मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक) खंड छह
लोगों को नियंत्रित करने की अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा के अलावा मसीह-विरोधियों को किस बात में रुचि होती है? वास्तव में किसी चीज में नहीं। उन्हें किसी भी दूसरी चीज में ज्यादा रुचि नहीं होती। क्या प्रत्येक व्यक्ति उचित कर्तव्य कर रहा है, क्या उपयुक्त ढंग से कर्मचारियों की व्यवस्था की गई है, क्या ऐसा कोई है जो कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा कर रहा है, क्या कलीसिया के कार्य के प्रत्येक पहलू में सुगमता से प्रगति हो रही है, कार्य के किस अनुभाग में समस्या है, कौन-सा अनुभाग अभी भी कमजोर है, किस अनुभाग के बारे में अभी सोच-विचार नहीं किया गया है, कहाँ उचित ढंग से कार्य नहीं किया जा रहा है—मसीह-विरोधी खुद को ऐसी किसी चीज में शामिल नहीं करते, न ही वे उस बारे में पूछताछ करते हैं। वे उनके बारे में कभी परवाह नहीं करते; वे कभी यह ठोस कार्य नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, अनुवाद कार्य, वीडियो संपादन कार्य, फिल्म निर्माण कार्य, पाठ-आधारित कार्य, सुसमाचार प्रचार का कार्य, आदि-आदि—वे कार्य के किसी भी पहलू का मेहनत से अनुवर्तन नहीं करते। जब तक कोई चीज उनकी प्रसिद्धि, लाभ या रुतबे को प्रभावित नहीं करती, तो जैसे इसका उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। तो वह एकमात्र चीज कौन-सी है जो वे करते हैं? वे बस कुछ सामान्य मामले सँभालते हैं—सतही कार्य जिस पर लोग ध्यान देते हैं और जिसे देखते हैं। वे उसे पूरा कर लेते हैं और फिर उसे अपनी योग्यता के रूप में दिखाकर इतराते हैं, और फिर वे अपने रुतबे के लाभों का आनंद लेना शुरू कर देते हैं। क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश की परवाह करते हैं? नहीं; वे परवाह करते हैं तो सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की, उन मामलों की परवाह करते हैं जिनमें वे सबसे अलग दिख सकें, और लोगों से अपना सम्मान और आराधना करा सकें। इसलिए कलीसिया के कार्य में चाहे कोई भी समस्या आए, वे न तो उससे कोई सरोकार रखते हैं, न ही उसके बारे में पूछते हैं; समस्या चाहे जितनी भी गंभीर हो, चाहे इससे परमेश्वर के घर के हितों को जितना भी नुकसान हो, उन्हें नहीं लगता कि यह एक समस्या है। मुझे बताओ, क्या उनमें दिल होता भी है? क्या वे लोग वफादार होते हैं? क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम कर उसे स्वीकारते हैं? इन चीजों के पीछे प्रश्नचिह्न लगाने चाहिए। अच्छा, वे दिन भर क्या करते होंगे कि कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त कर दें? यह चीज ये दिखाने के लिए काफी है कि वे परमेश्वर के इरादों के प्रति लेशमात्र भी विचारशील नहीं हैं। वे वह अनिवार्य कार्य नहीं करते जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है, बल्कि खुद को पूरी तरह से सतही, सामान्य मामलों में व्यस्त रखते हैं, ताकि वे दूसरे लोगों को काम करते हुए-से दिखें; बाहर से वे एक कर्तव्य करने में व्यस्त हैं, लोगों को यह दिखाने के लिए कि उनमें जोश और आस्था है। यह कुछ लोगों की आँखों में धूल झोंकना होता है। लेकिन वे कलीसिया के आवश्यक कार्य का एक पहलू भी नहीं करते—वे सिंचन और सत्य प्रदान करने का जरा-सा भी कार्य नहीं करते। वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का कभी उपयोग नहीं करते हैं; वे सिर्फ कुछ सामान्य मामले सँभालते हैं, और थोड़ा-सा काम करते हैं जो उन्हें अच्छा दिखाता है। कलीसिया के आवश्यक कार्य को लेकर वे बस लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होते हैं—उन्हें जिम्मेदारी का न्यूनतम भान भी नहीं होता। चाहे जितनी भी समस्याएँ खड़ी हो जाएँ, वे उन्हें सुलझाने के लिए कभी भी सत्य को नहीं खोजते, और वे अपने कर्तव्यों में सिर्फ अनमने रहते हैं। कुछ सतही, सामान्य मामले सँभालने के बाद वे सोचते हैं कि उन्होंने वास्तविक कार्य किया है। अपने कर्तव्य निभाते समय मसीह-विरोधी बुरे कार्य करते हैं और मनमाने और तानाशाही ढंग से कार्य करते हुए पागलों की तरह उत्पात मचाते हैं। वे कलीसिया के कार्य को बिल्कुल बेतरतीब और पूरी तरह अव्यवस्थित कर देते हैं। कार्य का एक भी पहलू मानक स्तर तक और बगैर गलती के नहीं किया जाता; कार्य का कोई भी पहलू ऊपरवाले के हस्तक्षेप, उसकी पूछताछ और निगरानी के बिना अच्छे ढंग से नहीं किया जाता। और फिर भी कुछ ऐसे होते हैं जो बर्खास्त कर दिए जाने के बाद शिकायतों और अवज्ञा से भर जाते हैं; वे अपनी ओर से कपटपूर्ण दलीलें देते हैं, और ऊपरी स्तर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर जिम्मेदारी डाल देते हैं। क्या यह पूरी तरह से अनुचित नहीं है? सत्य के प्रति किसी व्यक्ति का सच्चा रवैया तब नहीं दिख सकता जब कुछ न घटा हो, लेकिन जब उनकी काट-छाँट की जाती है और उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है तो सत्य के प्रति उनका सच्चा रवैया प्रकट हो जाता है। जो लोग सत्य को स्वीकारते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में ऐसा करने में सक्षम होते हैं। गलत होने पर वे अपनी गलती मान सकते हैं; वे तथ्यों का सामना कर सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे यह नहीं मानेंगे कि वे गलत हैं, भले ही उनकी गलती उजागर हो चुकी हो; यह स्वीकार करना तो दूर की बात है कि परमेश्वर का घर उन्हें सँभालेगा—और उनमें से कुछ लोग औचित्य के रूप में किस बात का उपयोग करेंगे? “मैं अच्छा करना चाहता था—बस मैंने नहीं किया। खराब ढंग से करने के लिए मुझे अब दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मेरा इरादा ठीक था, मैंने कष्ट सहे और कीमत चुकाई, और मैंने खुद को खपाया—कोई काम अच्छे ढंग से न करना बुराई करने जैसा नहीं है!” इस औचित्य, इस बहाने का उपयोग करना, परमेश्वर के घर द्वारा सँभाले जाने से इनकार करना—क्या यह उचित है? कोई व्यक्ति चाहे जो भी औचित्य या बहाने पेश करे, वह सत्य और परमेश्वर के प्रति अपना रवैया छिपा नहीं सकता है। इसका संबंध उसके प्रकृति सार से होता है, और यह सर्वाधिक प्रतीकात्मक चीज है। कोई चीज घटी हो या नहीं, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया तुम्हारा प्रकृति सार दर्शाता है। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया है। तुम परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हो यह सिर्फ यह देख कर जाना जा सकता है कि तुम सत्य के साथ कैसा व्यवहार करते हो।
लोगों को नियंत्रित करने के मसीह-विरोधियों के व्यवहार के बारे में अपनी चर्चा के दौरान अभी हमने क्या बात की? (मसीह-विरोधी केवल लोगों को नियंत्रित करने में रुचि रखते हैं।) सही है। जो लोग खास तौर पर अहंकारी होते हैं, और रुतबे से विशेष प्रेम करते हैं, उन्हें लोगों को नियंत्रित करने में काफी “रुचि” होती है। यह “रुचि” सकारात्मक नहीं होती—यह एक इच्छा और महत्वाकांक्षा है, यह नकारात्मक होती है, और यह निंदापूर्ण होती है। उन्हें लोगों को नियंत्रित करने में रुचि क्यों होती है? एक वस्तुपरक परिप्रेक्ष्य में, यह उनकी प्रकृति है, लेकिन एक और भी कारण है : जो लोग दूसरों को नियंत्रित करते हैं, उनमें रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ, गुमान और सत्ता के लिए विशेष जुनून और स्नेह होता है। क्या मैं इसे इस तरह कह सकता हूँ? (जरूर।) और क्या यह विशेष जुनून और स्नेह शैतान के जैसा नहीं है? क्या यह शैतान का सार नहीं है? शैतान दिन भर सोच-विचार करता है कि लोगों को कैसे गुमराह और नियंत्रित करे; हर दिन वह लोगों में भ्रांतिपूर्ण विचार और दृष्टिकोण बैठाता है, चाहे निरंतर प्रयासों से मन में बिठाने या शिक्षा के जरिए, या पारंपरिक संस्कृति के जरिए, विज्ञान के जरिए, ऊँचे ज्ञान और