मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक) खंड चार
मसीह-विरोधी के सार की सबसे स्पष्ट विशेषताओं में से एक यह होती है कि वे अपनी सत्ता का एकाधिकार और अपनी तानाशाही चलाते हैं : वे किसी की नहीं सुनते हैं, किसी का आदर नहीं करते हैं, और लोगों की क्षमताओं की परवाह किए बिना, या इस बात की परवाह किए बिना कि वे क्या सही विचार या बुद्धिमत्तापूर्ण मत व्यक्त करते हैं और कौन-से उपयुक्त तरीके सामने रखते हैं, वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते; यह ऐसा है मानो कोई भी उनके साथ सहयोग करने या उनके किसी भी काम में भाग लेने के योग्य न हो। मसीह-विरोधियों का स्वभाव ऐसा ही होता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह बुरी मानवता वाला होना है—लेकिन यह सामान्य बुरी मानवता कैसे हो सकती है? यह पूरी तरह से एक शैतानी स्वभाव है; और ऐसा स्वभाव अत्यंत क्रूरतापूर्ण है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव अत्यंत क्रूरतापूर्ण है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर और कलीसिया की संपत्ति से सब-कुछ हर लेते हैं और उससे अपनी निजी संपत्ति के समान पेश आते हैं जिसका प्रबंधन उन्हें ही करना हो, और वे इसमें किसी भी दूसरे को दखल देने की अनुमति नहीं देते हैं। कलीसिया का कार्य करते समय वे केवल अपने हितों, अपने रुतबे और अपने गौरव के बारे में ही सोचते हैं। वे किसी को भी अपने हितों को नुकसान नहीं पहुँचाने देते, किसी काबिलियत वाले व्यक्ति को या किसी ऐसे व्यक्ति को जो अनुभवजन्य गवाही देने में सक्षम है, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को खतरे में तो बिल्कुल भी नहीं डालने देते। और इसलिए, वे उन लोगों को दमित करने और प्रतिस्पर्धियों के रूप में बाहर करने की कोशिश करते हैं, जो अनुभवजन्य गवाही के बारे में बोलने में सक्षम होते हैं, जो सत्य पर संगति कर सकते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पोषण प्रदान कर सकते हैं, और वे हताशा से उन लोगों को बाकी सबसे पूरी तरह से अलग करने, उनके नाम पूरी तरह से कीचड़ में घसीटने और उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करते हैं। सिर्फ तभी मसीह-विरोधी शांति का अनुभव करते हैं। अगर ये लोग कभी नकारात्मक नहीं होते और अपना कर्तव्य निभाते रहने में सक्षम होते हैं, अपनी गवाही के बारे में बात करते हैं और दूसरों की मदद करते हैं, तो मसीह-विरोधी अपने अंतिम उपाय की ओर रुख करते हैं, जोकि उनमें दोष ढूँढ़ना और उनकी निंदा करना है, या उन्हें फँसाना और उन्हें सताने के लिए कारण गढ़ना है, और ऐसा तब तक करते रहते हैं, जब तक कि वे उन्हें कलीसिया से बाहर नहीं निकलवा देते हैं। सिर्फ तभी मसीह-विरोधी पूरी तरह से आराम कर पाते हैं। मसीह-विरोधियों की सबसे कपटी और द्वेषपूर्ण चीज यही है। उन्हें सबसे अधिक भय और चिंता उन्हीं लोगों से होती है, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनके पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही होती है, क्योंकि जिन लोगों के पास ऐसी गवाही होती है, उन्हीं का परमेश्वर के चुने हुए लोग सबसे अधिक अनुमोदन और समर्थन करते हैं, न कि उन लोगों का, जो शब्दों और सिद्धांतों के बारे में खोखली बकवास करते हैं। मसीह-विरोधियों के पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही नहीं होती, न ही वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं; ज्यादा से ज्यादा वे लोगों की चापलूसी करने के लिए कुछ अच्छे काम करने में सक्षम होते हैं। लेकिन चाहे वे कितने भी अच्छे कर्म करें या कितनी भी कर्णप्रिय बातें कहें, वे फिर भी उन लाभों और फायदों का मुकाबला नहीं कर सकते, जो एक अच्छी अनुभवात्मक गवाही से लोगों को मिल सकते हैं। अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करने में सक्षम लोगों द्वारा परमेश्वर के चुने हुए लोगों को प्रदान किए जाने वाले पोषण और सिंचन के परिणामों का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए, जब मसीह-विरोधी किसी को अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करते देखते हैं, तो उनकी निगाह खंजर बन जाती है। उनके दिलों में क्रोध प्रज्वलित हो उठता है, घृणा उभर आती है, और वे वक्ता को चुप कराने और आगे कुछ भी कहने से रोकने के लिए अधीर हो जाते हैं। अगर वे बोलते रहे, तो मसीह-विरोधियों की प्रतिष्ठा पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी, उनके बदसूरत चेहरे पूरी तरह से सबके सामने आ जाएँगे, इसलिए मसीह-विरोधी गवाही देने वाले व्यक्ति को बाधित करने और दमित करने का बहाना ढूँढ़ते हैं। मसीह-विरोधी सिर्फ खुद को शब्दों और सिद्धांतों से लोगों को गुमराह करने देते हैं, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनी अनुभवजन्य गवाही देकर परमेश्वर को महिमामंडित नहीं करने देते, जो यह इंगित करता है कि किस प्रकार के लोगों से मसीह-विरोधी सबसे अधिक घृणा करते और डरते हैं। जब कोई व्यक्ति थोड़ा कार्य करके अलग दिखने लगता है, या जब कोई सच्ची अनुभवजन्य गवाही बताने में सक्षम होता है, और इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को लाभ, शिक्षा और सहारा मिलता है और इसे सभी से बड़ी प्रशंसा प्राप्त होती है, तो मसीह-विरोधियों के मन में ईर्ष्या और नफरत पैदा हो जाती है, और वे उस व्यक्ति को अलग-थलग करने और दबाने की कोशिश करते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में ऐसे लोगों को कोई काम नहीं करने देते, ताकि उन्हें अपने रुतबे को खतरे में डालने से रोक सकें। सत्य-वास्तविकता वाले लोग जब मसीह-विरोधियों के पास होते हैं, तो वे उनकी दरिद्रता, दयनीयता, कुरूपता और दुष्टता को अधिक स्पष्ट करके उजागर करने का काम करते हैं, इसलिए जब मसीह-विरोधी कोई साझेदार या सहकर्मी चुनता है, तो वह कभी सत्य-वास्तविकता से युक्त व्यक्ति का चयन नहीं करता, वह कभी ऐसे लोगों का चयन नहीं करता जो अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात कर सकते हों और वह कभी ईमानदार लोगों या ऐसे लोगों का चयन नहीं करता, जो सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हों। ये वे लोग हैं, जिनसे मसीह-विरोधी सबसे अधिक ईर्ष्या और घृणा करते हैं, और जो मसीह-विरोधियों के जी का जंजाल हैं। सत्य का अभ्यास करने वाले ये लोग परमेश्वर के घर के लिए कितना भी अच्छा या लाभदायक काम क्यों न करते हों, मसीह-विरोधी इन कर्मों पर पर्दा डालने की पूरी कोशिश करते हैं। यहाँ तक कि वे खुद को ऊँचा उठाने और दूसरे लोगों को नीचा दिखाने के लिए अच्छी चीजों का श्रेय खुद लेने और बुरी चीजों का दोष दूसरों पर मढ़ने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ भी देते हैं। मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण करने और अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करने में सक्षम लोगों से बहुत ईर्ष्या और घृणा करते हैं। वे डरते हैं कि ये लोग उनके रुतबे को खतरे में डाल देंगे, इसलिए वे उन पर हमला करने और उन्हें अलग रखने के हर संभव प्रयास करते हैं। वे भाई-बहनों को उन लोगों से संपर्क करने, उन