मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो) खंड दो
ख. लोगों द्वारा अपने व्यक्तिगत परिवेश का प्रबंधन
दूसरी मद : लोगों द्वारा दैनिक जीवन में अपने व्यक्तिगत परिवेश का प्रबंधन। सामान्य मानवता का कौन-सा क्षेत्र इस मद के साथ जुड़ा हुआ है? (किसी के जीने के परिवेश से।) और इसमें क्या शामिल है? इसमें मुख्य रूप से दो व्यापक क्षेत्र शामिल हैं : व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है वह उसके व्यक्तिगत जीवन और जिन सार्वजनिक परिवेशों के संपर्क में वह आता है, वहीं तक फैला होता है। और इन दो व्यापक क्षेत्रों में विशेष तौर पर क्या शामिल होता है? व्यक्ति की जीवनशैली, और साथ ही स्वच्छता और परिवेश का उसका प्रबंधन। इसे और बारीकी से देखें, तो किसी की जीवनशैली में क्या शामिल होता है? काम और आराम, आहार, रोजमर्रा में अपने स्वास्थ्य का संरक्षण और दैनिक जीवन के बारे में सामान्य ज्ञान जैसी चीजें। हम पहली चीज, काम और आराम, से शुरू करेंगे। उन्हें नियमित और नियत तरीके से किया जाना चाहिए। विशेष परिस्थितियों, जैसे जब किसी को काम के कारण देर तक जागना पड़ता हो या अधिक समय तक काम करना पड़ता हो, उसके बाहर काम और आराम ज्यादातर नियमित और नियत होना चाहिए। यही सही तरीका है। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो रात में जागना पसंद करते हैं। वे रात को सोते नहीं हैं, बल्कि खुद को तमाम चीजों में व्यस्त रखते हैं। वे तब तक सोने नहीं जाते जब तक दूसरे सुबह जल्दी जाग कर अपना काम शुरू नहीं कर देते, और जब दूसरे रात में सोने जाते हैं, तब वे उठकर काम शुरू करते हैं। क्या ऐसे लोग नहीं होते? हमेशा दूसरों से तालमेल बिठाने में असमर्थ, हमेशा विशेष बने रहने वाले—ऐसे लोग ज्यादा तर्कशील नहीं होते। विशेष मामलों को छोड़ दें, तो सामान्य परिस्थितियों में सभी के लय-ताल मूल रूप से मिले हुए होने चाहिए। अगला क्या है? (आहार।) सामान्य मानवता की आहार संबंधी जरूरतों को हासिल करना आसान है, है कि नहीं? (हाँ।) यह आसान है। लेकिन क्या लोगों में आहार को लेकर कुछ भ्रांतिपूर्ण नजरिए नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं, “हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और सब-कुछ उसके हाथ में है। ऐसा कुछ खाना संभव ही नहीं है कि किसी के पेट को हानि पहुँचे। हमें जो भी पसंद हो वह हम अपनी मर्जी से खुलकर खाएँगे। परमेश्वर हमारी रक्षा करता है, इसलिए यह कोई मुद्दा है ही नहीं।” क्या ऐसी समझ वाले लोग नहीं होते? इस बात में क्या कुछ थोड़ा विकृत नहीं है? इस प्रकार की समझ असामान्य होती है; ऐसी समझ वाले अपनी सोच में सामान्य नहीं होते। कुछ दूसरे लोग भी होते हैं, जो जीवन के सामान्य, व्यावहारिक ज्ञान को देह-सुख के लिए विचारशीलता दिखाने के साथ मिला देते हैं। वे मानते हैं कि जीने के लिए व्यावहारिक ज्ञान पर ध्यान देना देह-सुख पर ध्यान देना है। क्या ऐसा मानने वाले लोग नहीं होते? (बिल्कुल होते हैं।) उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को पेट की तकलीफें होती हैं और वे मसालेदार, उत्तेजक चीजें नहीं खाते। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो उनसे कहते हैं, “यह तुम्हारी आहार संबंधी पसंद है; तुम देह-सुख पर ध्यान दे रहे हो। तुम्हें उससे विद्रोह करना चाहिए। तुम जिन जगहों में जाओगे, वहाँ वही खाना मिलता है, और तुम्हें यही खाना पड़ेगा। कैसे नहीं खाओगे?” क्या ऐसी समझ वाले लोग नहीं हैं? (हाँ, हैं।) कुछ लोग कोई खास चीज नहीं खा सकते, फिर भी वही खाने पर जोर देते हैं, तकलीफ झेलते हैं, ताकि वे देह से विद्रोह कर सकें। मैं कहता हूँ, “अगर तुम न खाना चाहो, तो तुम्हें यह न खाने की इजाजत है। तुम नहीं खाओगे तो कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा।” वे कहते हैं, “नहीं, मुझे खाना है!” उस स्थिति में वे तकलीफ के लायक हैं। यह परेशानी उन्होंने खुद मोल ली है। वे अपने लिए विनियम खुद तय करते हैं, इसलिए उन्हें ही इनको बनाए रखना होगा। तो क्या उस चीज को न खाना गलत होगा? (नहीं।) गलत नहीं होगा। स्वास्थ्य की कुछ खास स्थितियों के कारण दूसरे कुछ लोगों को खाने की कुछ चीजों से एलर्जी होती है। उन्हें इन चीजों से बचना चाहिए और उन्हें नहीं खाना चाहिए। कुछ लोगों को काली मिर्च से एलर्जी होती है, और इसलिए उन्हें यह नहीं खानी चाहिए, फिर भी वे इसे खाने पर जोर देते हैं। वे उसे इस यकीन के साथ खाते रहते हैं कि देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करने का यही अर्थ है। क्या यह विकृत समझ नहीं है? बिल्कुल है। यदि वे किसी खास चीज को खाने योग्य स्वस्थ नहीं हैं, तो उन्हें नहीं खाना चाहिए। वे किस चीज के लिए अपनी देह से लड़ रहे हैं? क्या यह उनकी लापरवाही नहीं है? (हाँ, है।) उस विनियम पर कायम रहने की कोई जरूरत नहीं है, न ही अपनी देह के खिलाफ इस तरह से विद्रोह करने की जरूरत है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी शारीरिक अवस्था होती है : कुछ का पेट खराब होता है; कुछ के दिल कमजोर होते हैं; कुछ की आँखें कमजोर होती हैं; कुछ को पसीना ज्यादा आता है; कुछ लोगों को कभी पसीना नहीं आता। प्रत्येक व्यक्ति की अवस्था भिन्न होती है; तुम्हें अपनी अवस्था के हिसाब से समायोजन करना चाहिए। एक एकल वाक्य इन मामलों के बारे में बता सकता है : जीवन में थोड़ा व्यावहारिक ज्ञान सीखो। यहाँ “व्यावहारिक ज्ञान” का मतलब क्या है? इसका अर्थ है कि तुम्हें जानना चाहिए कि कौन-सी चीज तुम्हारे खाने के लिए