मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक) खंड तीन
मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, बल्कि केवल अपने प्रति समर्पण करवाने के तरीके का गहन-विश्लेषण
आज की संगति आठवें मद को लेकर है जिसमें मसीह-विरोधी विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त होते हैं : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। क्या तुम लोग इस मद को समझने में सक्षम हो? पहले विचार करो कि इस मद की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जिनका तुम उनसे मेल कर सकते हो जिन्हें तुम सचमुच समझते हो। वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं—इसका शाब्दिक अर्थ आसानी से समझ आ जाता है, लेकिन इसके भीतर अनेक अवस्थाएँ हैं, विभिन्न स्वभाव हैं, जिन्हें तमाम तरह के लोग प्रदर्शित करते हैं, या विभिन्न व्यवहार हैं जो ये विभिन्न स्वभाव दर्शाते हैं। यह एक बड़ा विषय है; हमें इसकी कुछ छोटी विशेषताओं पर संगति करनी होगी। जो लोग वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, वे इस मद के शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसे समझाने के लिए अक्सर कहेंगे : “इसका अर्थ सभी चीजों में उनकी बात पर ध्यान देना है—वे लोगों से अपनी बात पर ध्यान दिलवाते हैं, तब भी जब उनकी बात सत्य के अनुसार नहीं होती। जब वे कुछ वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, तो वे दूसरों से अपनी बात पर ध्यान दिलवाते हैं; जब वे कोई वाक्यांश कहते हैं, तो वे उस पर दूसरों से ध्यान दिलवाते हैं। वे हमेशा दूसरों को आदेश देने, दूसरों को काम सौंपने को प्रवृत्त रहते हैं, और दूसरों को उन पर ध्यान देने को मजबूर करते हैं।” इसके शाब्दिक अर्थ पर कुछ बात करते समय क्या वे अक्सर ऐसा ही नहीं कहते? और कुछ? “वे सोचते हैं कि वे सभी चीजों के बारे में सही हैं। वे हरेक से अपनी बात पर ध्यान दिलवाते हैं, और लोगों से अपनी बात के आगे समर्पण करवाते हैं, हालाँकि वह सत्य के अनुसार नहीं होती है। वे समझते हैं कि वे सत्य और परमेश्वर की तरह हैं, और उनकी बात पर ध्यान देकर लोग सत्य और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं। इसका यही अर्थ है।” विचार करो कि यदि तुम लोग इस विषय पर बोल रहे होते, तो तुम कैसे बोलते। अगर तुम लोगों को अपनी आँखों देखी या खुद अनुभव की हुई चीजों से शुरू करना होता, तो तुम किस अंश से शुरू करते? जैसे ही हम वास्तविकता के बारे में बोलते हैं, तुम लोगों के पास कहने के लिए कुछ नहीं होता। तो क्या तुम लोगों के पास भाई-बहनों के साथ सामान्य संगति में भी कुछ कहने को नहीं होता? बातें किए बिना तुम अच्छी तरह से अपना काम कैसे कर सकते हो? पहले इस अभिव्यक्ति के कुछ ठोस तौर-तरीकों और व्यवहारों पर चर्चा करते हैं। इनमें से तुम लोग पहले किनको देख चुके हो या किनके साक्षी रह चुके हो? क्या तुम्हें कुछ पता है? (जब मैं अपना कर्तव्य कर रही होती हूँ, उस समय मुझे कुछ ऐसे विचार आते हैं जो काफी सशक्त होते हैं, और मैं वास्तव में उन पर कार्य करना चाहती हूँ। मुझे लगता है कि मेरे वे विचार अच्छे और सही हैं, और जब दूसरे उनके बारे में शंका जताते हैं तो मैं कहती हूँ कि इस मामले में देर नहीं करनी चाहिए, और इस पर तुरंत फैसला करना जरूरी है। फिर मैं जो करना चाहती थी वह जबरन करती हूँ। दूसरे शायद इस बारे में खोजना चाहें, लेकिन मैं उन्हें समय नहीं देना चाहती—मैं चाहती हूँ कि वे मेरे विचारों के अनुरूप ही वह काम करें।) यह एक ठोस अभिव्यक्ति है। दूसरी कौन बताएगा? (एक बार मैं भाई-बहनों से किसी व्यक्ति को पदोन्नत और विकसित करने के मामले पर संगति कर रहा था। असल में मैं पहले ही उस व्यक्ति को पदोन्नत करने का मन बना चुका था। मुझे लगा कि मैं पहले ही ऊपरवाले से पूछ चुका हूँ और उसे पदोन्नत करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ भाई-बहन अभी भी इस मामले को बहुत अच्छी तरह से नहीं समझ पाए थे, और मैंने इस बारे में संगति नहीं की कि हमें उस व्यक्ति को पदोन्नत क्यों करना चाहिए, इसके सिद्धांत क्या थे, या सत्य क्या था—मैंने बस उन्हें दृढ़तापूर्वक बताया कि वह व्यक्ति किन बातों में अच्छा है, और यह कि उसे पदोन्नत करना सिद्धांतों के अनुरूप है। मैंने उन्हें आज्ञा मानने और इस बात पर यकीन करने के लिए मजबूर किया कि मैं जो कर रहा हूँ वह सही है।) तुम लोग समस्याओं की एक श्रेणी, अवस्थाओं की एक श्रेणी के बारे में बात कर रहे हो, जो कुल मिलाकर इस मद से मेल खाते हैं। ऐसा लगता है कि यह थोड़ी-सी शाब्दिक समझ उतनी ही है जितना तुम लोग सत्य को समझ पाए हो, इसलिए मुझे इस बारे में संगति करनी होगी। यदि तुम लोग इस मद को अच्छी तरह समझ गए हो, तो हम इसे छोड़ देंगे और अगले के बारे में संगति करेंगे। हालाँकि लगता है कि अभी हम ऐसा नहीं कर सकते और हमें इस पर योजना के अनुसार ही संगति करनी होगी।
मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का आठवाँ मद है : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। इसमें किसी मसीह-विरोधी के सार की अनेक अभिव्यक्तियाँ हैं। यह निश्चित रूप से अकेला मामला, अकेला वाक्यांश, अकेला दृष्टिकोण या चीजें सँभालने का अकेला तरीका नहीं है; बल्कि यह एक स्वभाव है। तो फिर यह कौन-सा स्वभाव है? यह कई तरीकों में प्रकट होता है। पहला तरीका यह है कि ऐसे लोग किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते। क्या यह चीजें करने का तरीका है? (नहीं, यह एक स्वभाव है।) बिल्कुल सही—यह एक स्वभाव का प्रकाशन है, एक ऐसा स्वभाव जिसका सार अहंकार और आत्मतुष्टता है। ऐसे लोग किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते। यह पहला है। दूसरे जिस तरीके में यह अभिव्यक्त होता है वह यह है कि उनमें लोगों पर नियंत्रण करने और उन पर विजय पाने की लालसा और महत्वाकांक्षा होती है। क्या यह एक स्वभाव है? (हाँ।) क्या यह चीजें करने का एक तरीका है? (नहीं।) तुम लोगों ने जो बातें कही हैं, क्या यह उनसे अलग है? तुम लोगों ने एकल घटनाओं, चीजें करने के एकल तरीकों पर बात की—वे कोई सार नहीं हैं। क्या यह अभिव्यक्ति तुम लोगों की कही हुई बातों से अधिक गंभीर नहीं है? (हाँ।) यह मूल तक जाती है। और तीसरा तरीका है कि दूसरों को उनके द्वारा किए जा रहे किसी भी काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकना। क्या यह एक सार है? (हाँ।) इनमें से प्रत्येक सार में अनेक