मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं (खंड तीन)
मद चार, अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना, मसीह-विरोधियों का एक सतत दृष्टिकोण है। तुम लोग उन स्पष्ट उपायों, तरीकों और पद्धतियों को पहचानने में सक्षम हो जिनके जरिए मसीह-विरोधी अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं, लेकिन क्या तुम और अधिक छिपे हुए व्यवहारों और अभिव्यक्तियों को पहचान सकते हो? जब अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने के लिए भाषा का उपयोग करने जैसी स्पष्ट चीजों की बात आती है, तो तुम लोग इन चीजों का खुलासा करते हो, तुमने दूसरे लोगों को भी उनका खुलासा करते देखा है, और तुम उन्हें पहचान सकते हो। लेकिन अगर किसी भाषा का उपयोग नहीं किया गया है और केवल व्यवहारपरक अभिव्यक्तियाँ हैं, तो क्या तुम लोग अभी भी उन्हें पहचान पाओगे? यह कहा जा सकता है कि अधिकांश लोग ऐसा नहीं कर पाएँगे। तो फिर, व्यवहारों के कौन-से लक्षण हैं, जहाँ मसीह-विरोधी अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं? उनके व्यवहार निश्चित रूप से मनुष्य की धारणाओं, कल्पनाओं, नैतिकताओं, जमीर, और भावनाओं के अनुरूप होते हैं। इसके अलावा और क्या? (यह लोगों की स्वीकृति और आराधना को संचित करता है।) यह स्वीकृति और आराधना को संचित करता है; इसका यही परिणाम निकलता है। यदि हम इस पर परिणाम के परिप्रेक्ष्य से गौर करें, तो इस व्यवहार में वाकई गुमराह करने का गुण है। इस कार्य की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य से, यह बेहद उद्देश्यपूर्ण है। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है, यदि वह लोगों को गुमराह करना चाहे और यह चाहे कि लोग उसके बारे में ऊँचा सोचें, तो क्या वह अपनी दवा लोगों के सामने लेगा या उस समय लेगा जब कोई आस-पास नहीं होगा? (लोगों के सामने लेगा।) क्या इसके पीछे कोई इरादा नहीं है? इसका अर्थ है कि वह बेहद उद्देश्यपूर्ण है। इस तरह से दवा लेने का उसका असल लक्ष्य क्या है? वह ऐसा करके अपने लिए श्रेय लेना चाहता है, और तुम्हें बताना चाहता है : “देखो, अपना कर्तव्य निभाकर मैं इतना थक गया हूँ कि बीमार पड़ गया, और फिर भी मैंने अभी तक शिकायत नहीं की या एक भी आँसू नहीं बहाया। मैं अपनी बीमारी का उपचार कर रहा हूँ, लेकिन दवा लेते हुए भी मैं अपना कर्तव्य निभा सकता हूँ।” वास्तव में, उसे यह बीमारी अपना कर्तव्य निभाने के दौरान हुई थकान से या परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद नहीं हुई। वह बस लोगों को यह संदेश देने के लिए तमाम तरह के व्यवहारों का उपयोग करने की कोशिश कर रहा है कि वह कष्ट सह रहा है और कीमत चुका रहा है, उसने इस परिवेश में इतना कष्ट सहा है लेकिन एक बार भी शिकायत नहीं की, और अभी भी वह इतनी सक्रियता से अपना कर्तव्य निभा रहा है, और उसमें कष्ट सहने का संकल्प है। इससे लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से क्या बताया जा रहा है? यह कि परमेश्वर के प्रति उसकी वफादारी पर संदेह नहीं किया जा सकता। वह यही बताना चाहता है कि वह वफादार है और कीमत चुकाने को तैयार है। क्या यह चुपके से अपनी बड़ाई करना नहीं है? यदि उसके पास विवेक होता, तो वह इस मामले को सामने नहीं लाता, किसी के आस-पास नहीं होने पर वह परमेश्वर से प्रार्थना करता, अपना दृढ़ निश्चय दिखाता और स्वयं को जानने की कोशिश करता, या वह बस सामान्य रूप से अपनी दवाएँ लेता रहता। संक्षेप में, वह लोगों को यह बताने के लिए बाहरी व्यवहारों का उपयोग नहीं करता कि वह कष्ट सह रहा है, वह वफादारी से अपना कर्तव्य निभा रहा है, और उसे इनाम दिया जाना चाहिए। वह ऐसे इरादे नहीं पालता। लेकिन, यदि वह इस तरह से काम करता है जो विशेष रूप से दिखावा है, वह चाहता है कि लोग उसके बारे में ऊँचा सोचें और उसकी प्रशंसा करें, तो यह बेहद उद्देश्यपूर्ण है। और उसका उद्देश्य क्या है? यह लोगों को प्रसारित उसके संदेश के माध्यम से अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने का परिणाम प्राप्त करना है। यदि वह वफादार है, तो परमेश्वर को इसकी जानकारी होगी, फिर उसे दूसरे लोगों के सामने इसके बारे में डींगे क्यों हाँकनी चाहिए और इसके बारे में हर किसी को क्यों बताना चाहिए? हर किसी को इसके बारे में बताने के पीछे उसका लक्ष्य क्या है? यह लोगों को उसके बारे में ऊँचा सोचने को मजबूर करने के लिए है। यदि उसका यह लक्ष्य नहीं होता, तो वह बिना किसी इरादे के काम करता, और दूसरे लोग उसे ये काम करते हुए नहीं देखते। यदि वह बेहद उद्देश्यपूर्ण है, तो वह अपने कार्यों के पैमाने को मापेगा, और बात का बतंगड़ बनाएगा, समय और स्थान पर विचार करेगा, और तब तक इंतजार करेगा जब तक हर कोई आस-पास नहीं आ जाता और फिर किसी व्यक्ति को अपनी दवा लाने के लिए कहेगा, सार्वजनिक रूप से और बेहद जोरशोर से इसका खुलासा करेगा। इसका बेहद स्पष्ट उद्देश्य है। यदि उसका यह लक्ष्य नहीं होता, तो वह अपनी दवा लेने के लिए हरेक के आस-पास आने का इंतजार नहीं करता। कष्ट सहने और कीमत चुकाने की तुम्हारी इच्छा परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते से संबंधित है; तुम्हें इसे स्पष्ट करने और दूसरे लोगों को बताने की जरूरत नहीं है। यदि तुम इसके बारे में दूसरे लोगों को स्पष्ट करते हो, तो वे तुम्हें क्या दे सकते हैं? उनकी सहानुभूति और प्रशंसा प्राप्त करने के अलावा, क्या और कुछ है जो तुम उनसे प्राप्त कर सकते हो? नहीं, कुछ भी नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने के दौरान जब तुम थोड़ा कष्ट सहते हो और थोड़ी कीमत चुकाते हो, तो एक संदर्भ में, तुम्हें ये चीजें करनी ही चाहिए और तुम ये करने के इच्छुक हो, और तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो। दूसरे संदर्भ में, वे ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं जो तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में सृजनकर्ता के प्रति दिखानी चाहिए, तो तुम्हें उनका प्रचार क्यों करना चाहिए? जब तुम उनका प्रचार करते हो, तो वे घृणित हो जाती हैं; तो ऐसे व्यवहार की प्रकृति क्या हो जाती है? यह अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने और दूसरे लोगों को गुमराह करने में बदल जाती है—इसकी प्रकृति बदल जाती है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सदैव दूसरों के सामने अपनी खोपड़ी खुजाते हैं, और जब कोई व्यक्ति उनसे इस बारे में पूछता है, तो वे कहते हैं : “मैंने करीब 10 दिन से अपने बाल नहीं धोए हैं—मैं एक के बाद एक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं से मुलाकात कर रहा हूँ। उस दिन मैंने अपने बाल धोने के लिए कुछ समय निकालने की कोशिश की थी लेकिन तभी एक संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता छानबीन करने के लिए आ गया, और मैं उसे छोड़कर जा नहीं सका।” वास्तव में, वे जानबूझकर अपने बाल नहीं धो रहे हैं ताकि लोगों को दिखा सकें कि वे अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त हैं। इसे स्वयं पर इतराना कहा जाता है। स्वयं पर इतराने का उनका क्या लक्ष्य है? यह लोगों को उनके बारे में ऊँचा सोचने पर मजबूर करना है और इस व्यवहार की प्रकृति अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना है। ऐसी मामूली बात पर भी, वे इसे यूँ ही गुजर जाने नहीं देते, वे अभी भी बात का बतंगड़ बनाना चाहते हैं, इसे एक मूल्यवान स्रोत में बदल देना चाहते हैं जिसका उपयोग वे दिखावा करने, अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करने, और लोगों को उनके बारे में ऊँचा सोचने और उनकी आराधना करने के लिए मजबूर करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कर सकें। क्या यह शर्मनाक नहीं है? यह शर्मनाक और घृणित है। ये सब चीजें कहाँ से आती हैं? वे शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से आती हैं, जिसमें दिखावा, कपट, दुष्टता और महत्वाकांक्षाएँ शामिल रहती हैं। इस तरह के लोग निरंतर अपनी छवि, रुतबे, और प्रतिष्ठा के बारे में सोचते रहते हैं। वे किसी भी चीज को नहीं छोड़ते, वे सदैव उन चीजों को पूँजी में, संसाधनों में बदलने के तरीके ढूँढ़ते रहते हैं जिनका उपयोग वे लोगों को अपने बारे में ऊँचा सोचने और उनकी आराधना करने के लिए मजबूर करने में कर सकें। अंत में, जब उन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, तो वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है। यह भी एक प्रकार का बनावटी रूप है, और भीतर से, वे वास्तव में चोरी-छिपे जश्न मना रहे होते हैं और अपने आप से खुश होते हैं। क्या यह और भी घृणास्पद नहीं है? यह स्पष्ट है कि उनका रुतबा पहले ही बहुत ऊँचा है, हर कोई उनका सम्मान करता है, उनकी ओर उम्मीद भरी नजरों से देखता है, उनकी आज्ञा का पालन करता है, और उनका अनुसरण करता है, लेकिन ऊपरी तौर पर, वे अभी भी दिखावा करते हैं कि उन्हें रुतबा पसंद नहीं है। यह और भी पाखंडपूर्ण है। अंत में, वे हरेक को गुमराह करते हैं, और कहते हैं कि वे बिना किसी महत्वाकांक्षा के पैदा हुए थे, वे केवल काम करने वाले लोग हैं। वास्तव में, एक छोटी-सी जाँच इसका खुलासा कर सकती है : यदि उनसे उनका रुतबा छीन लिया जाए, तो वे तुरंत अपना कर्तव्य निभाना बंद कर देंगे। यह इतना तीव्र होगा; एक छोटी-सी चीज उनकी महत्वाकांक्षाओं का खुलासा कर देगी। ये वो व्यवहार और दृष्टिकोण हैं जो शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के कारण लोगों में, और साथ-ही-साथ लोगों की अलग-अलग कुरूप अवस्थाओं में सामने आते हैं। इन अभिव्यक्तियों से, यह देखा जा सकता है कि लोग रुतबा पसंद करते हैं और दूसरे लोगों के दिलों में स्थान बनाना चाहते हैं। वे दूसरे लोगों के दिलों में जगह बनाना चाहते हैं, दूसरे लोगों को जीतना चाहते हैं, और चाहते हैं कि दूसरे लोग उनकी आराधना करें, उनका आदर करें, और उनका अनुसरण भी करें, इस प्रकार वे दूसरे लोगों के दिलों में परमेश्वर का स्थान ले लेते हैं। यह ऐसी इच्छा है जो जन्म से हरेक व्यक्ति में होती है। और इससे क्या साबित होता है? यह कि लोगों के जीवन में जो चीज उन्हें नियंत्रित करती है वह है शैतान का स्वभाव। भ्रष्ट मानवजाति में, एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे रुतबा पसंद ना हो—मूर्ख लोग भी अधिकारी बनना चाहते हैं, और मंदबुद्धि भी दूसरों को नियंत्रित करना चाहते हैं। हरेक को रुतबा पसंद है, और हरेक रुतबा पाने की खातिर काम करता है, और रुतबे के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करता है। हरेक व्यक्ति के इस तरह के व्यवहार और दृष्टिकोण होते हैं, और साथ ही इस तरह का स्वभाव भी होता है। इसलिए, जब हम मसीह-विरोधियों को अपनी बड़ाई करते और अपने बारे में गवाही देते हुए उजागर करते हैं, तो हम प्रत्येक व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों को भी उजागर कर रहे होते हैं। इसे उजागर करने का क्या उद्देश्य है? इसका उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने के ये व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ वैसी नहीं हैं जो सामान्य इंसान में होनी चाहिए, बल्कि ये भ्रष्ट स्वभावों, और नकारात्मक, घृणित कार्यों का खुलासा हैं। अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने के तुम्हारे तरीके कितने भी तेजतर्रार क्यों ना हों, और तुम्हारी करतूतें कितनी भी गुप्त क्यों ना हों, इनमें से कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो सामान्य इंसान के पास होनी चाहिए, और परमेश्वर ऐसी सभी चीजों से घृणा करता है, उनकी निंदा करता है, और उन्हें शापित करता है। इसलिए, लोगों को ये सभी दृष्टिकोण त्याग देने चाहिए। अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना ऐसी सहजवृत्ति नहीं है जिसे परमेश्वर ने इंसान के लिए बनाया हो—बल्कि, यह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के सर्वाधिक विशिष्ट खुलासों में से एक है, और इससे भी अधिक, यह शैतान के भ्रष्ट सार के सर्वाधिक विशिष्ट खास स्वभावों और दृष्टिकोणों में से एक है।
क्या कुछ विशिष्ट उदाहरणों के बारे में संगति करना तुम लोगों के लिए अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने की विभिन्न अभिव्यक्तियों को समझने के संदर्भ में मददगार है, चाहे वे बोलने और कार्य करने के स्पष्ट या और अधिक छिपे हुए तरीके ही क्यों ना हों। (हाँ, यह मददगार है।) इससे क्या मदद मिलती है? यह स्वयं को और दूसरे लोगों को पहचानने में मदद करता है। मैं जिन दशाओं, अभिव्यक्तियों और खुलासों की बात कर रहा हूँ, ये सब वो चीजें हैं जिनका प्रदर्शन तुम लोग अक्सर करते हो, और तुम लोगों को इन चीजों से अपनी दशाओं का मिलान करके तुलना करनी चाहिए, यह समझना चाहिए कि तुम वास्तव में क्या हो, जीने के लिए तुम जिस जीवन पर निर्भर हो और भरोसा करते हो वो वास्तव में क्या है, इस जीवन में वास्तव में क्या समाहित है, ये स्वभाव वास्तव में लोगों को क्या करने पर मजबूर करते हैं, और वे लोगों को कैसे जीने देते हैं। इन विशिष्ट व्यवहारों, अभिव्यक्तियों, दृष्टिकोणों, और स्वभावों को समझकर, लोग धीरे-धीरे गहन विश्लेषण कर सकते हैं, और स्वयं को, अपने सार को, और परमेश्वर का विरोध करने वाली अपनी