मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो) खंड तीन
ग. विपरीत लिंग के साथ संपर्क में लोगों का रवैया और व्यवहार
हमारी तीसरी मद है अपने दैनिक जीवन में विपरीत लिंग के साथ संपर्क में लोगों का रवैया और व्यवहार। यह एक ऐसा मसला है जिसका सामना दूसरों के साथ रहने वाला हर व्यक्ति करेगा, चाहे उसकी उम्र कुछ भी हो। इसमें मानवता का कौन-सा पहलू शामिल है? इसमें व्यक्ति की गरिमा, शर्मिंदगी की भावना और उसके आचरण की शैली शामिल होती है। कुछ लोग विपरीत लिंग के साथ संपर्क को बहुत हल्के में लेते हैं। उन्हें लगता है कि जब तक कुछ नहीं होता, और दोनों में से कोई भी वासनापूर्ण विचारों में लिप्त नहीं होता या कोई अनुचित कामोन्माद प्रकट नहीं करता, तब तक यह कोई बड़ी बात नहीं है। क्या सामान्य मानवता वाले किसी व्यक्ति को ऐसे विचार रखने चाहिए? क्या यह सामान्य मानवता का चिह्न है? जब तुम शादी करने की उम्र के हो जाते हो तथा विपरीत लिंग के संपर्क में आते हो, और एक रिश्ता बनाना चाहते हो, तो सामान्य रूप से बनाओ, कोई इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। लेकिन कुछ लोग रिश्ता नहीं चाहते—वे कुछ दिन, जो भी उन्हें देखने में अच्छा लगता है, उसके साथ छेड़-छाड़ करना चाहते हैं, और जैसे ही वे किसी ऐसे से मिलते हैं जो उन्हें अच्छा लगने लगता है और उनकी पसंद के मुताबिक होता है, वे दिखावा करना शुरू कर देते हैं। और वे दिखावा कैसे करते हैं? भौंह उठाकर, आँख मारकर, या बात करते समय अपनी आवाज और लहजा बदल कर, या फिर वे एक खास तरीके से चलते हैं या अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए हास्यपूर्ण टिप्पणियाँ करना शुरू कर देते हैं; यह दिखावा करना है। जब कोई व्यक्ति, जो सामान्य रूप से इस तरह का न हो, ये व्यवहार प्रकट करता है, तो तुम सुनिश्चित हो सकते हो कि उसके आसपास विपरीत लिंग के कुछ सदस्य हैं, जो उसकी पसंद के मुताबिक हैं। ये लोग कौन हैं? तुम कह सकते हो कि वे खराब शैली में आचरण करते हैं और पुरुषों और महिलाओं के बीच स्पष्ट सीमाएँ नहीं रखते, लेकिन उन्होंने किसी निंदनीय व्यवहार का प्रदर्शन नहीं किया होता। कुछ लोग कह सकते हैं कि वे तो बस छिछोरे हैं। दूसरे शब्दों में, उनमें आत्म-सम्मान नहीं होता; तुच्छ लोगों को आत्मसम्मान का अंदाजा नहीं होता। कुछ लोग रोजमर्रा की जिंदगी में ये लक्षण प्रकट करते हैं, लेकिन इससे उनके कर्तव्यों का निष्पादन प्रभावित नहीं होता, और न ही यह उनके काम के पूरा होने को प्रभावित करता है, तो क्या यह वास्तव में कोई समस्या है? कुछ लोग कहते हैं : “अगर यह सत्य उनके अनुसरण में बाधा नहीं बनता, तो क्या इसके बारे में बात करने की कोई आवश्यकता है?” यह किससे संबंधित है? व्यक्ति की मानवता की लज्जा और गरिमा से। व्यक्ति की मानवता लज्जा और गरिमा से रहित नहीं हो सकती, और इनके बिना उसकी मानवता सामान्य मानवता नहीं हो सकती। कुछ लोग विश्वसनीय होते हैं और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें वे गंभीर और जिम्मेदार होते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं। उनके सामने कोई बड़ी समस्याएँ नहीं होतीं, लेकिन वे बस अपने जीवन के इस पहलू को गंभीरता से नहीं लेते। जब तुम विपरीत लिंग के किसी सदस्य के साथ छेड़खानी करते हो, तो वह रचनात्मक होता है या हानिकारक? क्या होगा अगर तुम जिससे छेड़खानी करते हो, वह तुमसे प्यार करने लगे? तुम कह सकते हो “मैं ऐसा तो नहीं चाहता था”; ठीक है, अगर तुम ऐसा नहीं चाहते लेकिन फिर भी किसी के साथ छेड़खानी करते हो, तो क्या तुम उसके साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? तुम उसे नुकसान पहुँचा रहे हो! नैतिक अर्थ में इसमें थोड़ी कमी है। ऐसा करने वाले लोग खराब चरित्र के होते हैं। इसके अलावा, अगर तुम इस संबंध को आगे बढ़ाने का इरादा नहीं रखते और इसके बारे में गंभीर नहीं हो, और फिर भी तुम विपरीत लिंग के व्यक्ति को देखकर अपनी भौंहें उठाते हो और उसे आँख मारते हो, और मस्ती और हास्य के साथ दिखावा करते हो, यह दिखाने के लिए कि तुम्हारा एक अलग अंदाज है और तुम आकर्षक या सुंदर हो—अगर तुम इस तरह दिखावा करते हो, तो तुम वास्तव में क्या कर रहे हो? (लोगों को फुसला रहे हो।) इसमें लुभाने का इरादा निहित है। तो अब इस तरह का लुभाने वाला व्यवहार अच्छा है या खराब? (यह खराब है।) इसमें कोई गरिमा नहीं बचती। इस दुनिया में किस प्रकार के लोग दूसरों को लुभाएँगे? वेश्याएँ, व्यभिचारिणी महिलाएँ, बदमाश—ये लोग शर्मिंदगी नहीं जानते। शर्मिंदगी न जानने का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ है कि वे अपमान के प्रति संवेदनहीन हैं। सत्यनिष्ठा, शर्मिंदगी, और सम्मान, और साथ ही गरिमा और प्रतिष्ठा—वे इनमें से किसी चीज की परवाह नहीं करते। इस तरह के लोग दिखावा करते हुए और इश्कबाजी करते हुए यहाँ-वहाँ घूमते रहते हैं। एक या दो लोगों के साथ इश्कबाजी करना उनके लिए काफी नहीं होता, और आठ-दस उनके लिए ज्यादा नहीं होते। उन्हें खुश करने के लिए हजारों लोग चाहिए। कुछ शादीशुदा महिलाओं के दो बच्चे हो चुके होते हैं, और घर से बाहर कोई भी इस बारे में नहीं जानता। वे लोगों को यह जानने क्यों नहीं देतीं? उन्हें डर होता है कि अगर वे यह बता देंगी कि वे शादीशुदा हैं और किसी के साथ जुड़ी हैं, तो उन्हें अपनी इश्कबाजी में फिर कामयाबी नहीं मिलेगी और वे अपनी सम्मोहकता और आकर्षण गँवा देंगी। इसीलिए वे इस बारे में खुल कर नहीं बतातीं। क्या ऐसे लोग अपमान के प्रति संवेदनहीन नहीं हैं? अगर किसी में ऐसी चीजें हों तो क्या उसकी मानवता सामान्य है? नहीं है। इसका निहितार्थ यह है कि यदि तुममें ऐसी मानवता और ऐसे व्यवहार हैं, तो तुममें सामान्य मानवता के लिहाज से कमी है; इसमें शर्मिंदगी और गरिमा का अभाव होता है। कुछ लोग विपरीत लिंग के आसपास आते ही अपने बाल सँवारने लगते हैं और कपड़े ठीक करने लगते हैं, या फिर वे लाली और पाउडर लगाने लगते हैं, खुद को सुंदर बनाने की भरसक कोशिश करते हैं। इसमें उनका लक्ष्य क्या होता है? उनका लक्ष्य लुभाना होता है। यह कुछ ऐसी चीज है जो सामान्य मानवता में नहीं होनी चाहिए। लोगों को इस तरह से लुभाने में सक्षम होना और कुछ भी महसूस न करना, यह सोचकर कि यह अत्यंत सामान्य और आम बात है, कि यह कोई बड़ी बात नहीं है, यह शर्मिंदगी की भावना का न होना है और यह भी न जानना है कि किसी को क्या करना चाहिए और क्या नहीं। ऐसे कुछ लोग हैं जो दस हजार युआन दिए जाने पर सड़क पर पूरी तरह नंगे होकर चलने को तैयार हो जाएँगे। वे किस प्रकार के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जिनमें शर्मिंदगी की भावना नहीं है। वे पैसे के लिए बिना शर्मिंदगी के कुछ भी कर लेंगे। उनके लिए सत्यनिष्ठा, चरित्र, शर्मिंदगी की भावना, और गरिमा के कोई मायने नहीं होते, और उनके लिए ये सब बेकार हैं। उन्हें लगता है कि दिखावा करने और दूसरों को लुभाने की उनकी क्षमता उनकी एक प्रतिभा है, और उन्हें एकमात्र आनंद ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को अपने पक्ष में करने और ज्यादा-से ज्यादा लोगों द्वारा अपना अनुसरण कराने से मिलता है। ऐसी महिला के लिए यह सबसे ऊँचा सम्मान होता है; वे इसी को सँजोती हैं। वे गरिमा, शर्मिंदगी की भावना या चरित्र जैसी चीजों को नहीं सँजोती। क्या यह अच्छी मानवता है? (नहीं।) क्या तुम लोगों ने ऐसे व्यवहार प्रदर्शित किए हैं? (हमने किए हैं।) तो फिर क्या तुम उन्हें नियंत्रण में रखने में सक्षम हो? क्या तुम उन्हें ज्यादातर समय नियंत्रण में रख पाते हो, या ऐसा बहुत कम बार ही कर पाते हो? क्या तुममें खुद को सीमित करने की क्षमता है? जो लोग खुद को सीमित कर सकते हैं, वे ऐसे लोग हैं जिनके दिल शर्मिंदगी को जानते हैं। प्रत्येक व्यक्ति आवेगशीलता और विघटन के क्षणों से गुजरता है, लेकिन जब खुद को सीमित कर सकने वाले लोगों में ये क्षण आते हैं तो उन्हें लगता है कि वे जो कर रहे हैं वह सही नहीं है, इससे उनका स्तर गिरता है, कि उन्हें तुरंत पलट जाना चाहिए, और उन्हें अब और ऐसा नहीं करना चाहिए। बाद में, जब फिर से उनका ऐसी चीज से सामना होता है, तो वे खुद पर काबू रखने में सक्षम होते हैं। अगर तुम्हारी मानवता में आत्म-संयम की इतनी-सी भी क्षमता नहीं है, तो सत्य का अभ्यास करने के लिए कहे जाने पर तुम किस चीज के विरुद्ध विद्रोह कर सकोगे? कुछ लोगों को सुंदर होने का सौभाग्य प्राप्त होता है, और वे लगातार विपरीत लिंग द्वारा अपना पीछा किया जाता हुआ पाते हैं; जितना अधिक लोग उनका पीछा करते हैं, उतना ही अधिक उन्हें लगता है कि वे दिखावा कर सकते हैं। क्या यह उनके लिए खतरनाक नहीं है? इस स्थिति में तुम्हें क्या करना चाहिए? (इस फंदे को पहचानना और इससे बचना चाहिए।) यह वास्तव में एक फंदा है, जिससे तुम्हें बचना चाहिए—अगर तुम इससे नहीं बचते, तो तुम बखूबी पाओगे कि किसी व्यक्ति ने तुम्हें फँसा लिया है। इससे पहले कि तुम फँस जाओ, तुम्हारा इस फंदे से बचना जरूरी है; इसे आत्म-संयम कहा जाता है। आत्म-संयम रखने वाले लोगों में शर्मिंदगी की भावना होती है और उनमें गरिमा होती है। जिन लोगों में यह नहीं होती, वे लुभाने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा बहला-फुसलाकर ले जाए जा सकते