मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं (खंड चार)

IV. पदोन्नत न किए जाने पर मसीह-विरोधियों का व्यवहार

एक और प्रकार के लोग भी होते हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। चूँकि इस प्रकार के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, इसलिए वे महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं निभाते और परिणामस्वरूप वे शायद ही कभी परमेश्वर के घर में काट-छाँट का अनुभव करते हैं, उन्होंने कभी भी अपने कर्तव्यों से बर्खास्त किए जाने का अनुभव नहीं किया है और जाहिर है कि मुश्किल से ही कभी उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया जाता है। लेकिन जब कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उन्हें पदोन्नति नहीं मिलती, तो वे अक्सर यह आकलन करना शुरू कर देते हैं कि उन्हें आशीष मिलने की उम्मीद कितनी है। खासकर जब वे परमेश्वर के इन वचनों को देखते हैं, “जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते,” तो उन्हें लगता है कि उनके आशीष मिलने की उम्मीद बहुत कम है, और वे पीछे हटने के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। इनमें से कुछ लोग जो कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनके पास कुछ ज्ञान और खूबियाँ होती हैं, और चूँकि उन्हें पदोन्नत नहीं किया गया है, वे असंतुष्ट महसूस कर शिकायत करना शुरू कर देते हैं; वे पीछे हटना चाहते हैं लेकिन उन्हें डर होता है कि वे आशीष पाने का मौका खो देंगे, लेकिन अगर वे पीछे नहीं हटते हैं, तो भी उन्हें पदोन्नति नहीं मिलेगी—वे खुद को दो पाटों के बीच फँसा हुआ महसूस करते हैं। इस मामले में तुम लोग क्या सोचते हो? हालाँकि ये लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, लेकिन उनमें से कुछ अपेक्षाकृत अध्ययनशील और प्रेरित होते हैं; चाहे वे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे हमेशा प्रासंगिक पेशेवर ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार रहते हैं, वे हमेशा परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत होना चाहते हैं, और वे उस दिन का इंतजार करते हैं जब वे खुद को अलग पहचान दे सकें और इस तरह अपना मनचाहा रुतबा और विभिन्न लाभ प्राप्त कर सकें। इस तरह के लोग जब दूसरों के इर्द-गिर्द होते हैं तो ऊपरी तौर पर शांत, मामूली और मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ दिखाई देते हैं, फिर भी उनके दिल महत्वाकांक्षा और इच्छा से भरे होते हैं। उनका आदर्श वाक्य क्या होता है? अवसर उन्हीं को मिलता है जो तैयार रहते हैं। ऊपर से वे पूरी तरह से मामूली बने रहते हैं और खुद का दिखावा नहीं करते, वे चीजों को लेकर प्रतिस्पर्धा या छीनाझपटी नहीं करते, फिर भी उनके दिल में एक “महान आकांक्षा” होती है। इसलिए जब वे किसी को पदोन्नत होते और कलीसिया में अगुआ या कार्यकर्ता बनते देखते हैं, तो वे थोड़ा अधिक विचलित और निराश महसूस करते हैं। भले ही वह कोई भी हो जिसे पदोन्नत किया जाता है, विकसित किया जाता है, या कोई महत्वपूर्ण भूमिका दी जाती है, उनके लिए यह हमेशा एक झटके की तरह होता है। यहाँ तक कि जब किसी को उच्च सम्मान दिया जाता है, उसकी प्रशंसा की जाती है और भाई-बहन उसका समर्थन करते हैं, तब भी वे अपने दिल में ईर्ष्या और दुख महसूस करते हैं और उनमें से कुछ तो अकेले में आँसू भी बहाते हैं, अक्सर खुद से पूछते हैं, “मुझे कब उच्च सम्मान मिलेगा और मैं नामांकित किया जाऊँगा? मुझे ऊपरवाला कब जानेगा? कोई अगुआ कब मेरी खूबियों, मेरी योग्यताओं, मेरे गुणों और प्रतिभाओं को देखेगा? मुझे कब पदोन्नत और विकसित किया जाएगा?” वे व्यथित और नकारात्मक महसूस करते हैं, लेकिन वे इसी तरह नहीं चलते रहना चाहते, इसलिए वे नकारात्मक न होने, दृढ़ बने रहने की इच्छाशक्ति रखने, असफलताओं से न घबराने और कभी हार न मानने के लिए खुद को चुपचाप प्रोत्साहित करते रहते हैं। वे अक्सर खुद को चेतावनी देते हैं : “मैं महान आकांक्षा वाला व्यक्ति हूँ। मुझे साधारण, नियमित व्यक्ति बनने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए, मुझे एक व्यस्त, औसत दर्जे के जीवन से संतुष्ट होने को तैयार नहीं होना चाहिए। परमेश्वर में मेरी आस्था उत्कृष्ट होनी चाहिए और इससे महान उपलब्धियाँ हासिल होनी चाहिए। अगर मैं इसी तरह का शांत और औसत जीवन जीता रहूँ, तो यह तो बहुत कायरतापूर्ण और दमघोंटू है! मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं हो सकता। मैं दोगुनी मेहनत करूँगा, हर पल का सदुपयोग करूँगा, परमेश्वर के वचन और अधिक पढ़ूँगा और सुनूँगा, ज्ञान प्राप्त करूँगा और इस पेशे का और अधिक अध्ययन करूँगा। मुझे वह सब हासिल करना चाहिए जो दूसरे लोग कर सकते हैं, और मुझे उन चीजों पर संगति करने में सक्षम होना चाहिए जिन पर दूसरे लोग संगति कर सकते हैं।” कुछ समय तक कड़ी मेहनत करने के बाद कलीसिया का चुनाव आता है लेकिन उन्हें फिर भी नहीं चुना जाता। हर बार जब भी कलीसिया किसी को विकसित करने, पदोन्नत करने और महत्वपूर्ण भूमिका देने के लिए खोज रही होती है तो उन्हें नहीं चुना