मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग तीन) खंड पाँच

सुसमाचार फैलाने के कार्य में ऐसी विभिन्न परियोजनाएँ शामिल होती हैं जिनमें लोगों को विभिन्न कौशलों और पेशों का अध्ययन करने और सीखने की आवश्यकता होती है; लेकिन, कुछ लोग परमेश्वर के इरादे नहीं समझते और आसानी से भटक जाते हैं। वे लेश मात्र भी सत्य स्वीकार किए बिना केवल पेशेवर ज्ञान और कौशलों का अध्ययन करते हैं। यह व्यक्ति किस प्रकार का है? (मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति जो गुणों पर ध्यान केंद्रित करता है।) सही है। इसी प्रकार के व्यक्ति को हम उजागर कर रहे हैं; इस प्रकार के व्यक्ति में मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है, और गंभीर मामलों में, वह मसीह-विरोधी होता है। ऐसे व्यक्ति इस समूह में अग्रणी भूमिका निभाते हुए, इस अवसर का उपयोग ये चीजें सीखने के लिए और फिर इस पेशे या कौशल को जानने वाले सर्वोत्तम लोगों में सर्वोत्तम बनने के लिए करना चाहते हैं, इस क्षेत्र में सबसे अधिक विद्वान और प्रवीण बनना चाहते हैं ताकि दूसरे लोग हर चीज के लिए उन पर भरोसा करें और सत्य का अभ्यास करने के बजाय उनकी बात सुनें। समस्या इसी में है। किस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं? वे जो सिर्फ अध्ययन करने और खुद को हर तरह के ज्ञान, सीख और अनुभव से युक्त करने का प्रयास करते हैं; जो सभी काम करने के लिए अपनी काबिलियत, प्रतिभाओं और गुणों पर भरोसा करते हैं। देर-सवेर, वे सब ऐसे ही मार्ग पर चलेंगे। यह अपरिहार्य है। यह पौलुस का मार्ग है। चाहे तुम्हारा क्षेत्र या कार्यक्षेत्र जो भी हो, दूसरों के मुकाबले थोड़ा अधिक ज्ञान, अनुभव या सबक होना यह दर्शाने के लिए काफी नहीं है कि तुम सत्य समझते हो, या तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है, और निश्चित रूप से इसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है। तो इसे कौन-सी चीज पर्याप्त रूप से दर्शाती है? इन पेशेवर कौशलों का अध्ययन करने के दौरान इस प्रकार के कर्तव्य को निभाने के लिए सिद्धांतों की बेहतर समझ हासिल करना, और साथ ही इस कर्तव्य को निभाने के लिए परमेश्वर के घर के अपेक्षित मानकों की बेहतर समझ हासिल करना। कुछ लोग हैं जिन्हें पेशेवर ज्ञान सीखने देने की तुम जितनी अधिक कोशिश करते हो, वे उतने ही अधिक प्रतिरोधी हो जाते हैं, और सोचते हैं कि उनका कर्तव्य निभाना असंभव है, और यह भी कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने का मतलब अविश्वासी दुनिया से अलग हो जाना होना चाहिए, तो फिर हमें अविश्वासी दुनिया के कौशल और ज्ञान क्यों सीखने चाहिए?” वे नहीं सीखना चाहते हैं। यह आलस्य है। वे अपने कार्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया नहीं रखते हैं, उनमें निष्ठा नहीं होती है, और वे ऐसे मामले में कोई भी प्रयास करने को तैयार नहीं होते हैं। पेशेवर ज्ञान और कौशलों को सीखने का प्रयोजन अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना है। अभी भी बहुत-सा ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान बाकी हैं, जो तुम्हें सीखने हैं। यह परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षा है, मनुष्य के लिए उसका आदेश है। इसलिए, इन चीजों को सीखना व्यर्थ नहीं होगा; यह सब तुम्हारे अच्छे ढंग से कर्तव्य निभाने की खातिर है। कुछ लोग सोचते हैं कि ऐसे कौशल सीखने के बाद, वे परमेश्वर के घर में पाँव जमा सकेंगे। क्या सोचने के इस तरीके का अर्थ मुसीबत नहीं है? यह दृष्टिकोण गलत है। क्या ऐसा कोई है जो इस मार्ग पर चलने में सक्षम है? इस तरह के व्यक्ति को जितनी अधिक शक्ति, जितना बड़ा काम का दायरा और जितनी ज्यादा जिम्मेदारी दी जाती है, उतना ही अधिक खतरा उसके सामने होता है। यह खतरा कैसे उत्पन्न होता है? यह बेशक इसलिए है क्योंकि उसके स्वभाव भ्रष्ट हैं और उसका स्वभाव मसीह-विरोधी का है। चीजें करते समय वह सिर्फ इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि काम कैसे करना है और खानापूर्ति करता है। वह सिद्धांतों को नहीं खोजता। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर के इरादे नहीं समझता, न ही वह सत्य सिद्धांतों को और अधिक समझ या पकड़ पाता है। वह सिद्धांतों को नहीं खोजता, न ही वह अपने द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता की, अपने भीतर उत्पन्न गलत नजरियों की या अपना कर्तव्य निभाते समय जिन गलत दशाओं में गिरता है उनकी जाँच या समीक्षा करता है। वह केवल बाहरी प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित करता है, अपने कर्तव्य के लिए अपेक्षित तरह-तरह के ज्ञान में महारत हासिल करके खुद को उससे लैस करने पर ध्यान केंद्रित करता है। वह मानता है कि व्यक्ति के काम का चाहे जो भी क्षेत्र हो, ज्ञान सबकी अगुआई करता है; ज्ञान से युक्त होने पर वह सशक्त बन जाएगा और खुद को किसी समूह में स्थापित कर लेगा; और ऊँचे स्तर के ज्ञान और उन्नत शैक्षणिक उपाधियों वाले लोग चाहे जिस भी समूह में हों, उनका रुतबा ऊँचा ही होता है। उदाहरण के लिए, एक अस्पताल में, अस्पताल निदेशक आम तौर पर पेशे के सभी पहलुओं में सर्वोत्तम होता है, और वह सबसे मजबूत तकनीकी कौशल से युक्त होता है, और ऐसे लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के घर में भी यही स्थिति है। क्या चीजों को समझने का यह तरीका सही है? नहीं, यह सही नहीं है। यह इस कहावत के विरुद्ध है : “परमेश्वर के घर में सत्य का राज्य है।” ऐसे लोग मानते हैं कि परमेश्वर के घर में ज्ञान का राज्य है, जिसके पास भी ज्ञान और अनुभव है, जिसके