लोगों के करीब जाने या उनका समर्थन या प्रशंसा करने से रोकते हैं जो लोग अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात करने में सक्षम हैं। इसी से मसीह-विरोधियों की शैतानी प्रकृति का सबसे ज्यादा खुलासा होता है, जो कि सत्य से विमुख होती है और परमेश्वर से घृणा करती है। और इसलिए, इससे यह भी साबित होता है कि मसीह-विरोधी कलीसिया में एक दुष्ट विपरीत धारा हैं, वे कलीसिया के काम में बाधा और परमेश्वर की इच्छा में अवरोध पैदा करने के दोषी हैं। इसके अलावा मसीह-विरोधी अक्सर भाई-बहनों के बीच झूठ गढ़ते हैं और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं, अपनी अनुभवजन्य गवाही पर बोलने वाले लोगों को नीचा दिखाते हैं और उनकी निंदा करते हैं। वे लोग चाहे जो भी काम करते हों, मसीह-विरोधी उन्हें अलग-थलग करने और उनका दमन करने के बहाने ढूँढ़ लेते हैं, और यह कहते हुए उनकी आलोचना भी करते हैं कि वे घमंडी और आत्मतुष्ट हैं, कि वे दिखावा करना पसंद करते हैं, और कि वे महत्वाकांक्षाएँ पालते हैं। वास्तव में, उन लोगों के पास कुछ अनुभवजन्य गवाही होती है और उनमें थोड़ी सत्य वास्तविकता होती है। वे अपेक्षाकृत अच्छी मानवता वाले, जमीर और विवेक युक्त होते हैं, और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होते हैं। और भले ही उनमें कुछ कमियाँ, खामियाँ, और कभी-कभी भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे हों, फिर भी वे आत्म-चिंतन कर प्रायश्चित्त करने में सक्षम होते हैं। यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा, और जिन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की उम्मीद है। कुल मिलाकर ये लोग कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हैं, ये कर्तव्य करने की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को पूरा करते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं इसे कतई बर्दाश्त नहीं करूँगा। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र में एक भूमिका पाना चाहते हो। यह असंभव है; इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक शिक्षित हो, मुझसे अधिक मुखर हो, और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो, और तुम मुझसे अधिक परिश्रम से सत्य का अनुसरण करते हो। अगर मुझे तुम्हारे साथ सहयोग करना पड़े और तुम्हें श्रेय मिले, तो मैं क्या करूँगा?” क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हैं? नहीं। वे किस बारे में सोचते हैं? वे केवल यही सोचते हैं कि अपने रुतबे को कैसे बनाए रखें। भले ही मसीह-विरोधी जानते हैं कि वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करने वाले और अच्छी योग्यता वाले लोगों को विकसित नहीं करते या बढ़ावा नहीं देते; वे केवल उन्हीं को बढ़ावा देते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, जो दूसरों की आराधना करने को तत्पर रहते हैं, जो अपने दिलों में उनका अनुमोदन और सराहना करते हैं, जो चंट चालाक हैं, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं होती है और जो भेद पहचानने में असमर्थ हैं। मसीह-विरोधी अपनी सेवा करवाने, अपने लिए दौड़-भाग करवाने और हर दिन अपने चारों ओर घूमते रहने के लिए इन लोगों की पदोन्नति अपने बगल में करते हैं। इससे मसीह-विरोधियों को कलीसिया में सामर्थ्य मिलती है, और इसका अर्थ होता है कि बहुत-से लोग उनके करीब आते हैं, उनका अनुसरण करते हैं, और कोई उनका अपमान करने की हिम्मत नहीं करता है। ये सभी लोग, जिन्हें मसीह-विरोधी विकसित करते हैं, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। उनमें से ज्यादातर लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती है और वे नियम-पालन के सिवा कुछ नहीं जानते हैं। वे रुझानों और सत्ताधारियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जो शक्तिशाली मालिक के होने से हिम्मत पाते हैं—भ्रमित लोगों की मंडली होते हैं। अविश्वासियों की उस कहावत में क्या कहा गया है? किसी बुरे आदमी का आराध्य पूर्वज होने की तुलना में किसी अच्छे इंसान का अनुचर होना बेहतर है। मसीह-विरोधी ठीक इसका उल्टा करते हैं—वे ऐसे लोगों के आराधित पूर्वजों के तौर पर कार्य करते हैं, और उन्हें अपना झंडा लहराने वालों और प्रोत्साहित करने वालों के रूप में पालते हैं। जब भी कोई मसीह-विरोधी किसी कलीसिया में सत्ता में होता है, तो वह हमेशा अपने सहायकों के रूप में भ्रमित लोगों और आँखें मूँद कर समय गँवाने वालों को भर्ती करता है, और उन काबिलियत वाले लोगों को छोड़ देता है और दबाता है, जो सत्य को समझकर उसका अभ्यास कर सकते हैं, जो काम सँभाल सकते हैं—विशेष रूप से उन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को, जो वास्तविक कार्य करने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार कलीसिया में दो खेमे बन जाते हैं : एक खेमे में वे लोग होते हैं जो अपेक्षाकृत ईमानदार मानवता वाले होते हैं, जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य करते हैं, और सत्य का अनुसरण करने वाले होते हैं। दूसरे खेमे में ऐसे लोगों की मंडली होती है जो भ्रमित होते हैं और मसीह-विरोधियों की अगुआई में आँखें मूँद कर बेवकूफियाँ करते फिरते हैं। ये दोनों खेमे एक-दूसरे से तब तक झगड़ते रहेंगे जब तक मसीह-विरोधियों का खुलासा नहीं हो जाता और वे हटा नहीं दिए जाते। मसीह-विरोधी हमेशा उन लोगों के खिलाफ लड़ते और कार्य करते हैं जो अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं। क्या इससे कलीसिया का कार्य गंभीर रूप से बाधित नहीं होता? क्या यह परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी कर उसे बाधित नहीं करता? क्या मसीह-विरोधियों की यह शक्ति कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा को कार्यान्वित करने में एक रोड़ा और बाधा नहीं है? क्या यह परमेश्वर का विरोध करने वाली दुष्ट शक्ति नहीं है? मसीह-विरोधी इस तरह से कार्य क्यों करते हैं? क्योंकि उनके दिमाग में यह स्पष्ट होता है कि यदि ये सकारात्मक चरित्र खड़े हो कर अगुआ और कार्यकर्ता बन गए, तो वे मसीह-विरोधियों के प्रतिस्पर्धी बन जाएँगे; वे मसीह-विरोधियों का विरोध करने वाली शक्ति बन जाएँगे और वे मसीह-विरोधियों की बातों को बिल्कुल भी नहीं सुनेंगे या उनकी आज्ञा नहीं मानेंगे; वे मसीह-विरोधियों के हर बोल का बिल्कुल पालन नहीं करेंगे। ये लोग मसीह-विरोधियों के रुतबे के लिए खतरा बनने को काफी होंगे। जब मसीह-विरोधी इन लोगों को देखते हैं, तो उनके दिलों में घृणा उमड़ती है; और अगर वे इन लोगों को अलग-थलग करके पराजित नहीं करते, और उनका नाम बदनाम नहीं करते, तो उनके दिलों को सुकून और आश्वस्ति नहीं होती। इसलिए उन्हें अपनी सत्ता को विकसित कर अपनी श्रेणी को शक्तिमान बनाने के लिए तेजी से काम करना होगा। इस तरह से वे परमेश्वर के चुने हुए ज्यादा लोगों को काबू में कर सकेंगे, और फिर उन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले मुट्ठी भर लोगों से अपने रुतबे के लिए होने वाले खतरे की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। मसीह-विरोधी कलीसिया में उन सब लोगों को साथ लेकर अपनी शक्ति बनाते हैं, जो उनकी बात सुनते हैं, उनकी आज्ञा मानते हैं और उनकी चापलूसी करते हैं, और उन्हें काम के हर पहलू का प्रभारी बना देते हैं। क्या ऐसा करना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभकारी है? नहीं। न सिर्फ यह लाभकारी नहीं है, इससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा होती है। यदि इस दुष्ट शक्ति के पास आधे से ज्यादा लोग हो जाएँ, तो हो सकता है कि यह कलीसिया को गिरा दे। यह इस वजह से है क्योंकि कलीसिया में सत्य का अनुसरण करने वाले अल्पसंख्यक होते हैं, जबकि मजदूर और छद्म-विश्वासी जो वहाँ सिर्फ भरपेट निवाले खाने के लिए हैं, उनकी संख्या कम-से-कम आधी होती है। ऐसी स्थिति में, अगर मसीह-विरोधी इन लोगों को गुमराह करने और उन्हें अपनी तरफ खींचने में अपनी शक्ति लगाते हैं तो कलीसिया द्वारा अगुआओं को चुनते समय स्वाभाविक रूप से उनका पलड़ा भारी होगा। इसलिए परमेश्वर का घर हमेशा जोर देता है कि चुनावों के दौरान सत्य पर तब तक संगति की जानी चाहिए, जब तक वह स्पष्ट समझ न आ जाए। यदि तुम सत्य पर संगति करके मसीह-विरोधियों को उजागर और पराजित करने में असमर्थ रहते हो, तो मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह करके अगुआ के तौर पर चुने जा सकते हैं, और कलीसिया पर कब्जा कर उस पर नियंत्रण कर सकते हैं। क्या यह खतरनाक चीज नहीं होगी? यदि एक या दो मसीह-विरोधी कलीसिया में दिखते हैं, तो इससे भय नहीं होगा, लेकिन अगर मसीह-विरोधियों की शक्ति तैयार हो जाए और वे एक विशेष स्तर तक प्रभाव हासिल कर लेते हैं, तो उससे भय होगा। इसलिए मसीह-विरोधी उस स्तर तक प्रभाव हासिल करें, इससे पहले ही उन्हें उखाड़ फेंकना चाहिए और कलीसिया से निष्कासित कर देना चाहिए। यह कार्य सर्वोच्च प्राथमिकता का है और यह आवश्यक है। इसके अलावा, कलीसिया के वे छद्म-विश्वासी, खासतौर से वे जो मनुष्य की आराधना और उसका अनुसरण करने का रुझान रखते हों, जो शक्ति के पीछे चलना चाहते हों, जो दानवों के साथी और अनुचर बनना पसंद करते हों, जो गुट बनाना चाहते हों—उन जैसे छद्म-विश्वासियों और दानवों को जल्द से जल्द निकाल देना चाहिए। इस भीड़ को कलीसिया को बाधित और नियंत्रित करने वाली शक्ति बनाने से रोकने का यही एक तरीका है। यह ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को स्पष्ट रूप से देखना चाहिए, ऐसी चीज जिसकी जिम्मेदारी सत्य को समझने वाले लोगों को उठानी चाहिए। वे सभी जो कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी उठाते हैं, जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हैं, उन्हें इन चीजों की असलियत समझनी चाहिए। उन्हें खास तौर पर मसीह-विरोधियों की किस्म के लोगों और साथ ही उन तुच्छ दानवों की असलियत समझ लेनी चाहिए, जो लोगों की चापलूसी और आराधना करना पसंद करते हैं, और फिर उन पर पाबंदियाँ लगाते हैं या उन्हें कलीसिया से निकाल देते हैं। ऐसे अभ्यास की बहुत ज्यादा जरूरत है। मसीह-विरोधियों जैसे लोग विशेष रूप से ऐसे भ्रमित लोगों, नाकारा और नीच लोगों से अच्छे संबंध बनाने की तैयारी करते हैं, जो सत्य को स्वीकार नहीं करते या उससे प्रेम नहीं करते हैं। वे उनका दिल जीत लेते हैं और उनके साथ अत्यंत सामंजस्यपूर्ण ढंग से, अंतरंगता और उत्साह से “सहयोग” करते हैं। वे लोग किस प्रकार के प्राणी हैं? क्या वे मसीह-विरोधी गिरोहों के सदस्य नहीं हैं? यदि ऊपरवाले को उनके “आराधित पूर्वज” को बर्खास्त करना पड़े तो ये कर्तव्यपरायण संतानें इसके लिए तैयार नहीं होंगी—वे ऊपरवाले की आलोचना कर उसे अन्यायी कहेंगी और मसीह-विरोधियों के बचाव में उनके साथ खड़ी हो जाएँगी। क्या परमेश्वर का घर उन्हें जीतने दे सकता है? वह बस इतना कर सकता है कि उन सभी पर अपना जाल बिछा कर उन्हें बाहर निकाल दे। वे मसीह-विरोधियों का, दुष्ट दानवों का गिरोह हैं, और उनमें से किसी को भी नहीं छोड़ा जा सकता। मसीह-विरोधियों जैसे लोग विरले ही अकेले कार्य करते हैं; अधिकतर समय वे क्रियाकलापों के लिए कम-से-कम दो या तीन लोगों का एक समूह बनाते हैं। लेकिन कुछ व्यक्तिगत मामलों में मसीह-विरोधी अकेले कार्य करते हैं। ऐसा इसलिए कि उनमें कोई प्रतिभा नहीं होती, और शायद उन्हें मौका नहीं मिला होता। हालाँकि उनमें और दूसरों में जो बात समान है वह है रुतबे से उनका विशेष प्रेम। यह मत समझो कि कोई कौशल या शिक्षा न होने के कारण वे रुतबे से प्रेम नहीं करते। यह गलत है। तुमने मसीह-विरोधी के सार की असलियत को स्पष्ट रूप से नहीं जाना है—जब तक कोई मसीह-विरोधी है, उसे रुतबा पसंद होता है। यह देखकर कि मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते तो फिर ऐसा क्यों है कि वे अपने तलवे चटवाने के लिए ऐसे भ्रमित, निकम्मे लोगों और परजीवियों के समूह को तैयार करते हैं? क्या उनकी नीयत उन लोगों के साथ सहयोग करने की होती है? यदि वे सचमुच उनके साथ सहयोग कर सकते, तो यह कथन कि “मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते” सही नहीं ठहरता। वे किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं हैं—इस “किसी के भी” का संदर्भ मुख्य रूप से सकारात्मक लोगों से है, लेकिन किसी मसीह-विरोधी के स्वभाव पर ध्यान दें, तो वह अपने साथियों से भी सहयोग नहीं कर सकता। तो वे इन लोगों को तैयार करके क्या कर रहे हैं? वे भ्रमित लोगों के एक समूह को तैयार कर रहे हैं जिन पर हुक्म चलाना आसान है, जिनके साथ चालाकी करना आसान है, जिनके अपने कोई नजरिए नहीं होते, और जो मसीह-विरोधी कहते हैं वे वही करते हैं—जो मसीह-विरोधियों के रुतबे को बचाने के लिए साथ-साथ चलेंगे। यदि कोई मसीह-विरोधी खुद पर भरोसा करता है, तो वह बिल्कुल एकाकी रहेगा और उसके लिए अपने रुतबे को बचाना आसान नहीं होगा। इसीलिए वे भ्रमित लोगों के एक समूह को खड़ा कर लेते हैं ताकि वे हर दिन उसके चारों ओर रहें और उसकी खातिर चीजें करें। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी गुमराह करते हैं : वे इस बारे में बात करते हैं कि कैसे ये लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और कैसे कष्ट सहते हैं; वे कहते हैं कि वे विकसित करने लायक हैं; वे यह भी कहते हैं कि जब इन लोगों के सामने कोई समस्या आती है, तो वे उनसे सलाह लेते हैं, उनसे इस बारे में पूछते हैं—कि वे सभी आज्ञाकारी और समर्पित लोग हैं। क्या वे सहयोग से अपना कर्तव्य कर रहे हैं? मसीह-विरोधी लोगों के एक समूह को ढूँढ़ रहा होता है, जो उसके लिए कार्य करे, जो उसके गुर्गे हों, उसके साथी हों, ताकि वह अपना रुतबा मजबूत कर सके। यह सहयोग नहीं होता—यह अपने ही उद्यम में जुटना है। मसीह-विरोधियों की ऐसी ताकत होती है।
