शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 69)
“यहोवा का भय मानना बुद्धि का आरम्भ है,” जहाँ तक इन शब्दों का सवाल है, तुम लोग आमतौर पर इनका पालन और अनुभव कैसे करते हो? (परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों के प्रति समर्पण करके।) यह एक व्यापक कथन है, एक सिद्धांत है। यह सही लगता है, लेकिन इसमें कुछ खोखलापन है। अगर तुम किसी ऐसी चीज का सामना करते हो जो तुम्हारी धारणाओं के खिलाफ हो और तुम उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते तो क्या करोगे? यह एक वास्तविक चुनौती है। जब ऐसा होता है, तो ये वचन कैसे परिणाम दिखा सकते हैं और तुम पर प्रभाव डाल सकते हैं? तुम्हारे व्यवहार को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं और तुम्हारे कार्यों के सिद्धांत और दिशा को कैसे बदल सकते हैं? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें पेट-दर्द है और कोई कहता है, “दर्द निवारक दवाइयाँ लेने से दर्द बंद हो जाएगा।” तुम्हें पता है कि यह कथन सही है, लेकिन तुम इसे कैसे स्वीकार करते हो और इसे व्यवहार में कैसे लाते हो? जब तुम्हारे पेट में दर्द होता है तो क्या तुम दर्द निवारक दवाइयाँ लेते हो? तुम उन्हें कब लेते हो? भोजन से पहले या इसके बाद? दिन में कितनी बार लेते हो? दर्द रोकने के लिए एक बार में कितनी दवाइयाँ लेते हो, और ठीक होने के लिए तुम्हें कितने दिन दवाई लेनी चाहिए? क्या तुम इन विवरणों को जानते हो? तुम इन विवरणों को वास्तविक जीवन में “दर्द निवारक दवाइयाँ लेने से दर्द बंद हो जाएगा” कथन को लागू करके ही समझ सकते हो। अगर तुम इसे लागू नहीं करते हो, तो चाहे तुम इस कथन को किसी भी तरह से मानो, स्वीकार करो, या अनुमोदन करो, यह तुम्हारे लिए एक सिद्धांत का वाक्यांश ही रहेगा। लेकिन अगर तुम यह कथन अपने वास्तविक जीवन में लागू करते हो, अपनी बीमारी का इलाज करते हो, और इससे लाभ उठाते हो, तो जब तुम इसे सुनाओगे तो यह केवल एक खोखला कथन नहीं रहेगा, बल्कि एक व्यावहारिक कथन होगा। जब कोई और इसी तरह की स्थिति का सामना करेगा, तो तुम अपने व्यावहारिक अनुभव का उपयोग करके उसकी मदद कर सकोगे। हमने अभी-अभी “यहोवा का भय मानना बुद्धि का आरम्भ है” का उल्लेख किया था। “यहोवा का भय” ऐसा वाक्यांश है जिस पर लोगों को अमल करना चाहिए, और “बुद्धि का आरम्भ” वह फल है जो उन्हें यहोवा का भय मानकर मिलता है। यानी, जब तुम “यहोवा का भय” वाक्यांश का पालन कर इसे अपने वास्तविक जीवन में अपनाते हो, और यह वाक्यांश तुम्हारे काम आए और तुम्हें लाभ पहुँचाए, तभी तुम बुद्धि का फल प्राप्त कर पाओगे। आओ पहले इस वाक्यांश “यहोवा का भय” का पालन करने के तरीके के बारे में बात करते हैं। यह वाक्यांश वास्तविक जीवन में लोगों के सामने आने वाली सभी समस्याओं को छूता है, जैसे कि उसके विचार, विचारधाराएँ और मनोदशाएँ, उसकी कठिनाइयाँ, धारणाएँ और कल्पनाएँ, परमेश्वर के बारे में उसकी गलतफहमियाँ, उसके लिए संदेह और अनुमान, साथ ही साथ अनमनापन, धोखाधड़ी, आत्म-तुष्टता, अक्सर अपने कर्तव्य करने की प्रक्रिया में खुद में एक कानून बन जाना, इत्यादि। तो, तुम इस वाक्यांश “परमेश्वर के भय” को कैसे लागू कर सकते हो ताकि तुम अपने कार्यों के सिद्धांतों और आचरण के सिद्धांतों को बदल सको? अगर तुम इस वाक्यांश के हर विवरण से गुजरते हो, उसे अनुभव करते हो और जानते हो, तो यह तुम्हारे लिए एक सत्य होगा। अगर तुमने कभी इनका अनुभव नहीं किया है और तुमने इस वाक्यांश को सिर्फ जाना और सुना है, तो यह तुम्हारे लिए हमेशा एक सिद्धांत ही रहेगा। यह बस किसी ग्रंथ का एक कथन होगा, केवल वचन होंगे, एक सत्य नहीं