मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग तीन) खंड चार

कुछ लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं पर उसके लिए स्वेच्छा और खुशी से खुद को नहीं खपाते हैं, बल्कि अनिच्छा से अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे आशीष प्राप्त करने के लिए ही श्रम करने के बारे में सोचते हैं, मगर सत्य की दिशा में प्रयास करने को तैयार नहीं होते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के समय, वे अक्सर लापरवाही से कार्य करते हैं, और सावधान नहीं रहते, और सिर्फ थोड़े-से नतीजे हासिल करके संतुष्ट हो जाते हैं, ताकि वे निकाले न जाएँ। लेकिन चाहे लोग परमेश्वर में सच्चे मन से विश्वास रखें या नहीं, और उसके लिए खुद को खपाएँ या नहीं, वह लोगों को प्रायश्चित्त करने का अवसर देता है। परमेश्वर इस कारण से तुम्हारी निंदा नहीं करेगा कि तुम सत्य नहीं समझते हो या अपना कर्तव्य निभाते समय लापरवाही से काम करते हो। परमेश्वर यह देखने के लिए निरंतर तुम्हारी जाँच-पड़ताल करेगा कि क्या तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, क्या तुम वास्तव में प्रायश्चित्त कर सकते हो और क्या तुम सही जीवन मार्ग पर कदम रख सकते हो। यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कैसे चुनते हो। कुछ लोग अपना कर्तव्य निर्वहन शुरू करते समय कोई भी सत्य नहीं समझते थे, लेकिन चूँकि वे अक्सर धर्मोपदेश सुनते हैं, और अक्सर सभा करके संगति करते हैं, इसलिए वे धीरे-धीरे सत्य समझने लगते हैं। उनके दिल और अधिक उजले हो जाते हैं और वे समझ जाते हैं कि उनमें काफी कमी है, उनके पास जरा भी सत्य नहीं है, और उनके कर्तव्य निर्वहन में उनके पास कोई सिद्धांत नहीं है, वे बस अपनी मर्जी से कुछ कार्य करते हैं। उन्हें लगता है कि उनका इस तरह कर्तव्य निभाना परमेश्वर के इरादों के अनुसार नहीं है, और उनके दिल पछतावे से भर जाते हैं। वे सत्य के लिए प्रयास करने लगते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय अधिक बेहतर नतीजे हासिल करते हैं। बस इसी तरह, एक लिहाज से, वे जीवन प्रवेश प्राप्त करते हैं, और दूसरे लिहाज से, वे धीरे-धीरे अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मानक-स्तर के हो जाते हैं। ये वे लोग हैं, जो अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य स्वीकार सकते हैं। जैसे-जैसे उनकी सत्य की समझ धीरे-धीरे अधिक स्पष्ट होती जाती है, वे अपनी खुद की भ्रष्टता के खुलासों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। वे अपने दिलों में परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, और परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं, अपनी भ्रष्टता त्यागने को तैयार हो सकते हैं, सत्य अभ्यास में ला सकते हैं, और सत्य के अभ्यास के मार्ग पर कदम रख सकते हैं। कर्तव्य निर्वहन के दौरान जीवन का क्रमिक विकास यही है। जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान सत्य समझ लेते हैं, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाते हैं। यदि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो क्या ऐसा बदलाव हो सकता है? बिल्कुल नहीं। कुछ लोग खास तौर पर अहंकारी और दंभी होते हैं। जब वे परमेश्वर के घर आते हैं, खास तौर से अपना कर्तव्य निभाने के बाद, तो इसकी सीमा स्पष्ट हो जाती है। दोनों हाथ सीने पर बाँधकर, या हाथों को कमर पर रखकर वे अवज्ञा और असंतोष का प्रदर्शन करते हैं। वे इतने अधिक अहंकारी क्यों हैं? वे अपने दिलों में कहते हैं : “परमेश्वर में विश्वास रखकर अपना कर्तव्य निभाने के लिए, मैंने दुनिया, अपना परिवार, और अपना काम त्याग दिया है। क्या यह कीमत ज्यादा नहीं है? मैंने परमेश्वर के लिए बहुत अधिक त्यागा है। क्या परमेश्वर को मुझे कुछ मुआवजा नहीं देना चाहिए? इसके अलावा, समाज में मेरे रुतबे और आमदनी के अनुसार क्या परमेश्वर के घर को मुझसे कम-से-कम उसी तरह पेश नहीं आना चाहिए? अब चूँकि मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, क्या परमेश्वर मुझ पर कोई विशेष कृपा नहीं कर सकता? मैं साधारण लोगों से काफी बेहतर एक विशेष प्रतिभावान व्यक्ति हूँ। परमेश्वर के घर में मेरा रुतबा होना चाहिए। यदि दूसरे लोग अगुआई कर सकते हैं, तो मैं भी अगुआई कर सकता हूँ। मेरा रुतबा दूसरे लोगों से कम नहीं होना चाहिए, और मुझे साधारण लोगों से बेहतर व्यवहार मिलना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या परमेश्वर मुझे आश्वस्त कर सकता है कि मुझे भविष्य में आशीष मिलेंगे और अच्छी मंजिल मिलेगी?” उनके दिलों के विचारों से हम समझ सकते हैं कि वे ईमानदारी से परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने नहीं बल्कि उससे एक सौदा करने आए हैं। वे उसी तरह से सोचते हैं जैसे पौलुस ने सोचा था, परमेश्वर के आशीषों के बदले में अपना कर्तव्य निभाने की इच्छा करना। लेकिन उनका विवेक पौलुस के विवेक के मुकाबले बहुत बदतर है—यह पौलुस के विवेक से अत्यंत घटिया है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इस कारण से कि पौलुस ने सुसमाचार का प्रचार करने के अनेक वर्षों के दौरान सचमुच बहुत कष्ट सहे, और सुसमाचार का प्रचार करने के उसके फल साधारण लोगों की अपेक्षा काफी बेहतर थे। कम-से-कम उसने अधिकाँश यूरोप में अपने कदमों की छाप छोड़ी; उसने पूरे यूरोप में कई कलीसियाएँ स्थापित कीं। इस लिहाज से, साधारण मसीह-विरोधी अपनी तुलना पौलुस के विवेक या उसके श्रम की मात्रा से नहीं कर सकते। लेकिन जिस व्यक्ति का मैंने अभी जिक्र किया वह बस अपना कर्तव्य निभाने के बाद बेहद अहंकारी हो जाता है। क्या यह विवेक का अत्यधिक अभाव नहीं दर्शाता है? वे बेहद अविवेकपूर्ण होते हैं, और एक डाकू की तरह आशीष प्राप्त करने का अवसर झपट लेने के बाद उसे त्याग नहीं सकते हैं। ऐसे लोग हमेशा जानबूझकर परमेश्वर के घर में प्रसिद्धि पाने के अवसर ढूँढ़ते रहते हैं, भले ही वह किसी टीम का अगुआ बनना हो या कोई पर्यवेक्षक। संक्षेप में कहें तो जब वे परमेश्वर के घर में आते हैं तो वे एक साधारण अनुयायी बनने को तैयार नहीं होते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन यह स्वीकार कर सकता है कि वे