मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग तीन) खंड एक
परिशिष्ट : पूर्वी और पश्चिमी पारंपरिक संस्कृति का गहन-विश्लेषण
मुझे बताओ, सत्य क्या है? क्या हमने इस विषय पर पहले संगति नहीं की है? (हाँ, हमने की है।) ठीक है फिर, तुम लोग अपने शब्दों में मुझे बताओ, सत्य क्या है। (सत्य वह सिद्धांत और कसौटी है जिससे सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को मापा जाता है।) अच्छा है। और कोई? क्या इसे कहने का कोई अलग तरीका है? यह मत सोचो कि अपने उत्तर के लिए तुम्हें धर्म-सिद्धांत के किन शब्दों का उपयोग करना है या परमेश्वर के वचनों की कौन-सी पंक्ति चुननी है, बस सिर्फ अपने असली अनुभव और व्यावहारिक समझ में से शब्द ले कर उत्तर दे दो। वे अत्यंत गूढ़ न हों तो भी ठीक है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं।” हालाँकि यह सही है, फिर भी यदि तुम ये शब्द केवल बोल सकते हो लेकिन उनका वास्तविक अर्थ नहीं समझते हो तो फिर ये तुम्हारे लिए महज धर्म-सिद्धांत ही हैं। चलो, अब एक कदम आगे बढ़ें—सत्य क्या है? परमेश्वर के वचन क्या हैं? परमेश्वर के वचनों का सार क्या है? क्या सत्य वह कसौटी है जिसे लोग अपनी सोच और विचार से तैयार करते हैं? (नहीं, ऐसा नहीं है।) क्या सत्य, लोगों ने जो अनुभव किया है और जो ज्ञान हासिल किया है उसका निचोड़ है, या एक प्रकार की सामाजिक संस्कृति है, या किसी सामाजिक संदर्भ में निर्मित एक पारंपरिक संस्कृति है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर क्या सत्य वह सिद्धांत है जो लोग स्वयं अपने स्व-आचरण और क्रियाकलापों के लिए सारांशित करते हैं? (नहीं, ऐसा भी नहीं है।) तो वास्तव में यह है क्या? हम यहाँ बताए गए सिद्धांतों का किस तरह से विशेष वर्णन कर सकते हैं, ताकि उनका कोई निश्चित अर्थ हो, और लोग उसे सुनते ही जान जाएँ कि यह सत्य है? हम इसे उस ढंग से कैसे व्यक्त कर सकते हैं कि लोगों को लगे कि यह सारगर्भित और सटीक है? (मनुष्य से परमेश्वर की समस्त अपेक्षाएँ सत्य हैं।) मनुष्य से परमेश्वर की समस्त अपेक्षाएँ सत्य हैं, यह बात सही है, लेकिन इस बात को तुम और अधिक सटीक ढंग से कैसे कह सकते हो? (सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है।) यह बात पहले भी अक्सर कही गई थी। हमने अक्सर कहा कि परमेश्वर के वचन, मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ और सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता ही सत्य है—इसके अलावा और क्या है? (सत्य इस बात की कसौटी और मार्ग है कि लोग मामलों को कैसे सँभालें और खुद कैसे आचरण करें।) सत्य इस बात की कसौटी और मार्ग है कि लोग मामलों को कैसे सँभालें और खुद कैसे आचरण करें, यह भी सही है। अब इन सभी पहलुओं को एक साथ रखकर सत्य को एक सारगर्भित वाक्य में परिभाषित करो। (परमेश्वर ही सत्य है।) परमेश्वर ही सत्य है; यह बहुत ज्यादा व्यापक, बहुत ज्यादा सामान्य है। जरूरी है कि यह और अधिक विशिष्ट हो, ताकि जब लोग इसे सुनें तो उन्हें लगे कि यह सटीक परिभाषा है, खोखली नहीं, बल्कि बहुत ठोस और व्यावहारिक है, और वे सोचें कि यह उपयुक्त लगती है। इसे फिर से संक्षेप में कहने की कोशिश करो; तुम इसे और अधिक सटीक रूप से कैसे व्यक्त कर सकते हो? (ऊपरवाले ने पहले संगति की है कि सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) क्या यह सारगर्भित रूप से व्यक्त नहीं किया गया है? (हाँ, किया गया है।) सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। इसे एक कसौटी के रूप में परिभाषित क्यों किया जाए? हम “कसौटी” शब्द को और अधिक शाब्दिक अर्थ में कैसे समझ सकते हैं? (एक सटीक सिद्धांत के रूप में।) एक सटीक सिद्धांत या नियम के रूप में; इसे एक विनियम भी कहा जा सकता है। तो “कसौटी” से क्या तात्पर्य है? (एक मानक।) इसका तात्पर्य एक मानक, सटीक नियम और सिद्धांत से है। इसे ही हम एक कसौटी कहते हैं। इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी—यदि ये परिभाषाएँ सटीक हैं तो फिर इस कसौटी का संबंध किससे है? यहाँ इसका क्या तात्पर्य है? यह पहले दी गई परिभाषा जैसा ही है : इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी। यही सत्य है। अब जब कोई व्यक्ति उस वाक्य को पढ़ता है तो क्या वह सोच सकता है, “हमारी पारंपरिक संस्कृति भी सत्य है”? क्या इसे सत्य की श्रेणी में रखा जा सकता है? (नहीं, नहीं रखा जा सकता।) इसे नहीं रखा जा सकता है। क्या वह कह सकता है, “हमारे पास शैक्षणिक शोध का निष्कर्ष है जो सत्य है,” या “हमारे लोगों के पास एक संस्कृति है, या एक अनुभव है, या एक अच्छा नैतिक स्तर है वह भी सत्य है”? क्या सत्य को इस तरह परिभाषित किया जा सकता है? (नहीं, नहीं किया जा सकता।) सत्य को परिभाषित करने के लिए हम इन चीजों का उपयोग क्यों नहीं कर सकते? हम ऐसा क्यों कहते हैं कि