मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो) खंड छह
एक बार कभी ऐसा कोई था, जिसने चोरी-छिपे परमेश्वर की भेंटों का दुरुपयोग कर लिया, जो कि एक गंभीर समस्या है। यह कोई साधारण अपराध नहीं है; यह उसके प्रकृति सार की समस्या है। कुछ मामले सँभालते समय जब उसने गैर-विश्वासियों से बातचीत की, तो वह दिखावा करता रहा ताकि लोग यह सोचें कि उसके पास पैसा और सत्ता है। परिणामस्वरूप लोगों ने उससे पैसा उधार माँगा। न सिर्फ इस व्यक्ति ने उन्हें मना नहीं किया, बल्कि वास्तव में उन्हें पैसे उधार देने का वचन दे दिया और फिर ऐसा उसने परमेश्वर के घर के खिलाफ भ्रामक चालें चल कर किया। इस व्यक्ति के साथ एक गंभीर समस्या थी। ऐसे बड़े मामले में तुम्हें ऊपरवाले को रिपोर्ट भेजनी चाहिए, और तथ्य समझाने चाहिए; तुम खुद के श्रेय और गौरव की खातिर परमेश्वर की भेंटों का उपयोग कर लोगों से लेन-देन नहीं कर सकते। कोई तार्किक व्यक्ति जिसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, वह ऐसे मामलों से सामना होने पर उनसे इसी तरह निपटेगा। लेकिन क्या मसीह-विरोधी ऐसा करते हैं? उन्हें मसीह-विरोधी क्यों कहा जाता है? क्योंकि उनके पास लेश मात्र भी परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता; वे मनमानी करते हैं, परमेश्वर, सत्य और परमेश्वर के वचनों को अपने मन में पीछे धकेल देते हैं। उनके मन में परमेश्वर के प्रति जरा भी सच्चा समर्पण नहीं होता, बल्कि वे अपने हितों, अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे को सबसे अहम स्थान देते हैं। वे कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को गुमराह करने के लिए भ्रामक उपाय आजमाते हैं, और इस तरह गैर-विश्वासियों को पैसे उधार देते हैं। क्या यह उनका अपना पैसा है? थोड़े-बहुत पूछताछ करके वे ऋण दे देते हैं—क्या यह परमेश्वर की भेंटों में से उपहार देना नहीं है? यह ऐसी चीज है जो मसीह-विरोधी करते हैं, और कुछ लोगों ने वास्तव में ऐसी चीजें की हैं। ऐसी चीज करने में सक्षम होने के लिए उनका स्वभाव दुस्साहसी, बेहद अहंकारी और अत्यंत कपटी भी होना चाहिए। यह भी स्पष्ट है कि वे बेवकूफ हैं, इतने बेवकूफ, जितने हो सकते हैं—वे अपने ही खोदे हुए गड्ढों में जा गिरते हैं। मुझे बताओ, ऐसे लोगों से कैसे निपटा जाना चाहिए? (उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए।) बस इतना? निष्कासन? नुकसान की भरपाई कौन करेगा? उनसे क्षतिपूर्ति करवाने के बाद ही उन्हें निष्कासित करना चाहिए। ऐसी चीज करने में सक्षम होने के लिए क्या मसीह-विरोधी बेशर्म नहीं हैं? वे प्रधान दूत से अलग कैसे हैं? प्रधान दूत बेशर्मी से कहेगा, “मैं ही हूँ जिसने स्वर्ग और पृथ्वी और तमाम चीजों को बनाया—मानवजाति मेरे नियंत्रण में है!” वह अपनी मर्जी से मानवजाति को कुचलता और भ्रष्ट करता है। एक बार जब मसीह-विरोधी सत्ता हथिया लेता है, तो वह कहता है, “तुम सब लोगों को मुझमें विश्वास रखकर मेरा अनुसरण करना चाहिए। यहाँ मैं शासन करता हूँ, और यहाँ मेरा ही फैसला चलता है। सभी मामलों में मेरे पास आओ, और कलीसिया का पैसा मुझे दे दो!” कुछ लोग कहते हैं, “कलीसिया का पैसा हम तुम्हें क्यों दें?” और मसीह-विरोधी कहता है, “मैं ही अगुआ हूँ। इसके प्रबंध का अधिकार मेरा है। मुझे सभी चीजों का प्रबंधन करना है, भेंटों का भी!” और फिर वह सभी चीजों का प्रभार ले लेता है। मसीह-विरोधियों को इसकी परवाह नहीं होती कि भाई-बहनों को अपने जीवन-प्रवेश में कौन-सी समस्याएँ या कठिनाइयाँ हो रही हैं, या उनके पास धर्मोपदेशों और परमेश्वर के वचनों की कौन-सी पुस्तकों की कमी है। उन्हें इस बात की अवश्य परवाह होती है कि किसके पास कलीसिया के पैसे की सुरक्षा की कुंजी है, कितना पैसा जमा हो चुका है और इसका किस तरह से इस्तेमाल किया जाता है। अगर ऊपरवाला कलीसिया की वित्तीय स्थिति के बारे में पूछताछ करे, तो न सिर्फ वे कलीसिया का पैसा नहीं सौंपेंगे—वे ऊपरवाले को तथ्य तक नहीं जानने देंगे। वे ऐसा क्यों नहीं करेंगे? क्योंकि वे गबन करके कलीसिया का पैसा खुद हड़प लेना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों को भौतिक चीजों, पैसे और रुतबे में अत्यधिक रुचि होती है। वे निश्चित रूप से बिल्कुल ऐसे नहीं होते जैसा वे ऊपर से बोलते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। मैं दुनिया के पीछे नहीं भागता और पैसे का लालच नहीं करता।” वे ऐसे बिल्कुल भी नहीं होते जैसा वे कहते हैं। वे अपनी पूरी शक्ति से रुतबे के पीछे भागकर उसे क्यों बनाए रखते हैं? क्योंकि वे अपने अधिकार क्षेत्र की सभी चीजों को हासिल करना या उन्हें नियंत्रित करना और हथिया लेना चाहते हैं—खास तौर पर पैसा और भौतिक चीजें। वे इस पैसे और इन भौतिक चीजों का यों मजा लेते हैं मानो ये उनके रुतबे के फायदे हों। वे नाम और सच्चाई में शैतान के प्रकृति सार वाले प्रधान दूत के वास्तविक वंशज हैं। वे सभी लोग जो रुतबे के पीछे भागते हैं और पैसे को अहमियत देते हैं, उनके स्वभाव सार के साथ यकीनन एक समस्या होती है। यह उनके मसीह-विरोधी का स्वभाव वाले होने जितनी सरल बात नहीं है : वे अत्यंत महत्वाकांक्षी होते हैं। वे परमेश्वर के घर के पैसे पर नियंत्रण करना चाहते हैं। अगर उन्हें किसी काम की जिम्मेदारी दी जाए, तो सबसे पहले वे दूसरों को हस्तक्षेप नहीं करने देंगे, न ही वे ऊपरवाले से पूछताछ या निगरानी को स्वीकार करेंगे; इससे परे, जब वे किसी कार्य की मद के पर्यवेक्षक हों, तो अपना दिखावा करने, खुद को सुरक्षित रखने और ऊँचा उठाने के तरीके ढूँढ़ लेंगे। वे हमेशा चाहते हैं कि सबसे ऊपर पहुँच जाएँ, ऐसे लोग बन जाएँ जो दूसरों पर शासन कर उन्हें नियंत्रित करते हों। वे ऊँचा रुतबा सँभालने के लिए होड़ करना चाहते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर के घर के प्रत्येक हिस्से पर नियंत्रण करना चाहते हैं—खासकर उसके धन पर। मसीह-विरोधियों को पैसे से विशेष प्रेम होता है। उसे