मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक) खंड एक

परिशिष्ट : धर्मोपदेशों का प्रतिलेखन करते समय उत्पन्न होने वाली समस्याओं का गहन-विश्लेषण

मैंने कुछ लोगों को यह कहते सुना कि प्रतिलेखकों ने पिछले कुछ धर्मोपदेशों के शुरुआती हिस्से से कहानियाँ हटा दीं और केवल उनके बाद के धर्मोपदेशों की औपचारिक सामग्री को रहने दिया। क्या वास्तव में ऐसा है? वे कौन-सी कहानियाँ हैं जो उनके आगे के धर्मोपदेशों से अलग की गईं? (दाबाओ और शाओबाओ की कहानी, दामिंग और शाओमिंग की कहानी, और पूंजी पर एक चर्चा : “मुझे क्या!”) इन तीन कहानियों को धर्मोपदेशों की सामग्री से अलग किया गया था, लेकिन क्यों? इसका क्या कारण था? जाहिर है कि प्रतिलेखकों को लगा कि इन कहानियों का धर्मोपदेशों की सामग्री के साथ मेल नहीं है, इसलिए उन्होंने उन्हें अलग कर दिया। क्या यह उचित था? प्रतिलेखकों ने यही किया था। वे बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट थे, उन्होंने कहानियों को निकालकर धर्मोपदेशों की सामग्री के बिना अलग-अलग अध्यायों में डाल दिया था। तुम लोग क्या कहोगे कि ऐसा करने का परिणाम अच्छा था या बुरा? इसके अलावा, क्या तुम लोग कहोगे कि पहले सुनाई गई कहानी का मेल और तारतम्य उसके बाद के धर्मोपदेश से होना चाहिए? क्या वास्तव में ऐसा होना आवश्यक है? (नहीं।) तो फिर, धर्मोपदेश का प्रतिलेखन करने वालों ने काम को इस तरह से गलत क्यों समझा? वे ऐसा विश्वास कैसे कर सके? यहाँ समस्या क्या है? उन्होंने सोचा : “तुमने जो कहानियाँ सुनाईं, वे विषय से हटकर हैं। मैं तुम्हारे लिए उन्हें परखूँगा और उनका वितरण करते समय मैं उन्हें एक साथ नहीं रखूँगा। धर्मोपदेश तो धर्मोपदेश होते हैं; उन्हें एक दूसरे से सुसंगत होना चाहिए। उनके पहले की कहानियों का धर्मोपदेशों की सामग्री में दखल नहीं होना चाहिए। तुम्हारे लिए मुझे उन्हें परखना पड़ता है क्योंकि तुम स्वयं इस मुद्दे को नहीं समझते।” क्या यह अच्छा इरादा है? उनमें यह अच्छा इरादा कहाँ से आता है? क्या यह मानवीय धारणाओं से आता है? (हाँ।) धर्मोपदेश देते हुए क्या मुझे हर बात पर इतने व्यापक तरीके से विचार करने की आवश्यकता है? क्या मेरी सुनाई प्रत्येक कहानी को उसके बाद की सामग्री से मेल खाना चाहिए? (नहीं।) इसकी कोई जरूरत नहीं है; इसे एक तरह का विनियम, एक धारणा कहा जाता है। प्रतिलेखकों ने क्या गलतियाँ कीं? (अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर काम करना।) और क्या? (असावधानी और मनमाने ढंग से काम करना।) इस तरह के व्यवहार की प्रकृति यह है कि इसमें थोड़ी असावधानी और मनमानापन होता है; उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। ऐसा कहना उचित है, लेकिन यह अभी भी मामले के सार से अलग बात है। धर्मोपदेश का प्रतिलेखन करते समय उन्होंने परमेश्वर द्वारा कही गई हर बात को देखने का कैसा रवैया और दृष्टिकोण अपनाया? वे कहानियाँ रही हों या धर्मोपदेश, उन्होंने किस तरह के रवैये के साथ और कही गई इन बातों को उन्होंने किस कोण से देखा और सुना? (ज्ञान और सीखने के कोण से।) ठीक है। सुनाई गई कहानियों और उपदेशों की सामग्री को ज्ञान के दृष्टिकोण से देखने से यह समस्या पैदा होगी। उनका मानना है कि मैं जब भी कोई धर्मोपदेश दूँ, तो मैं चाहे जिस खंड पर बोलना चाहूँ, उसमें कथ्य को एक निश्चित क्रम का पालन करना चाहिए; हर वाक्य तार्किक