परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी प्रकृति है (भाग दो)
किसी समय मैं कलीसियाओं में घूमता था, सभी प्रकार के मेजबान परिवारों और सभी प्रकार के परमेश्वर के विश्वासियों को देखता था। अब मैं अधिक लोगों के संपर्क में आने को क्यों तैयार नहीं हूँ? लोग बहुत बुरे हैं, उनमें से अधिकांश के पास न तो जमीर है और न ही विवेक, उनके पास परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, और वे हमेशा परमेश्वर के इर्द-गिर्द षड्यंत्र रचते रहते हैं, इसलिए मैं लोगों से दूर रहना चुनता हूँ, और बस वह कार्य करता हूँ जो मुझे करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “क्या परमेश्वर इंसानों के बीच नहीं रहता है?” मैं इंसानों के बीच रहता हूँ, इसमें कोई गलती नहीं है, लेकिन मैं दुष्टों के बीच नहीं रह सकता, यह बहुत खतरनाक है। यह तब ठीक होता यदि मेरे पास आध्यात्मिक शरीर होता, तब मैं लोगों के बीच कुछ भी कर सकता था—यीशु जैसा आध्यात्मिक शरीर ठीक रहता, वह जैसा चाहे वैसा कार्य कर सकता था, और लोग उत्पीड़न करने का साहस नहीं करते—लेकिन मेरे पास एक सामान्य देह है, एक विशेष रूप से सामान्य देह, जिसमें कुछ भी अलौकिक नहीं है, इसलिए लोग इसे स्वीकार नहीं कर सकते; उनके मन में हमेशा धारणाएँ होती हैं और वे परमेश्वर की जाँच करना चाहते हैं। यदि इस प्रकार के स्वभाव वाले व्यक्ति को थोड़ा अनुशासित और दंडित किया जाए, उसे महीने भर का सिरदर्द दिया जाए, तो क्या तुम्हें लगता है कि यह उपयोगी होगा? यह व्यर्थ होगा। वह उस महीने भर के सिरदर्द के बाद उठ खड़ा होगा और अपना गुस्सा निकालने लगेगा। क्या तुम लोगों को लगता है कि केवल अनुशासन ही परिवर्तन ला सकता है? नहीं ला सकता है। इसलिए, ऐसे कई लोग हैं जिनसे मैं अतीत में संपर्क में आया हूँ, लेकिन उनमें से बहुत कम लोग सत्य से प्रेम करते हैं। मैं तुम लोगों से केवल यही कह सकता हूँ कि लोगों को परमेश्वर से कुछ पाने के लिए ही उसमें विश्वास नहीं रखना चाहिए। तुम्हें बस अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और अपनी सारी ऊर्जा का उपयोग करने पर ध्यान देना चाहिए। यदि तुम्हारी काबिलियत बहुत कम है, उपयोग के लिए अनुपयुक्त है, तो तुम्हें शीघ्रता से पद छोड़ देना चाहिए। तुम्हें आज्ञाकारी और अच्छे व्यवहार वाला होना चाहिए, वही करो जो तुम्हें करना चाहिए, वह मत करो जो तुम्हें नहीं करना चाहिए और तुम्हें तर्कसंगत होना चाहिए। तुम एक इंसान हो। यदि परमेश्वर ने तुम्हें साँसें, जीवन और ऊर्जा नहीं दी होती तो तुम कुछ भी करने में सक्षम नहीं होते। लोगों को कुछ भी नहीं माँगना चाहिए, न ही योग्यताओं की तुलना करनी चाहिए; योग्यताएँ होना तुम्हारे लिए व्यर्थ है! यदि कोई कलीसिया तुम्हें अपना अगुआ बनाता है, तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, और यदि किसी और को अगुआ बनाया जाता है, तो वह उसकी जिम्मेदारी है। बेशक, जहाँ तक काम का सवाल है, तुम्हें संगति करनी चाहिए, लेकिन तुम्हें यह सोचते हुए योग्यताओं की तुलना नहीं करनी चाहिए : “मैं उस कलीसिया में लंबे समय से योग्य रहा हूँ, उन्हें मेरा सम्मान करना चाहिए। मैं सबसे बड़ा हूँ, तुम दूसरे नंबर पर हो।” ऐसी बात मत कहो, यह बहुत अविवेकपूर्ण है। कुछ लोग यह भी कहते हैं : “मैंने परमेश्वर हेतु खुद को खपाने के लिए अपने काम को त्याग दिया है, मैंने अपने परिवार को त्याग दिया है, और मुझे मिला क्या है? मुझे कुछ भी नहीं मिला है, और परमेश्वर