मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग एक) खंड दो
परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने की प्रक्रिया में मसीह-विरोधियों में हमेशा परमेश्वर की पहचान और सार के बारे में धारणाएँ पैदा होती हैं, और वे हमेशा सवाल करते हैं कि परमेश्वर सिर्फ बोलता क्यों है और कोई संकेत और चमत्कार क्यों नहीं दिखाता। हालाँकि मसीह-विरोधी भी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, लेकिन उनका इरादा सत्य खोजकर उसे स्वीकारना नहीं होता, बल्कि वे उन्हें अध्ययन और विवेचन की मानसिकता से पढ़ते हैं। नतीजतन, वे न सिर्फ वास्तविक आस्था विकसित करने में विफल रहते हैं, बल्कि और ज्यादा शंकालु हो जाते हैं, और जितनी ज्यादा वे पड़ताल करते हैं, देहधारी परमेश्वर के बारे में उतनी ही ज्यादा धारणाएँ पाल लेते हैं। उनकी मुख्य धारणा यह है कि वे मानते हैं कि मसीह में अलौकिक मानवता होनी चाहिए। वे सोचते हैं : “अगर मसीह में सामान्य मानवता है और वह कोई संकेत या चमत्कार नहीं दिखाता, तो यह कैसे साबित किया जा सकता है कि वह परमेश्वर है?” मसीह-विरोधियों के दिलों में सिर्फ परमेश्वर का आत्मा ही परमेश्वर है, और सिर्फ वह देह ही परमेश्वर है जो संकेत और चमत्कार दिखा सकता है। अगर किसी देह में सिर्फ सामान्य मानवता है और वह संकेत और चमत्कार नहीं दिखाता, तो भले ही वह सत्य व्यक्त कर सकता हो, उसे परमेश्वर नहीं माना जाता। इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं कि मसीह-विरोधी हमेशा देहधारी परमेश्वर के सार पर संदेह करते हैं। चाहे उसके साथ कितनी भी चीजें घटित हो जाएँ, मसीह-विरोधी जैसा व्यक्ति कभी परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजकर उन्हें हल करने की कोशिश नहीं करता, चीजें परमेश्वर के वचनों के माध्यम से देखने की कोशिश तो वह बिल्कुल भी नहीं करता—जो पूरी तरह से इसलिए है, क्योंकि वह इस पर विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर के वचनों की प्रत्येक पंक्ति सत्य है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जिस भी तरह संगति करे, मसीह-विरोधी उसे ग्रहण नहीं करते, जिसका नतीजा यह होता है कि चाहे उन्हें किसी भी स्थिति का सामना करना पड़े, उनमें सही रवैये का अभाव रहता है; विशेष रूप से, जब यह बात आती है कि वे परमेश्वर और सत्य को कैसे लेते हैं, तो मसीह-विरोधी हठपूर्वक अपनी धारणाएँ अलग रखने से इनकार कर देते हैं। जिस परमेश्वर में वे विश्वास करते हैं, वह एक ऐसा परमेश्वर है जो चिह्न और चमत्कार दिखाता है, यानी एक अलौकिक परमेश्वर। जो कोई भी संकेत और चमत्कार दिखा सकता है—चाहे वह गुआनिन बोधिसत्व हो, बुद्ध हो या माजू हो—वे उन्हें देवता कहते हैं। वे मानते हैं कि जो संकेत और चमत्कार दिखा सकते हैं, सिर्फ वे ही देवताओं की पहचान रखने वाले देवता हैं और जो संकेत और चमत्कार नहीं दिखा सकते, वे चाहे कितने भी सत्य व्यक्त करें, आवश्यक नहीं कि वे देवता हों। वे यह नहीं समझते कि सत्य व्यक्त करना परमेश्वर की महान शक्ति और सर्वशक्तिमत्ता है; इसके बजाय, उन्हें लगता है कि सिर्फ संकेत और चमत्कार दिखाना ही देवताओं की महान शक्ति और सर्वशक्तिमत्ता है। इसलिए, लोगों को जीतने और बचाने, उनका सिंचन करने, उनकी चरवाही करने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करने, उन्हें वास्तव में परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का अनुभव करने और सत्य