होना चाहिए, हर वाक्य सभी की धारणाओं के अनुरूप होना चाहिए, और हर खंड का एक दृढ़ उद्देश्य होना चाहिए। वे मेरे धर्मोपदेशों को इस धारणा से नापते हैं। क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी को दर्शाता है? (हाँ।) यह वास्तव में आध्यात्मिक समझ की कमी है! मैंने जो कुछ कहा उसे ज्ञान के दृष्टिकोण से समझने के लिए तर्क और तार्किक अनुमान का उपयोग करना एक गंभीर गलती है। मैं सत्य की संगति कर रहा हूँ, भाषण नहीं गढ़ रहा हूँ; तुम लोगों को यह स्पष्ट होना चाहिए। तुम लोगों में से जिन्होंने सभा में उपदेश सुने और बाद में उन लोगों द्वारा प्रतिलिखित धर्मोपदेश को फिर से सुना, तो क्या तुमने किसी ऐसी महत्वपूर्ण बात या चीज पर ध्यान दिया जो मूल उपदेश में बोली गई थी लेकिन जिसे प्रतिलेखकों ने हटा दिया था? क्या ऐसा कुछ हुआ था? उदाहरण के लिए, हो सकता है कि तुमने सभा में कोई ऐसा अंश सुना हो जो बहुत ही मार्मिक और शिक्षाप्रद रहा हो, लेकिन बाद में जब तुमने उपदेश की रिकॉर्डिंग सुनी तो पाया कि वह अंश उसमें था ही नहीं; उसे हटा दिया गया था। क्या तुम्हारे साथ ऐसा हुआ है? यदि तुम लोगों ने ध्यान से नहीं सुना होगा, तो तुम्हें शायद इसका एहसास न हुआ हो, इसलिए भविष्य में ध्यान से सुनना सुनिश्चित करो। मैंने एक बार एक रिकॉर्डिंग सुनी और जहाँ मैंने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर चर्चा बस शुरू ही की थी, उन्हें एक से पंद्रह तक सूचीबद्ध किया था, प्रतिलेखकों ने उनमें से हरेक के विस्तृत स्पष्टीकरण और व्याख्याएँ हटा दी थीं और उनके स्थान पर केवल पहली अभिव्यक्ति, दूसरी अभिव्यक्ति, तीसरी अभिव्यक्ति, आदि को सूचीबद्ध कर दिया था। रिकॉर्डिंग में प्रत्येक अभिव्यक्ति के बारे में बहुत तेजी से एक के बाद एक बात की गई थी, जो किसी स्कूल शिक्षक द्वारा कक्षा में पढ़ाए जाने से भी ज्यादा जल्दी कही गई थी। ज्यादातर लोग जिन्होंने पहले उस धर्मोपदेश को नहीं सुना था और उससे परिचित नहीं थे, उन्हें इसे सुनते हुए चिंतन करने का मौका नहीं मिला होगा। अगर वे ध्यान से सुनना चाहेंगे, तो उन्हें हमेशा रोक-रोक कर सुनना पड़ेगा, एक वाक्य को सुन कर उसे जल्दी से लिख लेना होगा, फिर उस वाक्य के मतलब पर विचार करने के बाद अगला वाक्य सुनना होगा। अन्यथा, कथन की गति बहुत तेज होगी और वे तालमेल नहीं रख पाएँगे। यह धर्मोपदेश की रिकॉर्डिंग का संपादन करने वालों की गंभीर गलती थी। कोई भी धर्मोपदेश एक बातचीत जैसा होता है, चर्चा होता है। धर्मोपदेशों का कथ्य क्या होता है? उनमें विभिन्न सत्यों और लोगों की विभिन्न स्थितियों पर चर्चा होती है; उन सभी में सत्य शामिल होता है। तो, क्या लोगों के लिए सत्य से जुड़ी इन विषय-वस्तुओं को स्वीकार करना और समझना आसान है, या उन्हें धीरे-धीरे प्रतिक्रिया देने से पहले विचार, मंथन और मानसिक प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है? (उन्हें विचार, मंथन और मानसिक प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है।) इस स्थिति के आधार पर देखें, तो धर्मोपदेश देने वाले को कैसी गति रखनी चाहिए? यदि वे मशीन गन की तरह तेजी से बोलें, तो क्या यह कारगर होगा? (नहीं।) जैसे कोई शिक्षक पढ़ा रहा हो? (नहीं।) जैसे कोई भाषण दे रहा हो? (नहीं।) यह बिल्कुल नहीं चलेगा। धर्मोपदेश के दौरान प्रश्न और उत्तर होने चाहिए, चिंतन के लिए जगह होनी चाहिए, लोगों