साधारण सृजित प्राणी हैं, दूसरे सभी सृजित प्राणियों की तरह वे भी बस एक साधारण सृजित प्राणी हैं, फिर भी वे कभी भी इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करेंगे—वे कभी भी खुद के साथ इस तरह गलत नहीं होने देंगे। वे मानते हैं कि उनके साथ विशेष व्यवहार होना चाहिए, और परमेश्वर को उन्हें विशेष अनुग्रह और आशीष देने चाहिए। वे परमेश्वर के घर में रुतबे के विशेष लाभ भी पाना चाहते हैं। वे परमेश्वर के घर को उनकी प्रतिभाओं पर संदेह नहीं करने देते, और वे लोगों को उनके काम के बारे में पूछने तो बिल्कुल भी नहीं देते—सबके मन में उनके प्रति पूर्ण आस्था होनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग दिया है, और वे उसके प्रति पूरी तरह निष्ठावान हैं। क्या यह एक अनुचित अनुरोध नहीं है? क्या इस व्यक्ति में कोई विवेक है? ऐसे लोग कितने हैं? कलीसिया के कितने प्रतिशत लोग ऐसे हो सकते हैं? ऐसे लोग हमेशा सोचते हैं कि उनमें कुछ क्षमताएँ और प्रतिभाएँ हैं, इसलिए वे शेखी बघारते हैं कि वे बड़े मेधावी हैं। तो, इस तथाकथित प्रतिभा का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि वे बड़बोले हो सकते हैं, बहुत सारी अनर्गल बातें कह सकते हैं, जिस व्यक्ति से बात कर रहे हैं उसके आधार पर वे अपने बोलने का तरीका बदल सकते हैं, और साधारण लोगों की अपेक्षा छल-कपट में ज्यादा माहिर हो सकते हैं। वे मानते हैं कि यह प्रतिभा और क्षमता है, और वे इस क्षमता का उपयोग अकड़ दिखाने और झाँसा देने के लिए कर सकते हैं। सच्ची प्रतिभा का अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है विशेष कौशल से युक्त होना। जब परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया, तो उसने विभिन्न प्रकार के लोगों को विभिन्न विशेषताएँ दीं। कुछ लोग साहित्य में अच्छे होते हैं, कुछ चिकित्सा में अच्छे, कुछ लोग कौशल सीखने में अच्छे होते हैं, कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान में, आदि-आदि। लोगों की विशेषताएँ उन्हें परमेश्वर द्वारा दी जाती हैं, और इसमें शेखी बघारने की कोई बात नहीं है। किसी के पास चाहे जैसी भी विशेषताएँ हों, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सत्य समझता है, और निश्चित रूप से इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है। लोगों में कुछ खास विशेषताएँ होती हैं, और यदि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं तो उन्हें इन विशेषताओं का उपयोग अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए करना चाहिए। यह परमेश्वर को स्वीकार्य होता है। किसी विशेषता के बारे में शेखी बघारना या परमेश्वर से सौदे करने के लिए इसका उपयोग करने की चाह रखना—यह विवेक का अत्यधिक अभाव दर्शाता है। परमेश्वर ऐसे लोगों पर कृपा नहीं करता है। कुछ लोग कोई विशेष कौशल जानते हैं, और इसलिए जब वे परमेश्वर के घर आते हैं तो उन्हें लगता है कि वे दूसरे लोगों से बेहतर हैं, वे विशेष व्यवहार का आनंद लेना चाहते हैं, और उन्हें लगता है कि उनके पास जीवन भर के लिए सुरक्षित नौकरी है। वे इस कौशल को एक प्रकार की पूँजी के रूप में लेते हैं—कैसा अहंकार है! तो तुम्हें इन गुणों और विशेषताओं को किस दृष्टि से देखना चाहिए? यदि ये चीजें परमेश्वर के घर में उपयोगी हों तो ये तुम्हारे लिए सिर्फ अपना कर्तव्य निभाने के औजार हैं। इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे पास चाहे जितने भी गुण और विशेषताएँ हों, ये सिर्फ इंसानी विशेषताएँ हैं, और इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे गुणों और विशेषताओं का यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य समझते हो, और निश्चित रूप से उनका यह अर्थ नहीं है कि तुम सत्य वास्तविकता से युक्त हो। यदि तुम अपने गुणों और विशेषताओं का उपयोग अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए करते हो तो उनका सही जगह उपयोग हुआ है और उनका उपयोग परमेश्वर द्वारा स्वीकृत है। लेकिन यदि तुम अपने गुणों और विशेषताओं का उपयोग दिखावा करने, अपनी गवाही देने, और एक स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए करते हो तो तुम्हारे पाप बहुत बड़े होंगे, और तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले एक गंभीर अपराधी बन जाओगे। गुण परमेश्वर द्वारा दिए जाते हैं। यदि तुम उनका उपयोग अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए नहीं कर सकते हो तो तुम अत्यधिक अविवेकपूर्ण होगे, तुममें समझ की कमी होगी, और तुम परमेश्वर के अत्यधिक ऋणी रहोगे—यह घोर विद्रोहीपन है! लेकिन तुम अपने गुणों और विशेषताओं का चाहे जितने अच्छे ढंग से उपयोग करो, इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांत के अनुसार कार्य करने का अर्थ है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। गुण और प्रतिभाएँ हमेशा गुण और प्रतिभाएँ ही रहती हैं। उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। तुम्हारे पास चाहे जितने भी गुण और प्रतिभाएँ हों, और तुम्हारी प्रतिष्ठा या तुम्हारा रुतबा चाहे जितना भी ऊँचा क्यों न हो, इसका यह अर्थ कभी नहीं होगा कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। गुण और प्रतिभाएँ कभी भी सत्य नहीं बनेंगी। उनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन मसीह-विरोधी इस तरह से नहीं सोचते हैं, और वे ठीक इन्हीं चीजों की बड़ी कद्र करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में अभिनय की प्रतिभा होती है। परमेश्वर के घर में फिल्माई गई किसी फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने के बाद, वे रौब दिखाने लगते हैं। उनके सजने-सँवरने में मदद करने वाले तीन लोग भी उनकी जरूरत पूरी करने के लिए काफी नहीं होते। वे साधारण व्यक्ति हुआ करते थे, लेकिन अब चूँकि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, इसलिए एक अभिनेता के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के बाद वे रौब झाड़ने लगते हैं। क्या वे मृत्यु को बुलावा नहीं दे रहे हैं? मेरे ख्याल से वे बस यही कर रहे हैं! वे शक्ल-सूरत में खास नहीं हैं, और उनके अभिनय कौशल औसत दर्जे के हैं। वे बस कुछ खास हिस्से