मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो) खंड पाँच
कुछ लोग जैसे ही सुनते हैं कि कोई उनके कार्य में हस्तक्षेप करना और उसकी निगरानी करना चाहता है, वैसे ही वे कैसा रवैया अपनाते हैं? “निगरानी तो ठीक है। मैं निगरानी स्वीकारता हूँ। पूछताछ करना भी ठीक है—लेकिन अगर तुम वास्तव में मेरी निगरानी करोगे, तो अपने कार्य में आगे बढ़ने का रास्ता नहीं बचेगा। मेरे हाथ बँध जाएँगे। अगर हमेशा तुम ही अंतिम फैसले लोगे और मुझे प्रवर्तक बना दोगे, तो मैं काम नहीं कर पाऊँगा। ‘सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है।’” क्या यह एक सिद्धांत नहीं है? यह मसीह-विरोधियों का सिद्धांत है। ऐसा कहने वाले व्यक्ति का स्वभाव कैसा होता है? क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है? इसका अर्थ क्या है कि “सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है”? यहाँ तक कि वे ऊपरवाले की पूछताछ भी सहन नहीं करेंगे। अगर ऊपरवाला तुमसे पूछताछ न करे, तो फिर क्या तुम्हारे क्रिया-कलाप सत्य का उल्लंघन नहीं करेंगे? क्या पूछताछ की वजह से तुम कुछ गलत करोगे? क्या ऊपरवाला तुम्हारे कार्य को पटरी से उतार देगा? मुझे बताओ, क्या ऊपरवाला यह देखने के लिए कार्य के बारे में मार्गदर्शन देता है, उसके बारे में पूछताछ करता है, और उसकी निगरानी करता है कि उस काम को बेहतर ढंग से किया जाए या बदतर ढंग से? (बेहतर ढंग से।) अच्छा, तो कुछ लोग उन सुधरे हुए नतीजों को स्वीकार क्यों नहीं करते? (वे एक मसीह-विरोधी के स्वभाव के अधीन होते हैं।) सही है। यह उनका मसीह-विरोधी स्वभाव है—उनका इस पर काबू नहीं होता। जैसे ही कोई उस कार्य के बारे में पूछताछ करता है जो उनके जिम्मे है, वे परेशान हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके हित, और साथ ही उनका रुतबा और सत्ता भी दूसरों को दे दिए जाएँगे। तो वे बेचैन हो उठते हैं। उन्हें महसूस होता है कि उनकी योजनाओं और पद्धतियों को अव्यवस्थित कर दिया गया है। और क्या उनके लिए यह कारगर होगा? अगर ऊपरवाला किसी को पदोन्नत करे और उस व्यक्ति से उसके साथ सहयोग करवाए, तो वे सोचते हैं, “इस व्यक्ति को इस्तेमाल करने की मेरी कोई योजना नहीं थी, लेकिन ऊपरवाला जोर देता है कि वह अच्छा है और उसने उसे पदोन्नत कर दिया है। मुझे यह बढ़िया नहीं लगता। मैं उसके साथ सहयोग में कैसे काम करूँगा? अगर ऊपरवाला उसका उपयोग करेगा, तो मैं तो बस काम छोड़ दूँगा!” वे ऐसा कहते तो हैं, लेकिन क्या वे सचमुच अपना रुतबा छोड़ पाएँगे? नहीं छोड़ पाएँगे—वे जो कर रहे हैं वह टकराव का तरीका है। क्या वे अपने रुतबे के लिए खतरा बनने वाले, उन्हें सुर्खियाँ न देने वाले, मौजूदा परिदृश्य को बिगाड़ने वाले किसी व्यक्ति को काम करने की सहमति देंगे? नहीं, वे नहीं देंगे। उदाहरण के लिए, जब ऊपरवाला किसी को पदोन्नत करता है या बर्खास्त कर देता है, तो वे क्या सोचते हैं? “क्या तमाचा मारा है मुँह पर! यह काम उन्होंने मेरे जरिए नहीं किया। बाकी सब दरकिनार कर भी दूँ, तो मैं अभी भी अगुआ हूँ—वे पहले से मुझे कुछ क्यों नहीं बताते? ऐसा क्यों, मानो मेरा कोई महत्त्व ही नहीं है!” वैसे, तुम हो कौन? क्या यह तुम्हारा काम है? अव्वल तो यह तुम्हारा क्षेत्र नहीं है, और दूसरे, ये लोग तुम्हारा अनुसरण नहीं करते, तो फिर तुम्हें उनके लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों होना चाहिए? क्या यह सत्य के अनुरूप है? कौन-सा सत्य? ऊपरवाले द्वारा किसी व्यक्ति को पदोन्नत करने या किसी व्यक्ति को बर्खास्त करने के सिद्धांत होते हैं। ऊपरवाला किसी को क्यों पदोन्नति देता है? क्योंकि कार्य के लिए उनकी जरूरत है। ऊपरवाला किसी को क्यों बर्खास्त करता है? क्योंकि कार्य के लिए अब उसकी जरूरत नहीं रही—वह काम नहीं कर सकता। अगर तुम उसे बर्खास्त नहीं करते हो, और यहाँ तक कि ऊपरवाले को भी नहीं बदलने देते, तो क्या तुम तर्क-वितर्क से दूर नहीं हो? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “ऊपरवाले का किसी को बर्खास्त करना—यह मेरे लिए कितनी शर्मनाक बात है। अगर वह किसी को बर्खास्त करने का इरादा रखता है, तो उसे मुझे अकेले में बताना चाहिए, और यह काम मैं करूँगा। यह मेरा काम है; यह मेरी जिम्मेदारी का हिस्सा है। अगर मैं उसे बर्खास्त करता हूँ, तो यह सबको दिखाएगा कि मुझे लोगों का कितना अधिक बोध है, और यह कि मैं असली कार्य कर सकता हूँ। यह कितना बड़ा सम्मान होगा!” क्या तुम लोग ऐसा सोचते हो? कुछ लोग अच्छा नाम और गौरव चाहते हैं, और वे ऐसे औचित्य प्रस्तुत करते हैं। क्या यह चलेगा? क्या यह उचित लगता है? एक लिहाज से, परमेश्वर का घर अपना कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार करता है; दूसरे लिहाज से, वह मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार कार्य करता है। कमान की किसी श्रेणी को नजरअंदाज करने जैसी कोई चीज नहीं होती, खासतौर से जब ऊपरवाले द्वारा लोगों की पदोन्नतियों और बर्खास्तगियों या किसी कार्य परियोजना के लिए उसके मार्गदर्शन और निर्देशों की बात हो—ऐसे मामलों में, यह कमान की एक श्रेणी को नजरअंदाज करने का मामला भी नहीं है। तो फिर मसीह-विरोधी इन “त्रुटियों” की तलाश क्यों करता है? एक बात पक्की है : वह सत्य को नहीं समझता, इसलिए वह परमेश्वर के घर के कार्य को अपने इंसानी दिमाग और उन प्रक्रियाओं से आँकता है जो बाहरी दुनिया में मौजूद हैं। इसके परे, उसका मुख्य लक्ष्य होता है कि उसका आत्म-संरक्षण और उसका गौरव बना रहे। अपने हर काम में वह मधुर और चालाक होता है; वह अपने नीचे वालों को यह देखने नहीं देता कि उसमें कुछ खामियाँ या कमियाँ हैं। किस हद तक वह ऐसे दिखावे करता रहेगा? इतने अधिक कि दूसरे उसे त्रुटिहीन समझें, जिसमें कोई भ्रष्टता या कमियाँ नहीं हैं। दूसरे इसे उपयुक्त मानेंगे कि ऊपरवाला उसका उपयोग करे और भाई-बहन उसे चुनें—वह एक पूर्ण व्यक्ति है। क्या वे नहीं चाहेंगे कि चीजें ऐसी हों? क्या यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) हाँ, यह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव है।