इन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है? (उनका परमेश्वर की आराधना से कोई लेना-देना नहीं है।) यह सही है। लोगों के स्व-आचरण से उनका संबंध हो सकता है, लेकिन परमेश्वर की आराधना से उनका संबंध नहीं है। वे जिस स्व-आचरण की बात करते हैं उसका संदर्भ किससे है? उनके मानक और नियम क्या हैं? शैतान से आने वाला अच्छा व्यवहार। ये मानक परमेश्वर की आराधना के बारे में नहीं, बल्कि शैतान की आराधना करने और उसका बचाव करने को लेकर हैं। ये स्व-आचरण के बारे में कहावतों या संस्कृतियों का एक संग्रह हैं, जिन्हें इंसानी कल्पनाओं और धारणाओं और लोगों द्वारा मानी गई अच्छी नैतिकता या व्यवहार से सारांशित किया गया है। इनमें सत्य या परमेश्वर की आराधना करना शामिल नहीं है—इनका परमेश्वर की आराधना से कोई लेना-देना नहीं है।
चीनी लोगों ने एक पारंपरिक संस्कृति को सारांशित किया है जो केवल चीनी लोगों के लिए उपयुक्त है, और जिसे पश्चिमी लोग स्वीकार नहीं कर सकते हैं। पश्चिमी लोगों के अपने राष्ट्रीय नायक हैं, नैतिक सत्यनिष्ठा की राष्ट्रीय संवेदनाएँ हैं, और राष्ट्रीय संस्कृतियाँ हैं, लेकिन यदि उन्हें अपनी संस्कृतियों को पूर्व में लाना हो तो क्या वहाँ के लोग उन्हें स्वीकार करेंगे? (नहीं, वे स्वीकार नहीं करेंगे।) उसी तरह से वे भी स्वीकार नहीं किए जाएँगे। इसलिए, लोग चाहे इन संस्कृतियों को जितनी भी ऊँची दृष्टि से क्यों न देखें, या वे इन परंपराओं को चाहे जितना भी कुलीन क्यों न मानें, क्या सत्य और उनके बीच कोई रिश्ता है? (नहीं।) कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, पूर्व में एक प्रकार की पारंपरिक संस्कृति है जो कहती है कि उल्लू शुभ प्राणी नहीं हैं। लोग क्या कहते हैं? “तुम्हें रोने वाले उल्लू से नहीं, बल्कि हँसने वाले उल्लू से डरना चाहिए। उनकी पुकार सुनो, और बुरी चीजें अवश्य घटेंगी।” पूर्वी पारंपरिक संस्कृति में उल्लुओं को अशुभ और अमंगल माना जाता है। तो क्या पूर्वी लोग इस “अमंगल” प्राणी को पसंद करते हैं? (नहीं, वे नहीं करते।) यह नापसंदगी किस चीज पर आधारित है? यह पूर्वी पारंपरिक संस्कृति पर, और जो बातें उन तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचीं उन पर आधारित है जिनमें कहा गया है, “किसी उल्लू की पुकार सुनना परिवार में किसी की मृत्यु का पैगाम है।” हो सकता है कि यह एक व्यवस्था हो, जिसे लोगों ने सारांशित किया, या कोई इंसानी कल्पना हो, या एक संयोग हो, और इसके बाद से लोग अपने दिलों में मानते हैं कि उल्लू बुरे होते हैं। वे सोचते हैं कि किसी को उनकी आराधना नहीं करनी चाहिए, या उन्हें शुभ प्राणी नहीं मानना चाहिए, और किसी उल्लू को देखने पर उसे तुरंत दूर भगा देना चाहिए, और उसका स्वागत नहीं करना चाहिए। क्या यह एक प्रकार की संस्कृति नहीं है? (हाँ, जरूर है।) इस प्रकार की संस्कृति चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक, यह एक प्रकार की लोक विरासत है। अभी के लिए, हम इस बारे में बात न करें कि यह सही है या गलत, और सिर्फ यह कहें कि इस प्रकार की संस्कृति को पूर्व में, खास तौर पर चीन में, हर व्यक्ति से पूरा समर्थन मिलता है। वहाँ प्रत्येक व्यक्ति दिल से विश्वास करता है कि उल्लू बुरे होते हैं, शुभ प्राणी नहीं होते हैं, इसलिए यदि वे उसे देख लें तो फौरन उससे बचने की कोशिश करेंगे। लेकिन पश्चिम में, कुछ लोग मानते हैं कि उल्लू एक प्रकार के शुभ प्राणी हैं, और उल्लू की मूर्तियों और चित्रों का सजावटी चीजों के रूप में प्रयोग करते हैं। तरह-तरह की कढ़ाई की हुई चीजों और कबीलों के प्रतीकों में भी उल्लू के डिजाइन होते हैं, और उन्हें शुभ प्राणी माना जाता है। शुभ प्राणी होने का अर्थ क्या है? अर्थ यह है कि यह प्राणी तुम्हारे लिए सौभाग्य ला सकता है, और उसकी एक पुकार सुनने या उसे देखने से तुम्हारा अमंगल नहीं होगा। पश्चिम में यह एक प्रकार की लोकप्रिय पारंपरिक संस्कृति है। हम यह राय नहीं बनाएँगे कि इनमें से कौन-सी संस्कृति सही है या कौन-सी गलत; हम इस बारे में कोई निर्णय नहीं देंगे। लेकिन इस मामले के जरिए हम देख सकते हैं कि परमेश्वर द्वारा सृजित वही प्राणी पूर्व और पश्चिम में—जोकि वैसे भी पूरी तरह से भिन्न हैं—विभिन्न सोच और धारणाओं के अधीन है। पूर्वी लोग इसे अच्छी चीज नहीं मानते, और उल्लू चाहे हँसे या रोये, उनके लिए यह अच्छा नहीं माना जाता, जबकि पश्चिमी लोग यह चाहे हँसे या रोये इसे शुभ मानते हैं, और मानते हैं कि इसे देखने भर से शायद सौभाग्य प्राप्त होगा, इसलिए वे उल्लुओं को शुभ प्राणी मानते हैं। उल्लुओं से पेश आने के ये दो दृष्टिकोण और तरीके पारंपरिक संस्कृति से आते हैं : एक संस्कृति जो मानती है कि उल्लू अमंगल का सूचक है, और दूसरी जो उन्हें शुभ मानती है। इस पर अब गौर करें तो इनमें से कौन सत्य के अनुरूप है, और कौन नहीं? (इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है।) तुम