तुम लोग बताओ, क्या लोगों के साथ सहयोग करना कठिन होता है? वास्तव में, यह कठिन नहीं होता। तुम यह भी कह सकते हो कि यह आसान होता है। लेकिन फिर भी लोगों को यह मुश्किल क्यों लगता है? क्योंकि उनका स्वभाव भ्रष्ट होता है। जिन लोगों में मानवता, अंतःकरण और विवेक होता है, उनके लिए दूसरों के साथ सहयोग करना अपेक्षाकृत आसान है और वे महसूस कर सकते हैं कि यह सुखदायक चीज है। इसका कारण यह है कि किसी भी व्यक्ति के लिए अपने दम पर कार्य पूरे करना इतना आसान नहीं होता और चाहे वह किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हो या कोई भी काम कर रहा हो, अगर कोई बताने और सहायता करने वाला हो तो यह हमेशा अच्छा होता है—यह अपने बलबूते कार्य करने से कहीं ज्यादा आसान होता है। फिर, लोगों में कितनी काबिलियत है या वे स्वयं क्या अनुभव कर सकते हैं, इसकी भी सीमाएँ होती हैं। कोई भी इंसान हरफनमौला नहीं हो सकता : किसी एक व्यक्ति के लिए हर चीज को जानना, हर चीज में सक्षम होना, हर चीज को पूरा करना असंभव होता है—यह असंभव है और सब में यह विवेक होना चाहिए। इसलिए तुम चाहे जो भी काम करो, यह महत्वपूर्ण हो या न हो, तुम्हें अपनी मदद करने के लिए हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ेगी जो तुम्हें सुझाव और सलाह दे सके या तुम्हारे साथ सहयोग करते हुए काम कर सके। काम को ज्यादा सही ढंग से करने, कम गलतियाँ करने और कम भटकने का यही एकमात्र तरीका है—यह अच्छी बात है। विशेष रूप से परमेश्वर की सेवा करना बहुत बड़ी बात है और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न करना तुम्हें खतरे में डाल सकता है! जब लोगों में शैतानी स्वभाव होता है तो वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के प्रति विद्रोह कर उसका विरोध कर सकते हैं। शैतानी स्वभाव के मुताबिक जीने वाले लोग कभी भी परमेश्वर को नकार सकते हैं, उसका विरोध कर उसे धोखा दे सकते हैं। मसीह-विरोधी बहुत मूर्ख होते हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता और वे सोचते हैं, “मैंने बड़ी मुश्किल से सत्ता हथियाई है तो मैं इसे किसी और के साथ क्यों साझा करूँ? इसे दूसरों को सौंपने का मतलब है कि मेरे पास अपने लिए कुछ नहीं बचेगा, है न? बिना सत्ता के मैं अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं को कैसे दिखा पाऊँगा?” वे नहीं जानते कि परमेश्वर ने लोगों को जो सौंपा है वह सत्ता या रुतबा नहीं बल्कि कर्तव्य है। मसीह-विरोधी केवल सत्ता और रुतबा स्वीकारते हैं, वे अपने कर्तव्यों को दरकिनार कर देते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते। बल्कि सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, और सिर्फ सत्ता हथियाकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना और रुतबे के फायदे उठाने में लगे रहना चाहते हैं। इस तरह से काम करना बहुत खतरनाक होता है—यह परमेश्वर का विरोध करना है! जो लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, वे आग से खेल रहे हैं और अपने जीवन से खेल रहे हैं। आग और जीवन से खेलने वाले लोग कभी भी बर्बाद हो सकते हैं। आज अगुआ या कर्मी के तौर पर तुम परमेश्वर की सेवा कर रहे हो, जो कोई सामान्य बात नहीं है। तुम किसी व्यक्ति के लिए काम नहीं कर रहे हो, अपने खर्चे उठाने और रोजी-रोटी कमाने का काम तो बिल्कुल भी नहीं कर रहे हो; बल्कि तुम कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। खासकर यह देखते हुए कि तुम्हें परमेश्वर के आदेश से यह कर्तव्य मिला है, इसे निभाने का क्या अर्थ है? यही कि तुम अपने कर्तव्य के लिए परमेश्वर के प्रति जवाबदेह हो, फिर चाहे तुम इसे अच्छी तरह से निभाओ या न निभाओ; अंततः परमेश्वर को हिसाब देना ही होगा, एक परिणाम होना ही चाहिए। तुमने जिसे स्वीकारा है वह परमेश्वर का आदेश है, एक पवित्र जिम्मेदारी है, इसलिए वह कितनी भी अहम या छोटी जिम्मेदारी क्यों न हो, यह एक गंभीर मामला है। यह कितना गंभीर है? छोटे पैमाने पर देखें तो इसमें यह बात शामिल है कि तुम इस जीवन-काल में सत्य प्राप्त कर सकते हो या नहीं और यह भी शामिल है कि परमेश्वर तुम्हें किस तरह देखता है। बड़े पैमाने पर देखें तो यह सीधे तुम्हारी संभावनाओं और नियति से जुड़ा है, तुम्हारे परिणाम से जुड़ा है; यदि तुम दुष्टता कर परमेश्वर का विरोध करते हो, तो तुम्हें निंदित और दंडित किया जाएगा। अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम जो कुछ भी करते हो उसे परमेश्वर दर्ज करता है, और इसकी गणना और मूल्यांकन करने के लिए परमेश्वर के अपने सिद्धांत और मानक हैं; अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम जो कुछ भी प्रकट करते हो, उसके आधार पर परमेश्वर तुम्हारा परिणाम तय करता है। क्या यह कोई गंभीर मामला है? बिल्कुल है! इसलिए अगर तुम्हें कोई काम सौंपा जाता है तो क्या इसे सँभालना तुम्हारा अपना मामला है? (नहीं।) यह कार्य ऐसा नहीं है जो तुम अपने दम पर पूरा कर सको, लेकिन यह जरूरी है कि तुम इसकी जिम्मेदारी लो। यह जिम्मेदारी तुम्हारी है; यह आदेश तुम्हें पूरा करना है। इसका संबंध किस चीज से है? इसका संबंध सहयोग से है, इस बात से है कि सेवा में सहयोग कैसे करें, अपना कर्तव्य निभाने में सहयोग कैसे करें, मिला हुआ आदेश पूरा करने में सहयोग कैसे करें, किस तरह सहयोग करें कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चला जाए। इसका संबंध इन सब चीजों से है।
सामंजस्यपूर्ण सहयोग में कई चीजें शामिल होती हैं। कम-से-कम, इन कई चीजों में से एक है दूसरों को बोलने देना और विभिन्न सुझाव देने देना। अगर तुम वास्तव में विवेकशील हो, तो चाहे तुम जिस भी तरह का काम करते हो, तुम्हें पहले सत्य सिद्धांतों की खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें दूसरों की राय लेने की पहल भी करनी चाहिए। अगर तुम हर सुझाव गंभीरता से लेते हो, और फिर एकदिल हो कर समस्याएँ हल करते हो, तो तुम अनिवार्य रूप से सामंजस्यपूर्ण सहयोग प्राप्त करोगे। इस तरह, तुम्हें अपने कर्तव्य में बहुत कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, उन्हें हल करना और उनसे निपटना आसान होगा। सामंजस्यपूर्ण सहयोग का यह परिणाम होता है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो जाते हैं, लेकिन अगर काम पर उनका असर नहीं पड़ता, तो कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन, महत्वपूर्ण मामलों और कलीसिया के काम से जुड़े प्रमुख मामलों में तुम्हें आम सहमति पर पहुँचना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर अगर तुम हर समय अपने को दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी ओहदे की तरह मजे करोगे, हमेशा अपने रुतबे के फायदे उठाने में लगे रहोगे, हमेशा अपनी ही योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की सोचकर मजे लेते रहोगे, हमेशा अपने ही उद्यम में जुटे रहोगे, और हमेशा ऊँचा रुतबा पाने, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करने और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने के प्रयास करोगे तो यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना बहुत खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह पेश आकर दूसरों के साथ सहयोग नहीं करना चाहते, अपनी सत्ता को कम कर इसे किसी दूसरे के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि कोई दूसरा तुम्हें पीछे धकेलकर शोहरत लूट ले, यदि तुम अकेले ही सत्ता के मजे लेना चाहते हो तो तुम एक मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अक्सर सत्य खोजते हो, अपनी देह, अपनी प्रेरणाओं और विचारों