समझने, अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने, और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसकी आराधना करने वाले लोग बनने में सक्षम बनाने, आदि के लिए सत्य व्यक्त करने के देहधारी परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य की बात करें तो—मसीह-विरोधी इन सबको मनुष्य का कार्य मानते हैं, परमेश्वर का नहीं। मसीह-विरोधियों के विचार में देवताओं को वेदी के पीछे छिपा होना चाहिए और अपने लिए चढ़ावे चढ़वाने चाहिए, लोगों द्वारा चढ़ाए गए खाद्य पदार्थ खाने चाहिए, उनकी जलाई गई धूपबत्ती का धुआँ सूँघना चाहिए, उनके मुसीबत में होने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए, खुद को बहुत शक्तिशाली दिखाना चाहिए और लोगों की समझ के दायरे में उन्हें तत्काल सहायता प्रदान करनी चाहिए, और जब लोग मदद माँगें और उनकी विनती में ईमानदारी हो तो उनकी जरूरतें पूरी करनी चाहिए। मसीह-विरोधियों के अनुसार सिर्फ ऐसा परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है। इस बीच, आज परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसे मसीह-विरोधियों का तिरस्कार झेलना पड़ता है। और ऐसा क्यों है? मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को देखते हुए, उन्हें जिस चीज की जरूरत है, वह सिंचन, चरवाही और उद्धार का वह कार्य नहीं है जो सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों पर करता है, बल्कि सभी चीजों में समृद्धि और उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना, इस दुनिया में दंडित न किया जाना और आने वाली दुनिया में स्वर्ग जाना है। उनका दृष्टिकोण और जरूरतें सत्य के प्रति उनकी घृणा के उनके सार की पुष्टि करती हैं। मसीह-विरोधी दुष्टता, अलौकिकता और चमत्कारों से प्रेम करते हैं, यहाँ तक कि वे शैतान और दुष्टात्माओं के कार्यों और शैतानी शब्दों की—जो नकारात्मक और दुष्ट चीजें हैं—दिव्य और सत्य के रूप में पूजा भी करते हैं। वे इन्हें अपने लिए आजीवन पूजा और अनुसरण की वस्तु मानते हैं और ऐसी चीजें समझते हैं, जिन्हें दुनिया में सम्मानित और प्रचारित किया जाना चाहिए। नतीजतन, परमेश्वर का अनुसरण करते हुए परमेश्वर की पहचान के बारे में उनकी धारणाएँ और विचार कभी नहीं बदलेंगे। अगर ऐसे लोग परमेश्वर के घर में अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं कर सकते, अगर उन्हें पदोन्नत नहीं किया जाता या उनका उपयोग नहीं किया जाता और वे त्वरित और बड़ी सफलता प्राप्त करने में विफल रहते हैं, तो वे कभी भी कहीं भी परमेश्वर को धोखा देने के लिए तैयार रहेंगे। इनमें से कुछ लोग 10 वर्षों से विश्वास करते आए हैं, कुछ 20 वर्षों से, और तुम्हें लगेगा कि उनके पास एक नींव है और वे परमेश्वर को नहीं छोड़ेंगे, लेकिन वास्तव में वे कभी भी परमेश्वर को धोखा देकर बाहरी दुनिया में लौटने के लिए तैयार हैं। भले ही वे कलीसिया न छोड़ें, लेकिन उनके दिल पहले से ही परमेश्वर से भटककर उसे धोखा दे चुके होते हैं। जब भी परिस्थितियाँ अनुकूल होंगी या अवसर आएँगे, वे जाकर नकली देवताओं और दुष्टात्माओं पर विश्वास करने लगेंगे। अगर उन्हें त्वरित सफलता पाने, उच्च अधिकारी बनने, प्रसिद्ध होने, और महिमा और धन-दौलत का आनंद लेने का मौका मिले, तो वे कलीसिया छोड़कर बाहरी दुनिया की प्रवृत्ति का पालन करने में संकोच नहीं करेंगे। कुछ मसीह-विरोधी सवाल करते हैं, “अगर वह परमेश्वर है, तो वह बड़े लाल अजगर का उत्पीड़न और धर-पकड़ क्यों सहता है? अगर