लोग अपना यह दावा किस पर आधारित कर रहे हो? (इनमें से कोई भी नजरिया परमेश्वर से नहीं आता है।) सही कहा। जब लोग कहते हैं कि उल्लू शुभ प्राणी नहीं हैं तो वे यह किस पर आधारित करते हैं? यह पूर्वी पारंपरिक संस्कृति है; वे जिसे शुभ या अशुभ मानते हैं, या विपत्ति, दुर्भाग्य या सौभाग्य लाने वाला मानते हैं, उसे पारंपरिक संस्कृति के अनुसार मापा जाता है। यह कल्पनाओं और धारणाओं से उत्पन्न चीजों को देखने का एक तरीका है जिससे इस प्रकार की संस्कृति पैदा होती है। पश्चिमी लोग सोचते हैं कि इस प्रकार का प्राणी सौभाग्य ला सकता है और बेशक यह इसे अशुभ मानने और उस दृष्टि से देखने की अपेक्षा थोड़ा बेहतर और प्रगतिशील है। यह लोगों को महसूस करवाता है कि यह काफी अच्छा प्राणी है, और कम-से-कम ऐसे प्राणी को देख कर वे शांत और स्थिर महसूस करेंगे, जोकि अशुभ महसूस करने से अच्छा है। लेकिन इसे इस तरह से समझ कर तुम क्या हासिल कर सकते हो? क्या उल्लू वास्तव में तुम्हारे लिए सौभाग्य ला सकते हैं? (नहीं, वे नहीं ला सकते।) यदि तुम चीन में पैदा हुए होते तो क्या उल्लू वास्तव में तुम्हारा भाग्य तय कर सकते थे? यह भी सही नहीं है। तो, इससे तुम क्या समझ सकते हो? तुम चाहे यह मानते हो कि यह प्राणी दुर्भाग्य ला सकता है या चाहे यह मानते हो कि यह सौभाग्य ला सकता है, यह सिर्फ एक इंसानी विश्वास और धारणा है, तथ्य नहीं। इससे क्या सिद्ध होता है? (यह कि पारंपरिक संस्कृति सत्य नहीं है।) सही है; कोई भी संस्कृति सत्य नहीं है। तो तुम्हें उल्लुओं के साथ किस तरह से पेश आना चाहिए कि वह सत्य के अनुरूप हो? यह इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी को स्पर्श करता है। यहाँ कसौटी क्या है? तुम्हें इस प्राणी को किस परिप्रेक्ष्य से देखना चाहिए और जब यह तुम्हारे सामने आए तो चाहे वह रो रहा हो या हँस रहा हो, उससे कैसे पेश आएँ—ये चीजें कसौटी से जुड़ी हुई हैं। कसौटी क्या है? (सत्य।) सत्य ही कसौटी है। किसी उल्लू से कैसे पेश आएँ, इस बात के लिए तुम्हें किसे आधार बनाना चाहिए? (परमेश्वर के वचनों को।) और इस प्रकार के प्राणी के साथ व्यवहार को ले कर परमेश्वर का वचन क्या कहता है? उसके वचन विशेष रूप से नहीं कहते हैं कि, “तुम्हें उल्लुओं से सही ढंग से पेश आना चाहिए, और इस मामले में तुम पक्षपाती नहीं हो सकते। तुम नहीं कह सकते कि उल्लू अमंगल के सूचक हैं, न ही यह कि वे तुम्हारे लिए सौभाग्य लाएँगे। तुम्हें उल्लुओं से वस्तुपरक और निष्पक्ष ढंग से पेश आना चाहिए।” परमेश्वर ने यह नहीं कहा। तो फिर उल्लुओं पर अपने नजरियों को कसौटियों और सत्य के अनुरूप बनाने के लिए तुम्हें किस आधार की आवश्यकता है? (इस तथ्य की कि परमेश्वर ने सभी चीजों का सृजन किया।) तुम्हारा आधार यह तथ्य होना चाहिए कि परमेश्वर ने सभी चीजों का सृजन किया, यही सत्य है। परमेश्वर के हाथों में सभी चीजों का अपना कार्य होता है, अपना उद्देश्य होता है और उनके अस्तित्व का मूल्य होता है। इसके अलावा और क्या? (परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से सभी चीजें अच्छी हैं।) सही है, परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजें अच्छी होती हैं, उनके अस्तित्व का मूल्य होता है, और उनका अस्तित्व जरूरी है। यदि कोई चीज परमेश्वर से आती है और वह उसने बनाई है तो वह कभी भी अनावश्यक नहीं होगी। इस “कभी भी अनावश्यक न होने” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि यह यादृच्छिक रूप से लोगों के लिए दुर्भाग्य नहीं लाएगी। क्या एक छोटा-सा उल्लू यादृच्छिक रूप से तुम्हारे लिए दुर्भाग्य ला सकता है? क्या यह उल्लू को अत्यधिक शक्तिशाली नहीं बना देगा? ऊँचा क्या है : इंसान या उल्लू? इंसान सभी चीजों के प्रबंधक हैं, और यह कहना अधिक सटीक है कि वे उल्लुओं की नियतियों को नियंत्रित करते हैं, और देखते-देखते वे सभी उल्लुओं का सफाया कर सकते हैं। उल्लुओं के लिए इंसान की नियति को बदलना नामुमकिन है। तो इस प्राणी से पेश आने का कौन-सा तरीका सत्य के अनुरूप है? उससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आना। परमेश्वर ने सभी चीजों, सभी प्राणियों, और इंसानों का भी सृजन किया। उल्लू प्राणी हैं, इसलिए हमें उनसे उसी नजरिये से पेश आना चाहिए जिससे हम सभी सृजित प्राणियों से पेश आते हैं। अव्वल तो हम उनके जीवित रहने की व्यवस्थाओं को यों ही नष्ट नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, उल्लुओं की आदत और लक्षण दिन में सोना और रात में शिकार करना और सक्रिय रहना है। यदि किसी घायल उल्लू पर तुम्हारी नजर पड़े और तुम तरस खाकर उसे घर ले आओ तो तुम्हें उसका इलाज कैसे करना चाहिए? (उसकी आदतों के अनुसार।) सही है, तुम्हें उन व्यवस्थाओं का आदर करना चाहिए जिनके आधार पर वह जीता है। उसे रात को सुलाने और यदि वह न सोये तो उसे नींद की गोलियाँ खिलाने के