सीखों से—और वह लोगों में जितना ये चीजें बैठाता है, वे उसकी उतनी आराधना करते हैं। लोगों के मन में ये चीजें बैठाने के पीछे शैतान का लक्ष्य क्या होता है? एक बार उसके ऐसा करने के बाद लोग उसके विचारों से आविष्ट हो जाते हैं; उसके फलसफों और जीवन जीने के तरीकों से युक्त हो जाते हैं। यह लोगों के दिलों में शैतान के जड़ें जमाने के बराबर होता है। वे शैतान के अनुसार जीते हैं और उनका जीवन शैतान का जीवन होता है—यह दानवों का जीवन है। क्या ऐसा नहीं है? क्या यही मसीह-विरोधियों की लोगों को नियंत्रित करने की प्रकृति नहीं है? वे हर किसी को अपने जैसे लोग बना देना चाहते हैं; वे चाहते हैं कि सभी लोग उनके लिए जिएँ, उनके अधीन हों, और उनके लिए काम करें। और सब-कुछ उनके नियंत्रण में ही हो : लोगों की सोच और बोली, उनके बोलने की शैली, विचार और दृष्टिकोण, उनके कार्य करने का परिप्रेक्ष्य और रवैया, यहाँ तक कि परमेश्वर के प्रति उनका रवैया, उनकी आस्था, और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उनका संकल्प और उनकी आकांक्षा—यह सब उनके नियंत्रण में होने चाहिए। यह नियंत्रण कितना गहरा होता है? वे पहले लोगों की बुद्धि भ्रष्ट करके उन्हें अपने विचारों में ढालते हैं, और फिर वे सभी लोगों से वही चीजें करवाते हैं जो वे खुद करते हैं। वे “गॉडफादर” बन जाते हैं। लोगों को ऐसा बनाने के लिए मसीह-विरोधी कई तरीके इस्तेमाल करते हैं : गुमराह करना, उनके मन में अपने विचार बैठाना, भयभीत करना, और क्या? (मनोवैज्ञानिक हमले।) यह गुमराह करने का हिस्सा है। और क्या? (जबरदस्ती करना और लोगों को खरीद लेना।) वे लोगों को कैसे खरीदते हैं? कुछ लोग परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य करते समय बुरे काम करते हुए पागलों की तरह उत्पात मचाते हैं। क्या मसीह-विरोधी इसे स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं? यह उन्हें स्पष्ट दिखाई देता है। तो फिर क्या वे इससे निपटते हैं? वे इससे नहीं निपटते। और वे इससे क्यों नहीं निपटते? वे इस मामले का उपयोग लोगों को खरीदने के लिए करना चाहते हैं; वे उनसे कहते हैं, “तुमसे न निपटना तुम पर मेरा उपकार है। तुम्हें मुझे धन्यवाद देना चाहिए। मैंने तुम्हें एक बुरा काम करते देखा, लेकिन मैंने सूचित नहीं किया, और मैं तुमसे नहीं निपटा। मैंने तुम्हारे साथ नरमी दिखाई। क्या अब तुम आगे मेरे प्रति आभार जताने के ऋणी नहीं हो?” ये लोग फिर उनके प्रति आभारी हो जाते हैं और उन्हें अपना हितकारी मानने लगते हैं। फिर मसीह-विरोधी और वे लोग बस एक ही बाड़े में लोटने वाले सूअरों की तरह हो जाते हैं। सत्ता में होने पर मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को खरीद सकते हैं : जो लोग बुराई करते हैं, जो परमेश्वर के घर के हितों को हानि पहुँचाते हैं, जो अकेले में परमेश्वर की आलोचना करते हैं, और जो अकेले में परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं। मसीह-विरोधी इस तरह के बुरे लोगों के गिरोह की रक्षा करते हैं। क्या यह एक प्रकार का नियंत्रण नहीं है? (हाँ, है।) तथ्य यह है कि मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराई में जानते हैं कि ये लोग वे नहीं हैं जो परमेश्वर के घर के हितों को सुरक्षित रखते हैं। वे सब यह जानते हैं—एक मौन सहमति होती है—और इसलिए वे आपस में घनिष्ठता से काम करते हैं। “हम एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। तुम परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखते। तुम परमेश्वर को मूर्ख बनाते हो, और मैं भी; तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, मैं भी नहीं करता।” मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को खरीद लेते हैं। क्या यह उन्हें खरीद लेना नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचने देने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। परमेश्वर के घर के हितों की कीमत पर, वे इन लोगों को अंधाधुंध बुरे काम करते और परमेश्वर के घर से मुफ्त में लाभ उठाते हुए देखकर भी आँखें मूँद लेते हैं। यह ऐसा है मानो वे इन लोगों का पोषण कर रहे हों, और ये लोग अनजाने में उनके कृतज्ञ हों। जब परमेश्वर के घर के लिए इन बुरे लोगों से निपटने का वक्त आता है, तो वे मसीह-विरोधियों को किस दृष्टि से देखते हैं? वे स्वयं से कहते हैं, “अरे नहीं। वे पहले ही बर्खास्त किए जा चुके हैं। अगर वे नहीं किए गए होते, तो हम कुछ ज्यादा समय तक मजे ले सकते थे—उनके कवच के साथ मुझसे कोई नहीं निपट सकता था।” वे अभी भी मसीह-विरोधियों से इतना अधिक लगाव महसूस करते हैं! यह स्पष्ट है कि वे तमाम चीजें जो मसीह-विरोधी करते हैं, गड़बड़ियाँ और बाधाएँ हैं, ऐसी चीजें जो लोगों को गुमराह करती हैं, और परमेश्वर का विरोध करने वाले बुरे कर्म हैं। और कोई भी व्यक्ति जो सत्य से प्रेम नहीं करता, वह इन बुरे कर्मों से नफरत नहीं करेगा, और वह इनका बचाव भी करेगा। उदाहरण के लिए, एक अगुआ था जो मसीह-विरोधियों की रक्षा करता था। ऊपरवाले ने उससे पूछा कि क्या कलीसिया में कोई गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा कर रहा है, या बुराई करते हुए हिंसक व्यवहार कर रहा है, या क्या कोई मसीह-विरोधी है जो लोगों को गुमराह कर रहा है। अगुआ ने कहा, “ठीक है, मैं पता लगाता हूँ। चलो, तुम्हारे लिए पता करूँगा।” क्या यह उसके काम का हिस्सा नहीं था? इस लहजे से—“चलो, तुम्हारे लिए पता करूँगा”—उसने ऊपरवाले को अनमने ढंग से बोलकर छोड़ दिया, और फिर बाद में उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं सुना। उसने पता नहीं लगाया था—वह उन लोगों को नाराज नहीं करना चाहता था! और जब ऊपरवाले ने दोबारा पूछा, “क्या तुमने पता लगाया?” तो उसने कहा, “मैंने पता लगाया—ऐसा कोई भी नहीं है।” क्या यह सच था? वह सबसे बड़ा मसीह-विरोधी था, कलीसिया के कार्य को बाधित करने वाला, और परमेश्वर के घर के हितों को हानि पहुँचाने वाला मुख्य अपराधी। वह स्वयं एक मसीह-विरोधी था—उसके लिए पता लगाने को क्या था? उसके वहाँ होते हुए, उसके नीचे के लोगों ने जो भी बुरी चीजें की हों, जो भी गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा की हों, कोई भी इन चीजों का पता नहीं लगा सकता था। उसने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था। निहितार्थ यह है कि ऐसी परिस्थितियों में क्या उसने अपने नीचे के लोगों को परमेश्वर से अलग नहीं कर दिया था? उसने किया था। और जब वे लोग उसके द्वारा परमेश्वर से अलग कर दिए गए तो उन्होंने किसकी बातें सुनीं? क्या उन्होंने उसकी बातें नहीं सुनीं? और इसलिए वह कस्बे का दादा, डाकू अगुआ, स्थानीय आततायी बन गया—उसने उन लोगों को अपने नियंत्रण में कर लिया। उसने कौन-से तरीकों का उपयोग किया था? उसने ऊपरवाले से चालबाजी की, और अपने नीचे वालों को धोखा दिया। अपने नीचे वाले लोगों को खरीद कर उनसे मीठे बोल बोले, और ऊपरवाले से उसने चालबाजी की—उसने ऊपरवाले को जानने नहीं दिया कि नीचे क्या चल रहा है। उसने उस बारे में ऊपरवाले को कुछ नहीं बताया, और एक दिखावा किया। उसने क्या दिखावा किया? उसने ऊपरवाले से कहा, “हमारी कलीसिया में ऐसा कोई इंसान है जिसके बारे में सभी भाई-बहन सूचित करते हैं कि उसमें मानवता की कमी है, वह अत्यधिक दुर्भावनापूर्ण है, और कोई भी कर्तव्य करने लायक नहीं है। आपका क्या कहना है—क्या मैं उससे निपटूँ?” उसकी बात से, उसकी अभिव्यक्तियों से यह स्पष्ट था कि वह एक बुरी महिला थी जिससे निपटा जाना चाहिए। इसलिए ऊपरवाले ने कहा, “उस स्थिति में तुम उससे निपट सकते हो। क्या तुम लोग उससे निपट चुके हो?” उसने कहा, “पिछले महीने हम उससे निपटने के बाद उसे बाहर निकाल चुके हैं।” क्या तथ्य वही थे जो उसने कहे? और अधिक सवाल-जवाब के बाद पता चला कि सच में क्या चल रहा था? उस महिला की इससे