मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक) खंड सात

जब मैं लोगों के संपर्क में आता हूँ, और उनसे बातचीत करता हूँ, वे चाहे जो भी हों या बातचीत जितनी भी देर चले, क्या उनमें से किसी को भी लगता है : “वह हमेशा मुझे नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है, वह मेरे घर के तमाम मामलों का प्रभार ले लेता है, वह हमेशा मुझे जीतने की कोशिश कर रहा है”? मैं तुम्हें जीत नहीं रहा हूँ! उससे भला क्या लाभ होगा? तुम परमेश्वर के वचन स्वयं पढ़ो, उन पर चिंतन करो और धीरे-धीरे उनमें प्रवेश करो। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा, और परमेश्वर के पास तुम्हारे लिए आशीष और मार्गदर्शन होगा। यदि तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अनुसरण करता है, यदि तुम मेरी हर बात के प्रति अवज्ञापूर्ण रहते हो, और उसे सुनना नहीं चाहते, और स्वीकार नहीं करते, तो फिर अंत में तुम हमेशा बेनकाब हो जाओगे और कार्य करते समय चीजें हमेशा गलत हो जाएँगी—तुम्हें परमेश्वर की अगुआई नहीं मिलेगी। ऐसा कैसे होता है? (परमेश्वर सभी की पड़ताल करता है।) बात इतनी ही नहीं है कि परमेश्वर सभी की पड़ताल करता है। खुद इसका अनुभव करो। जब मैं कुछ कहता हूँ, तो भले ही लोग इससे सहमत हों या न हों, चाहे वे उसे स्वीकार करें या न करें, क्या पवित्र आत्मा उसे बनाए रखता है, या उसे कोई परवाह नहीं होती? (वह उसे बनाए रखता है।) पवित्र आत्मा यकीनन उसे बनाए रखता है और वह बिल्कुल भी इसे कमतर नहीं करेगा। तुम लोगों के लिए यह बात याद रखना ठीक होगा। मेरी बातों को चाहे लोग स्वीकारें या नहीं, एक दिन जरूर आएगा जब तथ्य स्पष्ट होंगे, और एक ही झलक में प्रत्येक व्यक्ति कहेगा, “तुमने जो कहा वह हमेशा से सही था! तुमने यह बात बहुत पहले कही थी—मेरा ध्यान इस बारे में क्यों नहीं गया?” चाहे तुमने उस वक्त उसे माना हो या नहीं मेरे वचन मेरी कल्पना से, मेरे दिमाग से, या मेरे ज्ञान से आए—एक दिन कुछ चीजों का अनुभव करने के बाद तुम सोचोगे, “तुमने जो कहा वह हमेशा से सत्य रहा है!” और तुम इस समझ तक कैसे पहुँचे होगे? अनुभव से। यदि तुम यह ज्ञान हासिल करने में सक्षम हो, तो क्या यह मानसिक विश्लेषण के जरिए होगा? बिल्कुल नहीं; पवित्र आत्मा ने तुम्हारी अगुआई की होगी—यह परमेश्वर का कार्य होगा। गैर-विश्वासी अपना पूरा जीवन स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों के कुछ नियमों के थोड़े-से ज्ञान के साथ बिता देते हैं, लेकिन क्या वे सत्य हासिल कर पाते हैं? (नहीं।) तो कौन-सी चीज उनके पास नहीं है? (उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है।) सही। उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है—यही वह चीज है जो उनके पास नहीं है। इसलिए चाहे तुम मुझे किसी भी तरह से देखो, एक इंसान के रूप में मेरा आकलन करो, और तुम मेरे कहे गए वचनों और मेरे द्वारा की गई चीजों से चाहे जैसे पेश आओ, उसका अंततः कोई नतीजा निकलना चाहिए। परमेश्वर कार्य करेगा, और वह खुलासा करेगा कि क्या तुम्हारा चुनाव सही था या गलत, तुम्हारा रवैया सही था या गलत और क्या तुम्हारी सोच के साथ कुछ गलत हुआ है। परमेश्वर अपने देह के कार्य को कायम रखता है। तो फिर परमेश्वर दूसरे लोगों का साथ क्यों नहीं देता? वह मसीह-विरोधियों का साथ क्यों नहीं देता? इस वजह से कि आत्मा और देह एक हैं; उनका स्रोत एक है। दरअसल, यह कायम रखना नहीं है—यानी एक बार तुमने अंत तक अनुभव कर लिया हो, तो वे चाहे देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन हों, या वे तुम तक पवित्र आत्मा के प्रबोधन से पहुँचे हों, वे एक जैसे होंगे। वे कभी भी एक-दूसरे के विपरीत नहीं होंगे; वे सुसंगत होंगे। क्या तुम लोगों के पास इस बात की पुष्टि है? कुछ लोगों के पास है, जबकि दूसरे अपने अनुभव में इस बिंदु तक नहीं पहुँच पाए हैं, और उनके पास इसकी पुष्टि नहीं है। इसका अर्थ है कि उनकी आस्था अभी तक इस बिंदु पर नहीं पहुँची है; यह अभी भी बहुत छोटी है। दूसरे शब्दों में, जब तुम्हारा विश्वास एक निश्चित सीमा तक पहुँच जाता है, तो एक दिन आएगा जब तुम्हें लगेगा कि इस साधारण देह द्वारा बोला गया एक साधारण-सा वाक्यांश, ऐसा वाक्यांश जिसे सुन कर तुम्हें नहीं लगा कि यह ज्यादा प्रभावशाली है, वह तुम्हारा जीवन बन गया है। यह तुम्हारा जीवन कैसे बन जाएगा? तुम अपने कार्यकलापों में अनजाने ही उस पर भरोसा करने लगोगे। यह तुम्हारे दैनिक जीवन के लिए एक मार्गदर्शक बन गया होगा। और जब तुम्हारे पास कोई मार्ग नहीं होगा, तो यह वाक्यांश तुम्हारी वास्तविकता बन जाएगा, और यह एक लक्ष्य बन जाएगा जो तुम्हें रास्ता दिखाएगा; जब तुम पीड़ा में होगे, तो यह वाक्यांश तुम्हें नकारात्मकता से उबरने और यह समझने में मदद करेगा कि तुम्हारी समस्या क्या है। ऐसे अनुभव के बाद तुम देखोगे कि वह वाक्यांश जितना साधारण है, उसके शब्दों में उतना ही वजन और जीवन है—कि यह सत्य है! यदि तुम सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और सत्य से प्रेम नहीं करते, तो तुम परमेश्वर और उसके देहधारण और उसके द्वारा व्यक्त सत्यों की निंदा कर सकते हो। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो तुम्हारे अनुभव में एक दिन आएगा जब तुम कहोगे, “परमेश्वर के साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान है। देहधारी परमेश्वर के साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान है”—लेकिन कोई नहीं कहेगा, “मैं उसके साथ मिल-जुल कर ऐसे रह रहा हूँ जैसे कि वह इंसान हो।” ऐसा क्यों है? इस वजह से कि मसीह के वचनों का और अपने दैनिक जीवन में जब तुम उसे देख नहीं पाते, और पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हारे भीतर किए गए कार्य का तुम्हारा अनुभव एक समान होते हैं। यह “समान होना” तुम्हारे भीतर किस चीज का आह्वान करता है? तुम कहोगे, “परमेश्वर ने एक साधारण, सामान्य बाहरी रूप, एक देह की छवि अपना ली है, इसलिए लोगों ने उसके सार की अनदेखी की है। यह ठीक इस वजह से है कि स्वभाव भ्रष्ट होने के कारण लोग परमेश्वर के उस पक्ष को नहीं देख पाते जो उसका सार होता है। वे बस वही पक्ष देखते हैं जो मनुष्य देखने में सक्षम होता है। लोगों में