परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी प्रकृति है (भाग एक)
आज, मैं भ्रष्ट मानवजाति की प्रकृति, सार और स्वभाव के मुद्दे पर बात करूँगा। प्रकृति क्या है? प्रकृति मनुष्यों का अंतर्निहित सार है, उनके भीतर की वह चीज जो नियंत्रण और निर्देशन प्रभाव पैदा करती है। कोई व्यक्ति किस चीज से नफरत करता है, तिरस्कार करता है या किसे पसंद करता है, यह सब उसके स्वभाव को दर्शाता है, जो सीधे तौर पर उसके प्रकृति सार से संबंधित है। वास्तव में, प्रकृति सार है, और किसी व्यक्ति की प्रकृति उसके सार को निर्धारित करती है। स्वभाव वह चीज है जो किसी व्यक्ति के सार और प्रकृति से प्रकट होती है। लोग अपनी वाणी और कार्यों में और आचरण करने और दुनिया से निपटने के तरीके में जो स्वभाव प्रकट करते हैं, वह उनकी प्रकृति का प्रतिनिधि होता है, जो कि उनका सार है। यह प्रकृति की अवधारणा है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति क्या पसंद करता है, किससे नफरत करता है या तिरस्कार करता है, और वह किस चीज का अनुसरण करता है, ये सभी उसकी प्रकृति को दर्शाते हैं। किसी व्यक्ति का प्रकृति सार अंततः अच्छा है या बुरा, यह जानने के लिए ये बातें मुख्य हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति बुरे काम करना पसंद करता है, तो उस व्यक्ति का प्रकृति सार काफी बुरा है; यदि वह अच्छा करना और धार्मिक रूप से कार्य करना पसंद करता है, तो उस व्यक्ति का प्रकृति सार अच्छा है। यह कहने के बाद, क्या तुम सभी प्रकृति की अवधारणा को समझे? प्रकृति सार है। पहले, यह कहा जाता था कि लोगों का सार उनकी आत्मा के समान ही होता है : उनमें जो भी आत्मा हो, जिस प्रकार की भी आत्मा होती है, उनकी प्रकृति भी वैसी ही होती है। बेशक यह गलत नहीं है, लेकिन अब केवल यह कहना कि आत्मा प्रकृति को निर्धारित करती है, थोड़ा अस्पष्ट और अव्यावहारिक होगा। अब मैं इसे कैसे समझाऊँ? मैं स्वभाव का प्रयोग करके मनुष्य की प्रकृति और सार को समझाऊँगा, क्योंकि स्वभाव ही है जो प्रकट होता है, जिसे लोग देख, छू सकते हैं और जिसके वे संपर्क में आ सकते हैं, इस प्रकार यह अधिक ठोस और वस्तुनिष्ठ है। जहाँ तक आत्मा की बात है, लोग सोचते हैं कि इसमें एक अस्पष्ट गुण है, कि यह रहस्यमय और अपेक्षाकृत खाली है, सिर्फ इसलिए कि वे इसकी कल्पना नहीं कर सकते, न ही वे इसे देख या छू सकते हैं, न ही उनके पास इसे व्यक्त करने का कोई तरीका है। हमेशा आत्मा की बात करना न तो उचित होगा और न ही यह आवश्यक है। प्रकृति के प्रश्न को समझाने के लिए हमें इसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे चीजें अदृश्य हैं, ठोस नहीं। अभी हम जिसकी चर्चा करेंगे, वह सबसे ठोस और वास्तविक है, और वह लोगों की भ्रष्टता की समस्या को हल कर सकता है। इस समस्या को व्यक्त करने और समझाने के लिए इस प्रकार की भाषा का उपयोग करके हम नतीजे प्राप्त कर सकते हैं।
हमने अभी-अभी प्रकृति की अवधारणा के बारे में बात की है, लेकिन वास्तव में मनुष्य की प्रकृति क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? चूँकि मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दी गई थी, इसलिए उनकी प्रकृति, जो उनका सार भी है, बदल गई है। तो फिर मनुष्य का सार क्या है? अब मैं जिस बारे में बात कर रहा हूँ, वह सभी लोगों का सार और प्रकृति है, और किसी एक व्यक्ति की ओर निर्देशित नहीं है। शैतान द्वारा मनुष्यों को भ्रष्ट किए जाने के बाद से उनकी प्रकृति बिगड़नी शुरू हो गई है और उन्होंने धीरे-धीरे सामान्य लोगों में मौजूद समझ को खो दिया है। मनुष्य होते हुए भी उन्होंने मनुष्य के सही स्थान में रहना छोड़ दिया है; बल्कि, वे जंगली आकांक्षाओं से भरे हुए हैं; वे मनुष्य की स्थिति पार कर चुके हैं, फिर भी, वे और भी ऊँचे जाने की लालसा रखते हैं। यह “और भी ऊँचे” क्या दर्शाता है? वे परमेश्वर से बढ़कर होना चाहते हैं, स्वर्ग से बढ़कर होना चाहते हैं, और बाकी सभी से बढ़कर होना चाहते हैं। लोगों के ऐसे स्वभाव प्रकट करने का मूल कारण क्या है? कुल मिलाकर यही नतीजा निकलता है कि मनुष्य की प्रकृति बहुत अधिक अहंकारी है। ज्यादातर लोग “अहंकार” शब्द का अर्थ समझते हैं। यह एक निंदात्मक शब्द है। अगर कोई अहंकार प्रकट करता है, तो दूसरे सोचते हैं कि वह अच्छा इंसान नहीं है। जब भी कोई अविश्वसनीय रूप से अहंकारी होता है, तो दूसरे हमेशा मान लेते हैं कि वह बुरा व्यक्ति है। कोई भी इस शब्द को अपने साथ जोड़ा जाना पसंद नहीं करता। पर तथ्य यह है कि हर कोई अहंकारी है, और सभी भ्रष्ट मनुष्यों का यही सार है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं जरा भी अहंकारी नहीं हूँ। मैंने कभी भी महादूत नहीं बनना चाहा, न ही मैंने कभी परमेश्वर से या दूसरों से ऊँचा उठना चाहा है। मैं हमेशा एक ऐसा व्यक्ति