व्यवहार और चीजें करने के कई तरीके निहित हैं। फिर से, यह सार भी आठवें मद से मेल खाता है, है कि नहीं? चौथा तरीका यह है कि वे थोड़ा अनुभव और ज्ञान हासिल कर लेने और कुछ सबक सीख लेने के बाद वे सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं, जिसका अर्थ है कि यदि वे सत्य पर थोड़ी संगति कर पाते हैं, तो वे खुद को सत्य वास्तविकता से युक्त मानते हैं और दूसरों को दिखाना चाहते हैं कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास सत्य है—ऐसा व्यक्ति जो सत्य का अभ्यास करता है, सत्य से प्रेम करता है, और जिसके पास सत्य वास्तविकता है। वे सत्य के प्रतिरूप होने का ढोंग करते हैं—क्या यह गंभीर प्रकृति का मामला नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह अभिव्यक्ति आठवें मद से मेल खाती है? (हाँ।) बिल्कुल मेल खाती है। आठवाँ मद मूल रूप से इन चार तरीकों से अभिव्यक्त होता है। पहले तरीके से शुरू करके उनके बारे में बताओ। (पहला यह है कि ऐसे लोग किसी के भी साथ सामंजस्य में सहयोग करने में सक्षम नहीं होते।) “सामंजस्य में” का संदर्भ सहयोग करने में सक्षम होने से है; ऐसे लोग किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं हो पाते। वे अपने आप काम करते हैं, अपने कामों में एकल रहते हैं; “एकल” पहली अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है। अब दूसरे को लें। (उनमें लोगों पर नियंत्रण करने और उन पर विजय पाने की महत्वाकांक्षा और लालसा होती है।) क्या यह एक गंभीर अभिव्यक्ति है? (बिल्कुल है।) ठीक है, दूसरी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता क्या है? उसका एक शब्द में वर्णन करो। (दुष्ट।) “दुष्ट” एक विशेषण है; यह उनके स्वभाव का वर्णन करता है। शब्द होना चाहिए “नियंत्रण।” “नियंत्रण” करना एक इस प्रकार का कार्यकलाप है, जो ऐसे स्वभाव से उत्पन्न होता है। और तीसरी अभिव्यक्ति। (वे दूसरों को उनके द्वारा लिए गए किसी भी काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकते हैं।) क्या यह वह स्वभाव नहीं है जो मसीह-विरोधियों में आम होता है? (बिल्कुल है।) यह वह अभिलाक्षणिक स्वभाव है जो मसीह-विरोधियों के लिए विशेष है। क्या इस अभिव्यक्ति को संक्षेप में बताने के लिए कोई उपयुक्त शब्द होता है? हाँ—“प्रतिरोध।” जो भी आता है वे उसका प्रतिरोध करते हैं; भाई-बहनों और साधारण लोगों द्वारा उनकी निगरानी और पूछताछ को स्वीकार करने की बात तो भूल ही जाओ—वे परमेश्वर की पड़ताल को भी स्वीकार नहीं करेंगे। क्या यह प्रतिरोध नहीं है? (है।) और चौथी अभिव्यक्ति। (थोड़ा अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर लेने और कुछ सबक सीख लेने के बाद वे सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं।) हम इसे एक उपयुक्त शब्द से सारांशित करेंगे : “दिखावा।” दिखावा करना छल से ज्यादा गंभीर है। आठवें मद से संबंधित बुनियादी, अभिलाक्षणिक व्यवहार, चीजें करने के तौर-तरीके और स्वभाव, सबके सब इन चार अभिव्यक्तियों में देखने को मिलते हैं। पहली अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “एकल।” वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं करते, बल्कि अपने ही दम पर कार्य करना चाहते हैं। वे स्वयं के सिवाय किसी पर ध्यान नहीं देते और ऐसा करते हैं कि दूसरे किसी और पर नहीं बल्कि केवल उन्हीं पर ध्यान दें। या तो उनकी सुनो वरना अपना रास्ता पकड़ो। दूसरी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “नियंत्रण।” वे लोगों को नियंत्रित करना चाहते हैं, और वे तुम्हें, तुम्हारे विचारों, तुम्हारे काम करने के तरीकों, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे दृष्टिकोणों को नियंत्रित करने के लिए तमाम उपाय साधते हैं। वे तुम्हारे साथ सत्य पर संगति नहीं करते। वे तुम्हें सत्य सिद्धांत नहीं समझने देते, और वे तुम्हें परमेश्वर के इरादे नहीं समझने देते। वे अपने उपयोग के लिए तुम पर नियंत्रण करना चाहते हैं, ताकि तुम उनकी ओर से बात करो, उनके लिए काम करो, उनके लिए श्रम करो, उन्हें उत्कर्षित करो, और उनके लिए गवाही दो। वे तुम्हें अपने गुलाम, अपनी कठपुतली के तौर पर नियंत्रित करना चाहते हैं। तीसरी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “प्रतिरोध,” यानी हर चीज का प्रतिरोध करना—हर चीज जो उनकी करनी और कथनी को पहचान सकती हो, या उसकी निगरानी कर सकती हो, या उसके लिए खतरा हो, उसका वे पूरी तरह से प्रतिरोध और विरोध करते हैं। चौथी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “दिखावा”—वे क्या होने का दिखावा करते हैं? वे सत्य के प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं, यानी वे लोगों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी बातों और कामों को याद रखें, और यहाँ तक कि वे उन्हें अपनी नोटबुक में दर्ज भी करें। वे कहते हैं, “सिर्फ याद रखने भर से कैसे काम चलेगा? तुम्हें इन्हें नोटबुक में लिखना चाहिए। तुम लोगों में से कोई भी नहीं समझता कि मैं क्या कह रहा हूँ—ये अत्यंत गहरी और गूढ़ बातें हैं।” वे अपने कथनों को किस रूप में लेते हैं? सत्य। अब इसके आगे हम बारी-बारी से इन अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करेंगे।
I. किसी के साथ सहयोग करने में मसीह-विरोधियों की अक्षमता का गहन-विश्लेषण
पहला मद यह है कि मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते। यह मसीह-विरोधियों की दूसरों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, केवल अपने प्रति समर्पण करवाने को लेकर पहली अभिव्यक्ति होती है। वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते—इस “किसी” में सभी लोग सम्मिलित हैं। चाहे उनके व्यक्तित्व किसी अन्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के साथ सुसंगत हों या नहीं, और परिस्थितियाँ चाहे जो हों, वे बस सहयोग नहीं कर पाते। यह भ्रष्टता के साधारण प्रकाशन का प्रश्न नहीं है—यह उनकी प्रकृति की समस्या है। कुछ लोग कहते हैं, “कुछ खास लोग ऐसे होते हैं जिनके व्यक्तित्व मुझसे मेल नहीं खाते, और इस वजह से मैं उनके साथ सहयोग नहीं कर सकता।” यह व्यक्तित्वों का सरल मसला नहीं, बल्कि भ्रष्ट स्वभाव का मसला है। भ्रष्ट स्वभाव होना एक मसीह-विरोधी के स्वभाव का होना है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उस व्यक्ति में मसीह-विरोधी का सार है। यदि कोई व्यक्ति सत्य