वास्तव में सत्य की कमी होती है!” क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) ऐसा ही होता है। उदाहरण के लिए कुछ कार्य के यदि कई पहलू हैं जो मैं नहीं कर सकता, तो बहुत-से लोग निश्चित रूप से धारणाएँ बना लेंगे। लेकिन जब मैं कार्य के प्रत्येक पहलू का कुछ अंश करने में सक्षम होता हूँ, तो सभी लोग थोड़े शांत रहते हैं, और उनके दिल में थोड़ा सुकून रहता है : “ठीक है। वह परमेश्वर जैसा प्रतीत होता है—मैं बस इतना ही कह सकता हूँ। वह देहधारी परमेश्वर जैसा लगता है, वह मसीह जैसा प्रतीत होता है। संभवतः वह मसीह है।” यही एक प्रकार की परिभाषा है जो लोगों के मन में होती है। फिर भी यदि मैं केवल सत्य पर संगति करता और परमेश्वर के कुछ वचन व्यक्त करता और उससे अधिक कुछ न करता—यदि मैं किसी भी कार्य के बारे में कोई व्यावहारिक मार्गदर्शन नहीं देता, और व्यावहारिक मार्गदर्शन देने में असमर्थ होता, तो इससे उस देह के प्रति लोगों का सम्मान और जो महत्व वे उसे देते हैं, वह कम हो जाता। लोग मानते हैं कि देह को कुछ विशेष क्षमताओं और कुछ प्रतिभाओं से युक्त होना चाहिए। क्या वास्तव में यह प्रतिभा है? नहीं। परमेश्वर लोगों को हर प्रकार की प्रतिभा, गुण और क्षमताएँ दे सकता है, तो मुझे बताओ, क्या स्वयं परमेश्वर इनसे युक्त है? बहुतायत में! इसलिए कुछ ऐसे लोग हैं जो इस पहेली को नहीं सुलझा सकते और कहते हैं, “तुम जब स्वयं नहीं गा सकते तो हमें गाने का निर्देश कैसे दे सकते हो? क्या यह गैर-पेशेवर का पेशेवरों को निर्देश देना नहीं है? क्या यह सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं है?” मैं तुम्हें बताता हूँ, मैं एक अपवाद हूँ। ऐसा क्यों है? यदि तुम लोग कुछ अच्छा नहीं कर सकते हो, तो मुझे तुम्हारी तरफ मदद का हाथ बढ़ाना होगा; यदि तुम लोग कोई काम कर सकते हो, तो मुझे दूर रहने में कोई परेशानी नहीं है, मैं दखल नहीं देना चाहता—ऐसा करने से मुझे थकान हो जाएगी। यदि तुम लोग कोई चीज अच्छे ढंग से कर सकते हो, तो मुझे तुम्हारी तरफ मदद का हाथ बढ़ाने की क्या जरूरत है? मैं यहाँ दिखावा नहीं कर रहा हूँ, और मैं ऊँचे आडंबरी विचार नहीं उगल रहा हूँ। मैं बस तुम लोगों को पेशेवर कौशल में और सत्य सिद्धांतों के क्षेत्रों में समान रूप से सिखाना चाहता हूँ। एक बार जब तुम लोगों ने कौशल सीख लिए होंगे और सिद्धांत समझ लिए होंगे, तो मेरे दिल से एक बड़ा बोझ उतर जाएगा, क्योंकि वे चीजें मेरे जिम्मे के कार्यों के दायरे से बाहर हैं। कुछ लोग कहते हैं, “यदि यह तुम्हारे जिम्मे का कार्य नहीं है, तो तुम इसे क्यों करते हो?” इसे करना ही होगा और लोग इस कार्य को करने में सक्षम नहीं हैं। यदि मैं उन्हें मार्गदर्शन न दूँ जैसे कि दिया करता हूँ, तो किए गए कार्य कुछ विशेष नहीं होंगे, और परमेश्वर की गवाही देने के मामूली नतीजे निकलेंगे। यदि मेरे पास दिखाने को कोई अच्छा-खासा कार्य न होता, तो मैं थोड़ा लापरवाह और असहज भी रहता, इसलिए मैं उतना थोड़ा-सा कार्य करता हूँ, जिसकी अनुमति मेरी ऊर्जा और शारीरिक हालत देती है। क्यों? इसके कई कारण हैं। जब पूरी मानवजाति लोगों की बनाई हुई चीजें देखती है, और उन्हें आत्मसात करती है, तो लोगों के परिप्रेक्ष्य, नजरिए और समझ की क्षमताएँ केवल इस संदर्भ में अलग होती हैं कि वे कितने समय से विश्वासी रहे हैं, उनका अनुभव, उनकी काबिलियत, लेकिन उन सबके आरंभ बिंदु मूल रूप से एक ही होते हैं। उनके आरंभ बिंदु सत्य की उनकी समझ के आधार पर सत्य वास्तविकताओं के उनके अनुभव होते हैं। ये वे चीजें हैं जो मानवजाति बना सकती है। मैं एक साधारण इंसान के परिप्रेक्ष्य से चीजें नहीं कर सकता या चीजें नहीं रच सकता। तो फिर मेरा परिप्रेक्ष्य क्या होना चाहिए? देह का? मैं यह भी नहीं कर सकता। क्या तुम्हें नहीं लगता है कि यह अनुपयुक्त होगा? निस्संदेह मैं वे वचन कहने, वे कार्य करने और उन नजरियों को व्यक्त करने के लिए देह के भीतर परमेश्वर और उसके कार्य का परिप्रेक्ष्य अपना लूँगा। क्या इन चीजों के मूल्य को मानवजाति के बीच पैसे से मापा जा सकता है? (नहीं।) नहीं मापा जा सकता। इस वजह से कि जब ये चीजें पूर्ण आकार ले लेंगी तो ये मानवजाति के लिए सदा के लिए बनी रहेंगी। वो साधारण कार्य भी बेशक सदा के लिए बने रहेंगे। लेकिन चूँकि ये साधारण कार्य सदा के लिए भविष्य में भी बने रहेंगे, और पूरी मानवजाति को योगदान देंगे, चाहे वे परमेश्वर में विश्वास रखने की मार्गदर्शिकाएँ हों, या पोषण और मदद के, मुझे कुछ अधिक वजनदार काम करने चाहिए, ठीक है? इसी वजह से मुझे उस परिप्रेक्ष्य से वचन बोलने होंगे और वैसी चीजें बनानी होंगी जिसे मानवजाति ग्रहण नहीं कर सकती। मैं किसके लिए ऐसा करता हूँ? कलीसिया की प्रसिद्धि बढ़ाने के लिए। क्या यह मंशा सही है? (हाँ, है।) मुझे बताओ, कलीसिया की प्रसिद्धि ज्यादा होने पर क्या परमेश्वर की गवाही देना फायदेमंद होता है? (हाँ।) क्या इससे इसे बढ़ावा मिलता है, या इससे रोक लगती है। (इससे बढ़ावा मिलता है।) यह सुनिश्चित है—इसे इससे निश्चित रूप से बढ़ावा मिलता है। जब कुछ अविश्वासी और धार्मिक समूह इन कामों को देखते हैं, तो वे चकित रह जाते हैं कि ये फिल्में कितनी बढ़िया बनाई गई हैं, और वे हमेशा परदे के पीछे के फिल्म-निर्माता से मिलना चाहते हैं। मैं इन लोगों से नहीं मिलूँगा। मेरे पास इन लोगों से मिलने का समय नहीं है, और मैं नहीं जानता कि मुझसे मिलने का उनका प्रयोजन क्या होगा। तो फिर मेरे उनसे मिलने का क्या लाभ होगा? यदि ये फिल्में देखने वाले लोग सत्य को स्वीकार सकें, तो यह काफी है, और यदि वे सच्चे मार्ग की खोजबीन करना चाहें तो यह और भी अच्छा है। उनका मुझसे मिलना जरूरी नहीं है। संक्षेप में कहूँ, तो मैं कुछ वजनदार चीजें बनाता हूँ, ताकि जब मानवजाति इन चीजों को देखे तो यह कुछ हद तक उनके लिए अधिक लाभकारी हो। मानवजाति पर इन चीजों को छोड़ देना अच्छा है या खराब? (अच्छा है।) यह सार्थक है; यह करने योग्य है।