प्रकृति को जान सकते हैं, और इस प्रकार इन दृष्टिकोणों का त्याग कर सकते हैं, परमेश्वर के समक्ष आ सकते हैं और सही अर्थों में स्वयं को पूरी तरह बदल सकते हैं, और सत्य के अनुसार अभ्यास कर सकते हैं और हकीकत में इसे जी सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना एक ऐसा दृष्टिकोण है जो सत्य के अनुरूप नहीं है और जो शैतान और मसीह-विरोधियों का दृष्टिकोण है; यदि मैं कुछ नहीं कहता या कुछ नहीं करता हूँ, तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं अपनी बड़ाई नहीं कर रहा हूँ या अपने बारे में गवाही नहीं दे रहा हूँ?” यह सही नहीं है। तो कार्य करने का कौन-सा तरीका खुद को ऊँचा उठाना और अपने बारे में गवाही देना नहीं है? अगर तुम किसी मामले के संबंध में दिखावा करते और अपने बारे में गवाही देते हो, तो तुम यह परिणाम प्राप्त करोगे कि, कुछ लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय बनाएँगे और तुम्हारी पूजा करेंगे। लेकिन अगर तुम उसी मामले के संबंध में खुद को उजागर कर देते हो, और अपने आत्मज्ञान को साझा करते हो, तो उसकी प्रकृति अलग होती है। क्या यह सच नहीं है? अपने आत्मज्ञान के बारे में बात करने के लिए खुद को पूरी तरह उजागर कर देना, कुछ ऐसा है जो साधारण मानवता में होनी चाहिए। यह एक सकारात्मक चीज है। अगर तुम वास्तव में खुद को जानते हो और अपनी अवस्था के बारे में सही, वास्तविक और सटीक ढंग से बोलते हो; अगर तुम उस ज्ञान के बारे में बोलते हो जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित है; अगर तुम्हें सुनने वाले इससे सीखते और लाभान्वित होते हैं; और अगर तुम परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हो और उसे महिमामंडित करते हो, तो यह परमेश्वर के बारे में गवाही देना है। अगर खुद को पूरी तरह उजागर करने के माध्यम से, तुम अपनी खूबियों के बारे में खूब बोलते हो और इस बारे में कि तुमने कैसे कष्ट उठाया, और कैसे कीमत चुकाई और अपनी गवाही में कैसे दृढ़ता से खड़े रहे, और इसके परिणामस्वरूप लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हैं और तुम्हारी पूजा करते हैं, तो यह अपने बारे में गवाही देना है। तुम्हें इन दो व्यवहारों के बीच अंतर बता पाने में समर्थ होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यह बताना परमेश्वर की बड़ाई करना और उसके बारे में गवाही देना है कि परीक्षणों का सामना करते समय तुम कितने कमजोर और नकारात्मक थे, और कैसे प्रार्थना करने और सत्य खोजने के बाद तुमने अंततः परमेश्वर का इरादा समझा, आस्था प्राप्त की और अपनी गवाही में दृढ़ रहे। यह दिखावा करना और अपने बारे में गवाही देना बिल्कुल नहीं है। इसलिए, तुम दिखावा कर रहे हो और अपने बारे में गवाही दे रहे हो या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम अपने वास्तविक अनुभवों के बारे में बात कर रहे हो या नहीं, और इस पर भी कि क्या तुम परमेश्वर के बारे में गवाही देने का परिणाम हासिल करते हो; यह भी देखना आवश्यक है कि जब तुम अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करते हो, तो तुम्हारे इरादे और उद्देश्य क्या हैं। ऐसा करने से यह पहचानना आसान हो जाएगा कि तुम किस प्रकार के व्यवहार में लिप्त हो। जब तुम गवाही साझा करते हो, तब अगर तुम सही इरादे रखते हो, तो भले ही लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हों और तुम्हारी पूजा करते हों, यह वास्तव में कोई समस्या नहीं है। अगर तुम्हारा इरादा गलत है, तो भले ही कोई तुम्हारे बारे में ऊँची राय न रखता हो या तुम्हारी पूजा न करता हो, फिर भी यह एक समस्या है—और अगर लोग तुम्हारे बारे में ऊँची राय रखते हैं और तुम्हारी आराधना करते हैं, तो यह और भी बड़ी समस्या है। इसलिए, यह निर्धारित करने के लिए कि कोई व्यक्ति अपनी बड़ाई कर रहा और अपने बारे में गवाही दे रहा है या नहीं, तुम सिर्फ नतीजों पर निर्भर नहीं रह सकते। तुम्हें मुख्य रूप से उनके इरादे को देखना चाहिए; इन दो व्यवहारों के बीच अंतर करने का सही तरीका इरादों पर आधारित है। अगर तुम सिर्फ नतीजों के आधार पर इसे पहचानने की कोशिश करते हो, तो संभव है कि अच्छे लोगों पर गलत ढंग से दोषारोपण कर दोगे। कुछ लोग विशेष रूप से सच्ची गवाही साझा करते हैं, और इसके चलते कुछ अन्य लोग उनके बारे में ऊँची राय रखते हैं और उनकी आराधना करते हैं—क्या तुम कह सकते हो कि वे लोग अपने बारे में गवाही दे रहे थे? नहीं, तुम नहीं कह सकते। उन लोगों में कोई समस्या नहीं हैं, जो गवाही वे साझा करते हैं और जो कर्तव्य वे करते हैं, वे दूसरे लोगों के लिए लाभकारी होते हैं, और सिर्फ विकृत समझ रखने वाले बेवकूफ और अज्ञानी लोग ही दूसरे लोगों की आराधना करते हैं। वक्ता के इरादे को देखना यह पहचानने की कुंजी है कि लोग अपनी बड़ाई कर रहे हैं या नहीं और अपने बारे में गवाही दे रहे हैं या नहीं। अगर तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाना है कि तुम्हारी भ्रष्टता कैसे उजागर हुई, और तुम कैसे बदल गए हो, और दूसरों को इससे लाभ उठाने में समर्थ बनाना है, तो तुम्हारे शब्द गंभीर और सच्चे हैं, और तथ्यों के अनुरूप हैं। ऐसे इरादे सही हैं, और तुम दिखावा नहीं कर रहे या अपने बारे में गवाही नहीं दे रहे। अगर तुम्हारा इरादा सभी को यह दिखाना है कि तुम्हारे पास वास्तविक अनुभव हैं, और तुम बदल गए हो और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, ताकि वे तुम्हारे बारे में ऊँचा सोचें और तुम्हारी पूजा करें, तो ये इरादे गलत हैं। यह दिखावा करना और अपने बारे में गवाही देना है। अगर तुम जिस अनुभवात्मक गवाही की बात करते हो वह झूठी है, उसमें मिलावट है और यह लोगों की आँखों पर पट्टी बाँधने के इरादे से है, कि वे तुम्हारी वास्तविक अवस्था न देख सकें, और यह तुम्हारे इरादे, भ्रष्टता, कमजोरी या नकारात्मकता दूसरों के सामने प्रकट होने से रोकने के इरादे से है, तो ऐसे शब्द धोखा देने और गुमराह करने वाले हैं। यह झूठी गवाही है, यह परमेश्वर से चालाकी करना और परमेश्वर को लज्जित करता है, और यह वह है जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। इन अवस्थाओं के बीच स्पष्ट अंतर है, और इन सबको इरादे के आधार पर पहचाना जा सकता है। यदि तुम दूसरे लोगों को पहचान सकते हो, तो तुम उनकी दशाओं को समझ पाओगे, और फिर तुम स्वयं को भी पहचान पाओगे, और अपनी दशाओं को समझ पाओगे।
