मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं (खंड एक)

मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में आज की संगति बारहवें मद के बारे में है : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं। यह मद मसीह-विरोधियों के स्वभावों से भी संबंधित है और यह उनकी ठोस अभिव्यक्तियों में से एक है। सतही दृष्टिकोण से देखें तो यदि किसी मसीह-विरोधी के पास रुतबा नहीं होता और उसे आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं होती, तो वह पीछे हटना चाहेगा। एक बार जब वह इन दोनों चीजों को खो देता है, तो वह पीछे हटना चाहेगा। सतही अर्थ को समझना बहुत आसान लगता है—यह बहुत जटिल या अमूर्त नहीं लगता, लेकिन यहाँ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? दूसरे शब्दों में, किस तरह की परिस्थितियों के कारण कोई मसीह-विरोधी अपने रुतबे या आशीष पाने की उम्मीद पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण पीछे हटना चाहता है? क्या यह कुछ ऐसी चीज है जो गहन संगति के लायक है? यदि तुम लोगों से इस पर संगति साझा करने के लिए कहा जाए, तो तुम लोग इसके विशिष्ट विवरणों और अभिव्यक्तियों के बारे में क्या कहोगे? कुछ लोग कह सकते हैं, “हमने इस पर कई बार संगति की है। मसीह-विरोधियों को रुतबा और शक्ति पसंद है, वे उच्च प्रतिष्ठा का आनंद लेते हैं और आस्था रखने के पीछे उनका लक्ष्य आशीष प्राप्त करना, ताज पहनाया जाना और पुरस्कृत होना होता है। यदि उनकी ये आशाएँ धराशायी हो जाती हैं और खो जाती हैं, तो परमेश्वर में विश्वास को लेकर उनकी रुचि खत्म हो जाएगी और वे आगे से आस्था नहीं रखना चाहेंगे।” क्या इस पर तुम लोगों की संगति इन चंद शब्दों जितनी ही सरल होगी? (हाँ।) अगर ऐसा होता, अगर यह संगति इन चंद कथनों के साथ समाप्त हो पाती, तो मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों का यह पहलू इस लायक न होता कि हम मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों पर अपनी संगति की इस कड़ी में इसे एक अलग खंड दें, न ही यह किसी विशेष प्रकृति सार को छूता। लेकिन चूँकि इस मद का संबंध मसीह-विरोधियों के सार और स्वभाव से होने के साथ ही उनके व्यक्तिगत अनुसरणों और अस्तित्व संबंधी दृष्टिकोणों से है, तो फिर यह अवश्य ही एक बहुआयामी विषय होना चाहिए। तो, इसमें ठीक-ठीक क्या शामिल है? यानी, मसीह-विरोधियों का सामना ऐसे किन मामलों से होता है जिनका संबंध उनके रुतबे और आशीष पाने की उनकी आशा से होता है? इन मामलों के प्रति उनके दृष्टिकोण, विचार और रवैये क्या होते हैं? बेशक, इन मामलों पर हमारी संगति और विभिन्न मुद्दों पर मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोण को लेकर हमारी पिछली संगतियों में कुछ दोहराव देखने को मिलेगा लेकिन आज की संगति का केंद्र-बिंदु अलग है और यह इस मसले को एक अलग कोण से देखती है। आज हम विशेष रूप से उन अभिव्यक्तियों पर संगति करेंगे जो तब सामने आती हैं जब मसीह-विरोधी अपना रुतबा और आशीष पाने की उम्मीदें खो बैठते हैं, जिससे यह साबित हो सकता है कि मसीह-विरोधियों का अपने अनुसरण के पीछे एक गलत परिप्रेक्ष्य होता है और यह भी कि परमेश्वर में उनका विश्वास सच्चा नहीं है; ये अभिव्यक्तियाँ यह भी साबित कर सकती हैं कि इन लोगों में वास्तव में एक मसीह-विरोधी का सार होता है।

I. मसीह-विरोधियों का काट-छाँट किए जाने के प्रति रवैया

सबसे पहले हमें उन व्यवहारों पर एक नजर डालनी चाहिए जो मसीह-विरोधी तब प्रकट करते हैं जब उनकी काट-छाँट की जाती है, वे ऐसी स्थितियों से कैसे निपटते हैं, काट-छाँट के बारे में उनके रवैये, विचार और दृष्टिकोण क्या होते हैं, और विशेष रूप से वे क्या कहते और करते हैं—ये मामले हमारे गहन-विश्लेषण और विश्लेषण के योग्य हैं। हमने काट-छाँट से जुड़े विषयों पर काफी हद तक संगति की है; यह एक सामान्य विषय है जिससे तुम सभी परिचित हो। कई बार काट-छाँट किए जाने के बाद ही अधिकांश लोग अपने में कुछ परिवर्तन का अनुभव करते हैं—वे सत्य खोज सकते हैं और अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों के अनुसार मामलों को सँभाल सकते हैं, और केवल तभी उनकी आस्था नए सिरे से शुरू होती है और इसमें कुछ अच्छे बदलाव आते हैं। यह कहा जा सकता है कि कठोरता से काट-छाँट किए जाने का हर मामला हर व्यक्ति के दिल में अंकित हो जाता है; यह एक अमिट याद छोड़ता है। बेशक, कठोरता से काट-छाँट किए जाने का हर मामला मसीह-विरोधियों के लिए भी एक अमिट याद छोड़ता है, लेकिन इनमें अंतर कहाँ है? इस विषय में एक मसीह-विरोधी का दृष्टिकोण और विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, साथ ही उनके खयाल, दृष्टिकोण, विचार, और इस स्थिति से उत्पन्न होने वाली अन्य बातें, सभी एक सामान्य व्यक्ति से भिन्न होती हैं। जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो सबसे पहले वे उसका विरोध करते हैं और उसे दिल की गहराई से नकार देते हैं। वे उससे लड़ते हैं। और ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य से विमुख और उससे घृणा करने वाला होता है और वे सत्य जरा-भी नहीं स्वीकारते। स्वाभाविक-सी बात