अभी भी लोगों को फटकारता है।” तुम इन बातों के बारे में क्या सोचते हो? लोगों को सही स्थिति में रहकर सबसे पहले इस तथ्य के संबंध में स्पष्ट होना चाहिए कि वे इंसान हैं, वे अभी भी भ्रष्ट मानवजाति हैं। यदि तुम्हें अगुआ बनाया गया है, तो अगुआ बनो; यदि तुम्हें अगुआ नहीं बनाया गया है, तो एक साधारण अनुयायी बनो; यदि तुम्हें करने के लिए काम दिया गया है, तो तुम्हारे पास कुछ करने का अवसर है; यदि तुम्हें करने के लिए काम नहीं दिया गया है तो तुम कुछ नहीं कर सकते। शेखी मत बघारो—शेखी बघारना एक बुरा चिह्न है, जो साबित करता है कि तुम चरम सीमा की ओर, मृत्यु की ओर बढ़ रहे हो। यह कहकर शेखी मत बघारो : “मैंने कहीं लोगों का एक समूह प्राप्त कर लिया है, वे मेरे फल हैं। अगर मैं नहीं गया होता तो कोई और ऐसा नहीं कर पाता। जब मैं गया, तो पवित्र आत्मा ने महान कार्य किया!” इस तरह से शेखी मत बघारो। इसके बजाय, तुम्हें कहना चाहिए : “इन लोगों को प्राप्त करना पवित्र आत्मा के कार्य करने का परिणाम था, कोई इंसान थोड़ा-सा ही काम कर सकता है। यदि हम सुसमाचार का प्रचार करना समाप्त कर लें और परमेश्वर हमें घर वापस भेज दे, तो हम घर चले जाएँगे।” यह मत कहो : “मैंने ऐसा क्या गलत किया है जिसके कारण तुम्हें मुझे घर भेजना पड़ा? यदि तुम कारण नहीं बता सकते, तो मैं घर नहीं जाऊँगा!” यह अपेक्षा मत रखो। यदि तुम्हारी यह अपेक्षा है, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारा स्वभाव विशेष रूप से अहंकारी है। यदि तुमने कोई गलती नहीं की है, तो क्या तुम्हें घर नहीं भेजा जा सकता? यदि तुम सही ढंग से कार्य करते हो, तो क्या तुम्हें घर नहीं भेजा जा सकता? भले ही तुम सही ढंग से कार्य करो और अच्छे से कार्य करो, फिर भी तुम्हें घर भेजा जाए, तो तुम्हें घर लौटना चाहिए। यदि तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, तो तुम्हें इसे स्वीकार करते हुए समर्पण करना चाहिए। यह एक दायित्व है, एक जिम्मेदारी है और तुम्हें अपना बचाव नहीं करना चाहिए। अय्यूब परमेश्वर में विश्वास रखता था और केवल उसका भय मानने और बुराई से दूर रहने पर ध्यान लगाता था। अय्यूब ने कुछ नहीं माँगा, और यहोवा ने उसे आशीष दिया। कुछ लोग कहते हैं : “ऐसा इसलिए था कि अय्यूब परमेश्वर के प्रति अच्छा था, इसलिए निस्संदेह परमेश्वर ने उसे आशीष दिया; वह अय्यूब की आस्था और धर्मसंगत कार्यों के बदले में था।” यह गलत है, यह कोई आदान-प्रदान नहीं था, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यहोवा उसे आशीष देना चाहता था। जब यहोवा ने उससे सब-कुछ छीन लिया तो उसने शिकायत क्यों नहीं की? उसने यह क्यों नहीं कहा : “मैं धर्मसंगत कार्य करता हूँ, मैं बहुत योग्य हूँ, इसलिए तुम्हें मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए”? यह करना चाहिए या नहीं करना चाहिए का मामला नहीं है! परमेश्वर में विश्वास की बात आने पर, यदि लोगों के पास हमेशा अपनी ही पसंद हो, और वे हमेशा इंसानी धारणाओं और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करें तो यह सही नहीं होगा। यह इंसानी अहंकार है, इंसानी विद्रोह है। इंसानी पसंद इंसानी मिलावट होती है।