होगा। मैं यह क्यों कहता हूँ? वो इसलिए कि इस कथन ने तुम्हारे किसी भी इरादे, विचार या दृष्टिकोण को कभी नहीं बदला है। इसने कभी भी उन सिद्धांतों को नहीं बदला जिनके अनुसार तुम आचरण करते हो और दुनिया से निपटते हो। इसने न तो तुम्हारे कार्य करने या कर्तव्य निभाने के रवैये को बदला, न तुम्हारी मनोदशा ही बदली। तुम्हें इससे किसी भी तरह का लाभ नहीं हुआ है। तुम लोग इन सभी प्रसिद्ध कथनों को जानते हो और उन्हें सुना सकते हो, लेकिन तुम्हें इनकी सिर्फ सतही समझ है, और तुम्हारे पास इनका कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है। यह स्थिति पाखंडी फरीसियों से कैसे अलग है? धार्मिक जगत के उन पादरियों और एल्डरों का ध्यान बाइबल के सभी प्रसिद्ध अध्याय और अंश सुनाने और समझाने पर होता है। जो व्यक्ति सबसे ज्यादा सुनाता है, वह सबसे आध्यात्मिक माना जाता है, सबसे सराहना पाता है, और सबसे प्रतिष्ठित और सर्वोच्च स्थान पर होता है। अपने वास्तविक जीवन में वह वास्तव में दुनिया, मानवजाति और सभी प्रकार के लोगों को वैसे ही देखता है जैसे सांसारिक लोग देखते हैं, और उसके दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इससे साबित होता है : वह बाइबल के जो खंड सुनाता है, वे किसी भी तरह उसके जीवन का हिस्सा नहीं बने हैं, उसके पल्ले सिर्फ सिद्धांत और धार्मिक मत हैं, और उसने अपना जीवन नहीं बदला है। अगर तुम लोग भी धार्मिक लोगों जैसी राह पर ही चलते हो तो फिर तुम परमेश्वर पर नहीं ईसाईयत पर विश्वास रखते हो और तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो। कुछ लोग जो कुछ ही समय से विश्वास में हैं, वे लम्बे समय से विश्वास रखने वाले उन धार्मिक व्यक्तियों की प्रशंसा करते हैं जो बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत सुना सकते हैं। जब वे उन लम्बे समय से विश्वास रखने वाले व्यक्तियों को देखते हैं जो बिना किसी समस्या के लगातार दो-तीन घंटे बैठकर बोलते हैं, तो वे उनसे सीखने लगते हैं। वे उन आध्यात्मिक शब्दों और अभिव्यक्तियों को सीखते हैं, वे लम्बे समय से विश्वास रखने वालों के बोलने और व्यवहार के तरीके सीखते हैं, और फिर परमेश्वर के कुछ उत्कृष्ट वचन रट लेते हैं। वे ऐसा तब तक जारी रखते हैं जब तक कि आखिरकार वे सोच लें कि उनके पास कुछ है। जब सभा का समय आता है, तो वे भारी-भरकम लगने वाले विचारों के बारे में बकवास करने लगते हैं, लेकिन यदि तुम ध्यान से सुनो, तो यह सब बेतुकी, खोखली बातें, वचन और सिद्धांत हैं। यह स्पष्ट है कि वे धार्मिक धोखेबाज हैं जिन्होंने खुद को और दूसरों को धोखा दिया है। यह कितना दुखद है! इस राह पर मत जाओ। जैसे ही तुम इस पर चलने लगोगे, तुम पूरी तरह से नष्ट हो जाओगे, और यदि तुम चाहो भी तो वापस लौटना कठिन होगा! अगर तुम उन वचनों और सिद्धांतों को ऐसे मानते हो कि जैसे वे खजाना और जीवन हों, और तुम हर जगह उन्हें प्रदर्शित करते हो, तो फिर समझ लो कि तुम्हारे भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव पर कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों और कुछ पाखंडी चीजों का मुलम्मा चढ़ चुका है। यह सिर्फ झूठ ही नहीं, बल्कि पूरी तरह से घृणित है। यह बेशर्मी है, और देखने में घिनौना और भयानक है। इस समय, हम प्रभु यीशु के अनुयायियों के संप्रदायों को ईसाई धर्म के रूप में मानकर एक धर्म और धार्मिक समूह के रूप में वर्गीकृत करते हैं। यह इसलिए है क्योंकि वे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन सत्य को स्वीकार नहीं करते, और वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव नहीं करते हैं, बल्कि वे अपने जीवन स्वभाव