मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो) खंड सात
जब तुम लोग किसी मसीह-विरोधी से मिलते हो, तो तुम्हें उससे कैसा बर्ताव करना चाहिए? कुछ अगुआ ऐसे हुए हैं जिन्हें नकली अगुआ या मसीह-विरोधी की तरह निरूपित किया गया है और उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। कुछ समय बाद भाई-बहनों ने एक के बारे में सूचना दी कि उसके पास कुछ कार्य क्षमता थी, कि उसने इस दौरान प्रायश्चित्त किया था और वह अच्छे ढंग से काम कर रहा था। यह विशेष रूप से स्पष्ट नहीं है कि वह व्यवहारगत ढंग से अच्छा कार्य कर रहा था या वह मीठी-मीठी बातें कर रहा था, या वह अपनी भूमिका में अधिक अनुशासित हो गया था। चूँकि भाई-बहनों ने कहा कि वह अच्छे ढंग से कार्य कर रहा था, और यह देखते हुए कि कुछ कार्यों के लिए कर्मचारियों की कमी थी, इसलिए ऐसी व्यवस्था की गई कि उसे थोड़ा कार्य करना चाहिए। और नतीजा यह हुआ कि दो महीने से भी पहले भाई-बहनों ने रिपोर्ट दर्ज की : “उसे फौरन बर्खास्त करो—वह बरदाश्त से ज्यादा हमारा दमन कर रहा है। अगर उसे बर्खास्त नहीं किया गया, तो हम अपने कर्तव्य नहीं कर पाएँगे।” कुछ भी हो जाए वे उसे काम पर रखने की सहमति नहीं देंगे; वे जिसे भी अगुआ के रूप में चुनें, वह व्यक्ति यह नहीं होगा। वह वही पुराना पाजी था—वह बड़ी-बड़ी बातें करता था, लेकिन दरअसल वह लेशमात्र भी नहीं बदला था। क्या चल रहा था? उसकी प्रकृति बुरी तरह से उजागर हो चुकी थी। तुम्हारे ख्याल से इस मामले से कैसे निपटना चाहिए? भाई-बहनों की ऐसी तीखी प्रतिक्रिया थी, इससे साबित होता है कि उनमें सच में थोड़ी समझ-बूझ है। उसने कुछ लोगों को गुमराह किया था, और ऊपरवाले द्वारा उससे निपटने के बाद कुछ लोग उसके बचाव में आ गए, और बाद में कुछ लोगों ने कहा कि उसने प्रायश्चित्त किया था। इसलिए उसे एक बार और पदोन्नत किया गया और कुछ समय बाद उसका पूरी तरह से खुलासा हो गया। भाई-बहनों ने अब उसकी पूरी असलियत समझ ली थी और वे उसे निकाल देने के लिए एकजुट हो गए थे। ऊपरवाले ने देखा कि ये लोग अब समझ-बूझ वाले हो गए हैं। उनका जो सिंचन हुआ था वह व्यर्थ नहीं गया। इसलिए यह देखते हुए कि उन सबने उसे काम पर रखने की सहमति नहीं दी थी, ऊपरवाले ने उसे बर्खास्त कर दिया। उन्हें यह समझ-बूझ कहाँ से मिली? (सत्य की समझ से।) हाँ—उन्होंने सत्य को समझ लिया था। समझ-बूझ सत्य की समझ से आती है। क्या वहाँ अभी भी सत्य और परमेश्वर का शासन नहीं था? (हाँ, था।) उन्हें समय से समझ-बूझ मिली : उसके बर्खास्त होने के बाद भाई-बहनों ने उसका नियंत्रण नहीं सहा। उसके दमन के अधीन लोगों ने बहुत कष्ट सहे थे। उसमें जरा भी मानवता नहीं थी। वह अपना उचित कार्य तो नहीं करता था, बल्कि भाई-बहनों के कर्तव्य निर्वहन में बाधा पैदा करता था—वह उन पर अत्याचार करता था, अपनी शक्ति से उनके साथ बुरा व्यवहार करता था। इसके लिए कौन सहमत होता? एक कठपुतली—बस वही! जब ऐसे लोगों को बर्खास्त किया जाता है, तो क्या बाद में उनके मन में इस बारे में कोई भावना रहती है? पिछली बार ऊपरवाले ने उस व्यक्ति को बर्खास्त किया था; इस बार, भाई-बहनों ने उसे अपदस्थ किया था, मंच से उतार दिया था—यह जाने का कोई आकर्षक तरीका नहीं था! उसने मूल रूप से चाहा था कि उसे कोई पद मिले। लेकिन हुआ ऐसा कि उसे वह पद तो नहीं मिला, बल्कि वह एकाएक लुढ़क गया और उसे ठोक-पीट कर वापस उसका मूल रूप दे दिया गया। क्या उसे आत्म-चिंतन नहीं करना चाहिए था? (हाँ।) यदि वह एक सामान्य व्यक्ति होता, सिर्फ गंभीर रूप से भ्रष्ट स्वभाव वाला, तो क्या उसे भी आत्म-चिंतन नहीं करना पड़ता? (हाँ, करना पड़ता।) ऐसा एक प्रकार का व्यक्ति होता है जो आत्म-चिंतन नहीं करता। वह सोचता है कि वही सही है, वह जो भी करता है सही करता है; वह तथ्यों को स्वीकार नहीं करता, सकारात्मक चीजों को स्वीकार नहीं करता, वह अपने बारे में दूसरों का आकलन स्वीकार नहीं करता। ये ऐसे लोग हैं जिनका स्वभाव सार एक मसीह-विरोधी का होता है। अकेले मसीह-विरोधी ही आत्म-चिंतन करना नहीं जानते। इसके बजाय वे किस बात पर सोचते-विचारते हैं? “हूँ! वह दिन आएगा जब मेरा सितारा फिर एक बार बुलंद होगा। प्रतीक्षा करो जब तक कि तुम लोग मेरी मुट्ठी में नहीं आ जाते—फिर देखना मैं तुम लोगों को कैसी यातना दूँगा!” क्या उनके पास ऐसा करने का मौका होगा? (नहीं।) उनके पास कोई मौका नहीं होगा। जैसे-जैसे भाई-बहन अधिक-से-अधिक सत्य जानेंगे, और विभिन्न लोगों की सभी विभिन्न दशाओं को समझ सकेंगे, खास तौर से मसीह-विरोधियों को पहचान लेंगे, तो मसीह-विरोधी के लिए बुराई करने की गुंजाइश बहुत कम रह जाएगी, और उनके पास ऐसा करने के कम-से-कम अवसर बचेंगे। उनके लिए वापसी की कोशिश करना बिल्कुल आसान नहीं होगा। वे आशा करते हैं कि ऊपरवाला समझ-बूझ के बारे में थोड़ा कम उपदेश देगा और आगे उनकी असलियत नहीं पहचान पाएगा। जब वे ऐसे सत्यों की संगति सुनते हैं तो वे जान जाते हैं कि उनका समय समाप्त हो गया है, और वे सोचते हैं कि अब उनके लिए वापसी की कोई उम्मीद नहीं बची है। उनके सोच-विचार बंद नहीं होते : “वे जो उजागर कर रहे हैं और पहचान रहे हैं वह सही है—यह पूरी तरह से मेरी दशा को दर्शाता है। मुझे कैसे बदलना चाहिए? अगर मैं बस इसी तरह से आचरण करता रहा, तो क्या यह मेरा अंत नहीं होगा? मैं खारिज कर दिया जाऊँगा। प्रधान दूत के रास्ते पर चलने और परमेश्वर का विरोध करने से क्या लाभ होगा?” क्या उनके मन में ऐसे विचार आएँगे? (नहीं।) वे विचार नहीं करेंगे और निश्चित रूप से आत्म-चिंतन कर खुद को जानने की कोशिश नहीं करेंगे; इसके बजाय, वे प्रायश्चित्त करने से पहले मर जाएँगे। यही उनकी प्रकृति है। भले ही तुम सत्य पर कैसे भी संगति करो, इससे वे जागेंगे नहीं और प्रायश्चित्त नहीं करेंगे। क्या प्रायश्चित्त के बिना बच निकलने का कोई द्वार है? (नहीं।) वे प्रायश्चित्त नहीं करते। वे अंत तक खुद की खोदी हुई कब्र तक अपने रास्ते चलते जाते हैं, जो कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है।