नुकसानदेह है और कौन-सी चीज तुम्हारे खाने के लिए अच्छी है। यदि किसी चीज का स्वाद अच्छा नहीं है, मगर वह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए अच्छी है, तो तुम्हें अपने स्वास्थ्य की खातिर वह चीज खानी चाहिए; यदि कोई चीज स्वादिष्ट है, लेकिन इसे खाकर तुम बीमार पड़ जाते हो, तो उसे मत खाओ। यह व्यावहारिक ज्ञान है। इससे आगे देखें, तो लोगों को स्वस्थ रहने के कुछ व्यावहारिक ज्ञान वाले तरीके भी जानने चाहिए। वर्ष के चार मौसमों के दौरान समय, जलवायु और मौसम को फैसला करने दो कि तुम्हें क्या खाना चाहिए—यह एक प्रमुख सिद्धांत है। अपने शरीर से मत लड़ो—सामान्य मानवता वाले लोगों को यह विचार और समझ रखनी चाहिए। कुछ लोगों को आंत्रशोथ होता है, और उत्तेजक खाना खाने पर उन्हें दस्त होने लगते हैं। इसलिए वे चीजें मत खाओ। फिर भी कुछ लोग कहते हैं, “मैं नहीं डरता। परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है,” और नतीजतन खाने के बाद वे दस्त का शिकार हो जाते हैं। वे यहाँ तक कहते हैं कि परमेश्वर ही उनका परीक्षण कर उनका शोधन कर रहा है। क्या वे बेतुके लोग नहीं हैं? यदि वे बेतुके नहीं हैं, तो वे भयानक भुक्खड़ लोग हैं जो नतीजों की परवाह किए बिना खाते जाते हैं। ऐसे लोगों को अनेक समस्याएँ होती हैं। वे अपनी भूख पर नियंत्रण नहीं कर सकते, मगर कहते हैं, “मैं नहीं डरता। परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है!” इस समस्या की उनकी समझ कैसी है? यह विकृत है; वे सत्य को नहीं समझते, फिर भी आँख मूँद कर उसका प्रयोग करने की कोशिश करते हैं। उन्हें आंत्रशोथ होने पर भी वे बिना सोचे-समझे खाते जाते हैं, और नतीजतन जब उन्हें दस्त होते हैं, तो उनका यह कहना कि परमेश्वर उनका परीक्षण कर शोधन कर रहा है—क्या यह विनियमों को आँख मूँद कर लागू करना नहीं है? ऐसे बेतुके व्यक्ति का यों अनाप-शनाप बोलना—क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? क्या ऐसे हास्यास्पद व्यक्ति के भीतर पवित्र आत्मा कार्य करेगा? (नहीं।) यदि तुम सत्य को नहीं समझते, तो तुम्हें चीजों पर आँखें मूँद कर विनियमों को लागू नहीं करना चाहिए। क्या परमेश्वर किसी व्यक्ति पर अंधाधुंध परीक्षण करेगा? निश्चित रूप से नहीं। तुम तो इसके लिए योग्य भी नहीं हो; तुम्हारा आध्यात्मिक कद वैसा नहीं है—और इसलिए परमेश्वर तुम्हें परीक्षणों से नहीं गुजारेगा। जो व्यक्ति नहीं जानता कि खाने की कौन-सी चीजें उसे बीमार बना सकती हैं, वह निर्बल बुद्धि वाला मूर्ख है। क्या वे लोग जिनकी तार्किकता और बुद्धि निर्बल है, वे परमेश्वर के इरादे समझ सकते हैं? क्या वे सत्य को समझ सकते हैं? (नहीं।) तो फिर क्या परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को परीक्षणों से गुजारेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। समझ का अभाव होना और अनाप-शनाप बातें बोलना इसी को कहते हैं। परमेश्वर द्वारा लोगों पर परीक्षण करने के सिद्धांत होते हैं; ये उन लोगों की ओर निर्देशित होते हैं, जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, ऐसे लोगों की ओर जिनका परमेश्वर उपयोग करेगा और जो उसके लिए गवाही दे सकें। वह सच्ची आस्था वाले लोगों का परीक्षण करता है, जो उसका अनुसरण कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं। कोई भी व्यक्ति जो केवल आराम और आनंद खोजता है और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करता, और निश्चित रूप से जो चीजों के प्रति विकृत आशंका पालता है, उसके भीतर पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होता। ऐसी स्थिति में क्या परमेश्वर उनका परीक्षण करेगा? यह बिल्कुल असंभव है।
कुछ लोगों को चीनी जड़ी-बूटियों वाली दवाएँ या स्वास्थ्यवर्धक खाद्यपदार्थ सुलभ होते हैं, जिनका वे बेहूदा ढंग से सेवन करते हैं। कुछ महिलाएँ अपने चेहरे पर अक्सर ऐसी चीजों का लेप लगाती हैं जो उनकी त्वचा की रक्षा करती हैं, जो उसे गोरापन और कसाव देती हैं। वे हर दिन मेक-अप करने में दो घंटे और उसे उतारने में तीन घंटे लगा देती हैं और अंत में अपनी त्वचा को इतना बरबाद कर देती हैं कि पहचान में भी नहीं आती हैं। वे यह भी कहती हैं, “उम्र के साथ सौंदर्य ढलने के कुदरती विधान पर कोई विजय नहीं पा सकता—जरा मेरी इस ढलती त्वचा को ही देखो!” तथ्य यह है कि अगर वे अपने चेहरों के साथ छेड़छाड़ न करतीं तो वे इतनी बूढ़ी नहीं दिखतीं—उन उत्पादों के लेपन ने ही उन्हें बूढ़ा बना दिया। तुम इससे क्या समझते हो? (उन्होंने अपने लिए खुद आफत बुलाई है।) उनके साथ सही हुआ! सामान्य मानवता में रहने का कुछ व्यावहारिक ज्ञान होता है और व्यक्ति को इसकी समझ होनी चाहिए, जैसे कि अपने स्वास्थ्य की रक्षा और बीमारियों से बचने का सामान्य ज्ञान : उदाहरण के लिए, पाँव ठंडे हों तो पीठ दर्द हो सकता है या शुरुआती दूरदृष्टि दोष का इलाज कैसे करना चाहिए या कंप्यूटर पर बहुत लंबे समय तक बैठने के क्या नुकसान हैं। व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य को लेकर ऐसी व्यावहारिक ज्ञान वाली देखभाल के बारे में थोड़ी समझ होनी चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए तुम्हें केवल उसके वचन ही पढ़ने चाहिए। अपने स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़ा इतना सारा व्यावहारिक ज्ञान सीखने का क्या फायदा है? इंसान का जीवनकाल परमेश्वर द्वारा नियत किया जाता है; स्वास्थ्य देखभाल का जितना भी ज्ञान हो, इसका कोई फायदा नहीं होने वाला। जब तुम्हारी मृत्यु का समय आएगा, तो