जब तुम लोग अपना अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हो तो क्या तुम जान पाते हो? कुछ लोग अनजान रहते हैं, और वे कहते हैं : “मैं अहंकारी नहीं हूँ, मैंने पहले कभी कुछ भी अहंकारपूर्ण नहीं कहा है।” वास्तव में, भले ही तुम इससे अनजान हो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव अहंकारी है, बस इसका खुलासा नहीं हुआ है। यह तथ्य कि तुमने इसे बाहर प्रकट नहीं किया है, यह साबित नहीं करता कि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी नहीं है; संभव है कि तुम्हारा हृदय किसी और की अपेक्षा अधिक अहंकारी हो, बात सिर्फ इतनी है कि तुम ढोंग करना जानते हो, इसलिए यह प्रकट नहीं होता, लेकिन समझ-बूझ वाले लोग इसे देख पाते हैं। तो, प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव अहंकारी होता है, यह मानवजाति की सामान्य प्रकृति है। अहंकारी प्रकृति के लोग परमेश्वर के प्रति विद्रोह करने, उसका प्रतिरोध करने, ऐसे कार्य करने जिनसे परमेश्वर की आलोचना हो और उसे धोखा देने, और ऐसे काम करने में सक्षम होते हैं जिससे उनका उत्कर्ष हो और जो स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का एक प्रयास हों। मान लो, किसी देश में परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले कई दस हजार लोग हों, और परमेश्वर का घर तुम्हें वहाँ परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई और चरवाही करने के लिए भेजे। और मान लो, परमेश्वर का घर तुम्हें अधिकार सौंप दे और बिना मेरी या किसी और की देखरेख के खुद काम करने की अनुमति दे। कुछ महीनों बाद तुम एक संप्रभु शासक के समान बन जाओगे, सारी शक्ति तुम्हारे हाथों में होगी, तुम्हीं सारे निर्णय लोगे, सभी चुने हुए लोग तुम्हारा आदर करेंगे, तुम्हारी आराधना करेंगे, तुम्हारे प्रति समर्पण करेंगे मानो तुम ही परमेश्वर हो; उनका प्रत्येक शब्द तुम्हारी प्रशंसा में होगा, कहेंगे कि तुम्हारे उपदेशों में अंतर्दृष्टि है, और लगातार इस बात का दावा करेंगे कि उन्हें तुम्हारे कथनों की ही आवश्यकता थी, तुम उनके लिए प्रावधान कर सकते हो और उनकी अगुआई कर सकते हो और उनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। क्या इस तरह का कार्य समस्यात्मक नहीं है? तुमने यह कैसे किया होगा? उन लोगों की ऐसी प्रतिक्रिया से सिद्ध होता है कि तुम जो काम कर रहे थे, उसमें परमेश्वर के लिए गवाही देना शामिल नहीं था; बल्कि इसमें केवल तुम्हारी अपनी गवाही और तुम्हारा अपना दिखावा शामिल था। तुम ऐसा परिणाम कैसे प्राप्त कर पाए? कुछ लोग कहते हैं, “मैं सत्य की संगति करता हूँ; मैंने निश्चित रूप से अपनी गवाही कभी नहीं दी है!” तुम्हारा वही रवैया, वही तरीका, परमेश्वर के स्थान से लोगों के साथ संगति करने के प्रयास जैसा है, न कि एक भ्रष्ट इंसान के स्थान पर स्थित होने जैसा। तुम्हारी हर बात में बड़बोलापन है और तुम लोगों से माँगें करते हो; इसका तुमसे कुछ लेना-देना नहीं। इसलिए, तुम जो परिणाम हासिल करोगे, वो लोगों से अपनी पूजा करवाना और उनकी ईर्ष्या पाना होगा, जब तक कि अंत में वे सभी तुम्हारे प्रति समर्पण नहीं कर देते, तुम्हारी गवाही नहीं दे देते, तुम्हें ऊँचा नहीं उठा देते, तुम्हारी चाटुकारिता कर-करके तुम्हें आसमान पर नहीं बैठा देते। और जब ऐसा होगा तो तुम खत्म हो जाओगे; तुम असफल हो चुके होगे! क्या तुम सभी इस समय इसी रास्ते पर नहीं हो? अगर तुम्हें कुछ हजार या हजारों लोगों की अगुआई करने के लिए कह दिया जाए, तो तुम फूलकर कुप्पा हो जाओगे। तुम्हारे अंदर अहंकार आ जाएगा और तुम परमेश्वर का स्थान हथियाने का प्रयास करने लगोगे, बतियाने और भाव-भंगिमाएँ दिखाने लगोगे तुम्हें पता नहीं होता कि क्या पहनना है, क्या खाना है और कैसे चलना है। तुम