जाता; हर बार जब उन्हें लगता है कि उन्हें पदोन्नति मिलने की उम्मीद है तो वे अंततः निराश हो जाते हैं और हर निराशा उन्हें उदास और नकारात्मक महसूस कराती है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर में उनकी आस्था में आशीष मिलना उनसे बहुत दूर है, इसलिए उनके मन में पीछे हटने का विचार आता है। लेकिन वे पीछे हटने के इच्छुक नहीं होते, बल्कि एक बार फिर से कड़ी मेहनत और संघर्ष करना चाहते हैं। जितना अधिक वे इस तरह से कड़ी मेहनत और संघर्ष करते हैं, उतनी ही अधिक उन्हें किसी की सिफारिश की लालसा होती है, पदोन्नति की लालसा होती है। उनकी यह लालसा बढ़ती जाती है और अंत में उन्हें इसके बदले अब भी निराशा ही हाथ लगती है, और इसी तरह उनका घमंड और आशीष पाने की इच्छा उन्हें सताती है। हर निराशा उन्हें आग में जलने और तपने जैसा महसूस कराती है। जो वे चाहते हैं वह उन्हें नहीं मिल पाता; वे पीछे हटना चाहते हैं लेकिन उन्हें लगता है कि वे पीछे हट नहीं सकते; वे जो हासिल करना चाहते हैं, उसे हासिल नहीं कर पाते और उनके पास केवल निराशा, अवसाद और अंतहीन प्रतीक्षा ही बचती है। वे पीछे हटना चाहते हैं लेकिन उन्हें महान आशीष खोने का डर होता है और जितना अधिक वे आशीष पाने की बेताबी से कोशिश करते हैं, उतना ही कम उनके हाथ लग पाता है। नतीजतन वे ऐसी दशा में आ जाते हैं जहाँ वे आशीष पाने की अपनी आशा और निराशा की पीड़ा के बीच लगातार संघर्ष करते रहते हैं और इससे उनके दिल को बड़ी पीड़ा होती है। लेकिन क्या वे इस मामले के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे? नहीं, वे नहीं करेंगे। वे सोचते हैं : “प्रार्थना करने से क्या फायदा होगा? भाई-बहन मेरी प्रशंसा नहीं करते और अगुआ मेरे बारे में उच्च विचार नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर अपवाद मानकर मुझे कोई महत्वपूर्ण भूमिका दे सकता है?” वे जानते हैं कि अपनी आशाएँ दूसरों पर टिकाने से उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी और यह भी कि आशीष पाने की अपनी आशाएँ परमेश्वर पर टिकाना सुरक्षित नहीं है। क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के ये वचन देखे हैं कि “जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते,” इसलिए वे हताश और निराश महसूस करने लगते हैं। कलीसिया में कोई भी उन पर ध्यान नहीं देता और उन्हें कोई आशा नजर नहीं आती। जब वे अपने चेहरों पर नजर डालते हैं, तो भी उन्हें आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती और वे सोचने लगते हैं, “क्या मुझे पीछे हट जाना चाहिए या यहीं रहना चाहिए? क्या मुझे वास्तव में आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं है?” इस तरह झिझकते हुए और इन बातों पर बार-बार विचार करते हुए कई साल बीत जाते हैं और फिर भी उन्हें पदोन्नति नहीं मिल पाती या उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद नहीं मिल पाता। वे रुतबा पाने के लिए होड़ करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि ऐसा करना बहुत तर्कसंगत या उचित बात नहीं है, उन्हें ऐसा करने में शर्मिंदगी महसूस होती है, लेकिन अगर वे रुतबा पाने के लिए होड़ नहीं करेंगे, तो उन्हें कब पदोन्नति और कोई महत्वपूर्ण भूमिका मिलेगी? वे उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो उनके साथ-साथ परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो सभाओं में जाते हैं और उनके साथ मिलकर कर्तव्य निभाते हैं। उनमें से बहुतों को पदोन्नत किया जा चुका है और महत्वपूर्ण भूमिकाएँ दी गई हैं, जबकि वे खुद चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं मिल पाती और वे भ्रमित महसूस करते हैं और आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं खोज पाते। वे कभी भी अपने विचारों, अपनी दशाओं, अपनी सोच और दृष्टिकोणों, अपने विचलनों और कमियों के बारे में किसी से संगति नहीं करते या किसी से खुलकर बात नहीं करते—वे खुद को पूरी तरह अलग-थलग कर देते हैं। वे काफी समझदारी से बोलते हुए दिखाई देते हैं और कुछ हद तक तार्किक ढंग से कार्य करते हुए दिखाई देते हैं, फिर भी उनकी आंतरिक महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बहुत तीव्र होती हैं। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत और संघर्ष करते हैं, कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं, और वे आशीष पाने की अपनी आशाओं के लिए सब कुछ खपा सकते हैं। लेकिन जब वे मनचाहा नतीजा नहीं देख पाते हैं, तो वे परमेश्वर, परमेश्वर के घर और यहाँ तक कि कलीसिया में हर व्यक्ति के प्रति शत्रुता और क्रोध से भर जाते हैं। वे सभी से इसलिए घृणा करते हैं क्योंकि वे नहीं देखते कि वे कितनी कड़ी मेहनत करते हैं, वे उनकी खूबियों और उनके अच्छे गुणों को नहीं देखते, और वे परमेश्वर से भी घृणा करते हैं, क्योंकि उसने उन्हें अवसर नहीं दिए, उन्हें पदोन्नत नहीं किया या उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं दी। अपने दिलों में इतनी जबरदस्त ईर्ष्या और नफरत पैदा होने के कारण क्या वे अपने भाई-बहनों से प्रेम कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर की स्तुति कर सकते हैं? क्या वे सत्य को स्वीकार करने, जमीन पर मजबूती से पैर जमाकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और एक साधारण व्यक्ति बनने के लिए अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ त्याग सकते हैं? क्या वे इस तरह का संकल्प ले सकते हैं? (नहीं।) न केवल उनके पास यह संकल्प नहीं होता, बल्कि उनमें पश्चात्ताप करने की इच्छा भी नहीं होती। इतने सालों तक खुद को इसी तरह छिपाए रखकर परमेश्वर के घर, भाई-बहनों और यहाँ तक कि परमेश्वर के प्रति उनकी नफरत और भी बढ़ जाती है। उनकी नफरत कितनी बढ़ जाती है? वे उम्मीद करते हैं कि उनके भाई-बहन अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाएँगे, उन्हें उम्मीद होती है कि परमेश्वर के घर का कार्य थम जाएगा और परमेश्वर की प्रबंधन योजना बेकार हो जाएगी और उन्हें यहाँ तक उम्मीद होती है कि उनके भाई-बहन बड़े लाल अजगर की गिरफ्त में आ जाएँगे। वे अपने भाई-बहनों से नफरत करते हैं और वे परमेश्वर से भी नफरत करते हैं। उन्हें यह शिकायत होती है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, उद्धारकर्ता की कमी के लिए वे दुनिया को कोसते हैं और उनका राक्षसी चेहरा पूरी तरह से उजागर हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति आमतौर पर गहरे छिपे हुए होते हैं और वे ऊपर से दिखावा करने में बहुत अच्छे होते हैं, वे विनम्र, सौम्य और प्रेमपूर्ण होने का दिखावा करते हैं, जबकि वास्तव में वे भेड़ की खाल में भेड़िये होते हैं। वे कभी भी अपने गुप्त दुर्भावनापूर्ण इरादे प्रकट नहीं करते, कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता और कोई भी नहीं जानता कि वे वास्तव में कैसे हैं या वे क्या सोच रहे हैं। जो लोग कुछ समय के लिए उनके साथ जुड़ते हैं, वे देख लेते हैं कि वे बहुत ईर्ष्यालु लोग हैं, कि वे हमेशा दूसरों से प्रतिस्पर्धा कर खुद को सुर्खियों में लाने की कोशिश करते हैं, कि वे दूसरों से आगे निकलने को बहुत बेचैन रहते हैं और वे वास्तव में अपने हर काम में अव्वल आना चाहते हैं। बाहर से वे ऐसे ही दिखते हैं, लेकिन क्या वे वास्तव में ऐसे ही होते हैं? वास्तव में, आशीष पाने की उनकी इच्छा और भी प्रबल होती है; उन्हें उम्मीद होती है कि जब वे चुपचाप कड़ी मेहनत कर रहे होते हैं, खुद को खपा रहे होते हैं और कीमत चुका रहे होते हैं तो दूसरे लोग उनकी अच्छाइयों और उनकी कार्य क्षमताओं को देख पाएँ और इस प्रकार उन्हें परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण भूमिका दी जा सकती है। और उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका दिए जाने का नतीजा क्या होता है? यही कि वे प्रत्येक से अत्यधिक सम्मान पा सकते हैं और अंततः अपनी महान आकांक्षा साकार कर सकते हैं; वे दूसरों के बीच उत्कृष्ट व्यक्ति हो सकते हैं, ऐसे व्यक्ति जिन्हें हर कोई बहुत सम्मान देता है और आदर करता है, और उनका वर्षों कड़ी मेहनत करना, कीमत चुकाना और प्रयास करना लाभदायक रहेगा—ये वे महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं जो ये लोग अपने अंतरतम में रखते हैं।

इस प्रकार के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, फिर भी वे परमेश्वर के घर में हमेशा पदोन्नति और महत्वपूर्ण भूमिका पाना चाहते हैं। अपने दिलों में वे मानते हैं कि किसी व्यक्ति में जितनी अधिक कार्य क्षमता होती है, उसे उतने ही अधिक महत्वपूर्ण पद प्राप्त होते हैं, जितना अधिक उन्हें परमेश्वर के घर में पदोन्नति और सम्मान मिलता है, आशीष, मुकुट और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी संभावना उतनी ही अधिक हो जाती है। वे मानते हैं कि यदि किसी व्यक्ति में कार्य क्षमता नहीं है या उसके पास कोई खास विशेषता नहीं है, तो वह आशीष पाने के योग्य नहीं है। वे सोचते हैं कि किसी व्यक्ति की खूबियाँ, खास विशेषताएँ, योग्यताएँ, कौशल, शिक्षा का स्तर, कार्य क्षमता, और यहाँ तक कि उसकी मानवता के भीतर तथाकथित ताकत और गुण जो दुनिया में मूल्यवान होते हैं जैसे कि दूसरों से आगे निकलने का उसका संकल्प और अदम्य रवैया, आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने के लिए पूँजी के रूप में काम कर सकते हैं। यह किस प्रकार का मानक है? क्या यह ऐसा मानक है जो सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) यह सत्य के मानकों के अनुरूप नहीं है। तो, क्या यह शैतान का तर्क नहीं है? क्या यह दुष्ट युग और दुष्ट सांसारिक प्रवृत्तियों का तर्क नहीं है? (है।) इस तरह के लोगों द्वारा चीजों का मूल्यांकन करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तर्क, तरीकों और मानदंडों के साथ-साथ इन चीजों के प्रति उनके रवैये और निपटने के तरीके को देखें तो ऐसा लगेगा जैसे उन्होंने परमेश्वर के वचनों को कभी सुना या पढ़ा ही नहीं, कि वे उनके बारे में पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। लेकिन, वास्तव में वे हर दिन परमेश्वर के वचनों को सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं और इनका