तुम्हें कोई भी नहीं बचा सकेगा।” यह बात देखने में तो सही लगती है, लेकिन असल में यह थोड़ी बेतुकी है। यह ऐसी बात है जो कोई आध्यात्मिक समझ न रखने वाला ही बोलेगा। ऐसे लोग घिसे-पिटे शब्द और धर्म-सिद्धांत धड़ल्ले से बोलना सीख लेते हैं और आध्यात्मिक लगते हैं, जबकि दरअसल, उन्हें कतई कोई शुद्ध समझ नहीं होती। अपने साथ कुछ घटने पर वे आँख मूँद कर विनियम लागू करने की कोशिश करते हैं, सत्य का अभ्यास किए बिना भरसक बढ़िया बोलते हैं। जैसे, हो सकता है कुछ लोग उन्हें बताएँ कि मक्के का दलिया पौष्टिक होता है और यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। यह बात वे सुनना ही नहीं चाहते। लेकिन जैसे ही वे किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि ब्रेज्ड पोर्क स्वास्थ्यवर्धक है, तो अगली बार उस पर नजर पड़ते ही वे उसे भरपेट खा लेंगे और उसे चबाते हुए बोलेंगे, “मैं क्या करूँ? मुझे यह खाना ही पड़ेगा; मेरी सेहत का सवाल है!” क्या ऐसा कहना धूर्तता नहीं है? (हाँ, है।) यह धूर्तता है। वह चीज होना जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होनी चाहिए, वह बात जानना जो लोगों को जाननी चाहिए, वह चीज जानना जो तुम्हारी उम्र के मुताबिक जीवन के चरण में जाननी चाहिए—यही सामान्य मानवता का होना है। अपनी उम्र के बीस के दशक में कुछ लोग बिना सोचे-समझे खाते हैं। कंपकंपाती सर्दी के दिन वे बर्फ के टुकड़े खाते हैं। यह देखकर उनके बड़े-बुजुर्ग डर जाते हैं और उन्हें यह कहकर रुकने का आग्रह करते हैं कि उन्हें पेट दर्द हो जाएगा। “पेट में दर्द? मुझे कुछ नहीं होने वाला,” वे कहते हैं, “मुझे देखो : मेरी शारीरिक अवस्था सर्वोत्तम है!” इस उम्र में वे ऐसी चीजों के बारे में नहीं जानते। उनके चालीस का होने की प्रतीक्षा करो; तब उन्हें खाने के लिए बर्फ का टुकड़ा दो। क्या वे उसे खाएँगे? (नहीं।) और जब वे साठ के हो जाएँ, तो बर्फ खाने के बारे में भूल ही जाएँ—वे उसके पास आने से भी डरेंगे। उसकी ठंडक इतनी ज्यादा होगी कि उनका शरीर इसे सहन नहीं कर पाएगा। इसे अनुभव कहा जाता है—जीवन के सबक सीखना। अगर कोई साठ साल का व्यक्ति भी यह न जाने कि उसका पेट ढेर सारे बर्फ के टुकड़ों से नहीं निपट सकता, उसका शरीर उन्हें सहन नहीं कर सकता, इससे वे बीमार पड़ जाएँगे, तो इसे क्या कहा जाता है? क्या उनमें सामान्य मानवता की कमी है? उनमें जिए हुए अनुभव की कमी है। अगर कोई साठ साल का होकर भी यह नहीं जानता कि सर्दी उसकी पीठ के लिए ठीक नहीं है, सर्द पाँव पीठ दर्द पैदा कर सकते हैं, तो उसने लगभग साठ साल का यह जीवन कैसे जिया होगा? उसने बस खानापूर्ति की होगी। बहुत-से लोग अपनी उम्र के चालीस के दशक में आते ही जीवन के बारे में बहुत-सी व्यावहारिक बातें समझ जाते हैं : उदाहरण के लिए स्वास्थ्य का व्यावहारिक ज्ञान; और वे भौतिक वस्तुओं, धन, कार्य और अपने रिश्तेदारों और दुनिया के मामलों, जीवन आदि के बारे में कुछ सही नजरिए हासिल कर लेते हैं। उन्हें इन चीजों की शुद्ध समझ होती है और भले ही वे परमेश्वर में विश्वास न रखते हों, फिर भी इन चीजों को वे अपने से छोटों से बेहतर समझते हैं। ये वे लोग होते हैं जिन्हें सही और गलत का भान होता है, जिनकी सोच सामान्य होती है। अपनी उम्र के बीस के दशक के बाद उन्होंने दो दशकों के दौरान जो जीवन जिया है, उसमें उन्होंने बहुत-सी चीजें समझी हैं, जिनमें से कुछ सत्य के बहुत समीप हैं। इससे पता चलता है कि ये लोग समझने की क्षमता वाले हैं, बढ़िया काबिलियत वाले हैं। और अगर वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं तो सत्य वास्तविकता में उनका प्रवेश काफी तेजी से होगा, क्योंकि उन बीस वर्षों में वे बहुत कुछ अनुभव कर चुके होंगे और कुछ सकारात्मक चीजें हासिल कर चुके होंगे। उनके अनुभव उन सत्य वास्तविकताओं के अनुरूप होंगे जिनकी चर्चा परमेश्वर करता है। लेकिन यदि उस व्यक्ति की मानवता में काफी कमी हो और उनके पास सही नजरिए या सामान्य मानवता की सोच न हो और उन बीस वर्षों के दौरान जीवन के प्रति और अपने सामने आए लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके पास सामान्य मानवता वाली बुद्धि न हो, तो फिर उन्होंने जीवन के वे वर्ष व्यर्थ ही जिए होंगे। मैं जिन अनेक स्थानों पर रहा हूँ, वहाँ मैंने पाया कि कुछ बुजुर्ग बहनें खाना बनाना नहीं जानती हैं। वे एक संतुलित आहार बनाना भी नहीं जानती हैं। जो चीज तली जानी चाहिए उससे वे सूप बनाती हैं और जिससे सूप बनाना चाहिए उसे तल देती हैं। मौसम के साथ फसल बदलती है, फिर भी उनकी मेजों पर हमेशा वही कुछ व्यंजन होते हैं। वहाँ क्या हो रहा है? यह बुद्धि का वास्तविक अभाव है, है कि नहीं? उनमें सामान्य मानवता की काबिलियत का अभाव है। वे अपने दैनिक जीवन में मिलने वाले खाद्य पदार्थ भी नहीं पका सकती हैं, जैसे कि पत्तागोभी और आलू। वे आसान-से-आसान काम के लायक भी नहीं हैं और इन्हें भी नहीं कर सकती हैं। पिछले पचास-साठ साल उन्होंने कैसे काम चलाया होगा? क्या वास्तव में ऐसा हुआ होगा कि उनके दिलों ने उनके जीवन से कोई माँग नहीं की होगी? अगर कोई अपने किसी भी काम से अनुभव नहीं ले सकता, तो भला ऐसा व्यक्ति कौन-सा कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकता है? तथ्य यह है कि लोग अगर अपना दिमाग लगाएँ और कुछ समय तक प्रशिक्षण ले लें, तो वे काम करना सीख सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति अनेक वर्षों के अध्ययन के बावजूद एक भी काम नहीं कर सकता तो उसकी बुद्धि और काबिलियत बहुत बेकार होगी!