जीवन की सुख-सुविधाओं में लिप्त होगे, स्वयं को ऊँचा रखोगे और तुम्हारी सामान्य भाई-बहनों से मिलने की इच्छा नहीं होगी। तुम पूरी तरह से पतित हो जाओगे और तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाएगा, प्रधान दूत की तरह मार गिराए जाओगे। तुम लोग ऐसा करने में सक्षम हो, है न? तो, तुम लोगों को क्या करना चाहिए? अगर किसी दिन तुम लोगों को हर देश में सुसमाचार कार्य के लिए उत्तरदायी बनाने की व्यवस्था कर दी जाए, और तुम मसीह-विरोधी रास्ते पर चल सके, तो कार्य कैसे फैलाया जा सकेगा? क्या समस्या पैदा नहीं हो जाएगी? फिर कौन तुम लोगों को बाहर जाने देने की हिम्मत दिखाएगा? वहाँ भेजे जाने के बाद, तुम कभी नहीं लौटोगे; तुम परमेश्वर की किसी बात पर ध्यान नहीं दोगे, तुम बस दिखावा करते रहोगे और अपनी ही गवाही देते रहोगे, जैसे कि तुम लोगों का उद्धार कर रहे हो, परमेश्वर का कार्य कर रहे हो, लोगों को यह महसूस कराओगे मानो वहाँ परमेश्वर प्रकट होकर कार्य कर रहा हो और जब लोग तुम्हारी पूजा करेंगे तो तुम आनंदित हो जाओगे, और जब लोग तुम्हें परमेश्वर का दर्जा देंगे, तो उसमें तुम्हारी मौन स्वीकृति होगी। उस अवस्था में पहुँचने पर तुम खत्म हो जाओगे; तुम्हें रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाएगा। तुम्हारी अहंकारी प्रकृति ने कब तुम्हारा विनाश कर दिया, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति का उदाहरण है। जो लोग इस मुकाम पर पहुँच गए हैं, उन्होंने सारी जागरूकता खो दी है, उनका जमीर और विवेक अब कोई काम नहीं करते, और वे प्रार्थना करना या खोजना तक नहीं जानते हैं। यह विचार करने के लिए तब तक प्रतीक्षा मत करो : “मुझे खुद पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए, मुझे ईमानदारी से प्रार्थना करनी चाहिए!” तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। तुम्हें इस मामले के बारे में पहले से जानना होगा; तुम्हें यह खोजना होगा : “मुझे अपनी गवाही दिए बिना, परमेश्वर की गवाही देने के लिए, अपना काम अच्छी तरह से करने के लिए कैसा बर्ताव करना चाहिए? दूसरों के साथ संगति करने, उनकी अगुआई करने के लिए मुझे किन तरीकों का उपयोग करना चाहिए?” तुम्हें इस प्रकार तैयारी करनी चाहिए। यदि किसी दिन, वास्तव में तुम लोगों के लिए बाहर जाकर काम करने की व्यवस्था की जाए और तुम लोग तब भी खुद को उत्कर्षित करने और अपनी ही गवाही देने में सक्षम रहते हो जो कि तुम लोगों के नियंत्रण वाले कई लोगों की बरबादी का कारण बनता है, तो तुम लोग मुसीबत में पड़ जाओगे और बाद में परमेश्वर का दंड भुगतोगे! क्या मेरे लिए यह ठीक है कि मैं ये वचन तुम लोगों से न कहूँ? मेरे यह कहने से पहले, तुम लोग ऐसा करने में सक्षम थे; यदि मेरे कहने के बाद भी तुम लोग ऐसा करने में सक्षम हो, तो क्या तुम मुसीबत में नहीं हो? तुम सभी को सोचना चाहिए कि अपना काम कैसे करना है, सबसे उपयुक्त ढंग से कैसे आचरण करना है। तुम जो कुछ भी कहते और करते हो, तुम्हारा प्रत्येक कार्य और चाल, प्रत्येक शब्द और कार्य, और तुम्हारे हृदय का प्रत्येक इरादा मानक स्तर का होना चाहिए; किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता, और तुम किसी भी कमी का फायदा नहीं उठा सकते। हालाँकि अहंकार मनुष्य की प्रकृति है, और इसे बदलना आसान नहीं है, फिर भी लोगों को अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में जानना और अभ्यास के सिद्धांत रखना दोनों आवश्यक हैं। तुम्हें