प्रार्थना-पाठ कर रहे हैं। तो उनका दृष्टिकोण कभी क्यों नहीं बदलता? एक बात तो तय है—चाहे वे परमेश्वर के वचनों को कितना भी सुन या पढ़ लें, वे अपने दिलों में कभी भी इस बारे में निश्चित नहीं होंगे कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और हर चीज को मापने का मानदंड हैं; वे दिल से इस तथ्य को नहीं समझेंगे या स्वीकार नहीं करेंगे। इसीलिए उनका दृष्टिकोण चाहे कितना भी बेतुका और विकृत क्यों न हो, वे हमेशा उससे चिपके रहेंगे और परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी सही क्यों न हों, वे इन्हें अस्वीकार कर इनकी निंदा करते रहेंगे। यह मसीह-विरोधियों की क्रूर प्रकृति होती है। जैसे ही वे कोई महत्वपूर्ण भूमिका पाने में विफल होते हैं और उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं हो पातीं, उनका शैतानी चरित्र प्रकट हो जाता है, उनकी क्रूर प्रकृति दिखने लगती है और वे परमेश्वर के अस्तित्व को नकारना चाहते हैं। वास्तव में, परमेश्वर के अस्तित्व को नकारने से पहले ही वे इस बात को नकार देते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य होते हैं। यह ठीक इसलिए है क्योंकि उनका प्रकृति सार सत्य को नकारता है, और इस बात को नकारता है कि परमेश्वर के वचन ही वे मानदंड हैं जिनके जरिए सब कुछ मापा जाता है, कि वे इस तरीके से परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होने में समर्थ होते हैं, परमेश्वर को नकारने, धोखा देने और अस्वीकार करने, और परमेश्वर के घर को छोड़ने के बारे में सोचते हैं, जब उन्हें उनकी सारी गणना, साजिश और कड़ी मेहनत के बाद भी किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं रखा जाता। भले ही वे सत्ता और लाभ के लिए अन्य लोगों के साथ लड़ते हुए या अपने तरीके से चलते हुए या खुले तौर पर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करते हुए या अपने रुतबे का प्रबंधन करते हुए नहीं दिखते, फिर भी हम उनके प्रकृति सार से देख सकते हैं कि वे पूरी तरह से मसीह-विरोधी हैं। उन्हें लगता है कि उनका हर अनुसरण सही है और परमेश्वर के वचन चाहे कुछ भी कहें, उनके लिए ये वचन उल्लेख करने लायक या सुनने लायक नहीं हैं, और ये निश्चित रूप से उपयोग करने लायक तो नहीं ही हैं। इस तरह के लोग किस तरह के प्राणी हैं? परमेश्वर के वचनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; वे उन्हें द्रवित नहीं करते, न ही वे उनके दिलों को छूते हैं या उन्हें आकर्षित करते हैं। तो वे किस चीज को अहमियत देते हैं? लोगों के गुण, प्रतिभाएँ, योग्यताएँ, ज्ञान और रणनीतियाँ, साथ ही उनकी महत्वाकांक्षाएँ और उनकी भव्य योजनाएँ और उपक्रम। ये वे चीजें हैं जिन्हें वे महत्व देते हैं। ये सारी चीजें क्या हैं? क्या ये वे चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर महत्व देता है? नहीं। ये वे चीजें हैं जिनका भ्रष्ट मनुष्य आदर और सम्मान करते हैं, और ये वे चीजें भी हैं जिनको शैतान सम्मान देता है और जिनकी आराधना करता है। वे परमेश्वर के मार्ग, उसके वचनों और उन लोगों से उसकी अपेक्षाओं के ठीक विपरीत चलते हैं जिन्हें वह बचाता है। लेकिन इस तरह के लोगों ने कभी नहीं सोचा कि ये चीजें शैतान की होती हैं, कि ये दुष्ट होती हैं और सत्य के विरुद्ध हैं। बल्कि वे इन सभी चीजों को सँजोकर रखते हैं, वे इनसे कसकर और दृढ़ता से चिपके रहते हैं, इन्हें बाकी सभी चीजों से ऊपर मानते हैं और सत्य का अनुसरण करने और उसे स्वीकार करने के स्थान पर इनका उपयोग करते हैं। क्या यह घोर विद्रोहीपन नहीं है? और अंत में उनके घोर विद्रोहीपन, उनके इतने अविवेकी होने का एकमात्र परिणाम क्या होगा? यही कि ये लोग उद्धार से परे हो जाएँगे और कोई भी उन्हें बदलने में सक्षम नहीं होगा। उनकी किस्मत में इस तरह का परिणाम बदा होता है। मुझे बताओ, क्या ये लोग वे नहीं हैं जो बस गुप्त रूप से अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं और सही अवसर का इंतजार कर रहे हैं? वे जिस सिद्धांत का पालन करते हैं वह यह है कि सच्चा सोना अंततः चमकता ही है, कि उन्हें गुप्त रूप से अपनी ताकत बढ़ाने, अपने समय का इंतजार करना और सही अवसर की प्रतीक्षा करना सीखना चाहिए और इस बीच तैयारियाँ करनी चाहिए और अपने भविष्य और अपनी इच्छाओं और सपनों के लिए योजना बनानी चाहिए। अगर हम इस आधार पर उनका आकलन करें कि वे किन सिद्धांतों का पालन करते हैं, उनके जीवित रहने के सिद्धांत क्या हैं, उनके अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य क्या हैं और वे अपने आंतरिक सार में किन चीजों के लिए लालायित रहते हैं तो ये लोग पूरी तरह से मसीह-विरोधी होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन क्या मसीह-विरोधी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित नहीं करते और रुतबे के लिए संघर्ष नहीं करते?” अच्छा, क्या इस तरह के लोग सत्ता प्राप्त करने के बाद स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सक्षम होते हैं? क्या वे लोगों को सताने में सक्षम हैं? (हाँ।) एक बार जब वे सत्ता पा जाते हैं तो क्या वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होंगे? क्या वे सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होंगे? क्या वे लोगों को परमेश्वर के सामने लाने में सक्षम होंगे? (नहीं।) यदि इस तरह के लोगों को कोई महत्वपूर्ण पद दे दिया गया तो क्या होगा? वे ऐसे लोगों को बढ़ावा देंगे जो गुणवान, मुखर और जानकार हैं, भले ही वे लोग काम कर सकें या नहीं; वे ऐसे लोगों को बढ़ावा देंगे जो उनके जैसे हैं, जबकि उन सभी सही लोगों को दबाएँगे जिनके पास आध्यात्मिक समझ है, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और ईमानदार हैं। जब ऐसी स्थिति आती है तो क्या इस तरह के लोगों का मसीह-विरोधी सार उजागर नहीं हो जाता है? क्या यह बहुत स्पष्ट नहीं हो जाता? जब मैंने पहले यह कहा था कि जो लोग महत्वपूर्ण भूमिका न मिलने और आशीष मिलने की कोई उम्मीद न होने पर पीछे हटना चाहते हैं वे सभी मसीह-विरोधी होते हैं तो कुछ लोग वास्तव में यह बात नहीं समझ पाए थे। लेकिन क्या तुम अब यह समझ सकते हो कि वे मसीह-विरोधी हैं? (हाँ।)

जब कुछ लोगों को अगुआ के रूप में उनके पद से बर्खास्त कर दिया जाता है और वे ऊपरवाले को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें फिर से विकसित या इस्तेमाल नहीं किया जाएगा तो वे अत्यंत दुखी हो जाते हैं और फूट-फूट कर रोते हैं, मानो उन्हें हटाया जा रहा हो—यह कैसी समस्या है? क्या उन्हें फिर से विकसित या उपयोग न किए जाने का यह मतलब है कि उन्हें हटाया जा रहा है? क्या इसका यह मतलब है कि वे तब उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते? क्या प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा उनके लिए वास्तव में इतने महत्वपूर्ण हैं? यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं तो उन्हें अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा खोने पर आत्म-चिंतन करना चाहिए और सच्चा पश्चात्ताप महसूस करना चाहिए; उन्हें सत्य का अनुसरण करने का मार्ग चुनना चाहिए, नई शुरुआत करनी चाहिए और इतना परेशान नहीं होना चाहिए या रोना-धोना नहीं चाहिए। यदि वे अपने दिलों में यह जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर ने इसलिए बर्खास्त किया है कि वे वास्तविक कार्य नहीं करते और सत्य का अनुसरण नहीं करते और वे परमेश्वर के घर को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें फिर से पदोन्नत या इस्तेमाल नहीं किया जाएगा तो फिर उन्हें शर्मिंदा महसूस करना चाहिए, कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं और उन्होंने परमेश्वर को निराश किया है; उन्हें पता होना चाहिए कि वे परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने योग्य नहीं हैं और इस तरह से उन्हें थोड़ा विवेकशील माना जा सकता है। लेकिन जब वे यह सुनते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें फिर से विकसित या इस्तेमाल नहीं करेगा तो वे निराश और परेशान हो जाते हैं, और यह दर्शाता है कि वे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भाग रहे हैं और वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हैं। आशीष के लिए उनकी इच्छा इतनी प्रबल है और वे रुतबे को इतना अधिक सँजोते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए और उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों पर आत्म-चिंतन कर इन्हें समझना चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि वे जिस मार्ग पर चल रहे हैं वह गलत है, कि वे रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागकर किसी मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हैं, कि न केवल परमेश्वर उन्हें स्वीकृति नहीं देगा, बल्कि वे उसके स्वभाव को भी नाराज करेंगे, और यदि वे तमाम तरह की बुराई करते हैं तो उन्हें परमेश्वर दंडित भी करेगा। क्या तुम लोगों के साथ भी यह समस्या नहीं है? यदि मैं अब यह कहूँ कि तुम्हारे पास कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है तो क्या तुम लोग दुखी नहीं होगे? (हाँ।) जब कुछ लोग किसी उच्च-स्तर के अगुआ को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है तो उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं, कि परमेश्वर यकीनन उन्हें नहीं चाहता है, कि उन्हें आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है; लेकिन दुखी महसूस करने के बावजूद वे सामान्य रूप से अपना कर्तव्य करने में सक्षम होते हैं—ऐसे लोगों के पास थोड़ी समझ होती है। जब कुछ लोग किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है, तो वे निराश हो जाते हैं और आगे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। वे सोचते हैं, “तुम कहते हो कि मुझे कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है—क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है? चूँकि मुझे भविष्य में कोई आशीष नहीं मिलेगा तो मैं अभी भी किस लिए विश्वास कर रहा हूँ? मैं सेवा करने के लिए मजबूर होना स्वीकार नहीं करूँगा। अगर बदले में कुछ नहीं मिलना है तो तुम्हारे लिए मेहनत कौन करेगा? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!” क्या ऐसे लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होता है? वे परमेश्वर के अनुग्रह का इतना आनंद लेते हैं और फिर भी वे इसका बदला चुकाना नहीं जानते और वे सेवा करना भी नहीं चाहते। ऐसे लोग खत्म हो जाते हैं। वे अंत तक सेवा भी नहीं कर पाते और उन्हें परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था नहीं होती है; वे छद्म-विश्वासी हैं। यदि उनके पास परमेश्वर के लिए एक ईमानदार दिल और परमेश्वर में सच्ची आस्था है, तो उनका मूल्यांकन चाहे कैसे भी किया जाए, यह उन्हें खुद को और अधिक सच्चे और सटीक रूप से जानने में सक्षम ही करेगा—उन्हें इस मामले को सही तरीके से देखना चाहिए और इसका असर परमेश्वर का अनुसरण करने या अपना कर्तव्य निभाने पर नहीं पड़ने देना चाहिए। अगर वे आशीष प्राप्त न भी कर पाएँ, तो भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के लिए सेवा करने को तैयार रहना चाहिए और बिना किसी शिकायत के ऐसा करने में खुश होना चाहिए और उन्हें खुद को परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के आयोजन की दया पर छोड़ देना चाहिए—केवल तभी वे अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति होंगे। किसी व्यक्ति को आशीष मिलता है या वह बदकिस्मती झेलता है, यह परमेश्वर के हाथ में है, परमेश्वर इस पर संप्रभु है और वही इसकी व्यवस्था करता है, और यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग माँग सकें या जिसे हासिल करने के लिए प्रयास कर सकें। बल्कि यह इस बात पर निर्भर है कि वह व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन कर सकता है या नहीं, सत्य को स्वीकार कर सकता है या नहीं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है या नहीं—परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। यदि किसी में इतनी-सी भी ईमानदारी है और जो कर्तव्य उन्हें करना चाहिए उसमें वह अपनी पूरी शक्ति जुटाकर लगा देता है तो यह पर्याप्त है, और वह परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष अर्जित करेगा। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य उस तरीके से नहीं करता जो मानक-स्तर का हो और हर प्रकार की बुराई भी करता है, फिर भी परमेश्वर से आशीष प्राप्त करना चाहता है तो क्या उसका इस तरह पेश आना समझ-बूझ की बेहद कमी नहीं है? यदि तुम्हें लगता है कि तुमने पर्याप्त रूप से अच्छा कार्य नहीं किया है, कि तुमने बहुत प्रयास किया है किंतु अभी भी तुम मामलों को सिद्धांतों के साथ नहीं सँभाल पाए हो और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर के ऋणी हो, फिर भी वह तुम्हें आशीष देता है और तुम पर अनुग्रह दिखाता है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर तुम पर कृपा कर रहा है? यदि परमेश्वर तुम्हें आशीष देना चाहता है, तो यह ऐसी चीज है जिसे कोई नहीं छीन सकता। तुम्हें यह लग सकता है कि तुमने बहुत अच्छा नहीं किया है लेकिन परमेश्वर का मूल्यांकन कहता है कि तुम ईमानदार हो और तुमने अपना सब कुछ दिया है और वह तुम पर अनुग्रह करना और तुम्हें आशीष देना चाहता है। परमेश्वर कुछ भी गलत नहीं करता और तुम्हें उसकी धार्मिकता की प्रशंसा करनी चाहिए। परमेश्वर चाहे जो कुछ करे, यह हमेशा सही होता है, और भले ही तुम यह मानकर परमेश्वर के कार्यों के बारे में धारणाएँ पाल लो कि उसका कार्य मानवीय भावनाओं के प्रति विचारशील नहीं होता है, कि यह तुम्हें पसंद नहीं है, फिर भी तुम्हें परमेश्वर की प्रशंसा करनी चाहिए। तुम्हें ऐसा क्यों करना चाहिए? तुम लोग इसका कारण नहीं जानते, है न? इसे समझाना वास्तव में बहुत आसान है : इसका कारण यह है कि परमेश्वर परमेश्वर है और तुम मनुष्य हो; वह सृष्टिकर्ता है, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम यह माँग करने के योग्य नहीं हो कि परमेश्वर एक निश्चित ढंग से कार्य करे या वह तुम्हारे साथ एक निश्चित ढंग से व्यवहार करे, जबकि परमेश्वर तुमसे माँग करने के योग्य है। आशीष, अनुग्रह, पुरस्कार, मुकुट—ये सभी चीजें कैसे और किसे दी जाती हैं, यह परमेश्वर पर निर्भर करता है। यह परमेश्वर पर क्यों निर्भर करता है? ये चीजें परमेश्वर की हैं; ये मनुष्य और परमेश्वर के साझे स्वामित्व वाली ऐसी संपत्तियाँ नहीं हैं कि इन्हें उनमें समान रूप से बाँटा जा सके। ये परमेश्वर की हैं और परमेश्वर जिन लोगों को इन्हें देने का वादा करता है, उन्हें ही ये चीजें देता है। यदि परमेश्वर ये चीजें तुम्हें देने का वादा नहीं करता तो भी तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यदि तुम इस कारण परमेश्वर पर विश्वास करना बंद कर देते हो तो इससे कौन-सी समस्याएँ हल होंगी? क्या तुम एक सृजित प्राणी होना बंद कर दोगे? क्या तुम परमेश्वर की संप्रभुता से बच सकते हो? परमेश्वर अभी भी सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है और यह एक अपरिवर्तनीय तथ्य है। परमेश्वर की पहचान, स्थिति और सार को कभी भी मनुष्य की पहचान, स्थिति और सार के बराबर नहीं माना जा सकता, न ही इन चीजों में कभी कोई बदलाव