है कि एक मसीह-विरोधी का सार और स्वभाव उन्हें अपनी गलतियों को मानने या अपने भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकारने से रोकता है। इन दो तथ्यों के आधार पर, काट-छाँट किए जाने के प्रति एक मसीह-विरोधी का रवैया उसे पूरी तरह से नकारने और अवज्ञा करने का होता है। वे दिल की गहराइयों से इससे घृणा और इसका विरोध करते हैं, उनमें जरा-सा भी स्वीकृति या समर्पण का भाव नहीं होता, तो सच्चे आत्मचिंतन या पश्चात्ताप की तो बात ही दूर है। जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो चाहे यह किसने किया हो, चाहे यह किससे संबंधित हो, उस मामले के लिए वह किस हद तक जिम्मेदार हो, उसकी भूल कितनी स्पष्ट है, उसने कितनी बुराई की है या कलीसिया के कार्य के लिए उसकी बुराई से क्या परिणाम पैदा होते हैं—मसीह-विरोधी इनमें से किसी भी बात पर कोई विचार नहीं करता। एक मसीह-विरोधी के लिए, उसकी काट-छाँट करने वाला बस उसी के पीछे पड़ा है या जानबूझकर उसे सताने के लिए उसमें दोष ढूँढ़ रहा है। मसीह-विरोधी तो यह तक सोच सकता है कि उसे धमकाया और अपमानित किया जा रहा है, उसके साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा, उसे नीचा दिखाकर उसका उपहास किया जा रहा है। मसीह-विरोधी काट-छाँट के बाद भी, इस बात पर कभी विचार नहीं करते कि उन्होंने आखिर क्या गलती की है, उन्होंने क्या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया, और क्या उन्होंने उन सिद्धांतों की खोज की है, जिनके अनुसार उन्हें चलना चाहिए, क्या उन्होंने सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य किया या उस मामले में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कीं, जिनमें उनकी काट-छाँट की गई। वे इनमें से किसी की भी न तो जाँच या आत्म-चिंतन करते हैं, न ही इन मुद्दों पर वे सोच-विचार या मंथन करते हैं। बल्कि, वे अपनी इच्छा के अनुसार और उग्रता से काट-छाँट किए जाने से पेश आते हैं। जब भी किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो वह क्रोध, अवज्ञा और असंतोष से भर जाता है और किसी की सलाह नहीं मानता। वह अपनी काट-छाँट को स्वीकार नहीं पाता, वह अपने बारे में जानने और आत्म-चिंतन करने, और अनमना या अपना कर्तव्य निरंकुशता से करने जैसी सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाली हरकतों का समाधान करने के लिए कभी परमेश्वर के सामने नहीं आता, न ही वह इस अवसर का उपयोग अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए करता है। इसके बजाय, वह अपना बचाव करने के लिए, खुद को निर्दोष साबित करने के लिए बहाने ढूँढ़ता है, यहाँ तक कि वह कलह पैदा करने वाली बातें कहकर लोगों को उकसाता है। संक्षेप में, जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो उनकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ अवज्ञा, असंतोष, प्रतिरोध और अनादर की होती हैं, और उनके दिलों में कुछ शिकायतें उठती हैं : “मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई और इतना ज्यादा काम किया। भले ही मैंने कुछ चीजों में सिद्धांतों का पालन नहीं किया या सत्य की तलाश नहीं की, मैंने यह सब अपने लिए नहीं किया! भले ही मेरे कारण कलीसिया के काम को कुछ नुकसान पहुँचा हो, लेकिन मैंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया! कौन गलतियाँ नहीं करता? तुम मेरी गलतियों को पकड़कर मेरी कमजोरियों पर विचार किए बिना और मेरी मनोदशा या आत्म-सम्मान की परवाह किए बिना अंतहीन रूप से मेरी काट-छाँट नहीं कर सकते। परमेश्वर के घर में लोगों के लिए कोई प्रेम नहीं है और यह बहुत अन्यायपूर्ण है! इसके अलावा, तुम इतनी छोटी-सी गलती के लिए मेरी काट-छाँट करते हो—क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम मुझे प्रतिकूल नजरों से देखते हो और मुझे हटाना चाहते हो?” जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो उनके दिमाग में पहली बात यह नहीं आती कि वे अपनी गलती पर या उस भ्रष्ट स्वभाव पर आत्मचिंतन करें जो उन्होंने प्रकट किया है, बल्कि अटकलें लगाते हुए बहस करना, स्पष्टीकरण देना और खुद को सही ठहराना उनका ध्येय होता है। कैसी अटकलें? “मैंने परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए इतनी बड़ी कीमत इसलिए चुकाई है कि मेरी काट-छाँट की जाए। ऐसा लगता है कि मुझे आशीष मिलने की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर लोगों को पुरस्कृत नहीं करना चाहता, इसलिए वह लोगों को बेनकाब करने और उन्हें हटाने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल करता है? अगर आशीष मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं है, तो मैं कोई प्रयास क्यों करूँ? मैं कष्ट क्यों सहूँ? चूँकि आशीष मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं है, तो मुझे बिल्कुल भी विश्वास नहीं करना चाहिए! क्या परमेश्वर में विश्वास करने का उद्देश्य आशीष प्राप्त करना नहीं होता? अगर इसकी कोई उम्मीद नहीं है, तो मैं खुद को क्यों खपाऊँ? शायद मुझे बस विश्वास करना बंद कर देना चाहिए और बात खत्म कर देनी चाहिए? अगर मैं विश्वास नहीं