के अभिनय के लिए ठीक हैं, इसलिए उन्हें एक और भूमिका दे दी जाती है—क्या यह उन्हें ऊपर उठाना नहीं है? अपना कर्तव्य निभाने का मौका दिए जाने पर वे रौब झाड़ते हैं। अभिनय करते वक्त वे लोगों को आदेश देते हैं कि वे चाय-पानी पिलाकर उनकी सेवा करें, जिससे देखने वाले सभी भाई-बहनों को गुस्सा आता है। मैंने कहा, “उन्हें कलीसिया से दूर कर दो!” और इसलिए कलीसिया ने उन्हें निकाल दिया। क्या इन लोगों को बाहर नहीं निकाल देना चाहिए था? उन्हें लगा कि उनके बिना कलीसिया फिल्में नहीं बना पाएगी, इसलिए उन्होंने रौब दिखाने की हिम्मत की। उन्हें इस परिणाम की उम्मीद नहीं थी। यह उनकी प्रकृति से प्रेरित था। ऐसे लोग ज्ञान, प्रतिभा, सीख और अनुभव को सँजोते हैं। वे इन चीजों को बहुत महत्त्व देते हैं, लेकिन वे सबसे अनमोल चीज—सत्य—की अनदेखी करते हैं। उन्हें एहसास नहीं होता कि परमेश्वर के घर में सत्य का राज होता है। यदि वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे, तो उनका ज्ञान चाहे जितना ऊँचा, या उनकी वाक्पटुता चाहे कितनी भी बढ़िया क्यों न हो, वे टिक नहीं पाएँगे। देर-सवेर, उनका खुलासा हो जाएगा, और वे हटा दिए जाएँगे। क्या लोगों के लिए इस छोटे-से धर्म-सिद्धांत को समझना आसान है? जो लोग अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने पर भी इसकी असलियत नहीं समझ सकते, वे भ्रमित लोग हैं जिनका कोई भी मूल्य नहीं है। यदि वे थोड़े समझदार होते तो इतने अहंकारी नहीं होते। ऐसे लोग दानव और शैतान होते हैं, जो स्वयं से विश्वासघात करते हैं। अब, मैंने सीधे इस मामले की ओर इशारा किया ताकि तुम लोग भी इसे स्पष्ट रूप से समझ सको; ताकि तुम लोग इस मामले का भेद जान कर इसकी असलियत जान सको। यदि मैं स्पष्ट रूप से इसकी ओर इशारा न करता तो क्या तुम लोग इसे इस तरह से अलग देख पाते? क्या तुम लोग उन्हें निकाल देने में सक्षम हो पाते? लोग समस्या को नहीं देख सकते, इसलिए मुझे सीधा बोलने वाला होने की जरूरत है। यदि मैं सीधा नहीं बोलूँ, तो समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सिर्फ उन कुछ धर्म-सिद्धांतों पर भरोसा करके जिन्हें तुम लोग समझते हो, कोई भी समस्या हल नहीं की जा सकती।

मसीह-विरोधी हमेशा खुद को विशेष प्रतिभाओं से युक्त मानते हैं। वे सोचते हैं कि वे कॉलेज के स्नातक हैं, वे बहुत प्रकांड विद्वान हैं, और उनके पास ज्ञान का भंडार है। वे अपने ज्ञान और सीखे हुए आध्यात्मिक सिद्धांतों को बहुत सँजोते हैं, उनकी कद्र करते हैं, और इन चीजों को सत्य के रूप में देखते हैं। इससे भी बढ़कर, वे इस ज्ञान और अनुभव को जिसे वे सही मानते हैं, अक्सर अपने आसपास के लोगों को निर्देश देने, गुमराह करने या शिक्षा देने के लिए प्रयोग करते हैं। खास तौर पर, वे अक्सर अपने “गौरवशाली” अतीत के बारे में बात करते हैं, जिसका उपयोग वे दूसरे लोगों को मनाने और विश्वास दिलाने और उनसे अपना सम्मान और आराधना करवाने के लिए करते हैं। और उनके ये “गौरवशाली” अतीत क्या हैं? उनमें से कुछ लोग कहेंगे : “पहले एक समय मैं एक यूनिवर्सिटी में व्याख्याता था। मेरे सभी छात्र स्नातकोत्तर या पीएच. डी. के छात्र थे। हर बार जब मैं व्याख्यान देता तो एक भी सीट खाली नहीं होती थी; प्रत्येक छात्र पूरी तरह शांत होकर बैठता था, अपनी आँखों में आदर और सराहना लिए मुझे देखता था। मैं घबराता भी नहीं था। वह सब कितना शानदार और प्रभावी था! मैं ऐसी प्रतिभा और ऐसे साहस के साथ पैदा हुआ था।” दूसरे लोग कहेंगे : “मैंने 14 वर्ष की उम्र में ही गाड़ी चलाना सीख लिया था। मैं अब 40 साल से भी ज्यादा समय से गाड़ी चला रहा हूँ और मेरा गाड़ी चलाने का कौशल बड़े ऊँचे दर्जे का है।” यह बता कर वे क्या जता रहे हैं? उनका अर्थ है : “तुम लोग कुछ ही दिनों से गाड़ी चला रहे हो। तुम क्या जानते हो? मुझ जैसा अनुभवी ड्राइवर पूरा जीवन गाड़ी चलाता रहा है। मुझे हर प्रकार का अनुभव है। भविष्य में, अगर तुम कोई चीज न समझ सको, तो तुम्हें मुझसे पूछना चाहिए। तुम्हें मेरी बात सुननी चाहिए।” किसी प्रकार के कौशल से युक्त होने पर मसीह-विरोधी अपने आपको विलक्षण मानते हैं, खुद को रहस्यमय दिखाते हैं, अपना दिखावा करते हैं और अपनी ही गवाही देते हैं, जिससे दूसरे लोग उनका सम्मान कर उनकी आराधना करते हैं। जब इस प्रकार के लोगों में थोड़ी-सी कोई खूबी या कोई गुण होता है, तो वे सोचने लगते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं और उनकी अगुआई करने की आकांक्षा पालते हैं। जब दूसरे लोग उनके पास जवाब के लिए आते हैं, तो मसीह-विरोधी उन्हें एक ऊँचे स्तर से व्याख्यान देते हैं, और इसके बाद भी यदि वे लोग न समझ पाएँ तो वे सिर्फ उनकी कमजोर काबिलियत को इसका कारण बताते हैं, हालाँकि वास्तविकता में, मसीह-विरोधी ही उन्हें स्पष्ट स्पष्टीकरण नहीं दे पाते हैं। उदाहरण के लिए, यह देखकर कि कोई किसी खराब मशीन की मरम्मत करने में असमर्थ है, एक मसीह-विरोधी कहेगा : “तुम यह अभी भी कैसे नहीं जान सकते कि इसे कैसे किया जाए? क्या मैंने पहले ही तुम्हें नहीं बताया है कि यह कैसे करना है? मैंने इतनी स्पष्टता से समझाया है, फिर भी तुम समझ नहीं पा रहे हो। तुम सचमुच कमजोर काबिलियत वाले हो। हर बार इसे करने के बारे में मेरे सिखाने पर भी तुम नाकामयाब रहते हो।” फिर भी जब वह व्यक्ति उनसे मशीन की मरम्मत करने को कहता है, तो इसे बड़े लंबे समय तक देखने के बाद भी वे नहीं जान पाते कि इसे कैसे ठीक करना है, और वे उस व्यक्ति से यह तथ्य भी छिपाएँगे कि उन्हें इसकी मरम्मत करना नहीं आता है। उस व्यक्ति को दूर भेज देने के बाद, मसीह-विरोधी चोरी-छिपे शोध करेंगे और यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि मशीन की मरम्मत कैसे की जाए, लेकिन वे अभी भी इसे ठीक नहीं कर पाएँगे। वे मशीन के पुर्जे अलग कर देंगे, बिल्कुल अस्त-व्यस्त कर देंगे, और उसे फिर से जोड़ नहीं सकेंगे। फिर, इस डर से कि कहीं दूसरे इसे देख न लें, वे पुर्जों को छिपा देंगे। क्या कुछ काम करना न आना कोई शर्मिंदगी की बात है? क्या कोई भी ऐसा है जो सारे काम कर सकता है? कुछ चीजें करना नहीं आना कोई शर्म की बात नहीं है। यह मत भूलो कि तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। कोई भी तुम्हें सम्मान