परमेश्वर में विश्वास की शुरुआत संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत को समझने से होनी चाहिए (भाग दो)
क्या तुम लोग जानते हो कि परम बुद्धिमानी क्या है? अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के आधार पर क्या तुम लोग जानते हो कि अपने विश्वास में तुम्हें किस चीज पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तुम्हें कैसे अनुसरण और अभ्यास करना चाहिए, इस संदर्भ में सबसे बड़ी बुद्धिमानी क्या है? कुछ लोग बाहर से देखने में बहुत कुशल नहीं लगते, वे हमेशा चुपचाप और धीर-गंभीर रहते हैं। वे ज्यादा नहीं बोलते, लेकिन उनके अंदर बहुत बुद्धिमानी होती है जो दूसरों में नहीं होती। अधिकतर लोग इसे देख नहीं पाते, और अगर देख भी लें तो वे इसे बुद्धिमानी नहीं मानेंगे। वे सोचेंगे कि यह अनावश्यक है और इसका कोई मूल्य नहीं है। क्या तुम लोग यह सोच सकते हो कि उनकी यह परम बुद्धिमानी क्या है? (वे एक ऐसे दिल के मालिक हैं जो परमेश्वर के सामने सदा शांत रहता है, सदा प्रार्थना करता रहता है, और सदा उसके निकट बढ़ रहा होता है।) तुमने सही उत्तर को थोड़ा-सा ही छुआ है। परमेश्वर के निकट बढ़ने का उद्देश्य क्या है? (परमेश्वर के इरादे जानना।) परमेश्वर के इरादे जानने का अर्थ क्या है? क्या यह उस पर भरोसा करना है? (हाँ।) बात परमेश्वर पर भरोसे की ही है। अगर तुम हर चीज में परमेश्वर पर भरोसा करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, तुम्हारी अगुआई करेगा, और तुम्हें मार्गदर्शन देगा। तुम्हें किसी नेत्रहीन की तरह अँधेरे में अपना रास्ता नहीं टटोलना पड़ेगा, और तुम बस परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते रह सकते हो। क्या यह कहीं ज्यादा आसान नहीं है? तुम्हें फिर कभी बिना सोचे-समझे कार्य करते रहने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जैसा परमेश्वर संकेत करे तुम केवल वैसा कर सकते हो। यह सरल और त्वरित है, और इसमें तुम्हें घुमावदार रास्ते नापकर खुद को थका डालने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर ने अपने वचन बहुत स्पष्ट रूप से कहे हैं, इसलिए तुम्हें यह तय करने की चिंता भी नहीं करनी कि तुम्हें कार्य कैसे करना चाहिए। क्या यह बुद्धिमानी नहीं है? क्या तुम अब समझ गए? चलो मैं तुम लोगों को बताता हूँ : सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना परम बुद्धिमानी है। आम लोग इस बात को नहीं समझते। सभी लोग सोचते हैं कि सभाओं में ज्यादा जाने, ज्यादा उपदेश सुनने, भाई-बहनों के साथ ज्यादा संगति करने, ज्यादा त्याग करने, ज्यादा कष्ट उठाने और ज्यादा कीमत चुकाने से उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति और उद्धार मिल जाएगा। उन्हें लगता है कि इस तरह से अभ्यास करना सबसे बड़ी समझदारी है, पर वे सबसे महत्वपूर्ण चीज को अनदेखा कर देते हैं : परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना। वे तुच्छ मानवीय चालाकी को बुद्धिमानी समझते हैं और उस अंतिम प्रभाव की अनदेखी कर देते हैं जो उनके क्रियाकलापों से पड़ना चाहिए। यह एक भूल है। चाहे कोई कितना भी सत्य समझता हो या उसने कितने ही कर्तव्य निभाए हों, उन कर्तव्यों को निभाते समय उसने कितने ही अनुभव किये हों, उसका आध्यात्मिक कद कितना ही बड़ा या छोटा हो या वो किसी भी परिवेश में हो, लेकिन अपने हर काम में परमेश्वर की तरफ देखे बिना और उस पर भरोसा किए बिना उसका काम नहीं चल सकता। यही सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि है। मैं इसे सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि क्यों कहता हूँ? किसी ने कुछ सत्य समझ भी लिए हों तो क्या परमेश्वर पर भरोसा किए बिना