पास पर्याप्त वरिष्ठता और पर्याप्त पूँजी है, वह परमेश्वर के घर में स्थापित हो जाएगा, और सबको उसकी बात सुननी पड़ेगी। क्या यह दृष्टिकोण गलत नहीं है? कुछ लोग शायद अनजाने में ही इस तरीके से सोच सकते हैं और कार्य कर सकते हैं; वे इसका अनुसरण कर सकते हैं, और संभव है किसी दिन वे ऐसे बिंदु पर पहुँच जाएँ जहाँ आगे रास्ता बंद हो। वे बंद रास्ते पर क्यों पहुँच सकते हैं? क्या कोई व्यक्ति जो सत्य से प्रेम नहीं करता या उसका अनुसरण नहीं करता, जो पूरी तरह से सत्य की अनदेखी करता है, खुद को समझ सकता है? (नहीं।) और खुद को नहीं समझते हुए भी उसने खुद को अत्यधिक ज्ञान से युक्त किया है, परमेश्वर के घर के लिए थोड़ी कीमत चुकाई है, और कुछ योगदान दिए हैं—उसने इन चीजों को किसमें बदल दिया है? उसने इसे पूँजी में बदल दिया है। और उसके लिए यह पूँजी क्या है? यह सत्य के उसके अभ्यास का लेखा-जोखा है, सत्य वास्तविकता में उसके प्रवेश और उसके सत्य समझने का प्रमाण है। इन चीजों को उसने इसी में बदल डाला है। प्रत्येक व्यक्ति सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को अपने दिल में एक अच्छी और सकारात्मक चीज मानता है। बेशक, इस प्रकार के व्यक्ति की दृष्टि में भी यह सच है। हालाँकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसने ज्ञान को सत्य मानने की गलती की है। फिर भी वह इस गलती को लेकर अच्छा महसूस करता है। यह खतरे की निशानी है। किस प्रकार का व्यक्ति इस तरह से कार्य करेगा? जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं है वे सब इस तरह से कार्य करेंगे, और अनजाने में ही गलत मार्ग पर कदम रख देंगे। और उनके एक बार उस मार्ग पर चल पड़ने के बाद, तुम उन्हें वापस नहीं ला सकोगे। यदि तुम उनके साथ सत्य के बारे में संगति करोगे, उनकी स्थितियों के बारे में बताओगे, और उन्हें उजागर करोगे, तो वे नहीं समझेंगे, वे इसे खुद से जोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। यह आध्यात्मिक समझ की गंभीर कमी है। ऐसा व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अपने ज्ञान, अनुभव और सबक को सत्य मान लेता है। और एक बार जब वह इन चीजों को सत्य मान लेता है, तो अंततः एक विशेष स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। यह अपरिहार्य है। मान लो कि परमेश्वर कुछ कहता है और इस प्रकार का व्यक्ति कुछ और कहता है—तो उनके परिप्रेक्ष्य निश्चित रूप से भिन्न होंगे। तो इस प्रकार का व्यक्ति किसके परिप्रेक्ष्य को सही मानेगा? वह अपने ही परिप्रेक्ष्य को सही मानेगा। तो फिर क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होगा? (नहीं।) वह क्या करेगा? वह अपने ही परिप्रेक्ष्य से चिपका रहेगा और परमेश्वर ने जो कहा है उसे नकारेगा। ऐसा करके क्या वह खुद को सत्य का प्रतिरूप नहीं मानता? (बिल्कुल मानता है।) वह सोचता है कि ठीक एक बौद्ध की तरह उसने अंततः अपने आत्म-विकास में सफलता हासिल कर ली है; जब वह परमेश्वर को नकारता है, तो वह दूसरों से अपने साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करवाता है, और सोचता है कि वह सत्य का प्रतिरूप बन गया है। यह कितनी बेतुकी बात है! उदाहरण के लिए मान लो कि कोई ज्ञान के किसी क्षेत्र या कार्य के किसी क्षेत्र में विशेष रूप से प्रवीण है। इस क्षेत्र में एक गैर माहिर व्यक्ति की हैसियत से, मैं उससे इस क्षेत्र से संबंधित कुछ प्रश्न पूछता हूँ, लेकिन जब मैं ऐसा करता हूँ तो वह दिखावा शुरू कर देता है। यह किस प्रकार का व्यक्ति है? मुझे बताओ, क्या मैं उससे प्रश्न पूछ कर गलती कर रहा हूँ? (नहीं।) तो, मैं उससे प्रश्न क्यों पूछता हूँ? क्योंकि कुछ मामले कार्य और पेशों से संबंधित हैं, और चूँकि मैं उन्हें नहीं समझता हूँ, इसलिए मुझे किसी और से पूछना चाहिए। इसके अलावा, मुझे पता है कि उसे अनुभव है और वह इन मामलों को समझता है। मेरे लिए उससे ये प्रश्न पूछना बिल्कुल उचित है। क्या मेरा इरादा और निपटने का तरीका सही है? (बिल्कुल।) इसमें कुछ भी गलत नहीं होना चाहिए, है कि नहीं? तो वह सही तरीका क्या है जिससे उस व्यक्ति को इस मामले के साथ पेश आना चाहिए? उसे मुझे वह सब बताना चाहिए जो वह समझता है। और फिर उसे इस बारे में कैसे सोचना चाहिए? इस बारे में सोचने का सही तरीका क्या है? गलत तरीका क्या है? कोई सामान्य, तार्किक व्यक्ति इस बारे में किस तरह सोचेगा? मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला कोई व्यक्ति इस बारे में क्या सोचेगा? कुछ लोग यह सुनकर कि मैं नहीं समझता, कहते हैं, “अरे, तुम नहीं समझते! तुम नहीं जानते हमारे लिए ऐसा करना कितना कठिन था! तुम यह नहीं जानते और इसे नहीं समझते!” बातें करते हुए वे दिखावा करने लगते हैं। और यह दिखावा क्या इंगित करता है? यही कि कुछ तो समस्या है। आम तौर पर ये लोग अत्यंत परिष्कृत और पवित्र होते हैं, लेकिन वे एकाएक दिखावा क्यों करने लगते हैं? (वे खुद को सत्य मानते हैं, क्योंकि वे थोड़ा ज्ञान समझते हैं और उन्हें थोड़ा अनुभव है।) सही है। पहले, जब दूसरे उनसे कोई प्रश्न पूछते थे, तो उन्हें नहीं लगता था कि यह कोई बड़ी बात है। लेकिन जब मैं उनसे कोई प्रश्न पूछता हूँ, तो वे सोचते हैं, “क्या तुम सत्य नहीं हो? क्या तुम्हें सब-कुछ नहीं समझना चाहिए? तुम ऐसे मामले को कैसे नहीं समझ सकते हो? यदि तुम इसे नहीं समझते हो, तो मैं तुमसे ऊँचा हूँ।” वे थोड़ा दिखावा करना चाहते हैं। क्या यह वही बात नहीं है जो वे सोच रहे हैं? (बिल्कुल, वही बात है।) वे सम्मानित महसूस नहीं करते, बल्कि उनसे एक शैतानी स्वभाव प्रस्फुटित होता है। एकाएक उन्हें लगता है कि आखिर पृथ्वी और स्वर्ग के बीच वे बहुत शक्तिशाली हैं! क्या यह एक गलत धारणा नहीं हैं? क्या ये लोग बेवकूफ नहीं हैं? (हाँ हैं।) मैं भी यही सोचता हूँ। सिर्फ एक बेवकूफ ही ऐसा सोच सकता है। क्या वे इस क्षेत्र के बारे में थोड़ा-सा भी नहीं समझते? ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो लोग नहीं जानते; उनमें थोड़ी आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। कुछ लोग कपड़ों के बारे में थोड़ा जानते हैं, और सिर्फ उसे छूकर उसकी किस्म के बारे में बता सकते हैं। यदि तुम यह कह कर उनकी तारीफ करते हो, “लगता है तुम कपड़ों के बारे में जानते हो,” तो वे जवाब देंगे : “सही है। तुम इसे नहीं जानोगे क्योंकि तुम लोगों ने इसके बारे में नहीं सीखा है। मैंने इसके बारे में सीखा है, इस बारे में मैं तुम्हारे मुकाबले अधिक विशेषज्ञ हूँ। मैं तुम्हें नीची नजर से नहीं देख रहा हूँ, तुम्हें बस ज्यादा अध्ययन करने की जरूरत है।” क्या यह बहुत घिनौना नहीं है? फिर ऐसे भी लोग हैं जो थोड़ा-बहुत खाना पका लेते हैं, और दिखावा करने लगते हैं कि वे कितने व्यंजन बना सकते हैं और वे कितने लोगों का भोजन बना सकते हैं। कुछ लोग थोड़े समय के लिए गाँवों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता के रूप में कार्य करते हैं। जब कोई भाई-बहन छोटी-मोटी बीमारी होने पर उनके पास आता है, और उनसे मालिश या एक्यूपंक्चर या हिजमा करने का निवेदन करता है, और पूछता है कि क्या इससे वह ठीक हो जाएगा, तो वे जवाब देते हैं : “क्या तुम सोचते हो कि इसका इलाज इतनी आसानी से हो सकता है? तुम लोग नहीं समझते हो। चिकित्सा पेशे से जुड़े हम सब लोग जानते हैं कि मानव शरीर जटिल है। परमेश्वर द्वारा सृजित मनुष्य से रहस्य जुड़े हुए हैं। इसलिए एक्यूपंक्चर या हिजमा का प्रयोग किया जा सकेगा या नहीं, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है।” वास्तविकता में, वे भी बहुत कम जानते हैं। वे किसी चिकित्सकीय दशा को स्पष्ट रूप से समझने या कई बीमारियों का इलाज करने में असमर्थ हैं। लेकिन अपनी नाक कटने से बचाने के लिए वे अब भी रौब दिखाते हैं, दिखावा करते हैं, और एक विशेषज्ञ की तरह कार्य करते हैं। इस प्रकार के लोगों की अभिव्यक्तियाँ दर्शाती हैं कि भ्रष्ट इंसानों में शैतान का स्वभाव होता है, एक मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। इतना ही नहीं ऐसे और भी गंभीर मामले हैं जिनमें लोग अपने भेस बदलते हैं और अंत तक दिखावा करते हैं। दूसरे लोग चाहे उनकी प्रशंसा करें या न करें, वे अपने भीतर गहराई में एक अंधकारपूर्ण विचार पालते हैं। यह सोच क्या है? “मैं कभी भी किसी को अपनी असली पहचान और अपनी क्षमताएँ जानने नहीं दूँगा।” उदाहरण के लिए, अगर वे सिर्फ एक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता हैं, तो वे हमेशा लोगों को यह सोचने देते हैं कि वे मशहूर चिकित्सक हैं, और कभी नहीं चाहते कि कोई जाने कि वे एक बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता हैं या वे वास्तव में बीमारियों का इलाज कर सकते हैं या नहीं। वे डरते हैं कि कहीं दूसरे लोग उनकी स्थिति का सत्य न जान लें। और वे खुद को किस हद तक ढ़क लेते हैं? इस हद तक कि जो भी उसके संपर्क में आते हैं, वे सोचते हैं कि वे कभी गलतियाँ नहीं करते हैं, और उनमें कोई कमियाँ नहीं हैं; वे उन सभी चीजों में प्रवीण हैं जो उन्होंने सीखी हैं, और वे दूसरों की जरूरत का कोई भी काम कर सकते हैं। अगर लोग उनसे पूछते हैं कि वे खाना पका सकते हैं या नहीं, तो वे कहेंगे कि वे पका सकते हैं। उनसे यह पूछने पर कि क्या वे मांचू-हान भोज तैयार कर सकते हैं, तो वे मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं यह नहीं कर सकता,” और आगे पूछने पर वे जवाब देंगे, “हाँ!” फिर भी जब यह करने के लिए कहा जाता है, तो वे मना करने के लिए कोई बहाना बना देंगे। क्या यह धोखा नहीं है? वे कुछ जानने, कुछ भी करने में सक्षम होने, सर्व-सक्षम होने का दिखावा करते हैं—क्या वे बेवकूफ नहीं हैं? लेकिन चाहे वे बेवकूफ हों या उनमें थोड़ी काबिलियत, कुछ क्षमताएँ, या गुण हों, वह कौन-सी एक चीज है जो सभी मसीह-विरोधियों में होती है? यह सब-कुछ समझने का दिखावा करने की, सत्य होने का दिखावा करने की उनकी इच्छा है। हालाँकि वे सत्य होने का सीधे दावा नहीं करते, वे दिखावा करना चाहते हैं कि वे सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता हैं, कि वे सभी चीजें कर सकते हैं। तो क्या इसका निहितार्थ यह नहीं है कि वे सत्य के प्रतिरूप हैं? वे मानते हैं कि वे सत्य के प्रतिरूप हैं, कि वे जो कुछ भी कहते हैं वह सही है, कि यही सत्य है।

कुछ लोगों को ऊपरवाला कोई विशेष कार्य सौंपता है। इसके बारे में जानकर वे मन-ही-मन सोचते हैं : “मुझे यह कार्य ऊपरवाले ने सौंपा था, इसलिए मेरी सत्ता पहले से अधिक हो गई है। अब मुझे अपनी प्रतिभाओं और सत्ता को प्रदर्शित करने का अवसर मिलेगा। मैं नीचे वालों को दिखाऊँगा कि मैं कितना विकट हूँ।” भाई-बहनों से संवाद करते समय वे यह कह कर उन्हें आदेश देते हैं : “जाओ, यह काम करो!” यह पूछने पर कि यह कैसे करना है, तो वे कहते हैं : “तुम यह करोगे या नहीं? नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें सीधा कर दूँगा! यह ऊपरवाले का आदेश है। क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि इसे रोके रखने के फलस्वरूप उन्हें नाराज कर दो? जब ऊपरवाला जवाब माँगेगा, तो इसकी जिम्मेदारी कौन उठा सकेगा?” भाई-बहन जवाब देते हैं : “हम सिर्फ इसका हल निकालना चाहते हैं और इसे बेतरतीबी से और जो भी हमें ठीक लगे उसी तरीके से करने के बजाय इसे करने के