नहीं बनती थी। और उनके बीच न बनने की एक वजह थी : यह अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करता था, और वह हमेशा भाई-बहनों के बीच गिरोह और गुट बनाता रहता था—वह मसीह-विरोधी की अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करता था, और उस महिला को इसकी पहचान थी और उसने उन समस्याओं को सूचित करके उसे उजागर किया था। जैसे ही उस महिला ने वह रिपोर्ट तैयार की, अगुआ के सहयोगी मातहतों को उसके बारे में पता चल गया और परिणामस्वरूप वह उसके द्वारा सताई गई और बाहर निकाल दी गई। इस मसीह-विरोधी ने अपने नीचे वाले सभी लोगों से उस महिला के विरुद्ध खड़े होकर उसे ठुकराने में उसका साथ देने का जबरदस्त काम किया, और अंततः उसने उस महिला से निपट कर उसे बाहर निकाल दिया, और फिर यह “अच्छी खबर” ऊपरवाले को दी। वास्तव में ऐसा कुछ हो ही नहीं रहा था। क्या कलीसिया में ऐसी चीजें होती हैं? होती हैं। ये मसीह-विरोधी भाई-बहनों का दमन करते हैं; वे उन्हें दबाते हैं जो उन्हें पहचान सकते हैं, और उनकी समस्याओं के बारे में सूचित कर सकते हैं, और साथ ही जो उनके प्रकृति सार की असलियत को समझ सकते हैं। वे पीड़ितों के विरुद्ध शिकायतें भी पहले दर्ज करते हैं, और ऊपरवाले को सूचित भी करते हैं कि ये ही वे लोग हैं जो बाधा पैदा कर रहे हैं। वास्तव में कौन बाधा पैदा कर रहा होता है? ये मसीह-विरोधी ही हैं जो कलीसिया को बाधित और नियंत्रित कर रहे हैं।
लोगों से अपने प्रति समर्पण करवाने के लिए मसीह-विरोधी कौन-सी तकनीकें उपयोग करते हैं? ऐसी ही एक तकनीक है तुम लोगों को नियंत्रित करने के विभिन्न साधनों का उपयोग करना—तुम्हारे विचारों, तरीकों, तुम्हारे चलने के मार्ग, और यहाँ तक कि अपने पास मौजूद सत्ता के जरिए तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य को नियंत्रित करना। यदि तुम उनके करीब हो जाओ, तो वे तुम्हें एक आसान कर्तव्य दे देंगे जिससे तुम दूसरों से अलग दिखोगे; यदि तुम हमेशा उनकी अवज्ञा करते हो, हमेशा उनकी खामियाँ बताते हो, और उनकी भ्रष्टता की समस्या को उजागर करते हो, तो वे तुम्हारे लिए ऐसे काम की व्यवस्था करेंगे जो लोगों को पसंद नहीं होते—उदाहरण के लिए कुछ गंदा और थकाऊ काम करने के लिए किसी युवा बहन को लगा देना। वे उस व्यक्ति के लिए आसान और साफ-सुथरे कामों की व्यवस्था करते हैं, जो उनके करीब होता है, उनकी चापलूसी करता है, और हमेशा वो बातें कहता है जो वे सुनना चाहते हैं। मसीह-विरोधी लोगों से इसी तरह व्यवहार करते हैं, और उन्हें नियंत्रित करते हैं। यानी, कर्मचारियों की नियुक्ति और तबादलों की सामर्थ्य की बात आने पर कौन क्या काम करता है, यह सब उनके हाथ में होता है, इस पर उनका ही एकल नियंत्रण होता है। क्या यह महज एक प्रकार की महत्वाकांक्षा और इच्छा है? नहीं, ऐसा नहीं है। क्या यह मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के मद आठ से ठीक-ठीक मेल नहीं खाता है : “वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं”? इस “वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं” का संदर्भ किससे है? इस अभिव्यक्ति में गलत क्या है? यह किस तरह से गलत है? बात यह है कि उन्होंने लोगों से जिसके प्रति समर्पण करवाया है, वह पूरी तरह सत्य के विरुद्ध है। यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं है। यह पूरी तरह से परमेश्वर के घर के हितों और परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध है; इसका जरा-सा भी अंश परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करता, और इसका जरा-सा भी अंश सत्य के अनुसार नहीं है। उन्होंने लोगों से जिनके प्रति समर्पण करवाया है, वे पूरी तरह से उनकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ, प्राथमिकताएँ, हित और धारणाएँ हैं। क्या यह समस्या का सार नहीं है? यह एक तरीका है जिससे मसीह-विरोधी का सार अभिव्यक्त होता है। क्या यह मामले की जड़ तक नहीं पहुँचता है? इस तरीके को पहचानना जिससे मसीह-विरोधी कार्य करते हैं, आसान होना चाहिए। ऐसे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता होते हैं जो सही और सच्ची सोच पेश करते हैं, और हालाँकि कुछ लोगों को विश्वास नहीं होता और वे उसे स्वीकार नहीं कर पाते, ये अगुआ उन सही विचारों को क्रियान्वित करने और उन्हें अभ्यास में लाने में जुटे रहते हैं। इस व्यवहार और मसीह-विरोधियों के व्यवहार में क्या अंतर है? ये दोनों सतह पर तो एक समान लगते हैं, लेकिन उनके सार में अंतर होता है। मसीह-विरोधी जो करते हैं वह जानबूझ कर सत्य और परमेश्वर के घर के कार्य सिद्धांतों के विरुद्ध जाना है, परमेश्वर के घर के लिए कर्तव्य करने और सत्य के प्रति समर्पण करने की आड़ में लोगों से वह काम करवाना है जो वे कहते हैं। यह गलत है—भयानक और बेतुके तौर पर गलत। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता सही विचारों को बनाए रखते हैं। जो बात सत्य सिद्धांतों के अनुसार हो उसे बनाए रखना चाहिए; यह अहंकार और आत्मतुष्टता नहीं है, न ही यह लोगों को बाध्य करना है—यह सत्य को बनाए रखना है। ये दोनों व्यवहार बाहर से एक जैसे लगते हैं, लेकिन उनके सार भिन्न हैं : एक सत्य सिद्धांतों को बनाए रखना है, और दूसरा गलत नजरियों को बनाए रखना है। मसीह-विरोधी जो भी करते हैं वह पूरी तरह से सत्य का उल्लंघन है, उसके साथ शत्रुता है, और पूरी तरह से उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से अभिप्रेरित है—इसीलिए मसीह-विरोधी लोगों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, बल्कि केवल अपने प्रति समर्पण करवाते हैं। यही इस मद का अहम हिस्सा है। अभी हमने जिस बारे में चर्चा की वह एक स्थापित तथ्य है। यहाँ इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का संदर्भ किससे है? इनका संदर्भ उन कुछ लोगों से है जो वे जाहिर चीजें नहीं करते जो एक मसीह-विरोधी करेगा, फिर भी उनमें ये प्रवृत्तियाँ होती हैं। उनमें ये प्रवृत्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं, यानी उनमें ये इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ होती हैं। वे जिस भी समूह में होते हैं, हमेशा लोगों पर एक अधिकारी की तरह हुक्म चलाना चाहते हैं : “तुम जा कर खाना बनाओ!” “तुम जा कर अमुक को सूचित करो!” “अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करो, और ज्यादा वफादारी रखो—परमेश्वर देख रहा है!” क्या उन्हें ऐसा कहने की जरूरत है? यह कैसा लहजा है? हमेशा एक प्रभु और मालिक की तरह पेश आने वाले वे कौन हैं? वे कुछ भी नहीं हैं, फिर भी वे ऐसी बातें कहने की हिम्मत करते हैं—क्या इसमें विवेक का अभाव नहीं दिखता? कुछ लोग कह सकते हैं, “वे लोग बेवकूफ हैं।” लेकिन वे कोई साधारण बेवकूफ लोग नहीं हैं—वे विशेष लोग हैं। विशेष कैसे? जब वे किसी मामले पर किसी के साथ बहस करते हैं या विचार-विमर्श करते हैं, तो चाहे वे सही हों या गलत, उन्हें ही अंततः विजयी होना है; वे सही हों या गलत, उन्हीं का फैसला अंतिम होगा, उन्हीं की चलेगी, निर्णय वही लेंगे। उनका रुतबा चाहे जो हो, फैसले वे ही लेना चाहते हैं। यदि सही राय व्यक्त कर कोई दूसरा व्यक्ति विजयी हो जाता है तो वे नाराज हो जाते हैं; वे अपना काम छोड़ और अधिक काम करने से इनकार करदेते हैं—वे यह कह कर छोड़ देते हैं : “तुम लोग जो चाहे कह सकते हो—वैसे भी, तुम लोग मेरी बात नहीं सुनते!” क्या उनमें वह महत्वाकांक्षा और इच्छा नहीं है? ऐसे लोगों के प्रभु और मालिक होने, उनके पर्यवेक्षक और अगुआ बन जाने के नतीजे क्या होते हैं? वे मानक मसीह-विरोधी बन जाते हैं। क्या तुम लोगों में ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं? यह अच्छी बात नहीं होगी! क्या यह एक महा विपत्ति नहीं होगी कि परमेश्वर का कोई विश्वासी सत्य हासिल करने के बजाय मसीह-विरोधी बन जाए?
गैर-विश्वासी किस दृष्टि से लोगों को देखते हैं? जब वे किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तो वे पहले उसके रंग-रूप और पोशाक पर गौर करते हैं; जब वे दूसरों को बोलते हुए सुनते हैं, तो हमेशा यह देखना चाहते हैं कि क्या उन्हें ज्ञान है। यदि वे पाते हैं कि तुम्हारा रंग-रूप और पोशाक कोई खास देखने लायक नहीं हैं, और तुम कोई बढ़िया शिक्षा-प्राप्त या जानकार नहीं हो, तो वे तुम्हारा उपहास करते हैं, और तुम्हारे साथ बात करते समय वे तुम्हें दबाना चाहते हैं। मैं कहता हूँ, “यदि तुम बहस करना चाहते हो, तो शुरू करो—तुम बोलो।” मैं नहीं बोलता; मैं उसे बोलने देता हूँ। परमेश्वर के घर में मैं जहाँ भी जाता हूँ, ज्यादातर लोग मुझे सुनते हैं। मैं ऐसे अवसर ढूँढ़ता हूँ जहाँ मुझे दूसरों की बात सुनने को मिले, दूसरे ज्यादा बोलें—मैं कोशिश करता हूँ कि सभी को अपने दिल से बोलने दूँ, और वे अपने भीतर की कठिनाइयों और अपने ज्ञान के बारे में बताएँ। सुनते वक्त मुझे कुछ भटकाव सुनाई पड़ जाते हैं। मैं सुन सकता हूँ कि उनकी कुछ समस्याएँ और कमियाँ हैं, जिस मार्ग पर वे चल रहे हैं उसमें क्या समस्याएँ खड़ी हो रही हैं, और कलीसिया के कार्य का कौन-सा क्षेत्र अच्छे ढंग से काम नहीं कर रहा है, उसमें कौन-सी समस्याएँ शेष हैं, और क्या उनका समाधान जरूरी है, मैं इन चीजों के बारे में सुनने पर ध्यान देता हूँ। यदि हम किसी मसले पर वाद-विवाद कर रहे हों—उदाहरण के लिए यदि मैं कहूँ कि कप कागज है, और तुम जोर देते हो कि यह प्लास्टिक है, तो मैं कहूँगा, “ठीक है, तुम सही हो।” मैं तुम्हारे साथ बहस नहीं करूँगा। कुछ लोग सोचते हैं, “यदि तुम सही हो, तो बहस क्यों नहीं करते हो?” यह मसले पर निर्भर करता है। यदि यह ऐसी कोई चीज है जिससे सत्य प्रभावित होता है, तो तुम्हारे लिए यही ठीक है कि तुम मेरी बात पर ध्यान दो; यदि यह कोई बाहरी मामला है, तो चाहे तुम लोग कुछ भी कहो, मैं उसमें शामिल नहीं होऊँगा—ऐसी चीजों का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। इन चीजों के बारे में मुझसे बहस करने का कोई फायदा नहीं है। कुछ लोग देश के कुछ विषयों पर चर्चा करते हैं। मैं उनसे कहता हूँ, “मेरी समझ से वह चीज ऐसी है।” मैं शुरू में “मेरी समझ से” जोड़ देता हूँ; इसमें थोड़ी सी आत्म-जागरूकता है। मैं मामले को स्पष्ट करने के लिए एक तथ्य सामने रखता हूँ, कहता हूँ, “फिलहाल स्थिति ऐसी है, लेकिन अगर कुछ विशेष परिस्थितियाँ आईं, तो मुझे उनके बारे में नहीं मालूम।” मैं ऐसे तथ्य के साथ मामले का आकलन करने के लिए बस यही कर सकता हूँ, लेकिन मैं यह दिखावा नहीं कर रहा हूँ कि मैं कितना जानता हूँ। मैं उन्हें एक संदर्भ के तौर पर थोड़ी-सी सूचना दे रहा हूँ—मैं उनसे ऊँचे स्थान पर आसीन हो कर उन्हें दबाना नहीं चाहता, उन्हें यह दिखाने के लिए कि मैं कितना बुद्धिमान हूँ, कि मैं सब-कुछ जानता हूँ, और वे कुछ भी नहीं जानते। यह मेरा परिप्रेक्ष्य नहीं है। जब कुछ लोग मेरे साथ बात कर रहे होते हैं, तो मैं थोड़ी ऐसी जानकारी का उल्लेख करता हूँ जिसे वे नहीं जानते, और कहते हैं, “तुम सारा दिन भीतर रहते हो—तुम्हें क्या पता?” उनके पास वह जानकारी नहीं है फिर भी वे उस बारे में मुझसे बहस करना और झगड़ा करना चाहते हैं। मैं कहता हूँ, “सही है। मैं बाहर नहीं जाता हूँ, लेकिन मैं बस यह एक चीज जानता हूँ। मैं तुम्हें बस इस बारे में बता रहा हूँ, और कुछ नहीं—मानो या न मानो।” उस बारे में बहस करने की क्या बात है? ऐसी चीज के बारे में बहस करना एक स्वभाव है। बाहरी मामले की बात पर कुछ लोग यह कह कर श्रेष्ठता के लिए स्पर्धा भी करना चाहते हैं, “तुम्हें इस बारे में कैसे पता चला? मैं इस बारे में क्यों नहीं जानता? तुम इस बारे में इतना क्यों बोल पाते हो, जबकि मैं नहीं बोल पाता?” उदाहरण के लिए मैं कहता हूँ, “इतने वर्षों से मैं यहाँ रह रहा हूँ, मुझे जलवायु के बारे में एक विशेष चीज पता चली है : यहाँ काफी उमस है।” लंबे समय तक यहाँ रहने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ—यह एक तथ्य है। फिर भी कुछ लोग यह सुन कर कहते हैं, “क्या चीजें वास्तव में ऐसी हैं? फिर मुझे उमस क्यों महसूस नहीं हुई?” सिर्फ इस वजह से कि तुमने उमस महसूस नहीं की है, इसका यह अर्थ नहीं है कि उमस नहीं है। तुम सिर्फ इस आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते कि तुम क्या महसूस करते हो—तुम्हें आँकड़े देखने होंगे। दैनिक मौसम पूर्वानुमानों में काफी विस्तार से ब्योरा दिया जाता है, और एक बार तुम कई पूर्वानुमान पढ़ लो, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि यहाँ वास्तव में उमस है। यह ऐसी चीज नहीं है जिसकी मैंने बस कल्पना कर ली, और मैं महसूस करने के आधार पर बोल ही नहीं रहा हूँ। और ऐसा क्यों है? दीवारों के छायादार आधार में साल भर काई जमी रहती है; वसंत ऋतु के समय ऐसी कुछ जगहें होती हैं जहाँ कोई चलने की हिम्मत नहीं करता, वहाँ इतनी फिसलन होती है। यह प्रेक्षण इसे अनुभव करने से आया, खुद अपनी आँखों से देखकर आया है और इसे स्वयं महसूस कर आया है। इस तरह बात करना तथ्यों के विरुद्ध जाना नहीं है, ठीक है न? लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो मुझसे बात करते समय इन चीजों को लेकर मुझे चुनौती देते हैं—मैं कहता हूँ कि यहाँ उमस है, और वे कहते हैं, नहीं है। क्या ये लोग भ्रमित नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) कुछ वक्तव्य वास्तविकता के आधार पर दिए जाते हैं, क्योंकि वे अनुभव से आते हैं, और कोरी कल्पनाएँ नहीं होते। मैं क्यों कहता हूँ कि ये कल्पनाएँ नहीं हैं? इस वजह से कि वे विवरणों को स्पष्ट रूप से, पूरी तरह से और व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करते हैं, और जब कोई व्यक्ति इन वक्तव्यों में वर्णित बातों को देखता और अनुभव करता है, तो वह बताई हुई चीज से बिल्कुल मेल खाता है। तो क्या ये वक्तव्य सही नहीं होते? (होते हैं।) फिर भी इन सही वक्तव्यों के साथ भी कुछ लोग ऐसे हैं जो हमेशा विवादग्रस्त रहते हैं, और मुझसे इसी तरह बहस करते रहते हैं। वे किस चीज के लिए बहस कर रहे हैं? क्या यह जीवन-मरण का संघर्ष है? क्या वे अपने जीवन