को खोज सकता है, और सत्य के अनुरूप होने पर दूसरों की बातों का, चाहे वे कोई भी हों, पालन कर सकता है, तो क्या उस व्यक्ति के लिए दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाना आसान नहीं होगा? (होगा।) सत्य के प्रति समर्पण कर सकने वाले लोगों के लिए दूसरों के साथ सहयोग करना आसान होता है; जो लोग सत्य के प्रति समर्पण नहीं कर पाते, वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अत्यंत अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे सत्य को लेश मात्र भी नहीं स्वीकारते, और किसी भी व्यक्ति के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं कर पाते। अब यह एक गंभीर समस्या है—उनमें मसीह-विरोधी प्रकृति होती है, और वे सत्य या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता है : यदि वे सत्य को स्वीकार कर सकें, तो उनके लिए बचाया जाना आसान होगा; लेकिन अगर वे मसीह-विरोधी प्रकृति वाले हैं, और सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वे मुसीबत में हैं—उनके लिए बचाया जाना आसान नहीं होगा। अनेक मसीह-विरोधियों का खुलासा मुख्य रूप से इस कारण से हुआ है कि वे किसी के भी साथ सहयोग करने में अक्षम होते हैं, हमेशा तानाशाही से कार्य करते हैं। क्या यह किसी भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है, या यह किसी मसीह-विरोधी का प्रकृति सार है? किसी के भी साथ सहयोग न कर पाना—यह कौन-सी समस्या है? इसका केवल अपने प्रति समर्पण करवाने, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, से क्या लेना-देना है? यदि हम इस मद पर स्पष्ट रूप से संगति करें, तो तुम यह समझ पाओगे कि मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार वाले लोग किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते, वे जिसके साथ भी सहयोग कर रहे हैं उससे किनारा कर लेंगे, और यहाँ तक कि वे कटु प्रतिद्वंद्वी भी बन जाएँगे। ऊपर से लग सकता है जैसे कुछ मसीह-विरोधियों के सहायक या साझेदार होते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ घटित होने पर दूसरे लोग चाहे जितने भी सही हों, मसीह-विरोधी उनकी बात कभी नहीं सुनते। उस बारे में चर्चा करना या उस पर संगति करना तो दूर, वे उस पर ध्यान भी नहीं देते हैं। वे बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं मानो दूसरे वहाँ हों ही नहीं। जब मसीह-विरोधी दूसरों की बातें सुनते हैं, तो वे महज खानापूर्ति कर रहे होते हैं, या दूसरों के दिखाने के लिए नाटक कर रहे होते हैं। लेकिन अंततः जब अंतिम निर्णय का समय आता है, तो फैसले मसीह-विरोधी ही लेते हैं; किसी दूसरे व्यक्ति के कथन व्यर्थ होते हैं, उनके बिल्कुल भी कोई मायने नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी काम के लिए जिम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कोई भी काम हो, वह और सिर्फ वह है जो उसकी शुरुआत करता है, जो सवाल पूछता है, जो चीजें सुलझाता है, और जो समाधान सुझाता है। और ज्यादातर समय वह अपने साथी को पूरी तरह से अँधेरे में रखता है। उसकी नजर में उसका साथी क्या होता है? उसका सहायक नहीं, बल्कि सिर्फ सजावट का सामान। मसीह-विरोधी की नजर में, उनका साझेदार होता ही नहीं। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी उस पर विचार करता है, और जब वह तय कर लेता है कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी सभी को सूचित कर देता है कि उसे कैसे करना है, और किसी को उस पर सवाल नहीं उठाने दिया जाता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? मूल रूप से यह अपनी बात मनवाना, समस्याओं पर किसी और के साथ चर्चा न करना, काम की अकेले जिम्मेदारी लेना और अपने सहयोगियों को सजावटी सामान में बदलना है। वे हमेशा अकेले ही काम करते हैं और कभी किसी के साथ सहयोग नहीं करते। वे अपने काम के बारे में कभी किसी और के साथ चर्चा या संवाद नहीं करते, वे अक्सर अकेले निर्णय लेते हैं और अकेले ही मुद्दों से निपटते हैं, और बहुत सी चीजों में, दूसरे लोगों को काम पूरा होने के बाद ही पता चलता है कि चीजें कैसे पूरी हुईं या सँभाली गईं। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, “सभी समस्याओं पर हमारे साथ चर्चा होनी चाहिए। तुमने उस व्यक्ति को कब सँभाला था? तुमने उसे कैसे सँभाला? हमें इसके बारे में कैसे पता नहीं चला?” वे न तो कोई स्पष्टीकरण देते हैं और न ही इस पर कोई ध्यान देते हैं; उनके लिए उनके साथियों का कोई उपयोग नहीं है, और वे सिर्फ सजावट की वस्तुएँ हैं। जब कुछ घटित होता है, तो वे उस पर विचार करते हैं, अपना मन बनाते हैं, और जैसा भी चाहें वैसा ही करते हैं। उनके आसपास चाहे जितने भी लोग हों, ऐसा लगता है मानो वे लोग वहाँ हों ही नहीं। मसीह-विरोधी के लिए वे लोग हवा की तरह अदृश्य होते हैं। इसे देखते हुए, क्या दूसरों के साथ उसकी साझेदारी का कोई असली पहलू भी है? बिल्कुल नहीं, वह बस बेमन से काम करता है और एक भूमिका निभाता है। दूसरे उससे कहते हैं, “जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है, तो तुम बाकी सबके साथ सहभागिता क्यों नहीं करते?” वह उत्तर देता है, “वे क्या जानते हैं? मैं टीम-अगुआ हूँ, निर्णय मुझे लेना है।” दूसरे कहते हैं, “और तुमने अपने साथी के साथ संगति क्यों नहीं की?” वह जवाब देता है, “मैंने उनसे कहा था, उनकी कोई राय नहीं थी।” वह दूसरे लोगों की कोई राय न होने या उनके खुद सोचने में सक्षम न होने का उपयोग इस तथ्य को ढकने के बहाने के रूप में करता है कि वह खुद को ऐसे दिखा रहा है मानो वह अपने आप में एक कानून हो। और इसके बाद थोड़ा-सा भी आत्मनिरीक्षण नहीं किया जाता। ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य स्वीकारना असंभव होगा। मसीह-विरोधी की प्रकृति के साथ यह एक समस्या है।