अभी हमने जो संगति की, वह मसीह-विरोधियों के एक प्रमुख व्यवहार के बारे में थी—वे दूसरों को उनके लिए गए काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकते हैं। परमेश्वर का घर उनके कार्य की जाँच करने, या उसके बारे में ज्यादा जानने या उसकी निगरानी करने की जो भी व्यवस्थाएँ करता है, वे उसे रोकने और नकारने के लिए हर संभव हथकंडा अपनाएँगे। उदाहरण के तौर पर, जब कुछ लोगों को ऊपरवाले द्वारा कोई परियोजना सौंपी जाती है, तो बिना किसी प्रगति के काफी वक्त गुजर जाता है। वे ऊपरवाले को नहीं बताते कि क्या वे उसमें लगे हुए हैं, या काम कैसा चल रहा है, या क्या इस दौरान कोई कठिनाई या समस्या सामने आई है। वे कोई जानकारी नहीं देते। कुछ कार्य महत्वपूर्ण होते हैं और उनमें देरी नहीं की जा सकती, फिर भी वे टालमटोल करते रहते हैं और लंबे समय तक काम पूरा किए बिना खींचते रहते हैं। तब ऊपरवाला पूछताछ करेगा ही। जब ऊपरवाला ऐसा करता है, तो उन लोगों को यह पूछताछ असहनीय रूप से शर्मनाक लगती है, और वे दिल से उनका प्रतिरोध करते हैं : “मुझे यह काम मिले हुए दस दिन से अधिक हो गए हैं। मैं अभी तक इसे समझ भी नहीं पाया हूँ, और ऊपरवाला पहले ही पूछताछ करने लगा है। लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा ऊँची हैं!” देखा, वे पूछताछ की खामियाँ ढूँढ़ने लगे हैं। इसमें समस्या क्या है? मुझे बताओ, क्या ऊपरवाले का पूछताछ करना बिल्कुल सामान्य नहीं है? इसका एक अंश तो यह जानने की इच्छा है कि कार्य में कितनी प्रगति हुई है, और कौन-सी कठिनाइयों का समाधान होना बाकी है; इसके अलावा, यह जानने की इच्छा है कि उसने यह काम जिस व्यक्ति को सौंपा है उसकी काबिलियत कैसी है, क्या वह वास्तव में समस्याओं को दूर करने में सक्षम हो पाएगा और काम अच्छे ढंग से कर पाएगा। ऊपरवाला तथ्यों को यथास्थिति में जानना चाहता है, और ज्यादातर वह ऐसी परिस्थितियों में पूछताछ करता है। क्या यह वह काम नहीं है जो उसे करना चाहिए? ऊपरवाला इस बात को लेकर चिंतित है कि कहीं तुम समस्याओं का समाधान करना न जानो और काम को न सँभाल पाओ। वह इसीलिए पूछताछ करता है। कुछ लोग ऐसी पूछताछ के प्रति अत्यंत प्रतिरोधी होते हैं और उससे उन्हें घृणा होती है। वे इस बात के लिए तैयार नहीं होते कि लोग पूछताछ करें और अगर लोग ऐसा करते हैं तो वे प्रतिरोधी हो जाते हैं, और हमेशा यह सोचते हुए आशंकाएँ पालते हैं, “वे हमेशा पूछताछ क्यों करते रहते हैं और ज्यादा जानने की कोशिश क्यों करते रहते हैं? ऐसा तो नहीं है कि वे मुझ पर भरोसा नहीं करते और मुझे नीची नजर से देखते हैं? अगर उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं है, तो उन्हें मेरा उपयोग नहीं करना चाहिए!” वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को कभी नहीं समझते, बल्कि उसका प्रतिरोध करते हैं। क्या ऐसे लोगों में विवेक होता है? वे ऊपरवाले को उनसे पूछताछ करने और उनकी निगरानी करने की अनुमति क्यों नहीं देते? इसके अलावा, वे प्रतिरोधी और अवज्ञापूर्ण क्यों रहते हैं। इसमें समस्या क्या है? उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि उनका कर्तव्य निर्वहन प्रभावी है या नहीं, या इससे कार्य की प्रगति में रुकावट पैदा होगी या नहीं। अपना कर्तव्य करते समय वे सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते, बल्कि वैसे ही करते हैं जैसे वे चाहते हैं। वे कार्य के नतीजों या दक्षता पर कोई विचार नहीं करते, परमेश्वर के घर के हितों का जरा भी ध्यान नहीं रखते, परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं का ध्यान रखना तो दूर की बात है। उनकी सोच होती है, “अपना कर्तव्य करने के मेरे अपने तरीके और दस्तूर हैं। मुझसे बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ मत रखो या चीजों की बहुत बारीकी से जानकारी मत माँगो। मैं अपना कर्तव्य कर सकता हूँ, यही काफी है। मैं इसके लिए बहुत थक नहीं सकता या बहुत अधिक कष्ट नहीं उठा सकता।” वे ऊपरवाले के पूछताछ करने और उनके कार्य के बारे में ज्यादा जानने की कोशिशों को नहीं समझते। उनकी इस समझ की कमी में कौन-सी चीजों का अभाव होता है? क्या इसमें समर्पण का अभाव नहीं है? क्या इसमें जिम्मेदारी की भावना का अभाव नहीं है? निष्ठा का? अगर वे अपना कर्तव्य करने में सचमुच जिम्मेदार और निष्ठावान होते, तो क्या वे अपने कार्य के बारे में ऊपरवाले की पूछताछ को अस्वीकार करते? (नहीं।) वे उसे समझने में सक्षम होते। अगर वे सच में नहीं समझ पाते, तो सिर्फ एक ही संभावना होती है : वे अपने कर्तव्य को अपने पेशे और अपनी आजीविका के रूप में देखते हैं और उसे भुनाते हैं, जो कर्तव्य वे करते हैं उसे एक शर्त और सौदेबाजी के रूप में लेते हैं, जिससे हर समय उन्हें पुरस्कार मिल सके। वे बस ऊपरवाले से बच निकलने के लिए बिना परमेश्वर के आदेश को अपना कर्तव्य और दायित्व समझे थोड़ा-सा इज्जत वाला कार्य करेंगे। इसलिए जब ऊपरवाला उनसे कार्य के बारे में पूछताछ करता है या उसकी निगरानी करता है तो वे इनकार और प्रतिरोध की मनोदशा में चले जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) यह समस्या कहाँ से उपजती है? इसका सार क्या है? बात यह है कि कार्य परियोजना के प्रति उनका रवैया गलत है। वे कार्य की प्रभावशीलता और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचने के बजाय सिर्फ दैहिक सहजता और आराम, और अपने रुतबे एवं गौरव के बारे में सोचते हैं। वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का जरा भी प्रयास नहीं करते। यदि उनमें वास्तव में थोड़ा भी अंतरात्मा और विवेक होता, तो वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को समझने में सक्षम होते। वे दिल से ऐसा कह पाने में सक्षम होते, “अच्छी बात है कि ऊपरवाला पूछताछ कर रहा है। वरना, मैं तो हमेशा अपनी मर्जी से काम करता रहता, जिससे कार्य की प्रभावशीलता में रुकावट आती या मैं उसे बिगाड़ भी देता। ऊपरवाला संगति करता है और पुनरीक्षण पूरा