नहीं देता या तुम्हारी आराधना नहीं करता। एक साधारण व्यक्ति बस एक साधारण व्यक्ति ही होता है। यदि तुम कोई काम करना नहीं जानते, तो बस कह दो कि तुम नहीं जानते कि इसे कैसे करते हैं। तुम अपना भेस बदलने की कोशिश क्यों करते हो? यदि तुम हमेशा भेस बदलोगे, तो लोग तुमसे चिढ़ जाएँगे। देर-सवेर, तुम्हारा खुलासा हो जाएगा, और उस वक्त, तुम अपना सम्मान और अपनी सत्यनिष्ठा खो दोगे। यह मसीह-विरोधी लोगों का स्वभाव है—वे खुद के बारे में हमेशा सोचते हैं कि वे हरफनमौला हैं, एक ऐसा व्यक्ति जो सारे काम कर सकता है, जो सभी चीजों में सक्षम और प्रवीण है। क्या यह उन्हें मुसीबत में नहीं डाल देगा? यदि उनका ईमानदार रवैया हो तो वे क्या करेंगे? वे कहेंगे : “मैं इस तकनीकी कौशल में प्रवीण नहीं हूँ; मुझे बस थोड़ा-सा अनुभव है। जो भी जानता हूँ, मैंने लगा दिया है, लेकिन ये जो नई समस्याएँ हमारे सामने आ रही हैं, मैं इन्हें नहीं समझ पा रहा हूँ। इसलिए, अगर हम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करना चाहते हैं तो हमें कुछ पेशेवर ज्ञान सीखना होगा। पेशेवर ज्ञान पर महारत हासिल करने से हम अपना कर्तव्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। परमेश्वर ने हमें यह कर्तव्य सौंपा है, इसलिए इसे अच्छे ढंग से करने की जिम्मेदारी हम पर है। हमें अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने के रवैये के आधार पर इस पेशेवर ज्ञान को सीखना होगा।” यह सत्य का अभ्यास करना है। मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति यह नहीं करेगा। यदि किसी व्यक्ति में थोड़ा विवेक है तो वह कहेगा : “मैं सिर्फ इतना ही जानता हूँ। तुम्हें मुझे सम्मान देने की जरूरत नहीं है, और मुझे रौब दिखाने की जरूरत नहीं है—क्या इससे चीजें आसान नहीं हो जाएँगी? हमेशा अपना भेस बदलते रहना दुखदाई होता है। अगर ऐसी कोई चीज है जो हम नहीं जानते तो हम साथ मिल कर इसे सीख सकते हैं और फिर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करने के लिए सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग कर सकते हैं। हमें जिम्मेदार रवैया अपनाना चाहिए।” यह देखकर लोग सोचेंगे, “यह व्यक्ति हम लोगों से बेहतर है; किसी समस्या से सामना होने पर वह आँखें मूँद कर जबरन अपनी हद पार नहीं करता, न ही वह इसे दूसरों को सौंप देता है, और न ही जिम्मेदारी से जी चुराता है। इसके बजाय वह इसकी जिम्मेदारी लेकर इसे एक गंभीर और जिम्मेदार रवैये के नजरिये से निपटता है। वह एक नेक इंसान है जो अपने कार्य और कर्तव्य के प्रति गंभीर और जिम्मेदार है। वह भरोसेमंद है। परमेश्वर के घर ने इस व्यक्ति को यह महत्वपूर्ण काम सौंप कर सही किया। परमेश्वर सच में लोगों के दिलों की गहराई से जाँच-पड़ताल करता है!” अपना कर्तव्य इस तरह से निभा कर वे अपने कौशल सुधारेंगे और सभी की स्वीकृति प्राप्त करेंगे। यह स्वीकृति कैसे मिलती है? पहले तो, वे अपने कर्तव्य को गंभीर और जिम्मेदार रवैये से देखते हैं; दूसरे, वे एक ईमानदार इंसान बनने में सक्षम होते हैं, और वे एक व्यावहारिक और परिश्रमी रवैया रखते हैं; तीसरे, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्हें पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन और प्रबुद्धता प्राप्त है। ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर का आशीष मिलता है; यह वह चीज है जो जमीर और विवेक वाला कोई व्यक्ति हासिल कर सकता है। हालाँकि उनमें भ्रष्ट स्वभाव होता है, कमियाँ और खामियाँ होती हैं, और वे बहुत-से काम करने के तरीके नहीं जानते, फिर भी वे अभ्यास के सही मार्ग पर हैं। वे अपना भेस नहीं बदलते या धोखा नहीं देते; अपने कर्तव्य के प्रति उनका एक गंभीर और जिम्मेदार रवैया होता है, और सत्य के प्रति उनमें एक लालसा होती है, एक पवित्र रवैया होता है। मसीह-विरोधी कभी भी ये काम नहीं कर सकेंगे क्योंकि उनके सोचने का ढंग उन लोगों से हमेशा भिन्न होगा जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं। वे अलग ढंग से क्यों सोचते हैं? इस वजह से कि उनके भीतर शैतान की प्रकृति होती है; वे शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हैं और हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करते हैं और लगातार यही चाहते हैं कि वे सत्ता हथियाने का अपना लक्ष्य प्राप्त कर लें। वे षड्यंत्रों और चालों में संलग्न होने के लिए हमेशा विभिन्न साधनों का उपयोग करने का प्रयास करते हैं, और येन केन प्रकारेण लोगों से अपनी आराधना और अपना अनुसरण करवाने के लिए उन्हें गुमराह करते हैं। इसलिए लोगों की आँखों में धूल झोंकने हेतु वे अपना भेस बदलने, चाल चलने, झूठ बोलने और धोखा देने के तमाम तरीके ढूँढ़ते हैं, जिससे दूसरे यकीन कर लें कि सभी चीजों के बारे में वे सही हैं, वे हर चीज में सक्षम हैं, और वे कोई भी काम कर सकते हैं; वे दूसरों से अधिक चतुर हैं, दूसरों से ज्यादा अक्लमंद हैं, दूसरों से ज्यादा समझते हैं, वे सभी चीजों में दूसरों से बेहतर हैं, और हर लिहाज से दूसरों से ऊपर हैं—यहाँ तक कि वे किसी भी समूह में सर्वोत्तम से भी सर्वोत्तम हैं। उनकी जरूरत ऐसी है; यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है। इस तरह वे कुछ ऐसा दिखना सीख लेते हैं जो वे नहीं हैं, और इन विभिन्न अभ्यासों और अभिव्यक्तियों में से हरेक को उत्पन्न करते हैं।