तुम लोगों के साथ मिल-जुल कर रहने का मेरा यही तरीका है। तुम सबके साथ मेरा जो रिश्ता है, वह यही है जिसे तुम लोग देखते और महसूस करते हो। तो तुम लोगों के साथ परमेश्वर का रिश्ता किस प्रकार का है? क्या इसे महसूस किया जा सकता है? यह वैसा ही है। यह सोचते मत रहो, “देहधारी परमेश्वर एक व्यक्ति है; उसके साथ मिल-जुल कर रहना आसान है। लेकिन स्वर्ग के परमेश्वर के साथ आसान नहीं है, अपने प्रताप और क्रोध के साथ—वह भयानक है!” परमेश्वर वैसा ही है जैसा मैं हूँ। वह किसी टिप्पणी या तरीके से, या बलपूर्वक तुम पर जीत या नियंत्रण नहीं पा सकेगा। वह ऐसा नहीं करेगा। वह तुम्हारे साथ उसी तरह मिल-जुल कर रहेगा जैसे तुम लोगों को लगता है कि मैं तुम लोगों के साथ मिल-जुल कर रहता हूँ : मैं तुम लोगों को जो सिखा सकता हूँ वह सिखाता हूँ, और जितना भी बन पड़े, उतना मैं तुम लोगों को समझने योग्य बनाता हूँ। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जिन्हें तुम लोग नहीं समझ सकते, मैं तुम लोगों के मन में वे चीजें जबरन नहीं बिठाता। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम कहते हो कि तुम हमारे भीतर अपने विचार जबरन नहीं बिठाते हो—ठीक है फिर, तुम सारा वक्त सत्य का उपदेश दे कर क्या कर रहे हो?” क्या यह विचार बिठाना है? इसे तुम्हारे लिए प्रावधान करना कहते हैं—यह तुम्हें तरक्की करने को मजबूर कराना नहीं है, यह सिंचन है। सिंचन उचित है; यह सकारात्मक चीज है। कुछ लोग कहेंगे, “क्या मसीह-विरोधियों की लोगों पर जीत परमेश्वर की जीत के समान नहीं है?” (नहीं है।) किस तरह से नहीं है? लोगों पर मसीह-विरोधियों की जीत और परमेश्वर की जीत, दोनों के लिए एक ही शब्द प्रयुक्त होता है; उस शब्द के इन दो प्रयोगों के बीच सार में क्या अंतर है? क्या तुम लोग इसे स्पष्ट तौर पर समझा सकते हो? यदि तुम लोग इतना भी नहीं कर सकते, तो तुम लोगों की सत्य की समझ बस बेहद कमजोर है। (लोगों पर शैतान की जीत जबरन नियंत्रण है, जबकि परमेश्वर की जीत सत्य उपलब्ध कराना है—यह लोगों को सत्य सिद्धांत बताना है, जिसका लोग फिर अभ्यास कर सकते हैं और इस प्रकार जीवन प्राप्त कर सकते हैं।) इसलिए मैं तुम लोगों से पूछता हूँ : शैतान लोगों को नियंत्रित करता और जीतता है, लेकिन क्या उसके पास सत्य है? (नहीं।) शैतान क्या है? वह किस आधार पर लोगों को जीतता है? दूसरे शब्दों में, वह क्या चीज है जो शैतान को इस योग्य बनाती है कि वह लोगों को जीते और उन्हें प्राप्त करने की कोशिश करे? शैतान के पास कुछ भी नहीं है। तो वह लोगों को जीतने के लिए किस चीज का उपयोग करता है? वह लोगों को जीत लेने के बाद उन्हें क्या उपलब्ध करा सकता है? वह तुम्हें सिर्फ भ्रष्ट बना सकता है; वह तुम्हारे साथ सिर्फ खिलवाड़ कर सकता है, और तुम्हें बरबाद कर सकता है, और अंत में तुम्हें पूरी तरह बरबाद कर देने के बाद वह तुम्हें नरक में भेज देगा। यह जीत और नियंत्रण क्या है? यह सिर्फ दुर्व्यवहार है। तुम्हें नियंत्रित करने और जीतने का उसका लक्ष्य तुम्हें परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण करने से रोक कर तुमसे अपने प्रति समर्पण करवाना है। शैतान की दृष्टि में तुम्हारा परमेश्वर के प्रति समर्पण गलत है, और उसके प्रति समर्पण सही है। यदि तुम उसके प्रति समर्पण कर देते हो, और उसके द्वारा नियंत्रित हो जाते और जीत लिए जाते हो, तो तुमने परमेश्वर को छोड़ दिया होगा और उसे पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया होगा। तो फिर लोगों पर परमेश्वर की जीत कैसे काम करती है? परमेश्वर स्वयं ही सत्य है; वह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, सभी सकारात्मक चीजों का स्रोत है, सत्य का स्रोत है। तो फिर लोग क्या हैं? लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं। उनके पास सत्य नहीं है। इसलिए परमेश्वर को लोगों का न्याय कर उन्हें ताड़ना देनी चाहिए, और सत्य व्यक्त करके और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करके उनकी परीक्षा लेकर उनका शोधन करना चाहिए, ताकि लोग परमेश्वर की बातों को समझ सकें और उसे सृष्टिकर्ता और खुद को सृजित प्राणियों के रूप में स्वीकार कर पाएँ, उसके समक्ष आ पाएँ, उसके समक्ष दंडवत हो पाएँ, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर पाएँ। क्या यह सब सत्य के अनुरूप नहीं हैं? (यह है।) तो फिर यह जीत क्या है? यह लोगों को प्राप्त करना है, यह उद्धार है; यह सकारात्मक चीज है। यह तुम्हें नुकसान पहुँचाना नहीं है। क्या इसमें और शैतान की जीत के बीच कोई अंतर नहीं है? लोगों को जीतना परमेश्वर के लिए उचित है। वह सत्य है, सभी सकारात्मक चीजों का स्रोत। यह कहना कि वह “मानवजाति को जीतता है,” इस बात को कहने का अत्यंत उपयुक्त तरीका है! मानवजाति के पास सत्य नहीं है, उसे शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर अपने समान बना लिया है। इसीलिए लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते, उसे नकारते हैं, और उसे अस्वीकार करते हैं। इस बारे में क्या किया जा सकता है? परमेश्वर को सत्य व्यक्त करना चाहिए, और ताड़ना और न्याय के तरीकों का उपयोग करना चाहिए ताकि लोग समझ लें कि परमेश्वर कौन है, सृष्टिकर्ता कौन है, सृजित प्राणी कौन हैं, और शैतान कौन है, और वे प्रभु को पहचान कर उसके पास लौट जाएँ, सृष्टिकर्ता को स्वीकारें और उसकी मौजूदगी में खुद को उसके सृजित प्राणी के रूप में स्वीकार करें। यही जीत का अर्थ है। क्या परमेश्वर द्वारा जीते हुए लोग सत्य को समझते हैं या वे नहीं समझते? (वे समझते हैं।) और शैतान द्वारा जीते हुए लोग—वे क्या प्राप्त करते हैं? वे किसी भी सत्य को नहीं समझते, वे परमेश्वर से दूर भागते हैं, उससे विश्वासघात करते हैं, और उसे अस्वीकार करते हैं, उसके बारे में धारणाएँ रखते हैं, और यहाँ तक कि शैतान और मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हैं। वे शायद परमेश्वर की आलोचना भी करें, उसके विरुद्ध विद्रोह करें, और उसे कोसें, उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है, उसकी संप्रभुता को स्वीकारने से भी इनकार कर दें। क्या ये ऐसे सृजित प्राणी हैं जो मानक स्तर के हों? (नहीं।) ये परमेश्वर द्वारा जीते हुए लोगों के ठीक विपरीत हैं; और इसका प्रभाव लोगों पर परमेश्वर की जीत के बिल्कुल विपरीत होता है।