करता है, और उसने वास्तव में असल समस्याओं को हल किया है—यह कितनी बड़ी बात है!” यह उन्हें एक जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में दर्शाएगा। वे डरते हैं कि अगर वे कार्य की जिम्मेदारी खुद उठाएँ, और अगर कोई गलती या दुर्घटना हो जाए और इससे परमेश्वर के घर के कार्य को कोई ऐसा नुकसान हो जाए जिसे ठीक करने का कोई रास्ता न हो, तो यह एक ऐसी जिम्मेदारी होगी जिसे वे उठा नहीं पाएँगे। क्या यह जिम्मेदारी की भावना नहीं है? (हाँ, है।) यह जिम्मेदारी की भावना है, और यह एक संकेत है कि वे निष्ठावान हैं। जो लोग दूसरों को उनके काम के बारे में पूछताछ नहीं करने देते, उनके दिमाग में क्या चल रहा होता है? “यह काम मेरा अपना है, यही देखकर कि मुझे ही यह काम सौंपा गया था। अपने काम के बारे में फैसले मैं ही लेता हूँ; मुझे जरूरत नहीं है कि इसमें कोई और शामिल हो!” वे चीजों पर खुद विचार करते हैं, और अपने मन की करते हैं, जैसा कि उनके व्यक्तित्व द्वारा निर्देशित होता है। वे वही करते हैं जिससे उन्हें फायदा होता है, और किसी को चीजों के बारे में पूछने की अनुमति नहीं होती—किसी को मामलों की वास्तविक स्थिति के बारे में जानने की अनुमति नहीं होती। अगर तुम उनसे पूछते हो, “काम कैसा चल रहा है?” तो वे कहेंगे, “प्रतीक्षा करो।” अगर फिर तुम उनसे पूछते हो, “कार्य की प्रगति कैसी है?” तो वे कहेंगे, “लगभग पूरा होने को है।” तुम उनसे जो भी पूछो, वे बस एक या दो शब्द ही बोलेंगे। एक बार में वे बस दो-चार शब्द ही बोलेंगे, उससे ज्यादा नहीं—वे एक भी सटीक और विशिष्ट वाक्य नहीं बोलेंगे। क्या ऐसे लोगों से बात करना तुम्हें घिनौना नहीं लगता? स्पष्ट है कि वे तुमसे कुछ अधिक कहना नहीं चाहते। अगर तुम और सवाल पूछते हो, तो वे बेसब्र हो जाते हैं : “तुम उस छोटी-सी चीज के बारे में पूछते रहते हो, मानो मैं काम ही नहीं करवा सकता—मानो मैं इस काम के लायक ही नहीं हूँ!” लोग सवाल पूछें इसके लिए वे बिल्कुल भी तैयार नहीं होते। और अगर तुम उनसे सवाल करते रहते हो, तो वे कहेंगे, “मैं तुम्हें क्या लगता हूँ, कोई गधा या घोड़ा जिस पर तुम हुक्म चलाओगे? अगर तुम मुझ पर भरोसा नहीं करते, तो मेरा उपयोग मत करो; अगर तुम मेरा उपयोग करते हो, तो तुम्हें मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा—और मुझ पर भरोसा करने का मतलब है कि तुम्हें हमेशा पूछताछ नहीं करनी चाहिए!” उनका रवैया ऐसा ही होता है। क्या वे कार्य योजना को एक ऐसे कर्तव्य के रूप में ले रहे हैं, जो उन्हें ही करना है? (नहीं।) मसीह-विरोधी कार्य को अपने कर्तव्य के रूप में नहीं, बल्कि मोलभाव के साधन के रूप में लेते हैं जिससे आशीष और पुरस्कार प्राप्त किए जा सकते हैं। वे सिर्फ श्रम करके संतुष्ट रहते हैं, जिसके बदले में वे आशीषें पाना चाहते हैं। इसीलिए वे एक अनमने रवैये से कार्य करते हैं। वे नहीं चाहते कि दूसरे उनके कार्य में आंशिक रूप से भी हस्तक्षेप करें, ताकि एक ओर वे अपनी गरिमा और गौरव बचा सकें। वे मानते हैं कि वे जो कर्तव्य निभाते हैं और जो कार्य वे करते हैं वह निजी तौर पर उनका अपना है, वे उनके निजी मामले हैं। इसीलिए वे दूसरों को हस्तक्षेप नहीं करने देते। इसका दूसरा अंश यह है कि अगर वे काम को अच्छे ढंग से करवा सकें, तो वे उसके श्रेय का दावा कर सकते हैं और पुरस्कार माँग सकते हैं। यदि किसी ने हस्तक्षेप किया तो उसका श्रेय अकेले उन्हीं का नहीं रहेगा। वे डरते हैं कि दूसरे उनका श्रेय छीन न लें। इसीलिए वे अपने कार्य में दूसरों के हस्तक्षेप के लिए बिल्कुल भी सहमति नहीं देते। क्या मसीह-विरोधियों के तौर पर ऐसे लोग स्वार्थी और नीच नहीं होते? वे जो भी कार्य करते हैं, बस ऐसा होता है मानो वे अपने निजी मामले सँभाल रहे हों। वे दूसरों को हस्तक्षेप या भागीदारी नहीं करने देते, चाहे अपने आप करने पर काम जैसा भी हो। अगर वे काम अच्छे ढंग से करेंगे तो उसका श्रेय वे खुद ही लेंगे, ताकि किसी दूसरे को वे श्रेय और कार्य के नतीजों का हिस्सा न लेने दें। क्या यह तकलीफदेह नहीं है? यह कौन-सा स्वभाव है? यह शैतान का स्वभाव है। जब शैतान कार्य करता है, तो वह किसी और के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता, वह जो कुछ भी करता है उसमें अपनी ही चलाना चाहता है और हर चीज नियंत्रित करना चाहता है, और कोई भी उसकी निगरानी या पूछताछ नहीं कर सकता। किसी को हस्तक्षेप या दखलंदाजी करने की अनुमति तो बिल्कुल भी नहीं होती। मसीह-विरोधी इसी तरह कार्य करता है; चाहे वह कुछ भी करे, किसी को पूछताछ करने की अनुमति नहीं होती, और चाहे वह पर्दे के पीछे कैसे भी काम करे, किसी को हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है। यह मसीह-विरोधियों का व्यवहार है। वे ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि एक लिहाज से उनका स्वभाव अत्यंत अहंकारी होता है और दूसरे लिहाज से उनमें विवेक की अत्यंत कमी होती है। उनमें समर्पण का पूर्ण अभाव होता है, और वे किसी को अपनी निगरानी या अपने कार्य का निरीक्षण नहीं करने देते। ये वास्तव में दानव की हरकतें हैं, जो सामान्य व्यक्ति की हरकतों से बिल्कुल अलग होती हैं। जो कोई भी कार्य करता है, उसे दूसरों के सहयोग की आवश्यकता होती है, उसे अन्य लोगों की सहायता, सुझाव और सहयोग की आवश्यकता होती है, और अगर कोई निरीक्षण या निगरानी कर रहा हो, तो भी यह कोई बुरी बात नहीं, यह आवश्यक है। अगर कार्य के किसी अंश में गलतियाँ हो जाती हैं, और निगरानी करने वाले लोगों द्वारा उनका पता लगाकर उन्हें तुरंत ठीक कर दिया जाता है, और कार्य को नुकसान नहीं होने दिया जाता, तो क्या यह एक बड़ी मदद नहीं है? इसलिए, जब बुद्धिमान लोग काम करते हैं, तो वे इसे पसंद करते हैं कि अन्य लोग उनकी निगरानी और अवलोकन करें और पूछताछ करें। अगर संयोगवश कोई गलती हो ही जाए, और ये लोग बता सकें और गलती तुरंत ठीक की जा सके, तो क्या यह अत्यंत वांछित परिणाम नहीं है? इस दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, जिसे दूसरों की मदद की जरूरत न हो। ऑटिज्म या डिप्रेशन से पीड़ित लोग ही अकेले रहना और किसी के साथ संपर्क में न रहना या दूसरे लोगों से संवाद न करना पसंद करते हैं। जब लोग ऑटिज्म या डिप्रेशन से ग्रस्त हो जाते हैं, तो वे सामान्य नहीं रह जाते। वे अब खुद को नियंत्रित नहीं कर पाते। अगर लोगों का मन और विवेक सामान्य है, लेकिन वे दूसरों के साथ संवाद नहीं करना चाहते, और वे नहीं चाहते कि अन्य लोग उनके द्वारा किए जाने वाले किसी भी काम के बारे में जानें, वे चीजों को गुप्त रूप से, अकेले में करना चाहते हैं, और परदे के पीछे परिचालन करते हैं और वे किसी और की कोई बात नहीं सुनते, तो ऐसे लोग मसीह-विरोधी होते हैं, है न? वे मसीह-विरोधी हैं।