समझना चाहिए : “अगर मुझे वास्तव में कुछ कलीसिया दिए गए, तो परमेश्वर का पद न लेने के लिए मुझे किस तरह से कार्य करना चाहिए? अहंकारी न होने के लिए मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए? मैं उचित तरीके से कैसे कार्य कर सकता हूँ? लोगों को परमेश्वर के सामने लाने, उसकी गवाही देने के लिए मुझे कैसे कार्य करना चाहिए?” तुम्हें इन मामलों पर तब तक विचार करना चाहिए जब तक ये स्पष्ट न हो जाएँ। मान लो कि कोई पूछे, “क्या तुम कलीसियाओं की अच्छी अगुआई कर सकते हो?” और तुम कहो, “मैं कर सकता हूँ,” लेकिन इसके बजाय तुम लोगों को अपने सामने ले आए—वे तुम्हारे प्रति समर्पण करेंगे, परमेश्वर के प्रति नहीं—क्या यह मुसीबत नहीं होगी? एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में, यदि तुम नहीं जानते कि लोगों को परमेश्वर के सामने लाना या अपने सामने लाना क्या होता है, तो क्या तुम परमेश्वर की सेवा कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के उपयोग के लिए उपयुक्त हो सकते हो? बिल्कुल नहीं। क्या जो लोग अन्य लोगों को अपने सामने लाने में सक्षम हैं वे सभी मसीह-विरोधी नहीं हैं? यदि कोई परमेश्वर में विश्वास रखता है, लेकिन उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, वह उससे भय नहीं मानता, उसके पास परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल नहीं है या उसके प्रति समर्पण करने का संकल्प नहीं है, तो वह व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता है। तो वह वास्तव में किस में विश्वास रखता है? इसका बारीकी से विश्लेषण तुम स्वयं करो। बाद में यह मत कहना : “मैं अहंकारी नहीं हूँ, मैं एक अच्छा इंसान हूँ, मैं केवल अच्छे काम करता हूँ”—ये बातें बहुत बचकानी हैं! बाकी सभी लोग अहंकारी हैं, मगर तुम नहीं हो? इस प्रकार तुम्हें उजागर कर दिया गया है, लेकिन तुम अब भी स्वयं को नहीं जानते, और अभी भी कहते हो कि तुम अहंकारी नहीं हो—तुम बेहद बेशर्म हो! तुम इतने सुन्न हो गए हो कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें कैसे उजागर कर दिया गया है! क्या तुम जानते हो कि मैं किस उद्देश्य से ये वचन कहता हूँ? मैं लोगों को इस प्रकार उजागर क्यों करता हूँ? अगर मैं इस तरह से उजागर नहीं करूँगा तो क्या वे खुद को जान पाएँगे? अगर मैं इस तरह से उजागर नहीं करूँगा तो अभी भी लोग यही सोचते रहेंगे कि वे बहुत अच्छे हैं, वे अपना काम ठीक-ठाक ढंग से करते हैं, उनमें बताने लायक कोई दोष नहीं है, और वे हर तरह से ठीक हैं। यदि वे हर तरह से ठीक हों, तो भी उन्हें अहंकार की स्थिति में नहीं रहना चाहिए, न ही उन्हें यह सोचना चाहिए कि वे योग्य हैं, और न ही उन्हें शेखी बघारनी चाहिए। मैं लोगों की स्थितियों को इस तरह से उजागर करता हूँ कि उन्हें मौत की सजा न दूँ, न ही उन्हें यह बताऊँ कि उन्हें बचाया नहीं जा सकता, बल्कि मैं उन्हें वास्तव में खुद को जानने देता हूँ, उनके अपने भ्रष्ट सार और अपनी प्रकृति को समझने देता हूँ, ताकि वे आत्म-जागरूकता प्राप्त कर सकें। यह इस लिए लाभदायक है कि यह उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने में मदद करता है। यदि तुम मेरे उजागर करने वाले वचनों और लोगों की काट-छाँट को सही तरीके से ले सको, नकारात्मक होने से बच सको, अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा सको, परमेश्वर के घर के मामलों को अपना बना सको, और यदि तुम लापरवाही किए बिना