परमेश्वर के दैनिक वचन : जीवन में प्रवेश | अंश 495

आज, जब तुम लोग परमेश्वर को जानने और उससे प्रेम करने की कोशिश करते हो, तो एक ओर तुम लोगों को कठिनाई और शोधन सहन करना चाहिए और दूसरी ओर, तुम लोगों को एक क़ीमत चुकानी चाहिए। परमेश्वर से प्रेम करने के सबक से ज्यादा गहरा कोई सबक नहीं है, और यह कहा जा सकता है कि जीवन भर के विश्वास से लोग जो सबक सीखते हैं, वह यह है कि परमेश्वर से प्रेम कैसे करें। कहने का अर्थ यह है कि यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम्हें उससे प्रेम अवश्य करना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर पर केवल विश्वास करते हो परंतु उससे प्रेम नहीं करते, और तुमने परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, और कभी भी अपने हृदय के भीतर से आने वाले सच्चे भाव से परमेश्वर से प्रेम नहीं किया है, तो परमेश्वर पर तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ है; यदि परमेश्वर पर अपने विश्वास में तुम परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, तो तुम व्यर्थ ही जी रहे हो, और तुम्हारा संपूर्ण जीवन सभी जीवों में सबसे अधम है। यदि अपने संपूर्ण जीवन में तुमने कभी परमेश्वर से प्रेम नहीं किया या उसे संतुष्ट नहीं किया, तो तुम्हारे जीने का क्या अर्थ है? और परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का क्या अर्थ है? क्या यह प्रयासों की बरबादी नहीं है? कहने का अर्थ है कि, यदि लोगों को परमेश्वर पर विश्वास और उससे प्रेम करना है, तो उन्हें एक क़ीमत अवश्य चुकानी चाहिए। बाहरी तौर पर एक खास तरीके से कार्य करने की कोशिश करने के बजाय, उन्हें अपने हृदय की गहराइयों में असली अंतर्दृष्टि की खोज करनी चाहिए। यदि तुम गाने और नाचने के बारे में उत्साही हो, परंतु सत्य को व्यवहार में लाने में अक्षम हो, तो क्या तुम्हारे बारे में यह कहा जा सकता है कि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो? परमेश्वर से प्रेम करने के लिए आवश्यक है सभी चीज़ों में उसकी इच्छा को खोजना, और जब तुम्हारे साथ कुछ घटित हो जाए, तो तुम अपने भीतर गहराई में खोज करो, परमेश्वर की इच्छा को समझने की कोशिश करो, और यह देखने की कोशिश करो कि इस मामले में परमेश्वर की इच्छा क्या है, वह तुमसे क्या हासिल करने के लिए कहता है, और कैसे तुम्हें उसकी इच्छा के प्रति सचेत रहना चाहिए। उदाहरण के लिए : जब ऐसा कुछ होता है, जिसमें तुम्हें कठिनाई झेलने की आवश्यकता होती है, तो उस समय तुम्हें समझना चाहिए कि परमेश्वर की इच्छा क्या है, और कैसे तुम्हें उसकी इच्छा के प्रति सचेत रहना चाहिए। तुम्हें स्वयं को संतुष्ट नहीं करना चाहिए : पहले अपने आप को एक तरफ़ रख दो। देह से अधिक अधम कोई और चीज़ नहीं है। तुम्हें परमेश्वर को संतुष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए, और अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। ऐसे विचारों के साथ, परमेश्वर इस मामले में तुम पर अपनी विशेष प्रबुद्धता लाएगा, और तुम्हारे हृदय को भी आराम मिलेगा। जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, तो सबसे पहले तुम्हें अपने आपको एक तरफ़ रखना और देह को सभी चीज़ों में सबसे अधम समझना चाहिए। जितना अधिक तुम देह को संतुष्ट