यदि मसीह-विरोधी जैसा कोई रुतबे वाला व्यक्ति हो, और वह ऐसी किसी जगह जाए जहाँ लोग न जानते हों कि वह अगुआ है, तो क्या वह इस बात से खुश रहेगा? नहीं। वह जहाँ भी जाएगा, सबको बताने के लिए अपने बूते किसी भी उपाय का प्रयोग करेगा, “मैं अगुआ हूँ; मेरे लिए कुछ खाना बनाओ। मुझे कुछ बढ़िया खाना खाना है!” तुम लोगों के ख्याल से रुतबे के बारे में मेरी सोच क्या है? (तुम्हें इसमें रुचि नहीं है।) यह रुचि का अभाव किस तरह अभिव्यक्त होता है? जब मैं कहीं जाता हूँ, तो वहाँ जितना हो सके लोगों को बताता हूँ कि मेरी पहचान के बारे में खुलकर खबर न फैलाएँ, या लोगों को जानने न दें। मैं ऐसा क्यों करता हूँ? क्योंकि जब लोगों को इसके बारे में पता चलता है, तो यह सचमुच परेशानी बन जाती है। यदि वे न जानते हों तो हो सकता है वे मुझसे अपने दिल की बात कह दें; एक बार जब उन्हें पता चल जाता है, तो यह परेशानी बन जाती है—वे मेरे सामने अपना मुँह बंद कर लेते हैं। मुझे बताओ, अगर कोई अपने दिल की बात मुझसे न कहे तो क्या मुझे अकेलापन महसूस नहीं होगा? मैं भरसक कोशिश करता हूँ कि लोगों को न पता चलने दूँ, ताकि लोग मुझसे ऐसा व्यवहार करें जैसे कि मैं आम आदमी हूँ, और वे जो चाहें मुझसे कहें। लोगों का आजाद और मुक्त महसूस करना बहुत अच्छा है, कि मैं उन्हें हमेशा बांधकर न रखूँ और वे मेरी मौजूदगी में हमेशा अत्यंत श्रद्धापूर्ण न रहें। उनके लिए ऐसा करना जरूरी नहीं है; मुझे यह अच्छा नहीं लगता। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे सोचते हैं, “निश्चित रूप से तुम्हें यह पसंद है, इसलिए मैं तुमसे इसी तरह बर्ताव करूँगा।” जब मैं ऐसे लोगों को देखता हूँ, तो छिप जाता हूँ। जब मैं किसी को हमेशा सिर झुकाते और दंडवत होते देखता हूँ, तो मैं जल्दी से छिप जाता हूँ। मैं ऐसे लोगों के संपर्क में बिल्कुल नहीं रहना चाहता—इसमें बड़ा झंझट है, बहुत मुसीबत है! हालाँकि मसीह-विरोधी अलग होते हैं। उन्हें उम्मीद होती है कि उन्हें लोगों का सम्मान मिलेगा, वे जहाँ भी जाएँगे उनसे विशेष व्यवहार किया जाएगा। और इससे भी ज्यादा वे किसकी उम्मीद करते हैं? यह कि अगर वे आसपास हों, तो उनकी अगुआई वाले लोग पूरी तरह से उनके आदेशों का पालन करेंगे और बिना किसी समझौते के पूर्णता की सीमा तक उनकी आज्ञा मानेंगे; फिर वे सोचते हैं, “देखो—तुम उन सिपाहियों, उस टीम के बारे में क्या सोचते हो जिसकी मैं अगुआई करता हूँ? वे सब आज्ञाकारी हो कर मेरा कहा करते हैं।” वे उपलब्धि की विशेष भावना का अनुभव करते हैं। वे लोगों को प्रशिक्षण देते हैं कि वे कठपुतली बनें, दास जैसे बनें, अपनी कोई स्वतंत्र सोच, राय या दृष्टिकोण न रखें; वे उनमें से प्रत्येक को संवेदनहीन और मंद-बुद्धि बना देते हैं। तब मसीह-विरोधी दिल की गहराई में आनंदमय और खुश महसूस करते हैं, उन्हें ऐसा लगता है कि उनके काम के नतीजे मिल गए हैं, कि उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ साकार हो गई हैं। यदि चीजें ऐसी न हों, तो वे दिल से दुखी हो जाते हैं : “लोग बस वह क्यों नहीं करते जो मैं कहता हूँ? मुझे उनसे अपनी आज्ञा मनवाने के लिए क्या करना चाहिए? ठीक है—यदि तुम नहीं जानते हो कि मैं कमाल का आदमी हूँ, तो मुझे तुम्हें दिखाना ही होगा! मेरे पास स्नातक उपाधि है; मैं हर दिन अपने साथ अपना डिप्लोमा लेकर चलता हूँ, ताकि तुम देख सको। मैंने अंग्रेजी मेजर आठवीं श्रेणी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है, और मैं छात्र संघ का प्रमुख था। यह देख कर कि तुम लोग मुझे अच्छी तरह से नहीं समझते, मैं तुम लोगों के लिए थोड़ा दिखावा करूँगा!” जब भी वे काम पर विचार-विमर्श करते हैं, तो कहते हैं, “तुम सबके मन में जो भी विचार हों, बता दो; अपने विचार खुल कर व्यक्त करो—मुझसे बेबस मत रहो।” और इसलिए वहाँ लोग अपने विचार व्यक्त करने लगते हैं। उनके व्यक्त करने के बाद स्नातक उपाधि वाला यह “श्रेष्ठ व्यक्ति” कहता है, “तुम लोगों के विचार अच्छे नहीं हैं। वे सब बहुत साधारण हैं, आम लोगों के विचार हैं। मुझे सच में दखल देना होगा—देखो : तुम लोग काम नहीं कर सकते! मैं दरअसल यह काम हाथ में नहीं लेना चाहता, लेकिन अगर मैं यहाँ नहीं होता, तो तुम लोग यह जिम्मेदारी उठाने में सक्षम न होते, इसलिए मुझे हाथ बँटाना पड़ेगा। मैंने इस मामले पर गहराई से सोचा है। हम इसे इस तरह से सँभालेंगे। तुम लोगों की बताई कोई भी तरकीब काम नहीं आएगी; मैं तुम लोगों को एक बेहतर तरीका बताऊँगा। अतीत में कार्य व्यवस्थाओं में हमसे यही करने की अपेक्षा की गई थी—अब से हम उन विनियमों से चिपके नहीं रहेंगे। हम अब इसे उस तरह से नहीं करेंगे।” कुछ लोग कहते हैं, “यदि हम कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य न करें, तो परमेश्वर के घर को बहुत बड़ा नुकसान होगा।” वे जवाब देते हैं, “इस बारे में इतना ज्यादा मत सोचो—क्या परमेश्वर का घर इस थोड़ी-सी धनराशि की परवाह करेगा? चलो नतीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं—वही मायने रखते हैं। अब से मैं जैसा कहूँ वैसा करो। यदि कुछ गलत हो जाए, तो उसकी जिम्मेदारी मेरी है।” उन्हें कोई भी नहीं रोक सकता। क्या वे बस ऊँचे आडंबरी विचार नहीं उगल रहे हैं? ऐसा करने के पीछे उनका लक्ष्य क्या है? यह दिखावा करने के लिए है, और प्रत्येक व्यक्ति को हर समय अपने अस्तित्व और अपनी मेधा की याद दिलाना है। वे किस तरह से मेधावी हैं? साधारण लोगों को अपनी रहस्यमयता दिखाने में। भले ही मसीह-विरोधी दूसरे लोगों जैसा ही दृष्टिकोण रखें, फिर भी जब वह दृष्टिकोण दूसरे व्यक्त करते हैं, तो वे उसे अस्वीकार कर देते हैं, जिसके बाद वे उसे दोबारा व्यक्त कर फिर से शुरू करके आगे हो जाते हैं। उनकी बात सुन कर समूह कहता है : “क्या यह वही विचार नहीं है?” वे कहते हैं, “वही हो या न हो, यह बात मैंने कही है। तुम वे लोग नहीं हो जिन्होंने यह बात कही है। मैं ही इस विचार के साथ आगे रहा हूँ।” वे अपनी बात के साथ चाहे जैसे आगे-पीछे होते रहें, उनका लक्ष्य सभी को विश्वास दिलाना होता है, लोगों को जताना होता है : “मैं व्यर्थ ही अगुआ नहीं हूँ; मैं व्यर्थ ही टीम अगुआ और पर्यवेक्षक नहीं हूँ। मैं केवल बातों का पुलिंदा नहीं हूँ—प्रतिभाओं, गुणों और योग्यताओं के बिना मैं इस पद पर नहीं होता।” यदि उनकी अनुपस्थिति में कुछ हो जाए तो दूसरा कोई भी व्यक्ति लोगों को नहीं बता सकता कि क्या करना है, और यदि वे वहाँ हुए तो सारे फैसले वे ही