के लिए लड़ रहे हैं? वे उसके लिए बहस नहीं कर रहे हैं, वे सिर्फ इस बात पर स्पर्धा कर रहे हैं कि कौन अधिक जानता है। वे बस बहस करना चाहते हैं—यह एक स्वभाव है। तुम लोगों को क्या लगता है ऐसे लोगों से कैसा बरताव किया जाना चाहिए? क्या उन्हें उजागर किया जाना चाहिए, और उनसे तब तक बहस करनी चाहिए जब तक तुम गुस्से से लाल न हो जाओ? (नहीं।) ऐसे अज्ञानी लोगों के साथ बहस करने का कोई फायदा नहीं है। यह अपमानजनक है, उन्हें जाने दो। क्या इससे काम नहीं चलेगा? ऐसे बेवकूफ और जल्दबाज लोगों के साथ बहस करने का क्या फायदा? अगर सत्य से जुड़े किसी मामले को न समझ पाने के कारण कोई व्यक्ति बहस करे, तो ठीक है—लेकिन क्या इन बाहरी मामलों के बारे में बहस करना अज्ञानता नहीं है? मसीह-विरोधियों का स्वभाव मुख्य रूप से सत्य को स्वीकार न करने का होता है, अहंकारी और आत्मतुष्ट होने का है, सत्य से विमुख होने का होता है। मसीह-विरोधी तथ्यों के अनुरूप रहने वाले कोई सही शब्द, बातें या कहावतें भी स्वीकार नहीं करते हैं, और वे उन पर शोध करेंगे और उनके बारे में तुमसे वाद-विवाद और बहस करेंगे—और यह सत्य के बारे में कुछ बोलने के लिए नहीं होता। क्या यह स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) यह कैसा स्वभाव है? अहंकार। उनका मतलब होता है, “तुम बस थोड़ा-सा सत्य समझते हो, है कि नहीं? तुम बाहरी मामलों को नहीं समझते हो, इसलिए तुम मुझसे उनके बारे में सुनो तो तुम्हारे लिए ठीक रहेगा! तुम अपना मुँह मत खोलो—इससे मुझे वास्तव में गुस्सा आता है! ये बाहरी मामले तुम्हारे प्रबंध करने के लिए नहीं हैं। तुम्हारी जिम्मेदारियों के साथ सत्य बोलने पर मैं तुम्हारी बात सुनूँगा—लेकिन इन बाहरी मामलों के बारे में बताना बंद करो। चुप रहो, चुप क्यों नहीं रहते हो! तुमने कभी इन मामलों का सामना नहीं किया है, तो तुम्हें क्या मालूम? तुम्हें मेरी बात सुननी होगी!” हर चीज में वे चाहेंगे कि लोग उनकी ही बात सुनें। वे सभी को जीतना चाहते हैं, यह देखे बिना कि सामने कौन है। यह कैसा स्वभाव है? क्या इन सबमें कोई विवेक है? (नहीं।)
मुझे बताओ, मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है या मुश्किल? (आसान है।) तुम कैसे बता सकते हो? तुम क्यों कहते हो कि यह आसान है? मैं तुम लोगों को बताता हूँ, और तुम समझ सकते हो कि अपने बारे में मेरा स्पष्टीकरण सही और सटीक है या नहीं। अव्वल तो मेरी तार्किकता सामान्य है। इस सामान्यता को कैसे समझाया जा सकता है? इसका अर्थ है कि सभी मामलों को लेकर मेरे मानक और नजरिए सटीक हैं। इस तरह से, क्या हर प्रकार की चीज के बारे में मेरे विचार और वक्तव्य और हर प्रकार की चीज के प्रति मेरा रवैया पूरी तरह से सामान्य नहीं है? (हाँ, है।) वे सामान्य हैं—कम-से-कम वे सामान्य मानवता के मानकों के अनुसार हैं। दूसरे, सत्य मुझे काबू में रखता है। ये वे दो चीजें हैं जिनसे सामान्य तार्किकता कम-से-कम युक्त होती है। और इसका एक और पहलू भी है : जिस कारण से तुम लोग यह देख पाते हो कि मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है, वह यह है कि प्रत्येक किस्म के लोगों को लेकर मेरा मापदंड सही होता है और मुझे मानक ज्ञात हैं। मेरे पास सही मापदंड है, और साथ ही वे तरीके और उपाय हैं कि मैं प्रत्येक किस्म के व्यक्ति जैसे कि अगुआओं और साधारण भाई-बहनों से कैसा व्यवहार करूँ, उम्रदराज लोगों और युवाओं के साथ कैसे पेश आऊँ, दिखावा करने की प्रवृत्ति वाले अहंकारी लोगों से कैसा व्यवहार करूँ, और ऐसे लोगों से कैसा व्यवहार करूँ जिन्हें आध्यात्मिक समझ है और नहीं है, आदि-आदि। मुख्य रूप से यह सही मापदंड, और ये तरीके और उपाय क्या हैं? ये हैं सत्य सिद्धांतों के साथ चलना, बिना सोचे-समझे कुछ न करना। उदाहरण के लिए, मान लो कि एक विश्वविद्यालय के छात्र होने के नाते मैं तुम्हारा सम्मान करता, या एक किसान होने के नाते तुम्हारा तिरस्कार करता—तो ये सिद्धांत नहीं हैं। तो मैं इन सिद्धांतों को कैसे समझूँ? किसी व्यक्ति की काबिलियत और मानवता, उसके कर्तव्य, परमेश्वर में उसकी आस्था और सत्य के प्रति उसके रवैये को देखकर। मैं इन विभिन्न पहलुओं के संयोजन के आधार पर लोगों की कद्र करता हूँ। एक और भी कारण से तुम लोगों को मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान लगता है, जो ऐसी चीज है जिसके बारे में बहुत-से लोगों की धारणाएँ होती हैं, और वे उसे स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं। वे सोचते हैं, “तुम्हारे पास रुतबा है, लेकिन तुम ऐसे क्यों नहीं लगते हो कि तुम कोई रुतबे वाले हो? तुम अपना रुतबा जताते नहीं हो; तुम घमंडी नहीं हो। लोग अपने मन में सोचते हैं कि उन्हें तुम्हें आदर से देखना चाहिए—लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब लोग तुम्हें देखते हैं, तो उन्हें यह अत्यंत उपयुक्त लगता है कि तुम्हें समान स्तर पर रखें या यहाँ तक कि तुम्हें नीची नजर से देखें?” और इसलिए, उन्हें लगता है कि मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है, और वे सुकून से रहते हैं। क्या बात ऐसी नहीं है? बात ऐसी ही है। नतीजतन वे सोचते हैं कि मैं ऐसा नहीं हूँ कि मुझसे डरा जाए, और मेरे साथ इस तरह मिल-जुलकर रहना बढ़िया है। मुझे बताओ, यदि हर मोड़ पर मैं तुम लोगों को दबाऊँ, और बिना किसी विशेष कारण के तुम्हारी काट-छाँट करूँ, चेहरे पर दिन भर गुस्सैल हाव-भाव के साथ तुम्हें डाँटूँ-फटकारूँ, घुट्टी पिलाऊँ, तो क्या चीजें भिन्न नहीं होंगी? तुम लोग सोचोगे, “तुम्हारे सनकीपन और तेजी से बदलते हुए मिजाज को देखें तो तुम्हारे साथ मिल-जुल कर रहना बहुत मुश्किल है!” तो फिर मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान नहीं होगा। ऐसा इसलिए कि मैं अपने सभी पहलुओं, अपने व्यक्तित्व, अपनी खुशियों और गुस्से, अपने सुख-दुख में तुम लोगों को सामान्य लगता हूँ, और चूँकि तुम लोगों को मन की दृष्टि में लगता है कि साख और ऊँचे रुतबे वाले लोगों को घमंडी होना चाहिए, फिर भी तुम लोग मुझे जिस रूप में देखते हो वह अत्यंत साधारण है—ठीक इसी वजह से तुम मुझसे सतर्क नहीं रहते हो, और तुम्हें लगता है कि मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है। इसके