इस बारे में सोचो : जो लोग कुछ ऐसा दिखना चाहते हैं जो वे नहीं हैं, वे कैसे स्वभाव से युक्त होते हैं? वे कैसा दिखने का बहाना करते हैं? वे कोई दानव या कोई नकारात्मक हस्ती नहीं दिखना चाहते; वे कोई ऊँचा, नेक, सुंदर और दयालु व्यक्ति दिखना चाहते हैं, ऐसा बनना चाहते हैं जिसका लोग सम्मान और सराहना करें—वे कोई ऐसी चीज दिखना चाहते हैं जिसकी लोग प्रशंसा करें या जिसे लोग स्वीकृति दें। वे हर चीज जानने और समझने का दिखावा करते हैं; वे सत्य से युक्त होने, एक सकारात्मक हस्ती होने, और सत्य वास्तविकता होने का दिखावा करते हैं। क्या यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं है? क्या उनके पास वह वास्तविकता है? क्या उनके पास वह सार है? नहीं है। ठीक इस वजह से क्योंकि उनके पास नहीं है, यह कहा जाता है कि वे दिखावा करते हैं। तो क्या कोई कहेगा कि वे सत्य के प्रतिरूप हैं, क्योंकि उनमें सत्य वास्तविकता है? क्या इस कथन में कोई दम है? (नहीं, दम नहीं है।) भले ही तुममें सत्य वास्तविकता हो, फिर भी किसी भी तरह से तुम सत्य का प्रतिरूप नहीं हो। इसलिए, खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने वाला कोई भी व्यक्ति अहंकारी और बेतुके किस्म का इंसान है! कोई व्यक्ति जिसमें सिर्फ थोड़ी-सी सत्य वास्तविकता है, फिर भी वह सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करने की हिम्मत करता है, तो वह महज पानी की एक बूँद के विशाल सागर होने का दावा करने जैसा है। क्या यह अहंकार की पराकाष्ठा नहीं है? क्या यह खुल्लमखुल्ला बेशर्मी नहीं है? किसी व्यक्ति के खुद को सत्य का प्रतिरूप दिखाने के लिए उसके पास पूँजी जरूर होनी चाहिए। और मसीह-विरोधी सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करने के लिए किसका उपयोग करते हैं? ये वही चीजें हैं जिनका मैंने अभी जिक्र किया—ज्ञान, अनुभव और सबक। इसमें सीखने के जरिए लोगों द्वारा हासिल किए गए विशेष कौशल और प्रतिभाएँ और साथ ही उनके जन्मजात गुण शामिल हैं। कुछ लोगों के पास अनेक भाषाओं में बोलने के गुण होते हैं, जबकि दूसरों में प्रचार करने की खूबी या वाक्पटुता होती है। कुछ और दूसरों ने कुछ विशेष पेशेवर कौशलों को सीखा या उन में महारत हासिल की है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग नृत्य, संगीत, ललित कलाओं, भाषाओं या साहित्य में विशेष रूप से विलक्षण होते हैं; जबकि कुछ और दूसरे राजनीति में मँजे हुए होते हैं, जिसका अर्थ है कि वे लोगों के साथ हेरफेर करने में खासे अच्छे हैं, वे कूटनीति में उत्कृष्ट हैं, आदि-आदि। संक्षेप में कहें तो, इसमें जीवन के सभी क्षेत्रों के विशेष प्रतिभा वाले लोग शामिल हैं। जरूरी नहीं कि विशेष प्रतिभाओं या गुणों वाले इन लोगों का समाज में कोई विशेष रुतबा हो, या कोई स्थापित करियर हो। कुछ लोग छोटी जगहों में रहते हैं, फिर भी वे अतीत से ले कर वर्तमान तक के तरह-तरह के मामलों के बारे में स्पष्ट और तार्किक ढंग से, और खास तौर पर वाक्पटुता से बोलते हैं। यदि इन विशेष प्रतिभाओं वाले लोगों में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो तो वे परमेश्वर के घर में आने पर चीजें जैसी हैं, वैसी ही रहने से संतुष्ट नहीं होंगे; वे कुछ विशेष महत्वाकांक्षाएँ पालेंगे और फिर धीरे-धीरे उनका खुलासा हो जाएगा।

थोड़ा अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर लेने और कुछ सबक सीख लेने के बाद मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करने की मद को लेकर हमने अभी ऐसे ज्ञान, अनुभव और सबक के दायरे पर विचार-विमर्श किया। और यह विचार-विमर्श किस पर केंद्रित था? (दिखावा करने पर।) सही है। इसका निचोड़ है मसीह-विरोधियों का सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करना। ज्ञान, अनुभव, सबक—इनमें से कोई भी चीज सत्य नहीं है; इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। ये चीजें सत्य के विरुद्ध भी हैं और परमेश्वर इनकी निंदा करता है। उदाहरण के लिए ज्ञान को लो, क्या इतिहास की गिनती ज्ञान के रूप में होती है? (बिल्कुल।) मानव इतिहास, कुछ विशेष देशों या जातीय समूहों के आधुनिक इतिहास, प्राचीन इतिहास, या यहाँ तक कि कुछ अनौपचारिक इतिहासों के बारे में ज्ञान और पुस्तकें कैसे तैयार हुईं? (ये लोगों द्वारा लिखी गई थीं।) तो क्या लोगों द्वारा लिखी गई चीजें सच्चे इतिहास के अनुसार होती हैं? क्या लोगों के विचार और नजरिये परमेश्वर के क्रियाकलापों के सिद्धांतों, तरीकों और साधनों के विपरीत नहीं होते? क्या मनुष्य द्वारा बोले गए ये वचन सच्चे इतिहास से संबंधित हैं? (नहीं।) कोई संबंध नहीं है। इसलिए, इतिहास की पुस्तकों में निहित अभिलेख चाहे जितने भी सही क्यों न हों, वे सिर्फ ज्ञान हैं। ये इतिहासकार चाहे जितने भी वाक्पटु क्यों न हों, और कितनी भी तार्किकता या स्पष्टता से इन इतिहासों का वर्णन करते हों, उन्हें सुनने के बाद तुम किस निष्कर्ष पर पहुँचोगे? (हम उन घटनाओं के बारे में जानेंगे।) हाँ, तुम उन घटनाओं के बारे में जानोगे। लेकिन क्या वे इन इतिहासों का वर्णन सिर्फ तुम्हें उन घटनाओं के बारे में सूचित करने के लिए कर रहे हैं? उनके पास एक विशेष विचार है जो वे तुम्हारे मन में बैठाना चाहते हैं। और उनका इस विचार को तुम्हारे मन में बैठाना किस बात पर केंद्रित है? हमें इसी चीज का विश्लेषण और गहन-विश्लेषण करने की जरूरत है। आओ मैं तुम्हें एक उदाहरण दूँ, ताकि तुम लोग शायद समझ सको कि वे लोगों के मन में कौन-सा विचार बैठाना चाहते हैं? प्राचीन काल से वर्तमान तक इतिहास की समीक्षा करने के बाद, लोग अंततः एक कहावत पर पहुँचे हैं; उन्होंने मानव इतिहास से एक तथ्य का निरीक्षण किया है, जो यह है : “विजेताओं की राजा के रूप में जयजयकार की जाती है, जबकि हारने वालों को डाकू करार दे दिया जाता है।” क्या यह ज्ञान है? (बिल्कुल।) यह ज्ञान ऐतिहासिक तथ्यों से आता है। क्या इस कहावत का उन तरीकों और साधनों से कोई लेना-देना है, जिनसे परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है? (नहीं।) दरअसल, यह इसका उल्टा है; यह उसके विपरीत और उसके विरुद्ध है। तो तुम्हारे मन में यह कहावत बैठा दी गई है, और यदि तुम सत्य नहीं समझते हो, या तुम एक गैर-विश्वासी हो तो इसे सुनने के बाद तुम क्या सोच सकते हो? तुम इस कहावत को किस तरह से बूझोगे? सबसे पहले, ये इतिहासकार या इतिहास की पुस्तकें कहावत की सटीकता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण और ऐतिहासिक घटनाओं का प्रयोग कर इस किस्म की सभी घटनाओं को सूचीबद्ध करते हैं। सबसे पहले, तुमने इस कहावत के बारे में सिर्फ किसी पुस्तक से जाना होगा और सिर्फ कहावत को ही जान पाए होगे। जब तक तुम इन घटनाओं से अवगत नहीं हो जाते, तब तक तुम इसे केवल एक स्तर पर या एक निश्चित सीमा तक ही समझ पाओगे। लेकिन एक बार इन ऐतिहासिक तथ्यों को सुनने के बाद इस कहावत की तुम्हारी पहचान और स्वीकृति गहराएगी। तुम यह बिल्कुल नहीं कहोगे, “कुछ चीजें ऐसी नहीं हैं।” बल्कि तुम यह कहोगे, “यह ऐसा ही है; प्राचीन काल से वर्तमान तक इतिहास को देखने पर, मानवजाति