हम पूरा समय मसीह-विरोधियों को पहचानने के विषय में चर्चा करते रहे हैं। तुम लोगों के ख्याल से इसे सुनते समय मसीह-विरोधी क्या महसूस करते हैं? जब सभा करने का समय आता है तो वे असहनीय कष्ट महसूस करते हैं, और वे अपने दिल से प्रतिरोधी होते हैं। क्या वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? (हाँ, हैं।) जब भ्रष्ट स्वभाव वाला कोई सामान्य व्यक्ति जान लेता है कि उसमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, तो वह और अधिक सुनने और समझने को आतुर हो जाता है, क्योंकि एक बार समझ लेने के बाद ही वह बदलाव का अनुसरण करने में सक्षम हो पाएगा। वे सोचते हैं कि अगर वे नहीं समझे तो भटक जाएँगे और फिर शायद ऐसा दिन आए जब वे मसीह-विरोधियों के रास्ते पर कदम रख दें, जहाँ हालात बेकाबू हो जाएँ, मुसीबतों को निमंत्रण दे डालें और इस तरह से उद्धार का अपना मौका गँवा दें और तबाह हो जाएँ। वे इससे डरते हैं। मसीह-विरोधी की मानसिकता भिन्न होती है। वे अन्य सभी को भेद की पहचान के बारे में बोलने और ऐसे उपदेश सुनने से दूर रखने में कोई कसर न छोड़ने को आतुर रहते हैं; वे आतुरता से चाहते हैं कि हर कोई भ्रमित और नासमझ हो, और वे उसे गुमराह कर सकें। ऐसा करके ही उन्हें खुशी मिलेगी। किसी मसीह-विरोधी की सबसे बड़ी कामना क्या होती है? सत्ता अपने हाथ में लेने की। क्या तुम लोग सत्ता अपने हाथ में लेना चाहोगे? (नहीं।) भले ही दिल से न चाहो, लेकिन कभी-कभी तुम्हारे मन में लगता होगा कि सत्ता लेनी चाहिए, और दरअसल यह ऐसी चीज है जो तुम करना चाहोगे। तुम्हारे अंतर्मन में एक व्यक्तिपरक कामना, तुम्हारे दिल की गहराई में एक तड़प हो सकती है कि ऐसा व्यक्ति न बनो, ऐसा मार्ग न अपनाओ, लेकिन जब तुम्हें कुछ होता है, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें डिगा देता है और आगे बढ़ा देता है। तुम यह सोचकर अपने दिमाग पर जोर डालते हो कि तुम अपने रुतबे और प्रभाव की रक्षा कैसे करोगे, तुम कितने लोगों पर नियंत्रण कर सकोगे, दूसरों का सम्मान पाने के लिए अधिकारपूर्ण ढंग से कैसे बात करो। जब तुम हमेशा इन चीजों के बारे में सोचते रहते हो, तो तुम्हारा दिल अब तुम्हारे काबू में नहीं रह जाता। इसे कौन नियंत्रित कर रहा होता है? (एक भ्रष्ट स्वभाव।) हाँ—यह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में होता है। इंसान अपने दैहिक हितों की चिंताओं के बारे में सारा दिन सोचता रहता है; वह हमेशा दूसरों के साथ संघर्ष करता रहता है, और इन संघर्षों की प्रक्रिया में उसे कुछ भी हासिल नहीं होता, और यह उसके लिए अत्यंत पीड़ादायी होता है—वह केवल देह-सुख और शैतान के लिए ही जीता है। इसलिए इंसान अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से करने और परमेश्वर के लिए जीने का संकल्प तो करता है, मगर चीजें आ पड़ने पर वह रुतबे और अपने हितों के लिए संघर्ष करने लगता है : एक कदम आगे एक कदम पीछे का संघर्ष, जो उन्हें भीतर तक थका देता है, जिससे उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। मुझे बताओ, क्या यह जीने का थका देने वाला तरीका नहीं है? (हाँ, है।) वे दिन-ब-दिन इसी तरह जीते हैं, और वे जान पाएँ इससे पहले ही दशकों गुजर जाते हैं। कुछ लोगों ने दस-बीस साल तक परमेश्वर में विश्वास रखा है—उन्होंने कितना सत्य हासिल किया है? उनका भ्रष्ट स्वभाव कितना बदला है? वे हर दिन किसके लिए जीते हैं? वे किस चीज के लिए खुद को व्यस्त रखते हैं? वे किस चीज के लिए अपना दिमाग खपाते हैं? यह सब देह के लिए होता है। परमेश्वर ने कहा कि “मनुष्य के हृदय के विचारों की हर कल्पना केवल सतत बुराई है।” क्या इन वचनों में कोई गलती है? उन्हें चखो; उनका आनंद लो। जब तुम इन वचनों के बारे में सोचते हो, जब उनका अनुभव करते हो, तो क्या तुम्हें डर नहीं लगता? तुम कह सकते हो, “मुझे थोड़ा डर तो लगता है। बाहरी तौर पर, मैं दिन भर कीमत चुकाता हूँ; मैं त्याग करता हूँ, खुद को खपाता हूँ और कष्ट सहता हूँ। मेरा दैहिक शरीर यही करता है—लेकिन मेरे दिल के सभी विचार बुरे होते हैं। वे सारे-के-सारे सत्य के विरुद्ध होते हैं। मेरे किए कई कामों में, मेरा उद्देश्य, मेरी मंशा और मेरे लक्ष्य विशुद्ध रूप से अपनी ही कल्पनाओं के बुरे कर्म करने को लेकर होते हैं।” इस तरह से कार्य करने का नतीजा क्या होता है? बुरे कर्म। तो फिर क्या परमेश्वर उन्हें याद रखेगा? कुछ लोग कह सकते हैं, “मैंने बीस वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है। मैंने सारी चीजें छोड़ दी हैं—फिर भी परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखता।” वे दुखी हो जाते हैं, उन्हें पीड़ा होती है। उन्हें किस बात से पीड़ा होती है? यदि परमेश्वर इंसान से सचमुच सख्ती से पेश आए, तो इंसान के पास शेखी बघारने के लिए कुछ भी नहीं होगा। यह सब परमेश्वर का अनुग्रह है, उसकी कृपा है—परमेश्वर मनुष्य के साथ अत्यंत सहनशील होता है। इस