बारे में मत सोचो। यह गलत है। अगर वह हमेशा रात में शोर मचाता है, और इससे तुम्हारा आराम बाधित होता है तो तुम उसे ऐसी जगह ले जा सकते हो जहाँ वह तुम्हें परेशान न करे, लेकिन तुम उसके जीने की व्यवस्थाओं को बाधित नहीं कर सकते हो, या उसके जीवित रहने के तरीके का उल्लंघन नहीं कर सकते हो। क्या यह उससे पेश आने का सही तरीका नहीं है? (हाँ, ऐसा है।) परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजों के बारे में तुम्हारा यही नजरिया होना चाहिए। सबसे पहले सही परिप्रेक्ष्य रखो। कोई भी काम करने से पहले तुम्हें यही कदम उठाना चाहिए। दूसरे, काम करते समय या मामले सँभालते समय तुम्हें इस सही परिप्रेक्ष्य को प्रयोग में लाना चाहिए, ताकि तुम जो करो वह सत्य के अनुरूप हो। यही कसौटियाँ हैं। सरल शब्दों में कहें तो कसौटियाँ सटीक नियम और व्यवस्थाएँ हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई बिल्ली चूहे को देखती है तो वह उसे पकड़ना चाहती है। मान लो कि तुम्हारे ख्याल से चूहे भी परमेश्वर ने ही बनाए हैं, और तुम बिल्ली को नियंत्रित करना चाहते हो, और उसे चूहे को पकड़ने से रोकना चाहते हो—क्या यह गलत है? (हाँ, यह गलत है।) इस दृष्टिकोण के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह व्यवस्थाओं का उल्लंघन करता है।) यह प्रकृति की व्यवस्थाओं के विरुद्ध है। जब कुछ लोग पानी में मछली देखते हैं तो वे सोचने लग जाते हैं, “सभी कहते हैं कि जल के बिना मछली जीवित नहीं रह सकती है। लेकिन मैं इसे जल से बाहर निकाल कर थल पर जीवित रखने की हर तरह से कोशिश करूँगा।” इसका नतीजा यह होता है कि थोड़ी ही देर बाद मछली मर जाती है। इसे क्या कहा जाता है? (बेतुका।) यह बेतुका है। उल्लुओं की चर्चा करके क्या तुम लोग कमोबेश समझ पाए हो कि कसौटियाँ क्या हैं, और वे किस पर आधारित होती हैं? (वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित होती हैं।) सही है, वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित हैं। तो भविष्य में तुम लोगों को उल्लुओं से कैसे पेश आना चाहिए? यदि किसी शाम कोई उल्लू तुम्हारी खिड़की के पास रोता रहे तो तुम्हें उसे कैसे सँभालना चाहिए? कम-से-कम हम जानते हैं कि उसे रोने का अधिकार है, और हमें उसका वह अधिकार देना चाहिए। यदि वह बहुत ज्यादा शोर मचा रहा हो तो तुम उसे दूर भगा सकते हो, लेकिन इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है कि क्या अगले दिन मेरे साथ कुछ अशुभ होगा। यह सोचना अनावश्यक है, चूँकि मनुष्य का भाग्य, जीवन और मृत्यु सब-कुछ परमेश्वर के हाथों और उसकी संप्रभुता के अधीन है। लोग सत्य को नहीं समझते हैं, इसलिए वे चीजों के प्रति आसानी से पूर्वाग्रह पाल लेते हैं और उनमें कल्पनाएँ और धारणाएँ भी हो सकती हैं, या वे कुछ हद तक अंधविश्वासी भी बन सकते हैं। इससे लोग अनेक चीजों पर गलत सोच रखने लगते हैं और वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने या हर चीज में इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी पर खरे उतरने में विफल हो जाते हैं। इसका कारण क्या है? (सत्य को न समझना।) ऐसा सत्य को न समझने से होता है।
जब कुछ पूर्वी लोग पश्चिमी लोगों के संपर्क में आते हैं तो वे उनके विशिष्ट नाक-नक्श देखते हैं—उनकी ऊँची नाक, उनकी बड़ी-बड़ी आँखें, उनके बालों के विविध रंग और देखने में उन सबका सुरुचिपूर्ण लगना—और अनजाने ही उनके प्रति ईर्ष्या और सराहना की भावना पैदा कर लेते हैं। फिर, निरंतर संपर्क के जरिए वे पाश्चात्य संस्कृति को लगातार स्वीकार लेते हैं। वे उसे स्वीकारने में क्यों सक्षम हो पाते हैं? अपने दिलों में ईर्ष्या और उनकी तरह बनने की इच्छा के कारण। वे सोचते हैं कि रंग-रूप परमेश्वर द्वारा निर्धारित होते हैं और उन्हें बदला नहीं जा सकता है, लेकिन यदि वे पाश्चात्य जीवन शैली, जैसे कि उनका खान-पान, उनका पहनावा, और चीजों के प्रयोग करने का ढंग, और साथ ही उनके बोलने का लहजा, सोचने का तरीका और संस्कृति, आदि की बराबरी कर सकें तो वे सम्मानित हो जाएँगे। इस किस्म के विचार के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या सभी लोगों में ऐसे विचार होते हैं? (हाँ, होते हैं।) कुछ पूर्वी लोग पश्चिमी लोगों की नकल करते हैं, और वह पहली चीज जिसकी वे नकल करते हैं वह कॉफी पीना है। उन्हें लगता है कि पूर्वी लोगों का चाय पीना बहुत गँवारू है, इसलिए वे पश्चिमी लोगों से कॉफी पीना सीख लेते हैं। खास तौर से, कुछ पूर्वी लोग कई पश्चिमी लोगों को हर सुबह हाथ में कॉफी का कप पकड़े हुए, काम के लिए भागते हुए देखते हैं, और समय के साथ वे भी ऐसा करना सीख जाते हैं, कभी-कभी तब भी जब वे वास्तव में व्यस्त नहीं होते। इसे नकल कहा जाता है। पूर्वी लोगों को वास्तव में यह आदत नहीं होती, लेकिन वे सोचते हैं कि पश्चिमी लोगों के रीति-रिवाज अच्छे, ऊँचे और सुरुचिपूर्ण