मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं (खंड दो)
II. मसीह-विरोधियों का अपनी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव से निपटने का तरीका
जब आशीष प्राप्त करने की बात आती है तो मसीह-विरोधियों का रवैया बेहद जिद्दी होता है। वे आशीष प्राप्त करने के अपने इरादे से जी-जान से चिपके रहते हैं और जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो उनमें प्रतिरोध की भावना आ जाती है और वे पूरी ताकत से इस पर तकरार करने और अपना बचाव करने की कोशिश करते हैं। इससे हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि मसीह-विरोधी लोग सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। जब उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है या उनकी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव किया जाता है तो वे आशीष प्राप्त करने के मामले को लेकर बहुत संवेदनशील महसूस करते हैं। वे इसे लेकर संवेदनशील महसूस क्यों करते हैं? क्योंकि ऐसे लोगों के दिल आशीष प्राप्त करने की इच्छा और महत्वाकांक्षा से भरे होते हैं। वे हर चीज आशीष प्राप्त करने के लिए करते हैं, किसी और चीज के लिए नहीं। जीवन में उनकी सबसे बड़ी इच्छा आशीष प्राप्त करना है। यही कारण है कि जब उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है या उनकी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव किया जाता है तो उन्हें लगता है कि आशीष प्राप्त करने की उनकी आशा खत्म हो गई है, और वे स्वाभाविक रूप से समर्पण करने से इनकार कर अपनी ओर से बहस करते रहते हैं। वे केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, और परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में नहीं सोचते। उदाहरण के लिए, कुछ लोग खुद को लिखा-पढ़ी में कुशल मानते हैं, इसलिए वे उससे संबंधित कर्तव्य निभाने की जोरदार माँग करते हैं। बेशक, परमेश्वर का घर उन्हें हतोत्साहित नहीं करेगा, परमेश्वर का घर प्रतिभाशाली व्यक्तियों को सँजोता है, और लोगों के पास जो भी गुण या खूबियाँ हों, परमेश्वर का घर उन्हें उनका उपयोग करने का अवसर देगा, और इसलिए कलीसिया उनके लिए कोई पाठ-आधारित कार्य करने की व्यवस्था करती है। लेकिन कुछ समय गुजरने के बाद पता चलता है कि उनमें वास्तव में यह कौशल नहीं है और वे इस कर्तव्य को ठीक से निभाने में असमर्थ हैं; वे पूरी तरह से बेअसर हैं। उनकी प्रतिभा और काबिलियत इस काम के लिए पूरी तरह से अक्षम हैं। तो ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? क्या यह संभव है कि उन्हें बस बरदाश्त किया जाए और कहा जाए, “तुममें जुनून है, और भले ही तुम्हारे पास अधिक प्रतिभा नहीं है और तुम्हारी काबिलियत औसत है, फिर भी अगर तुम इच्छुक हो और कड़ी मेहनत करने से नहीं कतराते तो परमेश्वर का घर तुम्हें बरदाश्त करेगा और तुम्हें यह कर्तव्य निभाते रहने देगा। अगर तुम इसे अच्छी तरह से नहीं करते तो भी कोई बात नहीं। परमेश्वर का घर आँखें मूँद लेगा और तुम्हें बदले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है”? क्या इसी सिद्धांत के जरिए परमेश्वर का घर मामले सँभालता है? स्पष्टतः नहीं। ऐसी परिस्थितियों में आम तौर पर उनके लिए उनकी काबिलियत और खूबियों के आधार पर उपयुक्त कर्तव्यों की व्यवस्था की जाती है; यह इसका एक पक्ष है। लेकिन केवल इसी पर निर्भर रहना काफी नहीं है, क्योंकि कई मामलों में लोग खुद भी नहीं जानते कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हैं, और भले ही उन्हें लगता हो कि वे इसमें अच्छे हैं, जरूरी नहीं कि यह सही हो, और इसलिए उन्हें आजमाना होगा और कुछ समय के लिए प्रशिक्षण लेना होगा; इस आधार पर निर्णय लेना कि वे प्रभावी हैं या नहीं, सही है। अगर वे कुछ समय के लिए प्रशिक्षण लेते हैं और कोई नतीजा नहीं मिलता या कोई प्रगति नहीं होती और यह पुष्टि हो जाती है कि वे तराशे जाने लायक नहीं हैं तो उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया जाना चाहिए और उनके लिए किसी उपयुक्त कर्तव्य की फिर से व्यवस्था की जानी चाहिए। इस तरह से लोगों के लिए कर्तव्य की फिर से व्यवस्था करना और उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव करना उचित बात है और यह सिद्धांत के अनुरूप भी है। लेकिन कुछ लोग परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन करने में असमर्थ होते हैं और इसके बजाय वे अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा अपनी देह की प्राथमिकताओं के अनुसार चलते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई कहता है, “मेरा सबसे बड़ा सपना साहित्यकार या पत्रकार बनना था, लेकिन अपनी पारिवारिक परिस्थितियों और अन्य कारणों से मैं इसे पूरा नहीं कर पाया। लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में लिखने-पढ़ने का कार्य करता हूँ। मुझे आखिरकार वह मिल गया जो मैं चाहता था!” लेकिन सत्य की उसकी समझ बिल्कुल पर्याप्त नहीं है, उसके पास बहुत अधिक आध्यात्मिक समझ नहीं है और वह लिखने-पढ़ने का कार्य करने में सक्षम नहीं है, इसलिए कुछ समय तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद उसे कोई दूसरा कार्य सौंप दिया जाता है। वह शिकायत करता है : “मैं वास्तव में वही कार्य क्यों नहीं कर सकता जो मैं करना चाहता हूँ? मुझे कोई भी दूसरे प्रकार का कार्य पसंद नहीं है!” यहाँ समस्या क्या है? परमेश्वर के घर ने सिद्धांतों के अनुसार उसकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव कर दिया तो वह परिवर्तन को स्वीकार क्यों नहीं कर सकता? क्या यह उसकी मानवता के साथ समस्या नहीं है? वह सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता और परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता—यह केवल सूझ-बूझ की कमी है। वह अपना कर्तव्य हमेशा अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर निभाता है और