काम चल सकता है? कुछ लोग बहुत वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं और उन्होंने बहुत-से परीक्षणों का अनुभव किया है, उनके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव है, थोड़ा-बहुत सत्य समझते हैं, और सत्य का थोड़ा व्यावहारिक ज्ञान है, लेकिन वे नहीं जानते कि परमेश्वर पर भरोसा कैसे करना है और वे यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर की तरफ देखकर उस पर भरोसा कैसे करना है। क्या ऐसे लोगों में बुद्धि होती है? ऐसे लोग सबसे ज्यादा मूर्ख होते हैं, और खुद को चतुर समझते हैं; वे परमेश्वर का भय नहीं मानते और बुराई से दूर नहीं रहते। कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई सत्य समझता हूँ और मेरे पास सत्य वास्तविकताएँ हैं। बस सिद्धांतसम्मत तरीके से काम करना ठीक है। मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ और मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के करीब कैसे जाना है। क्या इतना पर्याप्त नहीं है कि जब मेरे साथ चीजें घटित होती हैं तो मैं सत्य का अभ्यास करता हूँ? परमेश्वर से प्रार्थना करने या परमेश्वर की तरफ देखने की कोई जरूरत नहीं है।” सत्य का अभ्यास करना सही है, लेकिन कई मौके और स्थितियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें लोगों को पता नहीं चलता कि सत्य क्या है, या इस मामले में कौन-से सत्य सिद्धांत लागू होते हैं। व्यावहारिक अनुभव वाले लोग यह जानते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आए, तो शायद तुम्हें यह पता न हो कि इस मुद्दे से कौन-सा सत्य जुड़ा हुआ है, या इस मुद्दे से जुड़े सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए या इसे कैसे लागू करना चाहिए। तुम्हें ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए? चाहे तुम्हें कितना भी व्यावहारिक अनुभव हो, तुम सभी स्थितियों में सत्य सिद्धांतों को नहीं समझ सकते। चाहे तुमने कितने ही लंबे समय तक परमेश्वर पर विश्वास किया हो, चाहे तुमने कितनी ही चीजों का अनुभव किया हो, चाहे तुम कितनी ही काट-छाँट और अनुशासन से गुज़रे हो, अगर तुम सत्य को समझते भी हो तो भी क्या यह कहने का साहस कर सकते हो कि तुम ही सत्य हो? क्या तुम यह कहने का साहस कर सकते हो कि तुम सत्य के स्रोत हो? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे वचन देह में प्रकट होता है पुस्तक के सभी जाने-माने कथन और अंश याद हैं। मुझे परमेश्वर पर भरोसा करने या परमेश्वर की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। जब समय आएगा, मैं परमेश्वर के इन वचनों पर ही भरोसा करके आराम से काम चला लूँगा।” जिन वचनों को तुमने याद किया है, वे गतिहीन हैं, लेकिन जिन परिवेशों और अवस्थाओं का तुम सामना करते हो, वे गतिशील हैं। तुम शब्द और धर्म-सिद्धांत के शब्द उगल सकते हो, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटता है तो तुम उनके साथ कुछ नहीं कर सकते, जिससे साबित होता है कि तुम सत्य को नहीं समझते। तुम शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने में भले ही कितने ही माहिर क्यों न हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य को समझते हो, सत्य के अभ्यास में सक्षम होना तो दूर की बात है। इस तरह, यहाँ सीखने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण सबक है। और यह सबक क्या है? वो यह है कि लोगों को सभी बातों में परमेश्वर की ओर देखने की जरूरत है और ऐसा करके, लोग परमेश्वर पर भरोसा हासिल कर सकते हैं। परमेश्वर पर भरोसा रखने से ही लोगों को अनुसरण का मार्ग और पवित्र आत्मा का कार्य मिलेगा। अन्यथा, तुम सही तरीके से और सत्य का उल्लंघन किए