को प्रतिक्रिया देने का समय दिया जाना चाहिए—यही गति उपयुक्त है। उन्होंने इस सिद्धांत को समझे बिना धर्मोपदेशों का प्रतिलेखन किया; क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी दर्शाता है? (हाँ।) उनमें वास्तव में आध्यात्मिक समझ की कमी है। उन्होंने सोचा : “तुम जिन चीजों के बारे में बात कर रहे हो, मैं उन्हें पहले ही सुन चुका हूँ। एक बार सुनकर मुझे विषय-वस्तु की सामान्य समझ हो जाती है और मुझे पता है कि तुम किस बारे में बात कर रहे हो। अपने अनुभव और धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग को बहुत बार संपादित करने से प्राप्त उत्कृष्ट कौशल का उपयोग करते हुए मैं इसे इस तरह से संपादित करूँगा और इसकी गति बढ़ा दूँगा।” गति बढ़ाना अपने आप में कोई बड़ी समस्या नहीं लगती—लेकिन धर्मोपदेश के प्रतिलेखन पर इसका क्या असर पड़ता है? वह धर्मोपदेश को एक निबंध में बदल देता है। जब यह निबंध में बदल जाता है, तो इसमें से व्यक्तिगत रूप से सुनने का भाव समाप्त हो जाता है; क्या यह तब भी उतना ही प्रभावी हो सकता है? इसमें अंतर होना निश्चित है। यह अंतर इसे बेहतर बनाता है या बदतर? (बदतर।) यह इसे बदतर बनाता है। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे अपनी मर्जी से काम करते हैं और खुद को चतुर समझते हैं। वे मानते हैं कि वे शिक्षित, कुशल, प्रतिभाशाली और बुद्धिमान हैं, लेकिन वे अंततः अनुचित चीजें करते हैं। क्या यह ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) अपने धर्मोपदेशों में मैं कभी-कभी तुम लोगों से प्रश्न क्यों पूछता हूँ? कुछ लोग कहते हैं कि “शायद तुम डरते हो कि हम सो जाएँगे।” क्या यही बात है? मैं कभी-कभी दूसरे मामलों के बारे में बात क्यों करता हूँ, विषय से हटकर हल्की-फुल्की और खुशनुमा बातें क्यों करता हूँ? यह इसलिए है कि तुम लोग थोड़ा सहज हो सको, तुम लोगों को चिंतन करने की थोड़ी जगह दे सकूँ। ऐसा करना तुम लोगों को सत्य के एक निश्चित पहलू की व्यापक समझ रखने की भी संभावना पैदा करता है, ताकि तुम अपनी समझ को शब्दों, शाब्दिक अर्थों, सिद्धांतों या व्याकरणिक संरचना तक सीमित न रखो—यह इन तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसीलिए मैं कभी-कभी अन्य चीजों के बारे में बात करता हूँ; कभी-कभी माहौल को हल्का करने के लिए चुटकुले सुनाता हूँ, लेकिन वास्तव में मैं ऐसा मुख्य रूप से एक निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लिए करता हूँ—तुम्हें यह समझना चाहिए।

देखो, जब कोई धार्मिक पादरी धर्मोपदेश देता है तो वह मंच पर खड़ा होकर केवल उन उबाऊ विषयों पर बात करता है जिनका लोगों के वास्तविक जीवन, उनकी मानसिक स्थितियों या उनकी मौजूदा समस्याओं से जरा भी लेना-देना नहीं होता। वे सब मृत शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। वे अच्छे लगने वाले थोड़े से शब्दों के अलावा कुछ नहीं कहते और थोड़े से खोखले नारे लगाते हैं। इससे श्रोता ऊब जाते हैं और उन्हें इससे कुछ हासिल नहीं होता। अंत में, यह ऐसी स्थिति में परिणत होता है जिसमें पादरी ऊपर से बोल रहा होता है और नीचे कोई ध्यान नहीं दे रहा होता; कोई संवाद ही नहीं होता। क्या पादरी निरर्थक श्रम नहीं कर रहा है? पादरी केवल अपनी आजीविका चलाने के लिए, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इस तरह से धर्मोपदेश देते हैं; वे