बारे में सोचो : परमेश्वर अत्यंत पवित्र है, अत्यंत धार्मिक है, अत्यंत सर्वशक्तिमान है, और जब उसका अनुसरण करने वाले लोग पूरी तरह से दिन भर बुरे विचार लिए होते हैं, ऐसे विचार जो सत्य के विरुद्ध होते हैं, और ऐसे विचार जो उनके अपने रुतबे, शोहरत और लाभ के हितों के मामलों के बारे में होते हैं, तो वह बस उन्हें देखता है। क्या परमेश्वर इस प्रकार से उसका विरोध करके उसके साथ विश्वासघात करने वाले अनुयायियों को बरदाश्त करेगा? बिल्कुल नहीं। इन ख्यालों, विचारों, इरादों और मंशाओं के हावी होने से लोग खुल्लमखुल्ला ऐसी चीजें करते हैं जो परमेश्वर के विद्रोह और विरोध में होती हैं, पूरे समय यह डींग मारते हैं कि वे अपना कर्तव्य कर रहे हैं और परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग कर रहे हैं। परमेश्वर यह सब देखता है, और फिर भी वह इसे सहन करेगा। वह इसे कैसे सहन करता है? वह सत्य मुहैया कराता है; वह सिंचन कर उजागर करता है; वह प्रबुद्ध और रोशन भी करता है, और मार्गदर्शन देता है और ताड़ना देकर अनुशासित करता है—और जब अनुशासन गंभीर होता है, तो वह पुनराश्वासन भी देगा। यह सब करने के लिए परमेश्वर कितना धैर्यवान होता होगा! वह इन लोगों के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों पर नजरें गड़ाए होता है, इस तथ्य पर कि उनके विभिन्न प्रकाशन, व्यवहार और विचार बुरे हैं—और फिर भी वह उन्हें सहन कर सकता है। मुझे बताओ, क्या इंसान ऐसा कर पाता? (नहीं।) अपने बच्चों के प्रति माता-पिता जो धैर्य दिखाते हैं, वह वास्तविक होता है, लेकिन जब चीजें सहनशक्ति से बाहर हो जाएँ तो हो सकता है वे उनका परित्याग कर दें या उनसे नाता तोड़ लें। तो फिर किसी व्यक्ति पर परमेश्वर जो धैर्य दिखाता है, उसका क्या? तुम्हारे जीने का प्रत्येक दिन वह दिन होता है जब परमेश्वर तुम्हें अपना धैर्य दिखाता है। वह इतना अधिक धैर्यवान है। इस धैर्य के भीतर क्या होता है? (प्रेम।) सिर्फ प्रेम नहीं—उसे तुमसे एक अपेक्षा है। वह अपेक्षा कौन-सी है? यह कि शायद अपने कार्य के जरिए वह कोई परिणाम और एक पुरस्कार देख ले, और मनुष्य को उसके प्रेम का आस्वादन करने योग्य बना दे। क्या इंसान में ऐसा प्रेम होता है? उसमें नहीं होता। सिर्फ थोड़ी-सी सीख और शिक्षा से, बस जरा-से किसी गुण या खास कौशल से, इंसान खुद को दूसरों से श्रेष्ठ साख का महसूस करता है, और यह कि साधारण लोग उसके आसपास भी नहीं आ सकते। यह मनुष्य का घिनौनापन है। क्या परमेश्वर इसी तरह से कार्य करता है? ठीक इसका उल्टा होता है : परमेश्वर जिस मानवजाति को बचाता है वह अकल्पनीय रूप से बेहद गंदी और गहराई से भ्रष्ट होती है; यही नहीं, परमेश्वर उन्हीं लोगों के साथ रहता है, उनसे बात करता है और व्यक्तिगत रूप से उन्हें सहारा देता है। मनुष्य यह नहीं कर सकता।
इसके बाद एक अतिरिक्त समस्या पर आगे की संगति होगी। गवाही देते समय कुछ लोग कहते हैं, “जब कभी चीजें मुझ पर आ पड़ती हैं, तो मैं परमेश्वर के प्रेम और उसके अनुग्रह के बारे में सोचता हूँ, और द्रवित हो जाता हूँ। जब भी मैं इन चीजों के बारे में सोचता हूँ, अपने भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करना बंद कर देता हूँ।” ज्यादातर लोग सोचते हैं कि यह कथन अच्छा है, यह वास्तव में भ्रष्ट स्वभाव के खुलासों की समस्या को दूर कर सकता है। क्या ये शब्द वाकई यकीन के लायक हैं? नहीं, ये नहीं हैं। परमेश्वर का प्रेम, उसकी सर्वशक्तिमत्ता, इंसान के लिए उसकी सहनशीलता, और मनुष्य के भीतर किया हुआ समस्त कार्य किसी व्यक्ति को द्रवित ही कर सकता है—उनके उस अंश को जो उनकी मानवता है, उस अंश को जो उनकी अंतरात्मा और तार्किकता है; लेकिन यह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को दूर नहीं कर सकता, न ही यह मनुष्य के अनुसरण के लक्ष्य और दिशा को बदल सकता है। इसीलिए परमेश्वर अंत के दिनों का न्याय कार्य करता है : वह सत्य को व्यक्त कर मनुष्य को प्रदान करता है ताकि मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की समस्या दूर की जा सके। वह कौन-सी सबसे अहम चीज है जो परमेश्वर करता है? वह सत्य को व्यक्त कर मनुष्य को प्रदान करता है, और मनुष्य का न्याय करता और उसे ताड़ना देता है। वह तुम्हारे अनुसरण की दिशा और लक्ष्य बदलने के लिए अपने क्रिया-कलापों या कार्यों से तुम्हें प्रेरित नहीं करना चाहता। वह इस तरह से कार्य नहीं करेगा। परमेश्वर मनुष्य के साथ अपने धैर्य की सीमा या कितनी भी बड़ी कीमत पर मनुष्य को बचाने के अपने तरीके के बारे में चाहे जो भी कहे—इस बात को वह कैसे भी पेश करे, परमेश्वर केवल इतना चाहता है कि मनुष्य लोगों को बचाने के उसके इरादे को समझे। वह वे बातें लोगों के दिलों को नर्म बनाने और उन्हें अपना हृदय-परिवर्तन करने में सक्षम बनाने के लिए इसलिए नहीं कहता कि उन्हें सुनकर उन पर कितना असर होता है। ऐसा नहीं किया जा सकता। क्यों नहीं? मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसका प्रकृति सार होता है, और प्रकृति सार वह नींव है जिस पर लोग जीवित रहने के लिए भरोसा करते हैं। यह कोई बुरी प्रथा या आदत नहीं है जो थोड़ा उकसाने से बदल जाएगी; यह प्रकृति सार इंसान के खुश होते ही या कुछ ज्ञान हासिल करने या बहुत-सी किताबें पढ़ने से नहीं बदलेगा। ऐसा असंभव होगा। कोई भी मनुष्य की प्रकृति को नहीं बदल सकता। व्यक्ति केवल सत्य को स्वीकार करके और उसे हासिल करके ही बदल सकता है—एकमात्र सत्य ही लोगों को बदल