हैं। वे मानते हैं कि यदि उनमें यह आदत न हो तो उन्हें सीख कर उसकी नकल करनी चाहिए, और यदि वे उसे सीख लें, और इस आदत के अनुसार जिएँ तो वे यकीनन पश्चिमी लोगों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगे और वे स्वयं भी वैसे हो जाएँगे। यह एक प्रकार से पश्चिमी लोगों की आराधना है। यदि तुम वास्तव में किसी चीज को पसंद करते हो तो बेशक कुछ भी करके उसका अध्ययन करो, लेकिन अगर तुम ऐसा रिवाज दूसरों को दिखाने के लिए एक दिखावे के रूप में सीख रहे हो, तो यह नकल है। यदि कोई सत्य को न समझे तो वह जो भी काम करेगा उसमें कोई कसौटी नहीं होगी, और वह एक बिना सिर वाली मक्खी जैसा होगा, बिना किसी लक्ष्य और दिशा के। जब वे पश्चिमी लोगों को देखते हैं तो अध्ययन करते हैं कि पश्चिमी लोग कैसे कार्य करते हैं; जब वे देखते हैं कि दुनिया में क्या चलन में है तो वे उसका अध्ययन करते हैं। गैर-विश्वासी ऐसे होते हैं, और अगर परमेश्वर में विश्वास रखने वाला कोई व्यक्ति ऐसा ही करे तो फिर वह कैसा व्यक्ति होगा? (एक छद्म-विश्वासी।) सही कहा। काम करते वक्त क्या उसके कोई मानक या सिद्धांत होते हैं? (नहीं, नहीं होते।) उसके कोई सिद्धांत नहीं होते हैं। क्यों? क्योंकि वे सांसारिक प्रवृत्तियों और दुष्टताओं से प्यार करते हैं; वे परमेश्वर की सराहना नहीं करते हैं, वे दिल से सत्य से प्रेम नहीं करते हैं, और वे सत्य को स्वीकारते और खोजते नहीं हैं। ऐसे तमाम लोग छद्म-विश्वासी हैं। चूँकि इस प्रकार के व्यक्ति में ये सार होते हैं, इसलिए भले ही वे कलीसिया में बैठ कर परमेश्वर के वचन पढ़ रहे हों और धर्मोपदेश सुन रहे हों, फिर भी वे कभी भी इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी पाने में सक्षम नहीं होंगे। इसका निहितार्थ यह है कि वे कभी भी सत्य को हासिल नहीं कर सकते हैं। क्या यह सही नहीं है? (हाँ, यह सही है।) दूसरों की कॉफी पीने की नकल करना किसी व्यक्ति की पसंद, उसके मार्ग और उसके क्रियाकलापों के सिद्धांतों का खुलासा कर सकता है। मुझे बताओ, क्या चाय पीना सत्य है, या क्या कॉफी पीना सत्य है? (दोनों सत्य से संबंधित नहीं हैं।) अच्छी बात है। तो फिर सत्य क्या है? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर से आने वाली सभी चीजें सत्य हैं। परमेश्वर के वचन जो कहते हैं कि तुम्हारे लिए मौसमी चीजें खाना अच्छा होता है, सत्य हैं।” यह सही है। सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। तो, स्व-आचरण की कसौटी में क्या शामिल है? यह स्व-आचरण से संबंधित सत्य के प्रत्येक पहलू को स्पर्श करती है। क्रियाकलापों की कसौटी के बारे में क्या विचार हैं? यह चीजों को सँभालने के तुम्हारे ढंग और साधनों के बारे में है। कहने की जरूरत नहीं कि हम सभी परमेश्वर की आराधना की कसौटी को जानते हैं। इस कसौटी का दायरा इन चीजों का संदर्भ देता है और इन सभी में सत्य शामिल है। मान लो कि कोई कहे, “ऐसा कैसे है कि तुम चाय पसंद नहीं करते?” और तुम कहते हो, “क्या मेरा चाय को पसंद न करना सत्य से मेल नहीं खाता है?” एक और व्यक्ति कहता है : “तुम पश्चिम में हो, तो तुमने कॉफी पीना क्यों नहीं सीखा? कॉफी न पीना, बहुत बेस्वाद होना है!” और तुम कहो, “क्या तुम मेरी निंदा करने की कोशिश कर रहे हो? क्या कॉफी न पीना कोई पाप है? क्या ‘स्वाद’ सत्य है? स्वाद का मूल्य कितना है?” यह पूरी तरह से बेकार है, है न? सत्य को न समझना ही वास्तव में बेकार है! इस उदाहरण से लोगों को क्या समझना चाहिए? उन्हें समझना चाहिए कि इन लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उन्हें कैसे नजरिये रखने चाहिए, और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार उनसे कैसा व्यवहार करना चाहिए, ताकि उसके अपेक्षित मानकों पर खरा उतरा जा सके। इन सबसे लोगों को क्या समझना और खोजना चाहिए? उन कसौटियों को जिनका उन्हें तरह-तरह की चीजों से पेश आने के लिए पालन करना चाहिए।
क्या तुम लोगों को लगता है कि एक पारंपरिक संस्कृति या राष्ट्रीय भावना “कसौटी” शब्द के योग्य हो सकती है? (नहीं।) उदाहरण के लिए, “इंसान होने का अर्थ है कि तुम्हें अपने देश से प्रेम करना चाहिए”—क्या यह एक कसौटी है? (नहीं, नहीं है।) “इंसान होने का अर्थ यह है कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए”—क्या यह एक कसौटी है? (नहीं, नहीं है।) कुछ लोग यह भी कहते हैं, “स्त्रियों को सद्गुणी होना चाहिए,” या “स्त्रियों को “तीन आज्ञापालन और चार सद्गुण” का पालन करना चाहिए,” लेकिन क्या ये कसौटियाँ हैं? (नहीं, नहीं हैं।) “एक पुरुष की केवल एक पत्नी होनी चाहिए, और उसे वफादार होना चाहिए”—क्या यह एक कसौटी है? क्या यह सत्य के मानकों पर खरा है? (नहीं, नहीं है।) यह एक सही व्यवहार है, नैतिक है, और मानवता की सबसे मूलभूत और बुनियादी चीज है, लेकिन यह सत्य के अनुरूप नहीं है। यह सामान्य मानवता के नैतिक