शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 68)
क्या अब तुम सब समझे कि सत्य को पाना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना किस पर निर्भर है? वे सिर्फ वे दो बातों पर निर्भर हैं—सत्य को तलाशना और सत्य का अभ्यास करना, यह इतना आसान है। हालाँकि परमेश्वर के द्वारा व्यक्त सत्य लिखित रूप में दर्ज है, सत्य की वास्तविकता लिखित रूप में नहीं है, इसके लिखित शब्दों की तुलना में इसे समझना-बूझना तो मनुष्य के लिए और भी कठिन है। तो फिर सत्य को समझने के लिए क्या करना चाहिए? सत्य को समझना और प्राप्त करना मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करके, उसके कार्य का अनुभव करके, सत्य की तलाश करके, और पवित्र आत्मा के प्रबोधन के जरिए किया जाता है। सत्य की वास्तविकता को लोग सत्य का अभ्यास और अनुभव करके ही साकार कर पाते हैं; यह कुछ ऐसा है जो कि अनुभव से प्राप्त होता है, कुछ ऐसा जिसे मनुष्य जीता है। सत्य एक खोखला सिद्धांत नहीं है, ना ही एक सरल, सुखद वाक्यशैली है। यह एक जीवन शक्ति से समृद्ध भाषा है; यह जीवन का शाश्वत सूत्रवाक्य है, यह सबसे अधिक व्यावहारिक, बहुमूल्य चीज है जो जीवन भर किसी व्यक्ति का साथ दे सकती है। सत्य क्या है? सत्य मनुष्य के जीवन में अस्तित्व का आधार है, सत्य स्वयं के आचरण में और चीजों से निपटने के अभ्यास का सिद्धांत है। सत्य जीवन में एक दिशा और उद्देश्य प्रदान करता है; यह लोगों को एक सच्चे व्यक्ति की तरह जीने और परमेश्वर के सामने समर्पण और उसकी आराधना करते हुए जीने में सक्षम बनाता है। इसी वजह से लोग सत्य के बिना नहीं रह सकते हैं। तो अब तुम जीने के लिए किस पर निर्भर हो? तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण क्या हैं? कार्य करते हुए तुम्हारी दिशा और उद्देश्य क्या हैं? अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है तो तुम्हारे जीवन में सिद्धांत, दिशा और उद्देश्य हैं। अगर तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है तो तुम्हारे जीवन में कोई सिद्धांत, दिशा या उद्देश्य नहीं है। तुम निःसंदेह शैतान के फलसफे, पारंपरिक संस्कृति की चीजों के अनुसार जी रहे हो। अविश्वासी इसी तरह जीते हैं। क्या तुम लोग इस बात की असलियत को समझ सकते हो? इस समस्या को सुलझाने के लिए व्यक्ति को सत्य की खोज करके उसे स्वीकारना चाहिए। क्या सत्य को हासिल कर पाना आसान है? (हाँ, आसान है, लेकिन तब जब हम परमेश्वर पर भरोसा रखें।) परमेश्वर पर भरोसा रखते हुए, व्यक्ति को खुद पर भी भरोसा रखना चाहिए। तुम्हारे दिल में यह आत्मविश्वास, यह इच्छा और यह अपेक्षा अवश्य होनी चाहिए, तुम्हें कहना चाहिए, “मैं भ्रष्ट शैतानी स्वभावों के बीच नहीं रहना चाहता। मैं उनके द्वारा नियंत्रित होना और धोखा खाना नहीं चाहता और ना ही मैं इस तरह पूर्ण रूप से मूर्ख बनाया जाना चाहता हूँ, ताकि परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगे। इस तरह से तो मैं परमेश्वर के सामने रहने योग्य ही नहीं रहूँगा।” तुम्हारे दिल में यह भावना होनी चाहिए। फिर, जब चीजें तुम्हारे साथ घटित होती हैं, तब अगर तुम अपने वास्तविक जीवन में उन सत्यों को लागू करते हो जिन्हें तुम समझ सकते हो और जिन पर तुम्हारी पकड़ है और तुम हर मामले में उसे अभ्यास में ला सकते हो तो क्या सत्य इस तरह से तुम्हारी वास्तविकता नहीं बन जाएगा? और जब सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन जाएगा, तब भी क्या तुम चिंतित रहोगे कि तुम्हारा जीवन विकसित नहीं होगा? तुम यह कैसे निर्धारित कर सकते हो कि किसी व्यक्ति में सत्य वास्तविकता है या नहीं? यह उनकी बातों से देखा जा सकता है। जो व्यक्ति केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाता है, उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती और निश्चित रूप से वह सत्य का अभ्यास भी नहीं करता, इसलिए वह जो कुछ भी कहता है, वह खोखला और अवास्तविक होता है। सत्य वास्तविकता वाले व्यक्ति के शब्द लोगों की समस्याएँ हल कर सकते हैं। वे समस्याओं का सार स्पष्टता से देख सकते हैं। जो समस्या तुम्हें कई वर्षों से परेशान कर रही है, वह केवल कुछ सरल शब्दों से हल हो सकती है; तुम सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझ जाओगे, फिर कोई भी काम तुम्हारे लिए मुश्किल नहीं होगा, फिर तुम बाध्य और विवश महसूस नहीं करोगे और तुम स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त कर लोगे। क्या ऐसा व्यक्ति जो कुछ कहता है, वह सत्य वास्तविकता होती है? यह सत्य वास्तविकता है। कोई व्यक्ति चाहे जो भी कहे, पर अगर तुम उससे अपनी समस्या समझ नहीं पाते, और उसकी कोई भी बात उसके मूल कारण को हल नहीं करती, तो वह जो कुछ कहता है, वे बस शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। क्या शब्द और धर्म-सिद्धांत लोगों के लिए आपूर्ति देकर उनकी मदद कर सकते हैं? शब्द और धर्म-सिद्धांत लोगों के लिए आपूर्ति नहीं दे सकते या उनकी मदद नहीं कर सकते, लोगों की वास्तविक कठिनाइयाँ हल नहीं कर सकते। शब्द और धर्म-सिद्धांत जितने ज्यादा सुनाए जाते हैं, सुनने वाला उतना ही अधिक परेशान हो जाता है। जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग तरह से बोलते हैं। कुछ ही शब्दों से वे समस्या का मूल कारण या बीमारी की जड़ को पकड़ लेते हैं। एक वाक्य भी लोगों को जगा सकता है और मूल समस्या का पता लगा सकता है। यह लोगों की कठिनाइयाँ हल करने और अभ्यास का मार्ग बताने के लिए सत्य वास्तविकताओं वाले शब्दों का उपयोग करना है।
अंत के दिनों में, देहधारी परमेश्वर आ गया है। यह देखते हुए कि लोग व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, ऐसा क्या है जिसे मनुष्य को सबसे अधिक प्राप्त करना चाहिए? यह सत्य है, जीवन है; केवल यही सार्थक है और कुछ नहीं। जब मसीह आया, तो वह सत्य लाया, जीवन लाया; वह लोगों को जीवन देने के लिए आया था। फिर व्यावहारिक परमेश्वर में कोई कैसे विश्वास कर सकता है? सत्य और जीवन पाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? परमेश्वर ने बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं। वे सभी जिन्हें धार्मिकता की भूख और प्यास है, उन्हें परमेश्वर के वचनों को खा-पीकर अपनी भूख और प्यास मिटानी चाहिए। परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उसके वचन समृद्ध और विपुल हैं; हर जगह बहुमूल्य चीजें और हर तरफ खजाना है। जो लोग सत्य को चाहते हैं, उनके दिल कनान की सुंदर भूमि के बाहुल्य का आनंद लेते हुए खुशी से खिल उठते हैं। परमेश्वर के वचनों के हर वाक्य को जिसे वे खाते और पीते हैं, उनमें सत्य और रोशनी है, वे सभी बहुमूल्य हैं। वे लोग जिन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, वे लोग दुःख से व्यग्र हो उठते हैं; वे दावत पर बैठकर भी भुखमरी से जूझते हैं, यह उनकी दयनीयता दिखाता है। जो लोग सत्य तलाशने के काबिल हैं, उनके लाभ बढ़ते रहेंगे, और जो ऐसा नहीं कर पाते हैं, उनके आगे का रास्ता बंद हो जाएगा। अब सबसे बड़ी चिंता का विषय है, हर चीज में सत्य को तलाशना सीखना, सत्य की समझ तक पहुँच पाना, सत्य का अभ्यास करना, और असल में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाना। यही है परमेश्वर में विश्वास करना। व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास करना ही सत्य और जीवन को प्राप्त करना है। सत्य किस काम आता है? क्या ये लोगों की आध्यात्मिक दुनिया को संपन्न करने में काम आता है? क्या इसका उद्देश्य लोगों को अच्छी शिक्षा देना है? (नहीं।) तो सत्य मनुष्य की कौन-सी समस्या को सुलझाता है? सत्य मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने, मनुष्य की पापी प्रकृति का समाधान करने, लोगों को परमेश्वर के सामने जीने, और उन्हें एक सामान्य मानवता