बिना कोई काम कर तो सकते हो, लेकिन यदि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो, तो तुम जो भी करोगे वह सिर्फ मनुष्य का सद्कर्म होगा, और यह परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकता। चूँकि लोगों को सत्य की इतनी उथली समझ होती है, इसलिए संभव है कि वे विनियमों का पालन करें और विभिन्न परिस्थितियों का सामना होने पर एक ही सत्य का उपयोग करते हुए शब्द और धर्म-सिद्धांतों से हठपूर्वक चिपके रहें। यह मुमकिन है कि वे कई मामलों को आम तौर पर सत्य सिद्धांतों के अनुरूप पूरा कर लें, लेकिन उसमें परमेश्वर के मार्गदर्शन को या पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं देखा जा सकता है। यहाँ पर एक गंभीर समस्या है, वो यह है कि लोग अपने अनुभव और उन्होंने जो विनियम समझे हैं उन पर, और कुछ मानवीय कल्पनाओं पर निर्भर रहकर बहुत से काम करते हैं। परमेश्वर से सच्ची प्रार्थना हासिल करना और जो कुछ भी वे करते हैं उसमें सचमुच परमेश्वर की ओर देखना और उस पर भरोसा करना मुश्किल है। अगर कोई परमेश्वर के इरादों को समझता भी है, तो भी परमेश्वर के मार्गदर्शन और सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करने का प्रभाव हासिल करना मुश्किल है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सबसे बड़ी बुद्धिमानी परमेश्वर की तरफ देखना और सभी बातों में परमेश्वर पर भरोसा करना है।
लोग सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखने और परमेश्वर पर निर्भर रहने का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं, “मैं कमउम्र हूँ, मेरा आध्यात्मिक कद छोटा है, और मुझे परमेश्वर में विश्वास करते थोड़ा ही समय हुआ है। मुझे नहीं पता कि कुछ घटने पर परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने का अभ्यास कैसे करें।” क्या यह एक समस्या है? परमेश्वर में विश्वास करने में बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं, और तुम्हें बहुत-से क्लेशों, परीक्षणों और पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है। इन कठिन घड़ियों को झेल पाने के लिए परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने की जरूरत पड़ती है। अगर तुम परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने का अभ्यास नहीं कर सकते, तो तुम कठिनाइयाँ झेल नहीं पाओगे, और परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर पाओगे। परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना कोई खोखला धर्म-सिद्धांत नहीं है, न ही यह परमेश्वर में विश्वास करने का मंत्र है। बल्कि यह एक मुख्य सत्य है, ऐसा सत्य जो परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए तुम्हारे पास होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “तभी परमेश्वर की तरफ देखना और उस पर निर्भर रहना चाहिए जब कोई बड़ी घटना हो जाती है। उदाहरण के लिए, जब तुम क्लेशों, परीक्षणों, गिरफ्तारी और अत्याचार का सामना करते हो, या जब तुम अपने कर्तव्यों में कठिनाइयों का सामना करते हो, या जब तुम्हारी काट-छाँट होती है। व्यक्तिगत जीवन के छोटे-मोटे और मामूली मामलों के लिए परमेश्वर की तरफ देखने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि परमेश्वर उनकी परवाह नहीं करता।” क्या यह वक्तव्य सही है? यह कतई सही नहीं है। यहाँ एक भटकाव है। बड़े मामलों में परमेश्वर की तरफ देखना जरूरी है, लेकिन क्या तुम जीवन के मामूली और छोटे मामलों को बिना सिद्धांतों के संभाल सकते हो? पहनावे और खानपान के मामलों में क्या तुम सिद्धांतों के बिना चल सकते हो? बिल्कुल नहीं। और लोगों और मसलों से निपटने के मामले में? बिल्कुल नहीं। रोजाना की जिंदगी और मामूली मामलों में भी तुम्हारे पास मनुष्य के समान जी सकने के सिद्धांत होने चाहिए। सिद्धांतों से जुड़ी समस्याएँ सत्य से जुड़ी समस्याएँ होती हैं। क्या लोग इन्हें अपने आप हल कर सकते हैं? निश्चित ही नहीं। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर की तरफ देखना होगा और उस पर निर्भर रहना होगा। परमेश्वर की प्रबुद्धता और सत्य की समझ हासिल करने के बाद ही ये मामूली मामले सुलझाए जा सकते हैं। अगर तुम परमेश्वर की तरफ नहीं देखते और उस पर निर्भर नहीं रहते तो क्या तुम लोग समझते हो कि सिद्धांतों से जुड़े ये मामले सुलझाए जा सकते हैं? आसानी से तो बिल्कुल नहीं। यह कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जिन्हें लोग साफ-साफ नहीं समझते, उन्हें सत्य को तलाशने की जरूरत होती है, उन्हें परमेश्वर की तरफ देखना चाहिए और उस पर निर्भर रहना चाहिए। मामला चाहे कितना भी बड़ा या छोटा हो, जिस भी समस्या को सत्य से सुलझाना होता है, उसमें परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर निर्भर रहने की जरूरत होती है। यह एक अनिवार्यता है। अगर लोग सत्य समझते भी हों, और खुद ही समस्याएँ सुलझा सकते हों, तो भी यह समझ और ये समाधान बहुत सीमित और सतही होते हैं। अगर लोग परमेश्वर की तरफ न देखें और उस पर निर्भर न करें तो उनका प्रवेश कभी भी अधिक गहरा नहीं होगा। उदाहरण के लिए, अगर तुम आज बीमार हो और इससे तुम्हारे कर्तव्य के निर्वाह पर असर पड़ता है, तो तुम्हें जरूरत है कि इस मामले में प्रार्थना करके यह कहो, “परमेश्वर, मैं आज ठीक महसूस नहीं कर रहा, मैं खा नहीं पा रहा और इससे मेरे कर्तव्य के निर्वाह पर असर पड़ रहा है। मुझे अपनी जाँच करनी है। मेरे बीमार होने का असली कारण क्या है? क्या अपने कर्तव्य में वफादार न होने के कारण परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा है? परमेश्वर, मैं तुमसे मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाने की विनती करता हूँ।” तुम्हें इसी तरह पुकारना चाहिए। यह परमेश्वर की तरफ देखना हुआ। पर जब तुम परमेश्वर की तरफ देखते हो तो तुम औपचारिकताओं और विनियमों के चक्कर में नहीं पड़ सकते। अगर तुम समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य को नहीं खोजते, तो तुम काम में देर करोगे। परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसकी ओर देखने के बाद भी तुम्हें अपना जीवन, अपना कर्तव्य निभाने में देरी किए बिना, वैसे ही जीना चाहिए, जैसे कि तुमसे अपेक्षित है। अगर तुम बीमार हो तो तुम्हें डॉक्टर के पास जाना चाहिए, जो कि उचित है। साथ ही, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए, और समस्या को सुलझाने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। इस तरह अभ्यास करना ही पूरी तरह उपयुक्त है। कुछ चीजों के लिए, अगर लोगों को उन्हें ठीक-से करना आता है, तो उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। लोगों को इसी तरह सहयोग करना चाहिए। पर क्या इन मामलों में इच्छित प्रभाव और लक्ष्य को पूरी तरह हासिल किया जा सकता है, यह परमेश्वर की तरफ देखने और उस पर भरोसा करने पर निर्भर करता है। जिन समस्याओं को लोग साफ-साफ समझ नहीं पाते और उनसे अच्छी तरह निपट नहीं पाते, उनके समाधान के लिए उनका परमेश्वर की तरफ देखना और सत्य की खोज करना और भी जरूरी है। सामान्य मानवता वाले हर इंसान में ऐसा कर पाने की क्षमता होनी चाहिए। परमेश्वर की तरफ देखने में कई सबक सीखने होते हैं। परमेश्वर की तरफ देखने की प्रक्रिया में तुम पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हो, और तुम्हें एक रास्ता मिलेगा, या अगर परमेश्वर के वचन तुम पर आते हैं तो तुम