होगा—परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य रहेगा। यदि कोई व्यक्ति इसे समझने में सक्षम है तो फिर उसे क्या करना चाहिए? उसे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए—यह चीजों को करने का सबसे तर्कसंगत तरीका है, और इसके अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है जिसे चुना जा सकता हो। यदि तुम समर्पण नहीं करते तो तुम विद्रोही हो और यदि तुम अवज्ञाकारी हो और बहस करते हो, तो तुम घोर विद्रोही बन रहे हो और तुम्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाना दर्शाता है कि तुम्हारे पास समझ-बूझ है; यही रवैया लोगों के पास होना चाहिए और केवल यही रवैया सृजित प्राणियों के पास होना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे पास एक छोटी बिल्ली या कुत्ता है—क्या वह बिल्ली या कुत्ता यह माँग करने के योग्य है कि तुम उसके लिए विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन या मजेदार खिलौने खरीदो? क्या बिल्ली या कुत्ते इतने नासमझ होते हैं कि अपने मालिकों से माँग करें? (नहीं।) और क्या कोई कुत्ता यह देखकर अपने मालिक के साथ नहीं रहना चाहेगा कि किसी दूसरे घर के कुत्ते का जीवन उससे बेहतर है? (नहीं।) उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति यह सोचना होता है, “मेरा मालिक मुझे भोजन और रहने के लिए जगह देता है, इसलिए मुझे अपने मालिक के घर की रखवाली करनी चाहिए। भले ही मेरा मालिक मुझे खाना न दे या बहुत अच्छा खाना न दे, तो भी मुझे उसके घर की रखवाली करनी है।” कुत्ते के मन में अपने स्थान से परे जाने के कोई अन्य अनुचित विचार नहीं होते। उसका मालिक उसके साथ अच्छा व्यवहार करे या न करे, जब भी मालिक घर आता है, कुत्ता बहुत खुश होता है, वह जितना खुश हो सकता है उतनी खुशी से लगातार दुम हिलाता रहता है। चाहे उसका मालिक उसे पसंद करे या न करे, चाहे उसका मालिक उसके लिए स्वादिष्ट चीजें खरीदे या न खरीदे, फिर भी उसका अपने मालिक के प्रति हमेशा एक जैसा व्यवहार होता है और वह उसके घर की रखवाली करता है। इस आधार पर आकलन करें तो क्या लोग कुत्तों से भी बदतर नहीं हैं? (हाँ।) लोग हमेशा परमेश्वर से माँग करते रहते हैं और हमेशा उससे विद्रोह करते रहते हैं। इस समस्या की जड़ क्या है? इसकी जड़ यही है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे सृजित प्राणियों के स्थान पर नहीं रह सकते और इसलिए वे अपनी सहज प्रवृत्ति खोकर शैतान बन जाते हैं; उनकी सहज प्रवृत्तियाँ परमेश्वर का विरोध करने, सत्य को अस्वीकार करने, बुराई करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण न करने की शैतानी प्रवृत्ति में बदल जाती हैं। उनकी मानवीय प्रवृत्तियों को कैसे बहाल किया जा सकता है? उनमें अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए, उन्हें ऐसी चीजें करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए जो एक व्यक्ति को करनी चाहिए, वे कर्तव्य निभाने चाहिए जो उन्हें करने चाहिए। यह वैसा ही है जैसे एक कुत्ता घर की रखवाली करता है और एक बिल्ली चूहे पकड़ती है—उनका मालिक उनके साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, वे इन कार्यों को करने में अपनी सारी ताकत लगा देते हैं, वे खुद को इन कामों में झोंक देते हैं और वे अपने स्थान पर बने रहते हैं और अपनी सहज प्रवृत्ति का पूरा उपयोग करते हैं और इसीलिए उनका मालिक उन्हें पसंद करता है। अगर लोग ऐसा करने में कामयाब हो जाएँ तो परमेश्वर को ये सारे वचन कहने या ये सारे सत्य बोलने की जरूरत नहीं होगी। मनुष्य बहुत गहराई तक भ्रष्ट हैं, वे विवेक और अंतरात्मा से रहित हैं और उनमें ईमानदारी कम है; उनके भ्रष्ट स्वभाव हमेशा परेशानी पैदा करते हैं, उनमें प्रकट होते रहते हैं, उनके विकल्प-चयन और सोच को प्रभावित करते रहते हैं, उन्हें परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोही बनाते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ बनाते हैं, और ऐसी स्थिति बनाते हैं कि उनके पास हमेशा अपनी व्यक्तिपरक इच्छाएँ, विचार और प्राथमिकताएँ होती हैं और ऐसे में सत्य कभी भी उनके भीतर हावी नहीं हो पाता और उनका जीवन नहीं बन पाता। इन सब कारणों से ही परमेश्वर को उनका न्याय करना चाहिए, उन्हें परखना चाहिए और अपने वचनों से उनका शोधन करना चाहिए—ताकि उन्हें बचाया जा सके। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी हमेशा लोगों के बीच नकारात्मक भूमिका निभाते हैं। वे पूरी तरह से राक्षस और शैतान होते हैं; वे न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे यह भी स्वीकार नहीं करते कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे जबरन कब्जा भी करते हैं और परमेश्वर से आशीष, मुकुट और पुरस्कार प्राप्त करना चाहते हैं। वे अपनी जद्दोजहद में किस हद तक चले जाते हैं? निहायत बेशर्म और घोर विवेकहीन होने की हद तक। यदि तमाम तरह की बुरी चीजें करने के बाद उनका खुलासा कर उन्हें हटा दिया जाता है, तो वे अपने दिलों में द्वेष पालेंगे। वे परमेश्वर को कोसेंगे, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कोसेंगे और कलीसिया और सभी सच्चे विश्वासियों से घृणा करेंगे। यह तमाम बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों के बदसूरत चेहरे को पूरी तरह उघाड़ देता है।

मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में से बारहवाँ मद है : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं। हम सरल शब्दों में बात करेंगे कि पीछे हटने का क्या मतलब है। पीछे हटने का शाब्दिक अर्थ है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना—इसे “पीछे हटना” कहते हैं। परमेश्वर के घर में सत्य से प्रेम न करने वाले कुछ ऐसे लोग हमेशा होते हैं जो स्वेच्छा से कलीसिया और भाई-बहनों को छोड़ देते हैं क्योंकि वे सभाओं में भाग लेने और धर्मोपदेश सुनने से विमुख होते हैं और वे अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होते—इसे पीछे हटना कहते हैं। यह इस शब्द के शाब्दिक अर्थ में पीछे हटना है। हालाँकि जब किसी को वाकई परमेश्वर की नजर में पीछे हटने वाला व्यक्ति परिभाषित कर दिया जाता है, तो यह असल में केवल उसके परमेश्वर का घर छोड़ने, उसके अब दिखाई न देने या उसे कलीसिया की सूची से निकाले जाने का मामला नहीं होता। तथ्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचन कभी नहीं पढ़ता, तो उसकी आस्था चाहे कितनी भी अधिक क्यों न हो, चाहे वह स्वयं को परमेश्वर का विश्वासी मानता हो या न मानता हो, यह साबित करता है कि वह अपने हृदय में यह स्वीकार नहीं करता कि परमेश्वर का अस्तित्व है और न ही यह स्वीकार करता है कि उसके वचन सत्य हैं। परमेश्वर की दृष्टि में वह व्यक्ति पहले ही पीछे हट चुका है और अब वह उसके घर का सदस्य नहीं माना जाता है। जो लोग परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते वे ऐसे किस्म के ही लोग हैं जो पीछे हट गए हैं। दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जो कभी भी कलीसियाई जीवन में भाग नहीं लेते और जो कभी भी कलीसियाई जीवन से संबंधित गतिविधियों में भाग नहीं लेते, जैसे कि जब भाई-बहन भजन गाते हैं, परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करते हैं और एक साथ अपनी व्यक्तिगत अनुभवजन्य समझ पर संगति करते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को पहले से ही पीछे हटा हुआ मानता है। एक और किस्म है : वे जो अपने कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर का घर उनसे चाहे जो अनुरोध करे, उनसे जिस भी तरह का काम करने को कहे, कोई भी कर्तव्य निभाने को कहे, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, यहाँ तक कि कभी-कभार कोई संदेश पहुँचाने वाला सरल-सा काम ही क्यों न हो—वे उस काम को नहीं करना चाहते। यहाँ तक कि जिन कामों में मदद के लिए किसी अविश्वासी की मदद ली जा सकती है, ये परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करने वाले नहीं कर सकते; यह सत्य स्वीकारने और कर्तव्य निभाने से इनकार करना है। भाई-बहन उन्हें चाहे कैसे भी प्रोत्साहित करें, वे इससे इनकार कर इसे स्वीकार नहीं करते; जब कलीसिया उनके लिए कोई कर्तव्य निभाने की व्यवस्था करती है, तो वे उसे अनदेखा कर देते हैं और उससे इनकार करने के लिए ढेरों बहाने बनाते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो कर्तव्य निभाने से इनकार करते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे लोग पहले ही पीछे हट चुके होते हैं। उनके पीछे हटने का संबंध इस बात से नहीं है कि परमेश्वर के घर ने उन्हें बाहर निकाल दिया है या उन्हें अपनी सूची से हटा दिया है; बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि अब खुद उन्हीं में सच्ची आस्था नहीं रह गई है—वे खुद को परमेश्वर का विश्वासी स्वीकार नहीं करते। जो भी व्यक्ति इन तीन श्रेणियों में से किसी एक में उपयुक्त बैठता है, वह ऐसा व्यक्ति है जो पहले ही पीछे हट चुका है। क्या यह एक सटीक परिभाषा है? (हाँ।) यदि तुम परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते तो क्या तुम परमेश्वर में विश्वासी माने जाते हो? यदि तुम कलीसियाई जीवन नहीं जीते, यदि तुम अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत नहीं करते या घुलते-मिलते नहीं हो तो क्या तुम विश्वासी हो? और भी कम। यही नहीं, यदि तुम अपना कर्तव्य निभाने से इनकार कर देते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने दायित्व भी पूरा नहीं करते तो यह और भी गंभीर है। ये तीन प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो परमेश्वर की नजर में पहले ही पीछे हट चुके हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें परमेश्वर के घर से बहिष्कृत कर दिया गया है या हटा दिया गया है; बल्कि वे अपनी इच्छा से पीछे हट चुके हैं और उन्होंने अपनी इच्छा से त्याग कर दिया है। उनके व्यवहार से पूरी तरह प्रकट होता है कि वे सत्य से प्रेम या इसे स्वीकार नहीं करते और वे ऐसे लोगों के ठेठ उदाहरण हैं जो भरपेट निवाले खाने और आशीष पाने की ताक में रहते हैं।

17 अक्तूबर 2020

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