से विद्रोह करने का अभ्यास करते हो और दूसरों के साथ सहयोग करने के लिए खुद को सक्षम करते हो, दूसरों से राय लेने और खोजने के लिए अपना दिल खोलते हो, दूसरों के विचारों और सुझावों को ध्यान से सुनते हो और चाहे सलाह किसी ने भी दी हो, सही और सत्य के अनुरूप होने पर इसे स्वीकार कर लेते हो तो फिर तुम बुद्धिमानी के साथ और सही तरीके से अभ्यास कर रहे हो और तुम गलत मार्ग अपनाने से बच जाते हो, जो कि तुम्हारे लिए सुरक्षा कवच है। तुम्हें अगुआई की उपाधियाँ छोड़नी होंगी, रुतबे की गंदी अकड़ छोड़नी होगी, खुद को एक साधारण व्यक्ति समझना होगा, दूसरों के समान स्तर पर खड़े होना होगा, और अपने कर्तव्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया रखना होगा। अगर तुम हमेशा अपने कर्तव्य को एक आधिकारिक पदवी और रुतबा या एक तरह की प्रतिष्ठा समझते हो, और कल्पना करते हो कि दूसरे लोग काम करने और तुम्हारे पद की सेवा के लिए हैं, तो यह तकलीफदेह है, और परमेश्वर तुमसे नफरत और घृणा करेगा। अगर तुम मानते हो कि तुम दूसरों के बराबर हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर की ओर से थोड़ा ज्यादा आदेश और जिम्मेदारी है, अगर तुम खुद को उनके साथ समान स्तर पर रखना सीख सको, यहाँ तक कि झुककर पूछ सको कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, और अगर तुम ईमानदारी, बारीकी और ध्यान से उनकी बात सुन सको, तो तुम दूसरों के साथ सामंजस्य में सहयोग करोगे। इस सामंजस्यपूर्ण सहयोग का क्या परिणाम होगा? परिणाम बहुत बड़ा है। तुम वे चीजें प्राप्त करोगे जो तुम्हारे पास पहले कभी नहीं थीं, जो सत्य की रोशनी और जीवन की वास्तविकताएँ हैं; तुम्हें दूसरों की योग्यताओं का पता लगेगा और तुम उनकी खूबियों से सीखोगे। कुछ और भी है : तुम दूसरे लोगों को मूर्ख, मंदबुद्धि, नासमझ, अपने से कमतर समझते हो, लेकिन जब तुम उनकी राय सुनोगे, या दूसरे लोग तुमसे खुलकर बात करेंगे, तो अनजाने ही तुम्हें पता चलेगा कि कोई भी उतना साधारण नहीं है जितना तुम समझते हो, कि हर व्यक्ति भिन्न विचार और मत पेश कर सकता है, और सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं। अगर तुम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना सीखते हो, तो दूसरों की खूबियों से सीखने में मदद करने के अलावा, यह तुम्हारे अहंकार और आत्म-तुष्टि को प्रकट कर सकता है, और तुम्हें यह कल्पना करने से रोक सकता है कि तुम चतुर हो। जब तुम खुद को बाकी सबसे ज्यादा होशियार और बेहतर नहीं मानते, तो तुम इस आत्म-मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की अवस्था में रहना बंद कर दोगे। और यह तुम्हारी रक्षा करेगा, है न? दूसरों के साथ सहयोग करने से तुम्हें ऐसा सबक सीखना और यह लाभ प्राप्त करना चाहिए।
लोगों से अपने व्यवहार के दौरान मैं ज्यादातर लोगों की बातें ध्यान से सुनता हूँ। मैं हर तरह के लोगों की जाँच करने, उनकी बातें सुनने और ऐसा करते हुए उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा और शैली का अध्ययन करने का प्रयास करता हूँ। उदाहरण के लिए, तुम माना करते थे कि ज्यादातर लोग बहुत कम ही शिक्षित होते हैं, वे किसी व्यवसाय के कौशल नहीं जानते और इसलिए उनसे बातचीत करने की जरूरत नहीं है। दरअसल, यह सही नहीं है। जब तुम इन लोगों के या कुछ विशेष लोगों के संपर्क में आते हो, तो तुम उनके दिलों की गहराई की उन चीजों को समझ पाते हो, जिन्हें तुम देख या महसूस नहीं कर सकते—जैसे कि उनके विचार और नजरिए, जिनमें से कुछ विकृत होते हैं, और कुछ उचित होते हैं। बेशक, यह “उचित होना” शायद सत्य से बहुत दूर हो; इसका उसके साथ कोई लेना-देना न हो। लेकिन तुम मानवता के ज्यादा पहलुओं को जान पाओगे। क्या यह तुम्हारे लिए अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) अंतर्दृष्टि यही होती है; यह तुम्हारी अंतर्दृष्टि को बढ़ाने का तरीका है। कुछ लोग कह सकते हैं, “हमारी अंतर्दृष्टि को बढ़ाने का क्या फायदा है?” यह तरह-तरह के लोगों के बारे में तुम्हारी समझ के लिए, तरह-तरह के लोगों का भेद पहचानने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए, और इससे भी अधिक तरह-तरह के लोगों की मदद करने की तुम्हारी क्षमता के लिए यह लाभकारी है। यह वह मार्ग है जिस पर बहुत-सा कार्य किया जाता है। कुछ लोग झूठे तौर पर आध्यात्मिक होते हैं, और मानते हैं, “अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए प्रसारण या समाचार नहीं सुनता, और अखबार नहीं पढ़ता। मैं बाहरी दुनिया से बातचीत नहीं करता। सभी लोग, जीवन के सत्री क्षेत्रों और पेशों के सभी लोग दानव हैं!” खैर, तुम गलत हो। यदि तुम्हारे पास सत्य है, तो क्या तुम अभी भी शैतानों से बातचीत करने से डरते हो? यहाँ तक कि परमेश्वर को भी कभी-कभी आध्यात्मिक क्षेत्र में शैतान से निपटना पड़ता है। क्या इसके लिए वह बदल जाता है? जरा भी नहीं। तुम दानवों से निपटने से डरते हो, और उस भय के भीतर एक समस्या है। तुम्हें वास्तव में जिस बात से डरना चाहिए वह यह है कि तुम सत्य को नहीं समझते, परमेश्वर में विश्वास और सत्य को लेकर तुम्हारी समझ और दृष्टिकोण गलत है, तुम्हारे मन में अनेक धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और तुम अत्यधिक कट्टर हो। इसीलिए चाहे तुम अगुआ हो, कार्यकर्ता हो या समूह प्रमुख, तुम जिस भी काम के लिए जिम्मेदार हो, और चाहे जो भी भूमिका निभाते हो, तुम्हें दूसरों के साथ सहयोग करना और निपटना सीखना चाहिए। बड़बोले विचार मत झाड़ो, न हमेशा कुलीनता दिखाओ ताकि लोग तुम्हारी बात सुनें। अगर तुम हमेशा बड़े-बड़े आडंबरी विचार पेश करते हो, और कभी भी सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, या दूसरों के साथ सहयोग नहीं करते, तो फिर तुम खुद को मूर्ख बना रहे हो। तब तुम्हारी बात पर कौन ध्यान देगा? फरीसियों का पतन कैसे हुआ? वे हमेशा धर्म सिद्धांतों का उपदेश देते थे, और बड़े-बड़े आडंबरी विचार पेश करते थे। जब वे ऐसा करते गए, तो उनके दिलों में फिर परमेश्वर का निवास नहीं रहा—उन्होंने उसे नकार दिया, और यहाँ तक कि परमेश्वर की निंदा और विरोध करने और उसे क्रूस पर कीलों से लटकाने के लिए उन्होंने मनुष्य की धारणाओं, व्यवस्थाओं और नियमों का भी उपयोग किया। वे पूरा दिन अपनी बाइबल पकड़े रहते, उसे पढ़ते और शोध करते, और धर्मग्रंथ का धाराप्रवाह पाठ करने में सक्षम हो जाते। और अंत में इन सबका क्या नतीजा निकला? वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कहाँ है, न ही यह कि उसका स्वभाव क्या है, और हालाँकि उसने अनेक सत्य व्यक्त किए थे, उन्होंने उन्हें जरा भी स्वीकार नहीं किया, बल्कि परमेश्वर का विरोध और निंदा की। क्या यह उनका अंत नहीं था? तुम लोग स्पष्ट तौर पर जानते हो कि उसके परिणाम क्या थे। क्या परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर तुम लोगों के मन में ऐसे भ्रांतिपूर्ण विचार हैं? क्या तुम लोग अलग-थलग नहीं हो? (हाँ, हैं।) क्या तुम लोग मुझे अलग-थलग होते देखते हो? मैं कभी-कभी खबरें पढ़ता हूँ, कभी-कभी विशेष अतिथियों के साथ साक्षात्कार और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रम देखता