एक बार जब मैंने एक कलीसिया के अगुआ को देखा, तो मैंने उससे पूछा कि भाई-बहनों का कर्तव्य निर्वहन कैसा चल रहा है। मैंने पूछा, “क्या वर्तमान में कलीसिया में ऐसा कोई है जो कलीसिया के जीवन को बाधित कर रहा है?” क्या तुम अंदाजा लगा सकते हो कि उसने क्या कहा? “सब-कुछ ठीक है; वे ठीक हैं।” मैंने पूछा, “अमुक बहन अपना कर्तव्य कैसे निभा रही है?” उसने कहा, “बढ़िया।” फिर मैंने पूछा, “उसका परमेश्वर में कितने वर्ष से विश्वास है?” उसने कहा, “बढ़िया है।” मैंने कहा, “यह मेज यहाँ नहीं होनी चाहिए; इसे हटाना होगा।” उसने कहा, “मैं इस बारे में सोचूँगा।” मैंने कहा, “क्या इस खेत में सिंचाई की जरूरत नहीं है?” उसने कहा, “हम इस बारे में संगति करेंगे।” मैंने कहा, “इस खेत में इस वर्ष तुमने यह फसल लगाई है। क्या अगले साल भी तुम यही फसल लगाओगे?” उसने कहा, “निर्णय लेने वाले हमारे समूह के पास एक योजना है।” उसने इस प्रकार के जवाब दिए। इन्हें सुनकर तुम्हें कैसा महसूस होता है? क्या इनसे तुम कुछ भी समझ पाते हो? क्या तुम्हें कोई जानकारी मिलती है? (बिल्कुल भी नहीं।) तुम फौरन बता सकते हो कि वह तुम्हें धोखा दे रहा है, तुम्हें बेवकूफ और बाहर वाला समझ रहा है। उसे नहीं मालूम कि वास्तव में बाहर वाला कौन है; गैर-विश्वासी इसे कहते हैं, “मेहमान का मेजबान की तरह पेश आना।” वह खुद अपनी पहचान नहीं जानता। मैंने कहा, “तुम लोगों के यहाँ बहुत सारे लोग रह रहे हैं, और हवा ठीक से प्रवाहित नहीं हो रही है। तुम्हें एक पंखा लगा लेना चाहिए, वरना यहाँ बहुत गर्मी हो जाएगी और लोगों को लू लग जाएगी।” उसने कहा, “हम इस बारे में बात करेंगे।” मैंने उससे जो भी बात कही, उसने बस यही कहा कि उस बारे में बात करनी होगी, उस पर संगति करनी होगी, और विचार करेंगे। मैंने जो भी व्यवस्थाएँ कीं, मैंने जो भी कहा, उसके लिए उनके कोई मायने नहीं थे। उसके लिए ये व्यवस्थाएँ या आदेश नहीं थे, और उसने उन्हें लागू नहीं किया। तो फिर उसने मेरे वचनों को क्या माना? (उसके विचार के लिए सुझाव।) क्या मैं उसे उसके विचार के लिए सुझाव दे रहा था? नहीं—मैं उसे बता रहा था कि उसे क्या करना चाहिए, उसे क्या करना था। क्या ऐसा था कि उसने मेरी बात नहीं समझी? अगर उसने नहीं समझी, तो इसका अर्थ यह था कि वह बेवकूफ था जो नहीं जानता था कि उसकी पहचान क्या है या वह कौन-सा कर्तव्य निभा रहा है। वहाँ बहुत सारे लोग रह रहे थे, बिना भीतरी वातानुकूलन या वायु प्रवाह के। जब उसने पंखा भी नहीं लगाया था तो वह भला कितना बुद्धिमान था? उसे तुरंत घर चले जाना चाहिए—वह कूड़ा है, और परमेश्वर के घर को कूड़े की जरूरत नहीं है। लोग किसी चीज के बारे में सब-कुछ नहीं जानते, मगर वे सीख सकते हैं। कुछ चीजें हैं जो मैं नहीं समझता, तो मैं उनके बारे में दूसरों से चर्चा करता हूँ : “तुम लोगों के ख्याल से यह करने का अच्छा तरीका कौन-सा है? तुम खुलकर अपने सुझाव दे सकते हो।” अगर कुछ लोग सोचते हैं कि कोई तरीका सर्वोत्तम है, तो मैं कहता हूँ, “ठीक है, चलो, तुम जैसा कहो वैसा करते हैं। मैंने अभी नहीं सोचा है कि किसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए। हम तुम्हारा कहा मानेंगे।” क्या यह सामान्य मानवता की सोच नहीं है? दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहना यही होता है। दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहना हो, तो लोगों को इसमें भेद नहीं करना चाहिए कि कौन श्रेष्ठ है और कौन कमतर, या किसे सुर्खियाँ मिलती हैं और किसे नहीं, या चीजों के बारे में किसकी बात चलेगी। ऐसे भेद करने की कोई जरूरत नहीं है—जिस किसी का तरीका सही और सत्य सिद्धांतों के अनुसार हो, उसी की बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए। क्या तुम लोग यह करने के काबिल हो? (हाँ।) ऐसे कुछ लोग हैं जो नहीं हैं। मसीह-विरोधी नहीं हैं—वे जोर देते हैं कि उनकी ही बात मानी जानी चाहिए, और कुछ नहीं। यह कैसी चीज है? दूसरों की उठाई हुई बात उन्हें गँवारा नहीं, भले ही वह उचित हो; वे जानते हैं कि यह सही और उचित है, लेकिन वे किसी दूसरे के द्वारा प्रस्तावित किसी भी चीज को नहीं मानते—वे खुश तभी होते हैं अगर उन्होंने खुद कोई चीज प्रस्तावित की हो। इस छोटे-से मामले में भी वे श्रेष्ठता के लिए लड़ते हैं। यह कौन-सा स्वभाव है? मसीह-विरोधी का स्वभाव। वे रुतबे, प्रसिद्धि और गुरूर को बहुत ज्यादा महत्त्व देते हैं। कितना महत्त्व? वे चीजें उनके लिए उनके जीवन से अधिक महत्वपूर्ण होती हैं—भले ही उन्हें अपने प्राण देने पड़ें, वे अपने रुतबे और अपनी प्रसिद्धि की सुरक्षा करेंगे।