इन सभी प्रवचनों को सुनने के बाद, कुछ लोग अभी भी पहले की भाँति ही अपनी बड़ाई करना और अपने बारे में गवाही देना जारी रखते हैं। तुम लोगों को ऐसे लोगों के साथ कैसे पेश आना चाहिए? उन्हें पहचानो, उन्हें उजागर करो, और उनसे दूरी बनाकर रखो। यदि संदर्भ के रूप में उनके शब्दों का मूल्य है, तो तुम उन शब्दों को ग्रहण कर सकते हो, लेकिन यदि उनका जरा भी कोई संदर्भात्मक मूल्य नहीं है, तो तुम्हें उनको त्याग देना चाहिए और उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए। यदि ऐसे लोग अगुआ हैं, तो उन्हें उजागर करो, उनकी रिपोर्ट करो, उनका त्याग करो, और उनकी अगुआई स्वीकार मत करो। यह कहो : “तुम सदैव अपनी बड़ाई करते हो और अपने बारे में गवाही देते हो, तुम सदैव हमें संवेदनहीन बना देते हो और हमें नियंत्रित करते हो, और तुम हमें गुमराह करते हो। हम सभी परमेश्वर से दूर हो गए हैं, और हमारे दिलों में भी परमेश्वर नहीं है—केवल तुम ही हो। अब हम तुम्हारा सामना करेंगे और तुम्हारा त्याग करेंगे।” तुम्हें इस तरीके से काम करना है, तुम्हें एक-दूसरे की निगरानी करनी चाहिए, अपनी और दूसरों की दोनों की निगरानी करनी चाहिए। क्या तुम लोग दूसरों के सामने अक्सर अपनी खोपड़ी नहीं खुजाते हो, या लोगों को यह नहीं बताते हो कि तुमने कई बार भोजन छोड़ दिया जबकि वास्तव में तुम उनकी पीठ पीछे खूब सारा नाश्ता खा रहे थे? जब कभी परिवेश ऐसा नहीं करने देता, तो लोगों के लिए यह सामान्य बात है कि वे काम में बहुत व्यस्त होने के कारण एक महीने तक स्नान नहीं करते, या किसी दिन स्नान करना छोड़ देते हैं या अपने बाल धोना छोड़ देते हैं। ये सब सामान्य घटनाएँ हैं, और वो कीमतें हैं जो लोगों को चुकानी चाहिए। ये कोई बड़ी बातें नहीं हैं—बात का बतंगड़ मत बनाओ। जब कोई व्यक्ति वास्तव में तिल का ताड़ बना देता है, तो वह जानबूझकर दूसरों के सामने अपनी खोपड़ी खुजाएगा और कहेगा कि उसने कई दिनों से अपने बाल नहीं धोए हैं, जानबूझकर दूसरे लोगों के सामने दवा लेगा, या दिखावा करेगा कि वो थका हुआ है और उसकी हालत बहुत खराब है; ऐसे में, हर किसी को उसे उजागर करने के लिए खड़ा होना चाहिए और उसके प्रति नाराजगी जतानी चाहिए। इस तरह से, इस बेशर्म व्यक्ति को रोका जा सकता है। वह पाखंड कर रहा है, दूसरे लोगों को दिखाने के लिए स्वयं का बखान कर रहा है, और फिर भी वह अपने व्यवहार के लिए लोगों से स्वीकृति पाने की कोशिश कर रहा है, ताकि दूसरे लोग उसकी तरफ ईर्ष्या, प्रशंसा और सराहना की नजर से देखें। क्या वह लोगों को धोखा नहीं दे रहा है? ये दृष्टिकोण वैसे ही हैं जैसे फरीसी गलियों के नुक्कड़ पर धर्मग्रंथ लेकर परमेश्वर से प्रार्थना करते थे। वे इससे अलग नहीं हैं। जैसे ही कोई बताता है कि फरीसी हाथों में धर्मग्रंथ लिए हुए गलियों के नुक्कड़ पर धर्मग्रंथ पढ़ रहे हैं या प्रार्थना कर रहे हैं, तो वह सोचता है, “यह बहुत शर्मनाक है, मैं वैसा कुछ नहीं करूँगा।” फिर भी वह दूसरों के सामने जानबूझकर दवा लेता है या अपनी खोपड़ी खुजाता है, इस बात से अनजान कि वह जो कुछ कर रहा है वो समान प्रकृति का है। वह इसे समझ नहीं सकता है। बाद में, जब तुम्हारे सामने ऐसे मामले आते हैं, तो तुम्हें ऐसे लोगों को पहचानना और उजागर करना सीखना चाहिए, उनके सभी पाखंड उजागर करने चाहिए—तब वह इस तरीके से कार्य करने की हिम्मत नहीं करेगा। तुम्हें उस पर कुछ दबाव बनाना चाहिए, और उसे यह सोचने पर मजबूर करना चाहिए कि ऐसे दृष्टिकोण, व्यवहार, और स्वभाव शर्मनाक हैं और सभी इनसे बहुत अधिक घृणा करते हैं। यदि लोग उनसे इतनी घृणा करते हैं, तो क्या परमेश्वर उनसे घृणा करता है? वह उनसे और भी ज्यादा घृणा करता है। स्वाभाविक तौर पर, तुम कुछ नहीं हो। तुम पहले से ही काफी दयनीय हो, भले ही तुम अपनी बड़ाई ना करो और अपने बारे में गवाही ना दो, यदि तुम इतने दयनीय हो और अभी भी अपनी बड़ाई करते हो और अपने बारे में गवाही देते हो, तो क्या लोगों को इससे घृणा नहीं होगी? तुमने कभी भी वफादारी से अपना कर्तव्य नहीं निभाया है, तुमने कभी भी सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं किया है, और तुमने किसी भी आशय से परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है। तुम पहले से ही परेशानी में हो, ऐसे में अगर तुम अपनी बड़ाई करते हो और अपने बारे में गवाही देते हो, तो क्या तुम्हारे लिए चीजें और भी कठिन नहीं हो जाएँगी? तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं से और भी दूर हो जाओगे, और उद्धार पाने के मानक तक पहुँचने की दूरी और भी बढ़ जाएगी।
मुझे बताओ, अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने की समस्या की प्रकृति क्या है? शैतान ने लोगों को इस हद तक भ्रष्ट कर दिया है; क्या उनकी मानवता और सूझ-बूझ अब सामान्य नहीं रह गई हैं? क्या तुम लोगों ने अपने कर्तव्यों को निभाते हुए अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने की अभिव्यक्तियों को दर्शाया है? इस विषय पर कौन बोल सकता है? (मैंने ऐसी अभिव्यक्ति को दर्शाया है। जब मैं देर रात तक अपना कर्तव्य निभा रही होती हूँ, तो मैं इकट्ठा होने वाले समूह को एक संदेश भेजती हूँ ताकि दूसरे लोग जान सकें कि मैं इस समय तक भी सोई नहीं हूँ, और वे विचार करें कि मैं कष्ट सह सकती हूँ और कीमत चुका सकती हूँ। मैंने यह स्वयं किया है और दूसरे लोगों को भी अक्सर ऐसा करते देखा है।) ऐसा लगता है कि ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में हैं और वे अल्पसंख्यक नहीं हैं। क्या ऐसा काम करना अनुचित नहीं है? यह कितनी मूर्खतापूर्ण बात है! और कोई कुछ कहना चाहता है? (मैंने ऐसी अभिव्यक्ति दर्शायी है। जब मैं देखता हूँ कि कलीसिया के काम में कुछ समस्याएँ हैं, तो मैं उनका हल करने में लग जाता हूँ, जिससे लोगों को यह गलतफहमी होती है कि मैं बहुत उत्साही हूँ, लेकिन अधिकांश समय मैं बोलने के बाद वास्तव में कुछ नहीं करता। मेरे कार्यों में कोई प्रगति नहीं होती और वे अपर्याप्त होते हैं, और अंत में समस्या का कोई हल नहीं निकलता, और मामला अनसुलझा ही रह जाता है। मैं अपने सतही उत्साह का उपयोग लोगों को बहकाने और इस तथ्य को छिपाने के लिए करता हूँ कि मैं सत्य का अभ्यास नहीं करता हूँ।) तुम खोखले शब्द बोल रहे हो, बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो, और कोई वास्तविक कार्रवाई नहीं कर रहे हो। तुम लोगों को अपना जोश दिखाते हो, मानो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, लेकिन जब कुछ करने का समय आता है, तो तुम उसे व्यावहारिक तरीके से नहीं करते हो और केवल नारे लगाते हो। मूलतः, तुम एक धमाके के साथ शुरुआत करते हो और फुसफुसाहट के साथ खत्म करते हो, जिससे बात अधूरी रह जाती है। ऐसी अभिव्यक्ति भी गुमराह करने वाली है। और भविष्य में, जब ऐसा कुछ तुम्हारे साथ घटित होगा, तो क्या तुम इस मामले में समझदारी दिखाओगे? (अब मैं इसका भेद