इस तरह से विकसित हुई—विजेताओं की राजा के रूप में जयजयकार की जाती है, जबकि हारने वालों को डाकू करार दे दिया जाता है!” जब तुम्हें मामले का इस तरह बोध होता है, तो अपने स्व-आचरण, अपने करियर, अपने दैनिक जीवन, और साथ ही अपने आसपास के लोगों, घटनाओं, और चीजों के प्रति तुम कैसे विचार और रवैये रखोगे? क्या ऐसे बोध से तुम्हारा रवैया बदल जाएगा? (बिल्कुल।) सभी चीजों से बढ़कर, तुम्हारा रवैया जरूर बदल जाएगा। तो, इससे तुम्हारा रवैया कैसे बदलेगा? क्या यह तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन कर उसकी दिशा और सांसारिक आचरण के तुम्हारे तरीके बदल देगा? शायद पहले तुम मानते थे कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है” और “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” अब तुम सोचोगे, “चूँकि ‘विजेताओं की राजा के रूप में जयजयकार की जाती है, जबकि हारने वालों को डाकू करार दे दिया जाता है,’ इसलिए अगर मैं एक अधिकारी बनाना चाहूँ तो मुझे अमुक-अमुक पर सावधानीपूर्वक विचार करना होगा। वे मेरे पक्ष में नहीं हैं, इसलिए मैं उन्हें पदोन्नत नहीं कर सकता—भले ही वे पदोन्नति के योग्य हों।” इन चीजों के बारे में इस तरह सोचते समय तुम्हारा रवैया बदलेगा—और यह तेजी से बदलेगा। यह बदलाव कैसे होता है? यह इसलिए होगा क्योंकि तुमने इस विचार और नजरिये को स्वीकार किया कि “विजेताओं की राजा के रूप में जयजयकार की जाती है, जबकि हारने वालों को डाकू करार दे दिया जाता है।” अनेक तथ्यों को सुनने से तुम्हारे असली मानव जीवन में इस नजरिये के सही होने की और अधिक पुष्टि होगी। तुम गहराई से मानोगे कि तुम्हें अपने भविष्य के जीवन और संभावनाओं का अनुसरण करने के लिए इस दृष्टिकोण को अपने खुद के क्रियाकलापों और आचरण पर लागू करना चाहिए। फिर क्या इस विचार और नजरिये ने तुम्हें बदल नहीं दिया होगा? (बिल्कुल।) और तुम्हें बदलते समय यह तुम्हें भ्रष्ट भी करेगा। यह ऐसा ही है। ऐसा ज्ञान तुम्हें बदलता और भ्रष्ट करता है। तो इस मामले की जड़ को देखते समय, ये इतिहास चाहे जितने भी सही ढंग से लिखे गए हों, अंततः ये इस कहावत में सारांशित कर दिए जाते हैं, और तुम्हारे मन में यह विचार बैठा दिया जाता है। क्या यह ज्ञान सत्य का प्रतिरूप है या शैतान का तर्क? (शैतान का तर्क।) सही है। क्या मैंने इसे काफी विस्तार से समझा दिया है? (बिल्कुल।) अब यह स्पष्ट है। यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हो तो तुम दो जीवन जी लेने के बाद भी इसे नहीं समझोगे—तुम जितना जियोगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि तुम मूर्ख हो, और सोचोगे कि तुम उतने निष्ठुर नहीं हो, और तुम्हें अधिक निष्ठुर, अधिक धूर्त, अधिक कुटिल, और एक बदतर और अधिक बुरा इंसान होना चाहिए। तुम मन-ही-मन सोचोगे : “अगर वह प्राण ले सकता है तो मुझे आग लगा देनी चाहिए। अगर वह एक व्यक्ति के प्राण लेता है, तो मुझे 10 लोगों को मार देना चाहिए। अगर वह बिना कोई सुराग छोड़े मारता है, तो मैं लोगों को बिना उनकी जानकारी के नुकसान पहुँचाऊँगा—यहाँ तक कि मैं उनके वंशजों को तीन पीढ़ियों तक मेरा आभार मानने पर मजबूर कर दूँगा!” शैतान के फलसफे, ज्ञान, अनुभव और सबक ने मानवजाति पर यह प्रभाव डाला है। वास्तविकता में, यह सिर्फ दुर्व्यवहार और भ्रष्टता है। इसलिए, इस दुनिया में चाहे जिस प्रकार के ज्ञान का उपदेश दिया या प्रसार किया जा रहा हो, यह तुम्हारे मन में एक विचार या एक नजरिया बैठा देगा। यदि तुम इसे पहचान नहीं सकते तो तुममें जहर भर दिया जाएगा। कुल मिलाकर अब एक बात तय है : इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह ज्ञान आम लोगों से आता है या आधिकारिक स्रोतों से, इसमें अल्पसंख्यक श्रद्धा रखते हैं या बहुसंख्यक—इनमें से कुछ भी सत्य से प्रासंगिक नहीं है। सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। इसका सही होना इसे स्वीकार करने वालों की संख्या से निर्धारित नहीं होता। सकारात्मक चीजों की वास्तविकता स्वयं ही सत्य है। कोई भी इसे नहीं बदल सकता, न ही कोई इसे नकार सकता है। सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा।

आओ, इस तथ्य के बारे में बात करें कि सभी चीजों पर परमेश्वर संप्रभु है। जब से परमेश्वर ने मानवजाति की अगुआई शुरू की, उसने एक इतिहास और एक खाता भी रखा है। परमेश्वर मानव इतिहास को किस दृष्टि से देखता है? परमेश्वर चाहता है कि लोग सत्य को देखें, और चीजों के बारे में लोगों के आकलन और निष्कर्ष सत्य नहीं है। लेकिन इंसान परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर इतिहास को क्यों नहीं देखते हैं? क्योंकि इंसान सत्य से विमुख हैं, सत्य से नफरत करते हैं, और सत्य को लेश मात्र भी नहीं स्वीकारते हैं। इसीलिए वे दिखावटी, हास्यास्पद और बेतुके सिद्धांत का एक गुट प्रस्तुत करने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, प्रभु यीशु को पवित्र आत्मा ने संकल्पित किया था। यह एक सकारात्मक चीज है। फिर भी शैतान इस बारे में क्या कहता है? शैतान पवित्र आत्मा द्वारा संकल्पित किए जाने के तथ्य को नहीं स्वीकारता, और ईशनिंदा भी करता है कि प्रभु यीशु एक अवैध संतान है, और उसने मनुष्य से जन्म लिया। शैतान मानवजाति की सबसे गंदी बात को लेता है, उस अभिव्यक्ति को जिसका लोग उपहास करते हैं, और जिससे घृणा करते हैं, और उसे प्रभु यीशु के जन्म पर लागू करता है। क्या यह तथ्यों की विकृति नहीं है? (बिल्कुल।) पवित्र आत्मा की संकल्पना परमेश्वर का कार्य है। और परमेश्वर का कार्य चाहे कोई भी आकार ले, उसके बारे में एक चीज सुनिश्चित है : यह सत्य है, अटल सत्य है। तो शैतान ऐसे स्पष्ट तथ्य को स्वीकार क्यों नहीं करता, एक ऐसा तथ्य जिसे परमेश्वर ने पूर्व-निर्धारित किया था, जिसकी गवाही दी थी? शैतान इसकी अनदेखी क्यों करता है, और यहाँ तक कि प्रभु यीशु का वर्णन मनुष्य की एक अवैध संतान के रूप में क्यों करता है? (वह सत्य से नफरत करता है, सकारात्मक चीजों से नफरत करता है।) वह जान-बूझकर परमेश्वर को कलंकित करता है! शैतान इस तथ्य से पूरी तरह अवगत है; वह आध्यात्मिक क्षेत्र में इसे बिल्कुल स्पष्ट रूप से देखता है। तो वह ऐसा क्यों करता है? उसकी मंशा क्या है, उसका इरादा