हैं; और जब भी कोई उनका पीछा करे तो उसका प्रलोभन ले सकते हैं, जो उन्हें मुसीबत में डाल सकता है। इसके अलावा, वे जान-बूझकर दिखावा करेंगे, सजेंगे-सँवरेंगे और ठाठदार लिबास पहनेंगे, और वे विशेष रूप से वो कपड़े पहनते हैं जिनसे वे और अधिक सुंदर, अधिक आकर्षक और मनोहर लग सकें, और वे उन्हें हर दिन पहनेंगे; यह उनके लिए खतरनाक है और यह दिखाता है कि वे जान-बूझकर दूसरों को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं। अगर तुम इन कपड़ों में बहुत आकर्षक, और मोहक लगते हो, तो तुम्हें अपने देह-सुख के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए और ऐसे कपड़े पहनना छोड़ देना चाहिए। अगर तुममें इस मामले में संकल्प है, तो तुम ऐसा कर सकते हो। किंतु अगर तुममें यह संकल्प नहीं है, और तुम एक साथी तलाशना चाहते हो, तो आगे बढ़ो और किसी को ढूँढ़ लो : दूसरे से छेड़छाड़ किए बिना एक-दूसरे के साथ सामान्य रूप से बातचीत करो। अगर तुम साथी की तलाश नहीं कर रहे हो, लेकिन फिर भी दूसरों से छेड़छाड़ करते हो, तो इसे केवल शर्मिंदगी की भावना का न होना ही कहा जा सकता है। तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि तुम क्या चुन रहे हो। क्या तुम लोग सिद्धांतों का पालन कर सकते हो? (हममें यह संकल्प है।) अगर तुममें यह संकल्प है, तो तुम्हारे पास ऊर्जा है, अभिप्रेरणा है, और तुम्हारे लिए इनका पालन करना आसान होगा। कुछ लोग प्रकृति से अनिवार्यतः सभ्य होते हैं, और इसके अलावा, परमेश्वर में आस्था पाने के बाद, वे सत्य का अनुसरण करते हैं और सही मार्ग अपनाते हैं; इसलिए उनमें स्वयं के लुभाए जाने की इच्छा नहीं होती, और कोई उनसे छेड़छाड़ करने की कोशिश करे, तो वे उसका जवाब नहीं देते। कुछ लोगों में इसकी काफी संभावना होती है, जबकि अन्य लोग इस पर कोई ध्यान नहीं देते; कुछ लोगों में यह संकल्प दिखता है, लेकिन वे खुद नहीं बता सकते कि वे वास्तव में ऐसा करते हैं या नहीं। विपरीत लिंग के साथ बातचीत करने का मामला लें, तो यह ऐसी चीज है जिससे तुम्हें सही ढंग से निपटना चाहिए, जिसे दोबारा जाँचना चाहिए, और जिसे सामान्य मानवता की गरिमा और शर्मिंदगी के अंश के रूप में पहचानना चाहिए। शर्मिंदगी की भावना का अभाव मानवता के अभाव से कैसे संबंधित होता है? यह कहना उचित है कि यदि किसी में शर्मिंदगी की भावना न हो, तो उसमें मानवता नहीं है। ऐसा क्यों होता है कि हरेक व्यक्ति जिसमें मानवता नहीं होती, वह सत्य से प्रेम नहीं करता। और हम ऐसा क्यों कहते हैं कि यदि किसी के पास मानवता है तो वह सत्य का अनुसरण कर सकता है। मुझे बताओ, जिन लोगों में शर्मिंदगी की भावना नहीं है क्या वे जानते हैं कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है? (नहीं।) तो, जब वे बुरे काम करते हैं, जिनसे परमेश्वर का प्रतिरोध होता है और उससे विश्वासघात होता है, और सत्य का उल्लंघन होता है, तो क्या वे आत्म-भर्त्सना महसूस करते हैं? (नहीं।) यदि उनका जमीर उन्हें फटकार न लगाए तो क्या वे सही मार्ग पर कदम रख सकते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? निर्लज्ज और बेशर्म लोग संवेदनहीन होते हैं; वे सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच और परमेश्वर किससे प्रेम करता है और किससे घृणा, उनमें स्पष्ट भेद नहीं कर सकते। इसलिए, जब परमेश्वर कहता है कि लोग ईमानदार हों, तो वे कहते हैं, “झूठ बोलने में क्या समस्या है? झूठ बोलना अपमानजनक नहीं होता!” जिस व्यक्ति में कोई शर्मिंदगी नहीं है क्या वही ऐसा नहीं कहेगा? यदि शर्मिंदगी की भावना वाला व्यक्ति ईमानदार होने में विफल रहे और सभी लोगों को उसका पता लग जाए, तो क्या वह शरमा नहीं जाएगा? क्या वह भीतर से बेचैन नहीं होगा? (बिल्कुल होगा।) और किसी बेशर्म इंसान का क्या? “ईमानदार इंसान होने के नाते दूसरे लोग क्या सोचते हैं, उनके लिए मेरा क्या मूल्य है, या वे मुझे कितना महत्व देते हैं—इनमें से किसी भी चीज का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है!” वे परवाह नहीं करते। फिर भी क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? यदि उनके झूठ बोलने के बाद तुम उनसे पूछो कि क्या वे दिल से परेशान हैं या क्या वे कोई आत्म-दोष महसूस करते हैं, तो वे कहेंगे, “सुकून से होने का क्या अर्थ है? आत्म-दोष क्या है? इसमें इतनी ज्यादा तकलीफ क्यों है?” उनमें ऐसी कोई जागरूकता नहीं होती। क्या ऐसी खराब समझ वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर का अनुसरण कर सकता है? क्या वह सत्य का अनुसरण कर सकता है? वह उसका अनुसरण नहीं करता। उसके लिए सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच, सत्य और उसका उल्लंघन करने वाली चीज के बीच कोई सीमाएँ नहीं होतीं—ये सभी एक-समान होते हैं। हर हाल में वे सोचते हैं कि यदि सभी लोग प्रयास करें, अपना कर्तव्य करें और कीमत चुकाएँ, तो ठीक होगा। वे इन चीजों में भेद नहीं कर सकते। जब उन्होंने ऐसा कोई काम किया हो जिससे परमेश्वर का प्रतिरोध होता है, जब उन्होंने कुछ ऐसा किया हो जिससे सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, जब उन्होंने कुछ ऐसा किया हो जिससे किसी के हितों को नुकसान पहुँचता हो, या जब उन्होंने कोई ऐसा काम किया हो जिससे कलीसिया का कार्य बाधित होता हो, तो उसके बाद वे आत्म-भर्त्सना महसूस नहीं करते। उन्हें जरा भी आत्म-भर्त्सना नहीं होती। इसमें क्या उनमें शर्मिंदगी की भावना का अभाव नहीं है? जिन लोगों में शर्मिंदगी की भावना नहीं होती, वे ऐसी चीजों के बारे में विवेकहीन होते हैं। उनके लिए यह उनकी मर्जी का काम करना है। कुछ भी चलता है; फैसले करने के लिए सत्य का उपयोग करने की कोई जरूरत नहीं होती। इसलिए, शर्मिंदगी की भावना से रहित लोगों के लिए सत्य को समझना या उसका अभ्यास करने का कोई तरीका नहीं होता। शर्मिंदगी की भावना न होने और मानवता से विहीन होने के बीच यही संबंध है। तो फिर तुम लोग यह बात क्यों नहीं कह पा रहे थे? तुम सभी लोग सोचते हो, “तुम जो उपदेश दे रहे हो, उसका सत्य से कोई ज्यादा सरोकार नहीं है; यह उससे बहुत दूर है। हम आम तौर पर इन चीजों को स्पष्ट देख पाने में सक्षम होते हैं, तो क्या अब भी उनके बारे में बोलने के लिए हमें तुम्हारी जरूरत है?” यदि तुम लोगों को लगता है कि इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, तो तुमने कितनी सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया है? क्या तुम लोग सामान्य मानवता को जी रहे हो? क्या तुम लोग वास्तव में ऐसे लोग बन गए हो जिनमें सत्य और मानवता है? तुम लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और इन चीजों का अंदाजा भी नहीं लगा सकते, तो तुममें क्या ही सत्य वास्तविकता हो सकती है?
परमेश्वर के घर के दस प्रशासनिक आदेशों में से एक कहता है : मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है और इसके अतिरिक्त, उसमें भावनाएँ हैं। इसलिए, परमेश्वर की सेवा के समय विपरीत लिंग के दो सदस्यों को अकेले एक साथ मिलकर काम करना पूरी तरह निषिद्ध है। जो भी ऐसा करते पाए जाते हैं, उन्हें बिना किसी अपवाद के निष्कासित कर दिया जाएगा। लोग इस प्रशासनिक आदेश को किस रूप में लेते हैं? यदि किसी व्यक्ति ने तीस से अधिक महिलाओं के साथ अनुचित संबंध बनाए, तो मुझे बताओ, जिन लोगों ने इस बारे में सुना होगा उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा? (वे विश्वास नहीं कर पाए होंगे।) यह सुनकर तुम हैरत में पड़ जाओगे; तुम्हें झटका लगेगा, “बाप रे, बहुत ज्यादा है! यह घिनौना है, है कि नहीं?” और जब उसने तुम्हें बताया होगा तो उस आदमी के मन में क्या भावना रही होगी? (उसका हाव-भाव कुछ ऐसा रहा होगा कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।) उसके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं रही होगी। उससे पूछो कि आज वह क्या खा रहा है : “चावल।” उससे पूछो वह कितनी औरतों के साथ रहा है : “तीस या ज्यादा।” ये दोनों बातें वह ठीक एक-जैसे लहजे और मानसिकता से कहेगा। क्या ऐसी मानवता वाले व्यक्ति का कोई उद्धार हो सकता है? नहीं हो सकता, भले ही वह परमेश्वर में विश्वास रखता हो। तपाक से ऐसा कुछ बोल देने के बाद उसे कैसे मालूम नहीं होता कि यह शर्मिंदगी की बात है? यह अपमानजनक बात है! तो फिर वह ऐसी बात यूँ ही कैसे बोल सका? मुझे बताओ, क्या उसमें शर्मिंदगी की कोई भावना बची है? नहीं, बिल्कुल नहीं बची। उसकी मानवता में जमीर का बोध पहले ही संवेदनहीन हो चुका है, और अब उसमें कोई अनुबोधन नहीं बचा है। यह महज ऐयाश होने का मामला नहीं है—शर्मिंदगी और गरिमा विहीन लोग मनुष्य नहीं रह जाते। बाहर से तो वे मनुष्य जैसे दिखाई देते हैं, लेकिन जैसे ही उन्हें कोई चीज सँभालनी होती है, उनकी मनुष्यता बिखर जाती है। वे बिना शर्मिंदगी के ज्ञान के कुछ भी करने में सक्षम होते हैं—और इसका अर्थ है कि वे अब मनुष्य नहीं होते। चलो इन मामलों पर अपनी बात को हम यहीं समाप्त करते हैं।