सकता है। यदि तुम अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए, और सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें परमेश्वर द्वारा बोले गए तमाम सत्यों की स्पष्ट समझ हासिल करने से शुरू करना चाहिए। कुछ लोग मानते हैं कि अगर किसी ने धर्म-सिद्धांत को समझ लिया है, तो उसने सत्य को समझ लिया है। इससे ज्यादा गलत बात नहीं हो सकती। बात ऐसी नहीं है कि अगर तुम परमेश्वर में विश्वास के धर्म-सिद्धांत को समझ लेते हो और कुछ आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हो, तो तुमने सत्य को समझ लिया है। अब इस पर विचार करो : सत्य वास्तव में किसे संदर्भित करता है? मैं हमेशा यह क्यों कहता हूँ कि ऐसे बहुत-से लोग हैं जो सत्य को नहीं समझते? वे मान लेते हैं, “अगर मैं परमेश्वर के वचनों का अर्थ समझ सका, तो इसका मतलब है कि मैंने सत्य को समझ लिया है,” और यह कि “परमेश्वर के सभी वचन सही हैं; ये सब हमारे दिल में उतरने के लिए बोले जाते हैं, और इसलिए वे हमारी साझा भाषा हैं।” मुझे बताओ, क्या यह कथन सही है, या सही नहीं है? सत्य को समझने का वास्तविक अर्थ क्या होता है? हम ऐसा क्यों कहते हैं कि वे सत्य को नहीं समझते? पहले हम इस बारे में थोड़ी बात करेंगे कि सत्य क्या है? सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। तो उन सकारात्मक चीजों की वास्तविकता मनुष्य से किस तरह से संबंधित है? (परमेश्वर, मेरी समझ से किसी व्यक्ति के सत्य को समझ लेने पर यह जिस तरह से अभिव्यक्त होता है, वह यह है कि लोग जिन भी लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हैं तो उनके पास सिद्धांत होते हैं और वे जानते हैं कि उनसे कैसे पेश आएँ, और उनके पास अभ्यास का मार्ग होता है; सत्य उनकी कठिनाइयों को दूर कर उनके जीवन की वास्तविकता बनने में सक्षम होता है। परमेश्वर बस इतना कह रहा था कि किसी व्यक्ति की धर्म-सिद्धांत की समझ सत्य की समझ नहीं होती—उन्हें लगता है मानो उन्होंने सत्य को समझ लिया है, लेकिन वे अपने वास्तविक जीवन में आई किसी भी समस्या और कठिनाई को दूर नहीं कर पाते। उनके पास उसके लिए कोई मार्ग नहीं होता; वे चीजों को सत्य से नहीं जोड़ पाते।) सत्य को न समझ पाना बस यही होता है। अभी जो बात कही गई उसके एक अंश ने तीर निशाने पर मारा है : सत्य क्या है? (सत्य लोगों को सक्षम बना सकता है कि उनके पास अभ्यास का मार्ग हो, और वे सिद्धांतों के साथ कार्य करें; यह लोगों की कठिनाइयों को दूर कर सकता है।) सही है। खुद की सत्य सिद्धांतों के साथ तुलना करना और उनके अनुसार अभ्यास करना—यही मार्ग है। यह सिद्ध करता है कि यह सत्य की समझ है। अगर तुम महज धर्म-सिद्धांत को समझते हो, और जब तुम्हें कुछ हो जाए, तो तुम इसे लागू न कर पाओ और सिद्धांतों का पता न लगा पाओ, तो यह सत्य की समझ नहीं है। सत्य क्या है? सत्य सभी चीजों को करने के सिद्धांत और मानदंड होते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) जब मैं कहता हूँ कि तुम लोग सत्य को नहीं समझते, तो मैं यह कहता हूँ कि तुम लोग धर्मोपदेश से सिर्फ धर्म-सिद्धांत के बारे में जानकर चले आए हो। तुम लोग नहीं जानते कि इसके भीतर सत्य के कौन-से सिद्धांत और मानदंड हैं, या तुम्हारे साथ घटने वाली कौन-सी चीजें सत्य के उस पहलू से संबंधित हैं, या कौन-सी दशाओं में ये शामिल हैं, न ही तुम यह जानते हो कि सत्य के उस पहलू को कैसे लागू करें। तुम इनमें से कुछ भी नहीं जानते। उदाहरण के लिए मान लो कि तुम लोगों ने कोई सवाल पूछा है। तुम्हारे सवाल पूछने का मतलब ही है कि तुम लोग संबंधित सत्य को नहीं समझते। क्या इसके बारे में संगति करने के बाद तुम इसे समझ जाओगे? (हाँ।) संगति के बाद शायद तुम इसे थोड़ा समझ सको, लेकिन ऐसी ही कोई चीज तुम्हारे साथ घटने पर अगर तुम इसे समझने में नाकाम रहते हो, तो यह सत्य की सच्ची समझ नहीं है। तुम उस सत्य के सिद्धांतों और मानदंडों के बारे में नहीं जानते; उन पर तुम्हारी पकड़ नहीं है। ऐसा कोई सत्य हो सकता है जो तुम्हारे ख्याल से तुमने समझ लिया है—लेकिन अगर तुमने उस सत्य को समझ लिया है कि वे वास्तविकताएँ कौन-सी हैं जिन्हें यह संबोधित करता है, और मनुष्य की कौन-सी दशाएँ हैं जिन्हें यह लक्ष्य करता है, तो क्या तुम उसके साथ अपनी दशा की तुलना कर सकते हो? अगर तुम नहीं कर सकते, और तुम कभी नहीं जानते कि तुम्हारी सच्ची दशा क्या है, तो क्या तुम्हारी समझ सत्य की समझ है? (नहीं।) यह सत्य की समझ नहीं है। सत्य और सिद्धांतों के एक पहलू की बात आने पर अगर तुम जानते हो कि कौन-से मामले और कौन-सी दशाएँ उस सत्य से संबंधित हैं, और किस प्रकार के लोग या तुम्हारी अपनी कौन-सी दशाएँ उस सत्य से संबंधित हैं, और तुम उनके समाधान के लिए उस सत्य का प्रयोग करने में भी सक्षम हो, तो उसका अर्थ है कि तुम सत्य को समझते हो। अगर किसी धर्मोपदेश को सुनते समय तुम्हें लगता है कि तुम उसे समझते हो, फिर भी जब तुमसे उस बारे में संगति करने को कहा जाए, तो तुम बस सुने हुए वचन दोहराते जाते हो, उस बारे में बोल नहीं पाते और दशाओं और वास्तविक स्थितियों के संदर्भ में समझा नहीं सकते, तो क्या तुम्हारी समझ सत्य की समझ है? नहीं, यह वह चीज नहीं है। तो क्या तुम लोग ज्यादातर समय सत्य को समझते हो या नहीं समझते? (हम नहीं समझते।) क्यों नहीं? क्योंकि अधिकतर सत्यों के मामले में तुम लोग उन्हें सुनकर बस सिद्धांत को ही समझकर चले आते हो। तुम बस इसका एक विनियम के रूप में ही पालन