जिम्मेदारी उठा सको, परमेश्वर के प्रति वफादार रह सको, तो यह रवैया सही है, और तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कार्य करते समय अक्सर सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। वे काट-छाँट किए जाने को स्वीकार नहीं करते हैं, अपने दिल में वे जानते हैं कि जो बातें दूसरे कहते हैं वे सत्य के अनुरूप हैं, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे लोग बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं! उन्हें अहंकारी क्यों कहा जा रहा है? यदि वे काट-छाँट स्वीकार नहीं करते हैं, तो वे आज्ञाकारी नहीं हैं, और क्या अवज्ञा अहंकार नहीं है? वे सोचते हैं कि वे अच्छा कर रहे हैं, वे नहीं सोचते कि वे गलतियाँ करते हैं, जिसका अर्थ है कि वे स्वयं को नहीं जानते हैं, जोकि अहंकार है। तो, कुछ चीजें हैं जिनका तुम्हें गंभीरता से विश्लेषण करना चाहिए, थोड़ा-थोड़ा करके गहराई से जानना चाहिए। कलीसिया का काम करते हुए यदि तुम दूसरे लोगों से प्रशंसा पाते हो, और वे तुम्हें सुझाव देते हैं, और संगति में तुम्हारे समक्ष खुलकर बोलते हैं, तो इससे साबित होता है कि तुमने अपना काम अच्छी तरह किया है। यदि तुम लोगों को हमेशा नियंत्रित करते हो, तो वे धीरे-धीरे तुम्हारा भेद पहचानना शुरू कर देंगे, और तुमसे दूरी बना लेंगे, जिससे साबित होता है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है, इसलिए तुम जो कुछ भी कहते हो वह निश्चित रूप से केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं, जो दूसरों को नियंत्रित करने के लिए हैं। कुछ कलीसियाई अगुआ बर्खास्त कर दिए जाते हैं और वे बर्खास्त क्यों कर दिए जाते हैं? ऐसा इसलिए कि वे केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, हमेशा दिखावा करते हैं और अपनी गवाही देते हैं। वे कहते हैं कि उनका प्रतिरोध करना परमेश्वर का प्रतिरोध करना है, और जो कोई ऊपरवालों को स्थितियों की सूचना देता है वह कलीसिया के काम में बाधा डाल रहा है। यह किस प्रकार की समस्या है? ये लोग पहले ही इतने अहंकारी हो गए हैं कि उनमें कोई विवेक बचा नहीं है। क्या यह मसीह-विरोधियों के रूप में इनका असली रंग नहीं दिखाता है? क्या इससे इनके अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की शुरुआत नहीं हो जाएगी? कुछ लोग जिन्होंने अभी-अभी विश्वास रखना शुरू किया है, उनकी आराधना करेंगे और उनकी गवाही देंगे, और वे इसका बहुत आनंद लेंगे, और बहुत प्रसन्न महसूस करेंगे। इतने अहंकारी व्यक्ति का बरबाद होना तो पहले से ही तय है। जो व्यक्ति यह कहने में सक्षम है कि “मेरा प्रतिरोध करना परमेश्वर का प्रतिरोध करना है,” पहले ही एक आधुनिक पौलुस बन चुका है; इसमें और पौलुस के यह कहने में कोई अंतर नहीं है : “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है।” क्या ऐसी बातें करने वाले लोग बहुत बड़े खतरे में नहीं हैं? भले ही वे स्वतंत्र राज्य स्थापित न करें, फिर भी वे प्रामाणिक मसीह-विरोधी हैं। यदि कोई ऐसा व्यक्ति किसी कलीसिया की अगुआई करे, तो वह कलीसिया शीघ्र ही मसीह-विरोधियों का राज्य बन जाएगा। कुछ लोग, कलीसिया के अगुआ बनने के बाद, विशेष रूप से ऊँचे-ऊँचे धर्मोपदेश देने और दिखावा करने पर, विशेष रूप से रहस्य की बातें बोलने पर ध्यान केंद्रित करते हैं ताकि लोग उन्हें आदर की दृष्टि से देखें, और इसका परिणाम यह होता है कि वे सत्य वास्तविकता से और भी दूर होते जाते हैं। इससे अधिकांश