सहयोग करना जान जाओगे, या शायद परमेश्वर तुम्हारे लिए कुछ सबक सीखने की स्थितियाँ आयोजित करे, जिसके पीछे परमेश्वर की सद्भावना होगी। परमेश्वर की तरफ देखने की प्रक्रिया में तुम्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन और अगुआई दिखाई देगी, और इनसे तुम कई सबक सीख सकोगे और परमेश्वर की बेहतर समझ हासिल कर सकोगे। परमेश्वर की तरफ देखने का यह प्रभाव होता है। इसलिए, परमेश्वर की तरफ देखना एक ऐसा सबक है जिसे परमेश्वर के अनुयायियों को अवश्य सीखना चाहिए, और यह एक ऐसी चीज है जिसे वे जीवन भर अनुभव करते रहेंगे। बहुत-से लोगों को बहुत सतही अनुभव होता है और वे परमेश्वर के क्रियाकलाप नहीं देख पाते, इसलिए वे सोचते हैं, “बहुत-सी ऐसी छोटी-छोटी चीजें हैं जो मैं खुद कर सकता हूँ, इसके लिए मुझे परमेश्वर की तरफ देखने की जरूरत नहीं है।” यह गलत है। कुछ छोटी चीजें बड़ी चीजों की तरफ ले जाती हैं, और कुछ छोटी चीजों में परमेश्वर के इरादे छिपे होते हैं। बहुत-से लोग छोटी चीजों की अवहेलना करते हैं, और परिणामस्वरूप वे छोटे मामलों के कारण बड़ी विफलताओं के शिकार हो जाते हैं। जिनके पास छोटे-बड़े सभी मामलों में सचमुच परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, वे परमेश्वर की तरफ देखेंगे, परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, सब कुछ परमेश्वर को सौंप देंगे और फिर देखेंगे कि कैसे परमेश्वर उनकी अगुआई और मार्गदर्शन करता है। एक बार जब तुम्हें ऐसा अनुभव हो जाता है तो तुम सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखने में सक्षम हो जाओगे, और तुम्हें इसका जितना ज्यादा अनुभव होगा, उतना ही तुम्हें सभी चीजों में परमेश्वर की तरफ देखना अत्यंत व्यावहारिक लगेगा। जब तुम किसी मामले में परमेश्वर की तरफ देखते हो, तो संभव है कि परमेश्वर तुम्हें कोई एहसास न करवाए, कोई स्पष्ट अर्थ न दे, और स्पष्ट निर्देश तो बिल्कुल ही न दे, पर वह तुम्हें मामले की सटीक प्रासंगिकता के साथ एक विचार समझाएगा, और यह परमेश्वर का एक अलग तरीके से तुम्हारा मार्गदर्शन करना और तुम्हें एक रास्ता देना है। अगर तुम इसका बोध कर सके, इसे समझ सके, तो तुम्हें लाभ होगा। हो सकता है तुम उस क्षण कुछ भी न समझ पाओ, पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करते और उसकी तरफ देखते रहना चाहिए। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, और देर-सवेर तुम्हें प्रबुद्धता प्राप्त होगी। इस तरह अभ्यास करने का मतलब विनियमों का पालन करना नहीं है। इसके बजाय, यह आत्मा की जरूरत को पूरा करना है, और लोगों को इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। हो सकता है कि परमेश्वर की तरफ देखने और प्रार्थना करने के बाद तुम्हें हर बार प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त न हो, पर लोगों को इसी तरह अभ्यास करते रहना चाहिए, और अगर वे सत्य को समझना चाहते हैं तो उन्हें इसी तरह अभ्यास करने की जरूरत है। यह जीवन और आत्मा की सामान्य अवस्था है, और सिर्फ इसी तरीके से लोग परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बना सकते हैं, ताकि उनके दिल परमेश्वर के नजदीक हों। इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर की तरफ देखना, दिल में परमेश्वर के साथ सामान्य बातचीत है। भले ही तुम परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त कर सको या नहीं, तुम्हें सभी चीजों में परमेश्वर से प्रार्थना करना और उसकी तरफ देखना चाहिए। परमेश्वर के सामने जीने का आवश्यक मार्ग भी है। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, तो उन्हें हमेशा परमेश्वर की तरफ देखने की मनोस्थिति में होना चाहिए। सामान्य मानवता वाले लोगों की यही मनोस्थिति होनी चाहिए। कभी-कभी, परमेश्वर पर निर्भर होने का मतलब विशिष्ट वचनों का उपयोग करके परमेश्वर से कुछ करने को कहना, या उससे विशिष्ट मार्गदर्शन या सुरक्षा माँगना नहीं होता है। बल्कि, इसका मतलब है किसी समस्या का सामना करने पर, लोगों का उसे ईमानदारी से पुकारने में सक्षम होना। तो, जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं तो वह क्या कर रहा होता है? जब किसी के हृदय में हलचल होती है और वह सोचता है : “हे परमेश्वर, मैं यह खुद नहीं कर सकता, मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मैं कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करता हूँ...,” जब उनके मन में यह विचार आता है, तो क्या परमेश्वर इसके बारे में जानता है? जब यह विचार लोगों के मन में उठता है, तो क्या उनके हृदय ईमानदार होते हैं? जब वे इस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर को पुकारते हैं, तो क्या परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है? इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है कि उन्होंने एक वचन भी नहीं बोला हो, वे ईमानदारी दिखाते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है। जब कोई विशेष रूप से कष्टमय कठिनाई का सामना करता है, जब ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो सहायता मांग सके, और जब वह विशेष रूप से असहाय महसूस करता है, तो वह परमेश्वर में अपनी एकमात्र आशा रखता है। ऐसे लोगों की प्रार्थनाएँ किस तरह की होती हैं? उनकी मनःस्थिति क्या होती है? क्या वे ईमानदार होते हैं? क्या उस समय कोई मिलावट होती है? केवल तभी तुम्हारा हृदय ईमानदार होता है, जब तुम परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करते हो मानो कि वह अंतिम तिनका है जिसे तुमने कसकर पकड़ रखा है और यह उम्मीद करते हो कि वह तुम्हारी मदद करेगा। यद्यपि तुमने ज्यादा कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन तुम्हारा हृदय पहले से ही द्रवित है। अर्थात्, तुम परमेश्वर को अपना ईमानदार हृदय देते हो, और परमेश्वर सुनता है। जब परमेश्वर सुनता है, तो वह तुम्हारी कठिनाइयों को देखता है, और वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हारी सहायता करेगा। मनुष्य का हृदय कब सबसे ईमानदार होता है? मनुष्य का हृदय तब सबसे ज्यादा ईमानदार होता है जब कोई रास्ता न होने पर वह परमेश्वर की तरफ देखता है। परमेश्वर की तरफ देखने के लिए तुम्हारे पास जो सबसे महत्वपूर्ण चीज होनी चाहिए, वह है एक ईमानदार दिल। तुम्हें ऐसी अवस्था में होना चाहिए जहाँ तुम्हें सचमुच परमेश्वर की जरूरत हो। अर्थात, लोगों के दिल कम-से-कम ईमानदार तो होने चाहिए, न कि अनमने; उन्हें सिर्फ अपने मुँह ही नहीं हिलाने चाहिए, बल्कि उनका दिल भी प्रेरित होना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर से बात करते हुए सिर्फ खानापूर्ति करते हो, पर तुम्हारा दिल भाव-विह्वल नहीं होता, तो तुम्हारा अभिप्राय होता है कि “मैंने पहले ही अपनी योजनाएँ बना ली हैं, परमेश्वर, मैं बस तुम्हें सूचित कर रहा हूँ। भले ही तुम सहमत हो या नहीं, मैं उन्हीं के अनुसार चलूँगा। मैं सिर्फ खानापूर्ति कर रहा हूँ,” तो यह परेशानी की बात है। तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो, उसके साथ खेल कर रहे हो, और यह परमेश्वर के प्रति अनादर की अभिव्यक्ति भी है। इसके बाद परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करेगा? परमेश्वर तुम्हारी तरफ ध्यान नहीं देगा और तुम्हें एक तरफ रख देगा, और तुम पूरी तरह शर्मिंदा होकर रह जाओगे। अगर तुम सक्रियता से परमेश्वर को नहीं खोजते हो, और सत्य में प्रयास नहीं करते हो, तो तुम्हें निकाल दिया जाएगा।