हमेशा अपनी ही पसंद के विकल्प चुनना चाहता है। क्या यह एक भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? तुम्हें कोई कार्य करने में आनंद आता है, क्या यह इस बात की गारंटी है कि तुम इसे अच्छी तरह से कर सकते हो? तुम्हें कोई खास कर्तव्य निभाने में आनंद आता है, क्या इसका मतलब यह है कि तुम इसे उस तरीके से कर सकते हो जो मानक-स्तर का हो? सिर्फ इसलिए कि तुम्हें कोई कार्य करने में आनंद आता है, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम उसके लिए उपयुक्त हो, और यह भी हो सकता है कि तुम्हें यह असलियत न पता हो कि तुम किस कार्य के लिए उपयुक्त हो। इसलिए, तुम्हें सूझ-बूझ रखने और आज्ञापालन सीखने की जरूरत है। इसलिए जब तुम्हारी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया जाता है तो तुम्हें आज्ञापालन का अभ्यास कैसे करना चाहिए? एक लिहाज से तुम्हें यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर के घर ने तुम्हारी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव सत्य सिद्धांतों के आधार पर किया है, न कि तुम्हारी प्राथमिकताओं या किसी अगुआ या कार्यकर्ता के पूर्वाग्रहों के आधार पर। तुम्हें भरोसा करना चाहिए कि तुम्हारी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव तुम्हारे गुणों, खूबियों और अन्य वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर तय किया गया था, और यह किसी एक व्यक्ति के विचारों से नहीं उपजा था। जब तुम्हारी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया जाता है तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। जब तुम अपने नए कर्तव्य में कुछ समय प्रशिक्षण ले लेते हो और इसे निभाने में नतीजे प्राप्त कर लेते हो, तो तुम पाओगे कि तुम इस कर्तव्य को निभाने के लिए अधिक उपयुक्त हो और तुम्हें यह एहसास होगा कि अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर कर्तव्यों का चयन करना एक गलती है। क्या इससे समस्या हल नहीं हो जाती है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर का घर लोगों के लिए कुछ कर्तव्य निभाने की व्यवस्था उनकी प्राथमिकताओं के आधार पर नहीं करता है, बल्कि कार्य की जरूरतों और इस आधार पर करता है कि किसी व्यक्ति के उस कर्तव्य को निभाने से नतीजे मिल सकते हैं या नहीं। क्या तुम लोग यह कहते हो कि परमेश्वर के घर को व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर कर्तव्यों की व्यवस्था करनी चाहिए? क्या उसे लोगों का उपयोग उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को संतुष्ट करने की शर्त के आधार पर करना चाहिए? (नहीं।) इनमें से कौन-सा आधार लोगों का उपयोग करने में परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है? कौन-सा सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? यही कि लोगों का चयन परमेश्वर के घर में कार्य की जरूरतों और उनके कर्तव्य निर्वहन के नतीजे के अनुसार करना। तुम्हारे अपने कुछ झुकाव और रुचियाँ हैं और तुममें अपने कर्तव्य निभाने की थोड़ी-सी इच्छा है, लेकिन क्या तुम्हारी इच्छाओं, रुचियों और झुकावों को परमेश्वर के घर के कार्य पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए? यदि तुम हठपूर्वक आग्रह कर यह कहते हो, “मुझे यह कार्य अवश्य करना चाहिए; यदि मुझे इसे न करने दिया तो मैं जीना नहीं चाहता, मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता। यदि मुझे यह कार्य न करने दिया तो मुझमें कुछ और करने के लिए उत्साह नहीं होगा, न ही मैं इसमें अपना पूरा प्रयास करूँगा” तो क्या यह कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारे रवैये में ही कोई समस्या नहीं दर्शाता है? क्या यह अंतरात्मा और विवेक की पूरी तरह से कमी नहीं है? अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, रुचियों और झुकावों को संतुष्ट करने के लिए तुम कलीसिया के कार्य को प्रभावित करने और विलंबित करने में संकोच नहीं करते। क्या यह सत्य के अनुरूप है? किसी को उन चीजों से कैसे निपटना चाहिए जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं : “व्यक्ति को सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर देना चाहिए।” क्या यह सही है? क्या यह सत्य है? (नहीं।) यह किस तरह का कथन है? (यह एक शैतानी भ्रांति है।) यह एक भ्रामक, गुमराह करने वाला और छद्म कथन है। यदि तुम अपने कर्तव्यों के पालन के संदर्भ में “व्यक्ति को सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर देना चाहिए” वाक्यांश को लागू करते हो तो तुम परमेश्वर का विरोध और ईशनिंदा कर रहे हो। यह परमेश्वर की ईशनिंदा क्यों है? क्योंकि तुम अपनी इच्छा परमेश्वर पर थोप रहे हो, और यह ईशनिंदा है! तुम परमेश्वर से पूर्णता और आशीष पाने के बदले अपने व्यक्तिगत हितों के बलिदान के लेन-देन की कोशिश कर रहे हो; तुम्हारा इरादा परमेश्वर के साथ सौदा करना है। परमेश्वर को तुमसे कुछ भी बलिदान कराने की आवश्यकता नहीं है; परमेश्वर की यही माँग है कि लोग सत्य का अभ्यास करें और देह के खिलाफ विद्रोह करें। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते तो तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध कर रहे हो। तुमने अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाया क्योंकि तुम्हारे इरादे गलत थे, चीजों को लेकर तुम्हारे विचार सही नहीं थे और तुम्हारे कथन पूरी तरह से सत्य का खंडन करते थे। लेकिन परमेश्वर के घर ने तुमसे कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं छीना है; बस इतनी-सी बात है कि तुम्हारी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया गया था क्योंकि तुम पिछले वाले कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं थे और तुम्हें एक ऐसा कर्तव्य सौंप दिया गया जो तुम्हारे लिए उपयुक्त है। यह बहुत सामान्य और समझने में आसान बात है। तुम्हें इस मामले को सही तरीके से लेना चाहिए। इस मामले को सँभालने का सही तरीका क्या है? जब ऐसा होता है तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे बारे में किए गए मूल्यांकन को स्वीकार करना चाहिए। भले ही व्यक्तिपरक रूप से तुम्हें अपना कर्तव्य पसंद हो सकता है, लेकिन तुम वास्तव में इसके लिए उपयुक्त नहीं हो और न ही इसमें कुशल हो, इसलिए तुम वह कार्य नहीं कर सकते। इसका मतलब है कि तुम्हें कोई दूसरा कर्तव्य सौंपने की आवश्यकता है। तुम्हें आज्ञापालन कर अपना नया कर्तव्य स्वीकार करना चाहिए। पहले कुछ समय के लिए इसका अभ्यास करो—अगर तुम्हें अभी भी लगता है कि तुम पर्याप्त अच्छे नहीं हो और इसके लिए तुम्हारी काबिलियत कम है, तो तुम्हें कलीसिया से कहना चाहिए : “मैं इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। अगर यह जारी रहा तो काम में बाधा पड़ेगी।” यह कार्य करने का एक बहुत ही विवेकपूर्ण तरीका है! तुम जो भी करो, उस कर्तव्य से चिपके रहने की कोशिश न करो। ऐसा करने से काम में बाधा उत्पन्न होगी। यदि तुम इस मुद्दे को पहले ही उठा देते हो, तो कलीसिया तुम्हारी स्थिति के आधार पर तुम्हारे लिए उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था कर देगा। परमेश्वर का घर लोगों को कर्तव्य निभाने के लिए बाध्य नहीं करता। क्या अपनी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव का अनुभव करना तुम्हारे लिए अच्छी बात नहीं है? सबसे पहले, यह तुम्हें अपनी प्राथमिकताओं और इच्छाओं से तर्कसंगत ढंग से निपटने में सक्षम बना सकता है। हो सकता है कि अतीत में उसके लिए तुम्हारा झुकाव रहा हो और तुम्हें साहित्य और लेखन पसंद हो, लेकिन पाठ-आधारित कार्य के लिए आध्यात्मिक समझ की भी आवश्यकता होती है। कम-से-कम तुम्हें आध्यात्मिक शब्दावली को समझने की आवश्यकता है। यदि तुममें सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है, तो केवल लेखन का थोड़ा-सा कौशल होना पर्याप्त नहीं होगा। तुम्हें आध्यात्मिक समझ हासिल करने, आध्यात्मिक शब्दावली को समझने और अनुभव के दौर से गुजरकर आध्यात्मिक जीवन की भाषा को जानने की जरूरत होगी। केवल तभी तुम परमेश्वर के घर में पाठ-आधारित कार्य करने में सक्षम होगे। अनुभव के दौर और चीजों से गुजरने के बाद तुम पाओगे कि तुम्हारे पास जीवन अनुभव की भाषा की कमी है, तुम अपनी चौंका देने वाली अपर्याप्तता देखोगे, तुम अपने असली आध्यात्मिक कद को जानोगे, और तुम परमेश्वर के घर और अपने भाई-बहनों को अपनी काबिलियत और आध्यात्मिक कद को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाओगे। यह तुम्हारे लिए अच्छी बात है। कम-से-कम, यह तुम्हें दिखाएगा कि तुम्हारी काबिलियत कितनी ऊँची या नीची है, और तुम्हें अपने आप से सही तरीके से पेश आने में सक्षम बनाएगा। अब तुम्हारे भीतर अपनी खुद की काबिलियत और झुकाव के बारे में कल्पनाएँ नहीं रहेंगी। तुम अपने असली आध्यात्मिक कद को जानोगे, तुम अधिक सटीक और स्पष्ट रूप से देखोगे कि तुम क्या हो और किसके लिए उपयुक्त नहीं हो, और तुम अपने कर्तव्य को निभाते समय अधिक दृढ़ और व्यावहारिक होगे। यह इसका एक पहलू है। दूसरा, जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, वह यह है कि चाहे तुम किसी भी दर्जे की समझ हासिल कर लो या तुम इन चीजों को समझ पाओ या नहीं, जब परमेश्वर का घर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, तो तुम्हें कम-से-कम पहले आज्ञाकारिता का रवैया अपनाना चाहिए, न कि नकचढ़ा या मीन-मेख निकालने वाला या अपनी खुद की योजनाएँ और चुनाव करने वाला रवैया होना चाहिए। तुम्हारे पास यही विवेक सबसे ज्यादा होना चाहिए। यदि तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में दूषित पदार्थों पर विचार करने में सक्षम नहीं हो, तो कोई बात नहीं। केवल इतना ही मायने रखता है कि तुम्हारे दिल में समर्पण हो और तुम सत्य को स्वीकार कर सको, अपने कर्तव्य को गंभीरता से ले सको और अपनी निष्ठा दिखा सको, और जब समस्याएँ आएँ या जब तुम भ्रष्टता प्रकट करो, तो तुम खुद पर विचार कर सको, अपनी कमियों और कमजोरियों को समझ सको, और अपनी समस्याओं या भ्रष्टता के खुलासों को हल करने के लिए सत्य खोज सको। इस तरह तुम्हें इसका एहसास भी नहीं होगा और जैसे-जैसे तुम अपना कर्तव्य निभाओगे, तुम्हारा जीवन और आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा और तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन उस तरीके से करने लगोगे जो मानक-स्तर का हो। अगर तुम ईमानदारी से परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते रहते हो और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजना बंद नहीं करते तो तुम्हें उसका आशीष प्राप्त होगा और वह तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार नहीं करेगा।
जब लोगों की कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव किया जाता है, तब अगर निर्णय कलीसिया ने लिया है तो लोगों को इसे स्वीकार कर आज्ञा का पालन करना चाहिए, आत्म-चिंतन करना चाहिए और समस्या के सार और अपनी कमजोरियों को समझना चाहिए। यह लोगों के लिए बहुत फायदेमंद है और यह ऐसी चीज है जिसका अभ्यास किया जाना चाहिए। यह इतनी सरल चीज है कि साधारण लोग इसे समझ सकते हैं और बहुत अधिक कठिनाइयों या किसी दुर्गम बाधा का सामना किए बिना इससे सही तरीके से व्यवहार कर सकते हैं। जब लोगों की कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव किया जाता है तो कम-से-कम उन्हें समर्पण करना चाहिए, आत्मचिंतन से लाभ उठाना चाहिए और साथ ही इस बात का सटीक आकलन करना चाहिए कि उनके द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन मानक-स्तर का है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है। जो वे अभिव्यक्त करते हैं वह सामान्य लोगों से अलग होता है, चाहे उन्हें कुछ भी हो जाए। यह अंतर कहाँ होता है? वे आज्ञापालन नहीं करते, सक्रिय