चलो, अब स्वच्छता प्रबंधन के बारे में थोड़ी बात करते हैं। हाल में मैं दो स्थानों पर गया था जहाँ घरों के आसपास का माहौल पूरी तरह से अस्त-व्यस्त था। वहाँ पहले हर चीज काफी व्यवस्थित होती थी, तो फिर वे स्थान ऐसे “सूअर के बाड़े” कैसे बन गए? कारण यह है कि वहाँ के लोग चीजों को काबू में रखना नहीं जानते। उनमें स्वच्छता के प्रति सामान्य मानवता की चेतना और अपेक्षाएँ नहीं होती हैं। बात महज इतनी नहीं है कि वे आलसी हैं; इससे बढ़कर वे ऐसी स्थितियों में जीने के आदी हो गए हैं। वे किसी नियम या पाबंदी का पालन किए बिना जमीन पर कूड़ा-कचरा फेंक देते हैं और चीजें इधर-उधर बिखेर देते हैं। कोई जगह साफ करने के बाद वे उसे बस एक-दो दिन तक ही साफ रख पाते हैं; कुछ ही दिन बाद यह स्थान इतना अस्त-व्यस्त और गंदा हो जाता है कि इसे देखना भी मुश्किल होता है। मुझे बताओ, ऐसे परिवेश को क्या कहा जाता है? और वहाँ रहने वाले जो लोग ऐसे हालात में भरपेट खाना खाकर सो सकते हैं—वे कैसे लोग हैं? वे सूअरों जैसे हैं, है कि नहीं? उनमें कोई जागरूकता नहीं है और वे स्वच्छता के बारे में, अपने परिवेश, संरचना और प्रबंधन के बारे में कुछ भी नहीं समझते। वह जगह चाहे जितनी भी गंदी या अस्त-व्यस्त हो जाए, उनका इस पर ध्यान ही नहीं जाता। इससे उन्हें परेशानी नहीं होती; वे इस बारे में चिंतित और परेशान नहीं होते। वे पहले की ही तरह जीते रहते हैं, बिना ध्यान दिए और बिना किसी अपेक्षा के। कुछ स्थानों पर स्वच्छता और परिवेश की अच्छी देखभाल की जाती है और तुम्हें लगेगा कि वहाँ के लोग स्वच्छता की परवाह करते हैं और वे अपने परिवेश को सँभालना जानते हैं—लेकिन आकस्मिक निरीक्षण होने तक कोई नहीं जान पाता कि वे निरीक्षण से पहले जगह की सफाई करने के लिए लोगों को भेजा करते थे। अगर तुम उन्हें पहले ही बता दो कि तुम निरीक्षण करने आ रहे हो, तो निश्चित रूप से वह जगह साफ मिलेगी; अगर तुम उन्हें बिना चेतावनी दिए जाओगे, तो तुम्हें अलग परिवेश दिखाई देगा, ऐसा जो निश्चित रूप से गंदा और अस्त-व्यस्त होगा। कुछ लड़कियों के कमरों में कपड़े और जूते छितरे पड़े होते हैं, और बाहर कुदाली और गैंती जैसे औजार कपड़ों के ढेर में पड़े होते हैं। वहाँ कुछ लोग कह सकते हैं कि वे इतने ज्यादा व्यस्त रहे हैं कि उन्हें सफाई करने का वक्त नहीं मिला है। तो वे इतने ज्यादा व्यस्त थे? क्या उनके पास साँस लेने का भी समय नहीं था? अगर नहीं था तो इसे व्यस्त कहते हैं, ठीक है ना—लेकिन निश्चित रूप से वे इतने व्यस्त तो नहीं थे? अपनी जगह का प्रबंधन करने में इतनी कठिन बात क्या है? एक स्वच्छ और साफ-सुथरा परिवेश बनाए रखने में इतनी भी परेशानी क्या है? क्या इसका मानवता के साथ कोई लेना-देना है? लोग ऐसे “सूअर बाड़े” में रहना क्यों इतना पसंद करते हैं? वे ऐसे परिवेश में इतने आराम से क्यों रह लेते हैं? ऐसे परिवेश के प्रति वे पूरी तरह बेपरवाह कैसे हो सकते हैं? वहाँ क्या चल रहा है? किस कारण से परिवेशों का प्रबंधन खराब ढंग से होता है? अगर मैं कभी किसी अवसर पर किसी जगह जाता हूँ और उन्हें पहले से बता देता हूँ तो वे उसे चाक-चौबंद बना देंगे, लेकिन अगर मैं वहाँ अक्सर जाने लगूँ तो वे सफाई करना छोड़ देंगे। वे कहते हैं, “तुम यहाँ अक्सर आते हो, इसलिए हम औपचारिकताएँ छोड़ देंगे। हम लोग बस ऐसे ही हैं। हमेशा सफाई करते रहना बड़ा थकाऊ होता है! किसमें इतनी ताकत है? हम पूरा दिन काम में इतना व्यस्त रहते हैं, हमारे पास अपने बालों में कंघी करने तक का समय नहीं है!” वे ऐसे औचित्य पेश करते हैं। वे और क्या बताते हैं? “यह सब अस्थायी है। हमें इसे चाक-चौबंद रखने की जरूरत नहीं है। जैसा भी है ठीक है।” सचमुच सब-कुछ अस्थायी है—लेकिन अगर तुम किसी तंबू में भी रह रहे होगे, तो भी उसकी देखभाल करनी होगी, है कि नहीं? यह सामान्य मानवता होती है। यदि तुम्हारे पास इतनी-सी भी सामान्य मानवता नहीं है तो तुम भला जानवरों से किस तरह से अलग हो?