रहा हूँ जो सरल और कर्तव्यनिष्ठ है।” कोई जरूरी नहीं है; ये शब्द गलत हैं। जब लोग अपनी प्रकृति और सार में अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएँ उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपनी आज्ञा मनवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करें, तुम्हारी आज्ञा मानें और हर बात में तुम्हारी सुनें। तुम्हें अगुआ बनने दिया जाना स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा करता है, और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? यह मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो वे अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करेंगे और अपने तरीके से चीजों को करेंगे। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेंगे। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहेगा और वे परमेश्वर को अलग रख देंगे। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें बुरा व्यक्ति समझेगा और हटा देगा।
हमने धार्मिक दुनिया के भीतर अनेक अगुआओं को बार-बार सुसमाचार का उपदेश दिया है, किन्तु हम उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति क्यों न करें, वे इसे स्वीकार नहीं करते। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि उनका घमंड उनकी प्रवृत्ति बन गया है और उनके हृदयों में परमेश्वर का अब और स्थान नहीं रह गया है। कुछ लोग कह सकते हैं, “धार्मिक दुनिया में कुछ पादरियों के नेतृत्व में लोगों में वास्तव में बहुत अधिक प्रेरणा होती है; यह ऐसा है मानो उनके बीच में परमेश्वर हो।” क्या तुम उत्साह होने को प्रेरणा होना मानते हो? उन पादरियों के सिद्धांत भले ही कितने भी उच्च क्यों न प्रतीत होते हों, क्या वे परमेश्वर को जानते हैं? यदि उनके अंतरतम में परमेश्वर के प्रति सच में भय होता, तो क्या वे लोगों से अपना अनुसरण और प्रशंसा करवाते? क्या वे दूसरों पर नियंत्रण कर पाते? क्या वे अन्य लोगों को सत्य की तलाश करने और सच्चे मार्ग की जाँच करने से रोकने की हिम्मत करते? यदि वे मानते हैं कि परमेश्वर की भेड़ें वास्तव में उनकी हैं और उन सभी को उनकी बात सुननी चाहिए, तो क्या बात ऐसी नहीं है कि वे स्वयं को परमेश्वर मानते हैं? ऐसे लोग फरीसियों से भी बदतर हैं। क्या वे असली मसीह विरोधी नहीं हैं? इस प्रकार, उनका अहंकार घातक है, और उनसे विश्वासघात करने की चीजें करवा सकता है। क्या तुम लोगों के साथ ऐसी चीजें नहीं होतीं? क्या तुम लोगों को इस तरह फँसा सकते हो? तुम ऐसा कर सकते हो, बस बात यह है कि तुम्हें अवसर नहीं दिया गया है, और तुम्हारी लगातार काट-छाँट की जा रही है, इसलिए तुम ऐसा साहस नहीं करोगे। कुछ लोग घुमा-फिराकर अपनी बड़ाई भी करते हैं, लेकिन वे बहुत चतुराई से बोलते हैं, इसलिए आम लोग इसका भेद पहचान नहीं पाते। कुछ लोग इतने अहंकारी होते हैं कि वे कहते हैं : “किसी और का इस कलीसिया का नेतृत्व करना अस्वीकार्य है! यहाँ तक पहुँचने के लिए परमेश्वर को माध्यम के रूप में मेरी जरूरत है, और वह तुम लोगों को केवल तभी उपदेश दे सकता है जबकि मैंने उन्हें इस कलीसिया की स्थिति समझा दी हो। मेरे अलावा कोई और यहाँ आकर तुम्हारा सिंचन नहीं कर सकता।” ऐसा कहने के पीछे क्या मंशा है? यह किस प्रकार के स्वभाव को प्रकट करता है? यह अहंकार है। जब लोग इस प्रकार कार्य करते हैं, तो उनका आचरण परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी और विद्रोही होता है। इसलिए लोगों की अहंकारी प्रकृति यह निर्धारित करती है कि वे अपनी अत्यधिक प्रशंसा करेंगे, परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसके साथ विश्वासघात करेंगे, दूसरों को फँसाएँगे तथा उन्हें और स्वयं को बरबाद कर देंगे। यदि वे बिना पछतावे के मर जाते हैं, तो अंत में उन्हें हटा दिया जाएगा। क्या किसी व्यक्ति के लिए अहंकारी स्वभाव रखना खतरनाक नहीं है? यदि उनका स्वभाव अहंकारी है, लेकिन वे सत्य को स्वीकार करने में सक्षम हैं, तो उन्हें बचाने की फिर भी गुंजाइश है। सच्चा उद्धार प्राप्त करने के लिए उन्हें न्याय और ताड़ना से गुजरना होगा और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना होगा।