और व्यावहारिक मानकों के अनुरूप है, लेकिन क्या इसे कसौटी माना जा सकता है? कसौटी का संदर्भ किससे है? (सत्य से।) कसौटी का संदर्भ सत्य से है, और इसलिए जो भी चीज सत्य से कम है वह कसौटी नहीं है। समझ रहे हो? पारंपरिक संस्कृति में पुरुषों और स्त्रियों से जिन अपेक्षाओं का मैंने जिक्र किया, क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं? (नहीं, नहीं हैं।) खैर, परमेश्वर पुरुषों से क्या अपेक्षा रखता है? बाइबल में क्या कहा गया है? (वे अपने परिवारों का भरण-पोषण करने के लिए श्रम करते हैं और पसीना बहाते हैं।) पुरुषों से परमेश्वर की यह अपेक्षा है, और यह सबसे बुनियादी चीज है जिसे एक पुरुष को करने में सक्षम होना चाहिए। स्त्रियों के लिए परमेश्वर का नियम क्या है? (उनकी इच्छा अपने पतियों के लिए होनी चाहिए।) चूँकि परमेश्वर के वचनों में यह बात कही गई है, यही सत्य है, और लोगों को इसी का पालन करना चाहिए। मनुष्य की पारंपरिक संस्कृति या नैतिक धर्मग्रन्थों में जो भी बात है, वह चाहे कितनी भी सही क्यों न हो, सत्य नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि परमेश्वर ने वह बात नहीं कही।) परमेश्वर जो नहीं कहता वह निश्चित रूप से सत्य नहीं है, न ही वह सत्य है जिसका परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। पूर्वी लोग स्त्रियों को किन मानकों से परिभाषित करते हैं? वे मानते हैं कि अच्छी स्त्रियों को विनम्र और सद्गुणी, संस्कारी और परिष्कृत, आकर्षक और सुंदर होना चाहिए, और शादी के बाद उन्हें बिना शिकायत किए परिवार के बड़े-छोटे, सभी लोगों की देखभाल करनी चाहिए। वे बस पांव की चटाई हैं। पूर्वी लोगों ने स्त्रियों की यह छवि तैयार की है; ये उनके स्त्रियों से अपेक्षित मानक हैं। आओ अब देखें कि पश्चिमी लोगों के स्त्रियों से अपेक्षित मानक क्या हैं, यानी वे अपने विचारों और दृष्टिकोणों से क्या शिक्षा देते हैं और किसकी पैरवी करते हैं। पश्चिमी लोग मानते हैं कि स्त्रियों को स्वतंत्र, मुक्त और समान होना चाहिए—ये मुख्य रूप से स्त्रियों के अधिकार ही हैं जिनकी पश्चिम पैरवी करता है। इन अधिकारों में स्त्रियों के लिए एक बुनियादी परिभाषा और अपेक्षा है, यानी वे किसी महिला की जीवनशैली और रंग-रूप के लिए एक बुनियादी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। यह अवधारणा क्या है? यह कि स्त्रियों को सारा दिन पांव की चटाई की तरह आज्ञाकारी, दयनीय और शिष्ट नहीं होना चाहिए। उनके ख्याल से ऐसा होना खराब है, और स्त्रियों को सशक्त और साहसी होना चाहिए। पश्चिमी लोगों के दिलों में ये स्त्रियों से अपेक्षित मानक हैं। वे मानते हैं कि स्त्रियों को कठपुतलियों की तरह रहने की जरूरत नहीं है जो प्रति दिन मुश्किलों के सामने झुक कर समर्पण करती रहें और दूसरों से डाँट या हुक्म सुनने का इंतजार करती रहें। उन्हें लगता है कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। पश्चिमी लोग पैरवी करते हैं कि स्त्रियों को अपने क्रियाकलापों में सक्रिय, स्वतंत्र और साहसी होना चाहिए। बेशक यह संभव है कि हम जो समझते हैं वह उनकी सोच से पूरी तरह मेल नहीं खाता हो, लेकिन मौलिक रूप से पूर्वी और पश्चिमी स्त्रियों के बीच यही मुख्य अंतर है। इन दो नजरियों में से कौन-सा सही है? (इनमें से कोई भी सही नहीं है।) वास्तव में, यह सही और गलत के बारे में नहीं है। पूर्वी सामाजिक पृष्ठभूमि के तहत, ऐसे समुदाय में, तुम्हें उसी तरह से जीना पड़ता है। क्या तुम चाहो तो विद्रोह कर सकते हो? परिवार के भीतर विद्रोह करने पर तुम्हें मृत्यु का जोखिम उठाना पड़ता है। पश्चिम में, तुम उस तरह से जी सकती हो जैसे कि एक पश्चिमी महिला जीती है, लेकिन तुम चाहे जैसे जियो, चाहे जिस भी सामाजिक पृष्ठभूमि में या जिस भी समुदाय में जियो, कौन-सा नजरिया सत्य के अनुरूप है? (इनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है।) इनमें से कोई भी नजरिया सत्य के अनुरूप नहीं है, दोनों ही इसका उल्लंघन करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? पूर्वी लोग चाहते हैं कि स्त्रियाँ हमेशा शिष्ट हों, ‘तीन आज्ञापालन और चार सद्गुण’ का मूर्तरूप हों, सद्गुणी और विनम्र हों—किस प्रयोजन से? ताकि उन पर नियंत्रण करना आसान हो। यह एक घातक विचारधारा है जो पारंपरिक पूर्वी संस्कृति से विकसित हुई है, और यह वास्तव में लोगों के लिए हानिकारक है, और यह आखिरकार स्त्रियों को दिशाहीन और विचारहीन जीवन जीने की ओर आगे बढ़ाती है। ये स्त्रियाँ नहीं जानतीं कि उन्हें क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, या कौन-से क्रियाकलाप सही हैं या गलत। वे अपने परिवारों के लिए अपना जीवन भी दे देती हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं किया है। क्या यह स्त्रियों के लिए एक प्रकार की हानि है? (हाँ, है।) वे तब भी प्रतिरोध नहीं करतीं जब