हूँ; कभी-कभी मैं भाई-बहनों के साथ सुस्ताते हुए बात करता हूँ, और कभी-कभी ऐसे किसी के साथ बात करता हूँ जो खाना बना रहा है या सफाई कर रहा है। मुझे जो भी नजर आता है, उसके साथ थोड़ी बातें कर लेता हूँ। यह मत सोचो कि कोई काम सँभालने, तुममें कोई विशेष प्रतिभा होने, या यहाँ तक कि किसी विशेष उद्देश्य में लगे होने के कारण तुम दूसरों से ज्यादा विशेष हो। यह गलत है। जैसे ही तुम सोचोगे कि तुम दूसरों से ज्यादा विशेष हो, यह गलत सोच अनजाने ही तुम्हें एक पिंजड़े में कैद कर देगी—यह बाहरी दुनिया और तुम्हारे बीच लोहे और काँसे की दीवार बना देगी। तब तुम्हें लगेगा कि तुम सबसे ऊँचे हो, फलाँ-फलाँ काम नहीं कर सकते, फलाँ-फलाँ व्यक्ति से बात नहीं कर सकते या उसके संपर्क में नहीं रह सकते, यहाँ तक कि तुम हँस भी नहीं सकते। और अंत में क्या होता है? तुम क्या बन जाते हो? (एक अलग-थलग एकाकी।) तुम एक अलग-थलग एकाकी बन जाते हो। गौर करो कि कैसे पुराने जमाने के सम्राट हमेशा ऐसी बातें कहते थे, “मैं, अकेला, ऐसा और वैसा हूँ”; “मैं, अलग-थलग, यह और वह हूँ”; “मैं, अकेला, सोचता हूँ”—हमेशा खुद को एकाकी घोषित करते रहते थे। यदि तुम खुद को हमेशा एकाकी घोषित करते हो, तो तुम खुद को कितना महान मानते होगे? इतने महान कि तुम वास्तव में स्वर्ग के पुत्र बन गए हो? क्या तुम वैसे ही हो? सार में, तुम एक साधारण व्यक्ति हो। यदि तुम खुद को हमेशा महान और असाधारण मानते हो, तो तुम मुसीबत में हो। इससे मुश्किलें ही पैदा होंगी। यदि तुम ऐसी गलत सोच के साथ संसार से निपटते हो और आचरण करते हो तो फिर तुम्हारे क्रियाकलापों के तरीके और साधन बदल जाएँगे—तुम्हारे सिद्धांत बदल जाएँगे। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम अलग किस्म के हो, कि दूसरे सभी लोगों से ऊँचा समझते हो, कि तुम्हें ऐसी या वैसी चीजें नहीं करनी चाहिए, कि ऐसी चीजें करना तुम्हारे रुतबे और प्रतिष्ठा से नीचे की बात है, तब क्या चीजें खराब नहीं हो गई हैं? (हाँ, चली गई हैं।) तुम्हें लगेगा, “अपने जैसे रुतबे के साथ मैं बस दूसरों से सब-कुछ नहीं बोल सकता।” “अपने जैसे रुतबे के साथ मैं दूसरों को नहीं बता सकता कि मैं विद्रोही हूँ!” “अपनी जैसी प्रतिष्ठा के साथ मैं दूसरों से ऐसी अपमानजनक बातें नहीं बता सकता जैसे मेरी कमजोरियाँ, खामियाँ, त्रुटियाँ और शिक्षा की कमी—मैं किसी को भी उन चीजों के बारे में बिल्कुल जानने नहीं दे सकता हूँ!” यह बहुत थका देने वाला होगा, है कि नहीं? (बिल्कुल।) यदि तुम ऐसे थकाऊ ढंग से जीते हो, तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकोगे? (नहीं।) समस्या कहाँ से पैदा होती है? यह अपने कर्तव्य और रुतबे के बारे में तुम्हारे नजरियों से उत्पन्न होती है। तुम चाहे जितने भी बड़े “अधिकारी” क्यों न हो, किसी भी पद पर क्यों न हो, जितने भी लोगों के प्रभारी हो, वास्तव में यह एक अलग कर्तव्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है। तुम दूसरों से अलग नहीं हो। तुम इसे वैसे नहीं देख सकते जैसा यह है, लेकिन हमेशा दिल में महसूस करते हो, “यह कोई अलग कर्तव्य नहीं है—यह वास्तव में प्रतिष्ठा का अंतर है। मुझे दूसरों से ऊपर होना चाहिए; मैं दूसरों के साथ सहयोग कैसे कर सकता हूँ? वे अवश्य मेरे साथ सहयोग कर सकते हैं—मैं उनके साथ सहयोग नहीं कर सकता!” यदि तुम हमेशा इसी तरह सोचते हो, हमेशा बाकी सबसे ऊपर रहने की कामना करते हो, हमेशा दूसरों से ऊपर रहते हुए, उन्हें नीची नजर से देखते हुए उनके कंधों पर खड़े होना चाहते हो, तो तुम्हारे लिए दूसरों के साथ सहयोग करना आसान नहीं होगा। तुम हमेशा सोचते रहोगे, “वह आदमी क्या जानता है? अगर वह चीजों को जानता होता, तो भाई-बहनों ने उसे अगुआ के तौर पर चुना होता। तो उन्होंने मुझे क्यों चुना? इस वजह से कि मैं उससे बेहतर हूँ। इसलिए मुझे उससे विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए। यदि मैंने यह किया, तो इसका अर्थ होगा कि मैं महान नहीं हूँ। यह साबित करने के लिए कि मैं महान हूँ, मैं किसी के भी साथ चीजों के बारे में विचार-विमर्श नहीं कर सकता। काम के बारे में मेरे साथ विचार-विमर्श करने लायक कोई नहीं है—कोई भी नहीं!” मसीह-विरोधी इसी तरह सोचते हैं।
मुख्यभूमि चीन में, कम्युनिस्ट पार्टी धार्मिक विश्वास का दमन करती है। बहुत ही खराब माहौल है। परमेश्वर के विश्वासियों को किसी भी समय गिरफ्तार होने का खतरा बना रहता है, इसलिए अगुआ और कार्यकर्ता बार-बार इकट्ठा नहीं होते हैं। कभी-कभी तो वे महीने में एक बार भी सहकर्मियों की सभाएँ आयोजित नहीं कर पाते; वे तब तक प्रतीक्षा करते हैं जब तक स्थितियाँ सभा करने के लिए उपयुक्त न हो जाएँ, या उन्हें कोई उपयुक्त स्थान न मिल जाएँ। फिर कामकाज कैसे किया जाता है? जब कार्य व्यवस्थाएँ होती हैं, तो उन्हें पहुँचाने के लिए किसी को ढूँढ़ना पड़ता है। एक बार हमने एक क्षेत्रीय अगुआ तक कार्य व्यवस्थाएँ पहुँचाने के लिए पास के एक भाई को ढूँढ़ा। यह भाई एक साधारण विश्वासी था, और जब उसने कार्य व्यवस्थाएँ पहुँचाईं, तो क्षेत्रीय अगुआ ने उन्हें पढ़ा और कहा, “हूँ, मुझे इसी की अपेक्षा थी।” उस भाई के सामने वह क्या दिखावा कर रहा था? वह ऐसे दिखा रहा था मानो उसके पास बहुत अधिक सामर्थ्य या अधिकार है, ताकि सभी देखने वाले कहें, “वाह, यह बहुत गरिमापूर्ण था। क्या अंदाज है!” यह तो कुछ भी नहीं—इसके ठीक बाद उसने कहा, “उन्होंने कार्य व्यवस्थाएँ मुझ तक पहुँचाने के लिए इस आदमी को भेजा? इसका ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है!” इसका अर्थ था : “मैं एक क्षेत्रीय अगुआ हूँ, एक महत्वपूर्ण अगुआ। मुझ तक चीजें पहुँचाने के लिए एक साधारण विश्वासी को कैसे भेजा गया? क्या यह अतिक्रमण नहीं है? ऊपरवाला सचमुच मुझे हेय दृष्टि से देखता है। मैं एक क्षेत्रीय अगुआ हूँ, तो उन्हें ये चीजें पहुँचाने के लिए किसी जिला अगुआ को भेजना चाहिए था, फिर भी इस काम के लिए उन्हें एक बिल्कुल निचला साधारण विश्वासी ही मिला—इसका ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है!” यह अगुआ किस प्रकार का व्यक्ति है! यह कहने के लिए कि चीजें पहुँचाने वाला ज्यादा ऊँचे ओहदे वाला नहीं है, वह अपने रुतबे को कितना अधिक महत्व देता है? वह अपना अधिकार जताने के लिए अपनी पदवी को बहाने के रूप में लेता है। क्या वह दानवी चीज नहीं है? (बिल्कुल है।) वह सचमुच दानवी चीज है। कलीसिया के कार्य में क्या हम चीजें पहुँचाने या सूचनाएँ देने के लिए किसे भेजा जाए, इसको लेकर मीन-मेख निकालते हैं? मुख्यभूमि चीन जैसे माहौल में चीजें पहुँचाने के लिए जाते समय भाई-बहन बहुत बड़े-बड़े खतरों का सामना करते हैं, फिर भी जब यह भाई कार्य व्यवस्थाएँ लेकर पहुँचा, तो अगुआ ने उससे कहा कि वह ज्यादा ऊँचे ओहदे का नहीं है, यह जताते हुए कि पर्याप्त ओहदे के किसी व्यक्ति को ढूँढ़ा जाना चाहिए, कोई ऐसा जो प्रतिष्ठा और रुतबे में अगुआ के बराबर हो, और इसके अलावा कुछ और करना अगुआ को नीची नजर से देखना है—क्या यह मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है। यह दानवी व्यक्ति कोई भी वास्तविक कार्य नहीं कर सकता, और उसमें कोई कौशल नहीं है, फिर भी वह ऐसी माँगें