करोगे, यह उतनी ही अधिक स्वतंत्रता लेता है; यदि तुम इस समय इसे संतुष्ट करते हो, तो अगली बार यह तुमसे और अधिक की माँग करेगा। जब यह जारी रहता है, लोग देह को और अधिक प्रेम करने लग जाते हैं। देह की हमेशा असंयमित इच्छाएँ होती हैं; यह हमेशा चाहता है कि तुम इसे संतुष्ट और भीतर से प्रसन्न करो, चाहे यह उन चीज़ों में हो जिन्हें तुम खाते हो, जो तुम पहनते हो, या जिनमें आपा खो देते हो, या स्वयं की कमज़ोरी और आलस को बढ़ावा देते हो...। जितना अधिक तुम देह को संतुष्ट करते हो, उसकी कामनाएँ उतनी ही बड़ी हो जाती हैं, और उतना ही अधिक वह ऐयाश बन जाता है, जब तक कि वह उस स्थिति तक नहीं पहुँच जाता, जहाँ लोगों का देह और अधिक गहरी धारणाओं को आश्रय देता है, और परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करता है और स्वयं को महिमामंडित करता है, और परमेश्वर के कार्य के बारे में संशयात्मक हो जाता है। जितना अधिक तुम देह को संतुष्ट करते हो, उतनी ही बड़ी देह की कमज़ोरियाँ होती हैं; तुम हमेशा महसूस करोगे कि कोई भी तुम्हारी कमज़ोरियों के साथ सहानुभूति नहीं रखता, तुम हमेशा विश्वास करोगे कि परमेश्वर बहुत दूर चला गया है, और तुम कहोगे : "परमेश्वर इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है? वह लोगों का पीछा क्यों नहीं छोड़ देता?" जब लोग देह को संतुष्ट करते हैं, और उससे बहुत अधिक प्यार करते हैं, तो वे अपने आपको बरबाद कर बैठते हैं। यदि तुम परमेश्वर से सचमुच प्रेम करते हो, और देह को संतुष्ट नहीं करते, तो तुम देखोगे कि परमेश्वर जो कुछ करता है, वह बहुत सही और बहुत अच्छा होता है, और यह कि तुम्हारे विद्रोह के लिए उसका शाप और तुम्हारी अधार्मिकता के बारे में उसका न्याय तर्कसंगत है। कई बार ऐसा होगा, जब परमेश्वर तुम्हें अपने सामने आने के लिए बाध्य करते हुए ताड़ना देगा और अनुशासित करेगा, और तुम्हें तैयार करने के लिए माहौल बनाएगा—और तुम हमेशा यह महसूस करोगे कि जो कुछ परमेश्वर कर रहा है, वह अद्भुत है। इस प्रकार तुम ऐसा महसूस करोगे, मानो कोई ज्यादा पीड़ा नहीं है, और यह कि परमेश्वर बहुत प्यारा है। यदि तुम देह की कमज़ोरियों को बढ़ावा देते हो, और कहते हो कि परमेश्वर अति कर देता है, तो तुम हमेशा पीड़ा का अनुभव करोगे और हमेशा उदास रहोगे, और तुम परमेश्वर के समस्त कार्य के बारे में अस्पष्ट रहोगे, और ऐसा प्रतीत होगा मानो परमेश्वर मनुष्यों की कमज़ोरियों के प्रति बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं रखता, और वह मनुष्यों की कठिनाइयों से अनजान है। और इस प्रकार से तुम हमेशा दुःखी और अकेला महसूस करोगे, मानो तुमने बड़ा अन्याय सहा है, और उस समय तुम शिकायत करना आरंभ कर दोगे। जितना अधिक तुम इस प्रकार से देह की कमज़ोरियों को बढ़ावा दोगे, उतना ही अधिक तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर बहुत अति कर देता है, जब तक कि यह इतना बुरा नहीं हो जाता कि तुम परमेश्वर के कार्य को नकार देते हो, और परमेश्वर का विरोध करने लगते हो, और अवज्ञा से भर जाते हो। इसलिए तुम्हें देह से विद्रोह करना चाहिए और उसे बढ़ावा नहीं देना चाहिए : "मेरा पति (मेरी पत्नी), बच्चे, सम्भावनाएँ, विवाह, परिवार—इनमें से कुछ भी मायने नहीं रखता! मेरे हृदय में केवल परमेश्वर है, और मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए भरसक प्रयास करना चाहिए और देह को संतुष्ट करने का प्रयास नहीं करना चाहिए।" तुममें ऐसा संकल्प होना चाहिए। यदि तुममें हमेशा इस प्रकार का संकल्प रहेगा, तो जब तुम सत्य को अभ्यास में लाओगे, और अपने आप को एक ओर करोगे, तो तुम ऐसा बहुत ही कम प्रयास के द्वारा कर पाओगे। ऐसा कहा जाता है कि एक बार एक किसान ने एक साँप देखा, जो सड़क पर बर्फ में जम कर कड़ा हो गया था। किसान ने उसे उठाया और अपने सीने से लगा लिया, और साँप ने जीवित होने के पश्चात् उसे डस लिया, जिससे उस किसान की मृत्यु हो गई। मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार उसके जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है, तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो। देह शैतान से संबंधित है। इसके भीतर असंयमित इच्छाएँ हैं, यह केवल अपने बारे में सोचता है, यह आरामतलब है और फुरसत में रंगरलियाँ मनाता है, सुस्ती और आलस्य में धँसा रहता है, और इसे एक निश्चित बिंदु तक संतुष्ट करने के बाद तुम अंततः इसके द्वारा खा लिए जाओगे। कहने का अर्थ है कि, यदि तुम इसे इस बार संतुष्ट करोगे, तो अगली बार यह और अधिक की माँग करने आ जाएगा। इसकी हमेशा असंयमित इच्छाएँ और नई माँगें रहती हैं, और अपने आपको और अधिक पोषित करवाने और उसके सुख के बीच रहने के लिए तुम्हारे द्वारा अपने को दिए गए बढ़ावे का फायदा उठाता है—और यदि तुम इस पर विजय नहीं पाओगे, तो तुम अंततः स्वयं को बरबाद कर लोगे। तुम परमेश्वर के सामने जीवन प्राप्त कर सकते हो या नहीं, और तुम्हारा परम अंत क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम देह के प्रति अपना विद्रोह कैसे कार्यान्वित करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें बचाया है, और तुम्हें चुना और पूर्वनिर्धारित किया है, फिर भी यदि आज तुम उसे संतुष्ट करने के लिए तैयार नहीं हो, तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए तैयार नहीं हो, तुम अपनी देह के विरुद्ध एक ऐसे हृदय के साथ विद्रोह करने के लिए तैयार नहीं हो, जो सचमुच परमेश्वर से प्रेम करता हो, तो अंततः तुम अपने आप को बरबाद कर लोगे, और इस प्रकार चरम पीड़ा सहोगे। यदि तुम हमेशा अपनी देह को खुश करते हो, तो शैतान तुम्हें धीरे-धीरे निगल लेगा, और तुम्हें जीवन या पवित्रात्मा के स्पर्श से रहित छोड़ देगा, जब तक कि वह दिन नहीं आ जाता, जब तुम भीतर से पूरी तरह अंधकारमय नहीं हो जाते। जब तुम अंधकार में रहोगे, तो तुम्हें शैतान के द्वारा बंदी बना लिया जाएगा, तुम्हारे हृदय में अब परमेश्वर नहीं होगा, और उस समय तुम परमेश्वर के अस्तित्व को नकार दोगे और उसे छोड़ दोगे। इसलिए, यदि लोग परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं, तो उन्हें पीड़ा की क़ीमत चुकानी चाहिए और कठिनाई सहनी चाहिए। बाहरी जोश और कठिनाई, अधिक पढ़ने तथा अधिक भाग-दौड़ करने की कोई आवश्यकता नहीं है; इसके बजाय, उन्हें अपने भीतर की चीज़ों को एक तरफ रख देना चाहिए : असंयमित विचार, व्यक्तिगत हित, और उनके स्वयं के विचार, धारणाएँ और प्रेरणाएँ। परमेश्वर की यही इच्छा है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है

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