देखकर उनकी आँखों में चमक आ जाती है; अपने मन में, वे हमेशा पैसे के बारे में सोचते रहते हैं और उसके लिए प्रयास करते रहते हैं। ये सब मसीह-विरोधियों के संकेत और लक्षण हैं। अगर तुम उनसे सत्य पर संगति करो, या भाई-बहनों की दशा के बारे में जानने की कोशिश करो और ऐसे सवाल पूछो कि उनमें से कितने कमजोर और निराश हैं, उनमें से प्रत्येक अपने कर्तव्य में कैसे नतीजे हासिल कर रहा है, और उनमें से कौन अपने कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं है, तो मसीह-विरोधियों को रुचि नहीं होगी। लेकिन जब परमेश्वर की भेंटों की बात आती है—पैसे की मात्रा, इसकी सुरक्षा कौन कर रहा है, यह कहाँ रखा गया है, उसके पासकोड क्या हैं आदि-आदि—तो ये ही वे चीजें हैं जिनकी वे सबसे ज्यादा परवाह करते हैं। किसी मसीह-विरोधी की इन चीजों पर सबसे ज्यादा पकड़ होती है। वे इन चीजों को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। यह भी मसीह-विरोधी का एक लक्षण होता है। मसीह-विरोधी मीठी बातें बोलने में माहिर होते हैं, लेकिन वे वास्तविक कार्य नहीं करते। इसके बजाय, वे हमेशा परमेश्वर की भेंटों के मजे लेने के विचारों में खोए रहते हैं। मुझे बताओ, क्या मसीह-विरोधी अनैतिक नहीं होते? उनमें जरा भी मानवता नहीं होती—वे पूरी तरह से दानव होते हैं। अपने काम में वे हमेशा दूसरों के दखल, पूछताछ और निगरानी को रोकते हैं। यह मसीह-विरोधियों की आठवीं अभिव्यक्ति में तीसरा व्यवहार है।
कुछ समय पहले किसी देश में एक कलीसिया ने एक इमारत खरीदी और उसकी मरम्मत की जरूरत थी और बस संयोग से उस देश में कलीसिया की अगुआ एक मसीह-विरोधी महिला थी, जिसने अभी अपना असली रूप नहीं दिखाया था। उस मसीह-विरोधी ने एक ऐसे व्यक्ति को काम दे दिया जिसे मरम्मत के कामों में कोई ज्यादा नहीं जानता था, और किसी को मालूम नहीं था कि उसका उस महिला के साथ क्या रिश्ता है। परिणामस्वरूप उस बुरे व्यक्ति ने स्थिति का फायदा उठाया और पुनर्निर्माण के दौरान ढेर सारा पैसा जो खर्च नहीं होना चाहिए था, वह व्यर्थ ही खर्च कर दिया गया। घर में कुछ काम में आने लायक सामान था, मगर वह सब निकाल कर उसकी जगह नया सामान लगा दिया गया। जो पुराना सामान हटाया गया था, उसे फिर उस बुरे व्यक्ति ने पैसे के लिए बेच दिया। वे वास्तव में टूटे-फूटे सामान नहीं थे—वे अब भी काम में आ सकते थे—लेकिन उस बुरे व्यक्ति ने अतिरिक्त पैसा खर्च कर नई चीजें खरीदीं, ताकि वह स्थिति का फायदा उठाकर पैसे बना सके। क्या मसीह-विरोधी को इन चीजों की जानकारी थी? उसे पता था। तो फिर उसने उस व्यक्ति को इस तरह काम करने पर माफ क्यों कर दिया? क्योंकि उनके बीच कोई असामान्य रिश्ता रहा होगा। कुछ लोगों ने समस्या को समझकर निर्माण कार्य की प्रगति के बारे में जानने और उसकी जाँच करने की सोची, ताकि देख सकें कि काम कैसा चल रहा है। जैसे ही उन्होंने कहा कि वे निर्माण कार्य को देखने जाने वाले हैं, वैसे ही मसीह-विरोधी चिंतित और व्याकुल हो गई और बोली, “नहीं! अभी अंतिम तिथि नहीं आई है—किसी को देखने की अनुमति नहीं है!” उसकी प्रतिक्रिया अत्यंत तीव्र थी, अत्यंत संवेदनशील थी—क्या इसके अंदर कुछ चल रहा था? (हाँ।) उन लोगों ने अब थोड़े चौकन्ने होकर मामले पर चर्चा की : “ऐसे नहीं चलेगा। वह हमें निर्माण कार्य को देखने नहीं देगी। जरूर कोई मसला है; हमें उस स्थल पर जाकर देखना होगा।” लेकिन मसीह-विरोधी तब भी काम पूरा हो जाने तक उसे देखने नहीं दे रही थी। मुझे बताओ, क्या ये लोग भ्रमित नहीं थे? यह तथ्य कि मसीह-विरोधी निर्माण कार्य को देखने नहीं दे रही थी, साबित कर रहा था कि कुछ तो गड़बड़ है। उन्हें ऊपरवाले से तुरंत इसकी शिकायत करनी चाहिए थी, या संयुक्त रूप से उसे हटा देना चाहिए था, या जबरन जाकर निर्माण कार्य को देखकर उसकी जाँच करनी चाहिए थी। यह उनकी जिम्मेदारी थी। अगर वे यह जिम्मेदारी नहीं उठा पाए थे, तो इसका अर्थ था कि वे निकम्मे, नालायक, डरपोक थे। वे नालायक डरपोक लोग डटे नहीं रहे। यह उनके अपने घरों का मसला नहीं था, इसलिए उन्होंने बस इसकी अनदेखी की। वे इतने अधिक स्वार्थी और गैर-जिम्मेदार लोग थे। और जब काम पूरा करके उसे सौंप दिया गया तो मैंने एक वीडियो में देखा कि उसमें एक समस्या थी। मैंने कौन-सी समस्या देखी? एक सभाकक्ष के बीचों-बीच एक मेज थी और उसके चारों ओर चमड़े की कुर्सियाँ रखी थीं जैसे कि आलीशान कार्यालयों में होती हैं। मैं जिन कुर्सियों पर बैठता हूँ वे आम कुर्सियाँ होती हैं, तो क्या उन आम लोगों को ऐसी आलीशान चीजें इस्तेमाल करनी चाहिए? (नहीं।) उन दोनों ने इस किस्म का फर्नीचर लगाया था और वहाँ के लोग उन कुर्सियों पर बैठकर बहुत खुश थे। एक बार उस समस्या का पता चलने पर मैंने उस दुष्ट को बुलाकर मामले की जाँच-पड़ताल शुरू कर दी। हर जगह, हर कमरे में जाँच से पता चला कि वहाँ बहुत-से मसले हैं और बहुत ज्यादा वित्तीय नुकसान हुआ है। घर का कुछ मूल सामान काम का था, फिर भी उस बुरे व्यक्ति ने उन्हें बाहर करके बेच दिया था ताकि उनसे पैसा बना सके; यही नहीं, उन ऊँची कीमत वाले नए फर्निचर की खरीद पर उसने पैसे बनाए थे; और इसके अलावा उसने कुछ ऐसे उपकरण लगा दिए थे जो किसी कलीसिया में होने ही नहीं चाहिए। उस बुरे व्यक्ति ने यह सब किसी के साथ सलाह-मशविरा किए बिना किया। जब वह यह कर रहा था, तो क्या मसीह-विरोधी को इसकी जानकारी थी? कदाचित उसे थी। वह हर दिन कार्यस्थल पर जाती थी और यह सब देखकर भी उसने कोई रिपोर्ट नहीं बनाई, बल्कि उसे बरबादी के काम करने दिए। इतनी हिम्मत! क्या वह परमेश्वर की विश्वासी है? परमेश्वर में 20 वर्ष तक विश्वास रखने के बाद भी वह इतनी घिनौनी थी, और उसने ऐसा काम किया—वह किस प्रकार की महिला है? वह इंसान नहीं है! गैर-विश्वासियों के बीच के अच्छे लोग भी ऐसा नहीं करते; कैसी अनैतिकता! हर बार जब ऊपरवाले ने उससे निर्माण कार्य के बारे में पूछा, तो वह मौन साधे रही ताकि ऊपरवाले की आँखों में धूल झोंक सके, चीजों को दबा कर