सामान्य मानवता के जिन तीन पहलुओं की आज हमने चर्चा की है, उन पर चिंतन-मनन करो—क्या वे महत्वपूर्ण हैं? क्या सामान्य मानवता में ये चीजें सत्य के अनुसरण से असंबद्ध हैं? (नहीं।) तो फिर उनका सत्य के अनुसरण से क्या लेना-देना है? यदि परमेश्वर के किसी विश्वासी की मानवता में बारीकी से देखने की सतर्कता, जिम्मेदारी की भावना और अपने कार्य-कलापों पर ध्यान देने की क्षमता नहीं है—यदि उसमें ऐसी मानवता नहीं है, तो परमेश्वर में अपने विश्वास और सत्य के अनुसरण में वह क्या हासिल कर सकता है? पिछले वर्षों के दौरान हमने अनेक सत्यों पर, प्रत्येक क्षेत्र के सत्यों पर संगति की है। यदि लोग एक ईमानदार मानसिकता के साथ इन सत्यों को अपने जीवन में उतार नहीं पाते या उनसे पेश नहीं आ पाते, हर चीज को लापरवाही से एक साथ जोड़कर कुछ भी ईमानदारी से नहीं करते, तो क्या वे इस तरह से सत्य की समझ हासिल कर सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं : “अगर मैं सत्य की समझ प्राप्त न कर पाऊँ, तो क्या मैं सिर्फ इन धर्म-सिद्धांतों और शब्दावलियों को याद नहीं रख सकता?” क्या अंततः तुम सत्य को इस तरह से प्राप्त कर पाओगे? यदि तुममें इस प्रकार की सामान्य मानवता नहीं है, और तुम्हारी मानवता के भीतर ये चीजें नहीं हैं, यानी चीजों के प्रति तुम्हारा ईमानदार, सतर्क, निष्ठावान और जिम्मेदार रवैया नहीं है, तो तुम्हारे लिए सत्य धर्म-सिद्धांतों और सूत्रवाक्यों में तब्दील हो जाता है—यह विनियमों में बदल जाता है। सत्य को समझने में अक्षम होने के कारण तुम सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसके परे, यदि तुम व्यक्तिगत जीवन के परिवेश, दिनचर्या और शैली का अच्छी तरह प्रबंधन नहीं कर पाते, तो क्या तुम सत्य से जुड़े विभिन्न सिद्धांतों और कहावतों में प्रवेश कर पाओगे? नहीं कर पाओगे। यही नहीं, लोगों को जीवन में सकारात्मक चीजों से प्रेम करना चाहिए, और नकारात्मक और दुष्ट चीजों के प्रति उन्हें अपने दिल की गहराई में घोर घृणा और तिरस्कार का रवैया बनाए रखना चाहिए। कुछ सत्यों में प्रवेश करने का यही एकमात्र रास्ता है। इसका अर्थ है कि सत्य के अपने अनुसरण में तुम्हें सही रवैया और सही मनोदशा रखनी चाहिए; तुम्हें नैतिक रूप से सच्चा और गंभीर व्यक्ति होना चाहिए। केवल ऐसे ही लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि किसी ने यह सोचकर कि यह कोई बड़ी बात नहीं है, कई दुष्ट कार्य किए हों, ऐसी कई चीजें की हों जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करती हैं और सत्य का उल्लंघन करती हैं, फिर भी उसमें शर्मिंदगी की भावना न हो, और वह दिल से संवेदनहीन और अनभिज्ञ रहे—तो फिर क्या सत्य उसके किसी काम का है? यह उसके लिए बिल्कुल किसी काम का नहीं है। सत्य उस पर कोई प्रभाव नहीं डालता, और उसे रोकने, फटकारने, मार्गदर्शन करने या उसे दिशा और रास्ता दिखाने में सक्षम नहीं होता, जिसका अर्थ है कि वह मुसीबत में है। बिना शर्मिंदगी की भावना के कोई व्यक्ति सत्य को कैसे समझ सकता है? किसी व्यक्ति को सत्य को समझने के लिए उसे पहले अपने दिल में सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। किसी नकारात्मक या दुष्ट चीज के जिक्र भर से या उसका सामना होने भर से उसे घृणा होती है, और यदि वह ऐसी चीज खुद करता है, तो वह शर्मिंदा और परेशान महसूस करता है। वह सत्य के प्रति प्रेम महसूस करता है और अपने दिल में सत्य को स्वीकार सकता है; वह खुद को सीमित करने के लिए इसका उपयोग कर सकता है और अपनी गलत दशाओं को पलट सकता है। क्या ये वे चीजें नहीं हैं जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए? (हाँ, हैं।) इन चीजों के होने से क्या किसी व्यक्ति के लिए सत्य का अनुसरण करना आसान नहीं हो जाता? और यदि किसी के पास इनमें से कुछ भी न हो, तो फिर सत्य का अनुसरण करने की बात करना बस थोथा चना बाजे घना जैसा है—हृदय में सकारात्मक चीजों की मौजूदगी के बिना वह ऐसा कैसे कर सकता है? जब तक तुम्हारी सामान्य मानवता में ये चीजें नहीं होंगी, तब तक सत्य तुम्हारे भीतर जड़ें नहीं जमा पाएगा, खिल नहीं पाएगा, और फल-फूल नहीं पाएगा—और तब तक यह कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगा। जब तुम सत्य को समझ लोगे, तब तुम अपनी सोच को बदलने, और अपने व्यवहार को सीमित करने में सक्षम हो पाओगे, और फिर तुम्हारे भ्रष्ट विचार लगातार कम होते जाएँगे। यही सच्चा बदलाव है।