परमेश्वर के घर में एक कलीसिया है जो अच्छी जगह पर स्थित है, पहाड़ों और जलाशयों के पास। वहाँ एक सड़क बनाई गई है, और पास के नदी तट पर वृक्षों की कतार है। उसमें एक खुला मंडप भी है जिसके पास सजावटी चट्टानें हैं। वाकई, यह बहुत सुंदर है। एक दिन मैंने दूर से उस साफ-सुथरी सड़क पर छोटी-सी पीली चीज देखी। पास आकर देखा कि यह संतरे का छिलका है। न जाने किसने लापरवाही से वहाँ कचरा फेंक दिया। और साफ-सुथरे रहने वाले खुले मंडप में भी किसी ने सूरजमुखी के बीज खाकर इसके छिलके फर्श पर फेंक रखे थे। मुझे बताओ, क्या वह ऐसा व्यक्ति था जो नियम जानता है? क्या सामान्य मानवता में व्यक्ति की स्वच्छता और परिवेश के लिए मानक अपेक्षित होते हैं या नहीं? कुछ लोग कह सकते हैं, “किस तरह से मेरे पास मानक नहीं हैं? मैं हर शाम अपने पैर धोता हूँ। कुछ लोग नहीं धोते। कुछ लोग तो सुबह उठकर अपना मुँह भी नहीं धोते।” ठीक है, तुम्हारे पैर साफ-सुथरे हो सकते हैं, लेकिन तुम्हारा कार्य परिवेश सूअर के बाड़े जैसा क्यों है? तुम्हारी उस स्वच्छता के क्या मायने हैं? ज्यादा-से-ज्यादा यह दर्शाता है कि तुम बेहद स्वार्थी हो। तुम सभी चीजों का प्रबंधन करना चाहते हो—अगर तुम एक अहाते का भी प्रबंधन नहीं कर सकते, तो तुम सभी चीजों के महारथी कैसे हो सकते हो? यह वाकई शर्मनाक है! वे जिसका प्रबंधन नहीं कर सकते वह सिर्फ उनका परिवेश ही नहीं है—वे अपनी स्वच्छता का भी प्रबंधन नहीं कर सकते और जमीन पर कचरा फेंकते हैं। उन्हें यह आदत क्यों लगी? वे फलों के छिलके जमीन पर फेंकने को यह कहकर उचित ठहरा सकते हैं कि यह कंपोस्ट खाद है। तो फिर उसे कंपोस्ट खाद के ढेर या कचरा पेटी में क्यों नहीं डालते? उसे सड़क पर या उस खुले मंडप में क्यों डालना? क्या खुला मंडप कंपोस्ट रखने की जगह है? क्या यह नियमों की अवहेलना नहीं है? (हाँ, है।) यह मानवता, विवेक और नैतिक मूल्यों का बेहद अभाव है—ये नीच लोग हैं! मुझे बताओ, क्या इस मसले के समाधान का कोई तरीका है? इसे कैसे रोका जा सकता है? क्या निगरानी कारगर होगी? चीजों पर ऐसी नजर कौन रख सकेगा? क्या किया जाना चाहिए? (उन पर जुर्माना लगाओ।) हाँ, यही आखिरी रास्ता है। एक सटीक प्रणाली तैयार की जानी चाहिए। अब दंड से छूट नहीं मिलनी चाहिए। ये लोग निहायत नीच हैं—वे सुधर नहीं सकते! कुछ स्थानों में सड़े-गले गत्ते के बक्से, सड़े हुए तख्ते और कागज के टुकड़े हर कहीं छितरे पड़े रहते हैं और वहाँ के लोग कहते हैं कि वे उन्हें बाद में इस्तेमाल के लिए रख रहे हैं। इन्हें उपयोगी चीजें मानें, तो क्यों नहीं उन्हें उनकी श्रेणी के अनुसार एक के ऊपर एक साफ-सुथरे ढंग से लगा दें? क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं दिखेगा और कम जगह नहीं घेरेगा? ज्यादातर लोग रखरखाव के बारे में नहीं जानते। चीजों का अपनी जगहों पर इस तरह बेतरतीब ढेर लगा रहता है या वे छितराई पड़ी रहती हैं कि कोई खाली स्थान नहीं बचता। ढेर बढ़ जाने पर ये अस्त-व्यस्त हो जाते हैं और इस अस्त-व्यस्तता के साथ गंदगी आती है और फिर वह जगह कचरे का ढेर बन जाती है, जो सबको देखने में घिनौनी लगती है। क्या ऐसे परिवेशों में रहने वाले लोगों में सामान्य मानवता होती है? अगर ये लोग अपने जीने के परिवेश का ध्यान नहीं रख सकते तो क्या उनमें काबिलियत होती है? ऐसे लोगों और जानवरों के बीच क्या अंतर रह जाता है? अपने रहने की जगह का प्रबंध करने का उपाय न जानने का आंशिक कारण यह है कि कोई भी स्वच्छता के बारे में जागरूक नहीं होता है, न ही कोई यह जानता है कि अपने परिवेश का प्रबंधन कैसे करे। उन्हें इन चीजों का भान नहीं होता और वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि लोगों के रहन-सहन का परिवेश कैसा होना चाहिए। वे जानवरों जैसे होते हैं, इस बात से अनजान कि उन्हें कैसे परिवेश में रहना चाहिए। दूसरा आंशिक कारण यह है कि प्रबंधकों को इन चीजों का प्रबंधन करना नहीं आता है। वे नहीं जानते कि इन चीजों का प्रबंधन कैसे किया जाए और जिन लोगों का प्रबंध किया जा रहा है वे इन चीजों के बारे में सक्रिय या जागरूक नहीं होते। अंत में, सभी के “सहयोग” से वह जगह “सूअर का बाड़ा” बन जाती है। जब कुछ समय तक ये लोग उस जगह के आसपास रहते हैं, तो मैं वहाँ से एक विशेष भावना लेकर आ जाता हूँ : “यह जगह कभी स्वच्छ क्यों नहीं रहती? यह कभी भी घर जैसी क्यों नहीं लगती?” मुझे बताओ, क्या ऐसी जगह को देखकर किसी व्यक्ति के मन में प्रफुल्लता आएगी? (नहीं।) क्या वहाँ जाने से तुम लोगों की मनःस्थिति अच्छी हो जाएगी? (हमारे मन में उस जगह को लेकर कुछ ज्यादा महसूस नहीं होगा।) यही तुम लोगों की सच्ची प्रतिक्रिया होगी—ज्यादा कुछ महसूस न होना। मैंने उनमें से कुछ जगहों के लिए योजनाएँ बनाईं और जब काम पूरा हो गया और चीजें फिर से व्यवस्थित हो गईं तो सभी को वह दृश्य अच्छा लगा। मगर कुछ दिनों बाद चीजें फिर से अस्त-व्यस्त हो गईं। अगर स्वच्छता बनाए रखनी थी तो मुझे उस काम के प्रबंध के लिए किसी उपयुक्त व्यक्ति को ढूँढ़ना था। ऐसा इसलिए कि ज्यादातर लोग बहुत अस्वच्छ होते हैं और वे जो भी काम करते हैं उसे अस्त-व्यस्त ही करते हैं। कुछ लोग सब्जियाँ चुनते हैं और उन्हें धोने की सही जगह नहीं जानते। वे यह काम करने के लिए साफ जगह खोजने पर जोर देते हैं और नतीजतन इससे वह जगह गंदी हो जाती