उन्हें छिपा सके, और अंत में बहुत-सी समस्याएँ खड़ी हो गईं। तो फिर क्या उसे निष्कासित कर, नुकसान की भरपाई करने के लिए पैसे कमाने के वास्ते नौकरी करने देना ज्यादती होगी? (नहीं।) मुझे बताओ, वह मसीह-विरोधी पैसे वापस भी कर सके, तो भी क्या उसे इस जीवन में सुकून मिलेगा? क्या वह चैन से रह पाएगी? मुझे डर है कि उसे अपना पूरा जीवन यातना में बिताना पड़ेगा। यदि उसे पता था कि उसके क्रिया-कलापों का अंजाम यह होगा तो भला उसने उस वक्त इस तरह कार्य क्यों किया? उसने आखिर ऐसा किया ही क्यों? ऐसा नहीं है कि उसने एक या दो वर्ष से ही परमेश्वर में विश्वास रखा था और उसे मालूम नहीं था कि उसके घर के नियम क्या हैं या परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना क्या होता है, या वफादारी क्या होती है—इतने वर्षों तक उसमें विश्वास रखने के बाद भी उसमें बिल्कुल भी बदलाव नहीं आया था, और हालाँकि वह थोड़ी सेवा करने में सक्षम थी, फिर भी वह ऐसे बुरे कर्म करती थी! इतनी अधिक घिनौनी होने की वजह से उसे हटा दिया जाना चाहिए और कोसना चाहिए!
मसीह-विरोधियों के कार्य के तरीके में कुछ समानताएँ होती हैं : वे चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, दूसरों को दखल देने या पूछताछ करने से रोकते हैं। वे हमेशा चीजों को छिपाना और ढकना चाहते हैं। वे कुछ-न-कुछ करने की कोशिश में होंगे; वे लोगों को अपने कार्य की समस्याओं के बारे में पता नहीं लगने देते। यदि वे ईमानदार और निष्कपट ढंग से स्पष्ट अंतरात्मा के साथ काम करते, वैसे जो सत्य और सिद्धांतों से मेल खाता हो, तो फिर उन्हें किस बात की चिंता करनी पड़ती? उसमें ऐसा क्या होता जिसका उल्लेख नहीं हो सकता था? वे दूसरों को पूछताछ करने और हस्तक्षेप करने से क्यों मना करते हैं? वे किस बात को लेकर चिंतित रहते हैं? उन्हें किस बात का डर है? स्पष्ट रूप से वे कुछ करने की कोशिश में हैं—यह बिल्कुल स्पष्ट है! मसीह-विरोधी बिना किसी पारदर्शिता के काम करते हैं। जब उन्होंने कुछ खराब किया होता है, तो वे उसे छिपाने और ढकने के तरीकों के बारे में सोचते हैं, झूठे दिखावे गढ़ते हैं, यहाँ तक कि जबरदस्त छल-कपट में जुट जाते हैं। इसका नतीजा क्या होता है? परमेश्वर सभी की पड़ताल करता है और भले ही दूसरे लोग कुछ समय तक कुछ न जानें और कदाचित कुछ समय तक गुमराह हो जाएँ, फिर भी वह दिन आएगा जब परमेश्वर इसका खुलासा करेगा। परमेश्वर की दृष्टि में सब-कुछ प्रत्यक्ष है, सब बेनकाब हो चुका है। तुम्हारे लिए परमेश्वर से कुछ छिपाना बेकार है। वह सर्वशक्तिमान है, और जब वह तुम्हारा खुलासा करने का फैसला करेगा, तो दिन की साफ रोशनी में सब-कुछ साफ दिख जाएगा। केवल मसीह-विरोधी, वे बौड़म जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है, और जिनकी प्रकृति प्रधान दूत की है, वे मानेंगे, “जब तक मैं चीजों को पिटारी में बंद रखता हूँ, और तुम्हें हस्तक्षेप या पूछताछ नहीं करने देता, और तुम्हें निगरानी नहीं करने देता, तब तक तुम कुछ भी नहीं जानोगे—और इस कलीसिया का पूरा नियंत्रण मेरे हाथ में होगा!” वे मानते हैं कि यदि वे राजाओं की तरह शासन करते हैं तो वे स्थिति पर नियंत्रण करने में सक्षम होंगे। क्या चीजें असल में सचमुच ऐसी ही होती हैं? वे नहीं जानते कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है; उनकी चालाकी स्व-घोषित होती है। परमेश्वर इसकी पड़ताल करता है। उदाहरण के लिए, मान लो कि आज तुमने बुरा कर्म किया। परमेश्वर इसकी पड़ताल करता है, मगर तुम्हारा खुलासा नहीं करता—वह तुम्हें प्रायश्चित्त करने का एक मौका देता है। तुम कल फिर से बुरा कर्म करते हो, फिर भी उसका हिसाब नहीं देते या प्रायश्चित्त नहीं करते; परमेश्वर तब भी तुम्हें एक मौका देता है और तुम्हारे प्रायश्चित्त करने की प्रतीक्षा करता है। फिर भी यदि तुम प्रायश्चित्त नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें वह मौका नहीं देना चाहेगा। वह तुमसे घृणा करेगा, और तुमसे नफरत करेगा, और अपने दिल की गहराई से वह तुम्हें बचाना नहीं चाहेगा, और वह पूरी तरह से तुम्हारा परित्याग कर देगा। उस स्थिति में, कुछ ही मिनटों में वह तुम्हारा खुलासा कर देगा और तुम इस बात को कैसे भी ढकना चाहो या रुकावट डालो, उसका कोई फायदा नहीं होगा। चाहे तुम्हारा हाथ जितना भी बड़ा हो, क्या तुम आकाश को उससे ढँक सकते हो? तुम चाहे जितने भी सक्षम क्यों न हो, क्या तुम परमेश्वर की आँखों को ढँक सकते हो? (नहीं।) वे इंसान के मूर्खतापूर्ण विचार हैं। जहाँ तक यह प्रश्न है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर वास्तव में कैसा होता है, तो लोग पहले ही उसके वचनों में उसकी बानगी महसूस करने में सक्षम हैं। इसके अलावा, इस भ्रष्ट मानवजाति के सभी सदस्य जिन्होंने बड़े बुरे कर्म किए हैं और परमेश्वर का सीधे विरोध किया है, वे तरह-तरह के दंड पा चुके हैं, और इसे देखने वाले सभी लोग पूरी तरह से आश्वस्त हैं और स्वीकारते हैं कि यह प्रतिकार है। यहाँ तक कि गैर-विश्वासी भी समझ सकते हैं कि परमेश्वर की धार्मिकता कोई अपमान नहीं सहती, इसलिए उसमें विश्वास रखने वाले लोगों को यह और अधिक देखने में सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता अगाध है। इंसान के पास इसे स्पष्ट रूप से समझने का कोई तरीका नहीं है। एक वह गाना है—यह कैसा है? (“मापा नहीं जा सकता परमेश्वर के कर्मों को।”) यह परमेश्वर का सार है, उसकी पहचान और सार का सच्चा प्रकाशन। तुम्हारे अनुमानों या अटकलों की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें बस इन वचनों पर विश्वास करना चाहिए—तब तुम ऐसे मूर्खतापूर्ण कार्य नहीं करोगे। सारे लोग खुद को चालाक समझते हैं; वे अपनी आँखों को एक पत्ते से ढँककर कहते हैं, “क्या तुम मुझे देख सकते हो?” परमेश्वर कहता है, “न सिर्फ मैं तुम्हें पूरे का पूरा देख सकता हूँ, मैं तुम्हारा दिल भी देख सकता हूँ, और यह भी कि तुम कितनी बार इस इंसानी दुनिया