सामान्य मानवता की जिन अभिव्यक्तियों पर आज हमने चर्चा की है, उनमें से कितनी तुम लोगों के पास हैं? कितनों का तुममें अभाव है? तुम लोगों के पास क्या है? (शर्मिंदगी की भावना।) शर्मिंदगी की भावना—यह अच्छी चीज है। तुममें कम-से-कम शर्मिंदगी की भावना तो होनी ही चाहिए। इसके अलावा और क्या? क्या लोगों, घटनाओं और चीजों को लेकर तुम सभी लोग ईमानदार, सतर्क मानसिकता और रवैया रखते हो? मैं देखता हूँ कि तुम लोग अपने हर काम में ढीले-ढाले हो, बस आलस और सुस्ती दिखाते रहते हो, और जब मैं उन चीजों को देखता हूँ जो तुम लोग करते हो, तो मेरे दिल में व्याकुलता बढ़ जाती है। क्या तुम लोग अपने आप इन समस्याओं का पता लगा सकते हो? इनका पता लगा लेने पर क्या तुम चिंतित होते हो? (हाँ।) किस तरह से? इसके बारे में बताओ। (अब जबकि मैंने अभी-अभी परमेश्वर की संगति सुनी है, मुझे लगता है कि मेरे पास ज्यादा मानवता नहीं है, और अपने कर्तव्य और अपने जीवन की घटनाओं के प्रति मेरी मानसिकता चंचल रही है। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों से बहुत ज्यादा दूर हूँ। यह थोड़ा डरावना है।) तुम्हारी मानवता में काफी अभाव हैं, ऐसा ही है न? तुम्हें लगता है कि तुमने परमेश्वर में अनेक वर्षों तक विश्वास रखा है, और बहुत-से सत्य सुने हैं, फिर भी तुममें मानवता की बिल्कुल बुनियादी चीजें भी नहीं हैं—तुम व्याकुल क्यों नहीं होगे? कुछ लोगों में थोड़ा तकनीकी कौशल होता है, लेकिन वे जो कुछ भी करते हैं, वह घटिया होता है। यह सब निचले दर्जे का होता है, मानक के स्तर का नहीं होता, और वे उन्नत और मानक तरीकों पर गौर नहीं करते। क्या यह उनकी पिछड़ी हुई मानसिकता नहीं है? उदाहरण के लिए, ऐसे एक व्यक्ति से एक बार एक दरवाजा लगाने को कहा गया और उसने कहा : “मैं जिस जगह का हूँ, वहाँ हमारे ज्यादातर दरवाजे एकल पाट वाले होते हैं।” वह जिस छोटी जगह से आया है, उससे मानक तय नहीं होता। उसे चाहिए कि बड़े शहरों की व्यावसायिक और रिहायशी इमारतों के दरवाजों की शैली को देखे, और तब स्थिति की वास्तविकता के आधार पर अपना काम करे। फिर भी यहाँ उसने मुँह खोला और कहा : “हम अपने घरों में दो पाटों वाले दरवाजे नहीं बनाते, और यहाँ बहुत ज्यादा लोग भी नहीं हैं। वैसे ज्यादा लोग होते भी तो भी कोई बड़ी बात नहीं होती—वे बस किसी तरह घुस सकते हैं।” किसी और ने कहा : “अगर लोग लंबे समय तक इस तरह घुसते रहे, तो चौखट टूट जाएगी। चलो, इस बारे में बात करते हैं। इस बार अपवाद के तौर पर दोतरफा दरवाजा बना दो, ठीक है?” फिर उसने कहा : “नहीं! मैं एकल पाट के दरवाजे बनाता हूँ; मैं दो पाटों वाले दरवाजे नहीं बना सकता। इसे कैसे बनाना है यह मैं जानता हूँ या तुम? मैं जानता हूँ—तो इस बारे में तुम मेरी बात क्यों नहीं सुनते? तुम्हें मेरी बात सुननी पड़ेगी!” उससे स्थिति के अनुसार काम करने को कहा गया था, लेकिन उसने बात नहीं सुनी और एक छोटा दरवाजा बनाने पर अड़ा रहा। क्या यह एक झंझट नहीं है? जब उससे रोशनी अंदर आने देने और जगह को छोटा न लगने देने के लिए बाहरी और भीतरी हिस्से के बीच काँच का विभाजक लगाने को कहा गया, तो वह बोला, “काँच क्यों लगाएँ? यह सुरक्षा जोखिम होगा, है कि नहीं? मैं काँच नहीं लगा रहा हूँ; ये दोनों दरवाजे ही ठीक रहेंगे। मैं जहाँ का रहने वाला हूँ वहाँ हम एकमात्र इसी तरह के दरवाजे का उपयोग करते हैं।” ऐसे लोग दूसरों को दबाने के लिए हमेशा ऐसी बातें कहते हैं, जैसे “मैं जहाँ का रहने वाला हूँ,” “मेरे घर पर,” “मैंने तकनीकी चीजें पढ़ी हैं।” क्या वे चीजें सत्य हैं? (वे सत्य नहीं हैं।) बाहरी चीजों के प्रति ऐसा रवैया अपनाने के लिए उनकी मानवता में किस चीज की कमी होगी? तार्किकता। और उनकी तार्किकता में विशेष तौर पर कैसी चीज की कमी होगी? अंतर्दृष्टि की। उन्हें हमेशा लगता है कि वे जहाँ के रहने वाले हैं, वहाँ की हर चीज सही है, सबसे ऊँचे स्तर की है और पूर्ण सत्य है। क्या उनकी तार्किकता कमजोर नहीं है? सामान्य तार्किकता कैसी नजर आनी चाहिए? सामान्य तार्किकता होने पर वे कहेंगे, “मैं इतने वर्षों से इस व्यापार में हूँ, लेकिन मैंने ज्यादा कुछ नहीं देखा है। मैं जिस जगह का रहने वाला हूँ वहाँ हम इसी तरह से दरवाजे बनाते हैं, तो चलो देखते हैं यहाँ के दरवाजे कितने बड़े हैं। हम यहाँ के लोगों के हिसाब से चलेंगे। यह एक अलग जगह है, और इस काम में मुझे लचीला होना चाहिए।” क्या यह तार्किकता नहीं है? (हाँ, है।) तो फिर क्या इस व्यक्ति के पास ऐसी तार्किकता है? नहीं—उसमें कोई समझ नहीं है। और अंत में इससे कैसे निपटा गया? वह काम फिर से करना पड़ा। क्या कोई काम दोबारा करने से नुकसान नहीं होता? (होता है।) हाँ, इससे नुकसान होता है। क्या ऐसे मामलों के अनेक उदाहरण हैं? जरूर हैं। वह व्यक्ति पूरी तरह से अड़ियल है। वह कितना अड़ियल है? उसने किसी की बात नहीं सुनी; उसने मेरी बात भी नहीं सुनी, और उसने मेरा खंडन भी किया। मैंने कहा, “तुम्हें बदलना होगा। वरना यह काम तुम्हारे लिए नहीं है।” और उसने यह कहने की हिम्मत की, “तुम्हें मेरी जरूरत न भी