रूप से अपनी भूमिका नहीं निभाते, न ही वे सत्य की जरा-सी भी खोज करते हैं। इसके बजाय, वे इसके समायोजन के प्रति वैर-भाव महसूस करते हैं, और वे इसका विरोध और विश्लेषण करते हैं, इस पर चिंतन करते हैं, और दिमाग के घोड़े दौड़ाकर अटकलें लगाते हैं : “मुझे यह कर्तव्य क्यों नहीं निभाने दिया जा रहा है? मुझे ऐसा दूसरा कर्तव्य क्यों सौंपा जा रहा है जो तुच्छ है? क्या यह मुझे बेनकाब करके हटाने का तरीका है?” वे इस घटना को अपने दिमाग में उलटते-पलटते रहते हैं, उसका अंतहीन विश्लेषण करते हैं और उस पर चिंतन करते हैं। जब कुछ नहीं होता तो वे बिल्कुल ठीक होते हैं, लेकिन जब कुछ हो जाता है तो उनके दिलों में तूफानी लहरों जैसा मंथन शुरू हो जाता है, और उनका मस्तिष्क सवालों से भर जाता है। देखने पर ऐसा लग सकता है कि मुद्दों पर विचार करने में वे दूसरों से बेहतर हैं, लेकिन वास्तव में, मसीह-विरोधी सामान्य लोगों की तुलना में अधिक दुष्ट होते हैं। यह दुष्टता कैसे अभिव्यक्त होती है? उनके विचार चरम, जटिल और गुप्त होते हैं। जो चीजें किसी सामान्य व्यक्ति, किसी अंतःकरण और विवेक वाले व्यक्ति के साथ नहीं होतीं, मसीह-विरोधी के लिए वे आम बात हैं। जब लोगों की कर्तव्य संबंधी स्थिति में कोई साधारण बदलाव किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। जब कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव की बात आती है तो मसीह-विरोधी तुरंत बहस, कुतर्क और अवज्ञा करेंगे, और दिल की गहराई में वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। उनके दिल में भला क्या होता है? संशय और संदेह, फिर वे तमाम तरीके इस्तेमाल करके दूसरों की पड़ताल करते हैं। वे अपने शब्दों और कार्यों से टोह पाने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि अनैतिक तरीके अपनाकर लोगों को सच बताने और ईमानदारी से बोलने के लिए मजबूर करते और फुसलाते तक हैं। वे यह समझने की कोशिश करते हैं : वास्तव में उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव क्यों किया गया था? उन्हें अपना काम क्यों नहीं करने दिया गया? आखिर डोर किसके हाथ में थी? उनके लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश कौन कर रहा था? वे मन ही मन पूछते रहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ, वे यह पता लगाने की कोशिश करते रहते हैं कि वास्तव में चल क्या रहा है, ताकि वे यह जान सकें कि किसके साथ बहस करनी है या हिसाब चुकता करना है। वे आत्मचिंतन करने के लिए परमेश्वर के सामने आना, अपने भीतर की समस्या को देखना, और अपने भीतर ही कारण खोजना नहीं जानते, वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते और आत्मचिंतन करके यह नहीं कहते, “मैंने जिस ढंग से काम किया, उसमें क्या समस्या थी? क्या ऐसा था कि मैं अनमना और सिद्धांतहीन था? क्या अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का कोई प्रभाव पड़ता है?” वे अपने आप से ये प्रश्न कभी नहीं पूछते, बल्कि वे लगातार मन ही मन परमेश्वर पर सवाल उठाते रहते हैं : “मेरी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव क्यों किया गया? मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है? वे इतने विचारहीन क्यों हो रहे हैं? वे मेरे साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं? वे मेरी इज्जत के बारे में क्यों नहीं सोचते? वे मुझ पर आक्रमण कर मुझे अलग-थलग क्यों करते हैं?” ये सभी “क्यों” मसीह-विरोधी के भ्रष्ट स्वभाव और चरित्र का एक स्पष्ट प्रकाशन हैं। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि मसीह-विरोधी अपनी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव जैसे इतने छोटे मामले को लेकर इतना उपद्रव करेंगे, ऐसा हंगामा खड़ा करेंगे, और इतना बड़ा तूफान खड़ा करने के लिए हर उपलब्ध तरीका आजमाएँगे। वे एक साधारण-सी चीज को इतना जटिल क्यों बना देते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपने आशीष प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ निकटता से जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और रुतबा खो गया तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी और उन्हें यह अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, “मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?” इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उनका भेद पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं। इसलिए जब उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, तो वे इसके एक बड़ी समस्या होने की भविष्यवाणी करते हैं और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिल्कुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है! कोई व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि वह क्या कर्तव्य करता है, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसमें सत्य है, क्या वह सचमुच परमेश्वर को समर्पित होता है, क्या वह निष्ठावान है। ये सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। परमेश्वर द्वारा लोगों के उद्धार के दौरान, लोगों को कई परीक्षणों से गुजरना होता है। विशेष रूप से अपने कर्तव्य निर्वहन में उन्हें अनेक असफलताओं और पेचीदा हालातों से गुजरना पड़ता है, लेकिन अंत में अगर वे सत्य समझते हैं और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण रखते हैं तो वे ऐसे व्यक्ति होंगे जिसके पास परमेश्वर की स्वीकृति है। अपनी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किए जाने के मामले में यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधी सत्य नहीं समझते, उनमें समझने की क्षमता बिल्कुल नहीं होती।