मसीह-विरोधी दूसरों को अपने किए किसी भी काम में दखल देने, पूछताछ करने या निगरानी करने से रोकते हैं, और यह रोक कई तरीकों से प्रकट होती है। एक है सीधा और स्पष्ट इनकार। “जब मैं काम करूँ, तो हस्तक्षेप करना, पूछताछ करना और निगरानी करना बंद करो। मैं जो भी काम करता हूँ, वह मेरी जिम्मेदारी है, मैं जानता हूँ कि उसे कैसे करना है और किसी और को मेरा प्रबंधन करने की जरूरत नहीं है!” यह सीधा इनकार है। एक और अभिव्यक्ति यह कहते हुए ग्रहणशील दिखने की होती है, “ठीक है, चलो संगति करें और देखें कि काम कैसे किया जाना चाहिए,” लेकिन जब दूसरे वास्तव में पूछताछ करना शुरू करते हैं और उनके काम के बारे में और जानने की कोशिश करते हैं, या जब वे कुछ समस्याएँ बताते हुए कुछ सुझाव देते हैं, तो उनका क्या रवैया रहता है? (वे ग्रहणशील नहीं रहते।) यह सही है—वे बस स्वीकार करने से मना कर देते हैं, दूसरों के सुझाव खारिज करने के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं, गलत को सही और सही को गलत में बदल देते हैं, लेकिन असल में, अपने दिल में वे जानते हैं कि वे तर्क को तोड़-मरोड़ रहे हैं, कि वे ऊँची लगने वाली बातें कर रहे हैं, कि वे जो कह रहे हैं वह बस सैद्धांतिक है, कि उनके शब्द उतने व्यावहारिक नहीं हैं जितना दूसरे लोग कहते हैं। और फिर भी अपनी हैसियत की रक्षा करने के लिए—और यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि वे गलत हैं और दूसरे लोग सही हैं—वे दूसरे लोगों की सही बात गलत में और अपनी गलत बात सही में बदल देते हैं, और जहाँ वे होते हैं, वहाँ सही और सत्य के अनुरूप चीजों को लागू करने या कार्यान्वित न होने देकर अपनी गलत बात को कार्यान्वित करते रहते हैं। क्या वे कलीसिया के कार्य को एक खेल, एक लतीफे के रूप में नहीं ले रहे हैं? क्या वे पूछताछ और निगरानी को स्वीकारने से इनकार नहीं कर रहे हैं? वे तुम्हें यह बताकर अपनी इस “मनाही” को खुल्लमखुल्ला व्यक्त नहीं करते, “तुम्हें मेरे कार्य में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं है।” वे जो करते हैं वह यों तो दिखाई नहीं देता, लेकिन यही उनकी मानसिकता होती है। वे कुछ तिकड़में इस्तेमाल करेंगे और बाहर से बड़े धर्मनिष्ठ दिखाई देंगे। वे कहेंगे, “ऐसा होता है कि हमें मदद की जरूरत पड़ती है, तो अब चूँकि तुम यहाँ हो, हमारे साथ थोड़ी संगति करो!” उनके उच्च-स्तरीय अगुआ को यकीन हो जाएगा कि वे सच्चे हैं, और इसलिए वे उनके साथ संगति करेंगे, उन्हें मौजूदा परिस्थितियों के बारे में बताएँगे। अगुआ को सुन लेने के बाद, वे सोच में पड़ जाएँगे : “तुम चीजों को इस तरह देखते हो—अच्छा, मुझे तुम्हारे दृष्टिकोण का खंडन करने और उसे गलत साबित करने के लिए इस बारे में तुमसे वाद-विवाद करना होगा। मैं तुम्हें शर्मसार करूँगा।” क्या यह स्वीकृति का रवैया है? (नहीं।) तो फिर यह कौन-सा रवैया है? यह उनके किए गए कार्य में दूसरों के दखल देने, पूछताछ करने और निगरानी करने देने का पालन करने से इनकार करना है। मान लें कि मसीह-विरोधी ऐसा करेंगे, तो फिर वे लोगों के सामने झूठा मुखौटा क्यों लगाए रखते हैं और स्वीकृति का रवैया क्यों दिखाते हैं? वे लोगों को इस तरह से धोखा देंगे, इससे यह पता चलता है कि वे बहुत धूर्त हैं। उन्हें डर होता है कि लोग उनकी असलियत जान लेंगे। वर्तमान में, खास तौर से कुछ ऐसे लोग हैं जिनमें भेद की थोड़ी-बहुत पहचान है, इसलिए यदि कोई मसीह-विरोधी दूसरों की निगरानी और मदद को सीधे मना करता है, तो लोग बताने और उसकी असलियत समझने में सक्षम होंगे। फिर वे अपना गौरव और रुतबा गँवा देंगे, और उनके लिए भविष्य में अगुआ या कार्यकर्ता चुना जाना आसान नहीं होगा। इसलिए, जब कोई उच्च-स्तरीय अगुआ उनके कार्य की जाँच करता है, तो वे उसे स्वीकारने का दिखावा करते हैं, मीठी और चाटुकारिता भरी बातें कहते हैं, जिससे सभी लोग सोचने लगते हैं, “देखो, हमारा अगुआ कितना धर्मनिष्ठ, कितना सत्य-खोजी है! हमारा अगुआ हमारे जीवन और कलीसिया के कार्य की देखभाल करता है। वह अपना कर्तव्य करने की जिम्मेदारी लेता है। अगले चुनाव में हम फिर से उसे ही चुनेंगे।” जिस बात को कोई नहीं देखता वह यह है कि उच्च-स्तरीय अगुआ के जाने के बाद मसीह-विरोधी कुछ ऐसे कहेगा : “कार्य की जाँच करने वाले उस व्यक्ति ने जो कहा वह सही तो था, लेकिन जरूरी नहीं कि वह हमारी कलीसिया के हालात के लिए सही हो। प्रत्येक कलीसिया में चीजें अलग होती हैं। उसने जो कहा हम उसके साथ पूरी तरह सहमत नहीं हो सकते—हमें उस पर अपनी वास्तविक स्थिति के आधार पर विचार करना होगा। हम विनियमों को रटे-रटाए ढंग से लागू नहीं कर सकते!” और सभी लोग यह सोचकर निकल जाते हैं कि यह सही है। क्या उन्हें गुमराह नहीं किया गया है? मसीह-विरोधी जो करता है उसका एक अंश मीठी बातें कहना और दूसरों की निगरानी को स्वीकारते हुए दिखाना है; इसके तुरंत बाद वे आंतरिक तौर पर गुमराह करने और मत-परिवर्तन का काम शुरू कर देते हैं। वे इस तरीके के दोनों अंशों को एक साथ लागू करते हैं। क्या उनके पास तिकड़में होती हैं? वाकई, ढेर सारी! बाहर से वे बढ़िया बातें बोलते हैं और स्वीकृति का ढोंग करते हैं, जिससे सभी लोग मान लेते हैं कि वे अपने कार्य के प्रति बहुत जिम्मेदार हैं, कि वे अपने पद और रुतबे का त्याग कर सकते हैं, कि वे निरंकुश नहीं हैं, बल्कि ऊपरवाले या दूसरे लोगों की निगरानी को स्वीकार सकते हैं—और ऐसा करते हुए वे भाई-बहनों को चीजों की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ “स्पष्ट रूप से बता” देते हैं, और विभिन्न स्थितियों के बारे में “स्पष्ट कर” देते हैं। उनका उद्देश्य क्या होता है? यह दूसरे लोगों का दखल, पूछताछ या निगरानी को स्वीकार न करने, और भाई-बहनों को यह सोचने पर बाध्य करने के लिए होता है कि उनका वैसा करना, जैसा वे कर रहे हैं, न्यायसंगत है, सही है, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और कार्य के सिद्धांतों के अनुरूप है, और एक अगुआ के रूप में वे सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। वास्तव में, कलीसिया में कुछ ही लोग सत्य समझते हैं; निस्संदेह ज्यादातर लोग भेद पहचानने में असमर्थ होते हैं, वे इस मसीह-विरोधी की असलियत नहीं देख पाते, और स्वाभाविक रूप से उसके द्वारा गुमराह हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, किसी विशेष कारण से कुछ लोगों की रात की नींद उड़ जाती है। वे सारी रात बिना सोए गुजार देते हैं। दो प्रकार के लोग होते हैं जिनमें अनिद्रा दो तरीकों से अभिव्यक्त होती है। पहले प्रकार के व्यक्ति दिन में जितनी जल्दी हो सके थोड़ा सो लेने का मौका ढूँढ़ लेते हैं। वे दूसरों को नहीं जानने देते कि वे नहीं सोए। यह एक स्थिति है, एक तरीका, जिसमें चीजें होती हैं। इसके पीछे कोई मंशा नहीं