अलावा, क्या तुम लोगों को लगता है कि बात करते समय मैं नौकरशाही वाली शब्दावली बोलता हूँ? (नहीं।) मैं नहीं बोलता—जब उन चीजों की बात आती है, जिन्हें तुम लोग नहीं समझते, तो मैं जितनी हो सके, तुम्हारी भरसक मदद करता हूँ, और विरले ही तुम लोगों की हँसी उड़ाता हूँ। मैं ऐसा विरले ही क्यों करता हूँ? कभी-कभी ऐसा वक्त आता है कि मैं बहुत हताश महसूस करता हूँ, और तुम्हारी हँसी उड़ाने के कुछ शब्द बोले बिना नहीं रह पाता, लेकिन मुझे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि तुम कमजोर पड़ सकते हो, और इसलिए मैं तुमसे ऐसी बातें कम-से-कम करता हूँ। इसके बजाय, मैं सहनशील, क्षमावान और धैर्यवान रहता हूँ। मैं तुम लोगों की जहाँ तक हो सके, जहाँ हो सके, भरसक मदद करता हूँ, और जितना और जो सिखा सकता हूँ, वह भरसक सिखाता हूँ—अधिकतर परिस्थितियों में मैं यही करता हूँ। और ऐसा क्यों है? इस वजह से कि परमेश्वर की गवाही देने और सत्य को समझने के मामले में ज्यादातर लोग अत्यंत अभावग्रस्त होते हैं—लेकिन खाने-पीने और मौज करने, पोशाकों और सजने-सँवरने, या खेलने और ऐसे ही सांसारिक मामलों की बात आती है, लोग इन चीजों के बारे में सब-कुछ जानते हैं। दूसरी ओर, परमेश्वर में आस्था के मामलों में, सत्य को स्पर्श करने वाले मामलों में, लोग अज्ञानी बने रहते हैं; जब परमेश्वर की गवाही देने और परमेश्वर की गवाही का थोड़ा कार्य करने, परमेश्वर की गवाही देनेवाला कुछ काम पूरा करने के लिए अपने पेशेवर कौशल, खूबियों और अपने गुणों का उपयोग करने की बात आती है, तो उनके पास कहने को कुछ नहीं होता। ऐसी स्थिति देख कर मुझे क्या करना चाहिए? मुझे तुम्हें सिखाना चाहिए, थोड़ा-थोड़ा करके मार्गदर्शन देना चाहिए और जितना हो सके तुम्हें उतना अच्छा सिखाना चाहिए। मैं वे चीजें चुनता हूँ, जो मुझे समझ आती हैं, जिन्हें मैं जानता हूँ, और जिन्हें मैं कर सकता हूँ, और मैं वे तुम्हें बार-बार सिखाता रहता हूँ, जब तक कि एक काम पूरा न हो जाए। मैं तुम्हें वह सब सिखाता हूँ जो सिखा सकता हूँ, और जितना सिखा सकता हूँ। कम काबिलियत वालों, जिन्हें सिखाया नहीं जा सकता, तुम लोग इसे जितना समझ सको, समझो और चीजों को अपने स्वाभाविक ढंग से आगे बढ़ने दो। मैं तुम्हें उन चीजों को समझने के लिए मजबूर नहीं करूँगा। अंततः, कुछ लोग हैं जो कहते हैं, “हममें से जो लोग किसी पेशे को समझते हैं, वे एक आम आदमी के आगे झुक गए हैं। हम लोग, जिन्हें इस क्षेत्र का ज्ञान है, कुछ भी करवा पाने में असमर्थ हो गए हैं, और कोई भी काम करवाने में निर्देशन और मदद के लिए हमें अब भी इस आम आदमी की जरूरत पड़ती है—यह बहुत अपमानजनक है!” वास्तव में यह अपमानजनक नहीं है क्योंकि अपने विश्वास के साथ परमेश्वर के लिए गवाही देने का संबंध सत्य से है और सत्य मानवजाति के लिए बिल्कुल अपरिचित क्षेत्र है। कोई भी भ्रष्ट मनुष्य सत्य की समझ के साथ जन्म नहीं लेता; वे केवल लोगों को पूर्ण बनाने के परमेश्वर के व्यक्तिगत कार्य के माध्यम से ही सत्य को समझ सकते हैं। यदि लोग परमेश्वर की गवाही देने की क्षमता के साथ पैदा होते, तो कोई भी परमेश्वर का विरोध न करता! यह इस वजह से है कि लोग शैतान के प्रकार हैं, और उनका प्रकृति सार ऐसा है कि वह परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है, और वे ऐसी चीजें करने में अक्षम होते हैं जो सत्य और परमेश्वर की गवाही से जुड़ी हैं। तो फिर लोगों को क्या करना चाहिए? जब तक वे जो काम कर सकते हैं अगर उसके लिए सर्वोत्तम प्रयास करते हैं, तो इतना काफी है। यदि मुझमें मदद और मार्गदर्शन करने की ऊर्जा होती है तो मैं मदद करता हूँ। यदि नहीं होती, या मैं दूसरी चीजों में व्यस्त होता हूँ, और समय न निकाल सकूँ, तो तुम लोग बस वही करो जो तुम कर सकते हो। यह सिद्धांतों के अनुरूप है, है कि नहीं? यही एकमात्र तरीका हो सकता है। मैं तुम्हें अपनी क्षमताओं से परे जाने को मजबूर नहीं करता। यह बेकार होता है—यह नहीं किया जा सकता। अंत में, लोग सोचते हैं : “तुम्हारे साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान है, तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी करना आसान है। तुम हमें बताओ कि क्या करना है, और हम वैसा ही करेंगे जैसा तुम कहोगे।” कभी-कभी कुछ लोगों की काट-छाँट हो सकती है। ज्यादातर लोग अच्छे होते हैं और काट-छाँट के बाद सही समझ पा कर निकलते हैं। कुछ लोग अपना काम छोड़ देते हैं, और कुछ लोग चोरी-छिपे बाधाएँ पैदा करते हैं, अपना कर्तव्य निभाने में कड़ी मेहनत नहीं करते, और वास्तविक कार्य नहीं करते। फिर ऐसे लोग बर्खास्त कर दिए जाते हैं। यदि तुम काम करने को तैयार नहीं हो, तो पद छोड़ दो। इस काम के लिए तुम्हें ही क्यों लगाया जाना चाहिए? हम तुम्हें बदल देंगे—बस इतनी ही बात है। सरल है, है न? यदि भविष्य में वे लोग प्रायश्चित्त करके बदल जाएँ और अपना काम अच्छे ढंग से करें, तो उन्हें एक और मौका दिया जाएगा—और यदि वे अभी भी उसी तरह से गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करें, तो फिर कभी उनका उपयोग नहीं किया जाएगा। किसी आज्ञाकारी व्यक्ति का उपयोग करना मेरे लिए बेहतर होगा। सारा समय ऐसे लोगों के साथ उलझे रहने का क्या लाभ? सही है न? यह उनके लिए कठिन और मेरे लिए थकाऊ होगा। मैं इन चीजों को कैसे सँभालता हूँ उसके लिए सिद्धांत हैं, और दूसरों के साथ मैं मिल-जुल कर कैसे रहता हूँ, इसके भी सिद्धांत हैं। मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान क्यों है, इसका एक और कारण यह है कि मैं उनसे कड़ी मेहनत वाली चीजों की कभी अपेक्षा नहीं करता। तुम जो कर सकते हो, वही करो; जो चीजें तुम नहीं कर सकते, मैं उनके बारे में बारी-बारी से तुमसे बात करूँगा। तुम जो कर सकते हो, वह दिल लगा कर करो; अगर तुम दिल लगा कर नहीं करोगे तो मैं तुम्हें ऐसा करने पर मजबूर नहीं करूँगा। जहाँ तक बाकी चीजों की बात है, यानी तुम परमेश्वर में कैसे विश्वास रखते हो, यह तुम्हारा अपना मामला है। अगर तुम्हें अंत में कुछ भी प्राप्त नहीं होता, तो तुम किसी को भी दोष नहीं दे सकते। लोगों से मेरे बर्ताव के सिद्धांतों के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या तुम्हें लगता है कि ये थोड़े पक्षपातपूर्ण हैं? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है—मैं इसे कैसे सँभालता हूँ यह सिद्धांतों के बिल्कुल अनुरूप है। वे सिद्धांत कौन-से हैं? मेरी बात सुनो, और तुम लोग समझ जाओगे।