है। उसे देखकर तुम्हें कैसा लगेगा? क्या ये लोग जानवरों का झुंड नहीं हैं? उनमें कोई मानवता नहीं है! ऐसे लोगों को देखना, जो स्वच्छता की परवाह नहीं करते, और अपने परिवेश का प्रबंधन करना नहीं जानते—इससे तुम्हारा क्रोध बढ़ जाएगा! इन लोगों को रहने के लिए एक बढ़िया परिवेश दिया जाता है, जहाँ हर चीज बढ़िया ढंग से सजी होती है। वसंत ऋतु में तरह-तरह के फूल और घास-फूस उग आते हैं; उनके पास पर्वत हैं, जलाशय हैं, एक खुला मंडप है; उनके पास काम करने की जगह है, रहने की जगह है और नाना प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं। कितना बढ़िया है! लेकिन यह जगह कैसी हो गई है? उन्होंने इसका सही मूल्य नहीं समझा; उन्होंने दयालुता की सराहना नहीं की। उन्होंने सोचा, “यह ज्यादातर दूसरी जगहों से बेहतर है, लेकिन यह कमोबेश गाँव जैसी जगह है। यह मैदान घास-फूस और कीचड़ के सिवाय कुछ नहीं है।” ऐसी मानसिकता के साथ उन्होंने बिना सोचे-समझे उस जगह को कूड़े का ढेर बना दिया। उन्होंने अपने परिवेश का प्रबंधन करने के बारे में नहीं सोचा। ऐसी मानवता में कितनी चीजें मौजूद नहीं हैं! उसमें वे चीजें नहीं हैं जो मानवता में होनी चाहिए; वे लोग अत्यंत बुनियादी तरीकों से भी अपने जीवन परिवेश के विभिन्न पहलुओं को काबू में नहीं रख पाते। मुझे बताओ, लोग जिस सुंदर परिवेश में रहते हैं उसे सँजोने के बारे में क्यों नहीं सोच पाते? वे उसकी देखभाल करने के बारे में क्यों नहीं सोच सकते? क्यों? क्या बात यह है कि वे अपने कर्तव्यों में इतने अधिक व्यस्त हैं कि उनके पास समय नहीं है? या फिर उनके साथ क्या चल रहा है? क्या ऐसा कोई है जो अपने कर्तव्य में व्यस्त नहीं है? कुछ लोग ऐसे हैं जो तुम लोगों से खराब परिवेशों में रहते हैं, फिर भी वे अपनी जगह की काफी अच्छी देखभाल करते हैं। इसे देखकर लोग उनकी वाहवाही करते हैं, उनके प्रति अपने मन में सराहना और सम्मान रखते हैं। और फिर यह तुम लोगों का रहने का परिवेश है—दूसरों को भीतर जाने की जरूरत भी नहीं; वे बस बाहर का दृश्य देखकर ही तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। क्या यह तुम्हारा अपना ही किया-धरा नहीं है? तुम्हारे क्रियाकलापों और व्यवहारों ने तुम्हारे रहने के परिवेश को बुरी तरह से मैला-कुचैला बना दिया है। जब लोग उस परिवेश को देखते हैं जिसमें तुम रहते हो तो उनके लिए यह तुम्हारे सार को देखने जैसा ही है। तो फिर क्या तिरस्कार करने के लिए तुम उन्हें दोष दे सकते हो? कोई व्यक्ति ऊँचा हो या नीचा, अभिजात हो या नीच, इसका फैसला दूसरों के आकलनों पर नहीं, बल्कि इस आधार पर होता है कि वे स्वयं कैसे जीते हैं। यदि तुममें सामान्य मानवता की चीजें हैं, तो तुम सच्चे मानव के समान जीवन जी सकोगे। तुम अपने अभिजात गुण का प्रदर्शन कर सकोगे और दूसरे सहज ही तुम्हारी कद्र करेंगे, तुम्हारा सम्मान करेंगे। यदि तुम्हारे पास ये चीजें नहीं हैं और तुम व्यावहारिक ज्ञान वाली स्वच्छता को नहीं समझते, और नहीं जानते कि अपने परिवेश की देखभाल कैसे करें, सारे दिन एक “सूअर बाड़े” में पड़े रहते हो, और इसमें काफी खुश रहते हो, तो इससे तुम्हारे पशु जैसे गुणों का खुलासा होता है। इसका मतलब है कि तुम नीच और निचले स्तर के हो। ऐसा कोई नीच और निचले स्तर का व्यक्ति, जिसमें ऐसी नीच और निचले स्तर की मानवता हो, जिसमें जरा-सी सोच, नजरिए, अपेक्षाएँ और अनुसरण न हों जो सामान्य मानवता में होने चाहिए—इनमें से कुछ भी न हो, तो क्या ऐसा व्यक्ति सत्य को समझ सकता है? क्या वह सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है? (नहीं।) क्या तुम लोगों को भी लगता है कि वह नहीं कर सकता? क्यों नहीं? कुछ लोग कहते हैं, “हमने परमेश्वर में विश्वास रखने के अपने वर्षों में इन तमाम सांसारिक चीजों से बहुत पहले ही छुटकारा पा लिया है। हमें उन सबकी परवाह नहीं है! ‘गुणवत्ता वाला जीवन जीना’—यह एक सांसारिक चीज है!” क्या ऐसी बात कहने वाले लोग नहीं होते हैं? फिर क्या जिस वायु में तुम साँस लेते हो, वह एक सांसारिक चीज है? तुम जो कपड़े पहनते हो, जिन तमाम भौतिक चीजों का तुम उपयोग करते हो—क्या वे सांसारिक चीजें हैं? तुम लोग सभा करने के लिए कोई भी खुली जगह क्यों नहीं ढूँढ़ लेते? किसी कमरे में सभा क्यों करते हो? क्या ऐसा कहने वाले लोग बेतुके नहीं हैं? मैं तुम्हें एक तथ्य बताता हूँ : अगर ऐसा व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है तो उसके लिए यह कठिन होगा। अगर कोई व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है तो उसके पास पहले सामान्य मानवता होनी चाहिए; इसके अलावा भी उसे जीवन में गुणवत्ता, शिष्टाचार और नैतिकता वाली किसी विशेष शैली और लक्ष्य का अनुसरण करने के लिए अपने जीवन की उन बुरी आदतों को त्यागना होगा। क्या यह इस बात को रखने का सटीक तरीका है? ठीक है फिर क्या इन समस्याओं को ठीक करना आसान है? किसी की जीवनशैली को बदलने और उसके जीवन की किसी बुरी आदत को छोड़ने में कितना वक्त लगता है? इसमें जल्द-से-जल्द प्रवेश करने के लिए कौन-से तरीके का उपयोग करना चाहिए? दंड के अलावा कौन-से तरीके हैं? (परस्पर निगरानी।) परस्पर निगरानी एक तरीका है; यह इस बात पर आकर टिकती है कि क्या लोग इसे स्वीकार करते हैं। मेरे ख्याल से जुर्माना लगाना एक शक्तिशाली तरीका है और सच में