“सहयोग” शब्द की व्याख्या और उसका अभ्यास कैसे किया जाए? (चीजें सामने आने पर उन पर विचार-विमर्श करके।) हाँ, इसका अभ्यास करने का यह एक तरीका है। इसके अलावा क्या? (अपनी कमजोरियों की दूसरों की खूबियों से पूर्ति करना, एक-दूसरे की निगरानी करना।) यह पूरी तरह से सटीक है; इस तरह से अभ्यास करना सामंजस्य में सहयोग करना है। क्या और भी कुछ है? चीजों के घटित होने पर दूसरे की राय माँगना—क्या यह सहयोग नहीं है? (बिल्कुल है।) यदि एक व्यक्ति अपनी, और दूसरा व्यक्ति अपनी संगति करता है, और फिर अंत में, वे बस पहले व्यक्ति की संगति को मान लेते हैं, तो फिर खानापूर्ति क्यों करनी? यह सहयोग नहीं है—यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और इससे सहयोग के नतीजे नहीं मिलते। यदि तुम मशीन गन की तरह धड़ाधड़ बोलते ही जाते हो, और जो दूसरे बोलना चाहते हैं उन्हें मौका नहीं देते, और अपने सभी विचार बता देने के बाद भी दूसरों की बातें नहीं सुनते हो, तो क्या यह विचार-विमर्श है? क्या यह संगति है? यह खानापूर्ति करना है—यह सहयोग नहीं है। तो फिर सहयोग क्या है? यह तब होता है जब अपने विचार और फैसले बताने के बाद तुम दूसरों की राय और विचार पूछ सको, फिर अपने और उनके वक्तव्यों और दृष्टिकोणों की परस्पर तुलना कर सको, कुछ लोग मिलकर इनके भेद की पहचान कर सकें और सिद्धांत खोज पाएँ और इस तरह से एक सामान्य समझ पर पहुँचकर अभ्यास का सही मार्ग तय कर सकें। विचार-विमर्श करने और संगति करने का यही अर्थ होता है—“सहयोग” का यही अर्थ होता है। अगुआओं के तौर पर कुछ लोग कुछ मामलों को गहराई से नहीं समझ पाते, लेकिन अपने विकल्प खत्म हो जाने तक वे दूसरों से विचार-विमर्श नहीं करते। फिर वे समूह से कहते हैं, “मैं इस मामले को निरंकुशता से नहीं सँभाल सकता; मुझे सभी के साथ सामंजस्य में सहयोग करने की जरूरत है। मैं तुम सब लोगों को इस बारे में अपनी राय व्यक्त कर उस पर विचार-विमर्श करने दूँगा, ताकि यह तय कर सकें कि हमारे लिए क्या करना सही है।” सभी के बोल लेने और अपनी पूरी बात कहने के बाद वे अगुआ से पूछते हैं कि वह इस बारे में क्या सोचता है। वह कहता है, “सभी लोग जो चाहते हैं, वही मैं भी चाहता हूँ—मैं भी यही सोच रहा था। मैंने शुरू से ही यही करने की योजना बनाई थी, और इस विचार-विमर्श से सर्वसम्मति सुनिश्चित हो गई है।” क्या यह एक खरी टिप्पणी है? इसमें एक धब्बा है। वह मामले को बिल्कुल नहीं समझ पाता, और उसकी बातों में लोगों को गुमराह करने और उनसे छल करने का इरादा छिपा हुआ है—यह इस आशय से है कि लोग उसका सम्मान करें। उसका सबकी राय पूछना केवल औपचारिकता होती है, इस मतलब से होता है कि लोगों से कहलवाना है कि वह तानाशाह या निरंकुश नहीं है। उस लेबल से बचने के लिए वह चीजों को छिपाने के लिए यह तरीका इस्तेमाल करता है। तथ्य यह है कि जब हर कोई बात कर रहा होता है, तो वह बिल्कुल भी नहीं सुनता, और वह उनकी बातों को बिल्कुल आत्मसात नहीं करता है। और वह हर किसी को बोलने देने में भी ईमानदार नहीं है। ऊपर से तो लगता है कि वह सभी को संगति और विचार-विमर्श करने दे रहा है, लेकिन वास्तविकता में वह सिर्फ लोगों को बात करने दे रहा है, ताकि उसे वह तरीका मिल जाए जो उसके इरादों के अनुरूप हो। और एक बार जब वह किसी काम को करने के लिए उपयुक्त तरीका तय कर लेता है, तो वह लोगों को यह मानने को मजबूर कर देगा कि सही हो या गलत, वे उसके इरादे को स्वीकार करें, और सब यह सोचने लगें कि उसका तरीका सही है, और सभी यही इरादा रखते हैं। अंत में, वह इसे बलपूर्वक कार्यान्वित कर देता है। क्या इसे तुम सहयोग कहोगे? नहीं—तो फिर तुम इसे क्या कहोगे? वह तानाशाही कर रहा है। चाहे वह सही हो या गलत, वह खुद ही एकल और अंतिम फैसला लेना चाहता है। इसके अलावा, जब कुछ घटित होता है और वह उसे नहीं समझ पाता, तो वह पहले बाकी सबको बोलने देता है। उनके बोल लेने के बाद वह उनके दृष्टिकोणों को संक्षेप में दोहराता है, और उनके भीतर वह तरीका ढूँढ़ता है जो उसे पसंद हो और उसे उपयुक्त लगे, और फिर सभी से उसे स्वीकार करवाता है। वह सहयोग का दिखावा करता है, और परिणामस्वरूप वह अभी भी जैसा चाहे वैसा ही करता है—अभी भी वही वह व्यक्ति है जिसका निर्णय ही एकल और अंतिम होता है। वह सबकी बातों में त्रुटियाँ ढूँढ़ता है और उनकी कमियाँ निकालता है, टिप्पणी करता है, माहौल बनाता है, और फिर सारी चीजों को एक पूर्ण, सही वक्तव्य में संश्लेषित कर देता है जिसके साथ वह अपना फैसला लेता है, और सबको दिखाता है कि वह दूसरों से ज्यादा श्रेष्ठ है। बाहर से देखने पर, ऐसा लगता है कि उसने सभी लोगों के संदेश सुने हैं, और वह सभी को बोलने देता है। हालाँकि तथ्य यह है कि अंत में केवल वही अकेला फैसला लेता है। वह फैसला वास्तव में सभी की अंतर्दृष्टियों और दृष्टिकोणों का उसका निकाला हुआ निचोड़ होता है, जिसे उसने थोड़े ज्यादा पूर्ण और सही ढंग से प्रस्तुत किया है। कुछ लोग इसकी असलियत नहीं जान सकते, इसलिए सोचते हैं कि वही अधिक श्रेष्ठ है। उसकी ओर से ऐसे कार्यकलाप का चरित्र क्या होता है? क्या यह अत्यधिक सयानापन नहीं है? वह सभी के संदेशों का सारांश बना कर उन्हें अपना बता देता है, ताकि लोग उसकी आराधना करें और उसकी आज्ञा मानें; और अंत में, सब लोग उसी की इच्छा के मुताबिक कार्य करें। क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? यह अहंकार और आत्मतुष्टता है, तानाशाही है—वह सबका श्रेय खुद ले लेता है। ऐसे लोग दूसरों के साथ सहयोग में बहुत अधिक कुटिल, बड़े अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, और अधिक समय मिलने पर लोग इसे समझ जाएँगे। कुछ लोग कहेंगे : “तुम कहते हो कि मैं किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं हूँ—अरे, मेरा एक साझेदार है! वह मेरे साथ अच्छा सहयोग करता है : मैं जहाँ भी जाता हूँ वह आता है; मैं जो भी करता हूँ वह भी वही करता है; वह वहीं जाता है जहाँ मैं उसे भेजता हूँ, वही करता है जो मैं उससे करवाता हूँ, जैसे भी करवाता हूँ।” क्या सहयोग का अर्थ यही है? नहीं। इसे ताबेदार होना कहा जाता है। ताबेदार तुम्हारा कहा करता है—क्या यह सहयोग है? स्पष्ट तौर पर ऐसे लोग प्यादे होते हैं, उनकी अपनी राय होना तो दूर की बात है, उनके पास कोई विचार या दृष्टिकोण नहीं होते। और इससे भी आगे, उनकी सोच लोगों को खुश करने वाली होती है। वे अपने किसी भी काम में सावधान नहीं रहते, बल्कि अनमने ढंग से खानापूर्ति करते रहते हैं और वे परमेश्वर के घर के हितों का मान नहीं रखते हैं। इस प्रकार के सहयोग से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा? वे जिनके भी साथ सहयोग करते हैं, वे सिर्फ उनका कहा ही करते हैं, हमेशा प्यादे बने रहते हैं। वे दूसरों की बातों पर ध्यान देते हैं और दूसरे उनसे जो करने को कहें वही करते हैं। यह सहयोग नहीं है। सहयोग क्या होता है? तुम्हें एक-दूसरे के साथ चीजों पर विचार-विमर्श करने और अपने विचार और राय व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए, परस्पर निगरानी करनी चाहिए, एक-दूसरे से माँगना चाहिए, एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए, और एक-दूसरे को स्मरण कराना चाहिए। सामंजस्य के साथ सहयोग करना यही होता है। उदाहरण के लिए मान लो, तुमने अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सँभाला, और किसी ने कहा, “तुमने यह गलत किया, पूरी तरह से सिद्धांतों के विरुद्ध। तुमने सत्य को खोजे बिना, जैसे चाहे वैसे इसे क्यों सँभाला?” जवाब में तुम कहते हो, “बिल्कुल सही—मुझे खुशी है कि तुमने मुझे सचेत किया! यदि तुमने न चेताया होता, तो तबाही मच गई होती!” यही है एक-दूसरे को स्मरण कराना। तो फिर एक-दूसरे की निगरानी करना क्या होता है? सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और हो सकता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों की नहीं, बल्कि केवल अपने रुतबे और गौरव की सुरक्षा करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो जाएँ। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी अवस्थाएँ होती हैं। यदि तुम यह जान जाते हो कि किसी व्यक्ति में कोई समस्या है, तो तुम्हें उसके साथ संगति करने की पहल करनी चाहिए, उसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलानी चाहिए, और साथ ही इसे अपने लिए एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। यही है पारस्परिक निगरानी। पारस्परिक निगरानी से कौन-सा कार्य सिद्ध होता है? इसका उद्देश्य परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना होता है, और साथ ही लोगों को गलत मार्ग पर कदम रखने से रोकना होता है। एक-दूसरे को स्मरण कराने और एक-दूसरे का पर्यवेक्षण करने के अलावा सहयोग का एक और कार्य होता है : एक-दूसरे से पूछताछ करना। उदाहरण के लिए, जब तुम किसी व्यक्ति को सँभालना चाहते हो, तो तुम्हें अपने साझेदार से संगति करनी चाहिए और उससे पूछताछ करनी चाहिए : “मेरा पहले ऐसी किसी चीज से सामना नहीं हुआ। मैं नहीं जानता कि इसे कैसे सँभालूँ। इसे सँभालने का अच्छा तरीका क्या है? मैं तो इसे सुलझा नहीं सकता!” वे कहते हैं, “मैंने पहले ऐसी समस्याओं को सँभाला है। उस वक्त संदर्भ इस व्यक्ति के मामले से जरा अलग था; अगर हम इसे उसी ढंग से सँभालें, तो यह नियम पालन जैसा होगा। अब मुझे भी इसे सँभालने का कोई अच्छा तरीका नहीं मालूम।” तुम कहते हो, “मेरे पास एक विचार है, जिस पर मैं तुम्हारी राय चाहता हूँ। उसके चरित्र को देखें तो यह व्यक्ति बुरा लग रहा है, लेकिन फिलहाल हम इस बारे में सुनिश्चित नहीं हो सकते। हालाँकि यह मेहनत कर सकता है, इसलिए अभी के लिए इसे करने देते हैं। यदि वह मेहनत न कर सका, और चीजों में विघ्न-बाधाएँ डालता रहा, तब हम उसे सँभालेंगे।” यह सुन कर वे कहते हैं, “यह बढ़िया तरीका है। यह विवेकपूर्ण है, और पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप है, यह न तो दमनात्मक है, न ही निजी क्रोध का गुबार निकालने का तरीका है। चलो, फिर इसे इसी तरह से सँभालते हैं।” तुम दोनों ने विचार-विमर्श के जरिए सहमति बना ली। इस प्रकार किया गया कार्य सुचारू रूप से चलता रहता है। मान लो कि तुम दोनों सहयोग नहीं कर रहे हो, चीजों पर विचार-विमर्श नहीं करते, और जब तुम्हारे साझेदार को पता नहीं होता कि किसी चीज को कैसे सँभालना है, तो वह यह सोच कर इसे तुम्हीं पर डाल देता है, “तुम इसे जैसे चाहो, वैसे सँभालो। अगर कुछ गलत हुआ तो किसी भी स्थिति में यह तुम्हारी जिम्मेदारी होगी—मैं इसे तुम्हारे साथ साझा नहीं करूँगा।” तुम देख सकते हो कि तुम्हारा साझेदार जिम्मेदारी लेने की अनिच्छा के साथ कार्य कर रहा है, फिर भी तुम उसे यह नहीं बताते, बल्कि यह सोच कर अपनी मर्जी से जल्दबाजी में कार्य करते हो, “तुम जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हो? तुम चाहते हो कि इसे मैं सँभालूँ? ठीक है, फिर इसे मैं ही सँभालूँगा—मैं उन्हें निष्कासित कर दूँगा।” तुम दोनों एकमत नहीं होते हो; प्रत्येक का अपना छिपा हुआ इरादा होता है—और परिणामस्वरूप, मामले को बेतरतीबी और लापरवाही से सिद्धांतों का उल्लंघन करके सँभाला जाता है और मेहनत करने के काबिल व्यक्ति को मनमाने ढंग से निकाल दिया जाता है। क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? सकारात्मक परिणाम हासिल करने का एकमात्र तरीका सामंजस्यपूर्ण सहयोग ही है। यदि एक व्यक्ति जिम्मेदारी नहीं लेता और दूसरा मनमानी से कार्य करता है, तो यह उनके बीच सहयोग न करने के ही समान है। वे दोनों अपनी ही इच्छा से काम कर रहे हैं। व्यक्ति का इस तरह कर्तव्य निभाना मानक-स्तरीय कैसे हो सकता है?
जब सहयोग के दौरान कोई चीज सामने आती है, तो तुम्हें एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए और एक-दूसरे से विचार-विमर्श करना चाहिए। क्या मसीह-विरोधी इस प्रकार अभ्यास कर सकते हैं? मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते; वे हमेशा एकाकी शासन स्थापित करने की कामना करते हैं। इस अभिव्यक्ति का लक्षण है “एकल।” इसका वर्णन करने के लिए “एकल” शब्द का उपयोग क्यों करें? इस कारण से कि कार्रवाई करने से पहले वे परमेश्वर के समक्ष आ कर प्रार्थना नहीं करते, न ही वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं, संगति करने के लिए किसी को ढूँढ़ कर उससे यह कहना तो दूर की बात है कि “क्या यह सही मार्ग है? कार्य व्यवस्थाओं में क्या निर्धारित किया गया है? इस प्रकार की चीज को कैसे सँभाला जाए?” वे अपने सहकर्मियों और साझेदारों के साथ कभी विचार-विमर्श नहीं करते, न ही उनके साथ सहमति बनाने का प्रयास करते हैं—वे चीजों पर खुद ही सोच-विचार कर अपने ही दम पर रणनीति तैयार करते हैं, अपनी ही योजनाएँ और व्यवस्थाएँ बनाते हैं। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं पर सिर्फ सरसरी नजर डाल कर वे सोचते हैं कि उन्होंने उन्हें समझ लिया है, और फिर वे आँखें मूँदकर काम की व्यवस्था करते हैं—और जब तक दूसरों को इसकी खबर लगती है, तब तक काम की व्यवस्था हो चुकी होती है। किसी भी व्यक्ति के लिए उनके अपने मुँह से उनके विचारों या राय को पहले से सुन पाना असंभव होता है, क्योंकि वे कभी भी अपने मन में छिपे विचारों या नजरियों के बारे में किसी को नहीं बताते। कोई पूछ सकता है, “क्या सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साझेदार नहीं होते हैं?” नाममात्र के लिए वे किसी को साझेदार बना सकते हैं, लेकिन काम का समय आने पर उनका कोई साझेदार नहीं होता—वे अकेले काम करते हैं। हालाँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथी होते हैं, और कर्तव्य निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के साझेदार होते हैं, मसीह-विरोधी मानते हैं कि उनमें अच्छी क्षमता है और वे आम लोगों से बेहतर हैं, इसलिए आम लोग उनके साझेदार बनने लायक नहीं हैं और वे उनसे कमतर हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी एकतरफा निर्णय लेना पसंद करते हैं, किसी और से चर्चा करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे नाकाबिल और निकम्मे जैसे नजर आएँगे। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? यह कैसा स्वभाव है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे कुछ पूछना और उनसे कुछ खोजने का प्रयास करना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ सहयोग करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या यह उनकी अहंकारी और बेतुकी मानसिकता नहीं है? क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? उनके भीतर का अहंकार और आत्मतुष्टता बहुत स्पष्ट होती है; वे सामान्य मानवीय विवेक पूरी तरह गँवा चुके होते हैं और उनका दिमाग भी ठिकाने पर नहीं होता। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास काबिलियत है, वे स्वयं चीजों को समाप्त कर सकते हैं, और उन्हें दूसरों के साथ सहयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चूंकि उनके स्वभाव इतने भ्रष्ट हैं, इसलिए वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाने में असमर्थ होते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों के साथ सहयोग करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है और वे सब कुछ स्वयं तय नहीं कर सकते यानी उनकी असली ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे उनके साथ कुछ भी हो, अगर उन्हें भरोसा है कि वे समझते हैं और जानते हैं कि इसे सँभालने का उपयुक्त तरीका क्या है, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करेंगे, और सारे फैसले वे खुद लेंगे। वे दूसरों को जानने देने के बजाय गलतियाँ करना पसंद करेंगे, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलत साबित होना पसंद करेंगे, अपने काम में दूसरों की दखल बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करेंगे। ऐसा होता है मसीह-विरोधी। वे किसी और के साथ अपनी सत्ता साझा नहीं करते, फिर भले ही परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचे, भले ही परमेश्वर के घर के हित दाँव पर लग जाएँ। उन्हें लगता है कि जब वे कोई काम कर रहे होते हैं या किसी मामले को सँभाल रहे होते हैं, तो यह किसी कर्तव्य का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि खुद को प्रदर्शित करने और दूसरों से अलग दिखने का मौका होता है, और शक्ति का प्रयोग करने का मौका होता है। इसलिए, हालाँकि वे कहते हैं कि वे दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करेंगे और जब कोई मामला आएगा तो वे दूसरों के साथ मिलकर उस पर चर्चा करेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि, अपने दिल की गहराई में, वे अपनी शक्ति या हैसियत छोड़ने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है कि अगर उन्हें सिद्धांतों की समझ है और वे स्वयं उस काम को करने में सक्षम हैं, तो उन्हें किसी और के साथ सहयोग करने की आवश्यकता नहीं है; वे सोचते हैं कि उन्हें उस काम को अकेले ही करना और पूरा करना चाहिए, तभी वे काबिल कहलाएँगे। क्या यह नजरिया सही है? उन्हें पता नहीं होता कि अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, तो वे अपने कर्तव्य नहीं कर रहे हैं, वे परमेश्वर के आदेश का कार्यान्वयन नहीं कर पा रहे हैं और वे मात्र मेहनत कर रहे हैं। अपना कर्तव्य करते समय सत्य सिद्धांतों की खोज करने के बजाय, वे अपने विचारों और इरादों के अनुसार सत्ता का उपयोग करते हैं, दिखावा और आडंबर करते हैं। उनका साथी कोई भी हो या वे कुछ भी कर रहे हों, वे कभी चीजों पर चर्चा नहीं करना चाहते, हमेशा मनमर्जी करना और अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। जाहिर है वे सत्ता से खेल रहे होते हैं और हर काम को करने के लिए सत्ता का उपयोग करते हैं। सभी मसीह-विरोधी सत्ता से प्यार करते हैं और जब उनके पास रुतबा होता है, तो वे और भी अधिक सत्ता चाहते हैं। जब मसीह-विरोधियों के पास सत्ता होती है, तब उनकी अपनी हैसियत का उपयोग अपना दिखावा करने और आडंबर करने, ताकि दूसरों से अपना आदर करवा सकें और भीड़ से अलग दिखने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। इस तरह मसीह-विरोधी सत्ता और रुतबे को खास महत्व देते हैं और अपनी सत्ता को कभी नहीं छोड़ेंगे। वे जो भी कर्तव्य कर रहे होते हैं, चाहे वह पेशेवर ज्ञान के किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हुआ हो, यह स्पष्ट होने पर भी कि वे नहीं जानते, वे उसके बारे में जानने का दिखावा करेंगे। और यदि कोई उन पर न समझने और केवल दिखावा करने का आरोप लगाए तो वे कहेंगे, “भले ही मैं इस बारे में अभी पढ़ना शुरू करूँ, मैं इसे तुमसे बेहतर समझ लूँगा। यह सिर्फ ऑनलाइन जा कर संसाधन सामग्रियों पर गौर करने की बात है, है कि नहीं?” मसीह-विरोधी इतने अधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे हर चीज को एक सरल मामले के रूप में देखते हैं और दूसरों से परामर्श किए बिना अकेले सारा काम करने की हिम्मत करते हैं। और परिणामस्वरूप जब ऊपरवाला काम की जाँच करता है और पूछता है कि काम कैसा हो रहा है, तो वे कहते हैं कि इसका लगभग ध्यान रखा गया है। तथ्य यह है कि वे किसी के भी साथ विचार-विमर्श किए बिना अकेले काम कर रहे हैं—तमाम फैसले खुद ही लेते रहे हैं। यदि तुम उनसे पूछो, “तुम्हारे कार्य के क्या कोई सिद्धांत हैं?” तो वे यह साबित करने के लिए सिद्धांतों का पूरा गट्ठर पेश कर देंगे कि वे जो कर रहे हैं वह सही है और सिद्धांतों के अनुरूप है। वास्तविकता में, उनकी सोच विकृत और गलत होती है। उन्होंने चीजों के बारे में दूसरों से बिल्कुल विचार-विमर्श नहीं किया होता, बल्कि हमेशा अंतिम निर्णय खुद लिया है, खुद फैसले किए हैं। एक अकेले व्यक्ति द्वारा लिए गए फैसलों में अधिकांश समय भटकाव अवश्यंभावी है, तो फिर खुद को सही और सटीक समझने का यह कैसा स्वभाव है? यह स्पष्ट रूप से अहंकार का स्वभाव है। उनका स्वभाव अहंकारी है, इसीलिए वे तानाशाह प्रवृत्ति के हैं—इसीलिए बेरोकटोक खराब चीजें करते रहते हैं। यह निरंकुशता है—एकाधिकार। मसीह-विरोधियों का यही स्वभाव होता है। वे कभी किसी व्यक्ति के साथ सहयोग करने को तैयार नहीं होते, बल्कि इसे निरर्थक और गैर-जरूरी मानते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कोई भी दूसरा व्यक्ति उनकी बराबरी नहीं कर सकता है। इसीलिए दिल से मसीह-विरोधियों के मन में दूसरों के साथ सहयोग करने की कोई कामना या इच्छा नहीं होती है। वे अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं; वे एकाधिकार चाहते हैं। केवल तभी उन्हें आनंद महसूस होता है—केवल तभी वे अपनी श्रेष्ठता दर्शा सकते हैं, दूसरों को अपने प्रति आज्ञाकारी बना सकते हैं, उन्हें अपने प्रति आराधनापूर्ण बना सकते हैं।