करता है—वह अभी भी रुतबे पर इतना जोर देता है। उसका सूत्रवाक्य क्या है? “इसका ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है।” उससे चाहे जो भी बात करे, वह पहले पूछता है, “तुम किस स्तर के अगुआ हो? किसी छोटे समूह के अगुआ हो? दूर हट जाओ—तुम्हारा ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है!” यदि ऊपर वाला भाई कोई सभा कर रहा होगा, तो वह यह कह कर हमेशा आगे खिसकता रहेगा, “यह भाई कलीसिया अगुआओं में सबसे महान है, और इसके बाद मैं हूँ। वह जहाँ भी बैठता है, मैं ओहदे के अनुसार ठीक उसके बगल में बैठता हूँ।” उसके दिमाग में यह बात इतनी ज्यादा साफ है। क्या यह बेशर्मी नहीं है? (है।) यह बड़ी बेशर्मी है—उसे कोई आत्म-जागरूकता नहीं है! वह कितना बेशर्म है? लोगों के घृणा करने के लिए काफी है। भले ही उसके पास अगुआ की पदवी है, पर वह क्या करने में सक्षम है? वह यह काम कितने अच्छे ढंग से करता है? अपनी योग्यताओं का दिखावा करने से पहले उसके पास दिखाने के लिए कुछ परिणाम होने चाहिए—यही उपयुक्त होगा; यही तर्कसंगत होगा। फिर भी वह बिना कोई परिणाम हासिल किए, बिना कोई कार्य किए लोगों में ओहदे के अनुसार भेद करता है! तो फिर उसका ओहदा क्या है? एक क्षेत्रीय अगुआ के तौर पर उसने कोई ज्यादा वास्तविक कार्य नहीं किया है—वह इस ओहदे से नीचे का ही है। यदि मुझे ओहदे के अनुसार लोगों के बीच भेद करना हो तो क्या ऐसा कोई है जो मेरे करीब भी आ सके? नहीं। जब मैं लोगों से बातचीत करता हूँ तो क्या तुम लोग मुझे ओहदे के आधार पर भेद करते हुए देखते हो? नहीं—मैं जिससे भी मिलता हूँ, अगर हो सका तो उससे थोड़ी बातें करता हूँ, और मेरे पास समय न हो तो मैं उसका अभिवादन करता हूँ, बस। हालाँकि यह मसीह-विरोधी ऐसा नहीं सोचता है। वह प्रतिष्ठा, रुतबे और सामाजिक मूल्य को किसी भी चीज से अधिक महत्वपूर्ण मानता है, उसके अपने जीवन से ज्यादा अनमोल। तुम लोग जब साथ मिलकर अपने कर्तव्य निभाते हो, तब क्या ओहदे के आधार पर भेद करते हो? कुछ लोग अपने हर काम में ओहदे के आधार पर भेद करते हैं; पलक झपकते ही वे कहेंगे कि दूसरे लोग अपने काम में और सूचनाएँ देने में अपने ओहदे के पार जा रहे हैं। वे कौन-से ओहदे के पार जा रहे हैं? पहले अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाओ। तुम कोई भी कर्तव्य या कोई भी काम अच्छे ढंग से नहीं कर सकते, फिर भी ओहदे के आधार पर अभी भी भेद कर रहे हो—तुमसे ऐसा करने को किसने कहा? अभी ओहदे के आधार पर भेद करने का समय नहीं आया है। तुम बहुत जल्दी भेद कर रहे हो; तुम्हें कोई आत्म-जागरूकता नहीं है। कई बार ऐसा होता है जब हम कहीं जाते हैं और हमें किसी समस्या के समाधान के लिए लोग मिल जाते हैं। क्या हम ओहदे के आधार पर उपयुक्त लोगों को ढूँढ़ते हैं? हम मूल रूप से ऐसा नहीं करते। यदि तुम कार्य के प्रभारी हो, तो हम तुम्हें खोजते हुए वहाँ जाएँगे, और अगर तुम वहाँ नहीं हो, तो हम किसी और को ढूँढ़ लेंगे। हम ओहदे के आधार पर भेद नहीं करते, न ही ऊँचे या निचले रुतबे के आधार पर करते हैं। यदि कोई ऐसा भेदभाव कर रहा है, तो उसे कोई आत्म-जागरूकता नहीं है, और उसे सिद्धांतों की समझ नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के घर में रुतबे, ओहदे और पदनामों के आधार पर गैर-विश्वासियों की तरह बारीकी से भेदभाव करते हो, तो सचमुच तुममें समझ का अभाव है! तुम सत्य को नहीं समझते; तुममें बहुत कमी है। तुम नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है।
अभी-अभी हमने दूसरों के साथ सहयोग करने के अभ्यास के बारे में चर्चा की। क्या यह करना आसान है? जो भी व्यक्ति सत्य को खोज सकता है, जिसमें थोड़ी बहुत शर्म की भावना, और मानवता, जमीर और विवेक है, वह दूसरों के साथ सहयोग का अभ्यास कर सकता है। बस वे लोग जो मानवता विहीन हैं, जो हमेशा रुतबे पर एकाधिकार रखना चाहते हैं, जो हमेशा अपनी गरिमा, रुतबे, शोहरत और लाभ के बारे में सोचते रहते हैं, वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते। बेशक, मसीह-विरोधियों की मुख्य अभिव्यक्तियों में से यह भी एक है : वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं करते, न ही वे किसी के भी साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग हासिल कर सकते हैं। वे उस सिद्धांत का अभ्यास नहीं करते हैं। इसका कारण क्या है? वे सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं; वे दूसरों को यह जानने देने को तैयार नहीं होते कि कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें वे नहीं समझते और कुछ ऐसी बातें हैं जिनके बारे में उन्हें परामर्श लेने की जरूरत है। वे लोगों के सामने भ्रांति प्रस्तुत करते हैं, जिस कारण से उन्हें लगता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे नहीं कर सकते, ऐसा कुछ भी नहीं जो वे नहीं जानते, ऐसा कुछ नहीं जिसके बारे में वे अनभिज्ञ हैं, और उनके पास हर सवाल का जवाब है, और उनके लिए सब कुछ करने योग्य, संभव, और हासिल करने योग्य है—कि उन्हें दूसरों की जरूरत नहीं है, न उन्हें दूसरों से मदद, याद दिलाने और परामर्श की जरूरत है। यह एक कारण है। इसके अलावा मसीह-विरोधियों का सबसे स्पष्ट स्वभाव कौन-सा होता है? यानी वह कौन-सा स्वभाव है जिसकी असलियत तुम उनसे संपर्क में आने पर और उनके एक या दो वाक्यांश सुनने पर समझ सकोगे? अहंकार। वे कितने अहंकारी होते हैं? समझ से परे अहंकारी—जैसे कि एक मानसिक रोग। उदाहरण के लिए, यदि वे पानी का एक घूँट पीते समय शानदार हाव-भाव दिखाते हैं, वे इसे डींग मारने की किसी बात के रूप में उठाएँगे : “देखो, पानी पीते वक्त मेरे हाव-भाव कितने सुंदर होते हैं।” वे अकड़ दिखाने और दिखावा करने में खासे अच्छे होते हैं; वे खास तौर पर बेशर्म और निर्लज्ज होते हैं। मसीह-विरोधी इसी किस्म के होते हैं। उनकी दृष्टि में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता है। वे दिखावा करने में खासे अच्छे होते हैं, और उन्हें बिल्कुल भी आत्म-जागरूकता नहीं होती है। कुछ मसीह-विरोधी खास तौर पर कुरूप होते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे अच्छे दिखते हैं, वे अंडाकार चेहरे, बादामी आँखों और धनुषाकार भौंहों वाले होते हैं। उन्हें रत्ती भर भी आत्म-जागरूकता नहीं होती। 