हो, तो भी मैं इसी आकार का दरवाजा बनाऊँगा!” यह कैसा स्वभाव है? क्या यह सामान्य मानवता है? (नहीं।) यह सामान्य मानवता नहीं है—तो फिर यह कैसी मानवता है? मेरी दृष्टि में वह थोड़ा जानवर जैसा है। ठीक वैसे ही जैसे जब कोई बैल प्यासा होता है : चाहे वह गाड़ी में जितना भी सामान या जितने भी लोगों को ले जा रहा हो, जैसे ही उसे कोई छोटा-सा तालाब या नदी दिखती है, वह गाड़ी को सीधे वहीं खींच ले जाता है। चाहे जितने भी ज्यादा लोग लग जाएँ उसे वहाँ से नहीं खींच सकते। हम जिसकी बात कर रहे हैं वह एक जानवर है। क्या लोगों का स्वभाव भी इसी प्रकार का होता है? जब उनका स्वभाव ऐसा होता है, तो यह सामान्य मानवता नहीं है, और यह खतरनाक है। वे तुम्हें नकारने और तुम्हारी बात न सुनने का बहाना ढूँढ़ ही लेंगे। वे इतने अधिक जिद्दी और बेवकूफ हैं। दैनिक जीवन में ऐसे मामलों में यदि तुम्हारा रवैया विनम्र स्वीकृति का नहीं है, दूसरों की राय को लेकर ग्रहणशील नहीं हो, यदि तुम अध्ययन करने का रवैया नहीं रखते, तो तुम सत्य को स्वीकार करने में सक्षम कैसे हो पाओगे? तुम इसका अभ्यास करने में सक्षम कैसे हो पाओगे? सभी लोग कहते हैं कि दो पाट का दरवाजा बनाना अधिक उपयुक्त है। तुम यह भी नहीं कर सकते, और यह सत्य का अभ्यास करने के बिल्कुल भी करीब नहीं है—तुम एक अच्छा सुझाव सुनोगे भी नहीं। क्या तुम ऐसी कोई बात सुन पाओगे जो सत्य को छूती हो। तुम हमेशा की तरह नहीं सुनोगे। वह ऐसे व्यक्ति तक नहीं पहुँचती जिसका स्वभाव ऐसा हो, और इसका अर्थ है उनके लिए बड़ी मुसीबत। यदि किसी की मानवता में ऐसी समझ भी नहीं है, तो वह किस सत्य का अभ्यास कर सकता है? वह हर दिन इतना व्यस्त रह कर किसके लिए काम करता है? वह ये काम पूरी तरह से अपनी पसंद और अपनी स्वार्थी इच्छाओं के अनुसार करता है। हर दिन वह अपने दैनिक जीवन में अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति ऐसा नजरिया रखता है : “मैं जो चाहता हूँ वही करूँगा, मैं जो सोचता हूँ वही करूँगा, मैं जैसा मानता हूँ वैसा ही करूँगा।” इसे क्या कहा जाता है? वह दिन भर जो सोचता है, वह पूरी तरह से बुरा ही होता है। और यदि वह दिल से इतना बुरा है, तो उसके क्रिया-कलापों के बारे में क्या ही कहा जाए? क्या ऐसा कोई व्यक्ति है जिसके सभी विचार बुरे हैं, मगर फिर भी उसके सभी क्रिया-कलाप सत्य से मेल खाते हों? यह सही नहीं है—यह एक विरोधाभास होगा। उसके सभी विचार बुरे हैं, और जहाँ से शुरू करता है वह पूरी तरह बुरा है, इसलिए वह जो काम करेगा उसे कम-से-कम याद नहीं रखा जाएगा। और जिन चीजों को याद नहीं रखा जाता, उनमें से कुछ गड़बड़ियाँ और बाधाएँ होती हैं, कुछ विनाशकारी होती हैं, जबकि दूसरी इतनी खराब नहीं होतीं। यदि इन चीजों को गंभीरता से लिया जाता, तो उसकी निंदा की जाती। इसी तरह चलता है।
कुछ लोगों में एक प्रकार का गलत दृष्टिकोण होता है, जो दूसरों को काफी घृणित लगता है। इन लोगों में कुछ गुण या खूबियाँ होती हैं, या कोई कला, कोई सक्षमता या किसी क्षेत्र में कोई विशेष योग्यता होती है, और परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद वे खुद को असाधारण लोग समझने लगते हैं। क्या यह रवैया सही है? तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह ऐसी चीज है जो सामान्य मानवता की सोच से जुड़ी है? नहीं। फिर यह किस प्रकार का विचार है? क्या इसमें समझ का अभाव नहीं है? (हाँ, है।) वे मानते हैं, “इस कला को जानने के कारण मैं साधारण लोगों से ऊँचा हूँ, और परमेश्वर के घर में मैं औसत व्यक्ति से बेहतर हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मेरे पास शिल्प कौशल और योग्यता है, और मैं एक अच्छा वक्ता और प्रतिभाशाली हूँ। परमेश्वर के घर में मैं एक बड़ी हस्ती हूँ। मैं अत्यंत आकर्षक हूँ। कोई भी मुझे आदेश नहीं दे सकता, कोई मेरी अगुआई नहीं कर सकता, और कोई भी मुझे कुछ करने की आज्ञा नहीं दे सकता। मुझमें यह कौशल है, इसलिए मैं जो चाहूँगा वही करूँगा। मुझे सिद्धांतों के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है—मैं जो भी करता हूँ वह सही होता है और सत्य के अनुरूप होता है।” इस दृष्टिकोण के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या इस प्रकार के लोग नहीं होते? ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, और वे परमेश्वर के घर में अपनी शान बघारने आते हैं। यदि वे अपनी क्षमताओं या कौशलों का उपयोग परमेश्वर के घर में किसी कर्तव्य को करने के लिए करते, तो अच्छा होता, लेकिन अगर वे शान बघारने निकलते हैं, तो यह एक अलग प्रकृति की समस्या है। इसे “अपनी शान बघारना” क्यों कहा जाता है? वे परमेश्वर के विश्वासियों को बेवकूफ और तुच्छ समझते हैं। क्या उनकी सोच में कुछ गड़बड़ नहीं है? क्या उनकी तार्किकता थोड़ी गलत नहीं हो गई है? क्या चीजें वास्तव में ऐसी ही हैं? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग सच में बेकार होते हैं? (नहीं।) तो फिर वे लोग उन्हें ऐसा क्यों समझते हैं? उनके मन में ऐसा विचार कैसे आया होगा? ऐसा विचार किससे उत्पन्न होता है? क्या वे इसे गैर-विश्वासियों से सीखते हैं? वे सोचते हैं कि परमेश्वर के विश्वासी तुच्छ हैं, कि वे सभी गृहिणियाँ और गृहपति हैं, कि वे सभी किसान हैं, और यह कि वे समाज के निचले तबके से हैं। उनका दृष्टिकोण बड़े लाल अजगर वाला है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग निकम्मे हैं, कि वे समाज में अपना रास्ता नहीं बना पाए, कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखना इसलिए शुरू किया क्योंकि उनके लिए कोई रास्ता नहीं था, किसी के पास जाने की कोई जगह नहीं थी। वे सोचते हैं कि चूँकि उनके पास थोड़ी योग्यता है, वे किसी पेशे के बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं, या उन्हें थोड़ी तकनीकी जानकारी है, वह उन्हें परमेश्वर के घर में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति बनाता है। क्या यह विचार सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? वे मानते हैं कि परमेश्वर के घर में कोई सक्षम लोग नहीं हैं, और अपनी थोड़ी-सी पेशेवर जानकारी से वे सत्ता चलाना चाहते हैं और चाहते हैं कि चीजों के बारे में उनका फैसला अंतिम हो। क्या ऐसे लोग होते हैं? क्या तुम लोगों के अलावा या तुम्हारी जान-पहचान के लोगों के बीच ऐसे लोग हैं? ऐसे बहुत-से लोग हैं जो किसी क्षेत्र में कुशल हैं, और जब तुम उनसे टीम अगुआ या पर्यवेक्षक के तौर पर कार्य करवाते हो, तो उन्हें लगता है कि उन्होंने एक आधिकारिक पद पा लिया है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में उनका फैसला अंतिम है, परमेश्वर के घर के हितों की देखरेख उन जैसी कोई नहीं करता या उसके हितों की रक्षा उनसे ज्यादा कोई नहीं करता, और कोई भी उन जैसा वफादार नहीं है। वे सभी चीजों का प्रबंधन कर उनमें भाग लेना चाहते हैं, लेकिन वे किसी भी चीज का प्रबंधन अच्छे से नहीं करते, न ही वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं। यहाँ तक कि वे मेरी बात भी नहीं सुनते हैं। क्या ऐसे लोग होते हैं? (हाँ, होते हैं।) ऐसे लोग होते हैं। अपने भीतर मौजूद किसी खास कौशल के नाम पर वे सभी का प्रबंधन करना चाहते हैं, और पद पर बने रहना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ भाई-बहन ऐसा कोई काम करते हैं जो उन्हें पसंद न हो, तो वे कहेंगे : “हमें इन लोगों पर लगाम कसने की जरूरत है—वे उपद्रवी हैं!” जब परमेश्वर के विश्वासियों के सामने कोई समस्या आती है, तो उनसे सत्य पर संगति की जानी चाहिए। यह कोई सैन्य शिविर नहीं है, जहाँ सैन्य नियंत्रण का अभ्यास किया जाना चाहिए। कलीसिया के मामलों में, परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करके और लोगों को सत्य समझाकर ही समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते और मनमाने और सनकी ढंग से कार्य करते हैं उनकी काट-छाँट की जानी चाहिए—जो लोग सत्य को स्वीकार न करने पर अड़े हुए हों, सिर्फ उन्हीं लोगों को अनुशासित किया जा सकता है। ऐसे कुछ लोग होते हैं जिन्होंने पर्यवेक्षकों या अगुआओं और कार्यकर्ताओं के तौर पर कार्य किया है, और जिनके पास साफ तौर पर सत्य वास्तविकता नहीं है, मगर फिर भी परमेश्वर के घर में हमेशा सत्ता चलाना चाहते हैं, और चाहते हैं कि उनका फैसला ही अंतिम हो। क्या इन लोगों में जमीर अंतरात्मा और विवेक होता है? वे सिर्फ कारोबार की कुछ तरकीबें जानते हैं और सत्य को जरा भी नहीं समझते। वे यह सोचकर खुद को उपयोगी और काबिल मानते हैं कि वे परमेश्वर के घर के औसत व्यक्ति से बेहतर हैं, और वे चाहते हैं कि कलीसिया में सत्ताधारी होकर अपनी मनमानी करें—एकल और अंतिम फैसला लें। वे सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते बल्कि अपनी इच्छा के अनुसार, अपनी पसंद के अनुसार कार्य करना चाहते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या यह मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? क्या इस प्रकार के लोगों में सामान्य मानवता वाली समझ होती है? उनमें इसका लेशमात्र भी नहीं होता। सामान्य मानवता पर अपनी संगति को हम यहीं समाप्त करेंगे।
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