मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं (खंड दो)
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की परिभाषाएँ और उनकी नियुक्ति के कारण
अब इसके बाद चलो हम दूसरी श्रेणी के बारे में बात करें : वे लोग जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्य करते हैं। वैसे इनकी संख्या कम है, लेकिन ऐसे लोग अपने कार्य की प्रकृति के लिहाज से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्यों में कई सत्य भी निहित होते हैं—इन सत्यों की संख्या सुसमाचार प्रचार करने से भी ज्यादा है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? इन कर्तव्यों का दायरा बहुत विस्तृत है। इन कर्तव्यों का एक पहलू सुसमाचार कार्य को बाहरी तौर पर फैलाना है और दूसरा पहलू आंतरिक तौर पर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सींचना और उनकी आपूर्ति करना, कलीसियाई जीवन का अच्छी तरह से प्रबंधन करना और साथ ही, कलीसिया के मामले सँभालना और सभी तरह की समस्याओं को हल करना भी है। इसका मतलब यह है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा सत्य समझने चाहिए और अभ्यास के कुछ सिद्धांतों के संबंध में उनसे ज्यादा कड़ी माँगें की जाती हैं और परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता ज्यादा घनिष्ठ होना चाहिए। अगुआ या कार्यकर्ता होने में सत्य के अलग-अलग पहलुओं का अभ्यास करना और उनमें प्रवेश करना, लोगों द्वारा चुने गए रास्ते और साथ ही कई और पहलू भी शामिल हैं। सुसमाचार प्रचार करने का कर्तव्य करने की तुलना में अगुआ या कार्यकर्ता होना जीवन प्रवेश से ज्यादा घनिष्ठता से संबंधित है और इसके लिए स्वभाव में बदलाव लाने की भी जरूरत पड़ती है। इसका मतलब है कि अगुआओं का कार्य अच्छी तरह से कैसे किया जाए इससे संबंधित अलग-अलग सत्यों की संख्या ज्यादा है और उनका दायरा ज्यादा व्यापक है। फिर भी, चाहे इनकी संख्या कितनी भी हो, ये अभी भी कई मुख्य विषयों के अंतर्गत ही आते हैं, इसलिए चलो, एक-एक मद, एक-एक बिंदु के बारे में जानें और फिर धीरे-धीरे तुम उन्हें समझने लगोगे। आओ, हम चर्चा की शुरूआत अगुआओं और कार्यकर्ताओं की परिभाषा के बारे में बात से करें। उन्हें परिभाषित करना क्यों जरूरी है? किसी चीज की परिभाषा उस चीज की स्थिति निर्धारित करने के बराबर है, यानी, इससे लोगों को इन कर्तव्यों की जिम्मेदारियों की प्रकृति और दायरे के साथ-साथ उन लोगों की पदवियों के बारे में—दूसरे शब्दों में उन्हें क्या कहकर बुलाना है इस बारे में—पता चलता है। इन कर्तव्यों को सटीकता से परिभाषित करके लोग अपने मन में इस बारे में स्पष्टता हासिल कर सकते हैं कि इस श्रेणी के लोगों को लेकर परमेश्वर के मन में क्या स्थिति है, वह उनसे किस चीज की माँग करता है और उनके द्वारा इन कर्तव्यों को करने के लिए उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं, उन्हें कौन-सा रास्ता अपनाना चाहिए और किन सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए। चाहे वे जवान हों या बूढ़े, चाहे उच्च और कुलीन दर्जे के हों या निचले और क्षुद्र दर्जे के और चाहे किसी भी पृष्ठभूमि से हों, परमेश्वर के पास ऐसे लोगों के लिए जरूरी मानक हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे कुछ सत्य हैं जिन्हें ऐसे कर्तव्य करने वाले लोगों को जरूर समझना चाहिए; ऐसे कुछ सत्य सिद्धांत हैं जिनकी समझ हासिल करके उन्हें उनका अभ्यास करना चाहिए और एक ऐसा खास रास्ता है जिस पर उन्हें चलना चाहिए। तो, अगुआई और कार्य करने के लिए परमेश्वर के अनुयायियों में से चुने गए लोगों को आम तौर पर कैसे परिभाषित किया जाता है? सटीक परिभाषा क्या है? लोग इसकी परिभाषा क्या मानते हैं? और ऐसे लोगों की दूसरों के दिलों में सटीक रूप से क्या जगह होती है? क्या यह ऐसे लोगों की पहचान और रुतबे को परिभाषित करने से संबंधित नहीं है? अन्य लोग इस समूह के लोगों को अपने दिलों में क्या जगह देते हैं? क्या प्रेरितों के रूप में? नहीं। क्या शिष्यों के रूप में? शिष्य के रूप में भी नहीं। क्या ऐसा कोई है जो उन्हें चरवाहे कहकर बुलाता है? (हाँ।) क्या “चरवाहे” उचित पदवी है? (नहीं है।) क्यों नहीं है? (यह गलत दर्जा है।) क्या लोगों में चरवाहों की भूमिका निभाने की क्षमता होती है? (नहीं।) वे प्रेरित या शिष्य नहीं हैं और उन्हें “चरवाहे” बुलाना भी उचित नहीं है तो ऐसे कर्तव्य करने वाले लोगों के लिए सबसे उचित नाम क्या है? ज्यादा उचित शब्द क्या है? (पहरेदार।) क्या “पहरेदार” उचित है? मुझे इस पदवी और “चरवाहे” में कोई अंतर नजर नहीं आ रहा है। यह सुनने में शानदार लगता है, लेकिन ये लोग जो कार्य करते हैं वह बहुत ही मामूली है। इनमें से कोई भी पदवी उचित नहीं है। तो, ये लोग जो कर्तव्य करते हैं उनकी प्रकृति के आधार पर, इससे ज्यादा उपयुक्त नाम और परिभाषा क्या है? ऐसे लोगों को परिभाषित करने के क्या सिद्धांत हैं? परिभाषा इनके कार्य की प्रकृति के साथ-साथ इनकी पहचान और रुतबे से मेल खानी चाहिए और यह बिल्कुल सही होनी चाहिए और अत्यधिक शानदार नहीं होनी चाहिए। अगर हम इन लोगों को “प्रेरितों” के तौर पर परिभाषित करें तो क्या यह बहुत ही आडंबरपूर्ण होगा? (हाँ।) और, “पहरेदार” के बारे में क्या ख्याल है? (यह तो उससे भी ज्यादा आडंबरपूर्ण है।) क्या तुममें दूसरों पर निगरानी रखने की क्षमता है? अगर नहीं है तो फिर तुम पहरेदार नहीं हो। “चरवाहों” के बारे में क्या कहते हो? “चरवाहे” किन्हें कहते हैं? (वे लोग जो झुंड की देखभाल करते हैं।) यह उन लोगों के बारे में है जो भेड़ों के झुंड की देखभाल करते हैं और उनपर निगरानी रखते हैं। दरअसल, यह नाम इस समूह के लिए सही बैठता है, ठीक उनके कार्य की प्रकृति पर आधारित है। लेकिन, आजकल लोग कितना बीड़ा उठा सकते हैं, क्या हासिल कर सकते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभाव को देखते हुए, क्या “चरवाहे” पदवी उचित है? (नहीं।) यह थोड़ा-सा आडंबरपूर्ण है। उनमें इसकी क्षमता नहीं है और ना ही यह उस कार्य की प्रकृति या दायरे से मेल खाता है जिसे आजकल लोग करते हैं। जाहिर है, यह पदवी उनके लिए उपयुक्त नहीं है। तो फिर, इस श्रेणी के लोगों को परिभाषित करने का सबसे उचित तरीका क्या है? (अगुआओं और कार्यकर्ताओं के तौर पर।) यह वाक्यांश ज्यादा उचित है।