क्या है? वह ऐसे कथन का प्रचार क्यों करता है? वह जान-बूझकर परमेश्वर को बदनाम कर उसे कलंकित कर रहा है। उसके परमेश्वर को कलंकित करने का प्रयोजन क्या है? लोगों से यह मनवाने के लिए कि यीशु एक अवैध संतान है, कि यह अपमानजनक है, और इस तरह वे उसमें विश्वास न रखें। शैतान सोचता है, “यदि लोग तुममें आस्था न रखें, तो तुम अपना कार्य पूरा नहीं कर पाओगे, है कि नहीं?” वास्तविकता में, सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा। भले ही पूरी मानवजाति ने उस वक्त इसे अस्वीकार कर दिया था, फिर भी दो हजार साल बाद, अंततः प्रभु यीशु के अपने अनुयायी हैं, और ऐसे लोग हैं जो पूरी दुनिया में उसकी प्रशंसा करते हैं, क्रूस का हर जगह प्रमुखता से प्रदर्शन किया जाता है, और शैतान विफल हो गया है। क्या शैतान का कथन कारगर हुआ? (नहीं, कारगर नहीं हुआ।) इसलिए, यह सत्य नहीं है; यह टिकता नहीं है, और परमेश्वर को कलंकित करना बेकार है। चाहे परमेश्वर द्वारा किया गया यह कार्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या नहीं हो, या चाहे यह पारंपरिक संस्कृति, कहावतों, या मानवजाति की नैतिक आचारनीति के विपरीत हो या नहीं हो, परमेश्वर परवाह नहीं करता। परमेश्वर क्यों परवाह नहीं करता? यह क्या संदर्भित करता है? चूँकि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है, इसलिए क्या शैतान के ये दानवी कथन परमेश्वर के कार्य को नष्ट कर सकते हैं? तुम इसकी असलियत नहीं जान सकते, है ना? (नहीं, हम नहीं जान सकते।) मुझे बताओ, क्या सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या शैतान का दानवी कथन, वे थोड़े-से शब्द, परमेश्वर की प्रबंधन योजना को नष्ट कर सकते हैं? क्या यह संभव है? (नहीं, संभव नहीं है।) शैतान सफल होना चाहता है, लेकिन क्या वह हो सकता है? सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा। यह सत्य की शक्ति है। सत्य की शक्ति ऐसी चीज है, जिसे कोई भी—शैतान भी—नहीं बदल सकता। अभी भी शैतान उस कथन का प्रचार करता रहता है। क्या यह कारगर होता है? नहीं, नहीं होता। अनुग्रह के युग का कार्य समाप्त हो गया है; प्रभु यीशु का सुसमाचार पृथ्वी के हर छोर तक फैलाया जा चुका है, और अंत के दिनों का न्याय का नया कार्य अनेक वर्षों से चल रहा है। शैतान बहुत पहले ही विफल होकर अपमानित हो चुका है। तो, क्या अब शैतान का क्रोधित और हताश होना किसी काम का है? नहीं, किसी काम का नहीं है। इसलिए, दृष्टिकोण चाहे जो भी हो, ज्ञान का स्तर चाहे जितना ऊँचा हो, या जिन लोगों के बीच उस दृष्टिकोण को लागू कर प्रचारित किया गया हो, उनकी संख्या चाहे जितनी अधिक हो, उन सबका कोई काम नहीं है; यह नहीं टिकेगा। परमेश्वर का कार्य रोका नहीं जा सकता; शैतान इसे नहीं रोक सकता। क्या थोड़े-से तुच्छ लोग वास्तव में सोचते हैं कि वे परमेश्वर के कार्य को रोक सकते हैं? यह भ्रम है! तुममें से बहुत सारे लोग इन बेबुनियाद अफवाहों के साथ, शैतान के गुमराह करने वाले नजरियों को स्वीकार करते हुए बड़े हुए; तुम्हारे दिमाग शैतान के तर्कों, फलसफों, ज्ञान और विज्ञान जैसी चीजों से भरे हुए थे। और फिर क्या हुआ? जब परमेश्वर के वचन तुम तक पहुँचे, तो तुम लोगों ने परमेश्वर की वाणी सुनी, और परमेश्वर के समक्ष लौट आए। शैतान की अफवाहें और दानवी बातें बेकार हो गईं। उन्होंने परमेश्वर के कार्य को आगे बढ़ने से जरा भी नहीं रोका। सभी देशों में परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने लगे हैं। प्रति दिन वे परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, धर्मोपदेश सुनते हैं और संगति करते हैं। वे परमेश्वर के लिए अपने कर्तव्य निभाते हैं और उसकी गवाही देते हैं। शैतान यह कह कर इस पर चिंतन करता है, “मेरी बहुत-सी गुमराह करने वाली बातें कारगर क्यों नहीं हो रही हैं? मैंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को दबाने, गिरफ्तार करने और उनसे दुर्व्यवहार करने के लिए बहुत-सी चीजें की हैं, फिर भी इनका ज्यादा असर क्यों नहीं हुआ है? इसके बजाय परमेश्वर में विश्वासियों की संख्या क्यों बढ़ रही है?” फिर वह अपने दिल में जानता है कि परमेश्वर सच में सर्वशक्तिमान है, जिसके बाद वह पूरी तरह से अपमानित हो जाता है—इसलिए यह कहावत है : “शैतान परमेश्वर के हाथों हमेशा पराजित होगा।” क्या यह एक तथ्य है? (बिल्कुल।) सचमुच परमेश्वर के वचन ही सब-कुछ पूरा कर सकते हैं! शैतान और सभी दानव राजा, परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं। परमेश्वर के हाथों में वे सेवा करने वाले और विषमताएँ हैं। क्या इन सेवा करने वालों और विषमताओं का हमसे कोई लेना-देना है? (नहीं।) नहीं, कोई लेना-देना नहीं है। हमें बस परमेश्वर में विश्वास रखने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, हमें उनसे कोई लेना-देना नहीं है। चाहे वे राजा हों या डाकू, वे शैतान के हैं, और उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा। हमें पूरे दिल से सिर्फ परमेश्वर का अनुसरण करना होगा, हमेशा के लिए शैतान से विश्वासघात करना होगा, और केवल परमेश्वर के साथ चलना होगा। ऐसा ही करना सही है।

मैंने ज्ञान और अनुभव का एक उदाहरण दिया है, इसलिए तुम्हें अब इन चीजों को थोड़े और अधिक सटीक ढंग से समझना चाहिए। इन चीजों के बारे में संगति करने का प्रयोजन क्या है? एक लिहाज से, यह तुम्हें इस योग्य बनाने के लिए है कि तुम मसीह-विरोधियों को पहचानने के लिए इन तथ्यों और उदाहरणों का उपयोग कर सको, और साथ ही अपने भीतर मसीह-विरोधियों के स्वभाव के इस पहलू को पहचान सको। एक और लिहाज से, क्या इस प्रकार का विचार-विमर्श कुछ लोगों को लापरवाही से कार्य करने से रोक नहीं सकता? (बिल्कुल।) अतीत में, कुछ लोग अपने कर्तव्य निर्वहन में अनुभव और पुराने ढर्रे के तौर-तरीकों पर भरोसा करते थे, और वे काम करने के अपने ही तौर-तरीकों से चिपके रहते थे, इसलिए वे परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा करते थे, और नतीजतन उनका निपटान किया जाता था। वे हर चीज से बढ़ कर अपनी पुरानी पड़ गई प्रथाओं और अनुभव को मूल्य देते थे, और सबसे महत्वपूर्ण चीजों पर कभी विचार नहीं करते थे : परमेश्वर ने लोगों के बारे में क्या कहा था या