उनके अपने अधिकार, जो उन्हें मिलने चाहिए, छीन लिए जाते हैं। वे प्रतिरोध क्यों नहीं करती हैं? वे कहती हैं : “प्रतिरोध करना गलत है, यह सद्गुण नहीं है। अमुक स्त्री को देखो, वह मुझसे बहुत बेहतर काम करती है, और उसने मुझसे बहुत ज्यादा सहा है, फिर भी वह कभी शिकायत नहीं करती।” वे ऐसा क्यों सोचती हैं? (वे पारंपरिक सांस्कृतिक सोच से प्रभावित हैं।) इसी पारंपरिक संस्कृति ने उनके भीतर गहरी जड़ें जमा रखी हैं, और उन्हें असीम कष्ट दिए हैं। वे इस किस्म की यातना को सहन करने में कैसे सक्षम हैं? वे अच्छी तरह जानती हैं कि इस प्रकार की यातना बहुत पीड़ादायक है, यह उन्हें असहाय महसूस करवाती है, और उनके दिल दुखाती है, तो फिर भी वे इसे कैसे स्वीकार सकती हैं? इसका वस्तुपरक कारण क्या है? यह कि यह उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि है, इसलिए वे इससे मुक्त नहीं हो सकतीं, बल्कि सिर्फ इसे दब्बूपन के साथ स्वीकार सकती हैं। वे व्यक्तिपरक ढंग से ऐसा ही महसूस भी करती हैं। वे सत्य को नहीं समझती हैं, या यह नहीं समझती हैं कि स्त्रियों को गरिमा के साथ कैसे जीना चाहिए या स्त्रियों के लिए जीने का सही तरीका क्या है। किसी ने भी उन्हें ये बातें नहीं बताई हैं। उनके ज्ञान के मुताबिक स्त्रियों के स्व-आचरण और क्रियाकलापों की कसौटी क्या है? पारंपरिक संस्कृति। उन्हें लगता है कि जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन तक पहुँचा है, वह सही है, और यदि कोई इसका उल्लंघन करता है तो उसकी अंतरात्मा की निंदा की जानी चाहिए। यही उनकी “कसौटी” है। लेकिन क्या यह कसौटी वास्तव में सही है? क्या इसे उद्धरण चिह्नों में रखना चाहिए? (हाँ, इसे रखना चाहिए।) यह कसौटी सत्य के अनुरूप नहीं है। इस प्रकार की सोच और दृष्टिकोण के अधीन किसी का व्यवहार चाहे जितना भी स्वीकृत या अनुकूल क्यों ना हो, क्या वास्तव में यह कसौटी है? ऐसा नहीं है, क्योंकि यह सत्य और मानवता के विरुद्ध है। लंबे समय से पूर्वी स्त्रियों को अपने पूरे परिवारों की देखभाल करनी पड़ती रही है, और वे तमाम छोटे-छोटे तुच्छ मामलों की जिम्मेदारी उठाती रही हैं। क्या यह उचित है? (नहीं, उचित नहीं है।) तो फिर वे उसे कैसे सहन कर सकती हैं? इस वजह से कि वे इस प्रकार की सोच और दृष्टिकोण से बँधी हुई हैं। इसे सहन करने की उनकी क्षमता दर्शाती है कि भीतर गहरे में वे 80% यकीन से कह सकती हैं कि ऐसा करना ही सही है, और यदि वे इसे बस सहन कर लें तो पारंपरिक संस्कृति के मानकों पर खरी उतरने में सक्षम होंगी। इसलिए वे उस दिशा में, उन मानकों की ओर भागती हैं। यदि भीतर गहरे में वे सोचतीं कि यह गलत है और उन्हें यह नहीं करना चाहिए, यह मानवता के अनुरूप नहीं है, और यह मानवता और सत्य के विरुद्ध है, तो भी क्या वे ऐसा करतीं? (नहीं, वे ऐसा नहीं करतीं।) उन्हें उन लोगों से दूर जाने और उनका दास न बनने का कोई तरीका सोचना होगा। लेकिन अधिकतर स्त्रियाँ ऐसा करने की हिम्मत नहीं करेंगी—वे क्या सोचती हैं? वे सोचती हैं कि वे अपने समुदाय के बिना जीवित रह सकती हैं, लेकिन अगर उन्होंने अपना समुदाय छोड़ दिया, तो उन्हें एक भयानक कलंक ढोना पड़ेगा और कुछ खास दुष्परिणाम झेलने होंगे। ये सब नाप-तोल कर वे सोचती हैं कि यदि उन्होंने ऐसा किया तो उनके सहयोगी बातें करेंगे कि वे किस तरह से सद्गुणी नहीं हैं, समाज उनकी खास तरीकों से निंदा करेगा और उनके बारे में कुछ खास राय बनाएगा, और इन सबके गंभीर दुष्परिणाम होंगे। अंत में, वे इस पर सोच-विचार करती हैं और उन्हें लगता है, “इसे सहन करना ही बेहतर है। वरना निंदा का भार मुझे कुचल देगा!” अनेक पीढ़ियों से पूर्वी स्त्रियाँ ऐसी ही हैं। इन तमाम नेक कर्मों के बदले उन्हें क्या सहना पड़ता है? अपनी मानवीय गरिमा और मानवाधिकारों से वंचित किया जाना। क्या ये विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हैं? (नहीं, नहीं हैं।) वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। उन्हें अपनी गरिमा और मानवाधिकारों से वंचित रखा गया है, उन्होंने अपनी सत्यनिष्ठा, अपने रहने और सोचने के लिए स्वतंत्र स्थान, और अपने बोलने और अपनी इच्छाएँ व्यक्त करने का अधिकार खो दिया है—उनके किए हुए सारे काम घर के लोगों के लिए होते हैं। यह करने का उनका प्रयोजन क्या है? पारंपरिक संस्कृति द्वारा स्त्रियों से अपेक्षित मानकों पर खरा उतरना, और दूसरे लोगों से अच्छी पत्नियाँ और नेक लोग कहलवाकर अपनी प्रशंसा पाना। क्या यह एक प्रकार की यातना नहीं है? (हाँ, है।) क्या ऐसी सोच उचित है या विकृत? (विकृत है।) क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) परमेश्वर ने मनुष्य के लिए मुक्त इच्छा रची, और इस मुक्त इच्छा से कौन-से विचार आते हैं? क्या वे मानवता के अनुरूप होते हैं? इन विचारों को कम-से-कम मानवता के अनुरूप तो होना ही चाहिए। इसके अलावा, उसका अभिप्राय यह भी था