बदले बिना केवल धार्मिक अनुष्ठानों और औपचारिकताओं में अटके रहते हैं। वे सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग हैं, और वे परमेश्वर से मिलने वाले सत्य, मार्ग और जीवन का अनुसरण नहीं करते, बल्कि वे बाइबल संबंधी ज्ञान का अनुसरण करते हैं, फरीसियों का अनुकरण करते हैं और परमेश्वर से दुश्मनी रखते हैं। परिणामस्वरूप, इस समूह को ईसाईयत के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करने वाले ये सभी लोग इस धर्म के अनुयायी हैं। वे परमेश्वर की कलीसिया के नहीं हैं, और उसकी भेड़ें नहीं हैं। “ईसाईयत” शब्द कहाँ से आया है? यह इस तथ्य से आता है कि इसके अनुयायी मसीह पर विश्वास करने का ढोंग करते हैं, आध्यात्मिक होने और परमेश्वर का अनुसरण करने का ढोंग करते हैं, जबकि वे उन सभी सत्यों को नकारते हैं जो मसीह ने व्यक्त किए हैं, वे पवित्र आत्मा के कार्य को नकारते हैं, और वे परमेश्वर से आने वाली सभी सकारात्मक बातों को नकारते हैं। वे खुद को उन बातों से लैस कर ढक और छिपा लेते हैं जो परमेश्वर ने अतीत में कही थीं। वे इन चीजों को पूँजी के रूप में हर मौके पर इस्तेमाल करते हैं और धोखाधड़ी करके लाभ उठाते हैं। परमेश्वर पर विश्वास का ढोंग करते हुए वे हर मोड़ पर लोगों को ठगते हैं, वे बाइबल की व्याख्या करने के अपने तरीके और अपने बाइबल संबंधी ज्ञान पर दूसरों के साथ विवाद करते हैं, और इन चीजों को अपनी प्रतिष्ठा और पूँजी मानते हैं। वे तो परमेश्वर की आशीष और पुरस्कार भी चालाकी से हासिल करना चाहते हैं। यह मसीह-विरोधियों का मार्ग है जिस पर वे चलते हैं, जो देहधारी परमेश्वर को नकारता है और उसकी निंदा करता है, और इस समूह के इसी मार्ग पर चलने के कारण यह अंत में ईसाईयत और एक धर्म के रूप में वर्गीकृत होता है। अब चलो “ईसाइयत” शब्द पर नजर डालें—यह अच्छा शीर्षक है या बुरा? हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह एक अच्छा शीर्षक नहीं है। यह एक शर्मनाक चिह्न है और यह कोई गर्व या प्रतिष्ठा की बात नहीं है।
जीवन प्रवेश करते हुए वह कौन-सी सबसे महत्वपूर्ण बात है जो तुम्हें समझनी चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के कहे वचनों में यह खोजना चाहिए कि लोगों से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं और लोगों को उसके कार्यों का अनुभव कैसे करना चाहिए—फिर चाहे ये वचन किसी भी विषय पर हों। तुम्हें अपने आचरण और कार्यशैली, अपने विचारों-ख्यालों और जीवन में कुछ आने पर उत्पन्न होने वाली तमाम मनोदशाओं और अभिव्यक्तियों को परमेश्वर के प्रकाशन और न्याय के वचनों की कसौटी पर कसना चाहिए। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और खुद को समझना चाहिए और अभ्यास के सिद्धांतों को सुनिश्चित करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। इसके जरिये तुम्हें अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के इरादे पूरे करने का तरीका सीखना चाहिए, पूरी तरह उसकी अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करना चाहिए, ईमानदार इंसान बनना चाहिए और ऐसा इंसान बनना चाहिए जो सत्य का अभ्यास करे। शब्दों, सिद्धांतों, धार्मिक मत के बारे में बोलकर लोगों को धोखा देने जैसे काम मत करो। खुद को आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह पेश मत करो और न पाखंडी बनो। तुम्हें सत्य स्वीकारने और इसका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, साथ ही परमेश्वर के वचनों का उपयोग कर अपनी दशाओं की तुलना करते हुए उनकी जाँच करनी चाहिए और इसके बाद उन गलत धारणाओं और रवैयों को बदलना चाहिए जिनके जरिये तुम हर तरह की स्थिति