कुछ लोग हमेशा कहते हैं : “परमेश्वर अंत के दिनों में लोगों को बचाने के लिए न्याय और ताड़ना का उपयोग क्यों करता है? न्याय के वचन इतने कठोर क्यों हैं?” एक कहावत है जिसे तुम लोग जानते होंगे : “परमेश्वर का कार्य प्रत्येक व्यक्ति के साथ अलग-अलग होता है; यह लचीला है, और परमेश्वर विनियमों का पालन नहीं करता है।” अंत के दिनों में न्याय और ताड़ना का कार्य मुख्य रूप से लोगों की अहंकारी प्रकृति पर निर्देशित है। अहंकार में बहुत-सी चीजें, बहुत सारे भ्रष्ट स्वभाव शामिल हैं; लोगों के अहंकारी स्वभाव को पूरी तरह से दूर करने के लिए न्याय और ताड़ना सीधे इस शब्द, “अहंकार” पर आती है। अंत में, लोग परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करेंगे और न ही उसका विरोध करेंगे, इसलिए वे स्वयं के स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं करेंगे, न ही वे खुद की प्रशंसा करेंगे या अपनी गवाही देंगे, न ही वे नीच कार्य करेंगे, न ही वे परमेश्वर से असाधारण माँगें करेंगे—इस तरह, उन्होंने अपना अहंकारी स्वभाव त्याग दिया है। अहंकार की कई अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास करता है, उसकी कृपा की माँग करता है—तुम किस आधार पर इसकी माँग कर सकते हो? तुम शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए व्यक्ति हो, एक सृजित प्राणी हो; यह तथ्य कि तुम जीवित हो और साँस लेते हो, यह पहले से ही परमेश्वर की सबसे बड़ी कृपा है। तुम परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो कुछ भी बनाया है उसका आनंद ले सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हें काफी कुछ दिया है, तो तुम उससे और अधिक की माँग क्यों करते हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग कभी भी अपने भाग्य से संतुष्ट नहीं होते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, उनके पास और अधिक होना चाहिए, इसलिए वे हमेशा परमेश्वर से इसकी माँग करते हैं। यह उनके अहंकारी स्वभाव का परिचायक है। चाहे लोग अपने मुँह से न कहें, लेकिन जब वे पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं, तो अपने दिलों में सोच रहे होते हैं, “मैं स्वर्ग जाना चाहता हूँ, नरक नहीं। मैं चाहता हूँ कि न केवल मैं, बल्कि मेरा पूरा परिवार आशीष पाए। मैं अच्छा भोजन खाना चाहता हूँ, अच्छे कपड़े पहनना चाहता हूँ, अच्छी चीजों का आनंद लेना चाहता हूँ। मुझे एक अच्छा परिवार, एक अच्छा पति (या पत्नी) और अच्छे बच्चे चाहिए। अंततः मैं राजा की तरह राज करना चाहता हूँ।” ये सब सिर्फ उनकी आवश्यकताओं और माँगों से जुड़ा है। उनका यह स्वभाव, ये बातें जो वे अपने दिलों में सोचते हैं, ये असाधारण इच्छाएँ—ये सब मनुष्य की अहंकारी प्रकृति की प्रतीक हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? बात आखिरकार लोगों के रुतबे पर आ जाती है। मनुष्य एक सृजित प्राणी है, जो धूल से उत्पन्न हुआ है; परमेश्वर ने मिट्टी से मनुष्य को बनाया और उसमें जीवन का श्वास फूँका। मनुष्य का ऐसा निम्न रुतबा है, फिर भी लोग बहुत-सी इच्छाएँ लेकर परमेश्वर के सामने आते हैं। मनुष्य का रुतबा इतना निम्न है कि उसे अपना मुँह खोलकर परमेश्वर से कुछ नहीं माँगना चाहिए। तो लोगों को क्या करना चाहिए? उन्हें निंदा की परवाह न करते हुए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, पूरे मन से जुटकर काम करना चाहिए और खुशी से समर्पण करना चाहिए। यह खुशी-खुशी नीचता को अपनाने का प्रश्न नहीं है—खुशी-खुशी नीचता को मत अपनाओ; लोग इसी रुतबे के साथ पैदा होते हैं; उन्हें जन्मजात रूप से आज्ञाकारी और नीच होना चाहिए, क्योंकि उनका रुतबा नीच है, और इसलिए उन्हें परमेश्वर से चीजों की माँग नहीं करनी चाहिए, न ही परमेश्वर से असाधारण अपेक्षाएँ रखनी चाहिए। उनमें ऐसी चीजें नहीं मिलनी चाहिए। एक सरल उदाहरण देखो। किसी अमीर परिवार ने एक नौकर रखा। उस अमीर परिवार में इस नौकर की स्थिति विशेष रूप से निम्न थी, लेकिन फिर भी उसने घर के मालिक से कहा : “मैं आपके बेटे की टोपी पहनना चाहता हूँ, मैं वैसे चावल खाना चाहता हूँ जैसे आप खाते हैं, आपके कपड़े पहनना चाहता हूँ और आपके बिस्तर पर सोना चाहता हूँ। आप जो भी वस्तुएँ उपयोग करते हैं, चाहे वे सोने की हों या चाँदी की, मुझे वे चाहिए! मैं अपने काम में बहुत योगदान देता हूँ, और आपके घर में रहता हूँ, इसलिए मुझे वे चाहिए!” मालिक को उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? मालिक कहेगा : “तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम क्या हो, तुम्हारी भूमिका क्या है : तुम एक नौकर हो। मैं अपने बेटे को वह देता हूँ जो वह चाहता है, क्योंकि उसकी हैसियत वह है। तुम्हारी हैसियत, तुम्हारी पहचान क्या है? तुम ये चीजें माँगने के योग्य नहीं हो। तुम्हें जाकर अपना काम करना चाहिए, जाओ और अपनी हैसियत और पहचान के अनुसार अपने कर्तव्य पूरे करो।” क्या ऐसे व्यक्ति में कोई विवेक है? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत-से लोग ऐसे हैं जिनमें उतना विवेक नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने की शुरुआत से ही, उनके पास गुप्त उद्देश्य होते हैं, और आगे बढ़ते हुए, वे लगातार परमेश्वर से माँगें करते हैं : “मैं चाहता हूँ कि पवित्र आत्मा का कार्य मेरा अनुसरण करे क्योंकि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ! जब मैं बुरे काम करता हूँ तो तुम्हें मुझे माफ और सहन भी करना होगा! अगर मैं बहुत काम करता हूँ, तो तुम्हें मुझे इनाम देना होगा!” संक्षेप में, लोग हमेशा परमेश्वर से चीजें चाहते हैं, वे हमेशा लालची रहते हैं। कुछ लोग जिन्होंने थोड़ा-सा काम किया है और किसी कलीसिया का अच्छी तरह से नेतृत्व किया है, वे सोचते हैं कि वे दूसरों से श्रेष्ठ हैं, और अक्सर ऐसी बातें फैलाते हैं : “परमेश्वर ने मुझे एक महत्वपूर्ण पद पर क्यों रखा है? वह बार-बार मेरा नाम क्यों लेता है? वह मुझसे बात क्यों करता रहता है? परमेश्वर मेरे बारे में ऊँची राय रखता है क्योंकि मेरे पास काबिलियत है और मैं सामान्य लोगों से ऊपर हूँ। तुम लोगों को इस बात से भी ईर्ष्या हो रही है कि परमेश्वर मेरे साथ बेहतर व्यवहार करता है। तुम्हें किस बात से ईर्ष्या है? क्या तुम लोग देख नहीं सकते कि मैं कितना काम और त्याग करता हूँ? परमेश्वर ने मुझे जो भी अच्छी चीजें दी हैं, उनसे तुम लोगों को ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मैं उनका हकदार हूँ। मैंने कई वर्षों तक काम किया है और बहुत कुछ सहा है। मैं श्रेय का पात्र हूँ और योग्य हूँ।” कुछ अन्य लोग भी हैं जो कहते हैं : “परमेश्वर ने मुझे सह-कार्यकर्ता बैठकों में शामिल होने और उसकी संगति सुनने की अनुमति दी। मेरे पास यह योग्यता है—क्या तुम लोगों के पास वह योग्यता है? पहली बात, मेरे पास ऊँची काबिलियत है, और मैं तुम्हारी तुलना में अधिक सत्य का अनुसरण करता हूँ। इसके अलावा, मैं खुद को तुम लोगों से अधिक खपाता हूँ और मैं कलीसिया का काम पूरा कर सकता हूँ—क्या तुम लोग वह कर सकते हो?” यह अहंकार है। लोगों के कर्तव्य-पालन और कार्यों के नतीजे अलग-अलग होते हैं। कुछ के नतीजे अच्छे होते हैं, जबकि कुछ के नतीजे खराब होते हैं। कुछ लोग अच्छी काबिलियत के साथ पैदा होते हैं और सत्य की खोज करने में भी सक्षम होते हैं, इसलिए उनके कर्तव्यों के नतीजों में तेजी से सुधार होता है। यह उनकी अच्छी क्षमता के कारण है, जो परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। परंतु कर्तव्यपालन से खराब नतीजों की समस्या का समाधान कैसे किया जाए? तुम्हें निरंतर सत्य की खोज करनी चाहिए और कड़ी मेहनत करनी चाहिए, तब तुम भी धीरे-धीरे अच्छे नतीजे प्राप्त कर सकते हो। जब तक तुम सत्य के लिए प्रयास करते रहते हो और अपनी क्षमताओं की सीमा तक परिणाम हासिल करते रहते हो, परमेश्वर इसे स्वीकार करेगा। लेकिन तुम्हारे कार्य के नतीजे चाहे अच्छे हों या नहीं, तुम्हें गलत विचार नहीं रखने चाहिए। ऐसा मत सोचो, “मैं परमेश्वर के बराबर होने के योग्य हूँ,” “परमेश्वर ने मुझे जो दिया है उसका आनंद लेने के मैं योग्य हूँ,” “मैं परमेश्वर से अपनी स्तुति करवाने के योग्य हूँ,” “मैं दूसरों का नेतृत्व करने के योग्य हूँ,” या “मैं दूसरों को व्याख्यान देने के योग्य हूँ।” मत कहो कि तुम योग्य हो। लोगों को ऐसे विचार नहीं रखने चाहिए। यदि तुम्हारे मन में ये विचार हैं, तो यह साबित करता है कि तुम अपनी सही जगह पर नहीं हो, और तुम्हारे पास वह बुनियादी समझ भी नहीं है जो एक इंसान के पास होनी चाहिए। तो तुम अपना अहंकारी स्वभाव कैसे त्याग सकते हो? तुम ऐसा नहीं कर सकते।
कुछ लोग कहते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है, वे अहंकारी नहीं हैं। ये कौन लोग हैं? ये विवेकहीन लोग हैं और यही लोग सबसे मूर्ख और अहंकारी भी हैं। वास्तव में, ये किसी भी अन्य व्यक्ति से अधिक अहंकारी और विद्रोही हैं; जो व्यक्ति जितना अधिक यह कहता है कि उसका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है, वह उतना ही अधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट होता है। अन्य लोग क्यों खुद को जान पाते हैं और परमेश्वर का न्याय स्वीकार कर पाते हैं, और तुम क्यों ऐसा नहीं कर पाते? क्या तुम कोई अपवाद हो? कोई संत हो? क्या तुम शून्य में रहते हो? तुम यह स्वीकार नहीं करते कि मानवजाति को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट कर दिया गया है, सबका स्वभाव भ्रष्ट है। इसका मतलब है कि तुम सत्य बिल्कुल नहीं समझते, और तुम सबसे अधिक विद्रोही, अज्ञानी और अहंकारी हो। तुम्हारे अनुसार दुनिया में अनेक अच्छे लोग हैं और बुरे लोग बहुत कम हैं—तो यह दुनिया अंधकार, गंदगी और भ्रष्टता से क्यों भरी है, इसमें इतना संघर्ष क्यों है? मनुष्यों की दुनिया में हर कोई एक-दूसरे से छीना-झपटी क्यों करता है? यहाँ तक कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले भी अपवाद नहीं हैं। लोग हमेशा एक-दूसरे से लड़ाई और संघर्ष कर रहे हैं। और यह संघर्ष कहाँ से उपजता है? यह उनकी भ्रष्ट प्रकृति का परिणाम है, निश्चित रूप से यह उनके भ्रष्ट स्वभावों का प्रकटन है। जिन लोगों की प्रकृति भ्रष्ट होती है, वे अहंकार और विद्रोहीपन प्रकट करते हैं; जो लोग