कर सकते हो; तुम उसे परिस्थिति के अनुकूल लागू करना नहीं जानते। जब तुम पर कोई चीज आ पड़ती है, तो तुम किंकर्तव्यविमूढ़ रह जाते हो; जब तुम पर कोई चीज आ पड़ती है, तो तुम धर्म-सिद्धांत के उस अंश को नहीं लगा पाते जो तुमने उस परिदृश्य में समझा है—यह बेकार है। क्या यह सत्य की समझ है, या यह नहीं है? (यह नहीं है।) सत्य को न समझ पाना यही है। अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो फिर क्या? तुम्हें ऊपर बढ़ने का प्रयास करना होगा, और इसे जानने का कष्ट उठाना होगा। ऐसी कुछ चीजें हैं जो तुम्हारी मानवता में होनी चाहिए : तुम जो भी सीखते हो और करते हो, उसमें तुम्हें शुद्ध अंतःकरण वाला और सावधान होना होगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, लेकिन तुम्हारे भीतर सामान्य लोगों की अंतरात्मा और विवेक नहीं है, तो तुम सत्य को समझने में कभी भी सक्षम नहीं हो सकोगे, और तुम्हारी आस्था भ्रमित होगी। यह तुम्हारी काबिलियत पर निर्भर नहीं करता; यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुममें इस प्रकार की मानवता है। यदि है, तो भले ही तुम्हारी काबिलियत औसत दर्जे की हो, फिर भी तुम बुनियादी सत्यों को समझ सकोगे। यह कम-से-कम सत्य के करीब है। और अगर तुम बहुत अच्छी काबिलियत वाले हो, तो तुम जो समझते हो वे सत्य के गहरे स्तरों की चीजें होंगी, जिस स्थिति में तुम उसमें और अधिक गहराई तक प्रवेश करने में सक्षम हो सकोगे। यह तुम्हारी काबिलियत से जुड़ा है। लेकिन अगर तुम्हारी मानवता में शुद्ध अंतःकरण और सावधानी नहीं है, और तुम हमेशा अस्पष्ट और अनिश्चित, भ्रमित, हमेशा अस्पष्टता की दशा में रहते हो—सभी मामलों में अस्पष्ट, धुंधले, और लापरवाह रहते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य हमेशा विनियम और धर्म-सिद्धांत ही रहेंगे। तुम इसे हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाओगे। मुझसे यह बात सुनकर क्या तुम लोगों को अब लगता है कि सत्य का अनुसरण करना कठिन है? इसमें एक सीमा तक की कठिनाई है, लेकिन यह सीमा बड़ी भी हो सकती है या छोटी भी। अगर तुम इस पर ध्यान दो और प्रयास करो, तो कठिनाई की सीमा सिकुड़ जाएगी, और तुम थोड़े सत्य हासिल कर लोगे; अगर तुम सत्य को लेकर जरा भी प्रयास नहीं करते, बल्कि सिर्फ धर्म-सिद्धांत और बाहरी प्रथाओं को लेकर ही प्रयास करते हो, तो तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाओगे।
इन सत्यों पर मेरी व्यवस्थित संगति के जरिए क्या तुम लोग किसी चीज का सारांश गहराई से समझ पाए हो? क्या तुम्हें कोई एहसास हुए हैं? क्या किसी भी कॉलेज पाठ्यक्रम के समस्त ज्ञान से अधिक विवरण सत्य के किसी एक सूत्र की चीजों में नहीं होता? (हाँ, होता है।) बहुत अधिक विवरण होता है। लोगों को कुछ ही वर्षों के प्रयास से, निरंतर अभ्यास और व्यावहारिक अनुभव से, सीखने की चीजों का बोध हो सकता है, अगर वे उसे याद कर समझ पाएँ। किसी शैक्षणिक विषय को सीखने में, कोई व्यक्ति सिर्फ समय और ऊर्जा लगाकर और उस पर थोड़ा ध्यान लगाकर महारत हासिल कर सकता है। लेकिन सत्य को समझने के लिए सिर्फ तुम्हारे दिमाग लगाने से काम नहीं चलेगा—तुम्हें अपना दिल लगाना पड़ेगा। अगर तुम परमेश्वर के वचनों पर दिल से चिंतन नहीं करते, या अपने दिल से उनका अनुभव नहीं करते, तो तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे। सिर्फ वही लोग जिन्हें आध्यात्मिक समझ है, जिनका अंतःकरण शुद्ध है, और जिनमें समझने की क्षमता है, वे ही सत्य तक पहुँच सकते हैं; जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है, जो कमजोर काबिलियत वाले हैं और जिनमें समझने की क्षमता नहीं है, वे कभी भी सत्य तक पहुँचने में सक्षम नहीं होंगे। क्या तुम लोग बेपरवाह हो, या तुम सावधान रहते हो? (हम बेपरवाह लोग हैं।) क्या यह खतरनाक नहीं है? क्या तुम लोग सावधान रह सकते हो? (हाँ, रह सकते हैं।) यह अच्छी बात है; मुझे यह सुनना पसंद है। हमेशा यह मत कहो कि तुम नहीं कर सकते—कोशिश ही नहीं करोगे तो कैसे जानोगे? तुम्हें इसके लिए सक्षम होना होगा। अपने अनुसरण में तुम लोगों के मौजूदा संकल्प और रवैए के साथ उम्मीद है कि तुम बुनियादी सत्यों को समझ जाओ। यह हासिल की जा सकती है। अगर कोई व्यक्ति अपना दिल लगाने और कीमत चुकाने को तैयार है, और वह सत्य के प्रति दिल से कड़ी मेहनत करता है, तो पवित्र आत्मा कार्य पर लगकर उसे पूर्ण कर देगा। अगर वह सत्य के प्रति दिल से कड़ी मेहनत नहीं करता, तो पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा। याद रखो : कोई व्यक्ति सत्य को समझ पाए, इसके लिए उसे सक्रिय रूप से प्रयास करके कीमत चुकानी चाहिए, लेकिन इससे वांछित परिणामों में से आधे ही हासिल हो पाएँगे, इससे सिर्फ वही हिस्सा हासिल हो पाएगा जिसमें लोगों को अपना योगदान करने की जरूरत है। दूसरा अंश सत्य को समझने का अहम अंश है जो लोग हासिल नहीं कर पाते, और उसे हासिल करने के लिए उन्हें पवित्र आत्मा के कार्य और उसके पूर्ण करने के भरोसे रहना होगा। तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि हालाँकि विज्ञान के बारे में सीखने और ज्ञान प्राप्त करने की बात पर सिर्फ प्रयास करने के भरोसे रहना काफी होता है, लेकिन सत्य को समझना इस तरह से नहीं होता। इसके लिए सिर्फ दिमाग के भरोसे रहना बेकार है—इंसान को अपना दिल लगाना चाहिए, और उसे इसकी कीमत चुकानी चाहिए। कीमत चुकाने से क्या हासिल होता है? पवित्र आत्मा का