लेंगे। सभी को उनकी भाव-भंगिमाओं पर नजर रखनी चाहिए। सभी लोग तभी राहत की साँस ले सकते हैं जब वे निर्णय ले रहे हों; यदि वे निर्णय न ले रहे हों, तो सभी लोग व्याकुल हो जाते है। यदि उन्हें फैसला न लेने दिया जाए, तो हाथ में जो काम है उसे करना संभव नहीं होता। क्या ऐसा करने के पीछे उनका कोई लक्ष्य नहीं होता? कभी-कभार वे मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं जो कर रहा हूँ क्या वह सही है? बेहतर होगा मैं यह न करूँ—मैं अपना खूब मजाक उड़वा रहा हूँ। क्या यही वह तरीका नहीं है जिससे मसीह-विरोधी कार्य करते हैं? इससे काम नहीं चलेगा; मेरा गौरव ही मायने रखता है। ‘मसीह-विरोधी’? ऊपर वाले ने मेरी निंदा नहीं की है, इसलिए वह मैं नहीं हूँ!” और वे वही करते जाते हैं जो वे करते रहे हैं। कभी-कभी वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं, उससे कार्य व्यवस्था और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, कि वे स्पष्ट रूप से अपने गौरव और रुतबे का ध्यान रख रहे हैं, उनके अपने इरादे हैं—फिर भी वे परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना तो दूर, नतीजों पर ध्यान दिए बिना वही करते जाते हैं जो वे करते रहे हैं। क्या यह स्वभावगत समस्या नहीं है? इस प्रकार का स्वभाव उन्हें किस ओर आगे बढ़ाता है? अत्यंत घमंडी होने, और पागलों की तरह बुरी चीजें करने की ओर। क्या अपने दिलों में वे सचमुच नहीं जानते कि कार्य करने का उचित तरीका क्या है? क्या वे वास्तव में नहीं समझते कि वे जो कर रहे हैं उससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है? क्या वे सचमुच नहीं जानते कि वे जो कर रहे हैं उससे दूसरे गुमराह और नियंत्रित हो रहे हैं, कि वे बुराई कर रहे हैं? वे इन चीजों को जानते और समझते हैं। फिर भी वे इसी तरह कार्य करते रह सकते हैं, इसका अर्थ यह है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और उससे विमुख हैं। वे किसी भी दृष्टिकोण, तरीके, ढंग या वक्तव्य को अस्वीकार करते हैं, अगर वह उनके मुँह से न निकला हो। क्या यह महत्वाकांक्षा नहीं है? (यह है।) इसके भीतर महत्वाकांक्षा और बुरी मंशाएँ हैं। कौन-सी बुरी मंशाएँ? इसके पीछे क्या छिपा हुआ है? (लोगों से वह करवाना जो वे कहें।) लोगों से वह करवाना जो वे कहें—वे कोई भी ऐसा फायदा या अलग दिखने का मौका नहीं गँवा सकते, या ऐसा नहीं होने दे सकते कि यह किसी दूसरे को मिल जाए। हर बार निर्णय उन्हें ही लेने होंगे; हर बार फैसले उन्हें ही लेने होते हैं; हर बार कार्य के फल उन्हीं को चाहिए होते हैं, और इनका श्रेय केवल उन्हीं को मिलना चाहिए। अंत में, वे सभी में एक प्रवृत्ति विकसित कर देते हैं। कौन-सी प्रवृत्ति? यह सोचने की प्रवृत्ति कि कार्य तभी परिचालित हो सकता है जब वे टीम में हों—मानो उनके बिना कोई भी दूसरा व्यक्ति भार न उठा सकता हो। इसके साथ क्या उन्होंने अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लिया है? ये लोग उनके नियंत्रण में आ चुके हैं। नियंत्रित किए जाने से पहले क्या होता है? पूरी तरह से जीत लिया जाना और पराजित हो जाना—मसीह-विरोधी तुम्हें सताते हैं कि तुम उनके प्रति समर्पण कर दो, इस तरह कि तुम्हें सही और गलत का अंतर मालूम न हो, और उन्हें पहचानने की बिल्कुल कोशिश न करो, या सत्य का कोई भी पहलू उनके साथ न जोड़ो और दृढ़ता से मान लो कि वे जो भी करते हैं वह सही है, और अब विश्लेषण करने की हिम्मत न करो कि वे सही हैं या गलत। लोगों के मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और नियंत्रित होने के बाद ये नतीजे निकलते हैं, और ठीक उसके बाद वे लोग मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा है।) क्या यह स्पष्ट रूप से इस बात की अभिव्यक्ति नहीं है कि मसीह-विरोधी दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाते हैं, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं? (यह है।) वे जो भी करते हैं उसके पीछे की मंशाएँ और बुरे इरादे क्या होते हैं, और उनके क्रियाकलापों, उनके तरीकों और साधनों और यहाँ तक कि उनके वक्तव्यों का स्रोत क्या होता है? यह होता है कि वे तुम्हें पराजित करना चाहते हैं, दबाना चाहते हैं, तुमसे अपने प्रति समर्पण करवाना चाहते हैं, और तुम्हें दिखाना चाहते हैं कि सत्ता किसके हाथ में है, कौन अगुआई करने योग्य है, वहाँ किसका निर्णय अंतिम होता है, और जिसका निर्णय अंतिम होता है वह सत्य नहीं होता—एकमात्र उनके सिवाय कोई भी दूसरा इन लोगों का प्रभु नहीं हो सकता, फैसले नहीं ले सकता या निर्णय नहीं कर सकता। तुम सत्य का उल्लेख करना चाहते हो, लेकिन तुम्हारे पास ऐसा करने का कोई रास्ता नहीं होता। तुम भिन्न मत उठाना चाहते हो—लेकिन उस बारे में सोचते भी नहीं हो। मसीह-विरोधियों का यह कौन-सा स्वभाव है? यह क्रूरता है; वे लोगों को जीतना और नियंत्रित करना चाहते हैं। तुम चाहे मसीह-विरोधियों की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं पर गौर करो, या उनके वास्तविक कार्यकलापों पर, ये सब क्रूरता और सत्य से विमुख होने का उनका स्वभाव दर्शाते हैं। लोगों को जीतने और नियंत्रित करने के ये तरीके, खुलासे और अभिव्यक्तियाँ जिनसे मसीह-विरोधी युक्त होते हैं, और साथ ही उनके सार, पूरी तरह से हमारी संगति के मुख्य विषय से मेल खाते हैं। मसीह-विरोधी लोगों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाते हैं—इसका निहितार्थ यह है कि लोगों को उनके कहे अनुसार करना चाहिए, और ऐसा करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। यदि कोई व्यक्ति भिन्न मत उठाए, और कहे कि वे जो कर रहे हैं वह सत्य के विपरीत है, तो वे पलट कर जवाब देंगे, “सत्य के विपरीत? हमें बताओ—सत्य क्या है? यदि तुम इसे स्पष्ट रूप से समझा सको, तो मैं तुम्हारी बात मान लूँगा—लेकिन यदि तुम नहीं समझा सके, तो मैं तुम्हें एक शर्मनाक स्थिति में डाल दूँगा!” जब वे ऐसा कहते हैं, तो कुछ लोग सचमुच डर जाते हैं, और कहते हैं, “मैं वास्तव में स्पष्ट रूप से इसे नहीं समझा सकता, इसलिए तुम जैसा कहोगे वैसा ही करूँगा।” ऐसा करके मसीह-विरोधियों ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया होता है। क्या ऐसे लोग हैं जो यह करते