परमेश्वर के दैनिक वचन : इंसान की भ्रष्टता का खुलासा | अंश 366

मैं दिन प्रतिदिन ब्रह्माण्ड से ऊपर खड़ा हूँ, निरीक्षण कर रहा हूँ, और मनुष्य के हर कार्य का नज़दीकी से अध्ययन करते हुए, मानव जीवन का अनुभव करने के लिए, मैं नम्रतापूर्वक अपने निवास स्थान में अपने आप को छुपाता हूँ। किसी ने भी कभी भी अपने आपको वास्तव में मुझे अर्पित नहीं किया है। किसी ने भी कभी भी सत्य की खोज नहीं की है। कोई भी कभी भी मेरे लिए ईमानदार नहीं रहा है। किसी ने भी कभी भी मेरे सम्मुख संकल्प नहीं किए हैं और अपने कर्तव्य को बनाए नहीं रखा है। किसी ने भी कभी भी मुझे अपने भीतर निवास नहीं करने दिया है। किसी ने भी कभी भी मुझे वैसा मान नहीं दिया है जैसा वह अपने स्वयं के जीवन को देगा। किसी ने भी कभी भी मेरी संपूर्ण दिव्यता को व्यवहारिक वास्तविकता में नहीं देखा है। कोई भी कभी भी स्वयं व्यवहारिक परमेश्वर के संपर्क में रहने का इच्छुक नहीं रहा है। जब समुद्र मनुष्यों को पूर्णतः निगल लेता है, तो मैं उसे ठहरे हुए समुद्र में से बचाता हूँ और नए सिरे से जीवन जीने का अवसर देता हूँ। जब मनुष्य जीवित रहने के अपने आत्मविश्वास को खो देते हैं, तो मैं उन्हें, जीने की हिम्मत देते हुए, मृत्यु की कगार से खींच लाता हूँ, ताकि वे मुझे अपने अस्तित्व की नींव माने। जब मनुष्य मेरी अवज्ञा करते हैं, मैं उन्हें उनकी अवज्ञा में अपने को ज्ञात करवाता हूँ। मानवजाति की पुरानी प्रकृति के आलोक में और मेरी दया के आलोक में, मनुष्यों को मृत्यु प्रदान करने की बजाय, मैं उन्हें पश्चाताप करने और नई शुरूआत करने की अनुमति प्रदान करता हूँ। जब मनुष्य अकाल से पीड़ित होते हैं, तो जब तक उनकी एक भी साँस बची है, उन्हें शैतान की प्रवंचना का शिकार बनने से बचाते हुए, मैं उन्हें मुत्यु से हथिया लेता हूँ। कितनी ही बार लोगों ने मेरे हाथों को देखा है; कितनी ही बार उन्होंने मेरी दयालु मुखाकृति देखी है, मेरा मुस्कुराता हुआ चेहरा देखा है; और कितनी बार उन्होंने मेरा प्रताप देखा और मेरा कोप देखा है। यद्यपि मानव जाति ने मुझे कभी नहीं जाना है, फिर भी मैं अनावश्यक परेशानी देने के लिए उनकी कमजोरियों का लाभ नहीं उठाता हूँ। मानव जाति के कष्टों का अनुभव करके, मैं इसलिए मनुष्यों की कमजोरियों के प्रति सहानुभूति रखता हूँ। यह केवल मनुष्य की अवज्ञा, उनकी कृतघ्नता की प्रतिक्रिया स्वरूप है, कि मैं विभिन्न अंशों में ताड़ना बाँटता हूँ।

मैं मनुष्य के व्यस्तता के समयों में अपने आपको छिपा कर रखता हूँ और उसके खाली समयों में अपने आपको प्रकट करता हूँ। मानव जाति मुझे अन्तर्यामी और परमेश्वर स्वयं होना कल्पना करती है जो सभी निवेदनों को स्वीकार करता है। इसलिए अधिकतर मेरे सामने केवल परमेश्वर की सहायता माँगने आते हैं, न कि मुझे जानने कि इच्छा के कारण से। जब बीमारी की तीव्र वेदना में होते हैं, तो मनुष्य अविलंब मेरी सहायता का निवेदन करते हैं। जब आपदा में होते हैं, तो अपनी पीड़ा से बेहतर ढंग से छुटकारा पाने के लिए, वे अपनी सारी परेशानियाँ अपनी पूरी शक्ति से मुझे बताते हैं। फिर भी एक भी मनुष्य सुख में होने के समय मुझसे प्रेम करने में समर्थ नहीं है। एक भी व्यक्ति अपने शांति और आनंद के समय में नहीं पहुँचा है ताकि मैं उनकी खुशी में सहभागी हो सकूँ। जब उनका सगा परिवार खुशहाल और ठीक होता है, तो मुझे प्रवेश करने से निषिद्ध करते हुए, मनुष्य पहले ही मुझे एक तरफ कर देते हैं या मेरे सामने द्वार बंद कर देते हैं, और इस प्रकार परिवार की धन्य खुशी का आनंद लेते हैं। मनुष्य का मन अत्यंत संकीर्ण है, यहाँ तक कि मुझ जैसे प्रेमी, दयालु और स्पर्शनीय परमेश्वर को रखने के लिए भी अत्यंत संकीर्ण है। कितनी बार मनुष्यों के द्वारा उनकी हँसी खुशी की बेला में मुझे अस्वीकार किया गया था; कितनी बार लड़खड़ाते हुए मनुष्य ने बैसाखी की तरह मेरा सहारा लिया था; कितनी बार बीमारी से पीड़ित मनुष्यों द्वारा मुझे चिकित्सक की भूमिका निभाने के लिए बाध्य किया गया था। मानवजाति कितनी क्रूर है! सर्वथा अविवेकी और अनैतिक। यहाँ तक कि वे भावनाएँ भी महसूस नहीं की जा सकती हैं जिनसे मनुष्यों को सुसज्जित होना माना जाता है। वे किसी भी मानवीय भाव से लगभग रहित हैं। अतीत का विचार करो और वर्तमान से उसकी तुलना करो। क्या तुम लोगों के भीतर परिवर्तन हो रहे हैं? क्या उस अतीत का थोड़ा सा भी वर्तमान में कार्यशील है? या क्या वह अतीत अभी बदला जाना है?