संगत की जरूरतों पर विचार नहीं करते। जहाँ तक अब हमारा सवाल है, हमारा धर्मोपदेश देना कोई धार्मिक समारोह करने या किसी तरह का काम पूरा करने के लिए नहीं है—यह कई परिणाम पाने से संबंधित है। परिणाम पाने के लिए सभी पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए—सभी प्रकार के लोगों की जरूरतों, उनकी धारणाओं, कल्पनाओं और दशाओं और उनके दृष्टिकोणों, सभी पर विचार किया जाना चाहिए। इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि विभिन्न सामाजिक वर्गों के लोग धर्मोपदेश में इस्तेमाल की गई भाषा को किस हद तक स्वीकार कर सकते हैं। कुछ शिक्षित लोग जिन्हें औपचारिक भाषा ज्यादा पसंद है, वे थोड़े साहित्यिक शब्द सुनना चाहते हैं जो अपेक्षाकृत व्याकरण-सम्मत और तार्किक हों। वे उन्हें समझने में सक्षम होते हैं। समाज के निचले तबके के कुछ साधारण लोग भी होते हैं जो ऐसी औपचारिक भाषा से परिचित नहीं हैं; तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे थोड़ी स्थानीय भाषा में बात करनी होगी। पहले, मैं ज्यादा स्थानीय भाषा का इस्तेमाल नहीं करता था, लेकिन पिछले कुछ सालों में मैंने इसे थोड़ा-बहुत सीख लिया है, और अब मैं कभी-कभी दो-हिस्सों वाली कहावतें भी बोल देता हूँ या कभी चुटकुले सुना देता हूँ। इस तरह सुनने के बाद हर किसी को महसूस होगा कि मैं जो भी बात करता हूँ उसे समझना आसान है, चाहे उनका सामाजिक वर्ग कोई भी हो, यह उनसे ज्यादा निकटता से जुड़ी हुई है। लेकिन अगर यह सब स्थानीय बोली में होता, तो धर्मोपदेश की विषय-वस्तु इतनी गहन नहीं लगती, इसलिए इसमें कुछ औपचारिक भाषा का उपयोग होना चाहिए जिसे दैनिक जीवन की भाषा में व्यक्त किया गया हो; तभी न्यूनतम मानक पूरा होगा। एक बार जब स्थानीय भाषा का उपयोग शुरू हो जाता है तो “बस कह रहा हूँ,” “जैसे,” “मेरा मतलब है,” इत्यादि बहुत-सी अभिव्यक्तियों को शामिल करने के कारण सत्य के व्यक्त करने की सीमा प्रभावित हो सकती है। यद्यपि, अगर पूरी भाषा ही औपचारिक होती तो प्रत्येक चरण में व्याकरणिक तर्क और कार्य-कारण तर्कों का पालन करते हुए, कोई छोटी-सी भी गलती किए बिना, सब कुछ इतना व्यवस्थित और औपचारिक रूप से बोला जाता मानो किसी निबंध या किसी कक्षा का कोई पाठ पढ़ा जा रहा हो, जैसे यह सब शुरू से अंत तक शब्द दर शब्द, यहाँ तक कि विराम चिह्न तक पहले से लिख रखा हो, क्या तुम लोगों को लगता है कि वह काम करता? वह बहुत परेशानी भरा होता, और मेरे पास ऐसा करने की ऊर्जा नहीं है। यह एक पहलू है। यह भी कि सुनने वाले चाहे शिक्षित हों या अशिक्षित, प्रत्येक अपनी मानवता के विभिन्न पक्षों को दर्शाता है, और मानवता की ये अभिव्यक्तियाँ वास्तविक जीवन से जुड़ी होती हैं। दूसरी ओर वास्तविक जीवन, दैनिक जीवन की भाषा से अलग नहीं है; यह तुम्हारे जीवन के वातावरण से अलग नहीं है। जीवन का यह वातावरण ऐसी दैनंदिन भाषा से भरा है, जिसमें कुछ स्थानीय भाषा के साथ ही कुछ साहित्यिक स्वरूप वाली सरल शब्दावली भी होती है। यह पर्याप्त है; मूल रूप से यह चिंता के समूचे दायरे को समेटता और शामिल कर लेता है। चाहे वे बूढ़े हों या युवा, अशिक्षित हों या थोड़ा ज्ञानी, हर कोई इसे अनिवार्य रूप से समझ सकता है, अर्थ ग्रहण कर सकता है; इससे वे ऊब महसूस नहीं करेंगे, और उन्हें नहीं लगेगा कि यह भाषा उनकी समझ से परे है। लोगों की जरूरतों के सभी पहलुओं पर विचार करते