हैं? (हाँ।) क्या तुम लोगों ने ऐसी चीजें की हैं? (नहीं।) मसीह-विरोधियों में यह कौशल होता है। जब एक साधारण व्यक्ति देखता है कि वह दूसरों को राजी नहीं कर सकता तो वह प्रयास करना छोड़ देता है; वह उस तकनीक से युक्त नहीं होता है। एक लिहाज से देखें, तो वह उस तरह से बोल और व्यक्त नहीं कर सकता—वह अच्छे ढंग से बोल और वाद-विवाद नहीं कर सकता। दूसरे लिहाज से देखें, तो वह दिल से उतना निष्ठुर नहीं होता। जो लोग ये चीजें कर सकते हैं, उनमें दुष्ट स्वभाव का होना जरूरी होता है। उन्हें क्रूर और पर्याप्त निष्ठुर होना चाहिए, किसी भी दूसरे की भावनाओं की परवाह नहीं करनी चाहिए। यदि कोई उनसे असहमत होगा, तो वे उसे बेहत क्रूरतापूर्ण ढंग से सताएँगे, और वे चाहे जितनी भी क्रूरता से यह काम करें, इसके लिए उनका जमीर धिक्कार महसूस नहीं करेगा या उसके प्रति जागरूक नहीं होगा। कोई कहेगा, “वे पहले से ही दयनीय हैं; मैं उनसे अपना कहा क्यों करवा रहा हूँ? मैं उन्हें छोड़ दूँगा—वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, मुझमें नहीं। जो भी सत्य के अनुसार बोलता है वे उसकी बात पर ध्यान दे सकते हैं—कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कौन है। मैं इस बार इसे छोड़ दूँगा।” क्या मसीह-विरोधी इस प्रकार सोचते हैं? नहीं; मसीह-विरोधियों में ऐसी तार्किकता नहीं होती। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को लेकर अत्यंत स्पष्ट होते हैं। वे उनसे चिपके रहते हैं, उन्हें नहीं त्यागते, ठीक एक भेड़िये की तरह जिसके जबड़े में भेड़ फँसी हो। अगर तुम भेड़िये से बातचीत करने और उसे भेड़ को खाने से रोकने की कोशिश करोगे—तो क्या ऐसा होगा? नहीं होगा। क्यों नहीं होगा? इस वजह से कि यह उसका स्वभाव है। भेड़िया क्या मानता है? “मैं भूखा हूँ। मुझे भेड़ें खाना पसंद है। यह उचित है। चाहे मैं भेड़ खाऊँ या न खाऊँ, ठीक है।” यह उसका फलसफा, उसका मानक और उसके कार्यकलापों का स्रोत होता है। इसी तरह से, जब मसीह-विरोधी लोगों को जीतते और नियंत्रित करते हैं, तो क्या वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर नहीं हूँ। लोगों को नियंत्रित करना मेरे लिए कैसी शर्मिंदगी की बात है। यदि लोग मुझे पहचान लें, तो मैं मुँह कैसे दिखा सकूँगा?” क्या उनमें शर्म की ऐसी भावना होती है? (नहीं।) उन्हें शर्म का भान तक नहीं होता। तो उनकी मानवता में किस चीज की कमी होती है? शर्म, तार्किकता और जमीर। ये चीजें उनकी मानवता में नहीं होतीं। इन चीजों के बिना, क्या वे अभी भी इंसान हैं? वे नहीं हैं। वे तमाम लोग जो इंसान की खाल में हैं, जरूरी नहीं कि वे इंसान ही हों—कुछ राक्षस होते हैं, कुछ जिंदा लाशें हैं, और कुछ जानवर हैं। तो फिर मसीह-विरोधी किस प्रकार के लोग हैं? वे दानव हैं; उनमें से कुछ बुरे राक्षस हैं, और दूसरे कुछ बुरी आत्माएँ हैं। सारांश में, वे इंसान नहीं हैं। मसीह-विरोधी, खुद में सामान्य मानवता का विवेक, जमीर और शर्म न होने के कारण, लोगों और लोगों के दिलों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होते हैं। यह दिखाता है कि उनका प्रकृति सार दुष्ट है। रुतबे के लिए दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करना उनके लिए न्यायोचित नहीं होता, रुतबे और लोगों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करना तो और भी अनुचित है! यह और अधिक दर्शाता है कि वे प्रामाणिक मसीह-विरोधी हैं, कि वे दानव और शैतान हैं।

हमने अभी मद आठ तक मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों पर संगति कर ली है। क्या तुम लोग यह देखने के लिए कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, अब मसीह-विरोधियों और साथ ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाले और उनके स्वभाव से युक्त लोगों और अपने बीच संबंध स्थापित कर सकते हो? (हाँ।) तुम इनमें से कुछ संबंध स्थापित कर सकते हो। ऐसा करने से लोगों की कौन-सी समस्याएँ दूर की जा सकती हैं? (यह हमें गलत मार्ग पर कदम रखने से रोक सकता है।) यह तुम्हें गलत मार्ग पर कदम रखने से रोक सकता है। इसके अलावा? (यह हमें हमारे आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचानने योग्य बनाता है।) यह तुम्हें तुम्हारे आसपास के कुछ लोगों को पहचानने योग्य बनाता है। दूसरों को पहचानने योग्य बनना उसका ही भाग है; हालाँकि मुख्य रूप से तुम्हें स्वयं को, अपने भीतर के मसीह-विरोधी स्वभाव को और जिस मार्ग पर कदम रखते हो, तुम्हें उसे पहचानना आना चाहिए। इससे तुम्हें मदद मिलेगी कि तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में भटक न जाओ, और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम न रखो। जब एक बार कोई मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम रख देता है, तो क्या उसके लिए लौटना आसान होता है? नहीं; एक बार कदम रख देने पर उसके लिए लौटना आसान नहीं होता। क्या तुम इसका कारण जानते हो? (उसके भीतर पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता।) यही मुख्य कारण है। गलत मार्ग पर कदम रखना खतरनाक होता है, क्योंकि तुमने परमेश्वर के विरुद्ध संघर्ष करना चुना है, उसके चुने हुए लोगों के लिए उससे प्रतिस्पर्धा करना चुना है, और अंत तक उससे संघर्ष करने का चुनाव किया है; तुम सत्य को नहीं खोज रहे हो, या परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने का प्रयास नहीं कर रहे हो। ऐसे मार्ग पर कदम रखोगे तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। तुम परमेश्वर के विरुद्ध खड़े रहोगे—तुम अपनी व्यक्तिपरक इच्छा से उसके विरुद्ध खड़े रहोगे; यानी, तुम्हारे विचार, सोच, राय और विकल्प, सभी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होंगे। यदि इस मार्ग पर चलने से पहले तुममें कुछ वस्तुपरक अभिव्यक्तियाँ, स्वभाव और सार हैं, जो परमेश्वर के विपरीत और शत्रुतापूर्ण हैं, फिर भी तुम हर समय परमेश्वर से शत्रुता के मार्ग या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम न रखने को लेकर दिल से सावधान रहते हो, तो तुम्हारे पास बचाए जाने का मौका है। यदि तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर, परमेश्वर से शत्रुता के मार्ग