का जीवन देने के लिए है। कुछ लोग समझ ही नहीं पाते हैं कि सत्य है क्या। उन्हें हमेशा लगता है कि सत्य गूढ़ और निराकार है, और यह एक पहेली है। वे यह नहीं समझते कि सत्य वह है जिसे लोगों को अभ्यास में लाना चाहिए, यह कुछ ऐसा है जिसे लोगों को प्रयोग में लाना चाहिए। कुछ लोग दस या बीस वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बावजूद अभी तक नहीं समझ पाए हैं कि सत्य आखिर है क्या। क्या ऐसे व्यक्ति ने सत्य प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) क्या सत्य को प्राप्त न कर सकने वाले लोग दयनीय नहीं हैं? बहुत ज्यादा—ठीक वैसे ही जैसे उस गीत में गाया गया है, “दावत में बैठे होकर भी वे भुखमरी से जूझ रहे हैं।” सत्य प्राप्त करना कठिन नहीं है, न ही सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल है, लेकिन अगर लोग हमेशा सत्य से विमुख होते रहे, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर पाएँगे? नहीं। तो तुम्हें हमेशा परमेश्वर के सामने आना चाहिए, सत्य से विमुख होने की अपनी आंतरिक दशाओं की जांच करनी चाहिए, यह देखना चाहिए तुममें सत्य से विमुख होने के क्या लक्षण हैं और किस प्रकार से कार्य करना सत्य से विमुख होना है, और किन बातों में तुम सत्य से विमुख होने की मनोवृत्ति रखते हो—तुम्हें इन बातों की अक्सर जाँच करते रहना चाहिए। मिसाल के तौर पर, कोई तुम्हें यह कहकर दोष देता है, “तुम सिर्फ अपनी इच्छा के भरोसे अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते—तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को पहचानना चाहिए,” इस पर तुम क्रोध में आकर जवाब देते हो, “जिस तरीके से मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ वह अच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, क्या वह सही है? जिस तरह से मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ उसमें क्या गलत है? परमेश्वर मेरे दिल को जानता है!” यह कैसा रवैया है? सत्य को स्वीकारने का? (नहीं।) जब घटनाएँ घटती हैं तो व्यक्ति में सबसे पहले सत्य को स्वीकारने का रवैया होना चाहिए। ऐसे रवैये का न होना उसी प्रकार है जैसे खजाने को रखने के लिए किसी बर्तन का न होना, इसी तरह तुम सत्य पाने में असमर्थ हो जाओगे। अगर कोई व्यक्ति सत्य न पा सके, तो परमेश्वर में उसका विश्वास निरर्थक है! परमेश्वर पर विश्वास करने का उद्देश्य है सत्य प्राप्त करना। अगर कोई सत्य प्राप्त नहीं कर सका, तो परमेश्वर में उसका विश्वास विफल हो चुका है। सत्य प्राप्त करना क्या होता है? यह तब प्राप्त होता है जब सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन जाता है, जब यह तुम्हारा जीवन बन जाता है। यही है सत्य प्राप्त करना—यही है परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ! परमेश्वर अपने वचनों को किस लिए कहता है? परमेश्वर उन सत्यों को किस लिए व्यक्त करता है? ताकि लोग सत्य को अपना सकें, जिससे भ्रष्टाचार को शुद्ध किया जा सके; जिससे लोग सत्य प्राप्त कर सकें, जिससे सत्य उनका जीवन बन जाए। अन्यथा परमेश्वर इतने सारे सत्य क्यों व्यक्त करेगा? क्या बाइबल के साथ मुकाबला करने के लिए? क्या “सत्य का विश्वविद्यालय” स्थापित करने और लोगों के एक वर्ग को प्रशिक्षित करने के लिए? इनमें से किसी के लिए भी नहीं। इसके बजाय इसका उद्देश्य मानवता को पूर्णतः बचाना है, ताकि लोग सत्य समझ सकें और अंततः उसे प्राप्त कर सकें। अब तुम समझ गए, है ना? परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे अधिक आवश्यक क्या है? (सत्य प्राप्त करना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना।) यहाँ से, यह इस पर निर्भर करता है कि तुम लोग सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करते हो, और तुम प्रवेश कर भी सकते हो या फिर नहीं।
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