हुए, संगति करते हुए और धर्मोपदेश देते समय इसी बात का ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि किसी धर्मोपदेश से परिणाम प्राप्त करना है, तो तुम्हें इन सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए : बोलने की गति, शब्दों का चयन और अभिव्यक्ति का तरीका। इसके अलावा, तुम जब कोई बात बोल रहे हो और सत्य के किसी पहलू पर संगति कर रहे हो, तो उसे किस बिंदु पर पूरी तरह से सम्प्रेषित किया गया है? किस बिंदु पर उसमें पर्याप्त विस्तार नहीं है? किन पहलुओं को जोड़ा जाना चाहिए? इन सभी पर विचार किया जाना चाहिए। यदि तुम इन पहलुओं पर विचार भी नहीं करते, तो तुम्हारी सोचने की क्षमता में बहुत कमी है। जहाँ दूसरे लोग दो आयामों में कल्पना करते हैं, वहाँ तुम्हें तीन आयामों में सोचने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हें दूसरों की तुलना में अधिक व्यापक और अधिक सटीक रूप से देखना चाहिए, सभी तरह के मुद्दों को साफ-साफ देखने में सक्षम होना चाहिए, और इसमें शामिल सत्य सिद्धांतों को भी महसूस करना चाहिए। इस तरह भ्रष्ट स्वभाव के जिन सभी पहलुओं के बारे में लोग सोच सकते हैं, व्यक्त कर सकते हैं या प्रकट कर सकते हैं, साथ ही उनमें शामिल दशाएँ, सभी मूल रूप से इसके अंदर आ जाती हैं और सभी लोगों द्वारा समझी जा सकती हैं। क्या प्रतिलेखकों में भी ये काबिलियतें और सोचने के तरीके होने चाहिए? यदि उनके पास ये नहीं होंगी, इसके बजाय वे हमेशा धर्मोपदेश के मुख्य बिंदु, उसके केंद्रीय विचार, प्रत्येक खंड के सार को संक्षेप में प्रस्तुत करने के बारे में सीखे हुए ज्ञान पर भरोसा करेंगे, तो यह वैसा होगा जैसे चीनी छात्र साहित्यिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। शिक्षक पहले उन्हें पूरे पाठ का पूर्वावलोकन करवाता है, फिर उसे ध्यान से पढ़ने को कहता है। पहले औपचारिक पाठ में शिक्षक पहले परिच्छेद के सार के बारे में बात करता है, नई शब्दावली का परिचय देता है, और उसमें शामिल व्याकरण पर चर्चा करता है। जब सभी खंडों का अध्ययन कर लिया जाता है, तब भी तुम्हें उनको याद रखना होता है, और अंत में नई शब्दावली के साथ वाक्य बनाना होता है, और पाठ के केंद्रीय विचार एवं इसे लिखने के पीछे लेखक के मंतव्य को समझना होता है। इस तरह, तुम पूरी तरह समझ जाओगे कि पाठ क्या बताने की कोशिश कर रहा था। सभी ने इन चीजों का अध्ययन किया है, सभी उन्हें जानते हैं, लेकिन अगर तुम इन चीजों को किसी धर्मोपदेश के प्रतिलेखन में लागू करते हो, तो यह बहुत प्राथमिक स्तर की बात होती है। मैं बता रहा हूँ कि अगर तुम कोई निबंध लिख रहे हो, तो इनका उपयोग कर सकते हो; यह लिखने का बुनियादी सामान्य ज्ञान भर होता है। लेकिन अगर तुम इस सोच, इस सिद्धांत, इस पद्धति को किसी धर्मोपदेश के प्रतिलेखन में लागू करते हो, तो क्या तुम गलत नहीं हो सकते? तुम निश्चित रूप से गलत हो सकते हो। तुम नहीं जानते कि मैं यह कहानी क्यों बताना चाहता हूँ, इस कहानी से जो सत्य तुम्हें समझना चाहिए, तुम उसे समझने की कोशिश नहीं करते—यह एक गलती है। यह भी कि क्या तुम कहानी और धर्मोपदेश की सामग्री दोनों में सत्य को समझने में सक्षम हो? अगर तुम इसे नहीं समझ सकते, तो तुम में आध्यात्मिक समझ नहीं है। आध्यात्मिक समझ न रखने वाले किस्म के व्यक्ति में धर्मोपदेशों का प्रतिलेखन करने की संभवतया कौन-सी योग्यताएँ हो सकती हैं?