शैतानी स्वभाव में रहते हैं वे लड़ाकू और युद्धप्रिय होते हैं। जो लोग लड़ाकू और युद्धप्रिय होते हैं वे सबसे अहंकारी होते हैं, वे किसी की भी आज्ञा नहीं मानते। ऐसा क्यों है कि लोग अक्सर अपने पापों को स्वीकार तो कर लेते हैं लेकिन पश्चाताप नहीं करते? ऐसा क्यों है कि वे परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन सत्य को व्यवहार में नहीं ला पाते? ऐसा क्यों है कि वे कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन उसके अनुरूप नहीं हो पाते? यह सब लोगों की अहंकारी प्रकृति के कारण होता है। मानवजाति ने हमेशा परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह किया है और उसका प्रतिरोध किया है, सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया है, और यहाँ तक कि उसने सत्य से नफरत की है और उसे अस्वीकार भी किया है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि मनुष्यों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं, बल्कि इसलिए कि लोग परमेश्वर का बहुत क्रूरता और बेरहमी से प्रतिरोध करते हैं, इस हद तक कि वे परमेश्वर को अपना दुश्मन बना लेते हैं और उसे सूली पर चढ़ा देते हैं। क्या ऐसी भ्रष्ट मानवजाति बहुत ही ज्यादा क्रूर, अहंकारी और अविवेकपूर्ण नहीं है? परमेश्वर बहुत सारे सत्य व्यक्त करता है, वह लोगों पर दया करता है और उन्हें बचाता है, और उनके पापों को क्षमा करता है—लेकिन मानवजाति सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करती है, वह हमेशा परमेश्वर की निंदा और प्रतिरोध करती है, और खुद को परमेश्वर का कट्टर विरोधी बना लेती है। अब, मानवता का परमेश्वर से संबंध किस स्तर पर है? मनुष्य परमेश्वर का शत्रु, उसका विरोधी बन गया है। परमेश्वर लोगों को उजागर करने, उनका न्याय करने और उन्हें बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता है; लोग उसे स्वीकार नहीं करते या उस पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। लोग वह नहीं करते जो परमेश्वर उनसे अपेक्षा करता है; इसके बजाय वे ऐसी चीजें करते हैं जिनसे वह नफरत और तिरस्कार करता है। परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, लेकिन लोग उसे अस्वीकार कर देते हैं। परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है, और वे न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, बल्कि उसके साथ बहस करते हैं और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं। लोग कितने अहंकारी हैं? भ्रष्ट मानवजाति बेशर्मी से परमेश्वर को नकारती है और उसका प्रतिरोध करती है। भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हों, पर वे हमेशा आशीष, इनाम और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के पीछे भागते हैं; वे शासक बनना और सत्ता का उपयोग भी करना चाहते हैं। यह मनुष्य के अहंकार, उसके अत्यंत भ्रष्ट स्वभाव का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
परमेश्वर ने मनुष्य को बचाने के लिए देहधारण किया, लेकिन परमेश्वर की मेजबानी करने के बदले में लोगों ने रोजमर्रा के खर्च, पुरस्कार, आशीर्वाद की माँग की, यहाँ तक कि वे डींगें हाँकने लगे कि उन्होंने परमेश्वर की मेजबानी की और कहने लगे कि वे परमेश्वर के प्रिय हैं, ताकि लोग उन्हें आदर से देखें। कुछ लोग तो स्पष्ट रूप से जानते थे कि उन्होंने जिसकी मेजबानी की वह परमेश्वर था, फिर भी उन्होंने बदले में कलीसियाओं से पैसे माँगे। ऐसे अहंकारी लोग कहते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है, और उनका विश्वास अन्य लोगों से श्रेष्ठतर है, वे परमेश्वर के प्रति किसी भी अन्य से अधिक वफादार हैं और वे दूसरों से बेहतर कार्य करते हैं। कुछ लोग अपने बारे में डींगें हाँकते हैं : “मैंने बीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है। जब मैं पहली बार परिवर्तित हुआ तो कोई कलीसिया नहीं थी—मैं जहाँ भी गया, वहीं मैंने सुसमाचार का प्रचार किया!” तुम अपने बारे में डींगें क्यों हाँक रहे हो? तुम्हारे पास डींगें हाँकने लायक कुछ भी नहीं है। तुम्हारे वर्तमान व्यवहार के आधार पर, तुम्हें अपने-आप को थप्पड़ मारना चाहिए, स्वयं को कोसना चाहिए, स्वयं से जबरदस्त घृणा और नफरत करनी चाहिए। तो तुम अपने बारे में डींगें क्यों हाँक रहे हो? तुम्हारा अहंकारी स्वभाव बहुत गंभीर है—तुम पहले ही शीर्ष पर, चरम सीमा पर पहुँच चुके हो! चाहे लोग बहुत कुछ कहें या थोड़ा, उनके लहजे, उनके इरादे और उनकी बातों में अहंकार की झलक होती है और सार होता है। मैं एक सरल उदाहरण प्रस्तुत करूँगा। मान लो कि कलीसिया में एक ऐसा व्यक्ति है जिसने अभी-अभी विश्वास रखना शुरू किया है, जो काफी भरोसेमंद है, जो ईमानदारी से अनुसरण करता है। कुछ लोग उसे हेय दृष्टि से देख सकते हैं, और घमंडपूर्वक