सिद्धांत खोजना चाहते हैं। हर चीज को सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। मामला चाहे जो हो, या वह कितना भी जरूरी या महत्वपूर्ण क्यों न हो, इसे चाहे कोई भी सौंपे, सिद्धांतों का पालन करना एक अटल सत्य है। यह हमारा कर्तव्य है और हमें जिम्मेदार होना चाहिए। परमेश्वर हमसे यही अपेक्षा करता है कि हम सिद्धांत खोजें। हम एक जिम्मेदार रवैये के साथ खोज रहे और स्पष्टीकरण पाने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। आपको हमारे लिए यह स्पष्ट करना होगा।” फिर भी वे जवाब देते हैं : “इस मामले में कहने को क्या है? क्या ऊपरवाले की कही हुई बात गलत हो सकती है? जल्दी से इसे पूरा करो!” जवाब में भाई-बहन कहते हैं : “ऊपरवाले ने ऐसा कहा है, इसलिए हम इसे बड़ी जल्दी करेंगे। लेकिन क्या आप हमें स्पष्ट रूप से बता सकते हैं कि इसे कैसे करना चाहिए? क्या कोई विशिष्ट नियम या निर्देश हैं?” वे कहते हैं : “तुम लोगों को जैसा ठीक लगे, वैसा करो। ऊपरवाले से मिले निर्देश उतने अधिक विस्तृत नहीं थे। खुद ही हल निकालो!” यह किस प्रकार का व्यक्ति है? चलो, पल भर के लिए भूल जाते हैं कि इसे करने के पीछे उसकी मंशा या मूल कारण क्या है; इसके बजाय, आओ पहले उसके स्वभाव की जाँच करें। क्या उसका यह दृष्टिकोण ठीक है? (नहीं।) वह ऐसा दृष्टिकोण कैसे पेश कर सकता है? क्या यह सामान्य दृष्टिकोण है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) यह सामान्य नहीं है। क्या यह समस्या उसकी मानसिक स्थिति की है या उसके स्वभाव की? (उसके स्वभाव की समस्या है।) सही है, यह उसके स्वभाव की समस्या है। एक अभिव्यक्ति है “सही समय की प्रतीक्षा करना।” इसका अर्थ है कि अतीत में, अपनी सामर्थ्य का निर्माण करने का सही अवसर उन्हें कभी नहीं मिला; लेकिन, चूँकि अब ऐसा अवसर उनके सामने आया है, तो वे उसे झपट कर कार्य करने के बहाने के रूप में प्रयोग करेंगे। यह किस प्रकार का स्वभाव है? ऊपरवाले से तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य करने को मिले, तुम्हारे क्रियाकलापों के सिद्धांत नहीं बदल सकते। जब ऊपरवाला तुम्हें कोई काम सौंपता है, तो यह महज तुम्हें दिया हुआ आदेश होता है। इसे करना तुम्हारा कर्तव्य भी है। लेकिन, ऊपरवाले से आदेश प्राप्त करने और काम हाथ में लेने के बाद क्या तब तुम पूर्णाधिकारयुक्त राजदूत और सत्य का विशेषज्ञ होने का दावा कर सकते हो? क्या तुम्हारे पास अभी दूसरों को आदेश देने और जैसा चाहो वैसा करने का अधिकार है? क्या तुम्हें इजाजत है कि बस अपने रुझानों का अनुसरण करो, अपनी पसंद के अनुसार और जैसे चाहो वैसे मन मर्जी से कार्य करो? क्या ऊपरवाले द्वारा सीधे तुम्हें कोई काम सौंपने और तुम आम तौर पर जो अपना कर्तव्य करते हो उसे करने में कोई अंतर है? कोई अंतर नहीं है; ये दोनों ही तुम्हारे कर्तव्य हैं। चूँकि दोनों तुम्हारे कर्तव्य हैं, तो क्या काम करने के सिद्धांत बदल गए हैं? नहीं, वे नहीं बदले हैं। इसलिए, तुम्हें चाहे जहाँ से भी कर्तव्य मिले, तुम्हारे कर्तव्य का सार और प्रकृति वही है। ऐसा कहने का मेरा तात्पर्य क्या है? तात्पर्य यह है कि तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि सिर्फ इसलिए कि ऊपरवाले ने तुम्हें कोई काम सीधे सौंपा है, तुम उसे अपनी मर्जी से कर सकते हो, और तुम जो भी करोगे वह सही और उचित होगा। भले ही तुममें कुछ क्षमताएँ हों, फिर भी क्या तुम सत्य सिद्धांत खोजने के मार्ग से भटक सकते हो? तुम अभी भी एक भ्रष्ट इंसान हो। तुम परमेश्वर नहीं बन गए हो; तुम एक विशेष समूह में नहीं हो। तुम अभी भी तुम ही हो, और तुम हमेशा इंसान रहोगे। बाइबल में, ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने स्वयं बुलाया था : मूसा, नूह, अब्राहम, अय्यूब, और दूसरे अनेक। बहुत-से लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने परमेश्वर से बात की है; लेकिन इनमें से एक ने भी अपने आपको कोई विशेष हस्ती या किसी विशेष समूह का सदस्य नहीं माना। इनमें से कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर को आग की लपटों में प्रकट होते देखा, कुछ लोगों ने अपने ही कानों से परमेश्वर के कथन सुने, कुछ ने दूतों को परमेश्वर के वचन सुनाते हुए सुना, और कुछ अन्य लोगों को व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के परीक्षण प्राप्त हुए। क्या उन लोगों में ऐसा कोई था जिसे परमेश्वर ने साधारण इंसान से भिन्न रूप में देखा? (नहीं।) नहीं। परमेश्वर इस तरह से नहीं देखता। लेकिन यदि तुम उस तरह से समझते हो और खुद को हमेशा एक विशेष हस्ती के रूप में देखते हो, तो तुम्हारा स्वभाव किस प्रकार का है? (एक मसीह-विरोधी का स्वभाव।) यह सचमुच एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है, जो कि भयावह है! भले ही परमेश्वर ने तुम्हारे सिर पर अपना हाथ रखा हो, और तुम्हें दिव्य शक्ति के समर्थन से चमत्कार करने या कुछ काम पूर्ण करने की शक्ति प्रदान की हो, तो भी तुम हमेशा इंसान ही रहोगे; तुम सत्य का प्रतिरूप नहीं बन सकते हो। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि तुम सत्य के विरुद्ध होने और अपनी मनमर्जी से कार्य करने के लिए परमेश्वर के नाम का उपयोग करने के हकदार कभी नहीं होगे, ऐसा करना प्रधान दूत का व्यवहार है। कभी-कभी कुछ खास लोगों को विशेष चीजें करने, विशेष कार्य करने, या विशेष घटनाओं या कार्यों का संप्रेषण करने का काम सौंपने के लिए परमेश्वर खास तरीकों या विशेष माध्यमों का उपयोग करता है। यह इस वजह से है कि परमेश्वर मानता है कि ये लोग ऐसे कार्य करने के काबिल हैं, वे परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया काम पूरा कर सकते हैं, और वे परमेश्वर के विश्वास के योग्य हैं—और इससे अधिक कुछ नहीं। भले ही स्वयं परमेश्वर ने व्यक्तिगत तौर पर उन्हें काम सौंपा हो, उन्होंने परमेश्वर के मुख से कथन सुने हों, या परमेश्वर से बात की हो, वे किसी साधारण व्यक्ति से भिन्न नहीं हो जाएँगे; न ही एक सामान्य सृजित प्राणी से किसी अनूठे या उच्च सृजित प्राणी के रूप में उनका उत्थान हो जाएगा। ऐसा कभी नहीं होगा। इसलिए, परमेश्वर के घर में, मानवजाति के बीच किसी की प्रतिभा, पहचान, रुतबा, अनुभव या सबक चाहे जितने विशेष हों, वे सत्य के प्रतिरूप में परिवर्तित नहीं हो सकते। यदि कोई इतनी बेहूदगी से ऐसा होने का दिखावा करता है, तो वह व्यक्ति निस्संदेह एक मसीह-विरोधी है। हालाँकि कुछ लोग कभी-कभार ऐसा स्वभाव प्रकट करते हैं, तब भी वे सत्य को स्वीकार कर प्रायश्चित्त कर सकते हैं। ऐसे लोगों का स्वभाव मसीह-विरोधी का होता है, और वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं; फिर भी उनके बचाए जाने की उम्मीद शेष है। लेकिन यदि कोई निरंतर खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाता है, यह मानना जारी रखता है कि वह सही है, और प्रायश्चित्त करने से इनकार करता है, तो वह सच में एक मसीह-विरोधी है। कोई भी व्यक्ति जो मसीह-विरोधी होता है, वह लेश मात्र भी सत्य स्वीकार नहीं करेगा। भले ही उसका खुलासा कर उसे हटा दिया जाए, फिर भी वह खुद को जान नहीं सकता; न ही उसे सच्चा पछतावा होगा। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं में केवल मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। वे जिन सिद्धांतों पर कार्य करते हैं, और जो मार्ग चुनते हैं, वे मसीह-विरोधी के समान ही होते हैं। वे भी तर्कहीन होते हैं, और सत्य नहीं समझते, वे अपने क्रियाकलापों की प्रकृति और परिणामों से अनभिज्ञ होते हैं, और लापरवाही से कार्य करते हैं। लेकिन वे सबसे अलग इसलिए होते हैं क्योंकि उनमें से कुछ लोग अभी भी मेरी कुछ बातों को स्वीकार सकते हैं। मेरे वचन उन्हें अभी भी जोश दिला सकते हैं, और उनके लिए चेतावनी का काम कर सकते हैं। हालाँकि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है, फिर भी वे कुछ सत्य स्वीकार सकते हैं; वे थोड़ी काट-छाँट स्वीकार सकते हैं, उन्हें सचमुच पछतावा हो सकता है, और वे कुछ हद तक प्रायश्चित्त कर सकते हैं। यह उन्हें मसीह-विरोधियों से अलग करता है। ये ऐसे लोग हैं जिनमें केवल मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। मसीह-विरोधी का प्रकृति सार होने और मसीह-विरोधी का स्वभाव होने में एक सारभूत समानता है। वे मूल रूप से एक समान हैं, एक मसीह-विरोधी होने और मसीह-विरोधी का स्वभाव वाला होने में एक समान लक्षण यह है कि दोनों में मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। लेकिन, इनमें से कुछ लोग सत्य स्वीकार सकते हैं, और सच्चा पछतावा दिखा सकते हैं। ऐसा व्यक्ति मसीह-विरोधी नहीं है, बल्कि वह मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति है। एक मसीह-विरोधी और मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले व्यक्ति के बीच यही अंतर है। कोई भी व्यक्ति जो लेश मात्र भी सत्य स्वीकार नहीं सकता और जिसे सच्चा पछतावा नहीं होता, वह सच में एक मसीह-विरोधी है। कोई भी व्यक्ति जो सत्य स्वीकार सकता है और जिसे सच्चा पछतावा है, वह मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति है और उसे बचाया जा सकता है। तुम्हें इन दो प्रकार के लोगों में भेद करना और उन्हें पहचानना आना चाहिए और आँख मूँद कर निरूपण नहीं करना चाहिए। तुम लोग किस प्रकार के हो? कुछ लोग कह सकते हैं, “मुझे ऐसा क्यों लगता है मानो मैं मसीह-विरोधी के ही समान हूँ। कोई अंतर दिखाई नहीं देता।” यह भावना सटीक है, कोई भी स्पष्ट अंतर नहीं है। यदि तुम सत्य स्वीकार सकते हो, और सच्चा पछतावा दिखा सकते हो, तो वही एकमात्र अंतर है; मानवता के लिहाज से भी यह एक अंतर है। यानी, मसीह-विरोधी एक बुरा व्यक्ति है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति बुरा व्यक्ति नहीं है; उसमें सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव है। यही एकमात्र अंतर है। उनके भ्रष्ट स्वभावों में कोई अंतर नहीं है, इस मामले में वे सभी एक समान हैं, यह एक सारभूत समानता है जिसे वे सभी साझा करते हैं। परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर की गई भ्रष्ट मानवता की विभिन्न स्थितियाँ पूरी तरह से सही हैं और वास्तविकता से जरा भी भटकी हुई नहीं हैं। जब परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे सभी एक जैसा महसूस करते हैं; वे सभी वही समझ साझा करते हैं, सिर्फ उनके अनुभवों की गहराई में अंतर होता है। वे सभी अपने अहंकार और विवेकहीनता को पहचानते हैं। वे सभी इसका एहसास करने में सक्षम होते हैं कि उनमें बहुत-से भ्रष्ट स्वभाव हैं, शैतान द्वारा मानवजाति को बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया गया है, और परमेश्वर के लिए मानवजाति को बचाना आसान नहीं है। हालाँकि बहुत कुछ कहा जा चुका है, फिर भी काफी कुछ कहना बाकी है। वे सभी पहचानते हैं कि मानवजाति दरिद्र और दयनीय है, अंधी और अज्ञानी है। वे सभी जानते हैं कि शैतान ने ही मानवजाति को बहुत गहराई तक भ्रष्ट किया है, मानवजाति की भ्रष्टता और दुष्टता का मूल कारण शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किया जाना और उसका नियंत्रण करना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद, मानवजाति शैतान के जहर से कलंकित हो गई, और इस तरह से उसने खुद में