लोग आध्यात्मिक सिद्धांतों की आराधना करने लगते हैं। जो भी ऊँचा-ऊँचा बोलता है, लोग उसी की सुनते हैं; जो कोई भी जीवन प्रवेश के बारे में बात करता है, लोग उसे बिल्कुल नहीं सुनते। क्या यह लोगों को भटकाना नहीं है? यदि कोई सत्य वास्तविकता पर संगति करता है, तो कोई नहीं सुनता, जो परेशानी की बात है। इस व्यक्ति के अलावा कोई भी कलीसिया की अगुआई नहीं कर सकता, क्योंकि सभी लोग आध्यात्मिक सिद्धांतों की पूजा करते हैं; जो लोग आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात नहीं कर सकते, वे अडिग रहने में असमर्थ होते हैं। क्या तब भी ऐसी कलीसिया पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकती है? क्या लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? सत्य के बारे में संगति करना और वास्तविक अनुभवों के बारे में बोलना क्यों अस्वीकार कर दिया जाता है, इस हद तक कि वे सत्य के बारे में मुझे संगति करते सुनने को भी तैयार नहीं होते? इससे साबित होता है कि इन अगुआओं ने पहले ही इन लोगों को गुमराह कर उन पर नियंत्रण कर लिया है। ये लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के बजाय उनकी बात सुनकर उनके प्रति समर्पण करते हैं। यह स्पष्ट है कि ये ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के बजाय अपने अगुआओं के प्रति समर्पण करते हैं। क्योंकि जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, वे मनुष्यों की आराधना करने या उनका अनुसरण करने वाले नहीं होते; उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जगह होती है, और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, तो उन्हें मनुष्य कैसे बेबस कर सकते हैं? वे आज्ञाकारी ढंग से कैसे एक झूठे अगुआ के प्रति समर्पण कर सकते हैं जिसमें सत्य वास्तविकता नहीं है? जिससे एक झूठा अगुआ सबसे ज्यादा डरता है वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसके पास सत्य वास्तविकता है, एक ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। यदि किसी के पास सत्य नहीं है, और फिर भी वह दूसरों से अपनी आज्ञा मनवाना चाहता है, तो क्या यह संभवतः सबसे अहंकारी दानव नहीं है? यदि तुम कलीसिया पर एकाधिकार रखते हो या परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करते हो, तो तुमने परमेश्वर को नाराज किया है और खुद को बरबाद कर लिया है, और शायद तुम्हें पश्चात्ताप करने का मौका भी न मिले। तुममें से प्रत्येक को सावधान रहना चाहिए; यह एक बहुत ही खतरनाक बात है, जिसे कोई भी बहुत आसानी से कर सकता है। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो कहें : “मैं ऐसा नहीं करूँगा, मैं अपनी गवाही दूँगा ही नहीं!” ऐसा सिर्फ इसलिए है कि तुमने बहुत ही कम समय काम किया है। बाद में, तुम ऐसा करने का साहस करोगे। धीरे-धीरे तुम और अधिक साहसी हो जाओगे—जितना अधिक तुम ऐसा करोगे, उतने ही अधिक साहसी हो जाओगे। यदि तुम जिन लोगों की अगुआई करते हो, वे तुम्हारे बारे में डींगें हाँकते और तुम्हारी बातें सुनते, तो तुम्हें स्वाभाविक रूप से महसूस होता कि तुम एक उच्च पद पर हो, तुम अद्भुत हो : “मुझे देखो, मैं बहुत अच्छा हूँ। मैं इन सभी लोगों की अगुआई कर सकता हूँ, और ये सभी मेरी बात सुनते हैं; जो लोग मेरी बात नहीं सुनते, उन्हें मैं अपने वश में कर लेता हूँ। इससे साबित होता है कि मुझमें कुछ कार्य क्षमता है और मैं अपने काम के योग्य