होती। दूसरे प्रकार का व्यक्ति खाना खाते हुए झपकी लेता है और सबसे कहता है, “मैं कल रात नहीं सोया!” कोई उससे पूछता है, “क्यों नहीं?” तो वह कहता है, “एक ऑनलाइन सभा थी, और मुझे कार्य में कुछ समस्याओं का पता चला। मैं सारी रात जागकर उन्हें हल करता रहा।” वह लगातार उद्घोषणा करता रहता है कि वह सारी रात नहीं सोया। क्या वह सारी रात जागे रहने को अनिच्छुक था? वह इसका स्पष्टीकरण समूह को क्यों दे रहा है? और क्या इस स्पष्टीकरण में कुछ निहित है? उसका लक्ष्य क्या है? इस आशंका से कि दूसरों को शायद इस बात का पता न चला हो, वह पूरी दुनिया को सूचित कर देना चाहता है कि उसने क्या किया। वह चाहता है कि सभी लोग जान लें कि उसने कष्ट सहा है, वह सारी रात जागा रहा, परमेश्वर में अपने विश्वास में वह कीमत चुकाने को तैयार है, कि उसे सुख-सुविधाओं का लालच नहीं है। इससे वह भाई-बहनों की सहानुभूति और स्वीकृति पाना चाहता है। यह सतही प्रदर्शन करके वह लोगों के दिल जीत लेता है, और ऐसा करके वह दूसरों से अपना सम्मान करवाता है, और लोगों के दिलों में इज्जत हासिल करता है। रुतबा हासिल कर लेने के बाद वह निश्चित रूप से अधिकार के साथ बोलेगा। और एक बार अधिकार के साथ बोलने के बाद क्या वह उस विशेष व्यवहार का आनंद नहीं लेगा जो रुतबे के साथ मिलता है? (हाँ, लेगा।) क्या तुम्हें लगता है कि उसने इस अवसर का अच्छा लाभ उठाया है? तुम लोग जब सो नहीं पाते हो या देर रात तक जागे रहते हो, तो क्या दूसरों को बताते हो? (हाँ, बताते हैं।) जब तुमने बताया, तो क्या अनजाने में ऐसा किया या फिर इसके पीछे कोई मंशा थी? क्या तुमने किसी को बस यों ही बता दिया या तुम दिखावा करते हुए कोई बड़ी घोषणा कर रहे थे? (यों ही बताया था।) यों ही बताने के पीछे कोई मंशा नहीं होती; इसमें कोई स्वभावगत समस्या नहीं दिखाई देती। जान-बूझकर बताने और अनजाने में बताने के पीछे की प्रकृति बिल्कुल अलग होती है। जब कोई मसीह-विरोधी कार्य करता है, तो वह जो करता है उसके पीछे कौन-सी मंशा होती है, क्या वह ऊपर से दूसरों के हस्तक्षेप और पूछताछ को स्वीकारता-सा प्रतीत होता है या वह उन्हें एकबारगी मना कर देता है—जैसा भी हुआ हो? वह रुतबे और सत्ता का लालच करता है, और उसे त्यागता नहीं है। क्या यह उसकी मंशा नहीं है? (हाँ, है।) सही है—वह अपनी मुश्किल से जीती हुई सत्ता और मुश्किल से हासिल किए हुए रुतबे और इज्जत को इतनी आसानी से एक पल में असावधानी से छूटने नहीं दे सकता; वह किसी को भी अपने कार्य में हस्तक्षेप कर और उसके बारे में पूछताछ कर अपनी शक्ति और प्रभाव को कमजोर नहीं होने दे सकता। वह इस पर यकीन करता है : कोई कर्तव्य करना, कोई कार्य योजना हाथ में लेना वास्तव में कोई कर्तव्य नहीं है, और उन्हें इसे एक दायित्व के रूप में करने की जरूरत नहीं है; इसके बजाय, यह एक विशेष सत्ता से सुसज्जित होना है, कुछ लोगों को अपनी कमान के अधीन रखने के लिए है। वे मानते हैं कि सत्ता से सुसज्जित होने पर उन्हें अब किसी से सलाह-मशविरा करने की जरूरत नहीं है, बल्कि अब उनके पास प्रभारी होने का मौका और शक्ति है। कर्तव्य के प्रति उनका रवैया इस तरह का होता है।
ऐसे कुछ दूसरे लोग होते हैं जो ऊपरवाले द्वारा उनके काम के बारे में पूछताछ करने पर बस खानापूर्ति कर देते हैं। वे सतही प्रदर्शन करते हैं और कुछ तुच्छ बातों के बारे में पूछते हैं, मानो वे ऐसे व्यक्ति हों जो सत्य को खोज रहा हो। उदाहरण के लिए, अगर कोई घटना हुई हो जिससे स्पष्ट रूप से गड़बड़ हुई हो और विघ्न-बाधा पड़ी हो, तो वे ऊपरवाले से पूछेंगे कि क्या जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, उससे निपटा जाना चाहिए। क्या इस तरह की चीज उनके काम का हिस्सा नहीं है? (हाँ, है।) ऊपरवाले से इस बारे में पूछने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है? वे तुम्हें अपना मुखौटा दिखाना चाहते हैं, यह जताने के लिए कि अगर वे ऐसे मामलों के बारे में भी पूछते हैं तो यह इसका सबूत है कि वे निठल्ले नहीं हैं, वे काम कर रहे हैं। वे बस तुम्हें गुमराह करने के लिए मुखौटा तैयार कर रहे हैं। तथ्य यह है कि उनके दिलों में कुछ वास्तविक समस्याएँ हैं और वे नहीं जानते कि उन्हें सुलझाने के लिए सत्य पर संगति कैसे करें, न ही वे यह जानते हैं कि किन सिद्धांतों का अभ्यास करें। लोगों से निपटने और मामलों से निपटने दोनों ही के मामले में ऐसी कुछ चीजें हैं जो उनके मन में अस्पष्ट होती हैं, लेकिन वे उनके बारे में कभी नहीं पूछते या खोजते। यह देखते हुए कि वे अपने दिलों में इन मामलों को लेकर अनिश्चित होते हैं, क्या उन्हें इनके बारे में ऊपरवाले से नहीं पूछना चाहिए? (हाँ, पूछना चाहिए।) वे उनके बारे में सुनिश्चित नहीं हैं, उनकी असलियत नहीं जान सकते, लेकिन आँखें मूँद कर कार्य करते रहते हैं—इसके परिणाम क्या होंगे? क्या वे पूर्वानुमान लगा सकते हैं कि क्या होगा? क्या वे परिणामों की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम होंगे? नहीं, वे नहीं होंगे। तो वे इन चीजों के बारे में क्यों नहीं पूछते? उनके न पूछने के पीछे कुछ सोच-विचार होते हैं। एक तो यह डर है कि ऊपरवाला उनके बारे में पता लगा लेगा : “अगर मैं इस तुच्छ मामले से भी नहीं निपट सकता, और मुझे इस बारे में पूछना पड़े, तो ऊपरवाला सोचेगा कि मेरी काबिलियत ज्यादा अच्छी नहीं है। क्या इससे ऊपरवाला मेरी असलियत पूरी तरह से नहीं जान जाएगा?” यह भी एक विचार होता है कि अगर वे पूछें और ऊपरवाले का फैसला उनके अपने दृष्टिकोण के विपरीत और भिन्न हुआ तो उन्हें उसे चुनने में बहुत मुश्किल होगी। अगर वे ऊपरवाले का बताया हुआ न करें, तो ऊपरवाला कहेगा कि वे कार्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं; अगर वे वैसा करते हैं, तो इससे उनके अपने हितों को नुकसान पहुँचेगा। इसलिए वे नहीं पूछते। क्या यह सोचा-समझा नहीं होता? (हाँ।) हाँ, होता है। वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, जो इन चीजों पर ध्यान देते हैं? (मसीह-विरोधी।) वे वाकई मसीह-विरोधी हैं। किसी भी चीज