कर्तव्य निभाने वाले उन सारे लोगों में अपरिहार्य रूप से हमेशा कुछ ऐसे लोग होंगे जो कुछ भी ठीक से नहीं करते। वे लेख लिखने में अच्छे नहीं होते, क्योंकि वे सत्य को नहीं समझते, और उन्हें तो उस आध्यात्मिक शब्दावली और उस भाषा की भी समझ नहीं होती जिसे ईसाई अक्सर इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है उनमें लेखन कौशल हो और वे कुछ शिक्षित हों लेकिन उनमें काम के लिए पर्याप्त क्षमता नहीं होती है। यदि तुम उनसे दस्तावेजों का प्रूफ पढ़वाते हो, तो थोड़ी देर बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि वे उसमें भी अच्छे नहीं हैं। उनमें काबिलियत की कमी होती है और वे हमेशा त्रुटियाँ करते हैं, इसलिए तुम फिर से उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव करते हो। वे कहते हैं कि उनके पास कंप्यूटर कौशल है, लेकिन कुछ समय तक उस क्षेत्र में काम करने के बाद वे उसमें भी अच्छे नहीं होते। ऐसा लगता है कि वे अच्छे रसोइये हैं, इसलिए तुम उन्हें भाई-बहनों के लिए खाना बनाने के लिए कहते हो। तब पता चलता है कि हर किसी को उनका बनाया खाना बहुत ज्यादा नमकीन या बहुत फीका होने की शिकायत होती है और वे खाना या तो बहुत ज्यादा बना देते हैं या बहुत कम बनाते हैं। यह देखते हुए कि वे खाना पकाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, तुम उन्हें सुसमाचार के प्रसार में लगाने की व्यवस्था करते हो, लेकिन जिस क्षण वे सुनते हैं कि वे सुसमाचार टीम में शामिल होने जा रहे हैं, वे हतोत्साहित महसूस करने लगते हैं और सोचते हैं, “बस हो गया। मुझे हाशिये पर धकेला जा रहा है और आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। रोने के अलावा कुछ नहीं बचा है।” फिर, एक नकारात्मक और उदास मनोदशा के साथ वे हतोत्साहित और पतित हो जाते हैं और अपना ध्यान सुसमाचार का प्रसार करने और परमेश्वर के नए कार्य की गवाही देने पर नहीं लगा पाते। इसके बजाय वे लगातार सोचते रहते हैं, “मैं लिखने-पढ़ने के कर्तव्य पर कब लौट सकता हूँ? मैं कब फिर से अपना सिर उठाकर चल पाऊँगा? मैं कब फिर से ऊपरवाले से बात कर पाऊँगा या उच्च-स्तरीय निर्णय प्रक्रिया में भाग ले पाऊँगा? कब सभी को पता चलेगा कि मैं फिर से एक अगुआ हूँ?” वे कुछ साल तक अपनी बहाली की प्रतीक्षा करते हैं, फिर यह सोचने लगते हैं : “परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है। मैं भी उन्हीं लोगों की तरह हूँ जो दुनिया में अधिकारी बनने की राह पर बहुत-सी असफलताओं का सामना करते हैं, है न?” उन सारी असफलताओं के बारे में सोचकर वे और भी निराश और पूरी तरह हतोत्साहित हो जाते हैं। वे कहते हैं, “इतने साल विश्वासी रहने के बावजूद मैं एक बार भी प्रमुख अगुआ नहीं बन पाया। आखिरकार टीम अगुआ के रूप में सेवा करने के बाद मुझे बर्खास्त कर दिया गया और मैंने अन्य कर्तव्यों में भी अच्छा काम नहीं किया। मेरी किस्मत वाकई बहुत खराब है—कुछ भी मेरे हिसाब से नहीं होता। यह ठीक वैसा ही है जैसे अधिकारी बनने की राह पर ढेर सारी असफलताओं से जूझना। परमेश्वर का घर मुझे पदोन्नत क्यों नहीं करता? मेरा रुतबा और प्रतिष्ठा वाकई रसातल को छूने लगे हैं। किसी को भी यह याद नहीं कि मैं कौन हूँ और ऊपरवाला कभी मेरा जिक्र नहीं करता। मेरी महिमा के दिन खत्म हो चुके हैं। अपनी असफलता के बारे में मैं क्या करूँ? मैं परमेश्वर से बहुत प्यार करता हूँ और मैं कलीसिया और परमेश्वर के घर से वाकई प्यार करता हूँ, तो फिर मैं सफलता का आनंद क्यों नहीं ले पाया? परमेश्वर पर विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है। मैं वास्तव में यहाँ परमेश्वर के घर में अपनी महान योजनाओं को साकार करना चाहता था, अपनी ऊर्जा और खूबियों का उपयोग करना चाहता था, लेकिन परमेश्वर मुझे बस महत्वपूर्ण पदों पर ही नहीं रखता या मुझे नहीं देखता। कोई मतलब नहीं है।” उनके लगातार यह शिकायत करने का क्या अर्थ है कि कोई मतलब नहीं है? उनका मतलब है कि अपना कर्तव्य करने, स्वभावगत परिवर्तन का अनुसरण करने, सत्य को सुनने और धर्मोपदेश सुनने, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य सिद्धांतों की खोज करने का कोई मतलब नहीं है। तो फिर उनके लिए कौन-सी चीज करने का कोई मतलब है? एक आधिकारिक पद होना, आशीष प्राप्त करना, आशीष के लिए अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा का पूरा होना, हर मोड़ पर दिखावा करना, आदर पाना और प्रतिष्ठा प्राप्त करना। उनके लिए किसी और चीज का कोई मतलब नहीं होता। जब उन्हें लगता है कि किसी चीज का कोई मतलब नहीं है, जब वे निरुत्साहित हो जाते हैं, तो वे पाते हैं कि उनके पैर अपने आप ही दरवाजे की ओर बढ़ रहे हैं। वे परमेश्वर के घर को छोड़ना चाहते हैं, पीछे हटना चाहते हैं। इसका मतलब है कि वे खतरे में हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कोई कर्तव्य निभाते हैं, खास तौर पर वे जो कोई ऐसा साधारण-सा काम करते हैं जो उन्हें अक्सर अविश्वासियों के संपर्क में लाता है, और इस समूह के कुछ सदस्यों का एक पैर अंदर तो दूसरा बाहर की ओर होता है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि ये लोग किसी भी समय पीछे हट सकते हैं, और अगर उनकी आखिरी रक्षा पँक्ति ढह जाती है तो उनका दूसरा पैर निर्णायक कदम उठाएगा, और वे परमेश्वर के घर से पूरी तरह अलग हो जाएँगे और पूरी तरह से कलीसिया को छोड़ देंगे। जब उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव करने की बात आती है, जब यह बात आती है कि उन्हें कहाँ स्थानांतरित किया जाए, वे कौन-सा कर्तव्य निभाएँ, क्या वह कर्तव्य उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं को संतुष्ट करेगा, क्या यह उन्हें सम्मान दिलाने में सक्षम होगा और उनके नए कर्तव्य की स्थिति और पद क्या होगा तो ये सभी चीजें इन लोगों के आशीष प्राप्त करने की मंशा और इच्छा से जुड़ी होती हैं। मसीह-विरोधी अपनी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव के प्रति जो रवैया और दृष्टिकोण पालते हैं, उस आधार पर उनकी समस्या कहाँ स्थित होती है? क्या यह एक बड़ी समस्या