पर कदम रख ही देते हो, तो तुम खतरे में हो। खतरा कितना बड़ा है? इतना बड़ा कि तुम्हारे लिए लौटना आसान नहीं होगा। कुछ लोगों ने अभी-अभी कहा कि पवित्र आत्मा अब तुम्हारे भीतर कार्य नहीं करेगा—यह अत्यंत स्पष्ट है! पवित्र आत्मा ऐसे व्यक्ति के भीतर कैसे कार्य कर सकता है? जब एक बार तुम ऐसे मार्ग पर कदम रख देते हो, एक बार तुमने वह विकल्प चुन लिया है, तो तुम खतरे में होते हो। यदि तुम इस बात को दिल से समझने के बाद भी यही करते हो, उस रास्ते पर जाते हो, वह विकल्प चुनते हो, और कार्य करते समय, और पीछे मुड़े बिना या प्रायश्चित्त किए बिना, या अपना रास्ता पलटे बिना हमेशा अपने सिद्धांतों और अपने पुराने, पिछले तरीकों पर चलते हो तो यह तुम्हारा विकल्प दर्शाता है—तुमने परमेश्वर के प्रति शत्रुता में इस मार्ग पर चलने का मन बना लिया है। ऐसा नहीं है कि तुम नहीं जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो—तुम जानबूझकर पाप कर रहे हो। यह बिल्कुल पौलुस जैसी बात है, जिसने कहा, “तुम कौन हो, प्रभु? तुम मुझे क्यों गिरा देना चाहते हो?” वह अच्छी तरह से जानता था कि प्रभु यीशु ही प्रभु है, कि वही मसीह था, लेकिन फिर भी उसने अंत तक उसका विरोध किया। यह जानबूझकर पाप करना है। पौलुस ने परमेश्वर की गवाही नहीं दी, न ही उसने उसे उत्कर्षित किया। उसने सोचा, “क्या तुम बस एक साधारण व्यक्ति नहीं हो? क्या तुम मुझे सिर्फ इस वजह से नहीं गिरा रहे हो कि तुम्हारे पास इसकी सामर्थ्य है? तुम्हारे पास सामर्थ्य हो सकती है, पर मैं अभी भी स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। तुम देहधारी हो, परमेश्वर नहीं हो; तुम परमेश्वर से संबद्ध नहीं हो। तुम परमेश्वर के पुत्र हो, और तुम हमारे बराबर हो।” क्या यह उसकी सोच नहीं थी? पौलुस की इस सोच की बुनियाद क्या थी? यह जानने के बाद भी कि प्रभु यीशु देहधारी मसीह है, वह पहले की ही तरह इसी सोच पर कायम रहा। यह एक गंभीर समस्या थी, और इसके साथ उसके परिणाम का फैसला हो गया। यह देखते हुए कि वह सारा समय इस सोच पर कायम रहा, क्या उसके चलने का मार्ग बदल सकता था? किसी इंसान के चलने का मार्ग उसके विचारों पर आधारित होता है : तुम्हारे जो भी विचार होते हैं, तुम उसी मार्ग पर चलते हो। और इसके उलट तुम जिस भी मार्ग पर चलोगे, तुम्हारे भीतर वैसे ही विचार उत्पन्न होंगे, तुम्हारे विचार बनेंगे और वही विचार तुम्हें प्रभावित करेंगे और दिशा देंगे। जैसे ही तुम परमेश्वर से शत्रुता के मार्ग पर कदम रखोगे, वैसे ही ये विचार तुम्हारे भीतर आकार लेंगे और जड़ें जमा लेंगे, और फिर एक बात पक्की है : तुम अंत तक परमेश्वर का विरोध करने को बाध्य रहोगे; तुम हमेशा अपने गलत विचारों, ज्ञान और रवैये पर कायम रहने को बाध्य रहोगे, और अंत तक परमेश्वर के विरुद्ध हो-हल्ला मचाओगे। तुम अपना रास्ता बिल्कुल नहीं पलटोगे—अगर कोई तुमसे कहे, पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबोधन दे, भाई-बहन तुम्हें प्रोत्साहित करें या परमेश्वर तुम्हें रोशन करे, तब भी नहीं। इसके लिए कोई स्थान नहीं होगा। यह तुम्हारा चुनाव है। तुम्हें पहला, दूसरा और तीसरा मौका दिया जाएगा—प्रायश्चित्त करने के तीन मौकों के बाद भी यदि तुमने ऐसा नहीं किया, तो भविष्य में तुम्हें और कोई मौका नहीं मिलेगा। उस वक्त तुम चाहे जैसे काम करो और कीमत चुकाओ, इससे परमेश्वर द्रवित नहीं होगा—उसने तुम्हारे बारे में अपना मन बना लिया होगा। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए क्या फैसला किया होगा? कि तुमसे सेवा करवाई जाएगी, तुम्हारा उपयोग किया जाएगा; और तुम्हारा उपयोग हो जाने के बाद वह तुम्हें ऐसी किसी जगह रख देगा जहाँ तुम्हें उसके फैसले के अनुसार ताड़ना और दंड दिया जाएगा। ऐसा कैसे होता है, परमेश्वर इस तरह अपना मन कैसे बना लेता है? क्या यह तुम्हारी क्षणिक सोच के कारण होता है? क्या यह तुम्हारे क्षणभंगुर विचारों पर आधारित है? क्या यह तुम्हारे पल भर के लिए गलत मार्ग पर कदम रखने के कारण है? नहीं; परमेश्वर इसे तुम्हारे दिल की गहराई में जो विचार हैं, उन पर आधारित करता है, सत्य के प्रति लंबी अवधि के तुम्हारे रवैये पर और उस मार्ग पर आधारित करता है, जिस पर चलने का तुमने फैसला लिया है। तुमने इस तरह से कार्य करने का मन बना लिया है, और चाहे कोई कुछ भी बोले, इसका कोई फायदा नहीं है; तुमने भविष्य में चलने के मार्ग की बुनियाद के रूप में इस सिद्धांत का उपयोग करने का मन बना लिया है। और चूँकि तुमने अपना मन बना लिया है, तो क्या परमेश्वर को तुम्हारा परिणाम निर्धारित नहीं करना चाहिए? तुम्हारा परिणाम बहुत पहले ही निर्धारित किया जा चुका है; परमेश्वर को यह करने के लिए अंत तक प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। कुछ लोगों के मामले में, परमेश्वर हमेशा उनकी अभिव्यक्तियों पर गौर करता है—जब ये लोग राह के अंत तक पहुँच जाते हैं, तो आखिरकार उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित किए जाते हैं। कुछ लोगों ने बुरे कर्मों की अपेक्षा अधिक अच्छे कर्म किए होते हैं; उन्होंने नकारात्मक और बुरे कर्मों वाले रवैयों की अपेक्षा अधिक अच्छे और सकारात्मक रवैये अपनाए हुए होते हैं, और उनके विभिन्न व्यवहारों और अभिव्यक्तियों के जोड़ के माप के आधार पर उनके अंतिम परिणाम निर्धारित किए जाते हैं। हालाँकि कुछ ऐसे भी हैं, जिनके परिणाम परमेश्वर उनके चलने के मार्ग पर नजर डाल कर निर्धारित करता है। तो फिर क्या उनके परिणाम निर्धारित करने से पहले परमेश्वर लोगों को मौके देता है? अवश्य देता है। कितने? संभवतः कोई ठोस संख्या नहीं है। यह किसी व्यक्ति के प्रकृति सार पर निर्भर करता है, और यह उनके अनुसरण पर भी आधारित होता है। कुछ लोगों को तीन मौके मिल सकते हैं। कुछ लोग सुधारे नहीं जा सकते, वे बेहद बेवकूफ और हठी होते हैं, और वे बिल्कुल भी सत्य स्वीकार नहीं कर पाते—तीन मौके मिलने से पहले ही उनके परिणाम तय हो चुके होते हैं। फिर भी कुछ लोगों के मामले में, परमेश्वर उनके लिए उनकी दशाओं के आधार पर कुछ परिवेशों की व्यवस्था करता है, और इस आधार पर उन्हें पाँच मौके दे सकता है कि उनकी उम्र क्या है और वे किन चीजों से हो कर गुजरे हैं। यह सत्य को स्वीकार करते समय उनकी प्रकृति, सार, और रवैये पर आधारित होता है। परमेश्वर इन चीजों के आधार पर किसी व्यक्ति का परिणाम और मंजिल निर्धारित करता है।