के साथ, वे उसके बारे में पूछें या न पूछें, इसके बारे में बोलें या बस सोचते रहें, वे सत्य को नहीं खोजते या उस चीज से सिद्धांतों के अनुसार पेश नहीं आते; सभी चीजों में वे अपने हितों को आगे रखते हैं। उनके दिल में उन चीजों की सूची होती है जिनके बारे में वे ऊपरवाले को पूछने और जानने दे सकते हैं, और उन चीजों की भी जिनके बारे में वे नहीं चाहते कि ऊपरवाले को पता चले। उन्होंने उन क्षेत्रों को परिसीमित कर दो श्रेणियों में बाँट दिया है। वे ऊपरवाले से सरसरी तौर पर उन मामूली चीजों के बारे में बात करेंगे जो उनके रुतबे के लिए खतरा नहीं बन सकतीं, ताकि ऊपरवाले के साथ किसी तरह काम चल जाए; लेकिन जो चीजें उनके रुतबे के लिए खतरा बन सकती हैं, उनके बारे में वे एक भी शब्द नहीं बोलेंगे। और अगर ऊपरवाला उन चीजों के बारे में पूछ ले, तो भला वे क्या करेंगे? वे उन्हें टालने के लिए कुछ शब्दों का उपयोग करेंगे; वे कहेंगे, “ठीक है, हम इस पर चर्चा करेंगे ... हम ढूँढ़ते रहेंगे ...”—तुम्हारे लिए भरपूर हामी, बिना किसी ऐसी बात के जिसे प्रतिरोध माना जा सके। देखने में वे बहुत आज्ञाकारी होते हैं—लेकिन तथ्य यह है कि उनका अपना हिसाब-किताब होता है। ऊपरवाले को अपनी चलाने देने की उनकी कोई योजना नहीं होती; ऊपरवाले से सुझाव माँगने या उसे फैसले करने देने, या उससे किसी मार्ग को खोजने की उनकी कोई योजना नहीं होती। उनकी ऐसी कोई योजना नहीं होती है। वे नहीं चाहते कि ऊपरवाला हस्तक्षेप करे या यह जाने कि वास्तव में क्या चल रहा है। एक बार ऊपरवाला जान लेगा, तो फिर इससे उनके लिए कैसा खतरा पैदा होगा? (वे अपने रुतबे को लेकर असुरक्षित हो जाएँगे।) सिर्फ इतना ही नहीं है कि वे अपने रुतबे को लेकर असुरक्षित हो जाएँगे—ऐसा होगा कि उनकी योजनाएँ और लक्ष्य अब साध्य नहीं रह पाएँगे, और इस तरह से अपने बुरे कर्मों में वे वैध नहीं होंगे; वे अब वैध रूप से, खुल्लमखुल्ला और बेशर्मी से अपनी योजनाओं को चलाने में सक्षम नहीं होंगे। यह वह समस्या है जिससे उनका सामना होगा। तो क्या वे इस बात का पता लगाने में सक्षम हैं कि किस तरह से कार्य करें कि उन्हें फायदा हो? निश्चित रूप से इस बारे में उनके अपने विचार और हिसाब-किताब होते हैं। क्या तुम लोग भी खुद को ऐसी चीजों का सामना करते हुए पाते हो? तो फिर तुम लोग इनके बारे में क्या सोचते हो? तुम उनसे कैसे पेश आते हो? मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। एक बार एक व्यक्ति था जो अगुआ बन गया और इसके फेर में काफी बहक गया; वह दूसरों से सम्मान पाने के लिए हमेशा उनके सामने दिखावा करना पसंद करता था। उसकी मुलाकात उसकी जान-पहचान के एक गैर-विश्वासी से हो गई जो पैसे उधार लेना चाहता था। गैर-विश्वासी ने इतना ज्यादा दीन-हीन होकर अपने मामले की पैरवी की कि अगुआ आवेग में आकर उस पल के जोश में राजी हो गया, इसके बाद वह शांत मन से और बेझिझक सोचने लगा, “मैं कलीसिया का अगुआ हूँ—कलीसिया के पैसे पर मेरा फैसला ही अंतिम होना चाहिए। जब उन चीजों की बात आती है जो परमेश्वर के घर की हैं, कलीसिया की हैं और भेंटें हैं—तो मैं एक पद पर हूँ, इसलिए मेरी ही बात चलती है। वित्त प्रबंधन मेरे जिम्मे है और कर्मचारियों की नियुक्ति का प्रबंधन भी मुझे ही करना है—इन सभी चीजों में मेरा ही फैसला अंतिम होता है!” और इसलिए परमेश्वर के घर का पैसा उसने एक गैर-विश्वासी को उधार दे दिया। दे देने के बाद उसे थोड़ी बेचैनी हुई, और उसने विचार किया कि क्या उसे ऊपरवाले को इस बारे में बताना चाहिए। अगर उसने बता दिया तो हो सकता है ऊपरवाला इस मामले पर सहमति न दे—इसलिए उसने झूठ तैयार करना और बहाने ढूँढ़ना शुरू कर दिया जिनसे वह ऊपरवाले को धोखा दे सके। ऊपरवाले ने उससे सत्य सिद्धांतों पर संगति की, मगर उसने इस पर ध्यान नहीं दिया। इस तरह उसने निजी तौर पर भेंटों के दुरुपयोग करने का कुकर्म किया। ऐसा व्यक्ति भेंटों के लिए षड्यंत्र रचने की हिम्मत क्यों करेगा? तुम एक कलीसिया के अगुआ भर हो—क्या तुम्हारे पास भेंटों के प्रबंधन का अधिकार है? क्या भेंटों और वित्त के मामलों पर तुम्हारा फैसला अंतिम होता है? अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसमें सामान्य मानवता और समझ है, जो सत्य का अनुसरण करता है, तो तुम्हें परमेश्वर की भेंटों से कैसे पेश आना चाहिए? क्या भेंटों से जुड़े मामलों के बारे में ऊपरवाले को नहीं बताना चाहिए, यह देखने के लिए कि परमेश्वर का घर क्या फैसला करता है? क्या ऐसे बड़े मसले के बारे में ऊपरवाले को जानने का अधिकार नहीं है? हाँ। यह ऐसी चीज है जिसके बारे में तुम्हारे दिल में स्पष्टता होनी चाहिए; यह वह विवेक है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। छोटे-बड़े दोनों प्रकार के वित्तीय मामलों की बात आने पर ऊपरवाले को जानने का अधिकार होता है। ऊपरवाला न पूछे तो और बात है—लेकिन अगर वह पूछे तो तुम्हें सच्चाई से जवाब देना चाहिए, और ऊपरवाला जो भी निर्णय करे तुम्हें उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। क्या यह इस प्रकार की समझ नहीं है जो तुममें होनी चाहिए? (हाँ, है।) फिर भी क्या मसीह-विरोधी इस काबिल हैं? (नहीं।) मसीह-विरोधियों और सामान्य लोगों के बीच यही अंतर होता है। अगर वे सोचते हैं कि ऊपरवाला सौ फीसदी इस बात के लिए सहमत नहीं होगा और उनके गौरव को नुकसान पहुँचेगा, तो वे उन तमाम तरीकों के बारे में सोचेंगे जिनसे वे उसे छिपाकर रख सकें, और ऊपरवाले को उस बारे में जानने से दूर रखें। वे अपने मातहत लोगों को भी दबाकर कहेंगे : “अगर कोई इसका खुलासा करेगा, तो वह मेरे विरुद्ध जाएगा। वह मुझसे सुनेगा। चाहे जो हो, मैं उसे देख लूँगा!” और उनके ये डरावने शब्द सुनकर कोई ऊपरवाले से इस मामले की शिकायत करने की हिम्मत नहीं करता। वे ऐसा क्यों करेंगे? वे मानते हैं, “यह मेरे अधिकार के दायरे में आता है। अपने अधिकार क्षेत्र के लोगों, धन और सामग्री को परिनियोजित और आवंटित करने का अधिकार मेरा है!” परिनियोजन और आवंटन के उनके सिद्धांत क्या होते हैं? वे अपनी मर्जी से व्यवस्थाएँ करते हैं, वे किसी सिद्धांत का पालन किए बिना मनमाने ढंग से धन और सामग्री का उपयोग करते और उसे देते हैं, वे इन चीजों को अंधाधुंध तरीके से बरबाद और व्यर्थ करते हैं, और किसी दूसरे को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता—इस पर पूरी तरह से उनका फैसला ही अंतिम होगा। क्या वे इसी तरह से नहीं सोचते हैं? बेशक, वे यह बात जोर से और ऐसे स्पष्ट शब्दों में नहीं कहेंगे—लेकिन अपने दिलों में, वे बिल्कुल यही सोचते हैं : “पद पर रहने के क्या मायने हैं? क्या यह सब पैसे, भरपेट खाना खाने और कपड़े पहनने के लिए नहीं होता? अब मैं पद पर हूँ; मेरे पास रुतबा है। अगर मैं अपनी मर्जी से अपनी सत्ता का फायदा न उठाऊँ, तो क्या यह मेरी बेवकूफी नहीं होगी?” क्या वे ऐसा नहीं मानते? (ऐसा ही मानते हैं।) क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा होता है, और वे इस पर यकीन करते हैं, इसीलिए वे लेशमात्र भी नैतिक ऊहापोह के बिना, किसी भी परिणाम पर ध्यान दिए बिना, अपनी अवधारणा के किसी भी तरीके और साधन से ऐसी बात को छिपाने की हिम्मत रखते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) वे यह नहीं आँकते कि यह चीज अच्छी है या नहीं या क्या करना उचित होगा या सिद्धांत क्या हैं। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते; उनका बस एक ही विचार होता है कि उनके हितों पर कौन ध्यान देगा। मसीह-विरोधी एक कपटी, स्वार्थी और नीच चीज होता है! वह कितना नीच होता है? इसे एक शब्द में बाँधा जा सकता है : वह बेशर्म होता है! वे लोग तुम्हारे नहीं हैं, न ही वे चीजें तुम्हारी हैं, और वह पैसा तो तुम्हारा है ही नहीं—फिर भी तुम इसे अपना मानकर लेना चाहते हो, अपनी मर्जी से उपयोग करना चाहते हो। दूसरों के पास इसको जानने का अधिकार भी नहीं होता; भले ही तुम उसे बरबाद करो या व्यर्थ करो, दूसरों को पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं होता। तुम कितना आगे जा चुके हो? तुम बेशर्मी में चले गए हो! क्या यह बेशर्मी नहीं है? (हाँ, है।) वह मसीह-विरोधी है। पैसे की बात आने पर किसी औसत व्यक्ति के पास कौन-सी रेखा होती है जिसे वह नहीं लाँघता? वह सोचता है कि वे परमेश्वर की भेंटें हैं और वे भेंटे परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा उन्हें दी जाती हैं, इसलिए वे परमेश्वर की हैं—वे उसकी “निजी चीजें” हैं, जैसा कि कुछ लोग कह सकते हैं। जो परमेश्वर का है वह किसी समुदाय का नहीं है, न ही वह किसी व्यक्ति का होता है। परमेश्वर के घर का मालिक कौन है? (परमेश्वर।) हाँ, परमेश्वर है। और परमेश्वर के घर में क्या शामिल हैं? इसमें प्रत्येक कलीसिया के उसके चुने हुए लोग शामिल हैं, और प्रत्येक कलीसिया की सभी आपूर्तियाँ और संपत्ति शामिल हैं। ये सभी चीजें परमेश्वर की हैं। ये किसी एक व्यक्ति की बिल्कुल नहीं हैं, और किसी को उन्हें हथियाने का अधिकार नहीं है। क्या कोई मसीह-विरोधी यह बात सोचेगा? (नहीं।) वे सोचते हैं कि भेंटें उसकी होती हैं जो उनका प्रबंध करता है, जिसके पास उनमें से निकालने का मौका होता है, और यदि कोई एक अगुआ है तो उसको उनका आनंद लेने का अधिकार है। इसीलिए वे अपनी पूरी शक्ति से निरंतर रुतबे के पीछे भागते हैं। एक बार रुतबा पा लेने के बाद अंततः उनकी सारी आशाएँ फलीभूत हो जाती हैं। वे रुतबे के पीछे क्यों भागते हैं? अगर तुमने उनसे ईमानदारी के साथ परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करवाई होती, जिसमें उनके कार्यों के पीछे सिद्धांत होते, फिर भी उन्हें कलीसिया की संपत्ति या परमेश्वर की भेंटों को छूने की अनुमति न दी होती, तो भी क्या वे अपनी ऊपर की ओर बढ़ने की भागम-भाग में इतने ज्यादा सक्रिय रहते? बिल्कुल नहीं। वे निष्क्रियता से प्रतीक्षा करते, और चीजों को अपने ढंग से होने देते। वे सोचते, “अगर मैं चुन लिया गया, तो मैं अपना काम और कर्तव्य अच्छे ढंग से करूँगा; अगर नहीं चुना गया, तो किसी की चापलूसी नहीं करूँगा। मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कहूँगा या करूँगा।” ऐसा ठीक इसलिए है कि एक मसीह-विरोधी सोचता है कि एक अगुआ के तौर पर व्यक्ति के पास हुक्म चलाने और कलीसिया की तमाम संपत्ति का आनंद लेने का अधिकार होता है, वह बेशर्मी की हद तक ऊपर जाने के अपने प्रयासों में अपना दिमाग चलाता है, ताकि वह रुतबा पा ले और उन सब चीजों का आनंद ले जो रुतबा लेकर आता है। बेशर्म होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपमानजनक काम करना—बेशर्म होने का यही मतलब होता है। अगर कोई उनसे कहे, “तुम जो करते हो, वह बहुत अपमानजनक है!” तो उन्हें परवाह नहीं होगी, बल्कि वे सोचेंगे, “इसमें अपमानजनक क्या है? रुतबा किसे पसंद नहीं होता? क्या तुम जानते हो कि रुतबा होने से कैसा महसूस होता है? और पैसे पर नियंत्रण कर पाने से? क्या तुम्हें वह खुशी पता है? क्या तुम विशेषाधिकार की उस भावना को जानते हो? क्या तुमने उसे चखा है?” मसीह-विरोधी अपने दिलों की गहराई में रुतबे को इसी तरह से देखते हैं। एक बार जब कोई मसीह-विरोधी रुतबा हासिल कर लेता है तो वह चाहता है कि सभी चीजों पर उसी का नियंत्रण हो। परमेश्वर की भेंटों को भी वह अपने नियंत्रण में ले लेगा। वह चाहता है कि कलीसिया के कार्य के किसी भी अंश के बारे में, जिसमें पैसा खर्च होता हो, ऊपरवाले से कभी भी सलाह-मशविरा किए बिना बस उसी का फैसला चले। वह परमेश्वर के घर के पैसे का मालिक बन बैठता है, और परमेश्वर का घर उसी का हो जाता है। पैसे को लेकर अंतिम फैसले लेने, उसका क्या होगा इस बात का हुक्म देने, अपनी पसंद के अमुक-अमुक व्यक्ति को देने, यह हुक्म चलाने कि एक-एक पैसा कैसे खर्च किया जाएगा, इन सबका अधिकार उसी को होता है। परमेश्वर की भेंटों को लेकर वे कभी भी सिद्धांतों के अनुसार सावधानी या सतर्कता से कार्य नहीं करते; बल्कि वे फिजूलखर्च करने वाले होते हैं और जो वे कहते हैं, वही होता है। इस प्रकार का व्यक्ति पक्का मसीह-विरोधी होता है।
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