कार्य। लेकिन पवित्र आत्मा के कार्य की नींव क्या है? इंसान का दिमाग पर्याप्त रूप से सावधान होना चाहिए; परमेश्वर के कार्य करने से पहले उसका हृदय पर्याप्त रूप से शांत और स्थिर होना चाहिए, पर्याप्त रूप से खुलेपन वाला होना चाहिए। पवित्र आत्मा का कार्य सूक्ष्म होता है और जिन्होंने इसका स्वाद लिया है, वे जानते हैं। जो लोग सत्य के प्रति बारंबार प्रयास करते हैं, वे अक्सर पवित्र आत्मा के प्रबोधन को महसूस कर सकते हैं, इसलिए अपने कर्तव्य निर्वहन में उनके अभ्यास का मार्ग सुगम होता है, और उनके दिलों में हमेशा से ज्यादा स्पष्टता होती है। अनुभवहीन लोग पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस नहीं कर पाते, और कभी भी सही मार्ग को नहीं देख सकते। उनके लिए सभी मामले अस्पष्ट और धुँधले होते हैं; वे नहीं जानते कि सही मार्ग क्या है। वास्तव में सत्य की समझ प्राप्त करना और अभ्यास के मार्ग को स्पष्ट रूप से देखना कठिन नहीं है : अगर किसी में वे मनोदशाएँ हों, तो पवित्र आत्मा कार्य करेगा। लेकिन अगर तुम्हारा दिल उन दशाओं से बाहर आ जाए, तो तुम पवित्र आत्मा के कार्य का पता नहीं लगा पाओगे। यह अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है। तुम्हारे उन दशाओं में होने और तुम्हारे दिल के उन स्थितियों में होने पर अगर तुम खोजो, प्रयास करो, चिंतन करो, और प्रार्थना करो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य करेगा। लेकिन अगर तुम अनमने से हो, हमेशा रुतबे के पीछे भागना और शोहरत और फायदे के लिए संघर्ष करना चाहते हो, हमेशा हंगामा करना चाहते हो और दिखाने के लिए प्रयास करते हो—अगर तुम हमेशा चकमा देते हो, परमेश्वर से छिपते हो, बचते हो और उसे अस्वीकार करते हो, खरे नहीं होते, ऐसे दिल से पेश आते हो जो उसके प्रति खुला हुआ नहीं है—तो पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा, वह तुम पर जरा भी ध्यान नहीं देगा और वह तुम्हें फटकारेगा भी नहीं। कोई व्यक्ति जिसने पवित्र आत्मा की फटकार का अनुभव भी न किया हो, वह सत्य को कितना समझ सकेगा? कभी-कभी पवित्र आत्मा तुम्हें कोई काम करने के सही रास्ते और गलत रास्ते को जानने देने के लिए फटकारता है। जब वह तुम्हें ऐसी भावना देता है, तो तुम इससे आखिरकार क्या हासिल करते हो? तुमने सही और गलत में भेद करने की योग्यता हासिल कर ली होगी, और एक ही नजर में तुम उस चीज को स्पष्ट रूप से समझ लोगे : “वह तरीका गलत है—वह सिद्धांतों से मेल नहीं खाता, मैं वैसे नहीं कर सकता।” उस चीज को लेकर तुम स्पष्ट रूप से जान जाओगे कि सिद्धांत क्या हैं, परमेश्वर का इरादा क्या है, और सत्य वास्तव में क्या है, और इसलिए तुम जान जाओगे कि तुम्हें क्या करना चाहिए। लेकिन अगर पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता, अगर वह तुम्हें ऐसा अनुशासन नहीं देता, तो ऐसी चीजों को लेकर बिना स्पष्टता के तुम सदा के लिए भ्रमित अवस्था में रहोगे। जब वे तुम पर आ पड़ेंगी तो तुम अचंभित रह जाओगे; जब वे तुम पर आ पड़ेंगी, तो तुम नहीं जानोगे कि क्या चल रहा है, और अपने दिल में बहुत भ्रमित रहोगे—तुम्हारे मन में यह स्पष्ट नहीं होगा कि तुम्हें क्या करना चाहिए। हो सकता है कि तुम चिंता से फट पड़ने की अवस्था में हो—लेकिन पवित्र आत्मा कार्य क्यों नहीं करेगा? कदाचित तुम्हारे भीतर की कुछ दशाएँ सही नहीं हैं, और तुम प्रतिरोध कर रहे हो। तुम किससे प्रतिरोध कर रहे हो? अगर तुम किसी गलत दृष्टिकोण या धारणा से चिपके हुए हो, तो परमेश्वर कार्य नहीं करेगा, बल्कि तब तक प्रतीक्षा करेगा जब तक तुम्हें इस बात का एहसास न हो जाए कि वह धारणा या दृष्टिकोण गलत है। पवित्र आत्मा केवल उसी नींव पर कार्य करेगा। जब पवित्र आत्मा कार्य करता है, तो वह तुम्हें सचेत अवस्था में यह जानने देने के बाद रुक नहीं जाता, कि सही क्या है और गलत क्या है। इसके बजाय वह तुम्हें स्पष्ट रूप से यह देखने देता है कि मार्ग क्या है, दिशा क्या है, उद्देश्य क्या है, और सत्य से तुम्हारी समझ कितनी दूर है। वह तुम्हें यह स्पष्ट रूप से जानने देता है। क्या तुम लोगों को ऐसे अनुभव हुए हैं? अगर किसी व्यक्ति ने ऐसे विशिष्ट अनुभवों के बिना परमेश्वर में दस-बीस वर्ष तक विश्वास रखा हो, तो वह कैसा व्यक्ति है? एक बेपरवाह इंसान। वह सिर्फ कुछ मौखिक रूप से दोहराए गए धर्म-सिद्धांत और सूत्रवाक्य दे सकता है और केवल अपनी उन कुछ रणनीतियों और सरल तकनीकों से समस्याएँ सुलझा सकता है। इसमें उनकी बहुत थोड़ी-सी प्रगति होना नियत है—वे सत्य को कभी नहीं समझेंगे और पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करेगा। ऐसे बेपरवाह लोग, सत्य जिनकी पहुँच से पूरी तरह दूर है, वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किए जाने के बावजूद इसे नहीं समझ सकते। इसलिए पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करेगा। क्यों नहीं? क्या परमेश्वर पक्षपात कर रहा है? नहीं। तो फिर कारण क्या है? क्योंकि उनकी काबिलियत बेहद कमजोर है, और यह उनकी पहुँच से बाहर है। पवित्र आत्मा के कार्य करने पर भी वे सत्य को नहीं समझते; अगर उन्हें बताया जाता कि कोई चीज एक सिद्धांत है, तो क्या उनमें उसे समझने की योग्यता होगी? नहीं। इसलिए परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। क्या तुम लोगों को इसके संबंध में अनुभव हुए हैं? सत्य निष्पक्ष होता है। जैसे ही तुम इसका अनुसरण करते हो, इसमें तल्लीन होते हो, पवित्र आत्मा कार्य करने लगेगा और तुम इसे हासिल कर लोगे। लेकिन अगर तुम आलसी हो, सुख के लालची हो, और सत्य के लिए प्रयास करने को तैयार नहीं हो, तो पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा और तुम चाहे जो भी हो सत्य को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाओगे। अब तुम समझे? क्या तुम लोग वर्तमान में सत्य का अनुसरण कर रहे हो? जो भी इसका अनुसरण करेगा, वह इसे हासिल करेगा और जो लोग अंततः सत्य को प्राप्त करेंगे वे निधि बन जाएँगे। जो लोग इसे हासिल नहीं कर सकेंगे वे व्यर्थ ही उनसे ईर्ष्या करते रहेंगे : अगर उन्होंने यह मौका गँवा दिया, तो फिर नहीं मिलेगा।