30-40 की उम्र के आते-आते एक औसत इंसान को अपने रंग-रूप और क्षमताओं का सही भान हो जाता है। लेकिन मसीह-विरोधियों में ऐसी तार्किकता नहीं होती। यहाँ कौन-सी समस्या चल रही है? समस्या यह है कि उनका अहंकारी स्वभाव सामान्य तार्किकता की सीमाएँ लाँघ चुका है। वे कितने अहंकारी होते हैं? भले ही वे मेढक जैसे दिखते हों, वे कहेंगे कि वे हंस जैसे दिखते हैं। इसमें जो है और जो नहीं है के बीच भेद कर पाने में अक्षमता और चीजों को उलट-पलट करने जैसी चीज होती है। इस सीमा तक का अहंकार बेशर्मी के बिंदु तक जाता है; यह अदम्य है। जब साधारण लोग अपने रंग-रूप को लेकर अच्छी बातें कहते हैं तो वे इन्हें बताने लायक नहीं समझते और शर्मिंदा हो जाते हैं। एक बार बता देने के बाद वे दिन भर शर्मिंदा महसूस करते हैं और उनका चेहरा लाल हो जाता है। मसीह-विरोधी नहीं शरमाते। वे अपने किए हुए अच्छे कृत्यों, अपनी खूबियों और जिस भी तरह से वे अच्छे और दूसरों से बेहतर हैं उसके लिए वे अपनी प्रशंसा करते रहेंगे—ये बातें उनके मुँह से बस धाराप्रवाह निकल पड़ती हैं मानो यह कोई बोलचाल की बात हो। वे शरमाते भी नहीं! यह किसी भी माप, शर्म या तार्किकता से परे का अहंकार है। इसीलिए मसीह-विरोधियों की दृष्टि में प्रत्येक सामान्य व्यक्ति—विशेष रूप से सत्य को खोजने वाला प्रत्येक व्यक्ति जिसमें सामान्य मानवता का जमीर और विवेक, और सामान्य सोच है—वह औसत दर्जे का है, उसमें बताने लायक कोई प्रतिभा नहीं है, वह उनसे निचले स्तर का है, और उसमें उनकी खूबियों और गुणों का अभाव है। यह कहना उचित है कि चूँकि वे अकड़बाज हैं, और मानते हैं कि उनकी बराबरी का कोई नहीं है—और इसी वजह से वे अपने किसी भी काम में किसी के भी साथ सहयोग या विचार-विमर्श नहीं करना चाहते। वे धर्मोपदेश सुन सकते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, उसके वचनों का प्रकाशन देख सकते हैं और कभी-कभी लोग उनकी काट-छाँट कर सकते हैं, लेकिन किसी भी स्थिति में वे स्वीकार नहीं करेंगे कि उन्होंने भ्रष्टता प्रकट की है और अपराध किया है, अहंकारी और आत्मतुष्ट होना तो दूर की बात है। वे यह नहीं समझ पाते कि वे बस एक साधारण इंसान हैं, साधारण काबिलियत वाले। वे ऐसी चीजें नहीं समझ सकते। चाहे तुम उनकी जैसे भी काट-छाँट करो, फिर भी उन्हें लगेगा कि उनकी काबिलियत अच्छी है, और वे साधारण लोगों से ऊँचे स्तर के हैं। क्या यह उम्मीद से परे नहीं है? (बिल्कुल है।) यह उम्मीद से परे है। यह मसीह-विरोधी होता है। उसकी काट-छाँट जैसे भी की जाए, वे अपना सिर झुका कर यह नहीं मान पाएँगे कि वे अच्छे नहीं हैं, वे नाकाबिल हैं। उनकी दृष्टि में अपनी समस्याओं, दोषों या भ्रष्टता को स्वीकार लेना निंदित होने जैसा है, बरबाद किए जाने जैसा है। वे इसी तरह सोचते हैं। वे सोचते हैं कि जैसे ही दूसरे उनके दोषों को देखेंगे, जैसे ही वे यह मानेंगे कि उनकी काबिलियत कमजोर है, और उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे परमेश्वर में विश्वास में अपनी ऊर्जा गँवा देंगे और यह उन्हें निरर्थक लगेगा, क्योंकि अब उनका रुतबा सुनिश्चित नहीं रह पाएगा—वे अपना रुतबा खो चुके होंगे। वे सोचते हैं, “क्या रुतबे के बिना जीने का कोई तुक है? इससे बेहतर तो मर जाना है!” और अगर उनके पास रुतबा हो, तो वे अपने अहंकार में अदम्य होते हैं, पागलों की तरह बुरी चीजें करते घूमते हैं; और अगर वे ठोकर खाते हैं, उनकी काट-छाँट होती है, तो वे अपना काम छोड़ देना चाहेंगे, निराश हो कर ढीले पड़ जाएँगे। तुम चाहते हो कि वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करें? इस बारे में सोचो भी मत। वे किस चीज में विश्वास रखते हैं? “यह कैसा रहेगा कि तुम मुझे कोई पद दो और फिर मुझे खुद कार्य करने दो? तुम चाहते हो कि मैं दूसरों के साथ सहयोग करूँ? यह असंभव है! मेरे लिए साझेदार मत ढूँढ़ो—मुझे किसी की जरूरत नहीं है; कोई भी मेरा साझेदार बनने लायक नहीं है। या बस मेरा उपयोग मत करो—किसी और को यह काम करने दो!” यह किस किस्म का प्राणी है? “सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है”—यह मसीह-विरोधियों की मानसिकता होती है, और यही उनकी अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह उम्मीद से परे नहीं है? (बिल्कुल है।)
पहली मद में कहा गया है कि मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में अक्षम होते हैं, इसमें “अक्षमता” में क्या निहित है? यह कि वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं करते हैं और वे दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर पाते हैं—क्या ये दोनों उसके सूत्र नहीं हैं? मसीह-विरोधियों के सार द्वारा निर्धारित ये दो अर्थ उसमें निहित हैं। हालाँकि लोग उनके साथ ताल-मेल में काम कर सकते हैं, उसका सार सच्चा सहयोग नहीं है—वे सिर्फ नौकर हैं, जो पीछे-पीछे काम करते हैं, उनके लिए दौड़भाग करते हैं, और मामले सँभालते हैं। यह किसी भी तरह से सहयोग की श्रेणी में नहीं आता। तो फिर “सहयोग” को कैसे परिभाषित किया जाता है? तथ्य यह है कि सहयोग का अंतिम लक्ष्य सत्य सिद्धांतों की समझ हासिल करना, उनके अनुसार कार्य करना, हर समस्या को सुलझाना, सही फैसले लेना है—फैसले जो बिना किसी भटकाव के सिद्धांतों के अनुरूप हों, काम में गलतियाँ घटाएँ, ताकि तुम्हारा सारा काम कर्तव्य निर्वहन का हो, न कि मनमानी करने का और अनियंत्रित हो जाने का। मसीह-विरोधियों की दूसरों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, केवल अपने प्रति समर्पण करवाने को लेकर पहली अभिव्यक्ति यह है कि वे किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते। कुछ लोग कह सकते हैं, “किसी के भी साथ सहयोग न कर पाना केवल अपने प्रति समर्पण करवाने के समान नहीं होता।” किसी के भी साथ सहयोग न कर पाने का अर्थ है कि वे किसी की बातों पर ध्यान नहीं देते या किसी से भी सुझाव नहीं माँगते—वे परमेश्वर के इरादे या सत्य सिद्धांत भी नहीं खोजते हैं। वे सिर्फ अपनी मर्जी से कार्य करते और व्यवहार करते हैं। इसमें क्या निहित है? वे खुद ही अपने काम पर काबू करते हैं, सत्य, या परमेश्वर नहीं। इसलिए उनके काम का सिद्धांत दूसरों को यों बनाना है कि उन लोगों का ध्यान इनकी बातों पर जाए और वे उसे सत्य और परमेश्वर के रूप में लें। क्या इसकी प्रकृति यह नहीं है? कुछ लोग कह सकते हैं, “यदि वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते हैं, तो कदाचित इसलिए कि वे सत्य को समझते हैं और उन्हें सहयोग करने की जरूरत नहीं है।” क्या ऐसी ही बात है? कोई व्यक्ति सत्य को जितना ज्यादा समझता और उसका अभ्यास करता है, वह काम करते समय उतने ही अधिक स्रोतों से पूछताछ करता है और खोजता है। वह नुकसान कम करने और गलतियाँ करने से बचने के लिए लोगों से चीजों के बारे में अधिक विचार-विमर्श और संगति करता है। कोई व्यक्ति सत्य को जितना अधिक समझता है, उसमें उतना ही अधिक विवेक होता है, और वह दूसरों के साथ सहयोग करने को उतना ही अधिक तैयार और सक्षम होता है। क्या ऐसा नहीं है? और यदि कोई दूसरों के साथ सहयोग करने को कम तैयार और सक्षम हो, जो किसी की भी बात पर ध्यान न दे, जो किसी के भी सुझावों पर विचार न करे, जो काम करते समय परमेश्वर के घर के हितों पर ध्यान न दे, और यह खोजने को तैयार न हो कि क्या उसके कार्यकलाप सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं—ऐसे लोग सत्य को उतना ही कम खोजते और समझते हैं। वह क्या है जो वे गलती से मानते हैं? “भाई-बहनों ने मुझे अपने अगुआ के तौर पर चुना है; परमेश्वर ने मुझे अगुआ होने का यह मौका दिया है। इसलिए मैं जो भी करता हूँ, वह सत्य के अनुरूप ही होता है—मैं जो भी करता हूँ, वह सही होता है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? उन्हें ऐसी गलतफहमी कैसे हो सकती है? एक बात तो पक्की है : ऐसे लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। इसके अलावा भी कुछ है : ऐसे लोग सत्य को बिल्कुल नहीं समझते हैं। इसमें जरा भी शक नहीं है।
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