करता, तो क्या तुम तब भी मेरी काट-छाँट कर सकते हो? अगर मैं विश्वास नहीं करता, तो तुम मेरी काट-छाँट नहीं कर सकते।” मसीह-विरोधी परमेश्वर की ओर से काट-छाँट किए जाने को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर पाते। वे उचित दृष्टिकोण और रवैये के जरिये स्वीकार और आज्ञापालन नहीं कर पाते। वे इसके माध्यम से आत्म-चिंतन नहीं कर पाते और अपने भ्रष्ट स्वभावों को नहीं समझ पाते ताकि उनके भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध किया जा सके। इसके बजाय, वे अपनी काट-छाँट के उद्देश्य को लेकर मतलबी और संकीर्ण मन से अटकलें लगाते और उसका अध्ययन करते रहते हैं। वे स्थिति के क्रमागत विकास को ध्यान से देखते रहते हैं, जब लोग बोलते हैं तो उनके लहजे को सुनते रहते हैं, जाँच-परख करते हैं कि उनके आस-पास के लोग उन्हें कैसे देखते हैं, वे उनसे कैसे बात करते हैं, और उनका रवैया कैसा है, और इन चीजों का उपयोग यह पुष्टि करने के लिए करते हैं कि क्या उन्हें आशीष मिलने की कोई उम्मीद है या वे वास्तव में बेनकाब करके हटाए गए हैं। काट-छाँट का एक साधारण-सा मामला मसीह-विरोधियों के दिलों में इतनी बड़ी उथल-पुथल और इतना चिंतन पैदा कर देता है। जब भी उनकी काट-छाँट की जाती है, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया घृणा की होती है, और अपने दिलों में वे इससे विमुख महसूस करते हैं, वे इसे अस्वीकार करते हैं, और इससे लड़ते हैं, फिर लोगों की भाषा और हाव-भाव की जाँच करते हैं, उसके बाद अटकलें लगाने लगते हैं। वे स्थिति में क्रमिक विकास को देखने के लिए अपने दिमाग, अपने विचार और अपनी क्षुद्र चतुराई को झोंक देते हैं, जाँच-परख करते हैं कि उनके आस-पास के लोग उन्हें कैसे देखते हैं, और अपने प्रति वरिष्ठ अगुआओं के रवैये को ध्यान से देखते हैं। इन चीजों से वे यह अनुमान लगाते हैं कि उन्हें अभी भी आशीष मिलने की कितनी उम्मीद है, क्या उन्हें आशीष मिलने की रत्ती भर भी उम्मीद है, या क्या वे वास्तव में बेनकाब करके हटा दिए गए हैं। मुश्किल स्थिति में फँसने पर मसीह-विरोधी फिर से परमेश्वर के वचनों पर शोध करना शुरू कर देते हैं, परमेश्वर के वचनों में एक सटीक आधार, आशा की एक किरण और जीवन रेखा खोजने की कोशिश करने लगते हैं। अगर उनकी काट-छाँट किए जाने के बाद कोई उन्हें दिलासा देता है और उनका समर्थन करता है और प्रेमपूर्ण हृदय से उनकी मदद करता है, तो ये चीजें उन्हें ऐसा महसूस कराती हैं कि मानो उन्हें अभी भी परमेश्वर के घर का सदस्य माना जाता है, उन्हें लगता है कि उनके आशीष पाने की आशा अभी भी है, कि उनकी आशा अभी भी मजबूत है, और वे पीछे हटने के किसी भी विचार को दूर कर देंगे। लेकिन स्थिति पलटने पर जब वे देखते हैं कि आशीष मिलने की उनकी उम्मीदें धूमिल और गायब हो गई हैं तो उनकी पहली प्रतिक्रिया होती है : “अगर मैं आशीष प्राप्त नहीं कर पाया तो मैं अब परमेश्वर में और विश्वास नहीं करूँगा। जिस किसी को परमेश्वर में विश्वास करना पसंद है, वह उस पर विश्वास कर सकता है, लेकिन मैं तुम्हारी काट-छाँट किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करूँगा और मेरी काट-छाँट करते समय तुम जो कुछ भी कहते हो, वह गलत है। मैं यह नहीं सुनना चाहता, मैं इसे सुनने के लिए तैयार नहीं हूँ और मैं काट-छाँट किए जाने को तब भी स्वीकार नहीं करूँगा, जब तुम कहोगे कि यह किसी व्यक्ति के लिए सबसे अधिक लाभकारी चीज है!” जब वे देखते हैं कि आशीष पाने की उनकी उम्मीदें धूमिल हो गई हैं, जब वे देखते हैं कि जिस रुतबे के पीछे वे लंबे समय से भाग रहे थे और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के सपने लगभग समाप्त और नष्ट होने वाले हैं, तो वे अपने अनुसरण के तरीके को बदलने या अपने लक्ष्यों को बदलने के बारे में नहीं सोचते, बल्कि वे छोड़ने और पीछे हटने के बारे में सोचते हैं, वे अब और परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहते और उन्हें लगता है कि अब उन्हें परमेश्वर पर अपने विश्वास में आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं बची है। मसीह-विरोधियों ने पहली बार परमेश्वर में विश्वास शुरू करते समय पुरस्कार, आशीष और मुकुट पाने को लेकर जो फंतासियाँ और उम्मीदें पाली थीं, अगर वे खत्म हो जाती हैं, तो परमेश्वर में विश्वास करने की उनकी प्रेरणा गायब हो जाती है, साथ ही परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और अपना कर्तव्य निभाने की उनकी प्रेरणा भी चली जाती है। जब उनकी प्रेरणा चली जाती है, तो वे अब कलीसिया में नहीं रहना चाहते, इस तरह से जैसे-तैसे आगे नहीं बढ़ना चाहते, और वे अपना कर्तव्य त्यागकर कलीसिया छोड़ देना चाहते हैं। जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है और उनका प्रकृति सार पूरी तरह से उजागर हो जाता है तो मसीह-विरोधी यही सोचते हैं। कुल मिलाकर, वे जो भी कहते हैं और जो भी करते हैं, दोनों में मसीह-विरोधी कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करते। सत्य को स्वीकार न करने का स्वभाव क्या होता है? क्या यह सत्य से विमुख होना नहीं है? बिल्कुल यही होता है। काट-छाँट किए जाने का सरल