कुछ-कुछ पहचान सकता हूँ।) तो क्या तुम्हारे पास अपना रास्ता पलटने की कोई दिशा है? यदि ऐसा कुछ तुम्हारे साथ दोबारा होता है, तो तुम दो चरणों का पालन कर सकते हो : पहला कदम यह आकलन करना है कि क्या तुम वास्तव में इस मामले का ध्यान रख सकते हो या नहीं। यदि तुम ध्यान रख सकते हो, तो तुम्हें इसे गंभीरता से और व्यावहारिक रूप से करना होगा। दूसरा कदम है परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करना और उसे इस मामले में तुम्हारा मार्गदर्शन करने के लिए कहना, और जब तुम कार्रवाई करते हो, तो तुम्हें हरेक के पर्यवेक्षण को भी स्वीकारना होगा और साथ ही इस काम को पूरा करने के लिए अपने हिस्से की भूमिका निभाने और सभी के साथ सहयोग करने का संकल्प भी रखना होगा। यदि तुम चरणबद्ध तरीके से चीजें करना सीख लेते हो और व्यावहारिक ढंग से काम करते हो, तो तुम इस समस्या को हल कर लोगे। यदि तुम सदैव खोखले शब्द बोलते हो, बड़ी-बड़ी बातें करते हो, शेखी बघारते हो, कुछ काम करते समय सतही तौर पर खानापूर्ति करते हो, और बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं हो, तो तुम बेकार हो। तुम यह देख पा रहे हो कि कलीसिया के काम में समस्या है और तुम यह सुझाव देने में सक्षम हो कि समस्या को कैसे हल किया जाना चाहिए, यह साबित करता है कि तुममें क्षमता हो सकती है और इस मामले को हल करने के लिए तुम्हारे पास कार्य क्षमता हो सकती है। बात सिर्फ इतनी है कि तुम्हारे स्वभाव में समस्या है—तुम आवेगपूर्ण तरीके से कार्य करते हो, कीमत चुकाने के अनिच्छुक हो, और केवल खोखले नारे लगाने पर ध्यान केंद्रित करते हो। कभी तुम्हें किसी समस्या का पता चले, तो सबसे पहले देखो कि तुम इसे हल कर सकते हो या नहीं, और यदि तुम हल कर सकते हो, तो इस कार्य को हाथ में लो और इसे पूरा करो, समस्या का हल करो, अपनी जिम्मेदारी निभाओ और उसका लेखा-जोखा परमेश्वर को दो। अपने कर्तव्य निभाने और व्यावहारिक तरीके से कार्य और आचरण करने का यही अर्थ है। यदि तुम इस समस्या का हल नहीं कर सकते हो, तो अपने अगुआ को इसकी रिपोर्ट करो और पता लगाओ कि इस मामले को सँभालने के लिए कौन-सा व्यक्ति सर्वाधिक उपयुक्त है। सबसे पहले, तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी; इस तरह, तुम प्रयास करके अपना कर्तव्य निभा पाओगे और सही स्थान पर खड़े हो पाओगे। तुम्हें समस्या पता लगने के बाद, अगर तुम इसे हल नहीं कर सकते हो लेकिन इसकी रिपोर्ट करने में समर्थ हो, तो तुमने अपनी पहली जिम्मेदारी पूरी कर दी है। यदि तुम्हें लगता है कि यही वो कर्तव्य है जो तुम्हें निभाना चाहिए और तुम काम करने के योग्य हो तो तुम्हें अपने भाई-बहनों से मदद माँगनी चाहिए; सबसे पहले सिद्धांतों के बारे में संगति करो और योजना बनाओ और फिर इस मामले को पूरा करने के लिए सामंजस्यपूर्ण तरीके से मिलकर सहयोग करो। यह तुम्हारी दूसरी जिम्मेदारी है। यदि तुम इन दोनों जिम्मेदारियों को निभा सकते हो, तो तुमने अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाया होगा और तुम ऐसे सृजित प्राणी बन जाओगे जो मानक स्तर का है। लोगों के कर्तव्यों में इन पहलुओं से अधिक कुछ नहीं होता। यदि तुम उन चीजों को सँभाल सकते हो जिन्हें तुम देखते हो और जिन्हें तुम करने में समर्थ हो, और अपने कर्तव्यों को अच्छे ढंग से निभाते हो, तो तुम परमेश्वर के इरादो के अनुरूप हो।
क्या अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने की कोई और अभिव्यक्तियाँ हैं? (मैंने हाल ही में ऐसी अभिव्यक्ति दिखाई थी। जब मैं अपने कर्तव्य निभा रहा था, मैंने स्वयं को सारा दिन कार्यों में व्यस्त रखा, और कलीसिया में कुछ समस्याएँ थीं जिन्हें मैंने व्यावहारिक रूप से नहीं सुलझाया और इसके बजाय उन्हें केवल अनमने ढंग से निपटाया। हालाँकि, कुछ लोगों ने देखा कि मैं हर रोज अपना कर्तव्य निभाने में व्यस्त था, इसलिए उन्होंने मेरे बारे में ऊँचा सोचा और मेरी प्रशंसा की। क्या इस व्यवहार में भी अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने के तत्व शामिल नहीं हैं? मैं इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता हूँ और हमेशा थोड़ा मजबूर महसूस करता हूँ।) क्या यह अपने बारे में गवाही देना है? यदि तुम अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त हो, कष्ट सहन करने में समर्थ हो और शिकायत नहीं करते हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोग तुम्हारे बारे में ऊँचा सोचते हैं और तुम्हारी प्रशंसा करते हैं, तो यह सामान्य बात है और अपने बारे में गवाही देने से ऐसा नहीं होता है। तुम बस अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त हो और स्वयं का बखान या दिखावा नहीं कर रहे हो, और तुम कष्ट सहने के अपने अनुभवों के बारे में बात नहीं करते हो, इसलिए यह अपने बारे में गवाही देने से संबंधित नहीं है। हालाँकि, अनेक लोग अपने कर्तव्य निभाने के दौरान सतही तौर पर व्यस्त नजर आते हैं, जबकि वास्तव में, उनके काम के कोई परिणाम नहीं निकले हैं और उन्होंने किसी भी समस्या को नहीं सुलझाया है। क्या परमेश्वर इस तरह व्यस्त रहने वाले लोगों को स्वीकारता है? यदि तुम उन साधारण समस्याओं के साथ सारा दिन व्यस्त हो जिन्हें सत्य को समझने वाले और सिद्धांतों की समझ रखने वाले लोग दो घंटे में हल कर सकते हैं, और तुम बहुत थका हुआ महसूस करते हो और तुम्हें लगता है कि तुमने बहुत कष्ट सहा है, तो क्या तुम ना केवल स्वयं को बिना किसी काम के व्यस्त रखे हो, बल्कि बिना किसी उद्देश्य के अलग-अलग तरह के काम करने में व्यस्त हो? क्या तुम इस तरह से अपने कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हो? (नहीं।) तुम बेहद अकुशलता से काम कर रहे हो! इस मामले में, तुम्हें सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए। कभी-कभी लोगों के पास बहुत कुछ होता है और वे सही में व्यस्त होते हैं, जो सामान्य बात है, लेकिन कभी-कभी उनके पास करने को बहुत कुछ नहीं होता है और फिर भी वे व्यस्त होते हैं। इसका क्या कारण है? एक कारण यह है कि तुम्हारा काम ठीक से नियोजित और व्यवस्थित नहीं है। तुम्हें काम के मुख्य प्राथमिक कर्तव्यों को समझना चाहिए, और उन्हें ठीक से नियोजित और व्यवस्थित करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को अधिक कुशलता से निभाना चाहिए। बिना किसी उद्देश्य के अलग-अलग तरह के काम करने में व्यस्त हो और व्यर्थ में स्वयं को व्यस्त रखने को परमेश्वर स्वीकृति नहीं देगा। एक दूसरी स्थिति वह है जब तुम्हारा इरादा लोगों को यह सोचने पर मजबूर करने का होता है कि तुम व्यस्त हो, तुम दूसरों को धोखा देने के लिए इस उपाय और झूठे दिखावे का उपयोग करते हो। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता जब इकट्ठा होते हैं तो वे वास्तविक समस्याओं को हल नहीं करते हैं और इसके बजाय बेतुकी टिप्पणियाँ करते हैं, लगातार विषय से भटक जाते हैं और प्रमुख मुद्दे पर आए बिना बोलते रहते हैं। कुशलता या प्रगति के लिए प्रयास किए बिना व्यस्त रहने के इस तरीके को बिना काम स्वयं को व्यस्त रखना कहा जाता है। और यह किस प्रकार का रवैया है? यह दिल लगाकर काम नहीं करना, अनमना होना, समय नष्ट करना, और अंत में अभी भी यह सोचना है, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं या परमेश्वर क्या सोचता है, जब तक मेरा जमीर एकदम साफ है मैं ठीक रहूँगा। कम-से-कम मैं बेकार नहीं बैठा हूँ, कम-से-कम मुझे मुफ्त में दोपहर का भोजन तो नहीं मिल रहा है।” सतही तौर पर, ऐसा लग सकता है कि तुम बेकार नहीं बैठे हो, तुम्हें मुफ्त में दोपहर का भोजन नहीं मिल रहा है, हर रोज या तो तुम सभाओं में जा रहे हो या अपना कर्तव्य निभा रहे हो, और तुम जो कुछ भी कर रहे हो वो कलीसिया के काम से संबंधित है, लेकिन असलियत में, मन की गहराइयों में, तुम्हें पता है कि तुम जो काम कर रहे हो वे बिल्कुल भी उपयोगी नहीं हैं या उनका कोई मूल्य नहीं है, और तुम दिल लगाकर काम नहीं कर रहे हो। यह समस्याजनक है। तो, तुम कितने अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम्हें अच्छे से पता है कि तुममें समस्या है, लेकिन तुम इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हो—यह अनमना, संवेदनहीन और अड़ियल होना है। अपने कर्तव्य निभाते समय अनमना होने और टालमटोल करने का क्या परिणाम होता है? तुम्हें निश्चित रूप से परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि तुम सिद्धांतों के अनुसार या कुशलता से काम नहीं करते हो, और इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हो मानो कि तुम पूर्ण रूप से मजदूरी कर रहे हो। यदि तुम्हारी काट-छाँट की गई है और मदद की गई है लेकिन अभी भी तुम पश्चात्ताप नहीं करते हो, और शिकायतें भी करते हो और नकारात्मक होते हो और काम करते समय ढीले पड़ जाते हो, तो तुम्हें केवल हटाया ही जा सकता है। इसलिए, यदि तुम अनमना होने की समस्या को हल करने के लिए सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, तो चाहे तुम कितने भी लंबे समय तक अपने कर्तव्य निभा लो इसका कोई फायदा नहीं होगा, और तुम अपने कर्तव्यों को वफादारी से निभाने के मानकों पर खरे नहीं उतरोगे। इस समस्या पर विचार करना उचित है। परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग सिद्धांतों के साथ काम करें, वे सत्य का अभ्यास करें, और ईमानदार बनें। यदि कोई व्यक्ति इन सत्यों में प्रवेश कर सकता है, तो उसे अपने कर्तव्य निभाने के परिणाम प्राप्त होंगे, और कम-से-कम वह सिद्धांतों के साथ काम करने में सक्षम हो पाएगा। व्यक्ति की कुशलता बढ़ाने का आधार और कुंजी इसी में है। यदि किसी व्यक्ति के पास सत्य सिद्धांत नहीं हैं, तो चाहे वह कितनी भी व्यस्तता से अपने कर्तव्य निभा ले और चाहे हर रोज वह कितनी भी देर तक काम कर ले, उसे सही परिणाम नहीं मिलेंगे। यह आकलन करते समय कि लोग अपने कर्तव्यों को वफादारी से निभाते हैं या नहीं, परमेश्वर यह नहीं देखता कि वे अपने कर्तव्य कितने समय तक निभाते हैं, बल्कि वह उनके व्यावहारिक परिणामों और उनकी कार्यकुशलता को देखता है, और यह भी देखता है कि वे सिद्धांतों के साथ और सत्य के अनुसार कार्य कर रहे हैं या नहीं। सरल शब्दों में कहें तो वह यह देखता है कि लोगों के पास अपने कर्तव्यों को निभाने में सच्ची अनुभवजन्य गवाही और जीवन प्रवेश है या नहीं। यदि लोगों के पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है, तो वे केवल मजदूर हैं, लेकिन यदि वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और सिद्धांतों के साथ काम कर सकते हैं, तो यह लक्षण है कि वे परमेश्वर के लोगों के रूप में अपने कर्तव्य निभा रहे हैं। इस तुलना के माध्यम से यह समझा जा सकता है कि जो लोग अपने कर्तव्य करने में मानक स्तर के हैं, वे ही परमेश्वर के लोग हैं। जो लोग अपने कर्तव्य करने में मानक स्तर के नहीं हैं, जो हमेशा अनमने रहते हैं, वे मजदूर हैं। यदि कोई व्यक्ति सत्य को समझ सकता है और सिद्धांतों के साथ काम कर सकता है, तो उसे कोई भी कर्तव्य निभाने में समस्या नहीं होगी, और अगर वह कुछ समय के लिए प्रयास करता रहेगा तो वह आखिरकार अपने कर्तव्य किसी ऐसे तरीके से करेगा जो मानक स्तर का है। जहाँ तक उन लोगों का संबंध है जिनकी काबिलियत बहुत कम है या जो हमेशा अनमने रहते हैं, तो उनके लिए अपेक्षाओं को पूरा करना कठिन होगा, और अपने कर्तव्य निभाना उनके लिए मजदूरी करने से अधिक कुछ नहीं है। जहाँ तक भ्रमित लोगों, मूर्खों और बहुत कम इंसानियत वाले लोगों का संबंध है जो उचित काम नहीं करते, चाहे जिस तरह से भी संगति की जाए सत्य को स्वीकार नहीं करते और लापरवाही से काम करना जारी रखते हैं, उन्हें हटाया ही जा सकता है और उन्हें परमेश्वर में अपनी इच्छानुसार विश्वास करने के लिए छोड़ दिया जा सकता है। इसलिए, यदि कोई व्यक्ति सिद्धांतों के साथ अपना कर्तव्य नहीं निभाता है और बिना किसी उद्देश्य के अलग-अलग तरह के काम करने में व्यस्त है और हर रोज व्यर्थ में स्वयं को व्यस्त रखता है, तो उसे इस समस्या का हल करने के लिए शीघ्रता से सत्य की तलाश करनी चाहिए और सिद्धांतों के साथ काम करना चाहिए। उसे सामान्य रूप से हर रोज अपना कर्तव्य निभाने लायक होना चाहिए और केवल लंबे समय तक काम करने पर संतुष्ट नहीं होना चाहिए; उसे कुशलता से काम करने और अंतिम उत्पाद तैयार करने को महत्व देना चाहिए—केवल ऐसे लोग ही हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति देता है और जो वफादारी से अपने कर्तव्य निभाते हैं।