असरदार है। जैसे ही तुम नकद जुर्माने की बात करते हो, तुम लोगों के हितों को छू रहे होते हो। उनके पास पालन करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता, इस डर से कि उनके हितों को हानि होगी। जुर्माना लगाने से यही हासिल होता है। लेकिन उन लोगों के साथ सत्य पर संगति करने से कुछ भी हासिल क्यों नहीं होता? क्योंकि उनमें सामान्य मानवता नहीं होती या सत्य को स्वीकारने के लिए आवश्यक शर्तें नहीं होती हैं। इसीलिए उनके साथ सत्य पर संगति करना असरदार तरीका नहीं होता है। किसी भी कार्य परिवेश में पहले चीजों को उनके प्रकार के अनुसार छाँटना सीखो, दूसरे, साफ-सफाई बनाए रखना सीखो, तीसरे, स्वच्छता और सफाई बनाए रखना सीखो और फिर इसके अतिरिक्त कचरा साफ करने की आदत डालना सीखो। सामान्य मानवता में यही होना चाहिए।
ऐसी कुछ महिलाएँ होती हैं जो बाल बनाकर गिरे हुए बालों को बुहारे बिना चली जाती हैं। ऐसा वे हर दिन करती हैं। क्या ऐसी आदत को बदला जा सकता है? जब तुमने अपने बाल बना लिए हों, तब तुम्हें उसी वक्त उस जगह को साफ कर सुव्यवस्थित कर देना चाहिए। उसे दूसरों के साफ करने के लिए मत छोड़ो—अपने परिवेश का प्रबंधन खुद ठीक से करो। यदि तुम अपने परिवेश का ठीक से प्रबंधन करना चाहते हो, तो तुम्हें खुद से शुरू करना चाहिए। सबसे पहले अपनी जगह को साफ करो। इसके अलावा, व्यक्ति जिस सार्वजनिक परिवेश में रहता है उसके बारे में उसे नागरिक की सोच वाला होना चाहिए। उदाहरण के लिए जिस जगह लोग रहते और आराम करते हैं, उसके प्रबंधन की जिम्मेदारी हरेक व्यक्ति पर डाली जानी चाहिए। अगर तुम देखते हो कि जमीन पर संतरे के कुछ छिलके पड़े हैं, तो उन्हें उठाकर कूड़ेदान में डाल दो। कुछ कार्यस्थलों पर काम पूरा हो जाने पर लकड़ी के टुकड़े, लकड़ी की खुरचन, लोहे की छड़ें और कीलें हर जगह छितरी हुई होती हैं। वहाँ जाओ और अगर तुम सावधान न रहे, तो बड़ी आसानी से तुम कीलों पर पैर रख सकते हो। यह बहुत असुरक्षित होता है। वे लोग काम पूरा हो जाने के बाद सफाई करके चीजों को स्वच्छ क्यों नहीं बना देते? यह कैसी गंदी आदत है? ऐसा करके क्या वे अपनी सफाई पेश कर सकते हैं? ऐसी अस्त-व्यस्त और गंदी जगह को देखकर लोग क्या सोचेंगे? क्या ऐसे काम जानवर नहीं करते? मानवता वाले लोगों को काम पूरा कर लेने के बाद चीजों को अच्छी तरह से साफ कर देना चाहिए, और दूसरे एक ही नजर में जान जाएँ कि काम इंसानों द्वारा किया गया था। जानवर कोई काम पूरा करने के बाद सफाई नहीं करते, मानो सफाई का काम उनके जिम्मे नहीं है और इसका उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यह किस प्रकार का तर्क है? मैंने काफी सारे लोगों को देखा है जो काम कर लेने के बाद सफाई नहीं करते। उन सभी में यह बुरी आदत होती है। मैंने उनसे कहा है कि हर दिन काम पूरा हो जाने के बाद उन्हें पूरा कचरा साफ करने के लिए किसी को लगाना चाहिए। हर दिन सफाई करो। इस तरह से जगह साफ रहेगी। उन्हें ऐसी आदत डालनी चाहिए। जीवन भर के लिए आदत डालने के लिए व्यक्ति को परिवेश के रखरखाव से शुरू करना चाहिए, और फिर उसका आदी होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। फिर किसी दिन जब वह परिवेश बदलेगा, तो वे खुद किसी चीज को गंदा देखकर बुरा महसूस करेंगे। यह वैसा ही है जैसे कुछ लोग जो तीन-पाँच साल विदेश में रह चुके होते हैं, उन्हें लगता है कि वहाँ हर चीज बेहतर है। अपने घर-गाँव लौटने का दिन आने पर उन्हें लगता है कि वे एकाएक चमक-दमक वाले हो गए हैं। वे उन लोगों को तिरस्कार से देखते हैं जिन्हें स्वच्छता की चिंता नहीं होती, जिनके घर अस्वच्छ होते हैं। वे कुछ दिन बिना नहाए भी नहीं रह पाते। क्या उनके परिवेश ने उन्हें ऐसा नहीं बनाया? ऐसा ही होता है। तो, तुम्हें अपनी निजी स्वच्छता और अपने परिवेश के प्रबंधन से शुरू करना चाहिए। अपने कर्तव्य निर्वहन में आरामदेह महसूस करने का यही तरीका है; सामान्य मानवता वाले लोगों में भी यह बात होनी चाहिए। मैं जिन कई जगहों पर गया हूँ, वहाँ मैंने लड़कियों के कमरों को अस्त-व्यस्त और तितर-बितर देखा है। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम चाहते हो कि हम सुव्यवस्थित रहें; क्या सैन्य रंगरूटों की जगह जैसा होना चाहिए?” उसकी कोई जरूरत नहीं है। हर दिन अपना बिस्तर ठीक करो और कमरा साफ करो। सफाई बनाए रखो। इसकी आदत बना लो। अगर तुम हर दिन ये चीजें करते हो और ये तुम्हारी खाना खाने की तरह अपने आप होने वाली आदत, एक मानक बन जाएँ, तब तुमने इस प्रकार की दैनिक जीवन की आदत बना ली होगी और अपने माहौल से तुम्हारी अपेक्षाएँ एक स्तर तक बढ़ चुकी होंगी। और जब वे उतनी बढ़ चुकी होंगी, तो तुम्हारा पूरा आचरण, तुम्हारा मानसिक नजरिया, तुम्हारी पसंद, तुम्हारी मानवता और तुम्हारी गरिमा सब बढ़ जाएँगे। लेकिन यदि तुम एक “सूअर बाड़े” में रहते हो, ऐसी जगह जो इंसानों के लिए नहीं है, बल्कि वह जानवरों की मांद जैसी ज्यादा है, तो तुम मानव के समान नहीं होगे। उदाहरण के लिए एक कमरे में प्रवेश करने पर कुछ लोग उस कमरे और उसके फर्श को साफ देखकर बाहर ही कुछ देर तक अपने जूतों की धूल हटाएँगे। वे तब भी थोड़ा अस्वच्छ महसूस करेंगे, इसलिए कमरे में प्रवेश करने से पहले अपने जूते उतार देंगे। जब कमरे का मालिक देखेगा कि वे कितने साफ-सुथरे और उसके प्रति आदरपूर्ण