कार्य, अपने आप में, स्वीकार करने में काफी आसान होता है। एक तो काट-छाँट करने वाले व्यक्ति के मन में कोई दुर्भावना नहीं होती; दूसरे, यह निश्चित है कि जिन मामलों में मसीह-विरोधियों की काट-छाँट होती है उन मामलों के आधार पर देखें तो वे अवश्य ही परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं और सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध गए होंगे, उनके कार्य में कोई त्रुटि या चूक हुई होगी, जिसकी वजह से कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पड़ी होगी। उनकी मानवीय इच्छा में मिलावट के कारण, उनके भ्रष्ट स्वभाव के कारण उनकी काट-छाँट की जाती है, क्योंकि सत्य सिद्धांतों की समझ के अभाव के कारण वे मनमाने ढंग से कार्य करते हैं। यह एक बहुत ही सामान्य बात है। पूरी दुनिया में किसी भी बड़े संगठन, किसी भी समूह या कंपनी के नियम-विनियम होते हैं और जो कोई भी इन नियमों और विनियमों का उल्लंघन करता है, उसे दंडित करना और नियंत्रण में रखना चाहिए। यह पूरी तरह से सामान्य है और पूरी तरह से उचित है। लेकिन एक मसीह-विरोधी नियमों और विनियमों का उल्लंघन करने के परिणामस्वरूप उचित रूप से नियंत्रण में रखे जाने को यह मानता है कि दूसरे लोग उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं, उसे सता रहे हैं, उसमें दोष ढूँढ़ रहे हैं और उसके लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं। क्या यह सत्य को स्वीकार करने का रवैया है? बेशक नहीं है। सत्य स्वीकारने वाले रवैये के बिना क्या इस तरह के किसी व्यक्ति के लिए अपना कर्तव्य निभाते हुए गलतियाँ करने, गड़बड़ियाँ करने और बाधाएँ पैदा करने से बचना संभव है? निश्चित रूप से नहीं। क्या इस तरह का व्यक्ति कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त है? सही कहें तो वह उपयुक्त नहीं है। ऐसा होना मुश्किल है कि इस तरह का व्यक्ति किसी भी कार्य में सक्षम होगा।

कर्तव्य निभाना एक अवसर है जो परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों को इस प्रकार प्रदान करता है कि वे खुद को प्रशिक्षित कर सकें, लेकिन लोग इसे सँजोना नहीं जानते। इसके बजाय, जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे बेहद गुस्से में आ जाते हैं; वे इसे रोकने की जोरदार कोशिश करते हैं और इसके खिलाफ शोर मचाते हैं; वे उद्दंड और क्रुद्ध हो जाते हैं। मानो वे कोई संत हों जिन्होंने कभी गलती नहीं की है। भ्रष्ट मनुष्यों में ऐसा कौन है जो गलतियाँ नहीं करता? गलतियाँ करना बहुत ही सामान्य बात है। परमेश्वर का घर बस मौखिक रूप से तुम्हारी काट-छाँट कर रहा है, यह तुम्हें जिम्मेदार नहीं ठहरा रहा या तुम्हारी निंदा नहीं कर रहा, परमेश्वर का घर तुम्हें शाप तो बिल्कुल नहीं दे रहा। कभी-कभी यह बहुत कठोर हो सकता है, शब्द तीखे या अप्रिय लग सकते हैं और तुम्हारी भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है। जिन लोगों ने परमेश्वर के घर के वित्तीय मामलों या उपकरणों को नुकसान पहुँचाया है, उन्हें परमेश्वर का घर जुर्माना लगाकर या मुआवजा माँगकर अनुशासित करेगा—क्या इसे कठोरता कहेंगे? या क्या इसे उचित माना जा सकता है? तुमसे दोगुना मुआवजा नहीं माँगा जाता, न ही जबरन पैसे लिए जाते हैं, तुम्हें बस उतनी ही राशि चुकानी होती है जितना नुकसान हुआ है। क्या यह काफी उचित नहीं है? दुनिया के कुछ देशों में दिए जाने वाले जुर्माने से यह बहुत हल्का है। कुछ शहरों में सिर्फ जमीन पर थूकने या कागज का टुकड़ा फेंकने पर तुमसे भारी जुर्माना ले लिया जाता है। क्या तुम इसकी अवज्ञा कर सकते हो या जुर्माना भरने से इनकार कर सकते हो? अगर तुमने इनकार किया तो तुम्हें संभवतः जेल भेज दिया जाएगा और इससे भी कठोर कानूनी दंड लगाए जाएँगे। ऐसी ही व्यवस्था है। कुछ लोग इसे नहीं समझते और सोचते हैं कि परमेश्वर के घर द्वारा इस तरह से लोगों की काट-छाँट करना बहुत कठोर बात है और लोगों को इस तरह से नियंत्रित रखना बहुत सख्ती है। अगर ऐसे लोगों की काट-छाँट थोड़े कठोर तरीके से की जाए तो उनके अभिमान को ठेस लगती है और उनकी शैतानी प्रकृति भड़क जाती है, उन्हें लगता है कि यह बरदाश्त से बाहर है और यह उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती है। वे मानते हैं कि चूँकि यह परमेश्वर का घर है, इसलिए लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, कि परमेश्वर के घर को हर मामले में सहनशीलता और धैर्य बरतना चाहिए, और लोगों को मनमाना व्यवहार और मनचाहा काम करने देना चाहिए। उन्हें लगता है कि लोग जो कुछ भी करते हैं वह अच्छा है और परमेश्वर द्वारा उसे याद रखा जाना चाहिए। क्या यह उचित है? (नहीं।) लोगों में कौन-सा प्रकृति सार होता है? क्या वे वास्तव में मनुष्य हैं? इसे और अधिक सुरुचिपूर्ण ढंग से कहें तो वे शैतान और राक्षस हैं। इसे अधिक भद्दे ढंग से कहें तो वे जानवर हैं। लोग व्यवहार के नियम नहीं जानते, वे बहुत ही घटिया होने के साथ ही आलसी, आरामपरस्त होते हैं और कड़ी मेहनत से विमुख रहते हैं, और वे बुरे काम करते हुए अनियंत्रित हो जाना चाहते हैं। सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने वाले बहुत से लोग अपने साथ हमेशा सांसारिक दुनिया के सांसारिक आचरण के फलसफे, तरीके और बुरी प्रवृत्तियाँ लाना चाहते हैं। वे इन चीजों पर शोध करने, इन्हें सीखने और इनका अनुकरण करने में अपनी ऊर्जा भी लगाते हैं, और परिणामस्वरूप परमेश्वर के घर के कुछ कार्यों में अराजकता और उथल-पुथल तक पैदा कर देते हैं। यह सभी के लिए असहनीय होता है, और यहाँ तक कि आस्था में नए कुछ भाई-बहन कह देते हैं कि ये लोग पवित्र नहीं हैं, कि उनके कार्य-कलाप सांसारिक प्रवृत्तियों वाले हैं, और एक ईसाई के कार्य-कलापों की तरह कुछ भी नहीं हैं—ये नए विश्वासी भी इन लोगों के कार्य-कलापों को स्वीकार नहीं कर पाते। ये लोग थोड़ी कीमत चुकाते हैं, उनमें थोड़ा उत्साह होता है, और थोड़ी-सी प्रेरणा और सद्भावना होती है, और जो कुछ भी बकवास उन्होंने सीखी होती है वे उसे परमेश्वर के घर में ले आते हैं, और इसे अपने कर्तव्य और काम में लागू कर देते हैं, और परिणामस्वरूप वे कलीसिया के काम में विघ्न-बाधाएँ पैदा कर देते हैं और अंत में काट-छाँट का सामना करते हैं। कुछ लोग इसे नहीं समझते : “क्या परमेश्वर यह नहीं कहता कि वह लोगों के अच्छे कर्मों को याद रखेगा? तो फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए मुझे क्यों काट-छाँट का सामना करना पड़ रहा है? मैं इसे क्यों नहीं समझ सकता? परमेश्वर के वचन कैसे पूरे किए जा रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सभी सिर्फ खोखले, आडंबरपूर्ण वचन हों?” तो फिर तुम इस बात पर आत्म-चिंतन क्यों नहीं करते कि क्या तुम्हारे कार्य-कलाप अच्छे कर्म हैं जो याद रखे जाने लायक हैं? परमेश्वर ने तुमसे क्या अपेक्षा की है? तुमने जो कर्तव्य निभाया, जो कार्य किया और जो विचार और सुझाव दिए, क्या वे संतों की मर्यादा के अनुरूप हैं? क्या वे परमेश्वर के घर के आवश्यक मानकों के अनुसार हैं? क्या तुमने परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के नाम के बारे में सोचा है? क्या तुमने परमेश्वर के घर की प्रतिष्ठा का खयाल किया है? क्या तुमने संतों की मर्यादा का खयाल किया है? क्या तुम मानते हो कि तुम एक ईसाई हो? तुमने इनमें से किसी भी बात का खयाल नहीं किया है, तो फिर तुमने वास्तव में किया क्या है? क्या तुम्हारे कार्य-कलाप याद रखे जाने लायक हैं? तुमने कलीसिया के कार्य को खराब कर दिया और परमेश्वर के घर ने कर्तव्य निभाने की तुम्हारी पात्रता को रद्द किए बिना केवल तुम्हारी काट-छाँट की है। यही सबसे बड़ा प्रेम है, सबसे सच्चा प्रेम है। और फिर भी तुम नाराज होते हो। क्या तुम्हारे पास नाराज होने का कोई कारण है? तुम बेहद विवेकहीन हो!

कुछ लोग ऐसे हैं जो सिर्फ दो-तीन साल से परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हैं और उनके कार्य, उनके बात करने और हँसने का तरीका, और उनके द्वारा प्रकट दृष्टिकोण, और यहाँ तक कि दूसरों से बात करते समय उनके चेहरे की भाव-भंगिमाएँ भी अप्रिय होती हैं, और इससे दिखता है कि वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी और अविश्वासी हैं। इन लोगों को नियंत्रण में रखा जाना चाहिए, उनकी काट-छाँट की जानी चाहिए और उनके लिए नियम बनाए जाने चाहिए, ताकि वे जान सकें कि सामान्य मानवता क्या है, संतों जैसी मर्यादा क्या होती है, और एक ईसाई को कैसा होना चाहिए, और ताकि वे सीखें कि आचरण कैसे करना है, और मानव के समान कैसे रहें। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आठ या दस साल या उससे भी ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनके विचारों और दृष्टिकोणों, कथनी-करनी, चीजों को सँभालने के तरीके और चीजों का सामना होने पर उत्पन्न होने वाले उनके विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूरी तरह से अविश्वासी और छद्म-विश्वासी हैं। ये लोग काफी उपदेश सुन चुके होते हैं, और उनके पास कुछ अनुभव और अंतर्दृष्टि होती है; वे अपने भाई-बहनों के साथ काफी बातचीत कर चुके होते हैं और उनकी अपनी रोजमर्रा की भाषा होनी चाहिए, फिर भी उनमें से अधिकांश लोग गवाही नहीं दे पाते और जब वे बात करते हैं और अपने विचार व्यक्त करते हैं, तो उनकी भाषा अत्यंत तुच्छ होती है और वे कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं समझा पाते हैं। वे वास्तव में दरिद्र, दयनीय और अंधे होते हैं—उनके हाव-भाव स्पष्ट रूप से बहुत दयनीय होते हैं। जब ऐसा व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाता है और थोड़ी-सी जिम्मेदारी लेता है, तो उसकी हमेशा काट-छाँट की जाती है। यह अपरिहार्य है। ऐसे लोगों की काट-छाँट क्यों की जाएगी? ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके कार्य सत्य सिद्धांतों का बहुत अधिक उल्लंघन करते हैं; वे सामान्य लोगों जैसा जमीर और विवेक भी हासिल नहीं कर पाते, और वे अविश्वासियों की तरह बोलते और कार्य करते हैं, मानो किसी अविश्वासी को परमेश्वर के घर का कार्य करने के लिए रख लिया गया है। तो अपने कर्तव्य निर्वहन में इन लोगों के कार्य की गुणवत्ता कैसी होती है? इसका मूल्य क्या होता है? क्या उनका कोई हिस्सा समर्पित होता है? क्या उनके पास बहुत अधिक समस्याएँ नहीं हैं और वे केवल गड़बड़ करते और बाधाएँ ही डालते हैं? (बिल्कुल।) तो क्या इन लोगों की काट-छाँट नहीं होनी चाहिए? (होनी चाहिए।) कुछ लोग एक ईसाई के जीवन के बारे में पटकथाएँ लिखते हैं, कि कैसे नायक उत्पीड़न, कष्टों और विभिन्न स्थितियों से गुजरता है, और वह कैसे परमेश्वर के वचनों का अनुभव करता है। लेकिन पूरी कहानी के दौरान नायक शायद ही कभी प्रार्थना करता है और कभी-कभी जब किसी चीज का सामना होता है, तो वह यह भी नहीं जानता कि प्रार्थना में क्या कहना है। पहले कुछ लोग प्रार्थना के लिए एक ही घिसी-पिटी बात लिखते जाते थे; जब नायक किसी चीज का सामना करता था तो यही प्रार्थना करता था : “हे परमेश्वर, मैं अभी बहुत परेशान हूँ! मैं बहुत दुखी हूँ, बिल्कुल दुखी हूँ! कृपया मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।” वे बस कुछ इसी तरह के मामूली-से शब्द लिखते थे, लेकिन किसी अलग घटना, किसी अलग स्थिति और किसी अलग मनोदशा के दौरान नायक को पता नहीं होता था कि वह कैसे प्रार्थना करे और उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता था। इससे मुझे आश्चर्य होता है, अगर ये लोग अपने नायकों को समस्याओं में पड़ने पर प्रार्थना करते हुए नहीं दिखाते, तो क्या उन्हें खुद प्रार्थना करने की आदत होगी? यदि वे किसी समस्या का सामना करने पर प्रार्थना नहीं करते, तो भला वे अपने दैनिक जीवन और अपने कर्तव्य के पालन में किस पर भरोसा करते होंगे? वे किस बारे में सोच रहे होते हैं? क्या उनके दिल में परमेश्वर होता है? (उनके दिल में परमेश्वर नहीं होता है। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपनी सोच और खूबियों पर भरोसा करते हैं।) इसका नतीजा यह होता है कि उनकी काट-छाँट की जाती है। तुम लोगों को क्या लगता है कि मुझे इस मामले का मूल्यांकन कैसे करना चाहिए? ऐसे लोगों की काट-छाँट की जानी चाहिए। ये लोग जो प्रगति नहीं करते, जिनके पास दिमाग तो है लेकिन दिल नहीं है, वे वर्षों से विश्वासी हैं, फिर भी उन्हें नहीं पता कि किसी समस्या का सामना करने पर प्रार्थना में क्या कहना है; उनके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ नहीं है, न ही वे परमेश्वर पर भरोसा करने का तरीका जानते हैं और वे परमेश्वर के साथ दिल की बात नहीं करते। परमेश्वर ही वह है जो तुम्हारे सबसे करीब है, वही है जो तुम्हारे भरोसे और निर्भरता के सबसे योग्य है, फिर भी तुम्हारे पास उससे कहने के लिए एक भी बात नहीं है—तो फिर तुम अपने अंतरतम विचार किसके लिए बचाकर रख रहे हो? ये विचार चाहे जिसके लिए रखे हों, अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ नहीं है तो तुम किस तरह के इंसान हो? क्या तुम एक ऐसे इंसान नहीं हो जो इंसानियत से सबसे अधिक रहित है? यदि पटकथा यह नहीं बताती कि नायक की मानवता कैसी है, विश्वासी के रूप में उसका जीवन कैसा है और वह कैसे परमेश्वर के वचनों का अनुभव करता है, इत्यादि, यदि यह पटकथा केवल एक खोखला आवरण है तो फिर तुम इस फिल्म को बनाकर लोगों को क्या दिखाना चाहते हो? तुम जो पटकथा लिख रहे हो, उसका क्या उपयोग है? तुम परमेश्वर की गवाही दे रहे हो या अपने पास मौजूद थोड़े-से ज्ञान और शिक्षा की गवाही दे रहे हो? परमेश्वर की गवाही के लिए सबसे अच्छा ठोस सबूत यह है कि कोई व्यक्ति कैसे प्रार्थना करता है और कैसे खोजता है, और जब उसके साथ कुछ घटित होता है या जब वह कठिनाइयों में पड़ता है तो उसके विचार, रवैया, दृष्टिकोण और परमेश्वर के बारे में उसके विचार कैसे बदलते हैं। दुर्भाग्य से, कुछ लोगों को इसके बारे में कोई समझ ही नहीं है। वे कई वर्षों की आस्था के बाद भी प्रार्थना करना नहीं जानते—इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उन्होंने अभी भी प्रगति नहीं की है। उनके पेशेवर कौशल में सुधार नहीं हुआ है और उन्होंने अपने जीवन प्रवेश में कोई प्रगति नहीं की है। क्या ऐसे लोगों की काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए? और इसीलिए लोगों की काट-छाँट करने का एक कारण होता है। यदि तुम लोग काट-छाँट स्वीकार करने से इनकार करते हो, या यदि तुम्हारी काट-छाँट नहीं की जाती, तो इसका नतीजा और तुम्हारा परिणाम खतरनाक होगा। तुम भाग्यशाली हो कि अब तुम्हारे पास काट-छाँट और अनुशासित करने वाले लोग हैं। यह ऐसी अद्भुत, लाभकारी चीज है जिसे मसीह-विरोधी स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें लगता है कि जब उनकी काट-छाँट होती है, तो इसका मतलब है कि उनका काम तमाम हो गया है, कि अब उनके पास कोई उम्मीद नहीं बची है, कि वे देख सकते हैं कि उनका परिणाम क्या होगा। उन्हें लगता है कि काट-छाँट किया जाना बताता है कि अब उनका कोई महत्व नहीं है, और अब वे ऊपरवाले के पसंदीदा नहीं रहे और संभावना है कि उन्हें हटा दिया जाएगा। फिर वे अपनी आस्था में प्रेरणा खो देते हैं और दुनिया में जाकर बहुत सारा पैसा कमाने, सांसारिक प्रवृत्तियों को अपनाने, खाने-पीने और मौज करने की योजनाएँ बनाने लगते हैं, और उनकी योजनाएँ सामने आने लगती हैं। इससे वे खतरे में पड़ जाते हैं और उनका अगला कदम उन्हें दहलीज लाँघने और परमेश्वर के घर से दूर जाने के लिए अग्रसर करेगा।