है या नहीं? (है।) समस्या क्या है? (वे अपनी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में सामान्य बदलाव को कलीसिया में अपनी स्थिति और इस बात से जोड़ते हैं कि वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। जब उनकी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव किया जाता है तो परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं को स्वीकार करने और उनका पालन करने के बजाय वे सोचने लगते हैं कि वे अपना रुतबा खो रहे हैं और वे अब आशीष प्राप्त नहीं कर सकते, और फिर उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं रहा और वे परमेश्वर के घर को छोड़ना चाहते हैं।) यहाँ उनकी सबसे बड़ी गलती अपनी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव को आशीष प्राप्त करने के साथ जोड़ना है। यह बिल्कुल आखिरी चीज थी जो उन्हें करनी चाहिए थी। वास्तव में दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है, लेकिन चूँकि मसीह-विरोधियों के दिल आशीष प्राप्त करने की इच्छा से भरे हुए हैं, इसलिए वे चाहे जो भी कर्तव्य निभाएँ, वे इसे इस बात से जोड़ देंगे कि वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, जिसका अर्थ है कि उनके लिए कर्तव्य अच्छी तरह निभाना असंभव हो जाता है, और उन्हें केवल बेनकाब कर हटाया जा सकता है। यह बस खुद अपने लिए समस्याएँ पैदा करना और खुद को बरबादी के रास्ते पर डालना है।
तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के मामले के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? तुम्हारा रवैया सही होना चाहिए, जो तुम्हारे कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने की आवश्यक शर्त है। तुम्हारे लिए कौन-सा कर्तव्य उचित है, यह तुम्हारी खूबियों पर आधारित होना चाहिए। अगर कभी कलीसिया द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित कर्तव्य ऐसा न हो, जिसे तुम अच्छे से कर सकते हो या ऐसा हो, जिसे तुम करना नहीं चाहते, तो तुम इस मुद्दे को उठा सकते हो और बातचीत के माध्यम से इसे हल कर सकते हो। लेकिन अगर तुम वह कर्तव्य निभा सकते हो, और वह ऐसा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए, और तुम उसे सिर्फ इसलिए नहीं निभाना चाहते कि तुम कष्ट उठाने से डरते हो, तो तुम्हारे साथ समस्या है। अगर तुम आज्ञा मानने को तैयार हो और देह के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो तो तुम्हें अपेक्षाकृत विवेकपूर्ण कहा जा सकता है। लेकिन अगर तुम हमेशा इसका हिसाब लगाने की कोशिश करते हो कि कौन-से कर्तव्य अधिक प्रतिष्ठित हैं, और यह मानते हो कि कुछ कर्तव्य निभाने से दूसरे तुम्हें हेय समझेंगे तो यह साबित करता है कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है। तुम अपने कर्तव्यों की समझ में इतने पूर्वाग्रही क्यों हो? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम वह कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो, जिसे तुम अपने विचारों के आधार पर चुनते हो? जरूरी नहीं कि यह सच हो। यहाँ अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना सबसे ज्यादा मायने रखता है और अगर तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा पाओगे, भले ही तुम्हें यह पसंद हो। कुछ लोग अपने कर्तव्य सिद्धांतों के बिना निभाते हैं और उनका कर्तव्य निर्वहन हमेशा उनकी प्राथमिकताओं पर आधारित होता है, इसलिए वे कभी भी कठिनाइयाँ हल नहीं कर पाते, वे जो भी कर्तव्य निभाते हैं उसमें लापरवाही करते हैं और अंततः उन्हें हटा दिया जाता है। क्या ऐसे लोग बचाए जा सकते हैं? तुम्हें अपने लिए उपयुक्त कर्तव्य चुनना चाहिए, इसे अच्छी तरह से निभाना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम होना चाहिए। तभी तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो पाओगे। यदि तुम हमेशा दैहिक सुख-सुविधाओं का पीछा करते हो और अपने कर्तव्य में अच्छा दिखने की कोशिश करते हो तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाओगे। यदि तुम कोई भी कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते तो तुम्हें हटाना पड़ेगा। कुछ लोग चाहे जो भी कर्तव्य निभा रहे हों, वे असंतुष्ट ही रहते हैं, वे अपने कर्तव्यों को हमेशा अस्थायी मानते हैं, वे लापरवाह होते हैं और वे जो भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं उनका समाधान करने के लिए सत्य नहीं खोजते हैं। लिहाजा वे जीवन प्रवेश प्राप्त किए बिना बरसों तक अपने कर्तव्य निभाते रहते हैं। वे मजदूर बन जाते हैं और उन्हें हटा दिया जाता है। क्या यह उनका खुद का किया-धरा नहीं है? बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों का अपने कर्तव्यों में कभी भी सही रवैया नहीं होता। जब उनकी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव किया जाता है तो वे क्या सोचते हैं? “क्या तुम्हें लगता है कि मैं सिर्फ एक सेवाकर्ता हूँ? जब तुम मेरा इस्तेमाल करते हो, तुम मुझे अपनी सेवा देने के लिए कहते हो, और जब तुम्हारा काम पूरा हो जाता है, तो तुम मुझे दूर भेज देते हो। खैर, मैं इस तरह से सेवा नहीं करूँगा! मैं अगुआ या कार्यकर्ता बनना चाहता हूँ, क्योंकि यहाँ वही एकमात्र सम्मानजनक काम है। अगर तुम मुझे अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बनने दोगे और फिर भी मेहनत कराना चाहते हो तो भूल जाओ!” यह किस तरह का रवैया है? क्या वे समर्पण कर रहे हैं? वे अपनी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किए जाने के प्रति किस आधार पर निपटते हैं? अपनी उग्रता, विचारों और भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर, है न? और इससे इस तरह से निपटने के क्या नतीजे होते हैं? पहली बात, क्या वे अपने अगले कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और ईमानदार हो पाएँगे? नहीं, वे नहीं हो पाएँगे। क्या उनका