का सामना करते हो। अंत में, तुम्हारे भीतर हर स्थिति में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए, तुम्हें फिर कभी उतावले होकर काम नहीं करना चाहिए, अपने विचारों का अनुसरण नहीं करना चाहिए, न अपनी लालसाओं के अनुसार चीजें करनी चाहिए, न ही भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीना चाहिए। इसके बजाय तुम्हारी सारी कथनी-करनी परमेश्वर के वचनों और सत्य पर आधारित होनी चाहिए। इस तरह से तुम में धीरे-धीरे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय उत्पन्न हो जायेगा। ऐसा हृदय सत्य का पालन करने से उत्पन्न होता है, संयम बरतने से नहीं। संयम से सिर्फ एक तरह का व्यवहार उत्पन्न होता है; यह एक प्रकार की सतही स्तर की सीमा है। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को लगातार स्वीकारने और उसके कार्य का अनुभव करने के दौरान काट-छाँट को स्वीकारने से परमेश्वर का भय मानने वाला सच्चा हृदय मिलता है। जब लोग अपनी भ्रष्टता का असली चेहरा देखेंगे तो उन्हें सत्य के अनमोल होने का पता चलेगा और वे सत्य के लिए प्रयास कर सकेंगे। उनके भ्रष्ट स्वभाव कम से कम प्रकट होंगे, वे सामान्य रूप से परमेश्वर के सामने रह सकेंगे, हर दिन परमेश्वर के वचन खा-पी सकेंगे और सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य कर सकेंगे। इस प्रक्रिया से परमेश्वर का भय मानने वाला और उसके प्रति समर्पण करने वाला हृदय उत्पन्न होता है। जो लोग अपने कर्तव्य करते हुए समस्याएँ हल करने के लिए लगातार सत्य खोजते हैं, उन सबके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है। परमेश्वर का भय क्या है, यह उन सभी लोगों को पता है जिन्हें अनुशासित किया गया है और जिन्होंने काफी ज्यादा काट-छाँट का अनुभव किया है। जब उनकी भ्रष्टता प्रकट होती है तो वे न सिर्फ भयभीत होकर काँपने लगते हैं, बल्कि परमेश्वर के क्रोध और प्रताप को भी महसूस कर सकते हैं। इस स्थिति में स्वाभाविक रूप से उनके मन में डर उत्पन्न होता है। क्या अब तुम सभी लोगों को इन बातों की कोई अनुभवजन्य समझ है? (थोड़ी-सी।) इसे धीरे-धीरे गहरा करने की जरूरत है। केवल थोड़ी-सी अनुभवजन्य समझ पाकर संतुष्ट मत होओ। तुम अभी एक अनुकूल वातावरण में हो, जहाँ तुम बहुत सारे उपदेश सुन रहे हो, बहुत सारी सभाओं में जा रहे हो, परमेश्वर के खूब सारे वचन पढ़ रहे हो, तुम्हारे पास एक ऐसा वातावरण है जहाँ तुम अपना कर्तव्य निभा सकते हो और जिसमें अन्य सभी प्रकार की शर्तें पूरी होती हैं। तुम्हें लगता है कि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय है इसलिए तुम्हारी आस्था बढ़ चुकी है, लेकिन अगर तुम्हें दूसरे परिवेश में रख दिया जाए तो क्या तुम अपनी वर्तमान मनोदशा बरकरार रख पाओगे? अभी तुम जिन सत्यों को समझते हो क्या ये चीजों को लेकर तुम्हारा परिप्रेक्ष्य या जीवन और मूल्यों को लेकर तुम्हारा दृष्टिकोण बदल सकते हैं? तुम जिन सत्यों को समझते हो अगर वे ये बदलाव नहीं ला सकते तो तुम वास्तव में सत्य को नहीं समझते। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन और ऐसे सत्य बन जाते हैं जिन्हें तुम समझते हो, तब तुम जीवन प्रवेश कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होगे। इसका अर्थ है कि सत्य का अभ्यास ऐसी चीज बन जाएगा जिसकी पहल तुम खुद करते हो, तुम्हें लगेगा कि ऐसी चीजों को स्वाभाविक तौर से करना चाहिए। सत्य के अनुसार काम करना तुम्हारे लिए स्वाभाविक हो जाएगा; यह किसी स्वाभाविक खुलासे की तरह नियमित हो जाएगा। इसका अर्थ है कि परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन चुके होंगे। यदि तुम किसी चीज