जब किसी मसीह-विरोधी के पास परमेश्वर के घर में रुतबा और शक्ति होती है, जब वह हर मोड़ पर फायदा उठाकर लाभ ले सकता है, जब लोग उसका सम्मान और उसकी चापलूसी करते हैं और जब उसे आशीष और पुरस्कार और एक सुंदर गंतव्य सभी अपनी पहुँच में दिखते हैं, तो ऊपरी तौर पर लगता है कि वह परमेश्वर में, परमेश्वर के वचनों में और मानवजाति से उसके वादों में और परमेश्वर के घर के कार्य और संभावनाओं में आस्था से लबालब है। लेकिन जैसे ही उसकी काट-छाँट की जाती है, जब आशीष की उसकी इच्छा खतरे में पड़ जाती है, तो वह परमेश्वर के प्रति संदेह और गलतफहमी विकसित कर लेता है। पलक झपकते ही उसकी तथाकथित प्रचुर आस्था गायब हो जाती है, और फिर कहीं नहीं दिखती। वह चलने या बात करने के लिए भी मुश्किल से ही ऊर्जा जुटा पाता है, वह अपना कर्तव्य निभाने में रुचि खो देता है और वह सारा उत्साह, प्रेम और आस्था खो बैठता है। उसमें जो थोड़ी-बहुत सद्भावना थी वह उसे भी खो देता है और वह उन लोगों पर ध्यान नहीं देता जो उससे बात करते हैं। वह एक पल में ही पूरी तरह से अलग व्यक्ति बन जाता है। वह बेनकाब हो जाता है, है न? जब ऐसा व्यक्ति आशीष पाने की अपनी उम्मीदों पर टिका रहता है, तो ऐसा लगता है कि उसके पास असीम ऊर्जा है, वह परमेश्वर के प्रति वफादार है। वह सुबह जल्दी उठ सकता है और देर रात तक काम कर सकता है, और कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम है। लेकिन जब वह आशीष पाने की उम्मीद खो देता है, तो वह एक पिचके हुए गुब्बारे की तरह निराश हो जाता है। वह अपनी योजनाएँ बदलना चाहता है, दूसरा रास्ता ढूँढ़ना चाहता है और परमेश्वर में अपनी आस्था त्याग देना चाहता है। वह परमेश्वर से हतोत्साहित और निराश हो जाता है, और शिकायतों से भर जाता है। क्या यह किसी ऐसे व्यक्ति की अभिव्यक्ति है जो सत्य का अनुसरण और उससे प्रेम करता है, किसी ऐसे व्यक्ति की जिसमें मानवता और सत्यनिष्ठा है? (नहीं।) वह खतरे में है। जब तुम लोग इस तरह के व्यक्ति से मिलते हो, अगर वह सेवा करने में सक्षम है, तो उसकी काट-छाँट करते समय भले बने रहो और उनकी प्रशंसा करने के लिए कुछ अच्छे लगने वाले शब्द ढूँढ़ो। उसकी चापलूसी करो और उसे गुब्बारे की तरह फुलाओ और फिर उसके कदमों में स्फूर्ति आ जाएगी। तुम कुछ इस तरह की बातें कह सकते हो, “तुम बहुत धन्य हो, तुम्हारी आँखों में चमक है और मैं देख सकता हूँ कि तुम्हारे भीतर असीम ऊर्जा है, और तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के घर में एक मुख्य आधार रहोगे। परमेश्वर का राज्य तुम्हारे बिना कभी नहीं हो सकता, और तुम्हारे बिना परमेश्वर के घर के कार्य का नुकसान होगा। लेकिन तुममें बस एक छोटी-सी खामी है। तुम थोड़े प्रयास से इसे दूर कर सकते हो और एक बार जब यह ठीक हो जाएगा तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, फिर सबसे बड़ा ताज निश्चित रूप से तुम्हारा होगा।” जब ऐसा कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है, तो तुम उसके सामने ही उसकी काट-छाँट कर सकते हो। तुम्हें ऐसा कैसे करना चाहिए? बस यह कहो, “तुम बहुत होशियार हो। तुम इतनी बुनियादी गलती कैसे कर सकते हो? ऐसा नहीं होना चाहिए था! तुममें सबसे अच्छी काबिलियत है और तुम हमारी टीम में सबसे शिक्षित हो, और तुम हमारे बीच सबसे अधिक प्रतिष्ठित हो। तुम्हें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए थी—कितनी शर्मनाक बात है! इस बात का ध्यान रखो कि तुम ऐसी गलती दोबारा न करो, नहीं तो यह निश्चित रूप से परमेश्वर को ठेस पहुँचाएगी। अगर तुम दोबारा ऐसा करोगे, तो इससे तुम्हारी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचेगा। मैं यह सबके सामने तुमसे नहीं कहूँगा—मैं तुम्हें इसके बारे में गुप्त रूप से बता रहा हूँ ताकि भाई-बहनों को तुम्हारे बारे में इसकी हवा न लगे। मैं बस यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा हूँ कि तुम्हारी बेइज्जती न हो और तुम्हारी भावनाओं की कद्र हो, है न? देख लो, क्या परमेश्वर का घर प्रेमपूर्ण नहीं है?” फिर वे कहते हैं, “हाँ।” “तो फिर आगे क्या है?” और वे जवाब देंगे, “अच्छा काम करते रहो!” तुम्हारा उनके साथ इस तरह का व्यवहार करने के बारे में क्या खयाल है? उस तरह का व्यक्ति केवल मेहनत करके आशीष प्राप्त करना चाहता है, वह कभी भी अपने शब्दों या कार्यों में सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं करता, और वह सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता। वह कभी इस बारे में नहीं सोचता कि वह जो कहता है वह कहना चाहिए या नहीं, जो करता है वह करना चाहिए या नहीं, न ही वह जो करता है उसके दुष्परिणामों पर विचार करता है, न ही वह प्रार्थना, सोच-विचार, खोज या संगति करता है। वह बस अपने विचारों के अनुसार काम करता है, वह जो चाहता है वह करता है। जब कोई व्यक्ति अपनी किसी बात या कार्य से उसके अभिमान या हितों को नुकसान पहुँचाता है, उसकी खामियों या समस्याओं को उजागर करता है, या उसे कोई उचित सुझाव देता है, तो वह क्रोध से भर जाता है, द्वेष रखने लगता है और बदला लेना चाहता है, और अधिक गंभीर मामलों में वह अपनी आस्था त्याग कर कलीसिया के बारे में बड़े लाल अजगर को रिपोर्ट करना चाहता है। हमारे पास इस तरह के व्यक्ति से निपटने का एक तरीका है, यानी उनकी काट-छाँट से बचना चाहिए और इसके बजाय उनसे लाड़-प्यार से पेश आना चाहिए।