हूँ।” जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, तुम्हारी प्रकृति के अहंकारी तत्व प्रकट होने लगेंगे, और तुम इतने अहंकारी हो जाओगे कि अपना विवेक खो बैठोगे, और खतरे में पड़ जाओगे। क्या तुम यह स्पष्ट रूप से देख सकते हो? जैसे ही तुम अपना अहंकारी, अवज्ञाकारी स्वभाव प्रकट करते हो, तुम मुसीबत में पड़ जाते हो। जब मैं बोलता हूँ तब भी तुम नहीं सुनते, परमेश्वर का घर तुम्हें बर्खास्त कर देता है, और फिर भी तुम यह कहने का साहस करते हो : “पवित्र आत्मा को इसे प्रकट करने दो।” यह तथ्य कि तुम ऐसा कहोगे, यह साबित करता है कि तुम सत्य स्वीकार नहीं करते। तुम्हारा विद्रोहीपन बहुत अधिक है—इसने तुम्हारे प्रकृति सार को उजागर कर दिया है। तुम परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। इसलिए, मैं आज तुम लोगों से यह सब कहता हूँ ताकि तुम सब अपने ऊपर कड़ी नजर रखो। अपने आप को ऊँचा मत उठाओ और न ही अपनी गवाही दो। लोगों द्वारा यह संभव है कि वे प्रयास करें और अपने स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करें, क्योंकि वे सभी पद, धन और महिमा, घमंड, पसंद करते हैं, और वे सभी कुलदेवता के स्तंभ पर दूसरी सबसे ऊँची जगह पर कब्जा करना और शक्ति प्रदर्शन करना पसंद करते हैं : “देखो, मैंने ये शब्द कितनी कठोरता से कहे। जैसे ही मैंने धमकाने का लहजा अपनाया, वे घबराकर सीधे हो गए।” ऐसी शक्ति का प्रदर्शन मत करो; यह बेकार है, और इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता। यह केवल इतना साबित करता है कि तुम विशेष रूप से अहंकारी हो, और तुम्हारा स्वभाव खराब है; इससे यह साबित नहीं होता कि तुममें कोई योग्यता है, तुममें सत्य वास्तविकता का होना तो दूर की बात है। कुछ वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद, क्या तुम सभी स्वयं को जान गए हो? क्या तुम्हें यह महसूस नहीं होता कि तुम खतरनाक परिस्थितियों में हो? यदि परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए नहीं बोल रहा होता और कार्य नहीं कर रहा होता, तो क्या तुम सभी स्वतंत्र राज्य स्थापित नहीं कर रहे होते? क्या तुम लोग अपनी जिम्मेदारी वाली कलीसियाओं पर एकाधिकार नहीं करना चाहते, उन लोगों को अपने प्रभाव में नहीं लाना चाहते ताकि उनमें से कोई भी तुम लोगों के नियंत्रण से बच न सके, ताकि उन्हें तुम लोगों की बात सुननी पड़े? ऐसा करते ही यदि तुम लोगों को नियंत्रित करते हो तो तुम दानव और शैतान हो। ऐसे विचार रखना तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक है; तुम पहले ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर कदम रख चुके हो। यदि तुम आत्म-चिंतन नहीं करते, और यदि तुम परमेश्वर के सामने अपने पापों को स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने में असमर्थ हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से अलग कर दिया जाएगा, और परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देगा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान न करो, तुम्हें पता होना चाहिए कि पश्चात्ताप कैसे करना है, परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होने के लिए खुद को कैसे बदलना है। तब तक प्रतीक्षा मत करते रहो जब तक कि परमेश्वर का घर यह तय करके कि तुम मसीह-विरोधी हो तुम्हें निष्कासित कर दे—तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
शरद ऋतु 1997
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