परमेश्वर में विश्वास करने वाले ज्यादातर लोग इस स्थिति में होते हैं। वे अधिकांश समय विचारों से रहित, अचेतन स्थिति में जीते हैं, और जब सामान्य से हटकर कुछ घटित नहीं होता, जब वे किसी बड़ी परेशानी में नहीं घिरते, वे परमेश्वर से प्रार्थना करना या उस पर भरोसा करना नहीं जानते हैं; आम समस्याएँ सामने आने पर वे सत्य की खोज नहीं करते, बल्कि अपने ही ज्ञान, सिद्धांतों और रुझानों के अनुसार जीते हैं। वे बखूबी जानते हैं कि परमेश्वर पर भरोसा करना असली चीज है, लेकिन अधिकांश समय वे स्वयं पर और अपने आसपास की लाभकारी स्थितियों और वातावरण पर, और साथ ही अपने लिए लाभदायक किन्हीं भी लोगों, घटनाओं, और चीजों पर भरोसा करते हैं। बस इसी में लोग सबसे निपुण होते हैं। जिसमें वे सबसे निकृष्ट हैं, वह है परमेश्वर पर भरोसा करना और उसकी ओर देखना, क्योंकि उन्हें लगता है कि परमेश्वर की ओर देखना बहुत जहमत मोल लेना है, कि वे परमेश्वर से चाहे जैसे प्रार्थना कर लें, फिर भी उन्हें न तो प्रबोधन और प्रकाश मिलेगा, न ही त्वरित उत्तर; लिहाजा वे परेशानी से बचने और समस्या हल करने के लिए कोई व्यक्ति तलाशने की सोचते हैं। इस प्रकार, अपनी शिक्षाओं के इस पहलू में, लोग सबसे निकृष्ट प्रदर्शन करते हैं, और इसमें उनका प्रवेश सबसे उथला होता है। अगर तुम परमेश्वर की ओर देखना और उस पर भरोसा करना नहीं सीखते, तो तुम अपने भीतर परमेश्वर के कार्य को तुम्हारा मार्गदर्शन, या तुम्हारा प्रबोधन करते कभी नहीं देख पाओगे। अगर तुम इन चीजों को नहीं देख सकते, तो ऐसे प्रश्न कि “परमेश्वर विद्यमान है या नहीं और वह मानवजाति के जीवन में हर चीज का मार्गदर्शन करता है या नहीं,” तुम्हारे हृदय की गहराइयों में, विराम चिह्न या विस्मयादिबोधक चिह्न की बजाय प्रश्नवाचक चिह्न के साथ समाप्त होंगे। “क्या परमेश्वर मानवजाति के जीवन में हर चीज का मार्गदर्शन करता है?” “क्या परमेश्वर मनुष्य के हृदय की गहराइयों की पड़ताल करता है?” अगर तुम ऐसा सोचते हो तो तुम मुसीबत में हो। क्या कारण है कि तुम इन बातों को प्रश्नों में बदल देते हो? अगर तुम सच में परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो या उसकी ओर नहीं देखते हो, तो तुम उसमें अपनी सच्ची आस्था उत्पन्न नहीं कर पाओगे। अगर तुम उसमें सच्ची आस्था को उत्पन्न नहीं कर पाते हो, तो तुम परमेश्वर जो भी करता है उस पर हमेशा प्रश्नवाचक चिह्न ही लगाओगे, कभी कोई विराम चिह्न नहीं लगाओगे। जब तुम लोग व्यस्त न हो तो खुद से पूछो : “‘मेरा मानना है कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है’—क्या इसके पीछे प्रश्नवाचक चिह्न, पूर्ण विराम या विस्मयादिबोधक चिह्न लगाना है?” जब तुम इस पर विचार करोगे, तो कुछ समय के लिए तुम ठीक-ठीक यह नहीं कह पाओगे कि तुम किस स्थिति में हो। जब तुम कुछ अनुभव प्राप्त कर लोगे तो तुम चीजों को स्पष्ट रूप से देख सकोगे और निश्चित होकर कहोगे : “परमेश्वर वास्तव में सभी चीजों का संप्रभु है!!!” इसके पीछे तीन विस्मयादिबोधक चिह्न लगेंगे, ऐसा इसलिए क्योंकि तुम्हें वास्तव में परमेश्वर की संप्रभुता का ज्ञान है, इसमें कोई संदेह नहीं रहा। तुम लोग इनमें से किस स्थिति में हो? तुम लोगों की वर्तमान स्थितियों और आध्यात्मिक कद को देखते हुए यह स्पष्ट है कि ज्यादातर प्रश्न चिह्न लगे हैं, और ये काफी सारे हैं। इससे यही दिखता है कि तुम लोग एक भी सत्य को नहीं समझते, और यह भी कि तुम्हारे दिल में अभी भी संदेह हैं। जब लोगों को परमेश्वर के बारे में बहुत सारे संदेह होते हैं तो वे पहले ही खतरे की कगार पर होते हैं। वे किसी भी समय नीचे गिरकर परमेश्वर को दगा दे सकते हैं। और मैं क्यों