शैतान का स्वभाव पैदा कर लिया और सामान्य इंसानों की तार्किकता, जमीर और विवेक को खो दिया। लोगों में उचित और अनुचित के बीच भेद करने की क्षमता नहीं रही। यदि परमेश्वर ने मानवजाति के लिए व्यवस्थाओं की स्थापना न की होती, तो लोग यह नहीं जान पाते कि किसी को पीटना या किसी की जान ले लेना, या चोरी करना या लंपट होना उचित है या अनुचित। वे अपने क्रियाकलापों को उचित मानते और सोचते कि उन्हें इसी ढंग से कार्य करना चाहिए। लेकिन परमेश्वर द्वारा व्यवस्थाओं और आदेशों की घोषणा के बाद, लोग अवगत हुए कि ये चीजें करना एक पाप है; उनकी तार्किकता थोड़ी अधिक सामान्य हो गई। बेशक, यह तार्किकता का सतही स्तर मात्र ही है, जो उनके सत्य समझ लेने के बाद स्वाभाविक रूप से अधिक अगाध हो जाएगा। अब, यदि लोग विभिन्न सत्यों को ज्यादा समझने, खुद को जानने, और अपना उचित स्थान ढूँढ़ने में सक्षम हों, और अपनी काबिलियत, बोध और सत्य समझने की क्षमता की सीमा को सटीक ढंग से मानने में सक्षम हों, और यदि वे सत्य को एक मानक के रूप में उपयोग करने और यह समझने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा करने में भी सक्षम हों कि परमेश्वर के प्रति भ्रष्ट इंसानों द्वारा अपनाए गए विभिन्न रवैयों में से कौन-से सकारात्मक हैं और कौन-से नहीं, और कौन-से रवैये धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और कौन-से सत्य के अनुसार हैं, तो उनकी तार्किकता और अधिक सामान्य हो जाएगी। इसलिए केवल सत्य ही लोगों को एक नया जीवन दे सकता है। लेकिन यदि तुम खुद को ज्ञान से युक्त करते हो, कुछ विशेष अभ्यासों पर जोर देते हो, और हमेशा दिखावा करते हो, हमेशा अपना प्रदर्शन करते हो, और हमेशा उस थोड़े-से पुराने, तुच्छ ज्ञान या सीख को दिखाते हो और सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो क्या तुम यह नया जीवन प्राप्त करने में सक्षम होगे? नहीं, यह भ्रम होगा। न सिर्फ तुम इसे प्राप्त नहीं करोगे, तुम उद्धार का अवसर भी खो दोगे, और यह बहुत खतरनाक है!

तुममें से प्रत्येक ने सत्य पर अनेक धर्मोपदेश सुने हैं, और अब कमोबेश तुम्हें विभिन्न प्रकार के लोगों की थोड़ी पहचान है। हालाँकि तुम बुरे लोगों और खराब लोगों को पहचान सकते हो, फिर भी तुम झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को नहीं पहचान सकते हो। अब परमेश्वर का घर धीरे-धीरे कलीसिया में से उन सब लोगों को दूर कर रहा है जो लेश मात्र भी सत्य नहीं स्वीकारते, जो अभी भी लापरवाही से कार्य करते हैं, और परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त करते हैं। यह दर्शाता है कि परमेश्वर का कार्य इस चरण तक पहुँच गया है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग जागरूक होने लगे हैं। पहले जब मैं कुछ खास लोगों के संपर्क में आया था, मुझे हमेशा भान हुआ कि उनसे एक प्रकार की “गंध” निकल रही है। किस प्रकार की गंध? यह बस वन्य पशुओं और खूंखार जानवरों जैसी गंध थी, जो किसी के उनके करीब जाने से पहले ही अपने रोएँ खड़े कर लेंगे और चिल्लाएँगे। इंसान भी जानवरों जैसे कुछ व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। ये व्यवहार कैसे उत्पन्न होते हैं? ये उन भ्रष्ट शैतानी स्वभावों से उत्पन्न होते हैं जो लोगों में होते हैं। “गंध” से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है कि उनकी आँखों में देखने पर तुम्हें ईमानदारी नजर नहीं आती; इसके बजाय, तुम्हारा सामना एक खाली और भटकती हुई नजर से होता है। उन्हें लगता है कि वे तुम्हें आँकने में असमर्थ हैं, और इसलिए तुम्हें देखते समय उनकी आँखें भटकती हैं। जब वे बोलते हैं तो उनकी बातों में कोई खरापन भी नहीं दिखता, क्योंकि उनके भीतर गहराई में कोई खरापन नहीं है। मेरे यह कहने का क्या तात्पर्य है कि उनमें खरापन नहीं है। मेरा तात्पर्य यह है कि वे चाहे जिससे भी बातचीत करें, उनके भीतर एक रक्षात्मक अवरोध होता है। उनकी नजरों, उनकी आवाज के लहजे और उनके बोलने के ढंग में तुम्हें इस रक्षात्मक अवरोध का बोध हो सकता है। ऐसी ही गंध उनमें है; इससे व्यक्ति को लगता है कि हालाँकि उन्होंने अनेक धर्मोपदेश सुने हैं, फिर भी वे सत्य नहीं समझते हैं, न ही उन्होंने उद्धार के मार्ग पर कदम रखे हैं। तुम उनसे सत्य पर चाहे जैसे संगति करो, या मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करो; तुम उनसे जितनी भी ईमानदारी से पेश आओ, उन्हें आपूर्ति दो, उनकी चरवाही करो, या मदद करो, तुम उनसे ईमानदार रवैया नहीं पा सकोगे। तो उनके भीतर क्या होता है? सतर्कता, संदेह—ये सबसे सामान्य हैं; यही नहीं, उनमें एक प्रकार की आत्मरक्षा भी है, और यह इच्छा भी कि उनके बारे में हमेशा ऊँचा सोचा जाए। इसलिए, उनके कथन, उनकी आँखों का भाव, उनके चेहरे के हाव-भाव, ये सब किसी बहुत अस्वाभाविक चीज का खुलासा करते हैं। यानी, उनकी नजरों और हाव-भाव से तुम्हें जो बोध होता है, वह उससे भिन्न होता है जो वे भीतर गहरे सोच रहे होते हैं। संक्षेप में कहूँ तो, चाहे कोई व्यक्ति दब्बू हो या सावधान हो या उसमें कोई कठिनाई हो, यदि तुम उसका खरापन नहीं देख सकते तो क्या इससे समस्या नहीं होगी? (बिल्कुल।) सचमुच यह एक समस्या है। तो हम यह कैसे बता सकते हैं? हम उनके व्यवहार या बोलने के ढंग से बता सकते हैं। वे अपने मन की बात नहीं कहते; बल्कि वे उन शब्दों को चुनते हैं जिन्हें वे उपयुक्त समझते हैं और उन चीजों के बारे में संगति करते हैं जिनके बारे में उन्होंने पहले ही सोच रखा है। यह गैर-विश्वासियों की आत्मरक्षा की रणनीति है। जब भी कोई चीज उन पर आ पड़ती है, तो वे पहले साही की तरह अपनी रक्षा करने के लिए काँटे खड़े