सत्य का अनुसरण करने की सर्वोत्तम अवधि कौन-सी होती है? वह अवधि जब परमेश्वर देहधारण कर कार्य कर रहा होता है, तुमसे रूबरू होकर बोल रहा होता है और संगति कर रहा होता है, तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा होता है और तुम्हारी मदद कर रहा होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि यह सर्वोत्तम अवधि है? क्योंकि देहधारी परमेश्वर का कार्य और वचन तुम्हें पूरी तरह से पवित्र आत्मा के इरादों को समझने में सक्षम बना सकते हैं और तुम्हें यह जानने दे सकते हैं कि पवित्र आत्मा कैसे कार्य करता है। देहधारी परमेश्वर पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धांतों, स्वरूपों, तरीकों और साधनों को उनकी पूर्णता में समझने में सक्षम होता है, और तुम्हें इस बारे में बताता है, ताकि तुम्हें खुद इसके लिए इधर-उधर तलाशना न पड़े। इस छोटे रास्ते से जाओ, तुम इस तक सीधे पहुँचने में सक्षम हो जाओगे। जब देहधारी परमेश्वर बोलना बंद कर दे और अपना कार्य पूरा कर ले, तो फिर तुम्हें उसे खुद ही टटोलना पड़ेगा। ऐसा कोई भी नहीं है जो इस देहधारी का स्थान ले सके, जो तुम्हें स्पष्ट रूप से बता सके कि क्या करना है, किधर जाना है, और कैसा रास्ता अपनाना है। ऐसा कोई भी नहीं है जो तुम्हें वो चीजें बता सके; कोई व्यक्ति चाहे जितना भी आध्यात्मिक क्यों न हो, वह ऐसा नहीं कर सकता। इसके उदाहरण हैं। ठीक यीशु के विश्वासियों की तरह जो दो हजार वर्षों से विश्वास रखते आ रहे हैं : उनमें से कुछ अब पुराने नियम को पढ़ने और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए एक कदम पीछे लेने लगे हैं; कुछ लोग क्रूस ढोते हैं, फिर भी अपने कमरों में दस आज्ञाएँ लटकाए रखते हैं, और विनियमों और आज्ञाओं को कायम रखते हैं। अंत में उन्होंने क्या हासिल किया है? पवित्र आत्मा कार्य करता है, लेकिन परमेश्वर के स्पष्ट वचन नामौजूद हों तो लोग हमेशा टटोलते रहते हैं। स्पष्ट वचनों की नामौजूदगी का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि लोग जिस चीज को टटोल कर प्राप्त करते हैं वह अनिर्णीत होती है। ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हें निश्चितता दे सके, और यह कह सके कि तुम्हारे लिए यह करना सही है और यह करना गलत। ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हें यह बता सके। भले ही पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करे, और तुम मान लो कि यह सही है, तो फिर क्या परमेश्वर स्वीकृति दे देता है? तुम भी निश्चित नहीं हो, है कि नहीं? (नहीं, हम नहीं हैं।) प्रभु यीशु के वे वचन जो उसने दो हजार वर्ष पूर्व अपने पीछे छोड़ दिए थे और जो बाइबल में दर्ज किए गए थे—अब, दो हजार साल बाद प्रभु के विश्वासियों ने उसकी वापसी को लेकर तरह-तरह के स्पष्टीकरण दिए हैं, और कोई नहीं जानता कि इसका सटीक स्पष्टीकरण क्या है। इसलिए उनके लिए कार्य के इस चरण को स्वीकारना अत्यधिक तनाव की बात होती है। यह क्या दर्शाता है? यह कि इन गोल-मोल वचनों से जो स्पष्ट रूप से नहीं कहे गए हैं, दस लोगों के पास दस स्पष्टीकरण हैं, और सौ लोगों के पास सौ स्पष्टीकरण। हर किसी के पास अपने खुद के औचित्य और दलीलें हैं। कौन-सा स्पष्टीकरण सटीक है? जब तक परमेश्वर नहीं बोलता या निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करता, मनुष्य की कोई भी बात मायने नहीं रखती। तुम्हारा संप्रदाय चाहे कितना भी बड़ा हो, इसके चाहे जितने भी सदस्य हों, क्या परमेश्वर के लिए इसके कोई मायने हैं? (नहीं।) परमेश्वर तुम्हारी ताकत नहीं देखता। भले ही संसार में एक भी व्यक्ति परमेश्वर के कार्य को स्वीकार न करे, पर वही सही है, वही सत्य है। यह एक शाश्वत अपरिवर्तनीय तथ्य है! सभी धर्म और संप्रदाय तरह-तरह से इसे स्पष्ट करते हैं, और अंत में क्या होता है? क्या तुम्हारा स्पष्टीकरण किसी काम का है? (नहीं।) परमेश्वर सिर्फ एक वाक्य से इसका खंडन करता है। तुम इसे कैसे भी समझाते रहो, क्या परमेश्वर तुम पर ध्यान देगा? (नहीं।) परमेश्वर तुम पर ध्यान क्यों नहीं देगा? परमेश्वर ने नया कार्य शुरू कर दिया है, जो लगभग तीस वर्ष से चल रहा है। वे लोग चाहे कितने भी अहंकार से हल्ला मचाएँ, क्या वह उन लोगों पर ध्यान देगा? (नहीं।) वह बिल्कुल ध्यान नहीं देगा। धर्म में लगे लोग कहेंगे : “तुम उन पर ध्यान न दो, तो क्या वे लोग बचाए नहीं जा सकेंगे?” तथ्य यह है कि परमेश्वर के वचनों ने बहुत पहले ही हर चीज को स्पष्ट कर दिया है, और उसका कहा ही चलता है। धार्मिक जगत की ताकत चाहे जितनी भी हो, उसका कोई फायदा नहीं; उनकी संख्या चाहे जितनी भी हो, इससे यह साबित नहीं होता कि उनके पास सत्य है। परमेश्वर वैसा ही करता है जैसा उसे करना चाहिए; वह वहीं से शुरू करता है जहाँ से उसे शुरू करना चाहिए; वह