लोगों के साथ तमाम तरह की चीजें होती हैं, और अक्सर उन्हें पता नहीं होता कि उनका सामना कैसे करें; अगर वे सत्य समझने का प्रयास न करें तो क्या यह ठीक होगा? सत्य न समझने पर लोगों के लिए गलत मार्ग पर कदम रखना आसान हो जाता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? लोग शैतान के भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं और जो चीजें उनके भीतर से निकलती हैं, ये वे चीजें होती हैं जो वे स्वाभाविक रूप से प्रकट करते हैं, और उनमें से एक भी सत्य के अनुसार नहीं होती, या परमेश्वर के विरुद्ध विश्वासघाती नहीं होती। तो फिर उन्हें हमेशा धर्मोपदेश क्यों सुनने चाहिए? हमेशा धर्मोपदेश सुनना, उन पर चिंतन करना और उन्हें हृदय में रखना; हमेशा प्रार्थना करना और खोजना; परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ परमेश्वर के समक्ष आना, धर्मनिष्ठा का हृदय लेकर, सत्य के लिए तरसता हृदय लेकर; प्रतिदिन आध्यात्मिक भक्ति, प्रार्थना और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के लिए समय तय करना; दूसरों के साथ संगति करना और कार्य करने के लिए दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करना; प्रतिदिन इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना और उन पर कायम रहना—परमेश्वर देखता है कि लोगों के अभ्यास के इन विस्तृत तत्वों से कुछ नतीजे हासिल होते हैं या नहीं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या ये सिर्फ प्रक्रियाएँ नहीं हैं?” प्रक्रिया क्या है? ये बाहरी चीजें नहीं हैं—तुम इन चीजों पर तभी कायम रह सकते हो अगर तुम दिल से ऐसा करना चाहते हो। उस दिल के बिना तुम उन पर कितने दिनों तक कायम रह सकते हो? तुम उन पर कायम नहीं रह पाओगे। कुछ अगुआ कभी भी परमेश्वर के वचनों को नहीं खाते-पीते और कभी भी आध्यात्मिक भक्ति में शामिल नहीं होते। इसका अर्थ क्या है? यह कि वे सच्चे विश्वासी नहीं है। यदि वे नहीं हैं, तो वे अगुआ कैसे बन सकेंगे? कुछ जगहों पर कोई भी काम के लिए उपयुक्त नहीं होता, इसलिए कलीसिया को इन लोगों का उपयोग करके काम चलाना पड़ता है। वे गलत ढंग से सोचते हैं, “मुझे अगुआ के तौर पर चुना गया है। मैं यह काम परमेश्वर के वचनों को खाए-पिए बिना भी कर सकता हूँ—जब तक लोगों के पास टाँगें और मुँह हैं, तो वे ये काम कर सकते हैं।” यह मूर्खता है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि क्या तुम काम कर सकते हो—वह यह देखता है कि तुमने क्या काम किया है। तुम जो काम कर सकते हो, वह कोई और भी कर सकता है। थोड़ा-सा सामान्य अक्लमंद आदमी भी कर सकता है। यह मत सोचते रहो कि चूँकि तुम्हें अगुआ के तौर पर चुना गया है, और तुम वह काम कर सकते हो, इसलिए तुम्हारी सफलता सुनिश्चित है, कि तुम्हें पूर्ण बना दिया गया है, कि तुम्हारे पास जीवित रहने का मौका है। इस तरह से काम नहीं होता। परमेश्वर कभी नहीं देखता कि तुम कितना काम करते हो; वह इस बात पर गौर करता है कि तुमने कितना काम किया है, तुम किस मार्ग पर चलते हो। इस बारे में खुद को मूर्ख मत बनाओ। तुम सोच सकते हो, “बहुत-से लोगों को चुना नहीं गया, फिर भी मुझे चुना गया। ऐसा प्रतीत होता है कि मैं विलक्षण हूँ, और मुझमें ज्यादा काबिलियत है, और दूसरों से बेहतर है।” तुम्हारे बारे में अच्छी बात क्या है? भले ही तुम अच्छे हो, फिर भी निश्चित रूप से तुम सत्य का अभ्यास न करने, और सत्य का उल्लंघन करने वाले कार्य करने के हकदार नहीं हो? भले ही तुम अच्छे हो, निश्चित रूप से तुम आध्यात्मिक भक्ति और प्रार्थना में शामिल न होने और कार्य करते समय सत्य को न खोजने के हकदार नहीं हो? तुम इन चीजों के हकदार नहीं हो। कोई भी रुतबा या पदवी तुम्हारी पूँजी नहीं है। वे क्षणभंगुर चीजें हैं, बाहरी चीजें हैं। परमेश्वर तुम्हारी वफादारी को देखता है; वह सत्य के तुम्हारे अभ्यास, उसके तुम्हारे अनुसरण और उसके प्रति तुम्हारे रवैये को देखता है; वह तुम्हारे समर्पण पर गौर करता है; वह तुम्हारे कर्तव्य और तुम्हारे मिशन के प्रति तुम्हारे रवैये पर गौर करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने में बहुत अधिक मेहनत लगा सकते हैं, लेकिन वे इसे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं करते। यदि तुम उन्हें बताते हो कि उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए, तो वे प्रतिरोध करते हैं, नाराज हो जाते हैं, और उसे नहीं स्वीकारते। बस ऐसे ही उनका खुलासा हो जाता है। किस चीज का खुलासा हुआ है? यह कि वे सत्य को नहीं स्वीकारते। सत्य को न स्वीकारने वाले वे लोग किस प्रकार के होते हैं? छद्म-विश्वासी। छद्म-विश्वासी आँखें मूँदकर खुद को किस काम में व्यस्त रखते हैं? अपनी व्यस्तता में वे इतने अधिक ऊर्जावान क्यों रहते हैं? उनका एक लक्ष्य होता है—वे देखते हैं कि “मेरे पास यहाँ एक अधिकारी बनने का मौका है, और अगर मैं बन गया तो कलीसिया पर पल सकता हूँ और सबका आराध्य बन सकता हूँ। यह जगह बढ़िया है! भोजन-टिकट बड़ी आसानी से मिल जाता है, और वैसे ही शोहरत और लाभ भी; यह रुतबा हासिल करना बहुत आसान है—यहाँ अधिकारी बनना बहुत आसान है!” उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे अपने जीवन काल में एक “अधिकारी” बन पाएँगे। लेकिन एक बार अपना “पद” खो देने के बाद वे अपना असली रंग दिखाते हैं। वे परमेश्वर के घर के लिए अब अधिक प्रयास नहीं करते। क्या वे अभी भी कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होंगे? नहीं। तब क्या उनका खुलासा नहीं होता? कुछ लोग रुतबा हासिल होने पर सब-कुछ करने लगते हैं, मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, कितने भी कष्ट सहें शिकायत नहीं करते—फिर भी जैसे ही रुतबा जाता है, वे निराश हो जाते हैं, इस सीमा तक कि उन पर नकारात्मकता हावी हो जाती है। तब फिर क्या उनका खुलासा नहीं हो जाता? रुतबे ने उनका खुलासा कर दिया है। क्या उनका परीक्षणों से गुजरना जरूरी है? नहीं। ठीक है, हम आज की संगति को यहीं समाप्त करेंगे।

1 अक्तूबर 2019

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