कर लेते हैं। उनका सत्य, उनकी क्षमताएँ और प्रतिभाएँ, उनकी की हुई गलतियाँ, उनकी हैरानी—यहाँ तक कि उनका धोखा और पाखंड भी—ये सब उनके मेरुदंड में लिपट जाते हैं, बाहरी दुनिया की दृष्टि से और मेरी दृष्टि से भी दूर कर दिए जाते हैं। वे खुद को छिपाने और बढ़िया दिखाने और अपनी रक्षा करने के लिए भी जबरदस्त प्रयास करते हैं। ये चीजें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? मानवजाति ने शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद ये चीजें हासिल कीं। शुरुआत में, परमेश्वर द्वारा आदम और हव्वा के सृजन के बाद, उसने उन्हें अदन के बाग में रहने का रास्ता दिखाया; उसने उन्हें बताया कि वे किस वृक्ष के कौन-से फल खा सकते हैं, और कौन-से नहीं खा सकते। परमेश्वर के समक्ष वे नग्न थे और उन्हें कोई शर्म नहीं थी। और उन्होंने इस बारे में क्या सोचा? उन्होंने सोचा कि परमेश्वर ने इसी तरह उनका सृजन किया था, उनके पास वह सब था जो परमेश्वर ने दिया था, और उन्हें परमेश्वर से छिपने की जरूरत नहीं थी—उन्होंने कभी ऐसा करने की नहीं सोची। इसलिए, परमेश्वर के सामने वे चाहे जैसे भी दिखें, वे हमेशा खुले दिल वाले थे। तुम उनकी आँखों में ईमानदारी देख सकते थे; उनके दिलों की गहराई में परमेश्वर के विरुद्ध कोई बचाव या रक्षात्मक दीवारें नहीं थीं। उन्हें परमेश्वर के समक्ष खुद की रक्षा करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि वे अपने दिल की गहराई में जानते थे कि परमेश्वर से उन्हें कोई खतरा नहीं है; वे बिल्कुल सुरक्षित हैं। परमेश्वर सिर्फ उनकी रक्षा करेगा, उनसे प्रेम करेगा और उन्हें सँजोएगा। परमेश्वर उन्हें कभी हानि नहीं पहुँचाएगा। भीतर गहराई में यह उनका सबसे बुनियादी और ठोस विचार था। लेकिन इसमें बदलाव कब शुरू हुआ? (जब उन्होंने अच्छाई और बुराई के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया।) दरअसल, अच्छाई और बुराई के ज्ञान के वृक्ष से फल खाना प्रतीकात्मक है। इसका अर्थ था कि जिस क्षण शैतान ने हव्वा को सबसे पहले लुभाया, तब से वे शैतान द्वारा थोड़ा-थोड़ा लुभाए जाते रहे, वे पाप करते रहे, गलत काम करते रहे और गलत मार्ग पर चलते रहे; फिर शैतान के जहर ने उनके भीतर प्रवेश किया। इसके तुरंत बाद, परमेश्वर के आगमन से पहले, वे परमेश्वर से अक्सर छिपते रहे, इस चाह से कि परमेश्वर उन्हें ढूँढ़ न पाए। उन्होंने ऐसा क्यों किया? वे परमेश्वर से दूरी महसूस करते रहे। मगर यह दूरी कैसे पैदा हुई? इस वजह से कि उनके भीतर कुछ भिन्न था। शैतान ने उन्हें कुछ विचार और नजरिये दिए; उसने उन्हें एक प्रकार का जीवन दिया, जिसके कारण वे परमेश्वर पर शक करने लगे और उससे सतर्क रहने लगे। फिर उन्होंने फौरन सोचना शुरू कर दिया कि कहीं उन्हें नग्न देखकर परमेश्वर उनकी हँसी न उड़ाए। यह विचार कहाँ से आया? (शैतान से।) शैतान द्वारा लुभाए जाने से पहले उन्होंने इस तरह क्यों नहीं सोचा? उस वक्त, उनमें परमेश्वर का दिया हुआ सबसे आदिम जीवन था; वे परमेश्वर के हँसी उड़ाने से नहीं डरते थे, न ही उनमें ऐसे विचार थे। फिर भी शैतान द्वारा लुभाए जाने के बाद, सभी चीजें बदलने लगीं। पहले उन्होंने सोचा, “हमने कुछ नहीं पहना है। क्या परमेश्वर हम पर नहीं हँसेगा? क्या इसका यह मतलब है कि हमें कोई शर्म नहीं है?” उनके मन में सवालों की झड़ी लग गई। और इन विचारों के उत्पन्न होने के बाद, वे खुद को परमेश्वर से छिपने से रोक नहीं सके। उन्होंने जरूर मन-ही-मन सोचा, “परमेश्वर कब आ रहा है? यदि परमेश्वर आया, तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे तुरंत छुप जाना चाहिए!” उन्हें हमेशा छिपे रहने की जरूरत महसूस हुई। क्या यह भ्रष्ट स्वभाव है? (बिल्कुल।) इस भ्रष्ट स्वभाव की जड़ शैतान का प्रलोभन है। परमेश्वर से सतर्क रहकर और उससे छिपकर भी क्या वे अपने दिलों में परमेश्वर में विश्वास रखेंगे? क्या वे अभी भी उस पर भरोसा करेंगे? (नहीं।) तो फिर बचा क्या? (सतर्कता।) जो चीजें बच गईं वे सिर्फ सतर्कता और संदेह थे, और साथ ही दूरी, भय और शक—ये सब चीजें आ गईं। उन्होंने यह भी सोचा, “क्या परमेश्वर हमें हानि पहुँचाएगा? हम नग्न हैं और हमारे पास ऐसी कोई चीज नहीं है जिससे खुद को बचा सकें। क्या परमेश्वर हम पर वार कर सकेगा? क्या वह हमें मार सकेगा?” यह उन्हें कभी नहीं सूझा कि उन्हें यह जीवन परमेश्वर ने दिया था, और निश्चित रूप से वह उन्हें अकारण नहीं मार डालेगा। उनके दिमाग में धुंधलका था, वे भ्रमित हो गए थे। शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता आज तक जारी है; परमेश्वर के प्रति मानवजाति के रवैये को लोगों की आँखों में देखा जा सकता है, और यह कभी नहीं बदला है। ईमानदारी जा चुकी है; सच्ची आस्था, विश्वास और परमेश्वर पर भरोसा जा चुके हैं। इन सबकी जड़ कहाँ है? (शैतान की भ्रष्टता में।) सही है, यह शैतान की भ्रष्टता में है। शैतान ने मानवजाति को भयानक रूप से हानि पहूँचाई है! हालाँकि लोग सोच सकते हैं कि शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किए जाने से पहले का समय काफी अच्छा था, लेकिन वास्तविकता में, बचाए जाने और सत्य समझने और परमेश्वर को जानने के बाद के समय की तुलना करने पर, तब की चीजें उतनी अच्छी नहीं थीं जितनी बचाए जाने के बाद हैं। यदि तुम चुन सको, तो इन दोनों परिदृश्यों में से किसे चुनोगे? (बचाए जाने के बाद का समय।) वास्तव में, लोगों के लिए किसी को भी चुनना उचित नहीं है; इंसान नहीं चुन सकते। यह परमेश्वर द्वारा नियत है, यह मानवजाति की नियति है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले, भले ही लोगों को परमेश्वर में विश्वास था और वे उस पर