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की श्रेणी के लोगों के उद्भव के पीछे क्या कारण है? उनका उद्भव कैसे हुआ? एक विराट स्तर पर, परमेश्वर के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, जबकि अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर, कलीसिया के कार्य के लिए उनकी आवश्यकता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी आवश्यकता है। चाहे उनकी पहचान या रुतबा कुछ भी हो और चाहे वे कोई भी भूमिका निभा रहे हों, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साधारण सदस्यों के समान हैं; परमेश्वर के सामने उनकी पहचान और रुतबा एक जैसा है। हालाँकि कलीसिया में “अगुआ” और “कार्यकर्ता” जैसे शब्द मौजूद हैं और हालाँकि ये व्यक्ति “अगुआ” और “कार्यकर्ता” हैं जो अपने भाइयों और बहनों के कर्तव्यों से अलग कर्तव्य करते हैं, लेकिन परमेश्वर के सामने उनके “सृजित प्राणी” की पदवी अभी भी वही है; यह पहचान नहीं बदलेगी। अगुआओं और कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साधारण सदस्यों के बीच बस उनके द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों के एक विशिष्ट गुण का अंतर होता है। यह विशिष्ट गुण खास तौर पर उनकी अगुआई की भूमिका में दिखता है। उदाहरण के लिए, किसी कलीसिया में कितने भी लोग हों, अगुआ ही मुखिया होता है। तो यह अगुआ सदस्यों के बीच क्या भूमिका निभाता है? वह कलीसिया में परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों की अगुआई करता है। संपूर्ण कलीसिया पर उसका क्या प्रभाव होता है? अगर यह अगुआ गलत रास्ते पर चलता है तो कलीसिया में मौजूद सभी लोग उसके पीछे-पीछे गलत रास्ते पर चलने लगेंगे, जिसका कलीसिया में परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों पर बहुत बड़ा असर पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर पौलुस को लो। उसने अपने द्वारा स्थापित कई कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई की थी। जब पौलुस भटक गया तो उसकी अगुआई वाली कलीसियाएँ और परमेश्वर के चुने हुए लोग भी भटक गए। इसलिए, जब अगुआ अपने ही किसी अलग रास्ते पर चलने लगते हैं तो सिर्फ वे खुद ही नहीं, बल्कि वे जिन कलीसियाओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करते हैं, वे भी प्रभावित होते हैं। अगर अगुआ सही व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति जो सही मार्ग पर चल रहा है और सत्य का अनुसरण और अभ्यास करता है तो उसकी अगुआई में चल रहे लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचन खाएँगे और पीएँगे और सामान्य रूप से सत्य का अनुसरण करेंगे और, साथ ही साथ, अगुआ का जीवन अनुभव और प्रगति दूसरों को दिखाई देगी और उन पर असर डालेगी। तो, वह सही मार्ग क्या है जिस पर अगुआ को चलना चाहिए? यह है दूसरों को सत्य की समझ और सत्य में प्रवेश की ओर ले जाने और दूसरों को परमेश्वर के समक्ष ले जाने में समर्थ होना। गलत मार्ग क्या है? यह है बार-बार प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि तथा लाभ के पीछे भागना, अपनी खूबियों का प्रदर्शन करना और अपनी गवाही देना और कभी भी परमेश्वर की गवाही न देना। इसका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? (यह उन्हें अपने सामने लाता है।) वे लोग भटककर परमेश्वर से दूर चले जाएँगे और इस अगुआ के नियंत्रण में आ जाएँगे। अगर तुम लोगों को अपने समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करते हो तो तुम उन्हें एक भ्रष्ट इंसान के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो, और तुम उन्हें परमेश्वर के समक्ष नहीं, शैतान के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई कर रहे हो। लोगों को सत्य के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना ही उन्हें परमेश्वर के समक्ष ले आने के लिए उनकी अगुआई करना है। अगुआ और कार्यकर्ता चाहे सही मार्ग पर चलें या गलत मार्ग पर, उनका परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। जब परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने सत्य नहीं समझा होता है तो उनमें से ज्यादातर आँखें मूँदे अनुसरण करते हैं। उनका अगुआ भला हुआ तो वे उसका अनुसरण करेंगे; उनका अगुआ बुरा हुआ तो भी वे उसका अनुसरण करेंगे—वे भेद नहीं करते। जैसी अगुआई होती है, वे उसी प्रकार अनुसरण करते हैं, चाहे अगुआ कोई भी हो। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि कलीसियाएँ अच्छे लोगों को अपना अगुआ चुनें। परमेश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति किस मार्ग पर चलता है, इसका सीधा संबंध उस मार्ग से होता है जिस पर उनके अगुआ चलते हैं और वे उन अगुआओं तथा कार्यकर्ताओं द्वारा अलग-अलग मात्राओं में प्रभावित हो सकते हैं। आओ, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्यों में शामिल विभिन्न सत्य पर इन दो दिशाओं में संगति करते हुए शुरू करें—एक तरफ सही मार्ग और दूसरी तरफ गलत मार्ग। इनमें से पहले हमें किसके बारे में संगति करनी चाहिए? (गलत मार्ग के बारे में।) तुमने इसे क्यों चुना? सही मार्ग पर चर्चा करना बेहतर है या गलत मार्ग पर? (गलत मार्ग पर।) दरअसल दोनों ही सही हैं—लेकिन हम चर्चा के लिए किसे पहले चुनते हैं इससे एक अलग प्रभाव पड़ेगा। अगर हम गलत मार्ग पर चर्चा से शुरू करते हैं, तो लोग गलत मार्ग में से सही मार्ग के बारे में और पता लगा सकते हैं और कई निष्क्रिय और नकारात्मक चीजों या ज्ञान का भी पता लगा सकते हैं, जिसका उपयोग वे खुद को धिक्कारने के लिए कर सकते हैं। वे इससे कुछ सकारात्मक प्राप्त कर सकते हैं और फिर अगर हम सही मार्ग पर चर्चा करते हैं तो लोग गहरे स्तर पर और ज्यादा तेजी से यह समझने में सक्षम होंगे कि क्या सकारात्मक है। मूल रूप से, यह तरीका व्यवहार्य है और यह लोगों के लिए लाभकारी है। तो, गलत मार्ग पर चर्चा करने से शुरुआत करते हैं।
मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकें
जब एक बार कोई व्यक्ति अगुआ या कार्यकर्ता के तौर पर चुन लिया जाता है और वह अपने कर्तव्य करना शुरू कर देता है तो क्या उसे एक खास आचरण अपनाना चाहिए? कुछ लोग पूछते हैं, “कैसा आचरण? क्या उन्हें बादलों पर चढ़ जाना चाहिए या हवा और बारिश को काबू करना चाहिए?” इनमें से कोई भी सही नहीं है। हालाँकि, उन्हें बादलों पर नहीं चढ़ना चाहिए और ना ही हवा और बारिश को नियंत्रित करना चाहिए और बेशक उन्हें छतों पर चढ़कर चीखना-चिल्लाना नहीं चाहिए, लेकिन भ्रष्ट स्वभाव और शैतान का सार वाला भ्रष्ट इंसान होने के नाते, ऐसे मौकों पर हर व्यक्ति अपने अंदर एक भयंकर शक्ति की मौजूदगी का अनुभव जरूर करता है। इन सब में ऊँची महत्वाकांक्षाएँ हैं और वे अपने पेशे में सफल होने, अपने कौशल का दिखावा करने, सबका ध्यान आकर्षित करने और जी-जान से कोशिश करने की प्रेरणा महसूस करते हैं। चलो, अभी के लिए हम इस पर चर्चा नहीं करते हैं कि क्या इस तरह की प्रेरणा सही है या गलत। जब किसी व्यक्ति को अगुआ या कार्यकर्ता के तौर पर चुना जाता है तो वह अपने दिल की गहराई में बहुत ही जटिल भावनाएँ रखने लगता है। जटिल से मेरा क्या मतलब है? कुछ लोग मानते हैं कि अगुआ के तौर पर चुना जाना बिल्कुल आसान नहीं है और हालाँकि उन्हें पूरा यकीन नहीं होता कि वे इस कार्य को बखूबी कर सकते हैं या नहीं और उन्हें मालूम नहीं होता कि उनके भविष्य की राह क्या होगी, लेकिन उनकी अंतर्निहित प्रकृति ऐसी है कि वे यह अवसर पाकर बहुत खुश होते हैं और इस सम्मानित जिम्मेदारी और भारी बोझ को खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं। साथ ही, वे अपने दिल की गहराई में थोड़े-से आत्मसंतुष्ट और भाग्यशाली महसूस करते हैं। वे किस बारे में भाग्यशाली महसूस करते हैं? वे मानते हैं कि “मुझे दूसरे दर्जनों लोगों में से चुना गया—मैं अवश्य ही बहुत शानदार और सक्षम इंसान हूँ। मैं अवश्य ही आम लोगों से बेहतर हूँ और ज्यादातर लोगों की तुलना में मेरी समझ बेहतर है और मुझे ज्यादा आध्यात्मिक समझ है। मैंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और मैंने खुद को बहुत खपाया है और कड़ी मेहनत की है। तथ्यों से साबित होता है कि मैं कलीसिया में अगुआई करने, लोगों का परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने और सत्य समझने में मार्गदर्शन करने के लिए योग्य हूँ। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो मुझसे ज्यादा चतुर, ज्यादा पढ़े-लिखे और बेहतर स्पष्टवक्ता हैं तो फिर उनके बजाय मुझे क्यों चुना गया? इससे पता चलता है कि मैं सक्षम हूँ और मेरे पास अच्छी मानवता है। यह परमेश्वर का अनुग्रह है।” उनके मन में यही एकालाप चलता रहता है। “परमेश्वर का अनुग्रह” वाले हिस्से को आखिर में जोड़ दिया गया है, लेकिन दरअसल उनके सच्चे विचार और सच्ची समझ उनके एकालाप के पहले हिस्से में निहित है। वे सोचते हैं “भले ही मैंने इसके लिए कोई मुकाबला या लड़ाई नहीं की हो, फिर भी मुझे चुना गया। और अब मुझे क्या करना चाहिए? मैं सभी को निराश नहीं कर सकता, मुझे जी-जान से कोशिश करनी चाहिए!” और वे जी-जान से कैसे कोशिश करते हैं? अपने काम के पहले दिन वे सभा के लिए हर टीम के पर्यवेक्षकों को बुलाते हैं और उनमें एक खास तरह का आचरण और ऊर्जा होती है। किस तरह की ऊर्जा होती है? वे तेजी और निर्णायक ढंग से कार्य करते हैं और वे अपनी बातों में सच्चे होते हैं और वे एक शानदार शुरुआत करने के लिए तत्पर रहते हैं। सबसे पहले, वे सबको यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे कितने सक्षम हैं, फिर वे कोशिश करते हैं कि लोग पिछले अगुआ को पहचानें और त्याग दें। वे कहते हैं : “चलो आज हम कुछ समय मेरे से पिछले अगुआ का गहन-विश्लेषण करने में लगाते हैं, मिसाल के तौर पर, वह किन तरीकों से लोगों को बेबस करता था, वह कार्य के किन पहलुओं में गलतियाँ करता था या किन पहलुओं में लापरवाह था, वगैरह-वगैरह—हम इन सभी चीजों के बारे में संगति कर सकते हैं। जब हम संगति समाप्त कर लेंगे और तुम लोगों को पिछले अगुआ की स्पष्ट पहचान हो जाएगी और तुम उसका त्याग कर सकोगे, उसके द्वारा बेबस नहीं रहोगे और उसके लिए तरसना बंद कर दोगे, तब जाकर तुम्हें समझ रखने वाला और वफादार और परमेश्वर का आज्ञाकारी माना जा सकेगा। आज की सभा की शुरुआत हम पिछले नकली अगुआ और मसीह-विरोधी की निंदा करके करेंगे। आओ हम उसे उजागर करें।” जवाब में सब कहते हैं कि वे इस बारे में पहले से ही संगति कर चुके हैं और पहचान चुके हैं कि पिछला अगुआ नकली और मसीह-विरोधी था, इसलिए अब उनके पास और उजागर करने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन ये नए अगुआ इस दलील से सहमत नहीं होते हैं और एक-एक करके लोगों को चुनकर उन्हें संगति करने को मजबूर करते हैं। उन्हें कुछ लोगों की संगति पसंद नहीं आती है तो वे पिछले अगुआ के किसी सबसे करीबी भाई या बहन को उसे उजागर करने और उसका गहन-विश्लेषण करने के लिए बुलाते हैं, लेकिन उसकी संगति सुनकर ये नए अगुआ सोचने लगते हैं कि “इस व्यक्ति को मेरे से पिछले अगुआ की न तो पहचान है और न ही इसने उसका त्याग किया है। ऐसा लगता है कि उस अगुआ के लिए अभी भी इस व्यक्ति के दिल में जगह है। इससे बिल्कुल काम नहीं बनेगा; आज मुझे मेरे से पिछले अगुआ को पूरी तरह से उजागर करने का कोई तरीका ढूँढ़ निकालना ही होगा।” उसके बाद वे किसी ऐसे व्यक्ति को बुलाते हैं जिसके पिछले अगुआ के साथ बहुत खराब संबंध थे और उसे खड़े होकर पिछले अगुआ को उजागर करने के लिए कहते हैं। जब वह व्यक्ति पिछले अगुआ को उजागर कर देता है तो वे संतुष्ट हो जाते हैं और सोचते हैं कि यह व्यक्ति विकास के लायक है। और वे किसका विकास करना चाहते हैं? वे एक सहयोगी का, अपनी खुद की शक्तियों का विकास करना चाहते हैं। पहली सभा इस तरीके से हो जाती है। और क्या वे इस सभा के बाद अपना लक्ष्य हासिल कर पाते हैं? इतनी अच्छी तरह से या इतनी जल्दी नहीं। वे अपने दिलों में क्या साजिश रच रहे हैं? “इंसान के दिल से ज्यादा रहस्यमय कुछ भी नहीं है और ना ही कुछ इससे ज्यादा कुटिल है। मुझे यह पता लगाना होगा कि ये लोग मेरे से पिछले अगुआ के बारे में क्या सोचते हैं और मुझे इस बारे में स्पष्ट रहना होगा कि वे मेरे बारे में क्या सोचते हैं, क्या उन्हें मेरे अतीत की जानकारी है और उन्हें मेरे अंदर और बाहर की सारी बातें पता हैं या नहीं और अंत में मुझे इन सभी को दिखाना होगा कि मेरे साथ वे बिल्कुल खिलवाड़ नहीं कर सकते हैं। लेकिन मुझे बड़े ध्यान से अपने तरीकों और दाँव-पेचों को चुनना होगा। मैं अपने इरादों को उजागर नहीं कर सकता; मुझे उन्हें छिपाकर रखना होगा।” और इन विचारों, कार्य करने के तरीकों और मकसदों का स्रोत क्या है? उनकी शैतानी प्रकृति। क्या तुम लोगों में ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं? जिस दिन तुम लोगों को अगुआओं या कार्यकर्ताओं के तौर पर चुना गया था, शायद उस दिन तुमने गलत रास्ता नहीं अपनाने और झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के रास्ते पर नहीं चलने के लिए खुद को चेतावनी देकर शुरुआत की थी। शायद तुमने खुद से कहा था कि तुम्हें अपने रुतबे को त्याग देना चाहिए और अपनी खुद की शोहरत, फायदे या रुतबे की खातिर काम नहीं करना चाहिए या कार्य करते समय इच्छा का अनुसरण नहीं करना चाहिए और इसके बजाय अपने कर्तव्य करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए और परमेश्वर का वफादार बने रहना चाहिए। फिर भी, समय बीतने के साथ-साथ कुछ लोग खुद पर काबू नहीं रख पाते और जैसे ही वे कुछ बोलते या करते हैं उनका लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है—वे फौरन अपने खुद के रुतबे को मजबूत करने और लोगों के दिल जीतने की कोशिश करने लगते हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति असंतोष या अवज्ञा का थोड़ा-सा भी आभास देता है, वे चिढ़ जाते हैं और हालाँकि वे उस व्यक्ति को खुलेआम अलग नहीं करते हैं या उस पर आक्रमण नहीं करते हैं, अपने दिल की गहराई में उन्हें उससे बेहद घृणा हो जाती है। वे अपनी इस घृणा की भावना को कैसे अभिव्यक्त करते हैं? (वे उस व्यक्ति को नजरअंदाज कर देते हैं।) नजरअंदाज करना एक शांत अभिव्यक्ति है तो इस घृणा में कौन से खास क्रियाकलाप शामिल हैं? मिसाल के तौर पर, वे सभाओं में अपने मनपसंद लोगों को अपने सामने बिठाते हैं और जिन लोगों को वे नापसंद करते हैं, वे उन्हें किनारे पर बिठाने का कोई ना कोई बहाना ढूँढ़ ही लेते हैं। क्या यह आक्रमण है? (हाँ।) यह उनके आक्रमण की शुरुआत है। वे कार्रवाई कर रहे हैं, है ना? (हाँ।) शब्दों या विचारों की तुलना में क्रियाकलाप ज्यादा संगीन और गंभीर होते हैं। वे ज्यादा गंभीर क्यों होते हैं? किसी चीज के बारे में सोचना लेकिन उस पर कार्य नहीं करना—व्यक्ति के मन और विचारों से व्युत्पन्न होता है। लेकिन जैसे ही कोई क्रियाकलाप होता है, यह एक तथ्य बन जाता है। जब यह व्यवहार बन जाता है तो यह सिर्फ शैतान का भ्रष्ट स्वभाव नहीं रहता, बल्कि एक बुरा कर्म बन जाता है। लोगों को अगुआ बनने के लिए चुने जाने के बाद, वे जो कार्य और कर्तव्य करते हैं, उनमें अपनी खुद की इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ लेकर आते हैं। लेकिन ऐसी कौन-सी अभिव्यक्ति है जो शैतान के भ्रष्ट स्वभाव वाले सभी इंसानों के पास होती है? इन सब लोगों में एक जैसा क्या है? वे ताकत हथियाने और अपने खुद के रुतबे को मजबूत करने की कोशिश करते हैं। वे किन साधनों से ताकत हथियाने की कोशिश करते हैं? सबसे पहले, वे समूहों में देखते हैं कि कौन उन्हें खुश करके, उनकी चापलूसी करके उनके पास आने की कोशिश कर रहा है। फिर, वे फुर्ती से ऐसे लोगों के पास आते हैं और चाहे चापलूसी से हो या छोटी-छोटी मदद करके, वे उनके साथ गुप्त संपर्क बना लेते हैं और उन्हें खुश करते हैं, ताकि ये लोग—जिनके साथ उनकी पसंदगियाँ, रुचियाँ और निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ मेल खाती हैं या जिनकी एक जैसी प्रकृति है—वे उनके कट्टर अनुयायी बन जाएँ और उनके साथ अपनी ताकत मिला दें। और उन लोगों को उनकी ताकत अपने साथ मिलाने के लिए प्रेरित करने के पीछे उनका क्या लक्ष्य होता है? अपने रुतबे को मजबूत करना और अपनी ताकतों के दायरे को बढ़ाना। जब वे ताकत हासिल कर लेते हैं तो उनके लिए मुद्दा सिर्फ इतना नहीं होता कि हर बात में उनका फैसला ही अंतिम हो और कुछ नहीं—बल्कि वे यह भी चाहते हैं कि और लोग भी उनका अनुसरण करें, उनका समर्थन करें और उनकी तरफ से बोलें, ताकि अगर कभी वे कोई गलत बात कह दें, बुरी चीजें कर डालें या लोगों पर आक्रमण करें और उन्हें रोकें तो भी कुछ ऐसे लोग जरूर मौजूद हों जो उनके कहने के मुताबिक कार्य करें और उन्हें स्वीकृति दें। यही उनका लक्ष्य है। फिर, अगर ऊपरवाले को उनकी समस्याओं का पता लग जाए और एक दिन वह उन्हें बर्खास्त कर दे तो उस समय भी कुछ ऐसे लोग मौजूद होंगे जो उनकी तरफ से बोलने के लिए जी-जान लगा देंगे, जो उनके बचाव में आगे आएँगे और उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करने की कोशिश करेंगे। और इस तरह का परिणाम हासिल करने के लिए वे अपने क्रियाकलापों के लिए किस तरीके का उपयोग कर रहे हैं? लोगों के दिल जीतना। वे अपने रुतबे को मजबूत करने और अपनी ताकतों के दायरे बढ़ाने के लिए लोगों के दिल जीतने के तरीके का उपयोग करते हैं। यह मसीह-विरोधियों का ताकत हथियाने का एक तरीका है।
जब उन तकनीकों की बात आती है जिनका मसीह-विरोधी लोग अपने रुतबे को मजबूत करने के लिए उपयोग करते हैं तो उनमें से पहली तकनीक है लोगों के दिल जीतना और दूसरी है विरोधियों पर आक्रमण करना और उन्हें अलग करना। लोगों के दिल जीतने का मतलब है कि वे लोगों को जीतने के तरीके का उपयोग उन पर करते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, जो उनके पास आते हैं, उन पर भरोसा करते हैं और चाहे वे सही हों या गलत, हर हाल में उनका अनुसरण करते हैं। विरोधियों पर आक्रमण करने और उन्हें अलग करने का मतलब है कि वे उन सभी को दुश्मन मानते हैं जो सत्य समझते हैं और जो फलस्वरूप उनका भेद पहचान सकते हैं, उनका अनुसरण नहीं करते हैं और उनसे दूरी बनाए रखते हैं। वे ऐसे लोगों को आँखों में कीलों और बाजुओं में काँटों जैसा समझते हैं और इन लोगों पर आक्रमण करने और उन्हें अलग करने की तकनीक का उपयोग करते हैं। मिसाल के तौर पर, मान लो कि एक मसीह-विरोधी देखता है कि जब भी वह संगति करता है तो लोगों में बहुत उत्साह होता है और उनमें से कुछ लोग उसकी कही बातों को लिख लेते हैं या उन्हें टेप रिकॉर्डर पर रिकॉर्ड कर लेते हैं। सिर्फ एक ही युवा बहन है जो ना कभी कुछ लिखती है और ना ही कुछ बोलती है। तो, वे अपने मन में सोचते हैं : “क्या उसे मुझसे कोई समस्या है? या उसे लगता है कि मैं अच्छी तरह संगति नहीं करता हूँ? इतना ही नहीं, मैं जब भी आता हूँ तो लोग मेरा स्वागत करते हैं और मुझे देखकर गर्मजोशी से सिर हिलाते हैं, मेरे लिए पानी लेकर आते हैं और मुझे बैठने की जगह देते हैं, लेकिन इसने मेरे साथ कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया है। ऐसा लगता है कि यह मेरे सामने झुक नहीं रही है—मुझे इसे सबक सिखाने का एक तरीका और मौका ढूँढ़ना ही पड़ेगा! मुझे किस तरह का मौका ढूँढ़ना चाहिए? मैं उसे कोई ऐसा कार्य करने को दूँगा जिसके बारे में मुझे पूरा यकीन है कि वह अच्छी तरह से नहीं कर पाएगी—और फिर मुझे उसे फटकार लगाने की एक वजह मिल जाएगी। उसे मेरे आगे झुकने के लिए मजबूर करने का मेरे पास यही सबसे बढ़िया मौका है।” इसके बाद वह इस बहन को किसी खतरनाक जगह कार्य करने के लिए भेजने की व्यवस्था करता है। वह सोचता है : “मैं उसे किसी ऐसे बूढ़े धार्मिक पादरी के पास जाने और सुसमाचार सुनाने के लिए कहूँगा जो थोड़ा-सा ऐयाश है और सत्य स्वीकार नहीं करता है। फिर देखते हैं कि बहन उसका मतांतरण कर पाती है या नहीं। अगर वह उसका मतांतरण न कर पाई तो फिर उसके पास अपने बचाव में कहने के लिए क्या रह जाएगा? अगर वह मेरे आगे नहीं झुकी तो मैं उसे यहाँ से विदा कर दूँगा!” फिर वह उसके पास जाकर यह कहता है : “देखो, इस समय ज्यादातर दूसरे भाई और बहन तुम्हें बहुत आदर की दृष्टि से देखते हैं। तुमने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और तुम कई सत्य समझती हो। एक धार्मिक पादरी है जिसने बाइबल का अध्ययन बहुत अच्छी तरह से किया है और उसके पास जाकर सुसमाचार प्रचार करने के कार्य के लिए सिर्फ तुम ही सबसे उपयुक्त हो।” जब बहन उस पादरी से मिलती है तो वह पादरी देखता है कि बहन जवान और सुंदर है और वह उसे पसंद आ जाती है—यहाँ तक कि वह बहन के साथ थोड़ा अभद्र व्यवहार भी करता है। वापस आने पर बहन कहती है कि वह वहाँ वापस नहीं जाना चाहती, जिस पर मसीह-विरोधी जवाब देता है : “कलीसिया ने तुम्हें उसे सुसमाचार सुनाने का कार्य सौंपा है। यह तुम्हारा कर्तव्य है, तुम्हें वहाँ जाना ही पड़ेगा!” यह सुनकर बहन उसकी आज्ञा मानने पर मजबूर हो जाती है और फलस्वरूप हर बार उससे मिलकर लौटने के बाद वह रोती रहती है। यह अगुआ दूसरों पर आक्रमण करने और बदला लेने के लिए ऐसी नीच हरकतें भी कर सकता है। यह किस किस्म का व्यक्ति है? यह बुरा व्यक्ति है। अगर वह खुद कोई महिला होता तो क्या वह ऐसी परिस्थिति में खुद वहाँ जाता? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। वह इस कार्य को करने से सबसे ज्यादा बचता। ऐसे मसीह-विरोधी देखते हैं कि कौन उन्हें नाखुश करता है, किसे परेशान करना आसान है, कौन उनके आगे सिर नहीं झुकाता है और कौन उनकी चापलूसी नहीं करता है और फिर वे ऐसे लोगों के खिलाफ साजिशें रचने और उनसे बदला लेने के मौके ढूँढ़ते रहते हैं। मुझे बताओ, जब कोई गलत और बुरे इरादे रखता है तो क्या वह सभी किस्मों की भयंकर चीजें करने की क्षमता नहीं रखता है? और इन गलत और बुरे इरादों की शुरुआत कैसे होती है? एक मुख्य वजह यह है कि उनका प्रकृति सार बहुत ही बुरा और द्वेषपूर्ण है और दूसरी वजह यह है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है। जब लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है तो ऐसा कुछ नहीं है जिसे करने की हिम्मत उनमें नहीं हो; वे सिर्फ दूसरे लोगों को नुकसान ही नहीं पहुँचाते हैं, बल्कि वे परमेश्वर की आलोचना करने और उसे बेचने जैसी चीजें भी कर सकते हैं—लोगों को नुकसान पहुँचाना तो उनके लिए बच्चों का खेल है। वे दूसरे लोगों को चाहे कितना भी नुकसान क्यों ना पहुँचा दें, उनके विचार से यह कोई बड़ी बात नहीं है; उनके दिल में दूसरों के लिए कोई सहानुभूति नहीं होती है और मूलरूप से वे बेहद द्वेषपूर्ण होते हैं। और इस मसीह-विरोधी का क्या लक्ष्य था जब उसने इस जवान बहन को आग के दरिया की तरफ धकेल दिया? उसने यह हरकत सुसमाचार प्रचार करने और लोगों को हासिल करने के लिए नहीं की; उसका उद्देश्य बस इस बहन को सताना था। वे किस किस्म के लोगों को सताते हैं? अगर कोई व्यक्ति उनके कहे मुताबिक चलता हो और उनकी आज्ञा मानता हो तो क्या वह उसे सताएँगे? नहीं, वे नहीं सताएँगे। तो फिर इस बहन के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया गया? (क्योंकि वह उसके आगे नहीं झुकी।) क्योंकि वह उसके आगे नहीं झुकी, उसकी खुशामद नहीं की, उसने जैसा कहा वैसा नहीं किया या उसे कोई बड़ी हस्ती नहीं माना, बल्कि उससे घृणा की, फलस्वरूप उसके साथ ऐसा व्यवहार किया गया और उसे नुकसान पहुँचाया गया। जब मसीह-विरोधी इस तरीके से लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं तो छोटे आध्यात्मिक कद वाले लोग जिन्हें सत्य की समझ नहीं होती है, वे आम तौर पर कैसे प्रतिक्रिया करेंगे? वे अपने मन में सोचेंगे : “राज्य के अधिकारियों की तुलना में स्थानीय अधिकारियों के पास ज्यादा नियंत्रण रहता है। इस समय हम इस व्यक्ति के नियंत्रण में हैं, इसलिए वह जो कहता है, हमें वही करना चाहिए और जहाँ जाने के लिए कहता है, वहाँ चले जाना चाहिए। जिस तरीके से दूसरे लोग उसके साथ व्यवहार करते हैं, हमें भी ठीक उसी तरीके से उसके साथ व्यवहार करना चाहिए। हमें समूह के साथ जुड़कर रहना चाहिए। हमें ठीक उसी तरह उसकी खुशामद करनी चाहिए जैसे दूसरे लोग करते हैं और हमें यह चीज दूसरों की तुलना में बेहतर तरीके से और ज्यादा ध्यान से करनी चाहिए। सिर्फ तभी हम इस अगुआ द्वारा सताए जाने से खुद को बचा सकते हैं। इस अगुआ की सेवा करना आसान नहीं है—हमें उसके साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए!” और क्या मसीह-विरोधी ठीक यही परिणाम नहीं देखना चाहता? (हाँ।) इस तरह से वह अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है। क्या यह ठीक वही तकनीक नहीं है जिसका उपयोग शैतान लोगों का गलत फायदा उठाने के लिए करता है? (हाँ, वैसी ही है।) इससे क्या पता चलता है? यही कि उनके क्रियाकलाप शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शैतान के लिए एक निकास द्वार और उसके प्रतिनिधि बन गए हैं; वे उसकी तरफ से कार्य करते हैं। क्या इस तरीके से कोई कर्तव्य करना कर्तव्य का सच्चा निष्पादन है? क्या यह परमेश्वर की सेवा करना है? (नहीं।) ऐसे लोग अगुआ कहे जाने के योग्य नहीं हैं—वे कुकर्मी और शैतान हैं।
जैसे ही मसीह-विरोधी लोग अगुआ बनते हैं, वे सबसे पहली चीज जो करते हैं वह है लोगों के दिल जीतने का प्रयास करना, लोगों को उनका विश्वास करने, उन पर भरोसा करने और उनका समर्थन करने के लिए मजबूर करने का प्रयास करना। जब उनका रुतबा सुरक्षित हो जाता है तो वे असामान्य होने लगते हैं। अपने रुतबे और शक्ति की रक्षा करने के लिए, वे विरोधियों पर आक्रमण करना और उन्हें अलग करना शुरू कर देते हैं। वे विरोधियों को—खासकर सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को—दबाने और उन पर आक्रमण करने के लिए, उन्हें सताने के लिए स्थिर, सटीक और अथक तरीकों का उपयोग करते हुए जो हो सके वह आजमाएँगे। उन्हें चैन सिर्फ तभी मिलता है जब वे अपने रुतबे को खतरे में डालने वाले हर व्यक्ति को नीचे गिरा देते हैं और बदनाम कर देते हैं। हर मसीह-विरोधी ऐसा ही होता है। लोगों को जीतने और दबाने के लिए इन अनगिनत चालों का उपयोग करने के पीछे उनका क्या लक्ष्य है? उनका लक्ष्य शक्ति हासिल करना, अपने रुतबे को मजबूत करना, लोगों को गुमराह और नियंत्रित करना है। उनके इरादे और उद्देश्य क्या दर्शाते हैं? वे अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते हैं, वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होना चाहते हैं। ऐसा सार भ्रष्ट स्वभाव से भी ज्यादा शोचनीय है : शैतान की निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ और विश्वासघाती साजिशें पूरी तरह से उजागर हो चुकी हैं। यह सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने की समस्या नहीं है। मिसाल के तौर पर, जब लोग थोड़े घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, या कभी-कभी थोड़े धोखेबाज और झूठे होते हैं तो ये सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे होते