रवैया सकारात्मक होगा? वे किस तरह की दशा में होंगे? (मायूसी की दशा में।) मायूसी का सार क्या है? प्रतिरोध। और एक प्रतिरोधी और मायूस मनःस्थिति का आखिरी नतीजा क्या होता है? क्या ऐसा महसूस करने वाला इंसान अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? (नहीं।) अगर कोई हमेशा नकारात्मक और प्रतिरोधी रहता है, तो क्या वह कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होता है? चाहे वह कोई भी कर्तव्य करे, वह उसे अच्छी तरह से नहीं कर सकता। यह एक दुष्चक्र है, और इसका अंत अच्छा नहीं होगा। ऐसा क्यों? ऐसे लोग अच्छे रास्ते पर नहीं होते; वे सत्य नहीं खोजते, वे समर्पित नहीं होते और वे अपने प्रति परमेश्वर के घर का रवैया और निपटने का तरीका ठीक से नहीं समझ सकते। यह परेशानी है, है न? यह उनकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में पूरी तरह से उचित बदलाव है, लेकिन मसीह-विरोधी कहते हैं कि यह उन्हें तंग करने के लिए किया जा रहा है, उनके साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा, परमेश्वर के घर में प्यार की कमी है, उन्हें मशीन समझा जा रहा है, जब जरूरत हुई, बुला लिया, जब जरूरत नहीं रही, लात मारकर एक तरफ कर दिया। क्या यह बात को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है? क्या इस तरह की बात कहने वाले इंसान के पास जमीर या विवेक है? उसमें इंसानियत नहीं है! वह पूरी तरह से उचित मामले को विकृत कर देता है; वह पूरी तरह से उपयुक्त अभ्यास को नकारात्मक चीज में बदल देता है—क्या यह मसीह-विरोधी की दुष्टता नहीं है? क्या इतना दुष्ट इंसान सत्य समझ सकता है? बिल्कुल नहीं। यह मसीह-विरोधियों की समस्या है; उनके साथ जो कुछ भी होता है, वे उसके बारे में विकृत तरीके से सोचेंगे। वे विकृत तरीके से क्यों सोचते हैं? क्योंकि उनका प्रकृति सार इतना दुष्ट होता है। एक मसीह-विरोधी का प्रकृति सार मुख्य रूप से दुष्ट होता है, जिसके बाद उसकी क्रूरता आती है और ये उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। मसीह-विरोधियों की दुष्ट प्रकृति उन्हें किसी भी चीज को सही ढंग से समझने से रोकती है, इसके बजाय वे हर चीज को विकृत करते हैं, वे चरम सीमाओं पर चले जाते हैं, वे बाल की खाल निकालते हैं, और वे चीजों को ठीक से नहीं सँभाल पाते या सत्य की खोज नहीं कर पाते। इसके बाद, वे सक्रिय रूप से लड़ते हैं, बदला लेने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि धारणाएँ फैलाते और नकारात्मकता को बाहर निकालते हैं, कलीसिया के काम को बाधित करने के लिए दूसरों को उकसाते और मनाते हैं। वे गुप्त रूप से कुछ शिकायतें फैलाते हैं, इसका आकलन करते हैं कि परमेश्वर के घर में लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, उसके कुछ प्रशासनिक नियमों, कुछ अगुआ कैसे काम करते हैं, और इन अगुआओं की निंदा करते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह शातिर स्वभाव है। मसीह-विरोधी न सिर्फ प्रतिरोधी और अवज्ञाकारी होते हैं, बल्कि वे अपने साथ और भी लोगों को अवज्ञाकारी होने, अपना साथ देने और उत्साह बढ़ाने के लिए उकसाते हैं। किसी मसीह-विरोधी का प्रकृति सार ऐसा ही होता है। वे अपनी कर्तव्य संबंधी स्थिति में सरल से बदलाव को भी सही तरीके से नहीं ले पाते या तर्कसंगत रूप से इसे स्वीकार और इसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते। इसके बजाय, वे बात का बतंगड़ बनाते हैं और अपने लिए कई बहाने बनाते हैं, जिनमें से कुछ अनुचित होते हैं और दूसरों में घृणा और नफरत पैदा करते हैं। कुछ भ्रांतियाँ और पाखंड फैलाने के बाद मसीह-विरोधी अपनी स्थिति सँभालने और दूसरों का विश्वास जीतने की कोशिश करते हैं। यदि ये उपाय सफल नहीं होते, तो क्या मसीह-विरोधी पीछे मुड़ पाएँगे? यदि वे इस मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकते, तो क्या वे सत्य खोज पाएँगे? क्या उनमें पश्चात्ताप करने की कोई इच्छा होगी? बिल्कुल नहीं। वे कहेंगे, “यदि तुम मुझे आशीष प्राप्त करने से रोकते हो तो मैं तुम सभी लोगों को इसे प्राप्त करने से रोक दूँगा! यदि मैं आशीष नहीं प्राप्त कर सकता, तो मैं विश्वास करना बंद कर दूँगा!” अतीत में मैंने इस बारे में बात की है कि कैसे मसीह-विरोधी पूरी तरह से विवेकहीन होते हैं; इस विवेकहीनता के पीछे का प्रकृति सार यह है कि ये लोग बेहद दुष्ट और शातिर होते हैं। जिस विषय पर हम अभी संगति कर रहे हैं, वह इस प्रकृति सार को पूरी तरह प्रदर्शित करने वाली अभिव्यक्तियाँ और प्रकाशन हैं और यह इस प्रकृति सार का सबसे विश्वसनीय प्रमाण है। इनमें से कुछ लोग अपनी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में एक बार भी बदलाव किए जाने पर क्रोधित हो जाते हैं, और उनमें से कुछ कई बार स्थानांतरित किए जाने और एक कर्तव्य से दूसरे कर्तव्य पर भेजे जाने के बाद, उनमें से किसी को भी अच्छी तरह से करने में सक्षम नहीं होते, और अंततः सोचने लगते हैं कि उन्हें आशीष प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं है, और वे पीछे हटना चाहते हैं। संक्षेप में कहें तो उनकी कर्तव्य संबंधी स्थितियों में बदलाव चाहे कैसे भी किया जाए, यदि कोई बदलाव होता है तो ये लोग अपने दिलों में उसका विश्लेषण, आलोचना और उस पर विचार करेंगे, और केवल तभी आश्वस्त होंगे जब उन्हें पता चलेगा कि बदलाव का आशीष प्राप्त करने से कोई संबंध नहीं है। जैसे ही उन्हें पता चलेगा कि बदलाव का आशीष प्राप्त करने से थोड़ा-सा भी संबंध है या वह आशीष प्राप्त करने की उनकी आशा को प्रभावित करता है, वे तुरंत अवज्ञा में उठ खड़े होकर अपने प्रकृति सार को उजागर कर देंगे। यदि वे इस अवज्ञा में विफल हो जाते हैं और उजागर करके अस्वीकार कर दिए जाते हैं, तो वे अपने लिए आकस्मिक योजनाएँ तैयार करेंगे, और बिना किसी हिचकिचाहट के दृढ़ता से परमेश्वर के घर को छोड़ देंगे, अब इस पर और विश्वास नहीं करेंगे कि परमेश्वर है, और