भरोसा करते थे, फिर भी पहले-पहल मानवजाति सत्य नहीं समझती थी और नहीं जानती थी कि परमेश्वर कौन है। आजकल, लोगों के मन में कम से कम इसकी एक अवधारणा तो है; वे जानते हैं कि मानवजाति परमेश्वर से आती है, कि वे सृजित प्राणी हैं और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। वे जानते हैं कि परमेश्वर के हाथ में सभी चीजों का नियंत्रण है। लेकिन उस वक्त लोग ये चीजें नहीं समझते थे। वे बहुत सरल थे, यानी वे परमेश्वर के उन्हें देखने या उन पर हँसने से नहीं डरते थे, और वे सभी चीजों के लिए परमेश्वर का रुख करते थे। उनके विश्वास इतने सरल थे। फिर भी, क्या वे जानते थे कि परमेश्वर कौन है? नहीं। इसलिए, परमेश्वर के किए हुए समस्त कार्य का मानवजाति के लिए अथाह मूल्य और महत्त्व है। यह सब अच्छा है। जब हम परमेश्वर के विरुद्ध मानवजाति के विद्रोह के इतिहास की बात करते हैं, तो क्या तुम लोग बहुत दुखी हो जाते हो? मानवजाति और परमेश्वर के बीच पहले जो घनिष्ठ संबंध था वह अब बहुत दूरी का हो गया है। परमेश्वर ईमानदारी से मानवजाति की रक्षा करता है, उससे प्रेम करता है, फिर भी इंसान परमेश्वर पर संदेह करते हैं; वे परमेश्वर से छिपते और उससे दूर हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे परमेश्वर को एक दुश्मन के रूप में देखते हैं। ऐसा कहने में सचमुच बहुत दुख होता है। लेकिन हम अपनी नफरत को सिर्फ शैतान की ओर मोड़ सकते हैं; शैतान ने ही मानवजाति को इतने भयावह तरीके से भ्रष्ट किया है। हालाँकि शैतान ने मानवजाति को इस हद तक भ्रष्ट किया है, फिर भी परमेश्वर के पास मानवजाति को बचाने का एक तरीका है। शैतान चाहे जैसी भी बाधा पैदा करे, इससे परमेश्वर के मानवजाति को बचाने का कार्य प्रभावित नहीं होगा। यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता है, परमेश्वर का अधिकार है।

थोड़ा अनुभव और ज्ञान हासिल कर लेने और कुछ सबक सीख लेने के बाद मसीह-विरोधी सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं। हमने इस विषय पर कमोबेश काफी संगति कर ली है। तुम लोगों ने इससे क्या जानकारी हासिल की है? तुम कौन-से सत्य समझते हो? (हमें ज्ञान को महत्व नहीं देना चाहिए।) यह एक पहलू है। क्या दूसरे पहलू भी हैं? (मानवजाति कभी भी सत्य नहीं है और उसे खुद को कभी परमेश्वर नहीं दिखाना चाहिए।) खुद को सत्य के रूप में दिखाना अपने आप में कोई सकारात्मक चीज नहीं है। सत्य ऐसी चीज नहीं है जो होना कोई दिखा सकता है; यह परमेश्वर का सार है। परमेश्वर तुम्हें कुछ सत्य प्रदान करता है—और थोड़ा सत्य हासिल करना पहले ही काफी है। फिर भी कुछ लोग सत्य का प्रतिरूप बनना चाहते हैं। यह असंभव है। ऐसे दावे पूरी तरह से आधारहीन हैं। इसके अलावा, यदि लोग परमेश्वर में विश्वास रखने के जरिए बचाया जाना चाहते हैं, तो उन्हें जमीनी तौर पर आचरण करना सीखना चाहिए और पूर्णता के पीछे नहीं भागना चाहिए। हालाँकि “पूर्णता” शब्द मौजूद हो सकता है, लेकिन इंसानों के पूर्ण बन जाने का विचार अमान्य है। पूर्णता केवल परमेश्वर में पाई जा सकती है। भ्रष्टता से भरे हुए इंसानों में से कौन पूर्ण है? परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजें त्रुटिहीन हैं। हम इसी को “पूर्णता” कहते हैं। समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों, पृथ्वी पर विचरने वाले मुर्गों और पशुओं पर विचार करो—वे सभी पूर्ण हैं। क्या तुम ऐसा कोई ढूँढ़ सकते हो जो अच्छा नहीं है? फिर सभी सजीव चीजों द्वारा बनाई गई एक जैविक श्रृंखला है—यह कितनी पूर्ण है! भ्रष्ट इंसान सिर्फ विनाश का कारण बन सकते हैं, चीजों को अधूरा, दोषपूर्ण और अपूर्ण बना सकते हैं। यह कितना स्वार्थपूर्ण और घिनौना है! परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजें अच्छी हैं। वृक्षों के पत्ते हर आकार के होते हैं; बड़े और छोटे जानवर हर कद-काठी के होते हैं, सबके अपने कार्य होते हैं। परमेश्वर मानवजाति के प्रति अत्यंत विचारशील है; लेकिन, शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई मानवजाति सभी चीजों की देखभाल करने में विफल रही है। इसके बजाय, मानवजाति ने चीजों को तबाह किया है और परमेश्वर के कष्टसाध्य इरादे को व्यर्थ कर दिया है। इंसानों ने इन सबको संजोया नहीं है; बल्कि उन्होंने बड़ी प्रबलता से इसे तबाह किया है, सभी संसाधनों को चरम सीमा तक बर्बाद और नष्ट किया है। और इसका नतीजा क्या है? अंतिम परिणाम क्या है? जैसी करनी वैसी भरनी! पर्यावरण नष्ट हो गया है, खाद्य श्रृंखला बाधित हो गई है, वायु प्रदूषित हो गई है, और जल दूषित हो गया है। अब कोई कुदरती भोजन नहीं बचा है; पीने के लिए साफ पानी भी नहीं है। इसलिए, शैतान द्वारा भ्रष्ट इंसानों के बीच “पूर्णता” की अवधारणा मौजूद नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो सत्य का अनुसरण करने के ध्वज के नीचे पूर्ण होने का दावा करता है या पूर्णता को खोजने का दावा करता है, वह ऐसा दावा करता है जिसमें कोई दम नहीं है—यह एक कपटी, गुमराह करने वाला झूठ है। फिर भी ऐसे भ्रष्ट इंसान खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने की इच्छा रखते हैं! उन्होंने बहुत-सी खराब चीजें की हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखा सकते हैं! क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी शैतानी प्रकृति बदलती नहीं है? (बिल्कुल।) जरा भी सत्य से युक्त न होने पर भी खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने की इच्छा रखते हैं, शैतान की किस्म के लोग कितने बेशर्म होते हैं!

20 नवंबर 2019

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