हैं। इस बीच, मसीह-विरोधी जो भी चीज करते हैं, वह लोगों के दिल जीतने, विरोधियों पर आक्रमण करने और उन्हें अलग करने, अपने रुतबे को मजबूत करने, शक्ति छीनने और लोगों को नियंत्रित करने के लिए होता है। इन क्रियाकलापों की क्या प्रकृति है? क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने और परमेश्वर के सामने आने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई कर रहे हैं? (नहीं।) तो वे क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे होड़ कर रहे हैं, लोगों के दिलों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं और अपना खुद का, स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। लोगों के दिलों में किसे जगह मिलनी चाहिए? परमेश्वर को जगह मिलनी चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी जो भी करते हैं, वह ठीक इसका उल्टा होता है। वे परमेश्वर या सत्य को लोगों के दिलों में जगह लेने नहीं देते हैं; इसके बजाय, वे चाहते हैं कि मनुष्य को, अगुआ को जो कि वे खुद ही हैं और शैतान को लोगों के दिलों में जगह मिले। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि किसी व्यक्ति के दिल में उनके लिए जगह नहीं है, कि यह व्यक्ति उन्हें अगुआ नहीं मानता है तो वे बेहद नाराज हो जाते हैं और शायद उसे दबाने और सताने का प्रयास करेंगे। मसीह-विरोधी जो भी करते और कहते हैं, वह उनके रुतबे और प्रतिष्ठा पर केंद्रित होता है और इसका आशय लोगों के दिलों में अपने बारे में ऊँची राय बनवाना है, लोगों को उनसे ईर्ष्या और उनकी आराधना करने पर मजबूर करना है—यहाँ तक कि लोगों को अपने से डरने के लिए मजबूर करना भी होता है। वे चाहते हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोग यह सोचकर उन्हें परमेश्वर मानें कि “मैं चाहे किसी भी कलीसिया में क्यों ना रहूँ, लोगों को मेरी बात जरूर सुननी चाहिए, उन्हें मुझसे संकेत लेने चाहिए। चाहे कोई भी व्यक्ति ऊपरवाले को किसी भी समस्या के बारे में रिपोर्ट करे, यह रिपोर्ट मेरे जरिए ही जानी चाहिए, लोगों को सिर्फ मुझे रिपोर्ट करने की अनुमति है, सीधे ऊपरवाले को नहीं। अगर कोई मुझे ‘ना’ कहेगा तो मैं उसे सजा दूँगा, ताकि मुझे देखने वाला हर व्यक्ति डर और घबराहट महसूस करे और अपने दिल में सिहरने लगे। इतना ही नहीं, अगर मैं कोई आदेश देता हूँ या जोर देकर कुछ कहता हूँ तो किसी को भी असहमत होने की जुर्रत नहीं करनी चाहिए; मैं जो भी कहूँ, लोगों को उसी के मुताबिक चलना चाहिए। उन्हें मेरी बात अवश्य सुननी चाहिए, उन्हें सभी चीजों में मेरी आज्ञा माननी चाहिए और मुझे ही वहाँ के सारे फैसले लेने वाला व्यक्ति होना चाहिए।” मसीह-विरोधी ठीक इसी लहजे में बोलते हैं, यह मसीह-विरोधियों की आवाज है, इसी तरह मसीह-विरोधी कलीसियाओं पर अपना रोब जमाने का प्रयास करते हैं। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग उनके कहे मुताबिक कार्य करते हैं और उनकी आज्ञा मानते हैं तो क्या ऐसी कलीसियाएँ मसीह-विरोधी के राज्य नहीं बन जाएँगी? वे कहते हैं, “ऊपरवाले द्वारा जारी की गई कार्य व्यवस्थाओं की गुपचुप जाँच मुझे ही करनी होगी, मुझे तुम लोगों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए, मुझे ही सही और गलत का विश्लेषण करने वाला व्यक्ति होना चाहिए, परिणाम का फैसला मुझे ही लेना चाहिए। तुम्हारा आध्यात्मिक कद पर्याप्त नहीं है और तुम पर्याप्त रूप से योग्य नहीं हो। इस कलीसिया का अगुआ मैं हूँ और सब कुछ मेरी मर्जी पर निर्भर करता है।” क्या ऐसी चीजें कहने वाले लोग बहुत ज्यादा आडंबर नहीं कर रहे हैं? वे वाकई इतने घमंडी हैं कि उनके पास कोई सूझ-बूझ नहीं है! क्या वे अपना खुद का स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? किस तरह के लोग अपना खुद का राज्य बनाने का प्रयास करने के लिए जिम्मेदार हैं? क्या वे सच्चे मसीह-विरोधी नहीं हैं? क्या मसीह-विरोधी जो भी करते और कहते हैं वह सब कुछ उनके अपने खुद के रुतबे की रक्षा करने के लिए नहीं होता है? क्या वे लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? उन्हें मसीह-विरोधी क्यों कहा जाता है? “विरोधी” का क्या मतलब है? इसका मतलब है प्रतिवाद और नफरत। इसका मतलब मसीह के प्रति शत्रुता, सत्य के प्रति शत्रुता और परमेश्वर के प्रति शत्रुता है। “शत्रुता” का क्या मतलब है? इसका मतलब है विपरीत पक्ष में खड़ा होना, तुम्हारे साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करना, मानो व्यक्ति में बहुत ज्यादा और गहरी नफरत भरी हुई हो; इसका मतलब पूरी तरह से तुम्हारे विरोध में होना है। मसीह-विरोधी ऐसी ही सोच के साथ परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं। परमेश्वर से नफरत करने वाले ऐसे लोगों का सत्य के प्रति क्या रवैया होता है? क्या वे सत्य से प्रेम कर पाते हैं? क्या वे सत्य को स्वीकार कर पाते हैं? बिल्कुल नहीं। इसलिए, परमेश्वर के विरोध में जो लोग खड़े होते हैं, वे सत्य से नफरत करने वाले लोग होते हैं। उनमें सबसे मुख्य चीज जो प्रदर्शित होती है, वह है सत्य के प्रति विमुखता और सत्य से नफरत। जैसे ही वे सत्य या परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उनके दिलों में नफरत आ जाती है और जब कोई उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाता है तो उनके चेहरों पर गुस्से और रोष की ठीक वैसी ही अभिव्यक्ति दिखाई देने लगती है, जैसी लोगों द्वारा सुसमाचार प्रचार करने के दौरान परमेश्वर के वचन किसी राक्षस को पढ़कर सुनाते समय दिखाई देती है। जो