कहता हूँ कि लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा होता है? किसी व्यक्ति का आध्यात्मिक कद किस आधार पर तय होता है? यह इस बात से तय किया जाता है कि तुम्हें परमेश्वर पर कितना सच्चा विश्वास है और तुम्हारे पास कितना वास्तविक ज्ञान है। और तुम लोगों के पास कितना है? क्या तुमने पहले कभी इन बातों की जाँच की है? ऐसे बहुत से युवा हैं जो अपने माता-पिता के माध्यम से परमेश्वर में विश्वास करने लगे हैं। परमेश्वर में विश्वास के बारे में उन्होंने अपने माता-पिता से कुछ धर्म-सिद्धांत सीख लिए हैं, और वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना एक अच्छी बात है, कि यह सकारात्मक बात है, लेकिन उन्हें अभी भी उन सत्यों को वास्तव में समझना या अनुभव करना और सत्यापित करना है जो परमेश्वर में विश्वास करने वालों को समझने चाहिए। इसलिए, उनके पास बहुत सारे प्रश्न चिह्न और धारणाएँ हैं। उनके मुँह से निकलने वाले अधिकांश शब्द सकारात्मक या विस्मयादिबोधक नहीं हैं, वे प्रश्न होते हैं। इसका कारण यह है कि उनमें बहुत सी कमियाँ हैं, और वे चीजों को अच्छी तरह नहीं देख सकते, और यह कहना मुश्किल है कि क्या वे दृढ़ रह पाएँगे। तुम लोगों के लिए उम्र के 20 और 30 के दशक में कई प्रश्न चिह्न होना सामान्य बात है, लेकिन कुछ समय तक अपना कर्तव्य निभा चुकने के बाद तुम लोग इनमें से कितने प्रश्न चिह्नों से छुटकारा पा सकोगे? क्या तुम इन प्रश्न चिह्नों को विस्मयादिबोधक चिह्नों में बदल पाओगे? यह तुम लोगों के अनुभव पर निर्भर करेगा। यह महत्वपूर्ण है या नहीं? (यह महत्वपूर्ण है।) यह बहुत ही महत्वपूर्ण है! मैंने अभी जो कहा क्या वह सबसे बड़ी बुद्धिमानी है? (परमेश्वर की ओर देखना और सभी बातों में उस पर भरोसा करना।) यह सुनकर कुछ लोग कहते हैं : “यह बहुत ही सरल और सामान्य उत्तर है। यह एक घिसी-पिटी कहावत है, और आजकल इसे कोई नहीं कहता।” परमेश्वर की ओर देखना अभ्यास का एक जाहिर तरीका लग सकता है, लेकिन यह एक ऐसा सबक है जिसका अध्ययन परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी को अपने जीवनकाल में करना चाहिए और इसमें प्रवेश करना चाहिए। क्या अय्यूब ने परमेश्वर की ओर तब देखा जब वह 70 वर्ष की उम्र पार कर चुका था? (हाँ।) और उसने परमेश्वर की ओर कैसे देखा? परमेश्वर की ओर देखने की उसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या थीं? जब अय्यूब की संपत्ति और उसके बच्चे उससे ले लिए गए, तो उसने परमेश्वर की ओर किस दृष्टि से देखा? उसने मन ही मन प्रार्थना की, और उसने बाहरी तौर पर कुछ किया, तो फिर उसके विषय में बाइबल में क्या लिखा है? (“तब अय्यूब ... बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् किया” (अय्यूब 1:20)।) वह भूमि पर गिर गया और दण्डवत् किया। यह परमेश्वर की ओर देखने की अभिव्यक्ति है! यह अविश्वसनीय धर्मनिष्ठा थी। क्या यह कुछ ऐसा है जो तुम लोग कर सकते हो? (हम अभी तक ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं।) तो क्या तुम लोग ऐसा करने के इच्छुक हो? (हाँ।) यदि कोई अय्यूब के स्तर तक उठ सकता है, परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह सकता है, और एक निष्कलंक व्यक्ति बन सकता है, तो वह पूर्ण होता है! लेकिन अपना कर्तव्य करने के दौरान तुम लोगों में कठिनाई सहने की इच्छा होनी चाहिए। तुम्हें सत्य के लिए प्रयास करते रहना चाहिए। जब तुम सत्य को समझकर सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभालने लगोगे, तो परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर चुके होगे। तुम लोगों को बस इसे ही याद रखना है।
1 जनवरी 2015
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