कि लोग अपनी जीवन प्रक्रिया में सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में सटीक सोच और समझ रखेंगे और फिर जीने और परमेश्वर की आराधना करने का सही मार्ग चुनेंगे। इस प्रकार जिया हुआ जीवन परमेश्वर का दिया हुआ है, और इसका आनंद लेना चाहिए। लेकिन लोग जीवन भर इन तथाकथित पारंपरिक संस्कृतियों और नैतिक धर्मग्रन्थों से प्रतिबंधित, बँधे हुए और विकृत रहते हैं, और आखिरकार वे क्या बन जाते हैं? वे पारंपरिक संस्कृति की कठपुतलियाँ बन जाते हैं। क्या ऐसा लोगों के सत्य नहीं समझने के कारण नहीं है? (हाँ, ऐसा है।) क्या तुम लोग भविष्य में इस मार्ग पर चलना चुनोगे? (नहीं, मैं नहीं चुनूँगी।) तो तुम्हें क्या करना चाहिए? मान लो कि तुम कहते हो, “मैं उनसे लड़ूँगा,” या “मैं अब उनकी सेवा नहीं करूँगा। मेरे मानवाधिकार हैं, और मेरी अपनी सत्यनिष्ठा है।” क्या यह ठीक है? (नहीं, ठीक नहीं है।) यह ठीक नहीं है। यह एक अति से दूसरी अति तक जाना है, और यह परमेश्वर की गवाही देना या उसकी महिमा करना नहीं है। तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (सिद्धांतों के अनुरूप।) बेशक सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना सही है और तुम्हें सभी के साथ सिद्धांतों के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए, यदि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हों तो उनसे भाई-बहनों की तरह, और वे विश्वास नहीं रखते हैं तो उनसे गैर-विश्वासियों की तरह पेश आना चाहिए। तुम्हें अपने साथ गलत करने, अपनी सत्यनिष्ठा को विकृत करने और उनके लिए अपना जीवन न्योछावर कर अपनी गरिमा और अधिकार छोड़ने की जरूरत नहीं है। वे इस योग्य नहीं हैं। इस संसार में केवल एक ही है जो इस योग्य है कि उसके लिए तुम अपना जीवन व्यतीत कर सकते हो। वह कौन है? (परमेश्वर।) क्यों? क्योंकि परमेश्वर सत्य है, और उसके वचन मनुष्य के अस्तित्व, स्व-आचरण और क्रियाकलापों के कसौटी हैं। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर है, उसके वचन हैं, तो तुम भटकोगे नहीं, और इस बारे में सटीक रहोगे कि तुम कैसे आचरण करते हो और कार्य करते हो। एक बार बचा लिए जाने के बाद किसी पर परमेश्वर के वचनों का यही अंतिम प्रभाव होता है।
“सत्य क्या है?” यह एक अत्यंत विशाल विषय है। हमने अभी थोड़े-से उदाहरण दिए हैं, जिनमें से एक था उल्लुओं से कैसे पेश आएँ। इसके अलावा दूसरे उदाहरण कौन-से थे? (पूर्वी लोगों का कॉफी पीने के मामले में पश्चिमी लोगों की नकल करना।) (पूर्वी और पश्चिमी लोगों के स्त्रियों से अपेक्षित मानक।) ये सबसे स्पष्ट उदाहरण हैं। इसलिए विभिन्न चीजों पर पूर्वी और पश्चिमी लोगों के नजरियों के बीच, कसौटी कौन-सी है? (कोई भी नहीं।) किसी से भी सत्य जुड़ा हुआ नहीं है, ये दोनों ही मानवीय नजरिये और राय हैं। और अधिक सटीक ढंग से कहें तो दोनों ही त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण और भ्रांतियाँ हैं। ये कसौटी नहीं हैं, ये शैतान की रणनीतियाँ, सिद्धांत और फलसफे हैं जो लोगों को हानि पहुँचाते हैं। इस पर इस प्रकार संगति करने के बाद क्या तुम इस मामले को थोड़ा अधिक समझ सके हो? (हाँ, हम समझ सके हैं।) यदि मैंने इस पर चर्चा नहीं की होती तो कदाचित तुम लोग किसी दिन कॉफी पी कर और हैमबर्गर खा कर, पश्चिमी लोगों का अनुकरण करने, उनकी नकल करने की सोच रहे होते। क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है? भले ही तुम प्रति दिन पश्चिमी खाना खाओ, लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो तो यह व्यर्थ जाएगा, और तुम्हारे पास अभी भी इसके लिए कसौटी नहीं होगी कि तुम्हें कैसे आचरण करना है। अहम बात यह है कि क्या तुम सत्य को खोज सकते हो, और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हो—यह तुम्हारे लिए लाभ की बात है। मेरे इस प्रकार संगति करने के जरिए, क्या तुम लोगों को सत्य और कसौटियों की थोड़ी समझ मिली है? (हाँ, हमें मिली है।) क्या लोगों की पारंपरिक संस्कृति या नैतिक कसौटी में सत्य है? (नहीं, नहीं है।) क्या नैतिक धर्मग्रन्थों में सत्य है? (नहीं, नहीं है।) क्या अब तुम सुनिश्चित हो सकते हो कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं? (हाँ, हम हो सकते हैं।) इस बात की पुष्टि करने के बाद कि उसके वचन ही सत्य हैं, तुम्हें इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए : परमेश्वर के वचन क्या हैं? उसके वचनों में अपेक्षित सिद्धांत कौन-से हैं? वे कौन-सी कसौटियाँ हैं जो उसने मनुष्य को बताई हैं? परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होने के लिए वास्तव में लोगों को किस प्रकार कार्य करना चाहिए, और यह करने के सही सिद्धांत कौन-से हैं? तुम्हें यही खोजना चाहिए, लेकिन अभी के लिए इस विषय पर बस इतना ही।
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