इसका एक और हिस्सा है, जो यह है कि मसीह-विरोधी हमेशा परम सत्ता की कामना करते हैं, ताकि उनकी ही बात एकल और निर्णायक हो। उनके स्वभाव का यह पहलू उन्हें दूसरों से सहयोग करने में सक्षम भी नहीं रहने देता। यदि तुम उनसे पूछो कि क्या वे सहयोग करने को तैयार हैं, तो वे हाँ कहते हैं, लेकिन जब करने का समय आता है, तो वे नहीं कर पाते। यह उनका स्वभाव है। वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते? मान लो कि यदि कोई मसीह-विरोधी सहायक टीम अगुआ हो और कोई दूसरा व्यक्ति टीम अगुआ, तो मसीह-विरोधी के प्रकृति सार वाला वह व्यक्ति सहायक टीम अगुआ से टीम अगुआ बन जाएगा और फिर टीम अगुआ उसका सहायक बन जाएगा। वह अदला-बदली कर लेगा। वह यह कैसे हासिल करेगा? उसके पास अनेक तकनीकें होती हैं। उसकी तकनीकों का एक अंश यह होता है कि वह उन मौकों का उपयोग करता है जब वह भाई-बहनों के सामने क्रियाकलाप कर रहा होता है—वे मौके जब ज्यादातर सभी लोग उसे देख सकें—बहुत बोलने, कार्य करने और अपना दिखावा करने के लिए, ताकि लोग उसका सम्मान करें और स्वीकार करें कि वह टीम अगुआ से कहीं बेहतर है और वह टीम अगुआ से आगे निकल चुका है। फिर समय बीतने के साथ भाई-बहन आ कर कहते हैं कि टीम अगुआ तो सहायक टीम अगुआ जितना अच्छा नहीं है। मसीह-विरोधी यह सुन कर आनंदित होता है; वह सोचता है, “आखिरकार, वे मानते हैं कि मैं टीम अगुआ से बेहतर हूँ। मैंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है।” सामान्य परिस्थितियों में वे कौन-सी जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जो किसी सहायक टीम अगुआ को पूरे करने चाहिए? ये हैं कलीसिया द्वारा व्यवस्थित कार्य को कार्यान्वित करने और लागू करने में टीम अगुआ के साथ सहयोग करना और टीम अगुआ तक मामले उठाना और उसे प्रोत्साहित कर उसकी निगरानी करना—और उसके साथ विचार-विमर्श कर साथ-साथ कार्य करना। टीम अगुआ को प्रमुख अगुआई की भूमिका निभानी चाहिए; सहायक टीम अगुआ को उसका साथ देना चाहिए और यह सुनिश्चित करने में उसके साथ सहयोग करना चाहिए कि प्रत्येक कार्य परियोजना का अच्छी तरह से ध्यान रखा जा रहा है। चीजों को नुकसान न पहुँचाने के अलावा सभी चीजें टीम अगुआ के सहयोग से की जानी चाहिए, ताकि जो काम किया जाना है वह अच्छे ढंग से किया जाए। यदि टीम अगुआ के कार्यकलापों से सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, तो सहायक टीम अगुआ को उसके सामने यह बात उठानी चाहिए, उसकी मदद करनी चाहिए और गलती सुधारनी चाहिए। और टीम अगुआ जो कुछ भी सही और अच्छे ढंग से करता है, और जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, उसमें सहायक टीम अगुआ को उसका समर्थन और हाथ बँटाना चाहिए, और इस उद्देश्य की पूर्ति में जी-तोड़ प्रयास करना चाहिए, और कार्य अच्छे ढंग से करने में एक दिल और एक मन से टीम अगुआ के साथ होना चाहिए। यदि कोई समस्या आती है या कोई समस्या दिखाई पड़ती है तो दोनों को इसके समाधान के लिए विचार-विमर्श करना होगा। कभी-कभी एक साथ दो चीजें करनी पड़ती हैं; जब दोनों ने उस पर बात कर ली हो, तो उन दोनों में से प्रत्येक को अलग-अलग अपना कार्य अच्छी तरह सँभालना चाहिए। यही सहयोग है—सामंजस्यपूर्ण सहयोग। क्या मसीह-विरोधी दूसरों के साथ इसी तरह सहयोग करते हैं? बिल्कुल नहीं। यदि कोई मसीह-विरोधी सहायक टीम अगुआ के तौर पर सेवारत हो तो वह यह पता लगाने में लग जाएगा कि उसे टीम अगुआ के साथ पदों की अदला-बदली करने के लिए क्या करना होगा, टीम अगुआ को सहायक और सहायक को टीम अगुआ बनाने और इस तरह प्रभार सँभालने के लिए क्या करना होगा। वह टीम अगुआ को अमुक-अमुक काम करने का आदेश देता है, और इस तरह सबको दिखाता है कि वह टीम अगुआ से बेहतर है और वह टीम अगुआ बनने योग्य है। इस प्रकार दूसरों के बीच उसकी इज्जत बढ़ जाती है, और फिर वह स्वाभाविक रूप से टीम अगुआ के तौर पर चुन लिया जाता है। वह जान-बूझ कर टीम अगुआ को मूर्ख दिखाता है कि उसकी नाक कट जाए, ऐसे कि दूसरे उसे नीची नजरों से देखें। फिर वह अपनी बातों से टीम अगुआ का मखौल उड़ाता है, उसका उपहास करता है और उसे उजागर करता है और नीचा दिखाता है। धीरे-धीरे, दोनों के बीच असमानता बढ़ती जाती है और लोगों के दिलों में उनका स्थान ज्यादा-से-ज्यादा भिन्न होता जाता है। इस तरह से अंत में मसीह-विरोधी टीम अगुआ बन जाता है—वह लोगों को जीत कर अपनी ओर कर चुका होता है। अपने ऐसे स्वभाव के साथ क्या फिर वह दूसरों के साथ सामंजस्य के साथ सहयोग कर सकेगा? नहीं। वह चाहे किसी भी जगह पर हो, वह स्वयं प्रमुख रहना चाहता है, एकाधिकार चाहता है, ताकत अपने ही हाथों में रखना चाहता है। तुम्हारा पदनाम चाहे प्रमुख हो या सहायक हो, छोटा हो या बड़ा हो, उसकी दृष्टि में रुतबा और सत्ता, देर-सवेर उसकी ही होनी चाहिए। उसके साथ कर्तव्य करने वाला या कोई कार्य परियोजना करने वाला, या उसके साथ किसी मसले पर वाद-विवाद करने वाला चाहे जो भी हो, वह अपने ही ढंग से कार्य करने वाला एकाकी बना रहता है। वह किसी के भी साथ सहयोग नहीं करता। किसी को भी अनुमति नहीं होती कि वह उस जैसी इज्जत पाए या पद पर रहे, या उसे वही क्षमता या प्रतिष्ठा मिले। जैसे ही कोई उससे आगे निकल कर उसके रुतबे के लिए खतरा बनता है, वह स्थिति को किसी भी उपलब्ध साधन से पलटने की कोशिश करेगा। उदाहरण के लिए सभी लोग किसी मामले पर चर्चा कर रहे होते हैं, और जब विचार-विमर्श का कोई निष्कर्ष निकलने को होता है, तो वह इसे एक ही नजर में समझ लेगा और जान लेगा कि क्या करना है। वह कहेगा, “क्या इसे सँभालना सचमुच इतना मुश्किल है? क्या इसके लिए अभी भी इतनी चर्चा की