शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 67)
सत्य वास्तविकता क्या है? इसका आशय क्या है? इसका आशय सत्य का अभ्यास करना है। जब लोग सत्य को समझ लेंगे और इसे अभ्यास में ला सकेंगे, तो यही सत्य उनकी वास्तविकता बन जाएगा, यही उनका जीवन बन जाएगा। जब लोग सत्य के अनुसार जीने लगते हैं, तो उनके पास सत्य वास्तविकता होती है। लोग अगर केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाते हैं और सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते तो उनके पास सत्य वास्तविकता नहीं होती है। जब वे शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाते हैं, तो भले ही ऐसा लगे कि वे सत्य को समझते हैं, लेकिन वे इसका बिल्कुल भी अभ्यास नहीं कर पाते हैं जो यह साबित करता है कि उनके पास सत्य वास्तविकता नहीं है। तो लोगों को सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के वचनों को अपने वास्तविक जीवन में लागू करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करके ही वे सत्य का ज्ञान—कोई धारणात्मक ज्ञान नहीं, बल्कि वास्तविक अनुभव और वास्तविक ज्ञान प्राप्त करेंगे और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाएँगे। इसका मतलब है कि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुके होंगे। तो तुम लोगों ने किन सत्यों का अनुभव और वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया है? क्या तुम लोगों को कभी ऐसा लगा कि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है? जब तुम परमेश्वर के वचनों का कोई अंश पढ़ते हो, तो वे चाहे सत्य के जिस किसी पहलू की चर्चा करते हों, तुम खुद को उनकी कसौटी पर कस कर देख सकते हो कि वे तुम्हारी दशाओं के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं, और तब तुम अत्यंत द्रवित महसूस करते हो, मानो परमेश्वर के वचनों ने तुम्हारे दिल के अंतस्थल को छू लिया हो, और तुम्हें लगता है कि उसके वचन पूरी तरह सही हैं, और तुम उन्हें पूरी तरह स्वीकार कर लेते हो, और तुम न केवल अपनी दशाओं को जान लेते हो, बल्कि यह भी जान लेते हो कि उसके इरादों के अनुरूप कैसे अभ्यास करना है। इस तरह से परमेश्वर के वचन खाने-पीने से तुम्हें लाभ मिलता है, तुम प्रबुद्ध और रोशन हो जाते हो, तुम्हें आपूर्ति मिलती है, और तुम्हारी दशाएँ पूरी तरह बदल जाती हैं। जब तुम्हें यह लगता है कि तुम परमेश्वर के वचनों का ज्ञान प्राप्त कर चुके हो, परमेश्वर के वचनों के अमुक अंश का अर्थ समझने लगे हो, और यह जानने लगे हो कि उनका अनुभव और अभ्यास कैसे करना है तो तुम मानने लगते हो कि परमेश्वर के वचन महान हैं, और तुम बहुत प्रसन्न और संतुष्ट रहने लगते हो। क्या तुम लोगों को अक्सर ऐसा महसूस होता है? (हाँ।) तुम लोगों को एक बार जब यह एहसास हो गया, तो क्या लगा कि तुमने परमेश्वर के वचनों के इस अंश से सत्य प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) चूँकि तुम्हें ऐसा नहीं लगा, इसलिए इसका मतलब है कि यह एहसास मात्र कोई धारणात्मक प्रतिक्रिया थी, हृदय की कोई अस्थायी हलचल भर थी। थोड़ा-सा पुरस्कार और थोड़ा-सा प्रवेश प्राप्त करने का मतलब सत्य को समझ लेना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना नहीं है। यह मात्र शुरुआती अनुभव है, सत्य के शाब्दिक अर्थ की मात्र समझ है। सत्य को समझने से लेकर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने तक की यात्रा एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें काफी समय लगता है। शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझने से लेकर सत्य को सही अर्थ में समझने तक परिणाम प्राप्त करने के लिए मात्र दो-चार नहीं, कहीं अधिक अनुभवों की आवश्यकता होती है। किसी एक अनुभव से तुम्हें कोई छोटा-मोटा प्रतिफल ही मिल सकता है, लेकिन सच्चा प्रतिफल और सत्य की समझ पाने के लिए ढेरों अनुभवों से गुजरना पड़ता है। यह किसी समस्या पर चिंतन करने जैसा है; एक बार चिंतन करने पर तुम्हें रोशनी की हल्की-सी झलक दिखेगी, लेकिन बार-बार चिंतन करने के बाद अधिक प्रतिफल मिलेगा और तुम उस विषय को स्पष्ट रूप से समझ लोगे। अगर तुम उस समस्या पर चिंतन में कुछ साल लगाओगे, तो इसे अच्छी तरह समझ लोगे। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के वचनों का ज्ञान पाना और सत्य समझना चाहते हो, तो यह कई अनुभव हासिल कर लेने जितना आसान नहीं है। क्या तुम लोग खुद भी इस प्रकार के अनुभवों से गुजरे हो? शायद हर कोई कुछ बार इनसे गुजर चुका है। जब लोग पहली बार परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना शुरू करते हैं तो रोशनी की हल्की झलक दिखती है, लेकिन तब भी इनका ज्ञान सतही ही रहता है। यह सिद्धांत समझने जैसा है, बस इतना है कि इनका ज्ञान थोड़ा अधिक व्यावहारिक लगता है, और इसे एक-दो वाक्यों में स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता है। इन लोगों की संगति दूसरों को यह एहसास दिलाती है कि इनका ज्ञान शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की तुलना में थोड़ा अधिक व्यावहारिक है। अगर इन लोगों के अनुभवों में गहराई आ जाए और वे कुछ विवरण देने लग जाएँ, तो इनका ज्ञान और भी अधिक व्यावहारिक लगेगा। अगर उसके बाद भी लोग कुछ समय तक अनुभव लेते रहें और परमेश्वर के वचनों को सच्चे ज्ञान के साथ बोल सकें, तो इन लोगों का ज्ञान धारणात्मक स्तर से उठकर तर्कसंगत स्तर तक पहुँच जाएगा। सत्य की सच्ची समझ यही है। जब लोग परमेश्वर के वचनों का और अधिक अनुभव करने लगेंगे और उन्हें अभ्यास में लाने लगेंगे, तो वे सत्य के सिद्धांत को समझने में निपुण हो जाएँगे, और जान जाएँगे कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का यही मतलब होता है। इस दौरान जब वे अनुभवजन्य गवाही देने लगेंगे, तो सुनने वालों को लगेगा कि यह व्यावहारिक है और वे इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेंगे। किसी व्यक्ति के इस मुकाम पर पहुँचने पर परमेश्वर के वचन उसकी जीवन वास्तविकता बन जाएँगे और केवल ऐसे व्यक्ति के बारे में यह कहा जा सकता है कि उसने सत्य हासिल कर लिया है। परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने और सत्य हासिल करने की यह सरलीकृत प्रक्रिया है, जिसे कम से कम कई सालों या यहाँ तक कि 10 सालों से अधिक के अभ्यास के बिना हासिल नहीं किया जा सकता है। जब कोई परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास शुरू करता है तो उसे लगता है कि यह काफी सरल होगा, लेकिन चीजें सामने आने पर वह नहीं जान पाता कि इसका सामना कैसे किया जाए या इसे कैसे संभाला जाए, और हर तरह की कठिनाइयाँ आन पड़ती हैं। ऐसे लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ आड़े आएँगी, इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव गड़बड़ियाँ पैदा करेंगे, और जब इन लोगों को झटके लगेंगे और विफलताएँ हाथ लगेंगी तो वे जान ही नहीं पाएँगे कि अनुभव कैसे करना है। भ्रष्ट स्वभाव के लोग विशेष रूप से कमजोर होते हैं और आसानी से नकारात्मक हो जाते हैं, और जब उन पर हमला होता है, उसकी बदनामी होती है और उसके बारे में कोई राय बनाई जाती है, तो उसके लिए हिम्मत हार जाना और फिर से उठ न पाना आम बात है। अगर सत्य खोज कर इन समस्याओं को हल किया जा सके, अगर कोई व्यक्ति अटल रहने के लिए परमेश्वर पर भरोसा कर सके, तो ऐसे लोग सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकते हैं। अगर किसी की रुचि सत्य में नहीं है और वह सत्य को अनुभव और प्राप्त करने लायक मूल्यवान चीज न माने, तो उसके पास सत्य के अभ्यास के लिए कोई ताकत नहीं होती, और वह मुसीबतों की पहली दस्तक पर ही गिर पड़ेगा और फँस जाएगा। ऐसा इंसान कायर होता है, और उसके लिए सत्य हासिल करना आसान नहीं होता। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, ये एक नया जीवन हैं जो उसने लोगों को बख्शा है, लेकिन सत्य स्वीकारने का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य सत्य और जीवन हासिल करना है, सत्य का अनुभव इस तरह करना है मानो यह उसका अपना ही जीवन हो। सत्य अपना जीवन बन जाए, उससे पहले सत्य स्वीकारने का उद्देश्य मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना होता है। यह किन भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर सकता है? यह मुख्य रूप से विद्रोहीपन, धारणा और कल्पना, अहंकार, अकड़, खुदगर्जी, अधमता, कुटिलता, धूर्तता के साथ ही अनमना और गैर-जिम्मेदार होने, और अंतरात्मा और विवेक की कमी होने जैसी चीजों को दूर करता है। और इससे आखिरी नतीजा क्या निकलता है? यही कि कोई भी व्यक्ति ऐसा ईमानदार हो सकता है जो परमेश्वर के सामने समर्पण करे, उसे महान मानकर सम्मान करे, उसकी आराधना करे, उसके प्रति वफादार रहे और वास्तव में उससे प्रेम करे, और आखिरी साँस तक उसके प्रति समर्पित रहे। इस प्रकार का व्यक्ति ही पूरी तरह से वास्तविक मनुष्य के समान जी रहा होता है, वह ऐसा व्यक्ति बन चुका होता है जिसमें सत्य और मानवता है। यही वह सर्वोच्च क्षेत्र है जहाँ कोई सत्य की खोज में पहुँच सकता है।
तो लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए किस तरह परमेश्वर के वचनों को खा-पी और अनुभव कर सकते हैं? यह कोई मामूली बात नहीं है। भ्रष्ट स्वभाव एक ऐसी समस्या हैं जो सचमुच मौजूद है, और ये अक्सर लोगों के वास्तविक जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रकट होते रहते हैं। चाहे लोगों पर कुछ भी बीते, चाहे वे कुछ भी करते हों, इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव हमेशा प्रकट होते रहेंगे। उदाहरण के लिए, लोग चाहे कुछ भी करें या कहें, अधिकांश समय उनके कुछ खास इरादे और लक्ष्य होते हैं। तेज दृष्टि वाले यह भाँप लेते हैं कि लोगों के बोलने और काम करने का तरीका सही है या गलत, साथ ही वे यह भी भाँप लेते हैं कि इन लोगों की कथनी-करनी में कौन-सी बातें छुपी हैं, और कौन-से जाल बिछे हुए हैं। तो क्या स्वाभाविक रूप से इन बातों का पता चलता है? क्या लोग इन्हें छिपाकर रख सकते हैं? भले ही लोग कुछ न कहें या न करें, फिर भी कोई मुसीबत आने पर इन लोगों की कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है। ऐसी बातें सबसे पहले इन लोगों के हाव-भाव से प्रकट होती हैं, और फिर उससे भी ज्यादा इन लोगों की कथनी-करनी में दिखती हैं। तेज दृष्टि वाले इस पर हमेशा ध्यान देते हैं, और केवल मूर्ख और जड़बुद्धि वाले ही इसमें अंतर नहीं कर पाते हैं। यह कहा जा सकता है कि लोगों में भ्रष्टता दिखना सामान्य बात है, यह भी कि यह एक वास्तविक समस्या है जो हर किसी में मिलेगी। अंत के दिनों के अपने कार्यों में परमेश्वर का इतने सारे सत्य अभिव्यक्त करने का उद्देश्य क्या है? वह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और इन लोगों के पापों के मूल कारण दूर करने, लोगों को शैतान की भ्रष्टता से बचाने, लोगों को उद्धार दिलाने और शैतान के प्रभाव से दूर रहने में मदद करने, और विशेष रूप से लोगों को जीवन, सत्य और मार्ग प्रदान करने के लिए यह सत्य व्यक्त करता है। अगर लोग परमेश्वर में विश्वास रखें लेकिन सत्य को स्वीकार न करें, तो इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ नहीं किए जा सकते हैं, और इस प्रकार वे उद्धार नहीं पा सकते हैं। इसलिए, जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे उनके वचनों का अभ्यास और अनुभव करने के प्रयास करेंगे, अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होने पर वे आत्म-चिंतन के साथ खुद को जानने का प्रयास करेंगे, और इस भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का सत्य खोजेंगे। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे आत्म-चिंतन करने और परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए खुद को जानने का प्रयास करने पर ध्यान देते हैं, और इन लोगों को लगता है कि उसके वचन किसी आईने की तरह हैं जो इन लोगों के भ्रष्टता और कुरूपता को दिखा देता है। इस तरह, वे परमेश्वर के वचनों के जरिये उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने लगते हैं, और वे धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लेते हैं। जब इन लोगों को अपना भ्रष्ट स्वभाव कम प्रकट होता दिखेगा, जब वे वास्तव में परमेश्वर के समक्ष समर्पण करने लगेंगे, तो इन लोगों को एहसास होने लगेगा कि सत्य का अभ्यास करना तो काफी आसान है, और अब कोई मुसीबत नहीं हैं। इस समय, वे अपने आप में सच्चा बदलाव पाएँगे, और इन लोगों के दिल में परमेश्वर के लिए सच्ची प्रशंसा उपजेगी : “सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझे मेरे भ्रष्ट स्वभाव के बंधन और बाधाओं से बचाया है और मुझे शैतान के प्रभाव से बचाया है।” यह परमेश्वर के वचनों से न्याय और ताड़ना का अनुभव करने का फल है। अगर लोग परमेश्वर के वचनों में न्याय और ताड़ना का अनुभव नहीं कर सकते, तो वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वच्छ नहीं कर सकते या शैतान के प्रभाव से दूर नहीं हो सकते हैं। बहुत से लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, और भले ही वे परमेश्वर के वचन पढ़ते और उपदेश सुनते हों, बाद में वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने लगते हैं, और परिणामतः वे बहुत साल से परमेश्वर में विश्वास करने के बावजूद अपने किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को दूर नहीं कर पाते हैं। ये लोग अभी भी वैसे ही शैतान और दुष्ट हैं जैसे हमेशा से थे। इन लोगों का ख्याल था कि जब तक वे परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर लेंगे; जब तक वे परमेश्वर के कुछ वचनों का पाठ करते हैं और उसके वचनों पर दूसरों के साथ संगति करते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर लेंगे; जब तक वे कई शब्द और धर्म-सिद्धांत सुना सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर लेंगे; और जब तक वे धर्म-सिद्धांत को समझ सकते हैं और आत्म-नियंत्रण सीख सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर ही लेंगे। फलस्वरूप, सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आ पाया है, वे अनुभवजन्य गवाही नहीं दे सकते और इसलिए वे निरुत्तर हैं। सालों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी उनके हाथ खाली हैं और उन्होंने कोई सत्य प्राप्त नहीं किया है, इन सभी सालों में उन्होंने बेकार जीवन जीकर समय बर्बाद किया। अब ऐसे ही कई झूठे अगुआ और कार्यकर्ता हैं, जो परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव का प्रयास करने के बजाय मात्र कार्य करने और उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं। तो क्या वे सत्य की राह पर हैं? बिल्कुल नहीं।
जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनके लिए सबसे अहम वास्तविकता क्या है? सत्य का अभ्यास करना। सत्य का अभ्यास करने का सबसे अहम हिस्सा क्या है? क्या यही नहीं है कि किसी व्यक्ति को सबसे पहले सिद्धांतों पर पकड़ बनानी चाहिए? तो फिर सिद्धांत क्या हैं? वे सत्य का व्यावहारिक पहलू हैं, वे ऐसे मानक हैं जो नतीजों की गारंटी दे सकते हैं। सिद्धांत बस इतने ही सरल होते हैं। शाब्दिक रूप में लें, तो तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचनों का प्रत्येक वाक्य सत्य है, लेकिन सत्य के सिद्धांतों की समझ न होने के कारण तुम यह नहीं जान पाते कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है। तुम सोचते हो कि परमेश्वर के वचन पूरी तरह सही हैं, कि वे ही सत्य हैं, लेकिन तुम यह नहीं जानते कि सत्य का व्यावहारिक पहलू क्या है, या वह किन दशाओं पर लक्ष्य केंद्रित करता है, यहाँ कौन-से सिद्धांत होते हैं, और अभ्यास का मार्ग क्या होता है—तुम इसे समझ-बूझ नहीं सकते हो। इससे सिद्ध होता है कि तुम सत्य को नहीं समझते, सिर्फ सिद्धांत समझते हो। अगर तुम वास्तव में यह समझ पाते कि तुम्हें सिर्फ सिद्धांत की समझ है, तो यह जान जाते कि तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अवश्य ही सत्य खोजना चाहिए। सबसे पहले, सत्य के व्यावहारिक पक्ष का सटीक अनुभव प्राप्त करो, देखो कि वास्तविकता के कौन से पहलू सबसे अधिक उभरते हैं, और इस वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए। इस तरह खोजने और जाँच-परख करने से तुम्हें रास्ता मिल जाएगा। एक बार जब तुम सिद्धांतों पर पकड़ बना लोगे और इस वास्तविकता को जीने लगोगे, तो तुम्हें सत्य प्राप्त हो जाएगा, यह ऐसी उपलब्धि है जो सत्य का अनुसरण करने से मिलती है। अगर तुम कई सत्यों के सिद्धांत समझ सकते हो और उनमें से कुछ को अभ्यास में ला सकते हो, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, और तुम जीवन प्राप्त कर चुके हो। चाहे तुम सत्य के किसी भी पहलू की खोज कर रहे हो, एक बार जब तुमने यह समझ लिया कि परमेश्वर के वचनों में सत्य की वास्तविकता कहाँ निहित होती है और उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, एक बार जब तुम लोग वास्तव में यह समझ लेते हो, कीमत चुका सकते हो और इसे अभ्यास में ला सकते हो तो फिर तुम यह सत्य प्राप्त कर चुके हो। जब तुम इस सत्य को प्राप्त कर रहे होगे, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे दूर होता जाएगा, और यह सत्य तुम्हारे भीतर अपना रास्ता बनाता जाएगा। अगर तुम सत्य की वास्तविकता को अभ्यास में ला सकते हो, और इस सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य और हर कार्यकलाप और आचरण कर सकते हो तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम बदल चुके हो? तुम किस तरह के इंसान बन गए हो? तुम ऐसे इंसान बन चुके हो जिसके पास सत्य वास्तविकता है। जिसके पास सत्य वास्तविकता हो, क्या वह ऐसा इंसान है जिसके कार्यकलाप सिद्धांतसम्मत होते हैं? अगर किसी के कार्यकलाप नियमबद्ध हों, तो क्या वह सत्य हासिल कर चुका है? जिसने सत्य हासिल कर लिया है क्या वह सामान्य मानवता को जी रहा है? जो इंसान सामान्य मानवता को जी रहा हो, क्या उसमें सत्य और मानवता है? जिन लोगों के पास सत्य होता है और मानवता होती है वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होते हैं, और जो लोग परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होते हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें वह प्राप्त कराना चाहता है। यह परमेश्वर पर विश्वास करने और उसके द्वारा प्राप्त कर लिए जाने का अनुभव है, और यह उसके वचन खाना-पीना शुरू करके सत्य प्राप्त करने के साथ ही साथ उद्धार पाने की प्रक्रिया भी है। यह सत्य का अनुसरण करने का मार्ग है, परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने का मार्ग है।
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