आजकल, ऐसे बहुत से लोग हैं जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन उनके एक हिस्से ने कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया है, और अपने कर्तव्य निभाते समय, वे सदैव लापरवाही से और अपनी इच्छानुसार वही काम करते हैं जो वे करना चाहते हैं। वे बड़ी गलतियाँ नहीं करते, लेकिन वे हर समय छोटी-छोटी गलतियाँ करते रहते हैं, विशेष रूप से हर रोज व्यस्त नजर आने के लिए, जबकि वास्तविकता में उन्होंने किसी भी सही मामले को नहीं सँभाला होता है और अपना समय व्यर्थ गँवा रहे होते हैं। कोई कह सकता है कि वे केवल अपना काम चलाने के लिए काम करते हैं। क्या ऐसे लोग खतरे में नहीं हैं? यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के आदेश के प्रति सदैव ऐसे श्रद्धाहीन रवैये के साथ पेश आता है, तो इसके क्या परिणाम होंगे? अप्रभावी ढंग से काम करना और व्यक्ति को उसके कर्तव्यों से बर्खास्त कर देना मामूली परिणाम है—यदि कोई व्यक्ति विभिन्न प्रकार के बुरे काम करता है तो उसे हटा देना चाहिए, और परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को शैतान को सौंप देगा। शैतान को सौंप देने का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर अब और उसकी देखभाल नहीं करेगा, परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा, और वह गलत रास्ते पर चलना आरंभ कर देगा और फिर उसे सजा दी जाएगी। तुम इसे समझते हो, है ना? अब वह समय है जब परमेश्वर लोगों को बेनकाब करता है, और यदि तुम अस्थायी तौर पर सही रास्ते पर नहीं चल रहे हो, तो परमेश्वर तुम्हें अपनी समस्याओं की पहचान करने का अवसर देने के लिए व्यावहारिक परिवेश का उपयोग करेगा। हालाँकि, एक बार तुम्हें पता चल जाए कि परमेश्वर ने तुम्हें विचार करने के लिए कुछ समय दिया है, कि परमेश्वर तुम्हें अंतिम अवसर दे रहा है, यदि तुम अब भी वापस नहीं लौटते हो और हठपूर्वक अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभाना जारी रखते हो, तो परमेश्वर कार्रवाई करेगा। जब परमेश्वर ने नीनवे शहर को ध्वस्त करने का इरादा किया, तो क्या उसने तुरंत ऐसा किया था? उसने तुरंत नहीं किया था। जब परमेश्वर ने कार्रवाई की तो उसका पहला कदम क्या था? उसने सबसे पहले योना को सूचित किया, और उसे स्पष्ट रूप से बताया कि संपूर्ण प्रक्रिया कैसे चलेगी और उसके इरादे क्या हैं। इसके बाद, योना नीनवे गया और यह घोषणा करते हुए पूरे शहर में घूमा : “अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा” (योना 3:4)। यह संदेश हरेक ने सुना; पुरुष और महिलाओं, युवाओं और बुजुर्गों, और हर क्षेत्र के लोगों ने इसके बारे में सुना—हर परिवार को इसके बारे में पता था, और यहाँ तक कि उनके राजा ने भी यह समाचार सुना था। परमेश्वर ने इस तरह से कार्रवाई क्यों की? इस मामले पर गौर करने पर यह देखा जा सकता है कि चाहे वह लोगों को बचा रहा हो, लोगों को बेनकाब कर रहा हो, या उन्हें सजा दे रहा हो, जिस तरह से वह लोगों से व्यवहार करता है उन सभी में प्रक्रियाएँ और सिद्धांत होते हैं। वह अचानक सनक में आकर कार्रवाई नहीं करता, जब उसे किसी का रूप-रंग पसंद नहीं आता तो उसे तुरंत नष्ट नहीं कर देता है। इसके बजाय, वह कुछ समय गुजरने देता है। यह समय गुजरने देने में उसका क्या उद्देश्य है? (लोगों को पश्चात्ताप करने देना।) यह नीनवे के लोगों को बताने के लिए है कि वह क्या करने जा रहा है, ताकि वे विचार करें और धीरे-धीरे उसके इरादों को समझें और धीरे-धीरे वापस लौटना शुरू कर दें। लोग इसे पहचानें उसकी एक प्रक्रिया है, और इन 40 दिनों का समय परमेश्वर ने लोगों को वापस लौटने के लिए दिया है। यदि वे 40 दिनों के बाद भी वापस नहीं लौटे और उसके समक्ष अपने पापों को स्वीकार नहीं किया, तो परमेश्वर इस काम को उसी तरह पूरा करेगा जैसा उसने कहा था। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर जो कहता है वह सच होता है, और जो वह कहता है वह पूरा होगा—इन वचनों में कुछ भी झूठ नहीं होता। जब नीनवे के लोगों को यह समाचार मिला तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी? क्या उन्होंने खुद को तुरंत टाट और राख से ढक लिया था? नहीं, उसकी एक प्रक्रिया थी। शुरूआत में, लोगों को संदेह रहा होगा : “परमेश्वर हमें नष्ट कर देगा; क्या उसने वास्तव में ऐसा कहा था? हमने क्या किया था?” इसके बाद, सभी परिवारों ने एक दूसरे को इस मामले की जानकारी दी और मिलकर चर्चा की। उन्हें लगा कि संकट आ गया है और वे जीवन-मरण के दोराहे पर खड़े हैं। तो, फिर उन्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें पाप स्वीकार करके पश्चात्ताप करना चाहिए, या शंकालु होकर प्रतिरोध करना चाहिए? यदि वे सही में शंकालु होकर प्रतिरोध करने का विकल्प चुनते हैं, तो इसका परिणाम यह होगा कि 40 दिनों बाद उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा, लेकिन यदि वे अपने पाप स्वीकार लेते हैं और वापस लौट आते हैं, तो उन्हें अभी भी जिंदगी मिल जाएगी। कई दिनों तक सभी स्तरों पर इस मामले में विचार करने के बाद, बहुत थोड़े नागरिक अपने पापों को स्वीकारने और वापस लौटने का रवैया अपनाने में सक्षम हुए थे। वे आराधना में सिर झुकाने, त्याग करने, या कुछ अच्छे व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ दिखाने में सक्षम थे। लेकिन एक सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति था जिसने इस शहर को बचाया था—यह कौन था? यह नीनवे का राजा था। उसने राजा से लेकर नीचे सर्वसाधारण तक पूरे देश को आदेश दिया कि वे स्वयं को टाट और राख से ढक लें, अपने पापों को स्वीकारें और यहोवा परमेश्वर के समक्ष पश्चात्ताप करें। ऐसा आदेश जारी करने के बाद, क्या शहर में कोई भी ऐसा ना करने की हिम्मत कर सकता था? एक राजा के पास इस प्रकार की शक्ति होती है। यदि उसने इस शक्ति का उपयोग बुरे काम करने के लिए किया होता, तो देश के लोगों को महाविनाश झेलना पड़ता, लेकिन इसके बजाय उसने अपनी शक्ति का उपयोग सही काम करने, परमेश्वर की आराधना करने और उसके पास वापस लौट जाने के लिए किया, और शहर सुरक्षित रहा, पूरे देश के लोग बच गए, और उन्हें दोषमुक्त होने की उम्मीद थी। क्या यह निर्णय इस राजा के एक ही विचार से नहीं हुआ था? यदि उसने कहा होता, “चाहे तुम लोग पश्चात्ताप करने के इच्छुक हो या नहीं, मैं ऐसा नहीं करूँगा; तुम लोग अपनी करनी के भागीदार हो। मैं ऐसी चीजों को नहीं मानता हूँ, और मैंने कोई बुरा काम नहीं किया है। इसके अलावा, मेरा रुतबा है, तो परमेश्वर मेरा क्या बिगाड़ सकता है? क्या वह मुझे राजगद्दी से हटा सकता है? यदि शहर नष्ट होता है, तो हो जाए। इन आम लोगों के बिना भी मैं राजा ही रहूँगा, जैसा कि मैं पहले था!” अगर उसका ऐसा विचार होता, ऐसी सोच होती तो क्या होता? तो आम लोग बहुत कम बच पाते, और परमेश्वर आखिरकार उन लोगों को चुनकर बाहर ले आता जो पश्चात्ताप करने के इच्छुक थे। उसके द्वारा उन लोगों को बाहर निकाल लिए जाने के बाद, जो पश्चात्ताप करने के बजाय मरना पसंद करते, तो वे शहर के साथ नष्ट हो जाते, और बेशक राजा भी उनमें शामिल होता। और जो लोग पश्चात्ताप करने के इच्छुक होते, परमेश्वर द्वारा उन्हें शहर से बाहर निकाल लिए जाने के बाद वे जिंदा रहते। लेकिन, इसमें सबसे अच्छी बात यह थी कि नीनवे का राजा स्वयं को टाट और राख से ढकने में अग्रणी भूमिका निभाने में सक्षम था, और शहर के आम लोगों को, चाहे वे महिला