जरूरत है? तुम लोगों की किसी भी बात में दम नहीं है!” और फिर वह कोई अनोखा सिद्धांत या कोई आडंबरी विचार पेश कर देगा जिसके बारे में किसी ने भी नहीं सोचा था, और आखिरकार सभी के विचारों को काट देगा। एक बार उसके ऐसा करने से लोग सोच में पड़ जाएँगे, “ये तो ऊँचे लोग हैं, सही है; उस बारे में हमने क्यों नहीं सोचा? हम लोग अज्ञानी भीड़ हैं। यह ठीक नहीं है—हम चाहते हैं कि आप ही सब कुछ सँभालें!” मसीह-विरोधी को यही परिणाम चाहिए; वह हमेशा बड़ी-बड़ी आडंबरी बातें करता है, ताकि वह अद्वितीय व्यक्ति बन सके और दूसरों का सम्मान जीत ले। और फिर लोगों के मन में उसकी कौन-सी छाप पड़ती है? यह कि उसके विचार साधारण लोगों की पहुँच से ऊपर हैं, साधारण लोगों के विचारों से अधिक उन्नत हैं। कितने उन्नत? यदि वह वहाँ न हो, तो समूह कोई निर्णय नहीं कर सकता, किसी चीज को अंतिम रूप नहीं दे सकता, इसलिए उसके आने और कुछ कहने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। एक बार उसके ऐसा करने पर सब उसकी सराहना करते हैं और अगर उसकी बात भ्रामक हुई, तो भी सब लोग कहते हैं कि यह उन्नत है। ऐसी बातों से क्या वह लोगों को गुमराह नहीं कर रहा है? तो वह किसी के साथ सहयोग क्यों नहीं कर सकता? उसे लगता है, “लोगों के साथ सहयोग करने का मतलब खुद को उनके स्तर पर रखना है। क्या एक ही जंगल में दो शेर रह सकते हैं? जंगल का एक ही राजा हो सकता है, और वह राज्य उसी का होता है जो उस पर कब्जा रख सकता है—और मुझ जैसा काबिल इंसान ही यह कर सकता है। तुम सब लोग इतने प्रखर बुद्धि के नहीं हो; तुम्हारी काबिलियत कमजोर है, और तुम डरपोक हो। और ऊपर से तुमने दुनिया में लोगों को धोखा नहीं दिया है या उन्हें मूर्ख नहीं बनाया है—बस दूसरों ने तुम्हें मूर्ख बनाया है। एकमात्र मैं ही यहाँ अगुआ बनने के योग्य हूँ!” इस तरह से उसके लिए बुरी चीजें भी अच्छी बन जाती हैं। वह अपनी इन बुरी चीजों का दिखावा करता है—क्या यह बेशर्मी नहीं है? वह ये चीजें क्यों कहता है? और फिर उसके इस तरह से कार्य करने का क्या प्रयोजन है? यह अगुआ बनने के लिए है, लोगों का समूह चाहे जितना बड़ा क्यों न हो, उसमें सबसे ऊँचा स्थान लेने के लिए है। क्या उसका इरादा यह नहीं है? (हाँ, है।) तो वह सभी को नीचा दिखाने, बेइज्जत करने, उनका मखौल उड़ाने और फिर बड़ी-बड़ी आडंबरी बातें करने, सभी को विश्वास दिलाने और सबसे अपना कहा करवाने के तमाम तरीके सोचता है। क्या यह सहयोग है? नहीं—तो यह क्या है? यह आठवें मद से मेल खाता है, जिस पर हम बात कर रहे हैं : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। यह सहयोग को लेकर कहा गया है। मसीह-विरोधी अपनी भाषा या अपने क्रियाकलापों में चाहे जो कर रहे हों, क्या वे दूसरों से सहयोग कर अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? (नहीं।) वे सहयोग नहीं करते, बल्कि बस यह माँग करते हैं कि दूसरे उनके कथनों और क्रियाकलापों का पालन करें। तो फिर क्या वे दूसरों से परामर्श ले सकते हैं? बिल्कुल नहीं। दूसरे उन्हें चाहे जो भी परामर्श दें, वे उसके प्रति बिल्कुल बेरुखी दिखाते हैं। वे विवरण या कारण नहीं पूछते, और न ही यह पूछते हैं कि चीजों को सचमुच कैसे सँभाला जाए, सत्य सिद्धांतों को खोजना तो बड़ी दूर की बात है। इससे भी बदतर जब मैं उनके सामने होता हूँ तो वे मुझसे भी नहीं पूछते—वे मुझे हवा की तरह समझते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या उन्हें कोई समस्या है, तो वे कहते हैं, नहीं है। साफ तौर पर वे नहीं जानते कि जो चीज अभी-अभी घटी है उसको लेकर क्या करें, फिर भी वे मुझसे नहीं पूछते, हालाँकि मैं उनके सामने ही होता हूँ। फिर क्या वे किसी भी दूसरे के साथ सहयोग कर सकते हैं? कोई भी उनका साझेदार बनने योग्य नहीं होता है, बस उनका गुलाम और नौकर होता है। क्या ऐसा नहीं है? उनमें से कुछ लोगों के साझेदार हो सकते हैं, लेकिन दरअसल उनके वे साझेदार उनके नौकर होते हैं, बहुत हद तक कठपुतलियों जैसे। वह कहता है, “इधर जाओ,” और उसका साझेदार इधर जाता है; “उधर जाओ,” और उसका साझेदार उधर जाता है; उसके साझेदार को पता है कि वह उसे क्या जानने देना चाहता है, और जो वह नहीं जानने देना चाहता, उसे वह पूछने की हिम्मत भी नहीं करता है। चीजें वैसी ही होती हैं जैसी वह कहता है। कोई उससे कह सकता है, “इससे काम नहीं चलेगा। कुछ ऐसी चीजें हैं जिनके तुम अकेले प्रभारी नहीं हो सकते। तुम्हें सहयोग करने के लिए किसी को ढूँढ़ना होगा, ऐसा जो तुम्हारी निगरानी करे। इसके अलावा पहले तुमने कुछ काम ज्यादा अच्छे ढंग से नहीं सँभाला था। तुम्हें किसी काबिलियत वाले व्यक्ति को ढूँढ़ना होगा, जिसमें काम करने, तुम्हारे साथ सहयोग करने और तुम्हारी मदद करने की क्षमता हो—तुम्हें कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों की सुरक्षा करनी चाहिए!” जवाब में वह क्या कहेगा? “अगर तुम मेरे साझेदार को बर्खास्त करते हो तो दूसरा कोई भी उपयुक्त नहीं है जो मेरे साथ सहयोग कर सके।” वह यह क्या कह रहा है? क्या ऐसा है कि उसका कोई साझेदार नहीं होगा, या उसे वैसा नौकर या गुलाम नहीं मिलेगा? उसे डर है कि उसे ऐसा गुलाम या नौकर, ऐसा “साझेदार” नहीं मिल पाएगा जो केवल उसकी बात सुने। तुम लोगों के अनुसार उसकी इस चुनौती का समाधान कैसे किया जाए? तुम कह सकते हो, “अच्छा, तुम्हें कोई साझेदार नहीं मिल रहा है? तो फिर तुम्हें इस परियोजना पर काम करने की कोई जरूरत नहीं है—जिसके साथ कोई साझेदार होगा वह कर सकता है।” क्या समस्या इस तरह नहीं सुलझ जाती? अगर कोई भी तुम्हारे साथ सहयोग करने लायक न हो, और कोई भी तुम्हारे साथ सहयोग न कर सके, तो फिर तुम कैसे व्यक्ति हो? तुम एक दैत्य हो, एक अजूबा हो। जिन लोगों में सचमुच समझ होती है, वे कम-से-कम औसत व्यक्ति के साथ सहयोग करने में सक्षम होते हैं, जब तक कि उसकी काबिलियत बहुत ही कम न हो। उससे काम नहीं चलेगा। समझदार लोगों को सबसे पहले यह करना चाहिए कि वे अपना कर्तव्य निभाने में दूसरों के साथ सहयोग करना सीखें। उन्हें किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम होना चाहिए, जब तक कि वह व्यक्ति कमजोर दिमाग का या दानव न हो, उस स्थिति में उसके साथ सहयोग करने का कोई तरीका नहीं होगा। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि अधिकतर लोगों के साथ सहयोग करने में सक्षम होना—यह एक सामान्य समझ की निशानी है।
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