में आए हो,” और लोग भौचक्के रह जाते हैं। खुद को चालाक मत समझो; यह मत सोचो कि “परमेश्वर इसके बारे में नहीं जानता और वह उसके बारे में नहीं जानता। भाई-बहनों में से किसी ने भी नहीं देखा। कोई नहीं जानता। मेरी अपनी छोटी-सी योजना है। देखो, मैं कितना चालाक हूँ!” इस दुनिया के लोगों में से कोई भी जो सत्य को नहीं समझता या यह नहीं मानता कि परमेश्वर सभी पर संप्रभु है, चतुर नहीं है। चाहे वे कुछ भी कहें या करें, अंत में वह सब गलत होता है, सब सत्य का उल्लंघन होता है, सब परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध होता है। केवल एक प्रकार का व्यक्ति ही चतुर होता है। वह कौन-सा प्रकार है? वह प्रकार जो मानता है कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है, कि वह सबको देख सकता है, और यह कि वह सब पर संप्रभु है। ऐसे लोग अत्यंत चतुर होते हैं, क्योंकि वे अपने सभी कार्यों में परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं; उनका किया हुआ हर काम सत्य के अनुरूप होता है, परमेश्वर द्वारा स्वीकृत होता है, और उसे परमेश्वर का आशीष मिलता है। कोई व्यक्ति चतुर है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है; यह इस बात के भरोसे होता है कि वह जो भी कहता या करता है वह सत्य के अनुरूप है या नहीं। यदि तुम्हारे मन में यह विचार है : “इस मामले के बारे में मैं यह सोचता हूँ, और मैं यह करना चाहता हूँ, क्योंकि इससे मुझे फायदा होगा—लेकिन मैं यह बात किसी पर भरोसा करके उसे बताना नहीं चाहता, न ही मैं चाहता हूँ कि वे इस बारे में जानें”—क्या यह सोचने का सही तरीका है? (नहीं।) जब तुम्हें एहसास हो जाए कि यह सही तरीका नहीं है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें खुद को सबक सिखाने के लिए अपने मुँह पर कस कर एक तमाचा जड़ना चाहिए। तुम्हें लगता है कि अगर तुम नहीं बताओगे तो परमेश्वर नहीं जान पाएगा? तथ्य यह है कि जब तुम्हारे मन में यह विचार आ रहा होता है, परमेश्वर तुम्हारे दिल की बात जान लेता है। वह कैसे जान लेता है? परमेश्वर मनुष्य के प्रकृति सार की असलियत को समझ चुका है। तो फिर वह इस मामले में तुम्हें उजागर क्यों नहीं करता? उसके उजागर किए बिना भी तुम धीरे-धीरे अपने आप समझ जाओगे, क्योंकि तुमने उसके बहुत-से वचनों को खाया और पिया है। तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक है, एक मन और सामान्य सोच है; तुम्हें अपने ही बूते पर यह अंदाजा लगाने में सक्षम होना चाहिए कि सही क्या है और गलत क्या है। परमेश्वर तुम्हें चीजों के बारे में धीरे-धीरे सोच-विचार करने और समझने का समय और मौका दे रहा है, यह देखने के लिए कि तुम मूर्ख हो या नहीं। इस मामले पर कुछ दिनों तक विचार करने के बाद तुम नतीजे देख पाओगे : तब तुम जानोगे कि तुम मूर्ख और बेवकूफ हो, और तुम्हें परमेश्वर से यह बात छिपाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। सभी मामलों में, तुम्हें हर चीज परमेश्वर के सामने खोल कर रख देनी चाहिए और तुम्हें स्पष्टवादी होना चाहिए—यही एकमात्र स्थिति और दशा है जो परमेश्वर के सामने बनाए रखी जानी चाहिए। जब तुम खुलकर पेश नहीं होते हो, तब भी तुम परमेश्वर के सामने खुले होते हो। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, तथ्यों के बारे में तुम खुल कर बताओ या न बताओ, वह उन्हें जानता है। अगर तुम इसकी असलियत नहीं जान सकते तो क्या तुम निहायत बेवकूफ नहीं हो? तो फिर तुम एक चतुर व्यक्ति कैसे हो सकते हो? परमेश्वर के सामने खुद को खोलकर। तुम जानते हो कि परमेश्वर हर चीज की पड़ताल करता है और जानता है, तो तुम खुद को चालाक मत समझो, और यह मत सोचो कि शायद वह न जानता हो; चूँकि यह सुनिश्चित है कि परमेश्वर चोरी-छिपे लोगों के दिलों की जाँच-परख करता है, इसलिए चतुर लोगों को थोड़ा और खुला, थोड़ा और शुद्ध और ईमानदार होना चाहिए—यही बुद्धिमानी है। हमेशा यह महसूस करना कि तुम चालाक हो; हमेशा अपने छोटे-छोटे राज़ छिपाए रखने की इच्छा करना; हमेशा थोड़ी गोपनीयता बनाए रखने की कोशिश करना—क्या यह सोचने का सही तरीका है? दूसरे लोगों के साथ ऐसा इस तरह होना ठीक है, क्योंकि कुछ लोग सकारात्मक नहीं होते और सत्य से प्रेम नहीं करते। ऐसे लोगों से तुम कुछ बातें छिपा सकते हो। उनके सामने अपना दिल मत खोलो। उदाहरण के लिए, मान लो ऐसा कोई है जिससे तुम नफरत करते हो, और तुमने उसकी पीठ पीछे उसकी बुराई की है। क्या तुम्हें उसे इस बारे में बताना चाहिए? मत बताओ—इतना काफी है कि वैसा काम फिर से मत करो। अगर तुम इस बारे में बताओगे, तो इससे तुम दोनों के बीच आपसी रिश्ते बिगड़ जाएँगे। तुम दिल से जानते हो कि तुम अच्छे नहीं हो, तुम अंदर से गंदे और दुष्ट हो, कि तुम दूसरों से ईर्ष्या करते हो, शोहरत और फायदे की होड़ में तुमने किसी दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए उसकी पीठ पीछे उसकी बुराई की थी—कितना कमीनापन है! तुम स्वीकारते हो कि तुम भ्रष्ट हो; तुम जानते हो कि तुमने जो किया वह गलत था, और तुम्हारी प्रकृति दुष्ट है। फिर तुम परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना करते हो : “हे परमेश्वर, मैंने जो चोरी-छिपे किया वह एक दुष्ट कमीना काम था—मैं तुमसे माफी माँगता हूँ, अपनी अगुआई करने की विनती करता हूँ, और तुमसे मुझे झिड़कने की विनती करता हूँ। मैं ऐसा काम दोबारा करने का प्रयास नहीं करूँगा।” ऐसा करना अच्छी बात है। तुम लोगों के साथ अपनी बातचीत में कुछ तकनीकों का प्रयोग कर सकते हो, लेकिन परमेश्वर के सामने खुद को शुद्धता से खोलना सर्वश्रेष्ठ है, और अगर तुम मन में मंसूबे पालकर तकनीकों का प्रयोग करोगे तो मुसीबत में फँस जाओगे। अपने दिमाग में तुम हमेशा सोचते हो, “मैं ऐसा क्या कहूँ कि परमेश्वर मेरे बारे में अच्छा सोचे, और उसे यह पता न चले कि मैं अंदर क्या सोच रहा हूँ? कौन-सी बात कहनी ठीक रहेगी? मुझे ज्यादा बातें अपने मन में ही रखनी चाहिए, मुझे थोड़ा