उससे कह सकते हैं : “तुम कितने वर्षों से विश्वासी हो? तुम कहाँ से हो? क्या तुम्हारे मन में कुछ धारणाएँ हैं? किन सत्यों के बारे में तुम अभी भी स्पष्ट नहीं हो? क्या तुम इन बुनियादी सत्यों से सुसज्जित हो? इनसे सुसज्जित होने के बाद, तुम्हें सुसमाचार का प्रचार करने चले जाना चाहिए!” किसी को इस तरह से व्याख्यान देने के लिए तुम्हारे पास क्या योग्यताएँ हैं? तुम भी इंसान हो, फर्क बस इतना है कि तुमने थोड़ा पहले स्वीकार कर लिया। फिर भी, तुमने अभी तक अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार में स्थित अहंकार को नहीं त्यागा है। दूसरों को व्याख्यान देने के लिए तुम्हारे पास क्या योग्यताएँ हैं? बेशक, तुम उनके साथ संगति कर सकते हो, लेकिन तुम्हारा दृष्टिकोण और इरादे गलत हैं, तुम्हारा रवैया गलत है और इसकी प्रकृति बहुत घृणित है! सुसमाचार कार्य की स्थिति को समझने के लिए जब ऊपरवाला कुछ लोगों से संपर्क करता है, और उनसे पूछता है कि क्या सुसमाचार का प्रचार करने में कठिनाइयाँ हैं, या सुसमाचार कार्य में किन समस्याओं को हल करने की आवश्यकता है। वे कहते हैं : “कार्य सामान्य है, कोई समस्या नहीं है,” और जानबूझकर उपेक्षा का रवैया अपनाते हैं। वे शायद ही कभी सूचित करते हैं कि सुसमाचार कार्य में कौन-सी समस्याएँ हैं, या उन्हें कैसे हल किया जाता है, और यह भी नहीं बताते कि ऐसी कौन-सी कठिनाइयाँ हैं जिन्हें ऊपरवाले द्वारा हल किए जाने की आवश्यकता है। यह किस प्रकार की समस्या है? क्या यह जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य निभाने की अभिव्यक्ति है? क्या यह परमेश्वर के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति है? वे बार-बार कहते हैं कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसका अनुसरण करते हैं, और वे कहते हैं कि उन्होंने सच्चे परमेश्वर को देखा है, वे वास्तव में आज्ञाकारी हैं, वे वास्तव में परमेश्वर के लिए खुद को खपाने, कीमत चुकाने को तैयार हैं, लेकिन अंत में, वे ऐसा स्वभाव प्रकट कर सकते हैं और ऐसी बातें कह सकते हैं—तुम्हारे विचार से इस प्रकार के व्यक्ति का सार वास्तव में क्या है? ऐसे व्यक्ति का परिणाम क्या हो सकता है? वह किस योग्य है? अगर मैंने ये शब्द नहीं कहे होते, अगर मैंने इस तरह के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई होती, तो तुम लोग क्या कहोगे कि ऐसे लोग किस मुकाम तक पहुँच सकते हैं? परिणाम इतने भयानक हैं कि सोचा भी नहीं जा सकता। जब मैं कुछ लोगों से सामान्य लहजे में कुछ कहता या बातचीत करता हूँ तो वे अहंकारी हो जाते हैं और सोचते हैं कि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ। वे बहक जाते हैं, और ऊँची-ऊँची बातें करने लगते हैं, वे हर चीज में घुसना, उसका मूल्यांकन करना और हमेशा दिखावा करना चाहते हैं। जब मैं देखता हूँ कि वे ऐसे व्यक्ति हैं, तो मैं उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता। तुम लोगों से सच कहूँ तो मैं देखता हूँ कि ज्यादातर लोग काफी घृणित हैं। उनसे मिलने के तुरंत बाद, मैंने तीन वाक्य भी नहीं कहे होते कि वे चापलूसी करने लगते हैं; उनसे मिलने के एक सप्ताह से भी कम समय में, वे परमेश्वर को व्याख्यान देने का साहस तक कर चुके होते हैं। ऐसे व्यक्ति को कुछ समय तक जानने के बाद मैं उसे नापसंद करता हूँ, उस पर ध्यान नहीं देता और बाद में सुनने में आता है कि उसने कुछ बुरा किया है, वह कुकर्मी है। अपने-आप को किसी और की जगह रखकर पलभर के लिए सोचो : अगर अपने बच्चों का पालन-पोषण करते समय तुम लोग इस तरह की स्थिति का सामना करते हो, तो तुम्हें कैसा महसूस होगा? लोग बच्चों का पालन-पोषण इसलिए करते हैं कि वे बुढ़ापे में उनकी देखभाल करेंगे और उन्हें उचित तरीके से दफनाएँगे; यदि बूढ़े होने पर उनके बच्चे उन पर ध्यान नहीं देते, ढोंग करते हुए उन्हें उपदेश देते हैं, उनसे दुर्व्यवहार करते और उन्हें धौंस देते हैं, जरा भी संतानोचित नहीं रहते, तो उन्हें कैसा महसूस होगा? क्या वे क्रोधित और दुखी नहीं होंगे? तुम सभी अभी युवा हो, तुम्हारा अनुभव उथला है, और अभी तुम इसे समझ-सराह नहीं सकते हो। मैं कई जगहों पर गया हूँ और कई लोगों से मिला हूँ। जिन लोगों के साथ मैं बराबरी में बैठ और संगति कर सका, जीवन के बारे में बातचीत कर सका, उनमें से किसी ने भी नहीं कहा : “परमेश्वर मेरे प्रति अच्छा है। मुझे थोड़े-बहुत जमीर और विवेक की आवश्यकता है, मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगा जो मेरे जमीर का उल्लंघन करता हो।” लोग जमीर या इंसानियत से एक छोटा-सा काम भी नहीं कर पाते। वे अपनी स्थिति से बोल तक नहीं पाते, या अपने कर्तव्य पर कायम नहीं रह पाते, सत्य का अभ्यास करने को लेकर तो क्या ही कहा जाए जो वे वैसे भी कर नहीं पाते। यदि लोग बहुत अधिक अहंकारी हो जाएँ, तो उनका अहंकार प्रधान दूत की तुलना में और गंभीर हो जाएगा, एक कदम आगे बढ़ते हुए।