का सामना होने पर हमेशा गलत रास्ता चुनते हो और तुम्हें सही राह पर आने के लिए हमेशा आत्म-चिंतन करना पड़ता है और दूसरों की मदद और सहारे की जरूरत पड़ती है तो यह अभी भी इससे बहुत दूर है और तुम्हारा कोई भी आध्यात्मिक कद नहीं है। यदि तुम्हारे पास कोई मदद और सहारा देने वाला नहीं है तो अपने आसपास का परिवेश तेजी से बदलने पर तुम कितनी दूर जाकर गिरोगे, यह कोई नहीं बता सकता। एक ही रात में तुम परमेश्वर को नकारकर धोखा दे सकते हो या तुम रातोरात परमेश्वर को छोड़कर शैतान की बाँहों में लौट सकते हो। दूसरे शब्दों में, इससे पहले कि तुम सत्य को प्राप्त करो और सत्य तुम्हारा जीवन बन जाए, तुम अभी भी खतरे में हो! ऐसा नहीं है कि थोड़ी-सी आस्था रखना, खुद को खपाने के लिए तैयार रहना और अभी थोड़ा-सा संकल्प या अच्छी आकांक्षाएँ होना यह साबित करता है कि तुम्हारे पास जीवन है। ये केवल सतही चीजें हैं; यह सिर्फ कोरी आशा है। इससे पहले कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सुधरे, तुम्हें स्वयं को सत्य से सुसज्जित करना होगा। तुम्हें परमेश्वर के कार्य और कुछ परीक्षणों और शोधन का अनुभव करने में सक्षम होना चाहिए। जब तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था उत्पन्न होगी, तो तुम उसके साथ सच्ची प्रार्थना और सच्ची संगति करोगे। तुम परमेश्वर को यह बता पाओगे कि तुम्हारे हृदय में क्या है, और जब तुम किसी चीज का सामना करोगे तो तुम महसूस करोगे कि तुम सिर्फ उसी पर भरोसा कर सकते हो और कोई और काम नहीं आएगा। तब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। जब तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह तुम्हें कहाँ रखता है, और भले ही तुम कई वर्षों तक किसी सभा में भाग न ले सको, फिर भी परमेश्वर में तुम्हारी आस्था अय्यूब की आस्था की तरह पूरी तरह अटूट रहेगी। भले ही तुम सभाओं में भाग नहीं ले रहे होगे और तुम्हें उपदेश देने वाला कोई नहीं होगा, फिर भी तुम्हारे हृदय में परमेश्वर का मार्ग और परमेश्वर के वचन होंगे। तुम परमेश्वर को नहीं छोड़ोगे और तुम इस बारे में स्पष्ट हो जाओगे कि वह किस तरह रोज तुम्हारी अगुआई करता है। तुम परमेश्वर के परीक्षणों का सामना करने पर उसका इनकार नहीं करोगे, बल्कि उनमें उसके कर्म भी देखोगे। उस समय, तुम स्वतंत्र हो सकोगे। तुम लोग अभी तक वहाँ नहीं पहुँचे हो, तुम्हारे पास अभी भी कई धारणाएँ, कल्पनाएँ और मिलावटें हैं। तुम्हारे क्रियाकलापों और कर्तव्य पालन के दायरे में अभी भी कुछ छिपी हुई चीजें हैं। तुम्हारी अपनी इच्छा बहुत अधिक है। तुम अभी भी दिखावा करने के दौर में हो, तुम अभी भी आध्यात्मिक बनने का प्रयास कर रहे हो, आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रचार करने और अपने आप को आध्यात्मिक जुमलों, शब्दावली और सिद्धांतों से लैस करने में लगे हुए हो। तुम अभी भी एक फरीसी और झूठा आध्यात्मिक व्यक्ति बनने का प्रयास कर रहे हो। तुम अभी भी ऐसी राह पर चलने का प्रयास कर रहे हो और इस गलत राह पर हो। यह किसी ऐसे व्यक्ति से बहुत उलट बात है जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है! इसलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करने और न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का अधिक अनुभव करने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए। केवल तभी इन ढोंग, छद्मवेश और असामान्य मानसिकताओं को पूरी तरह दूर किया जा सकता है। जब ये भ्रष्टताएँ शुद्ध हो जाती हैं तो तुम्हारा और परमेश्वर का संबंध स्वाभाविक रूप से सामान्य हो जाता है।
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