हमने अभी इस बारे में संगति की है कि कैसे जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो वे इसे हमेशा आशीष पाने की अपनी आशाओं से जोड़कर देखते हैं। यह रवैया और नजरिया गलत है, यह खतरनाक है। जब कोई मसीह-विरोधियों की खामियों या समस्याओं की ओर इशारा करता है, तो उन्हें लगता है कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है; और जब उनकी काट-छाँट की जाती है, या उन्हें अनुशासित किया जाता है या निंदा की जाती है, तो भी उन्हें यह लगता है कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है। जैसे ही कोई चीज उनके मन-मुताबिक या उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती, जैसे ही उन्हें उजागर कर उनकी काट-छाँट की जाती है, तो यह महसूस करते हुए कि उनके आत्मसम्मान को झटका लगा है, उनके विचार फौरन इस दिशा में चले जाते हैं कि आशीष पाने की उनकी उम्मीद अब बची है या नहीं। क्या यह उनका अत्यधिक संवेदनशील होना नहीं है? क्या वे आशीष पाने के लिए बहुत ज्यादा इच्छुक नहीं होते? मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग दयनीय नहीं हैं? (हैं।) वे वास्तव में दयनीय हैं! और वे किस प्रकार दयनीय हैं? क्या किसी का आशीष पा सकना, उनकी काट-छाँट किए जाने से संबंधित है? (नहीं।) यह उससे संबंधित नहीं है। तो फिर, जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो वे यह क्यों महसूस करते हैं कि आशीष पाने की उनकी आशा खो गई है? क्या इसका उनकी खोज से कोई लेना-देना नहीं है? वे क्या खोजते हैं? (आशीष पाना।) वे आशीष पाने की अपनी इच्छा और इरादा कभी नहीं छोड़ते। परमेश्वर पर अपने विश्वास की शुरुआत से ही उनका आशीष पाने का इरादा रहा है, और हालाँकि उन्होंने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, पर उन्होंने सत्य कभी नहीं स्वीकारा। उन्होंने आशीष पाने की अपनी इच्छा और इरादा कभी नहीं छोड़ा है। उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास के बारे में अपने विचार नहीं सुधारे या बदले, और अपना कर्तव्य करने में उनका इरादा शुद्ध नहीं हुआ है। वे हमेशा आशीष पाने की अपनी आशा और इरादा बनाए रखकर ही सब-कुछ करते हैं, और अंत में, जब आशीष पाने की उनकी आशाएँ चूर-चूर होने वाली होती हैं, तो वे क्रोध से भड़क उठते हैं, कटु शिकायत करते हैं, और अंत में परमेश्वर पर संदेह करने और सत्य को नकारने की घिनौनी दशा प्रकट कर देते हैं। क्या वे मौत को बुलावा नहीं दे रहे? मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य को जरा भी न स्वीकारने, काट-छाँट को न स्वीकारने का यह अपरिहार्य परिणाम है। परमेश्वर के कार्य के अपने अनुभव में, परमेश्वर के सभी चुने हुए लोग जान सकते हैं कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना, और उसकी काट-छाँट उसका प्रेम और आशीष हैं—लेकिन मसीह-विरोधी मानते हैं कि यह केवल लोगों की लफ्फाजी है, वे विश्वास नहीं करते कि यह सत्य है। इसलिए, वे काट-छाँट को सीखे जाने वाले सबक नहीं मानते, न ही वे सत्य की तलाश या आत्मचिंतन करते हैं। इसके विपरीत, उनका मानना होता है कि काट-छाँट इंसानी इच्छा से उपजती है, कि यह जानबूझकर किया जाने वाला, इंसानी इरादों से भरा उत्पीड़न और यंत्रणा है, और निश्चित रूप से इन्हें परमेश्वर द्वारा नहीं किया जाता। वे इन चीजों का विरोध और उनकी अवहेलना करने का चुनाव करते हैं, यहाँ तक कि वे यह अध्ययन भी करते हैं कि कोई उनके साथ ऐसा बरताव क्यों करेगा। वे बिल्कुल भी समर्पण नहीं करते। वे अपने कर्तव्य के निर्वहन में होने वाली हर घटना को आशीष और पुरस्कार पाने से जोड़ते हैं, और वे आशीष पाने को अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण खोज के साथ-साथ परमेश्वर पर अपने विश्वास का अंतिम और परम लक्ष्य मानते हैं। वे जीवन भर आशीष पाने के अपने इरादे से चिपके रहते हैं, फिर चाहे परमेश्वर का परिवार सत्य के बारे में कैसी भी संगति क्यों न करे, वे यह सोचकर उसे नहीं छोड़ते कि अगर परमेश्वर पर विश्वास आशीष पाने के लिए नहीं है, तो वह पागलपन और मूर्खता है, बहुत बड़ा नुकसान है। उन्हें लगता है कि जो कोई भी आशीष पाने का इरादा छोड़ता है, उसे धोखा दिया गया है, कोई मूर्ख ही आशीष पाने की आशा छोड़ेगा, और काट-छाँट स्वीकारना मूर्खता और अक्षमता का प्रदर्शन है, कोई चतुर इंसान ऐसा नहीं करेगा। यह किसी मसीह-विरोधी की सोच और तर्क होता है। इसलिए, जब किसी मसीह-विरोधी की काट-छाँट की जाती है, तो वह दिल से बहुत प्रतिरोधी हो जाता है, कपट और ढोंग में माहिर हो जाता है; वह सत्य जरा भी नहीं स्वीकारता, न ही वह समर्पण करता है। इसके बजाय, वह अवज्ञा और हठधर्मिता से भर जाता है। यह परमेश्वर का विरोध करने, परमेश्वर की आलोचना करने, परमेश्वर के विरुद्ध लड़ने, और अंत में, बेनकाब कर हटाए जाने की ओर ले जा सकता है।

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