तुम सभी लोगों को क्यों लगता है कि मैं कहानियाँ सुनाता हूँ? धर्मोपदेश प्रतिलेखक इसका कारण नहीं जानते, इसलिए वे अपने दृष्टिकोण जोड़ देते हैं। उनका मानना है कि अगर मैं कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ तो यह बाद में आने वाली विषय-वस्तु के साथ मेल खाना चाहिए—वे नहीं जानते कि मैं कहानियाँ क्यों सुनाता हूँ। तुम लोग भी नहीं जानते, है न? चूँकि तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम लोगों को इसका कारण बताता हूँ। शुरुआत से लेकर अब तक मैंने लगभग दस बार मसीह-विरोधी लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर चर्चा की है, और मैंने उनमें से केवल आधे पर ही बात की है। अगर मैं इस विषय-वस्तु पर एक बार में ही पूरी बात कह दूँ, तो विषय काफी नीरस हो जाएगा, है न? अगर मैं हर बार बोलना शुरू करने पर सीधे-सीधे बात करता—सबसे पहले सभी से पिछली बार की चर्चा की समीक्षा करने को कहता, और तब बोलना शुरू करता, तुम सभी लोग जल्दी-जल्दी नोट्स लेते, लिखते और लिखते हुए अपनी पलकें खुली रखने के लिए संघर्ष करते—और अगर मैं अपनी बात समाप्त होने के बाद सभी से सारांश बनवाता, और हर कोई अपनी आंखें मलते हुए अपने लिखे पन्ने पलटता और आज की संगति का कथ्य सुनाता, फिर जब मुझे लगता कि सभी ने इसे मोटे तौर पर याद कर लिया है, तो मैं कहता, “आज के लिए इतना बहुत है, अब इसे बंद करते हैं और अगली बार इसके बारे में बात करना जारी रखेंगे,” तो हर कोई थोड़ा परेशान हो जाता : “हर सभा हमेशा इन्हीं चीजों के बारे में होती है, यही एक विन्यास होता है; कथ्य बहुत लंबा और नीरस होता है।” इसके अलावा, सत्य की संगति बहुआयामी होनी चाहिए जिसमें लोग सत्य के सभी पक्षों पर एक साथ प्रगति कर सकें। यह ठीक मनुष्य के जीवन प्रवेश करने जैसा ही है : व्यक्ति को आत्म-ज्ञान, स्वभावगत परिवर्तन, परमेश्वर के ज्ञान, अपनी विभिन्न अवस्थाओं के बारे में जागरूकता, तथा अपनी मानवता, अंतर्दृष्टि, तथा अन्य सभी पहलुओं के संदर्भ में विकसित होना चाहिए—इन सभी में एक साथ प्रगति होनी चाहिए। इस दौरान यदि मैं केवल मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का भेद पहचानने पर चर्चा करूँ, तो संभव है कि लोग सत्य के अन्य पहलुओं को एक तरफ रखकर दिन भर सोचते रहें कि “कौन मसीह-विरोधी लगता है? क्या मैं मसीह-विरोधी हूँ? मेरे आसपास ऐसे कितने लोग हैं?” ऐसा करने से सत्य के अन्य पक्षों में उनके प्रवेश पर प्रभाव पड़ेगा। इसलिए, मैं इस बारे में सोचता हूँ कि धर्मोपदेश की विषय-वस्तु में एक और सत्य को कैसे शामिल किया जा सकता है, ताकि लोग एक अतिरिक्त सत्य को समझ सकें; यानी “मसीह-विरोधियों को उजागर करना” विषय पर चर्चा करते समय लोग संयोगवश कुछ अन्य पहलुओं को भी समझने में सक्षम हो सकें। ऐसे धर्मोपदेश का परिणाम बेहतर होता है, है न? (हाँ।) उदाहरण के लिए, भोजन करते हुए कभी-कभी उसके साथ एक सेब भी खा लेना। इससे अतिरिक्त पोषण मिलता है, है न? (हाँ।) तो फिर, मुझे बताओ कि क्या मेरे लिए कहानियाँ सुनाना जरूरी है? (हाँ।) यह तो पक्का है। अगर यह जरूरी नहीं होता, तो मैं उन्हें क्यों सुनाता? कुछ हल्के-फुल्के और खुशनुमा विषयों पर चर्चा करने के लिए कहानियों का इस्तेमाल करने से लोगों को सत्य के दूसरे पहलुओं में कुछ हासिल करने और पाने का मौका मिलता है। यह अच्छी बात है। इन हल्के-फुल्के विषयों पर चर्चा करने के बाद मैं मुख्य विषय पर लौट आता हूँ। इसे इस तरह व्यवस्थित करना उचित है। मुख्य भोजन से पहले तुम क्या खाते हो? (क्षुधावर्धक।) यह एक क्षुधावर्धक है। क्षुधावर्धक आमतौर पर बहुत स्वादिष्ट होते हैं और भूख बढ़ाते हैं, है न? इसलिए, जब मैं कोई कहानी सुनाता हूँ, तो तुम