हैं, तो वह भी उनका आदर करेगा। दूसरे लोग कीचड़-सने जूते पहने हुए अंदर प्रवेश कर जाते हैं, और फर्श पर कीचड़ फैलाने के बारे में कुछ भी नहीं सोचते। वे इसके प्रति पूरी तरह संवेदनहीन होते हैं। कमरे का मालिक देखता है कि वे लोग नियमों के प्रति सहज रूप से बेपरवाह होते हैं। वह उन्हें बुरी तरह देखता है और इसलिए उनका तिरस्कार करता है, और भविष्य में कमरे में आने नहीं देगा। वह उनसे बाहर ही प्रतीक्षा करवाएगा, और इसका निहितार्थ यह होगा : “तुम अंदर आने लायक नहीं हो—तुम आए तो इस जगह को बरबाद कर दोगे, और मुझे इसे साफ करने में जाने कितना समय लगाना पड़ेगा!” वह उनका आदर नहीं करेगा। जब वह देखता है कि वे मानव समान नहीं हैं, तो वह उन्हें आदर भी नहीं देगा। अगर कोई अपने जीवन में इस मुकाम पर पहुँच जाए, तो क्या वह इंसान रह जाएगा? एक पालतू जानवर उनसे बेहतर होता है। इसलिए लोगों को इंसान कहलाने के लिए मानव समान जीवन जीना चाहिए, और मानव समान जीवन जीने के लिए उनमें सामान्य मानवता होनी चाहिए। कोई व्यक्ति कहीं भी रहे, वह कोई भी कर्तव्य करे, उसे नियमों का पालन करना चाहिए। उसे अपनी जगह और स्वच्छता की देखभाल करनी चाहिए, उसमें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और जीवन की अच्छी आदतें होनी चाहिए। उसे अपने सभी कामों में ध्यानपूर्ण और गंभीर होना चाहिए, और तब तक करते रहना चाहिए जब तक वह उसे अच्छे ढंग से न कर ले और कसौटी पर खरा न उतरे। इस प्रकार, तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन से और तुम जिस तरीके से आचरण करते हो और चीजों से निपटते हो उससे लोग जानेंगे कि तुम ईमानदार और सभ्य हो, एक नेक इंसान हो। उनके मन में तुम्हारे प्रति सराहना जागेगी, और वे स्वाभाविक रूप से तुम्हारा आदर करने लगेंगे। वे तुम्हारा सम्मान करेंगे, तुम्हारी कद्र भी करेंगे और वे तुम्हें बेवकूफ नहीं बनाएँगे या तुम्हें धौंस नहीं देंगे। वे तुम्हारा मखौल उड़ाए बिना या तुम्हारी अवमानना किए बिना तुमसे गंभीर ढंग से बातें करेंगे। मुझे नहीं मालूम कि लोग मेरी शक्ल-सूरत को किस रूप में लेते हैं, मगर मुझे ऐसा लगता है : जब मैं ज्यादातर लोगों से मिलता हूँ, तो वे मजाक नहीं करते या हल्की बातें नहीं करते। मैं नहीं जानता कि ऐसा क्यों करते हैं। कदाचित लोगों को ऐसा महसूस होता है : “तुम बस इतने गंभीर इंसान हो, और तुम अपनी कथनी और करनी में भी गंभीर हो। तुम एक ईमानदार इंसान हो; तुमसे बातचीत के दौरान मैं तुमसे मजाक करने की हिम्मत नहीं करूँगा। पहली नजर में ही यह साफ है कि तुम उस किस्म के इंसान नहीं हो।” यदि जब तुम किसी जगह जाकर लोगों से बोलते हो, उनसे बातचीत करते हो, लोगों से संवाद करते हो, तो उन्हें लगता है कि तुम्हारी मानवता और नैतिकता में कुछ खास है—शायद वे साफ तौर पर बता न पाएँ कि वह क्या है, लेकिन तुम जानते होगे कि हर दिन तुम किस बारे में सोचते हो, और चीजों को देखने और लोगों से मिलने-जुलने के तरीकों के लिए तुम्हारे पास सिद्धांत और मानक हैं—यदि तुम इस तरह लोगों से जुड़ते और संवाद करते हो, तो वे कहेंगे कि तुम अत्यंत विवेकपूर्ण हो, अपने हर काम में अत्यंत गंभीर और विवेकशील हो, जिसका अर्थ है कि तुम अत्यंत सिद्धांतवादी हो। इससे उन्हें अंततः किस भावना की प्रेरणा मिलेगी? इस बारे में धीरे-धीरे सोच-विचार करो। यदि तुम्हारे स्व-आचरण में वे चीजें हैं जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होनी चाहिए, तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी पीठ पीछे लोग तुम्हें किस तरह से आँकते हैं। यदि उन्हें अपने दिल की गहराई में लगता है कि तुम एक ईमानदार और विवेकपूर्ण व्यक्ति हो, ऐसा व्यक्ति जिसमें सभी चीजों के प्रति एक गंभीर और जिम्मेदार रवैया है, जो गुणों में कुलीन है, तो कुछ समय तक तुम्हारे साथ जुड़ने और बातचीत करने के बाद वे तुम्हें स्वीकृति देंगे और तुम्हारा सम्मान करेंगे। और फिर, एक व्यक्ति के रूप में तुम कुछ मूल्यवान बनोगे। यदि तुम्हारे साथ कुछ समय तक जुड़ने के बाद वे देखते हैं कि तुम कोई चीज ढंग से नहीं करते, तुम आलसी हो, ढेर सारे खाने के लालची हो, कोई भी चीज सीखने को तैयार नहीं हो, कि तुम्हारे मानक तुम्हारी क्षमताओं से बड़े हैं, और तुम अत्यंत लोभी और स्वार्थी हो—और तो और, कि तुम्हें स्वच्छता की कोई चिंता नहीं है, और तुम अपने परिवेश की देखभाल करने के बारे में नहीं सोचते; यदि वे देखें कि तुम अपने किसी भी काम की बारीकियाँ नहीं जानते, काबिलियत काफी कमजोर है, श्रेय प्राप्त करने लायक नहीं हो, तुम्हें सौंपा गया कोई भी काम करने में असमर्थ हो—तब तुम लोगों के किसी काम के नहीं रहोगे, और एक इंसान के रूप में तुम अमान्य हो जाओगे। कुल मिलाकर लोगों के किसी काम का न होना कोई बड़ी बात नहीं है—अहम बात यह है कि यदि तुम इसी तरह से परमेश्वर के हृदय में जानवर की तरह नीच हृदय या आत्मा विहीन, निचले स्तर के और नालायक हो जाते हो, तो तुम मुसीबत में हो। तुम अभी भी बचाए जाने से बहुत दूर हो! कोई भी व्यक्ति, जिसका चरित्र मानक स्तर का नहीं है, जिसकी कथनी और करनी पूरी तरह से अनियंत्रित है, जो जानवर जैसा है, क्या उसके लिए बचाए जाने की उम्मीद है? मेरी दृष्टि में, वह खतरे में है। देर-सवेर, उसे हटा दिया जाएगा।
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