लोग अपने दिलों में सत्य से विमुख होते हैं और सत्य से नफरत करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य से बेहद विमुखता महसूस करते हैं, उनका रवैया प्रतिरोध का होता है और वे इस हद तक पहुँच जाते हैं कि जो कोई भी उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाता है या उनके साथ सत्य की संगति करता है, वे उससे नफरत करने लगते हैं, यहाँ तक कि वे उस व्यक्ति को दुश्मन मानने लगते हैं। वे अलग-अलग सत्य और सकारात्मक चीजों से बेहद विमुखता महसूस करते हैं। सभी सत्य के प्रति, जैसे कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करना, निष्ठा से अपना कर्तव्य करना, ईमानदार व्यक्ति होना, सभी चीजों में सत्य की तलाश करना, आदि के प्रति—क्या उनमें थोड़ी-सी व्यक्तिपरक तड़प या प्रेम है? नहीं, नाममात्र भी नहीं। इसलिए, उनकी इस प्रकार के प्रकृति सार को देखते हुए, वे पहले से ही परमेश्वर और सत्य के सीधे विरोध में खड़े हैं। तो, निस्संदेह रूप से, ऐसे लोग सत्य या किसी सकारात्मक चीज से गहराई से प्रेम नहीं करते हैं; यहाँ तक कि वे अपने दिल की गहराई में सत्य से विमुखता महसूस करते हैं और उससे नफरत करते हैं। मिसाल के तौर पर, अगुआई के पदों पर बैठे लोगों को अपने भाई-बहनों की अलग-अलग राय स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए, उन्हें भाई-बहनों के सामने अपने दिल खोलकर खुद को उजागर करने और उनकी निंदा को स्वीकार करने में समर्थ होना चाहिए और उन्हें अपने रुतबे का हक नहीं जताना चाहिए। एक मसीह-विरोधी अभ्यास के इन सभी सही तरीकों के बारे में क्या कहेगा? वह कहेगा, “अगर मैं भाई-बहनों की राय सुन लेता तो क्या मैं अब भी अगुआ बना रहता? क्या अब भी मेरे पास रुतबा और प्रतिष्ठा होती? अगर मेरे पास कोई प्रतिष्ठा नहीं है तो मैं क्या काम कर सकता हूँ?” यह ठीक उसी प्रकार का स्वभाव है, जैसा मसीह-विरोधी लोगों में होता है; वे सत्य को सबसे सूक्ष्म तरीके से भी स्वीकार नहीं करते हैं और अभ्यास का तरीका जितना ज्यादा सही होता है, उतना ही वे उसका विरोध करते हैं। वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि सिद्धांत के अनुसार कार्य करना सत्य का अभ्यास करना है। वे क्या सोचते हैं कि सत्य का अभ्यास करना क्या होता है? वे सोचते हैं कि उन्हें परमेश्वर के वचनों, सत्य और प्रेम पर भरोसा करने के बजाय सभी पर साजिशों, चालों और हिंसा का उपयोग करना चाहिए। उनका हर साधन और मार्ग दुष्ट होता है। यह सब मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को पूरी तरह से दर्शाता है। वे अक्सर जो उद्देश्य, राय, विचार और इरादे प्रकट करते हैं, वे सभी सत्य से विमुखता और सत्य से नफरत के स्वभाव हैं, जो मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। तो क्या, इसका मतलब सत्य और परमेश्वर के विरुद्ध खड़ा होना है? इसका मतलब है सत्य और सकारात्मक चीजों से नफरत करना। मिसाल के तौर पर, जब कोई कहता है, “एक सृजित प्राणी होने के नाते, व्यक्ति को सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए। परमेश्वर चाहे जो भी कह दे, मनुष्यों को समर्पण करना चाहिए, क्योंकि हम सृजित प्राणी हैं,” लेकिन मसीह-विरोधी कैसे सोचता है? “समर्पण करूँ? यह असत्य नहीं है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, लेकिन जब समर्पण करने की बात आती है तो यह परिस्थिति पर निर्भर करता है। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इसमें मेरे लिए कुछ फायदा जरूर होना चाहिए, मेरा कोई नुकसान नहीं होना चाहिए और मेरे हित सबसे पहले आने चाहिए। अगर यहाँ हासिल करने के लिए इनाम या महान आशीषें हैं तो मैं समर्पण कर सकता हूँ, लेकिन इनामों के बगैर और किसी मंजिल के बिना, मुझे क्यों समर्पण करना चाहिए? मैं समर्पण नहीं कर सकता।” यह सत्य को नहीं स्वीकार करने का रवैया है। वे शर्तों पर परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और अगर उनकी शर्तें पूरी नहीं होती हैं तो वे ना सिर्फ समर्पण नहीं करते हैं, बल्कि परमेश्वर का विरोध और प्रतिरोध करने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं। मिसाल के तौर पर, परमेश्वर चाहता है कि लोग ईमानदार हों, लेकिन ये मसीह-विरोधी मानते हैं कि सिर्फ बेवकूफ लोग ही ईमानदार होने का प्रयास करते हैं और कि बुद्धिमान लोग ईमानदार होने का प्रयास नहीं करते हैं। इस तरह के रवैये का सार क्या है? यह सत्य से नफरत है। मसीह-विरोधियों का सार ऐसा ही होता है और उनका सार तय करता है कि वे किस मार्ग पर चलते हैं और जिस मार्ग पर वे चलते हैं, वही उनके द्वारा की जाने वाली हर चीज को तय करता है। जब मसीह-विरोधियों में सत्य और परमेश्वर से नफरत का प्रकृति सार होता है तो वे किस तरह की चीजें कर सकते हैं? वे लोगों के दिल जीतने, विरोधियों पर आक्रमण करने और उन्हें अलग करने और लोगों को सताने का प्रयास कर सकते हैं। इन चीजों को करने में वे जो लक्ष्य हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं, वह है शक्ति का उपयोग करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना और अपना खुद का स्वतंत्र राज्य स्थापित करना। इस बारे में कोई शक नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो एक बार रुतबा मिलते ही परमेश्वर के प्रति पूरा समर्पण करने में असमर्थ हो जाता है और परमेश्वर का अनुसरण करने या सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होता है वह मसीह-विरोधी होता है।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।