उसी को चुनता है जिसे उसे चुनना चाहिए। क्या वह धार्मिक जगत से प्रभावित और बाधित होता है? (नहीं।) जरा भी नहीं। यह परमेश्वर का कार्य है। फिर भी भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर से बहस करना चाहती है, और सारा दिन उसे स्पष्टीकरण देती रहती है—क्या यह किसी काम का है? वे बाइबल के वचन लेकर जैसे चाहें वैसे उसकी व्याख्या करते रहते हैं—वे स्पष्ट रूप से उन्हें प्रसंग से अलग ले जाते हैं, जीवन भर उनसे चिपके रहना चाहते हैं, और प्रतीक्षा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें पूरा करेगा। वे सपना देख रहे हैं! अगर कोई परमेश्वर के वचनों में सत्य को न खोजे, और हमेशा परमेश्वर से कभी यह तो कभी वह करने को कहता रहे, तो क्या उस व्यक्ति के पास अभी भी विवेक है? वह क्या करने की कोशिश कर रहा है? क्या वह बगावत करना चाहता है? क्या वह परमेश्वर से झगड़ना चाहता है? जब महा विनाश आएँगे तो सब हक्के-बक्के रह जाएँगे; वे व्यर्थ ही क्रंदन करेंगे और चिल्लाएँगे। क्या यह इस तरह से नहीं होगा? हाँ, ऐसे ही होगा।
अभी सर्वोत्तम काल है—यह वह काल है जब परमेश्वर लोगों को बचाकर उन्हें पूर्ण कर रहा है। उस दिन की प्रतीक्षा मत करो जब तुम इस काल से चूक जाओगे और फिर चिंतन करोगे : “परमेश्वर ने वह जो बात कही थी उसका अर्थ क्या है? उस वक्त पूछना बेहतर रहा होता, अब तो मैं पूछ ही नहीं सकता। फिर मैं बस प्रार्थना करूँगा; पवित्र आत्मा कार्य करेगा, यह वही बात है।” क्या यह वही बात होगी? (नहीं।) अगर वही होती, तो इन दो हजार वर्षों में जिन लोगों ने प्रभु में विश्वास रखा है, वे वैसे नहीं होते जैसे कि हैं। दूसरी सहस्राब्दी के पूर्वार्ध के दौरान तथाकथित संतों द्वारा लिखे गए वचनों पर जरा गौर करो—वे कितने उथले हैं, कितने दयनीय हैं! अब भजनों की एक मोटी किताब है जिसके भजन सभी धर्मों और संप्रदायों के लोग गाते हैं, और वे भजन सिर्फ परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष प्राप्ति के बारे में बताते हैं—सिर्फ वही दो चीजें। क्या यह परमेश्वर का ज्ञान है? नहीं, यह नहीं है। क्या इसमें जरा भी सत्य है? (नहीं।) वे इतना ही जानते हैं कि परमेश्वर संसार के लोगों से प्रेम करता है। एक कहावत है जो संसार में सदा प्रचलित रहती है, कभी नहीं बदलती : “परमेश्वर प्रेम है।” वे बस यही वाक्य जानते हैं। वैसे परमेश्वर लोगों से कैसे प्रेम करता है? परमेश्वर अब उनका परित्याग कर उन्हें हटा देता है—क्या वह अभी भी प्रेम है? उनकी दृष्टि में, नहीं, अब नहीं है। वे इस तरह से उसकी निंदा करते हैं। यह कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता और यह नहीं समझता कि यह सर्वाधिक दयनीय चीज है। वर्तमान में ऐसा महान अवसर उपलब्ध है। परमेश्वर ने सत्य को व्यक्त करने और व्यक्तिगत रूप से लोगों को बचाने के लिए देहधारण किया है। अगर तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया और उसे हासिल नहीं किया, तो यह बड़ी तरस खाने की बात होगी। अगर तुमने इसका अनुसरण किया होता, और पूरे जोश के साथ ऐसा किया होता, फिर भी अंत में उसे समझने में नाकाम हो गए होते, तो तुम्हारा जमीर साफ होता—कम-से-कम तुमने खुद को निराश नहीं किया होता। क्या तुम लोगों ने अब अनुसरण शुरू किया है? क्या किसी कर्तव्य के निर्वहन को सत्य के अनुसरण में गिना जा सकता है? यह एक प्रकार का सहयोग ही है, लेकिन सत्य का अनुसरण प्राप्त करने और सत्य का अनुसरण गिने जाने के संबंध में यह अभी वहाँ नहीं है। यह महज व्यवहार का एक रूप है, एक प्रकार का क्रिया-कलाप—यह सत्य के अनुसरण का रवैया होना है। तो फिर कोई चीज सत्य का अनुसरण कैसे मानी जा सकती है? तुम्हें सत्य को समझने से शुरू करना होगा। अगर तुम सत्य को नहीं समझते, किसी भी चीज को गंभीरता से नहीं लेते, अपने कर्तव्य को अनमने ढंग से करते हो, और मनमर्जी करते हो, कभी भी सत्य को नहीं खोजते या सत्य सिद्धांतों पर ध्यान नहीं देते, तो फिर क्या तुम सत्य को समझ सकोगे? अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो उसका अनुसरण कैसे कर सकते हो? क्या यह सही नहीं है? (हाँ, है।) वे किस प्रकार के लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते? वे बेवकूफ होते हैं। तो फिर तुम सत्य का अनुसरण कैसे करते हो? तुम्हें उसे समझने से शुरू करना चाहिए। क्या सत्य को समझना श्रमसाध्य होता है? नहीं, ऐसा नहीं है। तुम उन परिवेशों से शुरू करो जिनके संपर्क में तुम आते हो, उन कर्तव्यों से शुरू करो जिनका तुम निर्वहन करते हो, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करो और प्रशिक्षण लो। ऐसा करना यह दर्शाता है कि तुमने सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। पहले, इन सिद्धांतों से खोजो, चिंतन करो, प्रार्थना करो और धीरे-धीरे प्रबोधन प्राप्त करो—जो प्रबोधन तुम प्राप्त करते हो, वही वह सत्य है जो तुम्हें समझना चाहिए। पहले अपने कर्तव्य निर्वहन से सत्य को खोजो, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का प्रयास करो। ये सभी चीजें वास्तविक जीवन से अलग नहीं की जा सकतीं : जीवन में जिन लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम मिलते हो, और वे मामले जो तुम्हारे कर्तव्य के दायरे में आते हैं। उन मामलों से शुरू करो, और सत्य सिद्धांतों की समझ हासिल करो—तब तुम जीवन-प्रवेश प्राप्त करोगे।
23 अक्तूबर 2019
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