मैं, देहधारी परमेश्वर, मानवता के भीतर कार्य करता हूँ—क्या मैं कार्य करने में पूरी तरह से पवित्र आत्मा या परमेश्वर के आत्मा का स्थान ले सकता हूँ? नहीं, मैं नहीं ले सकता। इसलिए मैं यह कह कर अपनी सीमाओं से परे जाने की कोशिश नहीं करता हूँ कि मैं स्वर्ग में परमेश्वर का स्थान लेकर उसका सारा कार्य करना चाहता हूँ। यह मेरा खुद को बड़ा करके दिखाना होगा—मैं इस काबिल नहीं हूँ। मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ। मैं जो कुछ भी कर सकता हूँ, करता हूँ। मैं वही करता हूँ, जो अच्छी तरह कर सकता हूँ। मैं उसे पूरा होने तक करता हूँ, और मैं उसे उचित ढंग से करता हूँ। मैं उसे करने में अपना दिल और शक्ति लगा देता हूँ। यही काफी है। यही कार्य है जो मेरे जिम्मे है। फिर भी यदि मैं इसे समझ न सकूँ, और इस तथ्य के प्रति अवज्ञापूर्ण महसूस करता रहूँ, और उसे स्वीकार न करूँ, बल्कि हमेशा महान होने का बहाना बनाने की कोशिश करूँ, हमेशा चमकने की कोशिश करता रहूँ, हमेशा कुछ अविश्वसनीय कौशल दिखाने की कोशिश करूँ, तो क्या यह सिद्धांतों के अनुसार होगा? नहीं। क्या तुम लोग सोचते हो कि मैं इस मामले को समझता हूँ? हाँ, मैं अच्छी तरह समझता हूँ! परमेश्वर का देह जो कह सकता है और कार्य कर सकता है वही उस कार्य का दायरा है जो वह देहधारी हो कर करता है। इस दायरे से परे लोगों का अकेले में परमेश्वर के अनुशासन और काट-छाँट का अनुभव करना और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन को स्वीकार करना, परमेश्वर का उन्हें दर्शन प्रदान करना और परमेश्वर किसे पूर्ण बनाएगा और किसे हटाएगा, और सभी लोगों के बारे में परमेश्वर का नजरिया और रवैया क्या है—ये सब परमेश्वर का मामला है। यदि तुम लोग मेरे निकट संपर्क में हो, तो मैं भी ये चीजें देख सकता हूँ—लेकिन मैं चाहे जैसे गौर करूँ, उनमें से कितने लोगों को देख सकता हूँ? मैं कितने लोगों को देख सकता हूँ, कितने लोगों के संपर्क में आ सकता हूँ, उसकी एक सीमा है—इसमें भला प्रत्येक व्यक्ति को कैसे शामिल किया जा सकता है? यह नामुमकिन होगा। क्या तुम्हें इस मामले में स्पष्ट नहीं होना चाहिए? मुझे बताओ, क्या मैं इस मामले में स्पष्ट हूँ? हाँ, हो। एक सामान्य व्यक्ति को यही करना चाहिए। मैं उन चीजों के बारे में नहीं सोचता जो मुझे नहीं करनी चाहिए। क्या लोग ऐसा करने में सक्षम हैं? नहीं हैं—उनमें वह तार्किकता नहीं है। कुछ लोग मुझसे पूछते हैं, “क्या तुम हमेशा चोरी-छिपे चीजों पर गौर नहीं करते? क्या तुम हमेशा यह पूछताछ नहीं करते कि कौन क्या कर रहा है, और वे तुम्हारे बारे में अकेले में कैसी खराब बातें कर रहे हैं, या कौन चोरी-छिपे तुम्हारी आलोचना कर रहा है, और तुम्हारे बारे में शोध कर रहा है?” मैं तुम्हारे साथ ईमानदार रहूँगा : मैंने उन चीजों के बारे में कभी पूछताछ नहीं की है। उन चीजों का प्रभारी कौन है? परमेश्वर का आत्मा—परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है; वह समस्त पृथ्वी की पड़ताल करता है और वह लोगों के दिलों की पड़ताल करता है। यदि तुम परमेश्वर की पड़ताल में विश्वास नहीं रखते, तो क्या तुम्हारा विवेक असामान्य नहीं है? (हाँ, है।) तो फिर तुम वैसे व्यक्ति नहीं हो, जो सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखता है, तुम गलत स्थान ले रहे हो, और एक बड़ी समस्या हो गई है। मैं तुम लोगों से परमेश्वर में विश्वास रखने की अपेक्षा रखता हूँ, और मैं इसमें पूर्ण रूप से विश्वास रखता हूँ। तो मेरे वचन और कार्य इस नींव पर निर्मित हैं। मैं अपनी सीमाओं से परे कोई चीज नहीं करता; मैं अपनी क्षमताओं के दायरे से परे कोई चीज नहीं करता। क्या यह एक स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) कुछ लोग इसे उस तरह से नहीं देखते। वे सोचते हैं कि मेरी यह पहचान है, यह रुतबा है, यह सामर्थ्य है, इसलिए वे सोच में पड़ जाते हैं कि मैं उस तरह से कार्य क्यों नहीं करता। वे सोचते हैं कि मुझे और अधिक चीजों को समझने की जरूरत है, और ज्यादा चीजों पर पकड़ बनानी चाहिए, ताकि ऐसा लगे कि मेरी साख ज्यादा है, मेरा रुतबा बड़ा है, मुझमें अधिक ताकत है, और मेरे पास अधिक अधिकार है। परमेश्वर मुझे चाहे जितना अधिकार दे दे, चाहे जितनी ताकत दे दे, मेरे पास बस इतना ही है। ये वे चीजें नहीं हैं, जिनके लिए मैं संघर्ष करता हूँ, न ये वे चीजें हैं जिन्हें मैं छीनता हूँ। परमेश्वर का अधिकार, उसकी सामर्थ्य और उसकी सर्वशक्तिमत्ता वे चीजें नहीं हैं जिन्हें एक तुच्छ देह द्वारा दर्शाया जा सके। यदि तुम इस बारे में स्पष्ट नहीं हो, तो तुम्हारे विवेक के साथ कुछ गड़बड़ है। यदि परमेश्वर में विश्वास रखने के अनेक वर्षों के बाद भी तुम इस मामले की असलियत नहीं समझ पाते, तो तुम काफी मूर्ख और अज्ञानी हो। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनके बारे में मैं नहीं पूछता—लेकिन क्या इनके बारे में मैं अपने दिल में जानता हूँ? (तुम जानते हो।) मैं क्या जानता हूँ? क्या मैं प्रत्येक का नाम जानता हूँ? क्या मैं जानता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति ने परमेश्वर में कितने वर्ष विश्वास रखा है? मुझे ये चीजें जानने की जरूरत नहीं है। मेरे लिए यह जानना काफी है कि प्रत्येक की दशा क्या है, प्रत्येक में किस चीज की कमी है, उन्होंने किस सीमा तक जीवन-प्रवेश प्राप्त किया है, और कौन-से सत्य सभी को सुनने चाहिए, और किनसे उनका सिंचन और पोषण होना चाहिए। ये चीजें जानना पर्याप्त है। क्या मेरे जिम्मे ये चीजें नहीं हैं? मेरे जिम्मे क्या है यह जानने के लिए—मुझे क्या कहना चाहिए और कौन-सा कार्य करना चाहिए—क्या यह तार्किकता नहीं है? (हाँ, है।) ऐसी तार्किकता कैसे आती है? यदि देहधारी परमेश्वर में ऐसी तार्किकता भी न होती, यदि सभी चीजों और सभी घटनाओं को मापने के लिए वह मानक भी न होता, तो फिर उसके पास बोलने के लिए कौन-सा सत्य होता? यदि देहधारी परमेश्वर को रुतबे के लिए परमेश्वर के आत्मा से झगड़ना पड़ता और रुतबे के लिए स्पर्धा करनी पड़ती, तो क्या कुछ गलत नहीं होता? क्या यह गलत नहीं होता? क्या चीजें ऐसी हो सकती हैं? नहीं—यह ऐसी चीज है जो कभी नहीं हो सकती।