कुछ लोग थोड़ी बेहतर काबिलियत वाले होते हैं; वे थोड़ा-सा काम कर सकते हैं, और उन्हें कलीसिया अगुआ बनने के लिए चुना जाता है। अगुआ बनने के बाद, अभी उन्होंने बहुत अधिक वास्तविक काम नहीं किया होता और वे अहंकारी होने लगते हैं। लोग उनके विचलनों की काट-छाँट करने या उन पर ध्यान दिलाने का साहस नहीं करते; यदि तुम उनसे सख्ती से या थोड़ी कठोरता से बात करो तो वे क्रोधित होकर कहते हैं : “मैं यह नहीं करूँगा। तुम जिससे भी करवाना चाहते हो, उससे करवा लो। मैं भी देखता हूँ कि क्या कोई इसे मुझसे बेहतर कर सकता है। पवित्र आत्मा को उनका खुलासा करने दो!” ये शब्द कितने अहंकारपूर्ण हैं! लोग कितने विद्रोही होते हैं? वे अपने शब्दों या कार्यों के गंभीर प्रभाव के प्रति बिल्कुल संवेदनहीन हैं—वे पूरी तरह से अनजान हैं। जैसे-जैसे मैं उनकी अहंकारी बातों, अहंकारी कार्यों, उनके दिलों में मौजूद अभिप्रेरणाओं और उनके द्वारा धीरे-धीरे प्रकट की जाने वाली कुरूपता का गहन-विश्लेषण करता हूँ, वैसे-वैसे लोग खुद को समझने लगते हैं। लोग इतने संवेदनाहीन होते हैं। इस तरह के गहन-विश्लेषण और स्पष्टीकरण के बिना, क्या लोग स्वयं को जान पाएँगे? क्या वे कोई भी मानवोचित कार्य कर पाएँगे? अगर मैं उन्हें लगातार छड़ी से मारूँ तभी वे बस थोड़ा और अच्छा व्यवहार करेंगे, लोग इतने बेकार होते हैं! लोग पहले से ही अहंकार के इस स्तर पर हैं; अनुशासन बिल्कुल व्यर्थ है। कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर के अनेक वचन पढ़ने के बाद, मुझे लगता है कि वे सत्य हैं, और मनुष्य को उजागर करने के उसके वचन सही हैं, लेकिन मैंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, तो फिर उसने मुझे अनुशासित क्यों नहीं किया है?” तुम लोगों को क्या लगता है : जब प्रधान दूत ने परमेश्वर को धोखा दिया, तब अगर परमेश्वर ने उसे तुरंत अनुशासित और दंडित किया होता, तो क्या वह धोखा दे पाता? क्या उसकी धोखा देने की प्रकृति को दूर किया जा सकता था? क्या उसका अहंकारी स्वभाव दूर किया जा सकता था? ऐसा नहीं किया जा सकता था! इसलिए, आज लोग प्रधान देवदूत से दस या बीस गुना तक अधिक अहंकारी हैं। केवल अनुशासन ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना होगा, उन्हें सत्य को स्वीकार कर उसका अनुसरण करना होगा—केवल तभी परमेश्वर उन पर कार्य कर सकता है, केवल तभी वह उनका परीक्षण कर उनका शोधन कर सकता है। यदि तुम सत्य स्वीकार नहीं कर सकते, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने वर्षों तक विश्वास रखते हो, क्योंकि परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं करेगा। यदि तुम्हारे पास न तो जमीर है और न ही विवेक, तो तुम जानवरों में से एक हो; उसे तुमसे कुछ नहीं कहना है, चाहे तुम कुछ भी करो तुम्हें अनुशासित नहीं किया जाता है, और यदि तुम कलीसिया में व्यवधान डालते हो, तो तुम्हें निकाल दिया जाएगा। इतना सत्य बोलने के बाद, देखो कि लोग उसका अनुसरण करते हैं या नहीं। यदि तुम कहते हो : “मैं अनुसरण करने का पूरी तरह से अनिच्छुक हूँ, मैं पतनशीलता में डूबना चाहता हूँ। मैं पतित बनने को तैयार हूँ,” तो तुम दंड पाने की प्रतीक्षा कर रहे हो। मैं अभी किसी को अनुशासित नहीं करता, मैं बस उनसे बात करता हूँ, उनकी भ्रष्टता को उजागर कर उसका न्याय करता हूँ। यदि तुम इसे दिल पर लेते हो तो तुम ऊर्ध्वगामी दिशा में अनुसरण कर रहे हो; यदि तुम इसे दिल पर नहीं लेते हो, तो तुम बाद में मिलने वाले दंड की प्रतीक्षा कर रहे हो। फिलहाल, सत्य के प्रावधान के अलावा, उजागर करना, न्याय और ताड़ना देना भी है, और फिर दंड और प्रतिशोध भी है। बेशक, प्रतिशोध और दंड कभी-न-कभी आएँगे; कौन कह सकता है कि तुम किस दिन किसी प्रशासनिक आदेश का उल्लंघन करोगे और मारे जाओगे। फिर भी, मैं तुम लोगों में से प्रत्येक को प्रोत्साहित करता हूँ, जागने और सत्य का अनुसरण करने के लिए दंड की प्रतीक्षा मत करो; उस समय, पछताने के लिए काफी देर हो चुकी होगी, और तुम बरबाद हो जाओगे। पछतावा करने के और अवसर नहीं मिलेंगे। उस समय, सत्य का अनुसरण करने में बहुत देर हो चुकी होगी और वह व्यर्थ भी होगा। बल्कि, तुम जल्दी जागृत होने, कुछ मानवोचित, जमीर वाली चीजें करने के लिए वर्तमान का लाभ उठा सकते हो। गलत मार्ग पर हठपूर्वक मत अड़े रहो।