व्यवहार-कुशल होना चाहिए, मुझे कोई तरीका सोचना चाहिए; तो फिर शायद परमेश्वर मेरे बारे में अच्छा सोचे।” क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर को पता नहीं चलेगा कि तुम हमेशा इस तरह की बातें सोचते रहते हो? तुम जो कुछ भी सोचते हो परमेश्वर को उसका पता होता है। इस तरह से सोचना कितना थका देने वाला काम है। इससे कहीं ज्यादा आसान है ईमानदारी और सच्चाई से बात करना, और इससे तुम्हारी जिंदगी भी कहीं ज्यादा आसान हो जाती है। परमेश्वर कहेगा कि तुम ईमानदार और निर्मल हो, और तुम खुले दिल के हो—यह असीमित रूप से एक अनमोल चीज है। अगर तुम्हारा दिल स्पष्ट हो और तुम ईमानदार रवैया रखते हो, तो कई बार हद पार कर देने पर भी और मूर्खताएँ करने पर भी परमेश्वर इसे अपराध नहीं मानेगा; यह तुम्हारे बेहद हिसाब-किताब रखने वाला होने से कहीं बेहतर है और तुम्हारी निरंतर उधेड़बुन और प्रक्रिया से भी। क्या मसीह-विरोधी ये सब करने में सक्षम हैं? (नहीं, वे नहीं हैं।)
वे सभी लोग जो मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलते हैं वे मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग होते हैं, और मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग जिस रास्ते पर चलते हैं वह मसीह-विरोधियों का रास्ता होता है—फिर भी मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोगों और मसीह-विरोधियों के बीच थोड़ा-सा अंतर होता है। अगर किसी में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो, और वह मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चले, तो वह अनिवार्य रूप से यह नहीं दिखाता कि वह मसीह-विरोधी है। लेकिन अगर वह प्रायश्चित्त न करे और सत्य को स्वीकार न कर सके, तो वह मसीह-विरोधी बन सकता है। अभी भी मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले लोगों के लिए उम्मीद और प्रायश्चित्त करने का एक मौका बाकी होता है, क्योंकि वे अभी मसीह-विरोधी नहीं बने हैं। अगर वे तमाम किस्म की बुरी चीजें करते हैं, उन्हें मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित किया जाता है और इस तरह उन्हें निकालकर सीधे निष्कासित कर दिया जाता है, तो इसके बाद उनके पास प्रायश्चित्त करने का मौका नहीं बचेगा। अगर मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाले किसी व्यक्ति ने अभी बहुत-सी बुरी चीजें न की हों, तो कम-से-कम यह दिखाता है कि वे अभी बुरे व्यक्ति नहीं बने हैं। अगर वे सत्य को स्वीकार कर सकें, तो उनके लिए आशा की एक किरण बची है। चाहे कुछ भी हो जाए, अगर वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, तो उनके लिए बचाया जाना बहुत कठिन होगा, भले ही उन्होंने तमाम तरह के बुरे कर्म न किए हों। किसी मसीह-विरोधी को क्यों नहीं बचाया जा सकता? क्योंकि वे सत्य को जरा भी नहीं स्वीकारते। परमेश्वर का घर ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में चाहे जैसी भी संगति करे—इस बारे में कि व्यक्ति को किस तरह से खुला और खुले दिल का होना चाहिए, कैसे उसे खुलकर वह बात कहनी चाहिए जो उसे कहनी है, और धोखाधड़ी में नहीं लगना चाहिए—वे उसे स्वीकार ही नहीं सकते। उन्हें निरंतर लगता है कि ईमानदार होने से लोग अपने अवसर खो देते हैं और सत्य बोलना बेवकूफी है। वे ईमानदार इंसान न होने पर अड़े रहते हैं। यही मसीह-विरोधियों की प्रकृति है, जो सत्य से विमुख होती है और उससे नफरत करती है। अगर कोई सत्य को जरा भी न स्वीकारे तो उसे कैसे बचाया जा सकता है? अगर मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने वाला कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सके, तो उसके और एक मसीह-विरोधी के बीच एक स्पष्ट अंतर हो जाता है। सभी मसीह-विरोधी वे लोग होते हैं जो सत्य को लेशमात्र भी नहीं स्वीकारते। उन्होंने चाहे जितने भी गलत या बुरे काम किए हों, उन्होंने कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाया हो, वे कभी भी आत्म-चिंतन कर खुद को नहीं जानेंगे। अपनी काट-छाँट होने पर भी वे सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते; इसीलिए कलीसिया उन्हें कुकर्मियों के रूप में, मसीह-विरोधियों के रूप में निरूपित करती है। मसीह-विरोधी अधिक-से-अधिक इतना ही स्वीकार करेगा कि उसके क्रिया-कलाप सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और सत्य से मेल नहीं खाते, फिर भी वे कभी यह बिल्कुल भी नहीं मानते कि वे जानबूझकर बुरे कर्म करते हैं, या जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। वे बस गलतियाँ मान लेंगे, मगर सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे; और बाद में वे पहले की ही तरह बुरे काम करते जाएँगे, किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे। इस तथ्य से कि मसीह-विरोधी कभी सत्य को नहीं स्वीकारता, यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख होने और उससे नफरत करने का होता है। उन्होंने चाहे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रखा हो, वे हमेशा की तरह परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले लोग बने रहते हैं। दूसरी ओर, समस्त साधारण, भ्रष्ट मानवजाति में मसीह-विरोधी का स्वभाव हो सकता है, लेकिन उनके और मसीह-विरोधियों के बीच एक अंतर होता है। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन करने वाले वचन सुनने के बाद उन्हें आत्मसात कर सकते हैं और उन पर बार-बार मनन कर सकते हैं और उन पर आत्म-चिंतन कर सकते हैं। फिर उन्हें एहसास हो सकता है, “तो फिर यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है; मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलने का यही मतलब है। कैसा गंभीर मसला है! मुझमें वे दशाएँ हैं, मेरे व्यवहार ऐसे हैं; मुझमें उस प्रकार का सार है—मैं उस किस्म का इंसान हूँ!” फिर वे विचार करते हैं कि वे मसीह-विरोधी के उस स्वभाव का त्याग कैसे करें और कैसे सचमुच प्रायश्चित्त करें, और उसके साथ ही वे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर न चलने का अपना संकल्प तय कर सकते हैं। अपने कार्य और जीवन में, लोगों, घटनाओं और चीजों और परमेश्वर के आदेश के प्रति अपने रवैये में वे अपने क्रिया-कलापों और व्यवहार पर आत्म-चिंतन कर सकते हैं, और इस पर कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते, क्यों वे हमेशा शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं, वे देह और शैतान के विरुद्ध विद्रोह क्यों नहीं कर सकते। और इसलिए वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकारेंगे, और परमेश्वर से विनती करेंगे कि वह उन्हें उनके भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के प्रभाव से बचाए। उनके मन में यह करने का संकल्प होना इस बात को साबित करता है कि वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। इसी तरह से वे एक भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, और अपने मन की ही करते हैं; अंतर यह है कि मसीह-विरोधियों के मन में केवल एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं होतीं—चाहे कुछ भी हो जाए वे सत्य को भी स्वीकार नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधियों की दुखती रग है। दूसरी ओर, अगर मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार सके, परमेश्वर से प्रार्थना कर सके और उसके भरोसे रह सके, और अगर वह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना चाहे, और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहे, तो वह प्रार्थना और वह संकल्प उनके जीवन-प्रवेश में किस तरह से लाभकारी होगा? कम-से-कम इसके कारण वे अपना कर्तव्य करते समय आत्म-चिंतन कर खुद को जान पाएँगे, और समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य का इस तरह से उपयोग कर पाएँगे कि वे अपना कर्तव्य मानक-स्तर के तरीके से कर पाने लगें। यह एक तरीका है जिससे उन्हें लाभ होगा। इससे परे, अपना कर्तव्य निभाने से मिलने वाले प्रशिक्षण से वे सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे। वे चाहे जिन भी कठिनाइयों का सामना करें, वे सत्य को खोजने में सक्षम होंगे, सत्य को स्वीकारने और उसका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे; वे धीरे-धीरे अपना शैतानी स्वभाव त्यागने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी आराधना करने में सक्षम होंगे। इस प्रकार का अभ्यास करके वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। मसीह-विरोधी स्वभाव वाले लोग कभी-कभी भ्रष्टता दिखा सकते हैं, और इच्छा न होने पर भी अपनी शोहरत, फायदे और रुतबे के हित में बोल सकते हैं और कार्य कर सकते हैं, और वे अभी भी अपने मन की कर सकते हैं—लेकिन जैसे ही उन्हें यह एहसास होता है कि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं, उन्हें पछतावा होगा और वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे। इससे साबित होता है कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं; इससे साबित होता है कि वे जीवन-प्रवेश का अनुसरण कर रहे हैं। किसी व्यक्ति को चाहे जितने भी वर्षों का अनुभव हो, या वह जितनी भी भ्रष्टता प्रकट करता हो, वह अंततः सत्य को स्वीकारने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगा। वह ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करता है। और जब वह यह सब करता है, तो उससे प्रदर्शित होता है कि उसने सच्चे मार्ग पर पहले ही अपनी नींव रख दी है। लेकिन कुछ लोग जो मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चलते हैं, वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते। उनके लिए उद्धार प्राप्त करना उतना ही कठिन होगा जितना कि मसीह-विरोधियों के लिए। ऐसे लोग जब मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता, बल्कि वे उदासीन और अविचलित रहते हैं। जब संगति मसीह-विरोधियों के स्वभाव के विषय की ओर आती है, तो वे मान लेंगे कि उनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है और वे मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रहे हैं। वे उस बारे में बहुत अच्छी तरह से बोलेंगे। लेकिन जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तब भी वे ऐसा करने से मना कर देंगे; तब भी वे अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करेंगे, अपने मसीह-विरोधी वाले स्वभाव के भरोसे रहेंगे। अगर तुम उनसे पूछते हो, “जब तुम मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करते हो, तो क्या तुम्हारे दिल में संघर्ष होता है? जब तुम अपने रुतबे की सुरक्षा करने के लिए बोलते हो, तो क्या तुम्हें आत्म-भर्त्सना महसूस होती है? मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करने पर क्या तुम आत्म-चिंतन कर खुद को जान पाते हो? अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जान लेने पर क्या तुम्हें दिल से पछतावा होता है? क्या बाद में तुम जरा भी प्रायश्चित्त करते हो और बदलते हो?” निश्चित रूप से उनके पास कोई जवाब नहीं होगा, क्योंकि उन्हें इस प्रकार का कोई अनुभव नहीं हुआ है। वे कुछ भी कहने में असमर्थ होंगे। क्या ऐसे लोग सच्चा प्रायश्चित्त करने में सक्षम होते हैं? यकीनन यह आसान नहीं होगा। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें खुद मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करने पर पीड़ा होगी, और वे व्याकुल हो जाएँगे; वे यह सोचने लग जाएँगे : “आखिर मैं इस शैतानी स्वभाव को त्याग क्यों नहीं सकता? मैं हमेशा भ्रष्ट स्वभाव क्यों प्रकट करता रहता हूँ? मेरा यह भ्रष्ट स्वभाव इतना अधिक जिद्दी और विकट क्यों है? सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना इतना कठिन क्यों है?” यह दिखाता है कि उनका जीवन अनुभव उथला है, और उनका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी हल नहीं हो पाया है। इसीलिए उन पर कोई चीज आ पड़ने पर उनके दिल में इतना भयंकर युद्ध चलने लगता है और इसीलिए वे उस यातना का दंश भी झेलते हैं। हालाँकि उनमें अपने शैतानी स्वभाव को त्यागने का संकल्प होता है, फिर भी वे अपने दिल में इसके विरुद्ध युद्ध किए बिना दृढ़ता से नहीं रह सकते—और वह युद्धरत दशा दिन-ब-दिन तीव्र होती जाती है। और जैसे-जैसे उनका आत्मज्ञान गहराता जाता है और वे यह समझ लेते हैं कि वे कितनी गहराई तक भ्रष्ट हैं, वैसे-वैसे वे सत्य को प्राप्त करने के लिए उतना ही ज्यादा तरसने लगते हैं, और उसे और अधिक सँजोते हैं, और खुद को और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने की प्रक्रिया के दौरान वे सत्य को स्वीकार कर उसका अनवरत अभ्यास करने में सक्षम होंगे। धीरे-धीरे उनका आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, और उनका जीवन स्वभाव वास्तव में बदलने लगेगा। अगर वे इसी प्रकार अनुभव करने की कोशिश करते रहेंगे, तो उनकी स्थिति साल-दर-साल और ज्यादा बेहतर होती जाएगी, और अंत में, वे देह-सुख पर विजयी होने और अपनी भ्रष्टता को त्यागने, बहुधा सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने में सक्षम होंगे। जीवन प्रवेश आसान नहीं है! यह उस व्यक्ति को पुनर्जीवित करने जैसा होता है जो बस मृत्यु के कगार पर होता है : व्यक्ति जो जिम्मेदारी पूरी कर सकता है, वह है सत्य पर संगति करना, उन्हें सहारा देना, उन्हें पोषण देना या उनकी काट-छाँट करना। अगर वे उसे स्वीकार कर समर्पण कर सकें, तो उनके लिए उम्मीद बची है; हो सकता है कि वे इतने सौभाग्यशाली हों कि वे बच निकलें, और चीजें मृत्यु से पहले ही रुक जाएँ। लेकिन अगर वे सत्य को स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और अपने बारे में बिल्कुल भी नहीं जानते, तो वे खतरे में हैं। कुछ मसीह-विरोधी हटा दिए जाने के एक-दो साल तक खुद को जाने बिना गुजार देते हैं, और अपनी गलतियाँ नहीं मानते। ऐसी स्थिति में, उनके अंदर जीवन की कोई निशानी नहीं होती, और यह इस बात का सबूत है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। जब तुम लोगों की काट-छाँट होती है तो क्या तुम सत्य को स्वीकार पाते हो? (हाँ।) फिर तो उम्मीद बची है—यह अच्छी बात है! अगर तुम सत्य को स्वीकार सकते हो, तो तुम्हारे लिए बचाए जाने की उम्मीद है।
अगर तुम चाहते हो कि तुम्हें बचाया जाए, तो तुम्हें अनेक बाधाएँ पार करनी होंगी। वे कौन-सी बाधाएँ हैं? अपने भ्रष्ट स्वभाव से अविराम युद्ध, और शैतान और मसीह-विरोधियों के स्वभाव से युद्ध : यह तुम पर नियंत्रण करना चाहता है, और तुम उसे झटक कर मुक्त होना चाहते हो; यह तुम्हें गुमराह करना चाहता है, और तुम उसे फेंक देना चाहते हो। अगर तुम पाते हो कि इसके बारे में जानने के बाद भी तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को झटक कर मुक्त नहीं हो सकते, तो तुम व्यथित और पीड़ित हो जाओगे, और तुम प्रार्थना करोगे। कभी-कभी जब तुम यह देखते हो कि थोड़ा समय बीत जाने पर भी तुम शैतान के स्वभाव का नियंत्रण झटक पाने में असमर्थ हो, तो तुम्हें लगेगा ऐसा करना बेकार है, लेकिन तुम हार नहीं मानोगे और महसूस करोगे कि तुम इतने निराश और मायूस नहीं रह सकते—कि तुम्हें लड़ते रहना है। कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में लोगों में अलग-अलग सीमा की अलग-अलग आंतरिक प्रतिक्रियाएँ होती हैं। संक्षेप में कहें, तो जिन लोगों में जीवन होता है वे वो लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, और भीतर से निरंतर बदलते रहते हैं। उनके मन की गहराई में पैठी सोच और विचार, उनके व्यवहार और अभ्यास, और यहाँ तक कि उनके इरादों, ख्यालों और विचारों में निरंतर उलट-पुलट होती रहती है। इसके अलावा वे बढ़ती हुई स्पष्टता के साथ भेद कर पाएँगे कि क्या सही है और क्या गलत, उन्होंने कौन-से गलत काम किए हैं, और सोचने का कोई तरीका सही है या गलत, कोई दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप है या नहीं, किसी तरीके से कार्य करने के पीछे के सिद्धांत परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं या नहीं, और क्या वे ऐसे इंसान हैं जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है, जो सत्य से प्रेम करता है। ये चीजें उनके दिल में धीरे-धीरे ज्यादा-से-ज्यादा स्पष्ट होती जाएँगी। तो फिर इन नतीजों की प्राप्ति किस नींव पर बनी होती है? उन सत्यों का अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने की नींव पर, जैसा वे उन्हें समझते हैं। ऐसा क्यों है कि आखिर मसीह-विरोधी बदलाव हासिल नहीं कर पाते? क्या वे सत्य को समझने में अक्षम हैं? (नहीं, वे सक्षम हैं।) वे उसे समझ सकते हैं, लेकिन वे उसका अभ्यास नहीं करते, और इसे सुनने पर भी वे इसका अभ्यास नहीं करते। हो सकता है कि वे इसे धर्म-सिद्धांत के रूप में समझकर स्वीकार कर रहे हों, लेकिन क्या वे उन कुछ धर्म-सिद्धांतों और विनियमों को अभ्यास में ला सकते हैं जिन्हें वे समझते हैं? नहीं, जरा भी नहीं; भले ही तुम उन्हें मजबूर करो, भले ही वे कोशिश करते हुए थक गए हों, फिर भी वे उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकेंगे। इसीलिए उनके लिए सत्य में प्रवेश करना एक अनंत खालीपन होता है। कोई मसीह-विरोधी एक ईमानदार इंसान होने के बारे में चाहे जितना भी बोले, उसके प्रयास कितने भी बड़े हों, फिर भी वह एक भी ईमानदार बयान नहीं दे सकता; और वह परमेश्वर के इरादों को लेकर विचारशील होने के बारे में कितना भी बोले, वह अभी भी अपनी स्वार्थी, नीच प्रेरणाओं का त्याग नहीं करेगा। वह स्वार्थपरक दृष्टिकोण से कार्य करता है। जब वह कोई अच्छी चीज देखता है, कुछ ऐसी जिससे उसे फायदा हो, तो वह कहता है, “यहाँ दे दो—यह मेरी है!” वह हर वह बात कहता है जो उसके रुतबे के लिए फायदेमंद हो, और वह हर वह काम करता