उस कहानी से सत्य का कोई एक पक्ष हासिल कर सकते हो, अपने ज्ञान या समझ को गहरा कर सकते हो। यह सब अच्छा है। अलबत्ता, जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे कहानियाँ सुनते हैं और केवल ऊपरी परत ही सुन पाते हैं, वे अंदर का वह सत्य नहीं देख पाते जिसे समझा जाना चाहिए। उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है—इसके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, “दाबाओ और शाओबाओ की कहानी” सुनते हुए कुछ लोगों को केवल यह याद रहता है कि दाबाओ बुरा था और शाओबाओ मूर्ख था। उन्हें दाबाओ और शाओबाओ नाम याद रहते हैं, लेकिन यह याद नहीं रहता कि कहानी में उस आदमी ने किन परिस्थितियों में भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा किया, किस तरह के स्वभाव का खुलासा हुआ, यह स्वभाव क्या होता है, या इसका सत्य से क्या संबंध है। तुम खुद किन परिस्थितियों में इस तरह का स्वभाव प्रकट करोगे? क्या तुम ऐसे शब्द बोलोगे? अगर तुम कहते हो कि, “मैं ऐसे शब्द नहीं बोलूँगा,” तो यह परेशानी वाली बात है, क्योंकि इससे साबित होता है कि तुमने सत्य को नहीं समझा है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं कुछ खास परिस्थितियों का सामना करते समय ऐसे शब्द बोल सकता हूँ, यह ऐसा स्वभाव है जो एक निश्चित दशा में सामने आता है।” एक बार जब तुम यह जान लोगे, तो इस कहानी को सुनना व्यर्थ नहीं जाएगा। कहानी सुनने के बाद कुछ लोग कहते हैं : “दाबाओ किस तरह का व्यक्ति है? वह छोटे बच्चे को भी धमकाता और धोखा देता है। वह नीच है! मैं बच्चों को इस तरह धोखा नहीं दूँगा।” क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी नहीं है? वे केवल मामले के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन संगति की जा रही कहानी में शामिल सत्य को नहीं समझते। वे हालात से खुद को नहीं जोड़ पाते; यह आध्यात्मिक समझ की कमी, आध्यात्मिक समझ की गंभीर कमी को दिखाता है। धर्मोपदेशों के प्रतिलेखकों को इस समस्या का सामना करना पड़ता है। जैसे ही कोई चीज सत्य से जुड़ी होती है, कुछ लोग छद्म-विश्वासी के विचार प्रकट करते हैं; जैसे ही सत्य शामिल होता है, कुछ लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी हो जाती है; जैसे ही सत्य शामिल होता है, कुछ लोग विकृतियों की ओर उन्मुख हो जाते हैं, कुछ अड़ियल हो जाते हैं, कुछ दुष्ट हो जाते हैं, और कुछ इसके प्रति विमुख हो जाते हैं। तो धर्मोपदेश प्रतिलेखकों का स्वभाव कैसा होता है? कम से कम वे अभिमानी और दंभी होते हैं, अपनी मर्जी से काम करते हैं, समझते नहीं हैं और न ही समझने की कोशिश करते हैं। उन लोगों ने इसके बारे में पूछा भी नहीं; उन्होंने सीधे कहानियों को उसके बाद की सामग्री से अलग कर दिया। वे सोचते हैं, “ये धर्मोपदेश मुझे प्रतिलेखन के लिए दिए गए थे, इसलिए मुझे यह निर्णय लेने का अधिकार है। अपनी कुल्हाड़ी के एक वार से मैं कहानियों को पूरी तरह से काट डालूँगा। मैं तुम्हारे दिए धर्मोपदेशों के साथ बिल्कुल यही व्यवहार करूँगा। अगर तुम्हें यह पसंद नहीं है, तो इस काम के लिए मेरा उपयोग न करो।” क्या यह अहंकार और दंभ नहीं है? वे सत्य को ग्रहण नहीं कर सकते, वे सत्य को नहीं समझते। वे नहीं जानते कि उनका कर्तव्य क्या है या उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए—वे इनमें से कुछ भी नहीं जानते। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे केवल अनुचित, अमानवीय चीजें ही कर सकते हैं जिनसे उनमें सत्यनिष्ठा का अभाव परिलक्षित होता है। वे केवल सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले काम करते हैं, खुद को चतुर समझते हैं और उनमें समर्पण की कमी होती है। मेरे धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग उन्हें प्रतिलेखन के लिए दी गई थी, और इस पर काम करने के बारे में उनके जो भी विचार या धारणाएँ रही हों उनके बारे में उन्होंने मुझसे नहीं पूछा। क्या यह समस्या बहुत गंभीर नहीं है? (हाँ, है।) किस हद तक गंभीर है? (इसकी प्रकृति परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने की है।) इसमें कुछ हद तक यही प्रकृति है।