हों या पुरुष, युवा हों या बुजुर्ग—वे चाहे जो भी हों, कितने भी ऊँचे पदाधिकारी या कितने भी निम्न वर्ग के किसान—कुलीन से लेकर सामान्य नागरिकों तक, यह बताने में सक्षम था कि उन्हें स्वयं को टाट और राख से ढक लेना चाहिए और आराधना में यहोवा परमेश्वर के सामने घुटने टेकने चाहिए, उसे दंडवत करके अपने पापों को स्वीकारना चाहिए, वापस लौटने, अपने बुरे मार्ग से दूर होने और अपने हाथों की बुराई को त्यागने, परमेश्वर के समक्ष पश्चात्ताप करने और प्रार्थना करने का अपना रवैया अभिव्यक्त करना चाहिए ताकि वह उन्हें नष्ट ना करे। नीनवे के राजा ने परमेश्वर के समक्ष पश्चात्ताप करने और अपने पापों को स्वीकारने में अग्रणी भूमिका निभाई, और ऐसा करके शहर की पूरी आबादी को बचा लिया, और उसके साथ अनेक लोगों का भला हुआ। ऐसा करने में अग्रणी भूमिका निभाकर, उसकी शक्ति मूल्यवान हो गई। इस राजा द्वारा परमेश्वर के समक्ष वापस लौटने में लोगों की अगुआई करना ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर याद रखता है।
क्या मसीह-विरोधियों की अपनी बड़ाई करने और अपने बारे में गवाही देने की विषय-वस्तु की इतने विस्तार से संगति करने का तुम लोगों को कोई लाभ होता है? इस तरह बार-बार संगति करना, उदाहरण देना, कहानियाँ सुनाना, इसे वर्णित और परिभाषित करने के लिए अलग-अलग तरीकों और शब्दों का उपयोग करना—यदि लोग अब भी नहीं समझते, तो उनमें वाकई आध्यात्मिक समझ की कमी है, और इस तरह के लोग कभी नहीं सुधर सकते। इतने विस्तार से संगति करने का क्या लक्ष्य है? यह सुनिश्चित करना कि इन वचनों को सुनने के बाद लोग जो समझते और स्वीकारते हैं वह धर्म-सिद्धांत नहीं हैं, ना शाब्दिक अर्थ है, और ना कोई निश्चित भाव है, बल्कि चीजें जिस तरह से हैं उसके बारे में एक सत्य है और लोगों के सार, उनके अस्तित्व और उनके जीवन से संबंधित कुछ सत्य और सिद्धांत हैं। यदि तुम लोग मेरे बताए इन कथनों या इन उदाहरणों को तुलना करने के लिए अपनी वास्तविक स्थिति पर या अपने जीवन में बेनकाब की गई चीजों पर लागू कर सको तो तुम लोग सत्य को समझ सकते हो और आध्यात्मिक समझ वाले व्यक्ति बन सकते हो। तुलना के लिए लागू करने का मतलब यह है कि जिस किसी उदाहरण या मामले की चर्चा की गई है उसे अपनी स्थिति से जोड़ना और सत्य के जिस किसी पहलू पर संगति की गई है उसे अपनी स्थिति और अपने खुलासों से जोड़ना। यदि तुम यह जानते हो कि इन चीजों को आपस में कैसे जोड़ा जाए और इस ज्ञान का उपयोग कैसे किया जाए तो तुममें आध्यात्मिक समझ है, तुम्हारे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की उम्मीद है और तुम सत्य को समझ सकते हो। जो कुछ भी कहा जाए यदि तुम उसे नहीं समझते हो, यदि तुम इन बातों को खुद से नहीं जोड़ सकते हो, यदि तुम्हें लगता है कि तुमने जो कुछ भी सुना उसका तुम्हारे द्वारा किए गए खुलासे और तुम्हारे अपने प्रकृति सार से कोई लेना-देना नहीं है, और यदि तुम सह-संबंध नहीं ढूँढ़ सकते, तो तुम पूरी तरह से अज्ञानी हो और तुम्हें कुछ भी पूरी तरह समझ नहीं आता है; तुम में आध्यात्मिक समझ की कमी है। आध्यात्मिक समझ की कमी वाले ऐसे लोग केवल मजदूरी के लिए अच्छे होते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। जो लोग उद्धार पाना चाहते हैं उन्हें सत्य वास्तविकता में प्रवेश अवश्य करना चाहिए, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को इन वचनों को समझना चाहिए और इन कहानियों और परिस्थितियों को समझना चाहिए जिनके बारे में मैंने बात की; साथ ही, प्रत्येक मामले, प्रत्येक प्रकार के खुलासे, और प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति के सार, उसकी अभिव्यक्तियों और स्थितियों को समझना चाहिए, और इन सभी को खुद में धारण करने में सक्षम होना चाहिए। केवल इस तरीके से वे सत्य को समझ सकते हैं; यदि वे इस बिंदु तक नहीं पहुँचते, तो वे इसे नहीं समझ सकते। यह वैसा ही है जब लोग मुर्गी पालते हैं—यदि किसी व्यक्ति ने छह महीने तक मुर्गी पाली, और यह अब भी अंडे नहीं देती, तो क्या यह कहा जा सकता है कि यह मुर्गी अंडे नहीं देती है? (नहीं।) यदि मालिक के पास यह मुर्गी तीन साल से थी और उसने इसे अनाज और हरी सब्जियाँ खिलाई, लेकिन भले ही इसने कुछ भी खाया हो, यह अंडे नहीं देती है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि यह मुर्गी अंडे नहीं देती है? (हाँ।) तो, जब बात लोगों की आती है, उनमें से कुछ लोगों ने चाहे कितने भी धर्मोपदेश सुने हों और चाहे तुमने उनके साथ सत्य के बारे में कितनी भी संगति की हो, वे नहीं समझ पाते। यह बिना आध्यात्मिक समझ वाला व्यक्ति है। एक दूसरी तरह का व्यक्ति होता है, जो सुनी हुई बात को समझ तो लेता है लेकिन उसे व्यवहार में नहीं ला पाता, वह वापस नहीं लौटता है। इस तरह के व्यक्ति का काम तमाम हो चुका है और वह सदोम शहर के निवासियों की भांति ही है—जो विनाश की वस्तु बनने के लिए अभिशप्त हैं। मसीह-विरोधी इसी श्रेणी के लोग होते हैं; चाहे तुम सत्य के बारे में उनके साथ कैसी भी संगति कर लो, वे वापस नहीं लौटेंगे। क्या यह महज एक अड़ियल स्वभाव है? (नहीं।) यह उनका प्रकृति सार है जो परमेश्वर विरोधी होता है और सत्य के प्रति वैर-भाव रखता है, और ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य को समझना असंभव है। वे सत्य को शत्रु बना लेते हैं, सत्य और परमेश्वर का विरोध करते हैं, और सकारात्मक चीजों के प्रति वैर-भाव रखते हैं, इसलिए जब तुम सत्य के बारे में संगति करते हो, तो वे इसे सत्य के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रकार के सिद्धांत, विद्वता या धर्म-सिद्धांत के रूप में समझते हैं। संगति को सुनने के बाद, वे अपने हृदय को इससे सुसज्जित कर लेते हैं ताकि इसके बाद वे दिखावा कर सकें और अपने हित, रुतबा, प्रसिद्धि और लाभ अर्जित कर सकें। यह उनका लक्ष्य है। चाहे तुम सत्य के बारे में कैसे भी संगति कर लो और चाहे तुम कैसे भी उदाहरणों की चर्चा कर लो, तुम उन्हें सुधार नहीं सकते, और तुम उनके इरादों को पलट नहीं सकते या उनके काम करने के तरीके को बदल नहीं सकते। वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते। जो लोग सत्य को सुनने के बाद उसे स्वीकार नहीं करते और उसका अभ्यास नहीं करते, उनमें सत्य से बदलाव नहीं लाया जा सकता, और परमेश्वर ऐसे लोगों को बचाता नहीं है। इस प्रकार के लोगों को अनिवार्यतः ऐसे लोगों के रूप में निरूपित किया जा सकता है जो सत्य के प्रति वैर-भाव रखते हैं, और साफ-साफ कहा जाए तो वे मसीह-विरोधी हैं। मसीह-विरोधियों और आम लोगों में यही अंतर होता है।
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