इसे अब और स्वीकार नहीं करेंगे कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उनका दिन-प्रतिदिन का जीवन तुरंत बदल जाएगा और परमेश्वर में विश्वास करने वाले की सारी समानता उनमें से गायब हो जाएगी। वे तुरंत फिर से शराब पीना, धूम्रपान करना, असामान्य कपड़े पहनना और भारी मेकअप करना और बहुत बढ़िया कपड़े पहनना शुरू कर देंगे। चूँकि वे परमेश्वर में विश्वासी के रूप में इन चीजों का लुत्फ नहीं उठा पाते थे, इसलिए वे इस बीते हुए समय की भरपाई करने के लिए जल्दी मचाएँगे। जब वे पीछे हटने के बारे में विचार करते हैं तो वे तुरंत अपने अगले कदम के बारे में सोचेंगे, कि वे आगे निकलने के लिए कैसे दुनिया में कड़ी मेहनत कर सकते हैं, अपने लिए जगह पा सकते हैं और एक अच्छा जीवन जी सकते हैं, साथ ही साथ उनका बाहर निकलने का मार्ग कहाँ है। वे शीघ्र ही अपने लिए रास्ता खोज लेंगे, इन बुरी प्रवृत्तियों के बीच और इस बुरी दुनिया में अपने लिए एक स्थान खोज लेंगे और तय करेंगे कि वे क्या करने वाले हैं, चाहे फिर वह व्यवसाय हो, राजनीति हो या कोई अन्य प्रकार का उपक्रम हो, जो उन्हें दूसरों की तुलना में बेहतर जीवन जीने देगा, पृथ्वी पर उनके शेष जीवन में उन्हें खुशी और आनंद प्रदान करेगा, उनकी देह के लिए और अधिक आराम जुटाएगा, उन्हें जीवन का पूरी तरह से आनंद लेने देगा और मनोरंजन और फुरसत का मजा लेने देगा।
जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है और जब उसकी कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किया जाता है, तो वह उन आशीषों को प्राप्त करने के बारे में सोचता है जो उससे बहुत निकटता से संबंधित हैं। जब उसे लगता है कि उसके पास इसके लिए कोई उम्मीद नहीं बची है, तो वह पीछे हटना चाहेगा, परमेश्वर के घर से दूर चला जाना चाहेगा और एक अविश्वासी के जीवन में वापस लौटना चाहेगा। इसके आधार पर यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति का प्रकृति सार अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, इसलिए क्या उसके अनुसरण और चयन भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते? यह केवल एक विचार का अंतर है : एक सही निर्णय लोगे तो तुम परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करना जारी रख सकते हो, जबकि एक गलत चुनाव तुम्हें पलक झपकते ही एक अविश्वासी में बदल सकता है, एक ऐसे व्यक्ति में बदल सकता है जिसका परमेश्वर के घर, परमेश्वर के कार्य या अपने कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं है। बस एक विचार का सवाल है, एक पल या एक छोटी-सी बात किसी के भाग्य को पूरी तरह से बदल सकती है। एक आकस्मिक चयन की बात है, एक आकस्मिक छोटा-सा विचार या एक सरल-सा दृष्टिकोण किसी व्यक्ति की नियति बदल सकता है और यह निर्धारित कर सकता है कि वह अगले पल कहाँ पहुँचेगा। जब लोगों ने किसी भी तरह की समस्या का सामना नहीं किया होता है, जब उन्होंने किसी निर्णय का सामना नहीं किया होता है, तो उन्हें लगता है कि वे कई सत्य समझते हैं, उनमें आध्यात्मिक कद है और वे दृढ़ बने रह सकते हैं। लेकिन जब तुम किसी निर्णय, किसी प्रमुख सिद्धांत या किसी बड़े मुद्दे का सामना करते हो तो तुम वास्तव में क्या चुनते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया क्या होता है, और मामले के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण और रवैया क्या होता है, इससे तुम्हारी नियति निर्धारित होगी और यह तय होगा कि तुम रहोगे या जाओगे। मसीह-विरोधियों की चुनाव करने की प्रवृत्ति और उनके दिलों के भीतर गहरी व्यक्तिपरक इच्छाएँ, ये सभी सत्य के विपरीत होती हैं; इन चीजों के भीतर कोई समर्पण नहीं होता, केवल विरोध होता है, कोई सत्य या मानवता नहीं होती, केवल मानवीय भ्रष्ट स्वभाव और मानवीय भ्रांतियाँ और पाखंड होते हैं। ये चीजें अक्सर परमेश्वर के घर को छोड़ने और खुद को बुरी प्रवृत्तियों में डुबोने जैसे विचारों को जन्म देती हैं और किसी भी बिंदु पर उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर सकती हैं, “अगर मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है तो क्यों न परमेश्वर के घर को छोड़ दूँ? अगर ऐसी बात है तो मैं विश्वास करना या अपना कर्तव्य निभाना जारी नहीं रखूँगा। अगर परमेश्वर का घर मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार करता है तो मैं अब और यह स्वीकार नहीं करूँगा कि परमेश्वर है।” इस तरह की बेहद विद्रोही सोच, ये पाखंड और भ्रांतियाँ, ये दुष्ट विचार, अक्सर मसीह-विरोधी के दिल में मौजूद होते हैं और बने रहते हैं। यही कारण है कि भले ही वे परमेश्वर का अनुसरण करने के अपने मार्ग में आधे रास्ते में पीछे न हटें, उनके लिए अंत तक मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल होता है, और उनमें से अधिकांश को उनके द्वारा किए गए बहुत से बुरे कामों और उनके द्वारा पैदा की गई गड़बड़ी और बाधा के कारण कलीसिया से बहिष्कृत और निष्कासित कर दिया जाएगा। भले ही वे अंत तक खुद को बनाए रखने के लिए मजबूर कर लें, वास्तव में हम मसीह-विरोधी के प्रकृति सार से देख सकते हैं कि यह अपरिहार्य है कि वे कलीसिया से पीछे हट जाएँगे। वे शायद गहराई से यह भी सोचें, “मैं परमेश्वर के घर को बिल्कुल नहीं छोड़ सकता। भले ही मेरे मन में ऐसे विचार हों, मैं नहीं छोड़ सकता। मैं अपनी मृत्यु तक यहाँ रहूँगा। मैं परमेश्वर के घर से जुड़ा रहूँगा; मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करूँगा।” भले ही उनकी व्यक्तिपरक इच्छा उन्हें परमेश्वर के घर को न छोड़ने के लिए कैसे भी मजबूर करे, और वे कैसे भी जोर दें कि उन्हें अपनी व्यक्तिपरक इच्छा के अनुसार रहना चाहिए, अंततः उन्हें परमेश्वर द्वारा ठुकराया जाना और उनका अपनी इच्छा से परमेश्वर के घर को छोड़ना तय है, क्योंकि वे सत्य से विमुख हैं और मूल रूप से दुष्ट हैं।
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