उनसे क्या अपेक्षा की थी, या सत्य सिद्धांतों का पालन कैसे किया जाए। वे अड़ियल होकर अपनी पुरानी प्रथाओं से चिपके भी रहते थे, और यही नहीं, वे इसके आधार के रूप में एक बेतुके तर्क का भी उपयोग करते थे : “हमने इसे हमेशा इसी तरह किया है,” “हम जहाँ से हैं, वहाँ हमेशा इसे ऐसे ही किया जाता है। हमारे पूर्वज ऐसा ही करते थे।” वे चीजों पर इस तरह से जोर क्यों देते थे? इससे सिद्ध होता है कि वे नई चीजों को स्वीकार नहीं करते थे; वे सत्य को स्वीकार नहीं करते थे। वे इन पुराने पड़ गए तौर-तरीकों के बेढंगेपन, पिछड़ेपन, और हास्यास्पदता की असलियत नहीं समझ सकते थे। वे इस बात से अवगत नहीं थे कि चीजें करने के नए तरीके हैं, ऐसे तरीके जो अधिक उन्नत, सटीक, और उपयुक्त हैं। वे हमेशा अपने पुराने तौर-तरीकों से चिपके रहते थे, अपने पुराने अनुभव पर भरोसा करते थे, यह सोच कर कि वे काफी उन्नत हैं, कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। क्या ये बेतुके प्रकार के लोग नहीं हैं? “हम जहाँ से हैं, वहाँ हमेशा ऐसा ही किया जाता है,” “जिस तरीके से मैं पहले करता था,” “हमने हमेशा ऐसे ही किया है”—क्या ये पुराने तरीके, ये पुरातन प्रयोग सत्य सिद्धांतों का स्थान ले सकते हैं? क्या चीजों को पुराने तरीके से करने का अर्थ यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है? वे लोग एक भी चीज नहीं समझते थे, न ही वे किसी चीज की असलियत समझ सकते थे। क्या वे पुराने तौर-तरीकों से चिपके हुए पुराने जमाने के जिद्दी लोग नहीं हैं? ऐसे लोगों के लिए सत्य स्वीकारना बहुत कठिन है! मुझे बताओ, चाहे कोई चीज नई हो या पुरानी, तुम उससे कैसे पेश आते हो? तुम उससे कैसे निपटते हो? उससे निपटने का तुम्हारा आधार क्या है? यदि सभी के पास किसी चीज का सिर्फ सीमित ज्ञान है, तो तुम इससे किस तरह से पेश आओगे जो कि सही और सिद्धांतों के अनुरूप हो? तुम्हें पहले किसी ऐसे व्यक्ति से पूछना चाहिए जो इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखता हो। अगर तुम्हें कोई जानकार व्यक्ति मिल जाता है तो तुम्हारे पास एक मार्ग होगा। यदि तुम्हें कोई जानकार व्यक्ति नहीं मिलता है तो तुम ऑनलाइन जाकर परामर्श या जानकारी प्राप्त करके समस्या का पूर्ण समाधान कर सकते हो। और यह खोजते समय भी तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसे आदर से देखने की जरूरत होगी; परमेश्वर को तुम्हारे लिए आगे का रास्ता खोलने दो। हम इसे क्या कहते हैं? हम इसे अभ्यास के सिद्धांत कहते हैं। तुममें से कुछ लोग मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं इस क्षेत्र में एक पेशेवर हूँ, मेरे पास अनुभव का खजाना है। मुझे यह करने के लिए पुरस्कार भी मिल चुके हैं, इसलिए मेरे पास यह पूँजी है। चूँकि यह काम मुझे सौंपा गया है, इसलिए मैं इसका प्रभारी हूँ। मेरे पास निर्णय लेने का अधिकार है, और सारी चीजों का निर्णय मैं लेता हूँ। सबको मेरे आदेशों का पालन करना और मेरी बात माननी चाहिए। किसी और की किसी भी बात का कोई मूल्य नहीं है, और मुझसे असहमत होने वाले किसी भी व्यक्ति को बस मुँह बंद कर लेना चाहिए!” क्या सोचने का यह तरीका सही है? यकीनन यह सही नहीं है। तुम्हारे रवैये में और जो स्वभाव तुम प्रकट कर रहे हो उसमें समस्या है। अपने दिल में तुम सोचते हो कि इस आदेश को स्वीकारना तुम्हें सत्ता के प्रयोग का हकदार बनाता है। तुम फैसले लेना चाहते हो, और किसी और को कुछ कहने नहीं दिया जाता। यह ऐसा है मानो तुम्हें दूसरे लोगों का सहयोग नहीं चाहिए, या तुम नहीं चाहते कि सब अपनी राय दें; सब-कुछ तुम्हारे कहे अनुसार हो, सबका फैसला तुम करो। यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या यह अत्यधिक अहंकारी और विवेकहीन नहीं है? यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है। हो सकता है कि तुम दूसरों से थोड़ी बेहतर काबिलियत वाले हो, तुम्हें इस मामले का थोड़ा बोध और थोड़ा अनुभव हो। लेकिन एक बात है जिसके बारे में तुम्हें स्पष्ट होने की जरूरत है : तुम्हारे पास जो चीजें हैं, उनमें से कोई भी सत्य नहीं है। यदि तुम खुद को थोड़ी बेहतर काबिलियत वाला, थोड़े बोध वाला, थोड़ी प्रतिभा वाला, और थोड़े ज्ञान वाला मानते हो, और तुम इन चीजों को सत्य के रूप में लेते हो, और स्वयं को सत्य मानते हो, और सोचते हो कि सभी को तुम्हारे आदेशों का पालन करना चाहिए और तुम्हारी व्यवस्थाओं को मानना चाहिए, तो क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? यदि तुम सच में चीजें इस ढंग से करते हो, तो तुम एक मसीह-विरोधी से जरा भी कम नहीं हो। तुम्हारे अपने गुणों को सत्य मानने में क्या गलत है? काबिलियत, बोध, प्रतिभा और ज्ञान जिनसे तुम युक्त हो, वे गलत नहीं हैं। तो हम यहाँ किस चीज का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं? हम यहाँ जिस चीज का गहन-विश्लेषण कर रहे हैं, वह तुम्हारा स्वभाव है—एक भ्रष्ट स्वभाव जो तुम इन चीजों के पीछे ढो रहे हो; एक अहंकारी स्वभाव, एक आत्मतुष्ट स्वभाव। जब तुम अपने गुणों को सत्य मान लेते हो तो तुम मानते हो कि इन गुणों से युक्त होने के कारण तुम्हारे पास सत्य है। तुम सत्य का स्थान ऐसे गुणों को दे देते हो तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? सभी मसीह-विरोधी अपने ही विचारों, सीख, गुणों और प्रतिभाओं को सत्य मान लेते हैं। वे सोचते हैं कि इन गुणों से युक्त होने से वे सत्य से युक्त हो गए हैं। इसलिए वे माँग करते हैं कि दूसरे उनकी बात मानें और उनके आदेशों का पालन करें, उनकी सत्ता को मानें। मसीह-विरोधी यहीं गलत हो जाते हैं। क्या तुम सचमुच सत्य से युक्त हो? तुम्हें परमेश्वर की सच्ची समझ नहीं है, न ही तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, तुम्हारा परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला होना तो दूर की बात है और तुम लेशमात्र भी सत्य से युक्त नहीं हो, फिर भी तुम अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट हो, यह सोच कर कि तुम सत्य से युक्त हो, और दूसरों को तुम्हारी आज्ञा माननी चाहिए, और तुम्हारे आदेशों का पालन करना चाहिए। तुम एक प्रामाणिक मसीह-विरोधी हो।

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