कुछ लोग हमेशा चिंता करते हैं और कहते हैं, “क्या तुम हमेशा हमारे बारे में पूछताछ करते रहते हो और चोरी-छिपे हमारे बारे में शोध करते रहते हो? क्या परमेश्वर हमेशा यह जानने की कोशिश कर रहा है कि हम उसके बारे में क्या सोचते हैं और अपने दिलों में उसे किस दृष्टि से देखते हैं?” मैं ऐसी चीजों के बारे में नहीं सोचता। ये फालतू हैं! इन चीजों के बारे में सोचने का क्या फायदा? ये तमाम चीजें परमेश्वर की जाँच-पड़ताल में हैं। परमेश्वर के आत्मा के कार्यकलापों का एक दायरा है और देहधारी परमेश्वर के कार्यकलापों के लिए तो और भी ज्यादा है। देहधारी परमेश्वर परमेश्वर है, वह सत्य का निकास और अभिव्यक्ति है, और इस चरण में वह जो कार्य करता है, वह इस चरण का प्रतिनिधि है, अंतिम का नहीं। देहधारी परमेश्वर केवल वही कार्य कर सकता है जो इस अवधि और इस दायरे के भीतर है। फिर क्या यह कार्य अगले चरण का प्रतिनिधि हो सकता है? खैर, हम नहीं जानते कि भविष्य में क्या होगा। वह परमेश्वर का अपना मामला है। मैं ज्यादा आगे नहीं जाता। मैं वही करता हूँ जो मुझे करना है; मैं वही चीजें करता हूँ जो मुझे करनी चाहिए और जो मैं कर सकता हूँ। मैं यह कह कर कभी भी खुद को अपनी सीमाओं से परे नहीं धकेलता, “मैं सर्वशक्तिमान हूँ! मैं महान हूँ!” यह परमेश्वर का आत्मा है; देहधारी परमेश्वर केवल उस कार्य की एक अभिव्यक्ति और निकास को दर्शाता है जो परमेश्वर इस दौरान कर रहा है। उसके कार्य का दायरा और जो कार्य उसे करना है, वे परमेश्वर द्वारा पहले ही निर्धारित किए जा चुके हैं। यदि तुम्हें कहना होता, “देहधारी मसीह सर्वशक्तिमान है,” तो तुम सही होते या गलत? आधा सही, आधा गलत। परमेश्वर का आत्मा सर्वशक्तिमान है; मसीह को सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता। तुम्हें कहना चाहिए कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है। यह इसे कहने का एक सही और सटीक तरीका है, और ऐसा है जो तथ्यों के अनुसार है। मुझे कौन-सी तार्किकता से युक्त होना चाहिए? प्रत्येक व्यक्ति कहता है कि मैं परमेश्वर हूँ, स्वयं परमेश्वर हूँ, कि मैं देहधारी परमेश्वर हूँ, तो क्या मैं मान लूँ कि फिर तो मैं स्वयं परमेश्वर का या उसके आत्मा का स्थान ले सकता हूँ? मैं नहीं ले सकता। यहाँ तक कि अगर परमेश्वर मुझे वह सामर्थ्य और क्षमता दे दे, फिर भी मैं इसे पूरा नहीं कर सकता। यदि मैं उस तरह से परमेश्वर का स्थान ले लेता, तो क्या यह उसके स्वभाव और सार के विरुद्ध परोक्ष ईशनिंदा नहीं होती? देह कितनी सीमित है! यह उसे समझने का तरीका नहीं है; यह वह पहलू नहीं है जिससे इस विषय को देखना चाहिए। क्या ऐसी बात नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए, चूँकि मेरे मन में ये चीजें करने के लिए ये विचार और सिद्धांत हैं, और प्रत्येक चीज के लिए यह ध्यान रहता है, इसलिए मैं बहुत-से लोगों को परमेश्वर जैसा प्रतीत नहीं होता, और कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मेरे साथ संपर्क में आने से पहले, कुछ फंतासियाँ, कल्पनाएँ और धारणाएँ पाल लेते हैं, जो अपने कार्यकलापों में सावधान और सतर्क रहते हैं, और फिर जैसे ही मुझसे मिलते हैं, वे सोचते हैं, “यह तो बस एक इंसान है, है कि नहीं? इससे डरने जैसी कोई बात नहीं है।” इसके बाद, वे शिथिल पड़ जाते हैं—वे साहसी हो जाते हैं, और बुरे काम करते हुए पागलों की तरह उत्पात मचाते हैं। उन्हें क्या कहा जाता है? छद्म-विश्वासी। यदि तुम सिर्फ देहधारी परमेश्वर में विश्वास रखते हो, और परमेश्वर के आत्मा में नहीं, तो फिर तुम छद्म-विश्वासी हो; और यदि तुम केवल परमेश्वर के आत्मा में विश्वास रखते हो, देहधारी परमेश्वर में नहीं, तो भी तुम एक छद्म-विश्वासी ही हो। देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर का आत्मा एक हैं—वे एक हैं। वे एक-दूसरे से लड़ते नहीं है, एक-दूसरे से अलग रहना तो दूर की बात है, और प्रत्येक की अपनी अलग इकाई बनना तो और भी दूर की बात है। वे एक हैं—बात बस इतनी है कि देहधारी परमेश्वर को अपने कार्य और परमेश्वर को लेकर देह के दृष्टिकोण से व्यवहार करना चाहिए। यह देह का मामला है, और इसका तुम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है—यह मसीह का मामला है, और इसका मानव जाति से कोई लेना-देना नहीं है। तुम नहीं कह सकते, “तो तुम सोचते हो कि तुम भी एक साधारण इंसान हो। ठीक है, तो फिर हम एक जैसे लोग ही हैं—हम सभी एक समान हैं।” क्या ऐसा कहना ठीक है? यह एक गलती है। कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारे साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान लगता है, तो चलो औपचारिकताएँ छोड़ दें। एक-दूसरे से जिगरी दोस्तों और मित्रों जैसा बर्ताव करें; चलो एक-दूसरे के विश्वासपात्र बनें—चलो एक-दूसरे से मित्रता करें।” क्या यह ठीक है? जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती; वे छद्म-विश्वासी होते हैं। जितना अधिक तुम उनके साथ अपनी भावनाएँ साझा करोगे, और सत्य, तथ्यों और सत्य वास्तविकता के बारे में जितनी ज्यादा बात करोगे, उतना ही वे तुम्हारा तिरस्कार करेंगे—ये लोग छद्म-विश्वासी हैं। जितना अधिक तुम गूढ़ रहस्यों के बारे में बोलोगे, और सूत्रवाक्य, धर्म-सिद्धांत और अमूर्त बातें कहोगे, और जितना तुम अपना रुतबा जताओगे, जितना दिखावा करोगे, शेखी बघारोगे, वे तुम्हारा उतना ही ज्यादा सम्मान करेंगे—वे छद्म-विश्वासी हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो सिद्धांत-युक्त है, और अपने कार्यकलापों में नपा-तुला रहता है, जिसके कार्यकलाप सत्य के अनुसार होते हैं, जो सकारात्मक और नकारात्मक चीजों से स्पष्ट सीमाओं और पहचान के अनुसार व्यवहार कर सकता है—अगर कोई जितना उस व्यक्ति जैसा होता है तो वे उसे उतनी ही ज्यादा नीची नजर से देखते हैं, और उसे तुच्छ समझते हैं—ये छद्म-विश्वासी होते हैं।
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