संसार के ऊँच-नीच का अनुभव करते हुए, मैंने ऊँची पहाड़ियाँ और निचली घाटियाँ लाँघी हैं। मैं मनुष्यों के बीच भटका हूँ और मैं मनुष्यों के बीच कई वर्षों तक रहा हूँ, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि मानवजाति का स्वभाव थोड़ा सा ही बदला है। और यह ऐसा है मानो कि मनुष्य की पुरानी प्रकृति ने जड़ पकड़ ली हो और उनमें अंकुर आ गए हों। वे उस पुराने स्वभाव को बदलने में कभी भी समर्थ नहीं रहे हैं, केवल मूल नींव पर इसमें थोड़ा सा सुधार कर पाए हैं। जैसा कि लोग कहते हैं, कि सार नहीं बदला है, किन्तु रूप बहुत बदल गया है। ऐसा प्रतीत होता है, कि हर कोई, मुझे मूर्ख बनाने, मुझे चकित करने का प्रयास कर रहा है, ताकि वह चुपके से निकल जाए और मेरी सराहना पा सके। मैं लोगों कि चालों की ना तो प्रशंसा करता हूँ न ही उन पर ध्यान देता हूँ। क्रोधित होने की बजाय, मैं देखने किन्तु ध्यान न देने का दृष्टिकोण अपनाता हूँ। मैं मानव जाति को कुछ अंश तक ढिलाई देने की योजना बनाता हूँ और, तत्पश्चात्, सब मनुष्यों के साथ एक जैसा व्यवहार करता हूँ। चूँकि सभी मनुष्य आत्म-सम्मान-रहित, बेकार अभागे हैं, स्वयं को पसंद नहीं करते हैं, तो फिर नए सिरे से दया और प्रेम प्रदर्शित करने के लिए उन्हें यहाँ तक कि मेरी आवश्यकता भी क्यों होगी? बिना अपवाद के, मनुष्य स्वयं को नहीं जानते हैं, और अपना महत्व नहीं जानते हैं। उन्हें अपने आप को तराजू में रखकर तौलना चाहिए। मानव जाति मुझ पर कोई ध्यान नहीं देती है, इसलिए मैं भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेता हूँ। मनुष्य मुझ पर कोई ध्यान नहीं देता है, इसलिए मुझे भी उन पर प्रयास लगाने की आवश्यकता नहीं है। क्या दोनों संसारों का यही सर्वोत्तम नहीं है? क्या यह तुम लोगों का, मेरे लोगों का वर्णन नहीं करता है? किसने मेरे सम्मुख संकल्प लिए हैं और उन्हें बाद में छोड़ा नहीं है? किसने इस या उस बात पर बार-बार संकल्प लेने के बजाय मेरे सामने दीर्घकालिक संकल्प लिए हैं? हमेशा, मनुष्य अपने सहूलियत के समयों में मेरे सम्मुख संकल्प करते हैं और विपत्ति के समयों पर उन्हें छोड़ देते हैं। बाद में वे अपने संकल्प को वापस लेते हैं और मेरे सम्मुख स्थापित करते हैं। क्या मैं इतना अनादरणीय हूँ कि मनुष्य द्वारा कूढ़े के ढेर से उठाये गए कचरे को यूँ ही स्वीकार कर लूँगा? कुछ मनुष्य अपने संकल्पों पर अडिग रहते हैं, कुछ शुद्ध होते हैं और कुछ अपने बलिदान के रूप में मुझे अपना सबसे बहुमूल्य अर्पित करते हैं। क्या तुम सभी लोग इसी तरह के नहीं हो? यदि, राज्य में मेरे लोगों में से एक के रूप में, तुम लोग अपने कर्तव्य का पालन करने में असमर्थ हो, तो तुम लोग मेरे द्वारा तिरस्कृत और अस्वीकृत कर दिए जाओगे!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 14

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