोई बड़ा मामला आने पर क्या वे सत्य पर अमल कर पाएँगे? यह नामुमकिन होगा। स्पष्ट है कि धोखेबाज होना उनकी प्रकृति है, और धोखेबाजी उनकी घातक कमजोरी है। एक छह-सात साल का बच्चा था जिसने एक बार अपने परिवार के साथ कुछ बढ़िया खा लिया। जब दूसरे बच्चों ने उससे पूछा कि उसने क्या खाया, तो बच्चे ने आँखें झपका कर कहा, “मैं भूल गया,” जबकि दरअसल वह बस उन्हें बताना नहीं चाहता था। क्या अभी-अभी खाई हुई चीज वह भूल चुका होगा? यह छह-सात साल का बच्चा झूठ बोलने में सक्षम था। क्या यह कोई ऐसी चीज थी जो बड़ों ने उसे सिखाई? क्या यह उसके घर के माहौल का असर था? नहीं—यह मनुष्य की प्रकृति है, उसकी विरासत; मनुष्य धोखेबाज स्वभाव के साथ पैदा होता है। दरअसल बच्चे ने जो भी बढ़िया चीज खाई हो, ऐसा करना सामान्य बात थी। उसके माता-पिता ने उसके लिए यह बनाया था; उसने किसी और का खाना नहीं चुराया था। अगर ऐसे हालात में यह बच्चा झूठ बोल सका, जबकि ऐसा करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं था, तो क्या उसका दूसरे मामलों में झूठ बोलना और ज्यादा मुमकिन नहीं है? यह कौन-सी समस्या दर्शाता है? क्या यह उसकी प्रकृति की समस्या नहीं है? वह बच्चा अब बड़ा हो चुका है, और झूठ बोलना उसकी प्रकृति बन चुकी है। वह सचमुच एक धोखेबाज व्यक्ति है; बिल्कुल बचपन से ही उसमें यह देखा जा सकता था। धोखेबाज लोग दूसरों से झूठ बोलने और चालबाजी करने से बच नहीं सकते, और उनकी झूठी बातें और चालबाजी किसी भी जगह और वक्त दिखाई दे सकती हैं। उन्हें यह सीखने की जरूरत नहीं कि ये चीजें कैसे करें, या ये करने के लिए उन्हें उकसाए जाने की जरूरत नहीं है—वे ऐसा करने की क्षमता के साथ ही पैदा होते हैं। अगर वह बच्चा उतनी कच्ची उम्र में झूठ बोलकर लोगों से चाल चल सकता था, तो क्या झूठ बोलना सचमुच उसका एकबारगी का अपराध हो सकता था? यकीनन नहीं। यह दिखाता है कि वह प्रकृति सार से एक धोखेबाज व्यक्ति है। क्या ऐसी सरल चीज का भेद पहचानना आसान नहीं है? अगर कोई बचपन से ही झूठ बोलता रहा हो, अक्सर झूठ बोलता हो, जरूरत न होने पर भी सरल मामलों में लोगों से झूठ बोलकर उनसे चालबाजी करता हो, और झूठ बोलना उसकी प्रकृति बन गई हो, तो उसके लिए बदलना आसान नहीं होगा। वह प्रामाणिक रूप से धोखेबाज व्यक्ति है। ऐसा क्यों कहते हैं कि धोखेबाज लोग बचाए नहीं जा सकते? चूँकि उनके द्वारा सत्य स्वीकारने की संभावना नहीं होती, इसलिए उन्हें शुद्ध और परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर का उद्धार पा सकने वाले लोग अलग होते हैं। शुरुआत से ही वे अपेक्षाकृत निष्कपट होते हैं, और अगर वे छोटा-सा झूठ बोल भी दें, तो मुमकिन है वे झेंप कर परेशान हो जाएँगे। ऐसे किसी व्यक्ति के लिए ईमानदार बनना आसान है : अगर तुम उससे झूठ बोलने या धोखा देने को कहोगे, तो उसे मुश्किल होगी। झूठ बोले तो भी सारे शब्द नहीं बोल पाएगा, और सबको तुरंत पता चल जाएगा। ये अपेक्षाकृत सरल लोग होते हैं और अगर वे सत्य को स्वीकार कर सकें तो उनके उद्धार प्राप्त करने की अधिक संभावना होती है। इस किस्म का व्यक्ति सिर्फ खास हालात में ही झूठ बोलता है, जब वह मुसीबत में फँस गया हो। आम तौर पर, ऐसे लोग हमेशा सत्य बोलने में सक्षम होते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं, तो भ्रष्टता के इस पहलू को कुछ वर्ष के प्रयासों से त्याग सकेंगे, और फिर उनके लिए ईमानदार बनना मुश्किल नहीं होगा।

ईमानदार लोगों के लिए परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानक क्या है? परमेश्वर की अपेक्षाएँ परमेश्वर के वचनों के इस अध्याय तीन चेतावनियाँ में किस तरह दी गई हैं? (“ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; किसी भी बात में परमेश्वर के प्रति झूठा न होना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और ऐसी चीजें न करना जो मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए हों। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। ... यदि तुम्हारी बातें बहानों और बेकार तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से निजी मामले हैं जिनके बारे में बात करना मुश्किल है, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज यानी अपनी कठिनाइयाँ उजागर करना नहीं चाहते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें उद्धार प्राप्त करने में बड़ी मुश्किल आएगी और तुम्हें अंधकार से बाहर निकलने में कठिनाई होगी” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)।) यहाँ एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण वाक्य है। क्या तुम लोग देख सकते हो कि वह क्या है? (परमेश्वर कहते हैं : “यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से निजी मामले हैं जिनके बारे में बात करना मुश्किल है, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज यानी अपनी कठिनाइयाँ उजागर करना नहीं चाहते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें उद्धार प्राप्त करने में बड़ी मुश्किल आएगी और तुम्हें अंधकार से बाहर निकलने में कठिनाई होगी।”) सही, इतना ही। परमेश्वर कहता है : “यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से निजी मामले हैं जिनके बारे में बात करना मुश्किल है।” इसका मतलब है कि लोगों ने ऐसे बहुत-से काम किए हैं जिनके बारे में वे बात करने की हिम्मत नहीं रखते, और उनके बहुत-से काले हिस्से होते हैं। उनके कोई दैनिक कार्य परमेश्वर के वचन के अनुरूप नहीं होते, और वे दैहिक इच्छाओं से विद्रोह नहीं करते। वे बस अपने मन की करते हैं, और अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है। “यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज यानी अपनी कठिनाइयाँ उजागर करना नहीं चाहते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें उद्धार प्राप्त करने में बड़ी मुश्किल आएगी और तुम्हें अंधकार से बाहर निकलने में कठिनाई होगी।” यहाँ परमेश्वर ने इंसानों को अभ्यास का मार्ग दिखाया है। अगर तुम इस प्रकार अभ्यास नहीं करते, सिर्फ नारे और धर्म-सिद्धांत चिल्लाते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे आसानी से उद्धार नहीं मिलेगा। यह सचमुच उद्धार से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए बचाया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। क्या परमेश्वर ने कहीं और “आसानी से उद्धार प्राप्त न होने” का जिक्र किया है? कहीं और वह विरले ही इस बात का संदर्भ देता है कि बचाया जाना कितना मुश्किल है, लेकिन वह इसकी बात ईमानदार होने के बारे में बताते समय जरूर करता है। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसे बचाना बहुत मुश्किल है। “आसानी से उद्धार प्राप्त न होना” का अर्थ है कि अगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो तुम्हारा बचाया जाना मुश्किल होगा। तुम उद्धार का सही मार्ग पकड़ने के लायक नहीं रहोगे, और इसलिए तुम्हारा बचाया जाना नामुमकिन होगा। परमेश्वर इस वाक्यांश का प्रयोग लोगों को थोड़ी छूट देने के लिए करता है। जिसका भावार्थ है : तुम्हें बचाना आसान नहीं है, लेकिन अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर अमल करो, तो तुम्हें उद्धार पाने की आशा होगी। यही इसका विपरीत अर्थ है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते, कभी अपने रहस्यों और अपनी चुनौतियों का गहन-विश्लेषण नहीं करते, दूसरों के सामने संगति में कभी खुलकर पेश नहीं आते, न संगति करते हो, न गहन-विश्लेषण, न ही अपनी भ्रष्टता और बड़ी कमजोरी को सामने लाते हो, तो तुम बचाए नहीं जा सकते। ऐसा क्यों है? अगर तुम इस तरह खुद को पूरी तरह प्रकट नहीं करते या अपना गहन-विश्लेषण नहीं करते, तो तुम अपने ही भ्रष्ट स्वभाव से घृणा नहीं करोगे, और इसलिए तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं बदलेगा। और अगर तुम बदल ही नहीं सकते, तो बचाए जाने के बारे में सोच भी कैसे सकते हो? परमेश्वर के वचन यह साफ तौर पर दिखाते हैं, और ये वचन परमेश्वर का इरादा दर्शाते हैं। परमेश्वर हमेशा इस बात पर जोर क्यों देता है कि लोगों को ईमानदार होना चाहिए? चूँकि ईमानदार होना बहुत महत्वपूर्ण है—इसका सीधा संबंध इस बात से है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है या नहीं और वह उद्धार प्राप्त कर सकता है या नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “मैं अहंकारी और आत्म-तुष्ट हूँ, और मैं अक्सर क्रोधित होकर भ्रष्टता का खुलासा करता हूँ।” दूसरे कहते हैं : “मैं बहुत सतही हूँ, घमंडी हूँ, और जब लोग मेरी चापलूसी करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है।” ये तमाम चीजें हैं जो लोगों को बाहर से दिखाई देती हैं, और ये बड़ी समस्याएँ नहीं हैं। तुम्हें इनके बारे में बोलते नहीं रहना चाहिए। तुम्हारा स्वभाव या व्यक्तित्व चाहे जैसा हो, अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार ईमानदार बन पाते हो, तो तुम्हें बचाया जा सकेगा। तो तुम सब क्या कहते हो? क्या ईमानदार होना महत्वपूर्ण है? यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है, इसीलिए परमेश्वर अपने वचनों के अध्याय “तीन चेतावनियाँ” में ईमानदार होने के बारे में बात करता है। अन्य अध्यायों में, वह अक्सर जिक्र करता है कि विश्वासियों को सामान्य आध्यात्मिक जीवन और उचित कलीसिया जीवन बिताना चाहिए, और वह वर्णन करता है कि उन्हें सामान्य मानवता के साथ कैसे जीना चाहिए। इन विषयों पर उसके वचन सामान्य हैं; उन पर विशिष्ट रूप से या बहुत विस्तार से चर्चा नहीं की गई है। लेकिन जब परमेश्वर ईमानदार होने के बारे में बोलता है, तो वह लोगों को चलने का मार्ग दिखाता है। वह लोगों को बताता है कि अभ्यास कैसे करें, और वह बहुत विस्तार और स्पष्टता से बोलता है। परमेश्वर कहता है : “यदि तुम्हारे पास ऐसे बहुत-से निजी मामले हैं जिनके बारे में बात करना मुश्किल है, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज यानी अपनी कठिनाइयाँ उजागर करना नहीं चाहते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें उद्धार प्राप्त करने में बड़ी मुश्किल आएगी।” ईमानदार होने का संबंध उद्धार प्राप्त करने से है। तो तुम सब क्या कहते हो, परमेश्वर लोगों के ईमानदार होने की माँग क्यों करता है? यह व्यक्ति को कैसा आचरण करना चाहिए इसके सत्य को छूता है। परमेश्वर ईमानदार लोगों को बचाता है, और जिन्हें वह अपने राज्य के लिए चाहता है, वे ईमानदार लोग होते हैं। अगर तुम झूठ और चालबाजी में सक्षम हो, धोखेबाज, कुटिल और धूर्त व्यक्ति हो; तो तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो इसकी कोई संभावना नहीं है कि परमेश्वर तुम्हें बचाएगा, न ही संभवतः तुम्हें बचाया जा सकेगा। तुम कहते हो कि अब तुम बहुत भक्तिपूर्ण हो, अहंकारी या आत्मतुष्ट नहीं हो, अपना कर्तव्य निभाते समय कीमत चुका सकने में समर्थ हो या सुसमाचार का प्रचार कर अनेक लोगों को परिवर्तित कर सकते हो। लेकिन अगर तुम ईमानदार नहीं हो, अभी भी धोखेबाज हो, बिल्कुल नहीं बदले हो, तो क्या तुम्हें बचाया जा सकेगा? बिल्कुल नहीं। इसलिए परमेश्वर के ये वचन सभी को याद दिलाते हैं कि बचाए जाने के लिए उन्हें पहले परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार ईमानदार बनना पड़ेगा। उन्हें खुद को खोलकर अपने भ्रष्ट स्वभाव, अपनी मंशा और रहस्य दिखाने होंगे, और प्रकाश के मार्ग को खोजना होगा। “प्रकाश के मार्ग को खोजने” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल करने के लिए सत्य को खोजना। जब तुम अपने कार्यों के पीछे की अपनी भ्रष्टता, अपने लक्ष्य और इरादे खुल कर दिखा देते हो, अपना विश्लेषण भी करते हो, जिसके बाद तुम खोजते हो : “मैंने वह काम क्यों किया? क्या इसमें परमेश्वर के वचनों का कोई आधार है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? ऐसा करके क्या मैं जानबूझ कर कुछ गलत कर रहा हूँ? क्या मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा हूँ? अगर मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा हूँ, तो मुझे यह नहीं करना चाहिए; मुझे गौर करना चाहिए कि परमेश्वर क्या अपेक्षा रखता है, और वह क्या कहता है, और पता लगाना चाहिए कि सत्य सिद्धांत क्या हैं।” यही है सत्य को खोजने का अर्थ; प्रकाश में चलने के यही मायने हैं। जब लोग इसका नियमित रूप से अभ्यास कर पाते हैं, तभी वे सच में बदल पाते हैं, और तब वे उद्धार प्राप्त कर पाते हैं।

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