कुछ लोग अपना प्रचार करते हैं कि उनमें अच्छी मानवता है, लेकिन यदि तुममें वास्तव में मानवता है, तो तुम अहंकारी चीजें क्यों करोगे? तुम कोई मानवोचित कार्य क्यों नहीं कर सकते? तुम्हारे भीतर जरा-सा भी जमीर या विवेक क्यों नहीं है? लोग इतने अहंकारी हैं कि उन्हें परमेश्वर को छोड़कर सब-कुछ चाहिए; वे हर सितारे, दानव और शैतान की पूजा करते हैं, लेकिन वे न तो परमेश्वर की आराधना करते हैं और न ही उसके प्रति समर्पण करते हैं; वे कोई भी बुरा काम करने में सक्षम होते हैं। मैं अनेक जगहों पर गया हूँ। कुछ लोग जिन्होंने मेरी मेजबानी की, उन्होंने भोजन और आवास के लिए बड़ी रकम वसूल की है, और इसके अलावा, भोजन और दैनिक वस्तुओं का खर्च कलीसिया उठाता है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि आखिर इन लोगों के पास कोई जमीर कैसे नहीं है? क्या मैं उनका बनाया भोजन खाने के योग्य नहीं हूँ? उन्होंने पहले कहा था कि वे मेरी मेजबानी करने को तैयार हैं, लेकिन जब मैं पहुँचता हूँ तो वे इस तरह का शर्मनाक व्यवहार करते हैं। क्या वे अब भी इंसान हैं? क्या उनमें अब भी मानवता है? बकबक मत करो—सिर्फ बातें मत बनाओ, तुम यह नहीं कर सकते, तुम्हारे भीतर कोई मानवता नहीं है, और तुम एक जानवर हो। तुम अपनी प्रकृति और अपने अहंकार के कारण निंदित हो। लोग बहुत कम आस्था रखते हैं। वे इतने अहंकारी और विद्रोही हैं कि उनके पास परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं बची है! क्या कोई व्यक्ति जो इस हद तक भ्रष्ट है, इंसान कहलाने योग्य है? यही तो दानव और शैतान का प्रतिमान है। लोग सोचते हैं : “भले ही तुम्हारे पास सत्य हो, फिर भी तुम केवल एक व्यक्ति हो, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम मेरी क्या मदद कर सकते हो? तुम मुझे क्या कर सकते हो? तुम मुझे कहाँ ले जा सकते हो? मैं तुम्हें नीची नजर से देखता हूँ। मुझे इसकी परवाह नहीं है कि तुम परमेश्वर हो या नहीं।” उन्हें इसकी परवाह नहीं है। मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि यदि तुम लोगों की कंपनी के प्रमुख तुम्हारे घर गए होते, तो उनके कोशिश करने पर भी तुम उन्हें वहाँ से जाने नहीं देते; तुम उन्हें दो दिन अपने घर में ठहराते, और उनके साथ अच्छा व्यवहार करते। इसलिए, लोगों को हमेशा अहंकारपूर्वक नहीं बोलना चाहिए, यह नहीं कहना चाहिए कि वे परमेश्वर को किसी और से अधिक चाहते हैं, वे किसी और की तुलना में सत्य का अभ्यास करने में बेहतर हैं, वे किसी और की तुलना में खुद को खपाने में बेहतर हैं, उन्होंने किसी और की तुलना में अधिक कीमत चुकाई है, और वे किसी और की तुलना में अधिक वफादार हैं। अपने बारे में शेखी मत बघारो—तुम ऐसा करने योग्य नहीं हो, न ही तुमने वह कीमत चुकाई है, न ही तुमने बहुत अधिक वास्तविक काम किया है। यद्यपि तुमने थोड़ा-सा काम किया है, फिर भी यह ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाने के बराबर नहीं है, परमेश्वर के प्रति पूर्ण निष्ठा और मृत्यु पर्यंत समर्पण तो दूर की बात है। तुम तीन से पाँच साल तक टिके रह सकते हो, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, तुम आगे टिके रहने में असमर्थ होगे, इसलिए तुम लापरवाह बनोगे और शिकायत करोगे। यह मत सोचो कि तुम दूसरे सभी लोगों से ऊँचे हो—इसका मतलब है कि तुम मूर्खतापूर्ण ढंग से अहंकारी हो, तुम मूर्ख हो, तुम उन लोगों से कहीं ज्यादा निम्न हो जिनके पास सत्य वास्तविकता है और इससे भी ज्यादा यह कि तुम्हारा युगों के संतों से कोई मुकाबला नहीं है। क्या तुम वास्तव में किसी भी चीज के बारे में डींगें हाँकने लायक हो? तुम सब कहते हो : “अगर मैंने बाद में परमेश्वर से संपर्क किया, तो मैं गारंटी देता हूँ कि मैं उसे धोखा नहीं दूँगा।” तुम्हारी गारंटी का कुछ समय के लिए परीक्षण किया जाना आवश्यक है। मैं और अधिक लोगों से संपर्क करने को तैयार नहीं हूँ; इनसे संपर्क करना और इनका आचरण देखना मुझे क्रोधित करने के लिए पर्याप्त है! तुम लोगों में से कुछ लोग जानते होंगे कि मैं इस बात से कितना क्रोधित हूँ। मुझे विशेष रूप से उन लोगों को देखकर गुस्सा आता है जो बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो हमेशा सत्ता थामे रखना और दूसरों को नियंत्रित करना चाहते हैं। मुझे उनसे घृणा है। जो लोग बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करते वे सभी काफी बुरे होते हैं, उनमें मानवता नहीं होती; मैं ऐसे लोगों से पूरी तरह संपर्क नहीं करूँगा। जब ऐसे लोग देखेंगे कि मैं उन पर ध्यान नहीं देता, तो वे शिकायत कर सकते हैं। ये लोग बहुत नासमझ हैं! अभी, अधिकांश लोग नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण कैसे किया जाए—उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और उनके भीतर जो थोड़ी बहुत मानवता और विवेक है, वह बहुत खराब है, इसलिए मेरे पास उनसे जुड़ने का कोई रास्ता नहीं है। यदि तुम ऐसे किसी व्यक्ति के साथ दो दिन संपर्क रखते हो, तो वह तुम्हें हेय दृष्टि से देखेगा, अहंकारी—बहुत अहंकारी—हो जाएगा और वह तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, फिर चाहे तुम कुछ भी कहो।
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