मैं एक कहानी सुनाता हूँ, जिसमें सत्य के एक खास पहलू पर चर्चा की जाती है, और फिर उसके बाद मैं अन्य पहलुओं पर धर्मोपदेश देता हूँ। क्या मैं इन दोनों बातों के आपस में मेल खाने की बात पर विचार करता हूँ? मुझे पहले इस पर विचार करना चाहिए, लेकिन मैंने इस बात पर जोर क्यों नहीं दिया कि इन दोनों पहलुओं का एक दूसरे से मेल होना चाहिए? क्या मैं इस बारे में सजग हूँ? (हाँ।) तो, यह धर्मोपदेश प्रतिलेखकों के लिए समस्या क्यों बन गई है? मुझे पता है कि मैं जो कहानी सुना रहा हूँ उसका उसके बाद दिए जाने वाले धर्मोपदेश से कोई संबंध नहीं है। क्या उन्हें इस बारे में जानकारी है? वे नहीं जानते। उन्होंने इस मामले पर ध्यानपूर्वक विचार तक नहीं किया है। वे सोचते हैं, “तुम पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित हो; जब तक यह सत्य जैसा लगता है, तब तक यह ठीक है। उस दिन तुमने एक कहानी सुनाई, और फिर उसके बाद विशिष्ट विषय पर चर्चा की। इन दोनों बातों के बीच क्या संबंध है? इस तरह से क्यों बात करें? बोलने के बाद इससे क्या लाभ हो सकता है? तुम इनमें से कुछ भी नहीं जानते। यह नहीं चलेगा!” सबसे पहले, मुझे किस बारे में बोलना है, मैं कैसे बोलता हूँ, और मैं किस विशिष्ट विषय को संबोधित करता हूँ—मुझे बताओ कि क्या मैं इन बिंदुओं पर निर्णय लेते समय स्पष्ट सोच रखता हूँ? (हाँ।) मैं वास्तव में स्पष्ट सोच रखता हूँ, मैं निश्चित रूप से भ्रमित अवस्था में नहीं हूँ; मेरे मन में विचारों की एक स्पष्ट धारा है। यदि किसी में आध्यात्मिक समझ की कमी है, वह नहीं जानता कि सत्य की खोज कैसे की जाए और यह सोचते हुए कि यह काफी अच्छी बात है, वह आँख मूँदकर विश्लेषण और आँख मूँदकर चीजों का वर्गीकरण करता है, तो क्या वह ठीक-ठीक एक फरीसी नहीं है? उन्हें केवल भव्य खोखले सिद्धांत सुनना पसंद होता है, वे तथ्यात्मक व्यावहारिक धर्मोपदेश सुनना पसंद नहीं करते। इसका परिणाम यह होता है कि वे उथले से उथले सत्य को भी नहीं समझते। यह आध्यात्मिक समझ की गंभीर कमी को दर्शाता है! परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के बिना लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट होंगे, विशेष रूप से दुस्साहसी बनेंगे; और यह सोचते हुए कि वे सब कुछ समझते हैं, वे किसी भी मामले में फैसला लेने का दुस्साहस करेंगे। भ्रष्ट मानव जाति बिल्कुल ऐसी ही है; यही उसका स्वभाव है। क्या निर्भीक होना और बेपरवाही से काम करना अच्छी बात है या बुरी बात? (बुरी बात है।) साहसी या डरपोक होना वास्तव में मायने नहीं रखता; जो मायने रखता है वह यह है कि किसी के दिल में परमेश्वर का कोई भय है या नहीं। बाद में, जब तुम लोग धर्मोपदेश की रिकॉर्डिंग सुनो, तो भेद पहचानने का खयाल रखो कि कहीं प्रतिलेखन में कोई महत्वपूर्ण बातें हटा तो नहीं दी गई हैं। बिना आध्यात्मिक समझ वाले ये नीच कभी-कभी अनजाने में जो कुछ करते हैं, उससे गड़बड़ी और नुकसान हो सकता है। वे कहते हैं कि यह जानबूझकर नहीं किया गया है—अगर यह जानबूझकर नहीं किया गया है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है? यह फिर भी भ्रष्ट स्वभाव है। इस विषय पर फिलहाल इतना ही।

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