है जिससे उसे फायदा हो। यह मसीह-विरोधियों का सार होता है। हो सकता है कि जुनून के क्षणिक चरम पर वे महसूस करें कि उन्होंने थोड़े-से सत्य को समझ लिया है। उन पर जोश सवार हो जाता है और वे चिल्लाकर कुछ सूत्रवाक्य बोलने लगते हैं : “मुझे अभ्यास करना होगा, बदलना होगा, और परमेश्वर को संतुष्ट करना होगा!” फिर भी सत्य के अभ्यास का समय आने पर क्या वे ऐसा करते हैं? वे नहीं करते। परमेश्वर चाहे जो कहे, चाहे उनमें जितने भी सत्य या तथ्य हों, उन सबके बारे में अनगिनत वास्तविक उदाहरणों के साथ उपदेश दे, फिर भी इनसे मसीह-विरोधी प्रभावित नहीं होते, न ही ये उनकी महत्वाकांक्षा को डिगा सकते हैं। यह मसीह-विरोधी का एक लक्षण है, उनकी एक निशानी है। वे किसी भी सत्य का जरा भी अभ्यास नहीं करते; जब वे अच्छे से बोलते हैं, तो यह दूसरों के सुनने के लिए होता है, और चाहे वे जितने भी बढ़िया ढंग से बोलें, ये बस आडंबरपूर्ण और खोखले बोल का रूप होते हैं—उनके लिए यही मत होता है। ऐसे लोग सत्य को अपने दिल में वास्तव में किस तरह बैठाते हैं? मैंने तुम्हें पहले जो बताया है, उसमें से मसीह-विरोधी का प्रकृति सार क्या होता है? (सत्य से नफरत।) सही है। वे सत्य से नफरत करते हैं। वे मानते हैं कि उनकी दुष्टता, स्वार्थपरता, नीचता, उनका अहंकार, उनकी क्रूरता, उनका रुतबा और धन-दौलत हथियाना, और दूसरों पर नियंत्रण सबसे ऊँचे सत्य हैं, सबसे बड़े फलसफे हैं, और कोई भी दूसरी चीज इन चीजों जितनी ऊँची नहीं है। जब एक बार वे रुतबा पा लेते हैं और लोगों पर नियंत्रण कर पाते हैं, तो वे वह सब कर सकते हैं जो वे चाहते हैं, और फिर सभी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ उन्हें हासिल हो सकती हैं। किसी मसीह-विरोधी का अंतिम लक्ष्य यही होता है।
मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, और उससे नफरत करते हैं। क्या तुम्हारे लिए यह संभव है कि सत्य से विमुख किसी व्यक्ति को ऐसा बनाओ कि वह सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास करे? (नहीं।) ऐसा करना सूअर को उड़ने या भेड़िये को घास खाने को मजबूर करने के बराबर है—क्या यह उनसे असंभव की माँग करना होगा? कभी-कभी तुम किसी भेड़िये को भेड़ों के झुंड में घुसते हुए देखोगे ताकि वह भेड़ों के संग रह सके। यह छद्मवेश रखना है, भेड़ को खाने के लिए मौके का इंतजार करना। उसकी प्रकृति कभी नहीं बदलेगी। इसी तरह किसी मसीह-विरोधी से सत्य का अभ्यास करवाना किसी भेड़िये को घास खिलाने और उसकी भेड़ खाने की प्रवृत्ति का परित्याग करवाने के बराबर है : यह नामुमकिन है। भेड़िये मांसाहारी होते हैं। वे भेड़ों को खाते हैं—वे हर प्रकार के प्राणियों को खाते हैं। यह उनकी प्रकृति है, और इसे नहीं बदला जा सकता। अगर कोई कहे, “मुझे नहीं पता कि मैं मसीह-विरोधी हूँ या नहीं, लेकिन जब भी मैं सत्य पर संगति होते सुनता हूँ, तो मेरा दिल गुस्से से उबल जाता है, और मैं उससे नफरत करता हूँ—और जो भी मेरी काट-छाँट करे, मैं उससे और भी ज्यादा नफरत करता हूँ,” तो क्या यह व्यक्ति मसीह-विरोधी है? (हाँ।) कोई कहता है, “जब तुम पर चीजें आ पड़ती हैं, तो तुम्हें समर्पण कर सत्य को खोजना चाहिए,” और वह पहला व्यक्ति बोलता है, “समर्पण करना, मेरी जूती! चुप करो!” यह कैसी बात है? क्या यह तुनकमिजाजी है? (नहीं।) यह कौन-सा स्वभाव है? (सत्य से नफरत का।) वे इस बारे में सुनना भी पसंद नहीं करते, और जैसे ही तुम सत्य पर संगति करते हो, उनकी प्रकृति फूट पड़ती है, और वे अपना असली रूप दिखा देते हैं। वे सत्य को खोजने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के बारे में कोई बात सुनना पसंद नहीं करते। उनकी नापसंदगी कितनी ज्यादा है? ऐसी बात सुनने पर वे फूट पड़ते हैं। उनकी शिष्टता ढह जाती है; वे गलती से रहस्य उजागर करने से नहीं डरते। उनकी नफरत इस हद तक होती है। तो फिर क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) सत्य बुरे लोगों के लिए नहीं है; यह उन लोगों के लिए है जिनमें अंतरात्मा और विवेक है, जिन्हें सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम है। यह उन लोगों से अपेक्षा करता है कि वे उसे स्वीकार कर उसका अभ्यास करें। और जहाँ तक मसीह-विरोधी के सार वाले उन दुष्ट लोगों का सवाल है, जो सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति अत्यधिक शत्रुतापूर्ण हैं, वे कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। चाहे वे जितने भी वर्ष परमेश्वर में विश्वास रख लें, वे चाहे जितने धर्मोपदेश सुन लें, वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे या उसका अभ्यास नहीं करेंगे। यह मत मानो कि वे सत्य का अभ्यास इसलिए नहीं करते क्योंकि वे उसे नहीं समझते, और इसके बारे में ज्यादा सुनने के बाद वे उसे समझ लेंगे। यह असंभव है, क्योंकि वे सभी लोग जो सत्य से विमुख हैं और उससे नफरत करते हैं, वे शैतान के सगे हैं। वे कभी नहीं बदलेंगे, और उन्हें कोई भी दूसरा नहीं बदल सकेगा। यह परमेश्वर से विश्वासघात करने के बाद के प्रधान दूत जैसा ही है : क्या तुम लोगों ने कभी परमेश्वर को यह कहते हुए सुना है कि वह प्रधान दूत को बचाएगा? परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा। तो परमेश्वर ने शैतान के साथ क्या किया? उसने उसे बीच हवा में उछाल दिया और उससे धरती पर अपनी सेवा करने को कहा, वही जो उसे करनी चाहिए। और जब उसने सेवा का काम पूरा कर लिया, और जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना पूरी होगी तो वह उसे नष्ट कर देगा और बस काम तमाम। क्या परमेश्वर उससे एक भी अतिरिक्त बात कहता है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि एक शब्द में कहें तो यह व्यर्थ होगा। उससे एक भी बात कहना निरर्थक होगा। परमेश्वर ने उसकी असलियत समझ ली है : मसीह-विरोधी का प्रकृति सार कभी नहीं बदल सकता। यह इसी तरह चलता है।
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