वह परमेश्वर है, तो वह बड़े लाल अजगर को नेस्तनाबूद करने के लिए संकेत और चमत्कार क्यों नहीं दिखाता? परमेश्वर के चुने हुए बहुत-से लोगों को बड़े लाल अजगर ने पकड़कर सताया है। परमेश्वर शैतान के उत्पीड़न से उनकी रक्षा कर उन्हें बचाता क्यों नहीं?” यह वैसा ही है, जैसा कि यहूदी धर्म के फरीसी सोचते थे, “अगर यीशु परमेश्वर है, तो उसे सलीब पर क्यों चढ़ाया गया? वह खुद को बचा क्यों नहीं सका?” मसीह-विरोधी इसे कभी नहीं समझते क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, न ही वे यह मानते हैं कि परमेश्वर के वचन सब-कुछ साकार कर देंगे। वे सिर्फ वही मानते हैं जो वे देखते हैं, और उन्हें परमेश्वर के किए समस्त कार्य से प्रदर्शित मूल्य या महत्व पर आस्था नहीं है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया हर वचन सत्य है और उसका हर वचन पूरा और साकार होगा; वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर की बुद्धि शैतान की चालों के आधार पर काम करती है, या कि परमेश्वर अपनी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि प्रकट करने वाली विषमता के रूप में सेवा प्रदान करने के लिए बड़े लाल अजगर का उपयोग करता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है और परमेश्वर के वचन हर चीज साकार करते हैं, तो क्या मसीह-विरोधी अभी भी परमेश्वर के विश्वासी हैं? वे परमेश्वर के विश्वासी नहीं हैं। मसीह-विरोधी वे लोग हैं, जो परमेश्वर को नकारते हैं और उसका विरोध करते हैं; वे शुद्ध छद्म-विश्वासी हैं।
मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर की पहचान स्वीकारने से मना करने के पीछे कौन-से मुख्य कारण हैं? एक तो यह है कि परमेश्वर दुनिया में समस्त अन्याय दूर नहीं करता, मानवजाति को न्याय प्रदान नहीं करता, या बुराई करने वालों को तुरंत दंडित नहीं करता, जबकि मसीह-विरोधी अपनी धारणाओं में कल्पना करते हैं कि परमेश्वर को यह सब करना चाहिए; परमेश्वर जिन चीजों पर संप्रभुता रखता है उन सभी के बीच रोज कई अनुचित घटनाएँ घटती हैं, फिर भी परमेश्वर इससे उदासीन प्रतीत होता है और प्रतिक्रिया में एक भी शब्द नहीं बोलता या कुछ भी नहीं करता। मसीह-विरोधियों की नजर में, वे दुनिया में जो कुछ भी देखते हैं, जो उनके सामने आने वाली चीजों के दायरे में होता है, वह उनकी धारणाओं में फिट नहीं बैठता, और वह नहीं होना चाहिए। उन्हें क्यों लगता है कि ये चीजें नहीं होनी चाहिए? वे सोचते हैं : “अगर परमेश्वर है, तो वह इन चीजों पर ध्यान क्यों नहीं देता? अगर परमेश्वर है, तो इतने सारे बुरे लोग अभी भी अच्छी तरह से क्यों जीते हैं? अमीर लोग और ज्यादा अमीर और गरीब लोग और ज्यादा गरीब क्यों होते जा रहे हैं? अमीर लोग रोज शानदार भोजन क्यों खाते हैं और इतना आनंद क्यों लेते हैं, जबकि इतने सारे लोगों को अभी भी भोजन के लिए भीख माँगनी पड़ती है? भोले-भाले लोगों को धौंस क्यों दी जाती है, उन पर अत्याचार क्यों किया जाता है और उनका शोषण क्यों किया जाता है? कुछ लोग इतने कम वेतन पर दिन में आठ घंटे से ज्यादा काम करते हुए श्रम क्यों करते हैं और पसीना क्यों बहाते हैं, जबकि दूसरे लोग एक घंटे में इतना कमा लेते हैं जितना कोई व्यक्ति पूरे जीवन में नहीं कमा सकता? परमेश्वर इन सामाजिक और सांसारिक अन्यायों से क्यों नहीं निपटता? कुछ लोग अपने मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर क्यों पैदा होते हैं, जबकि दूसरे लोग गरीबी और अभावों में पैदा होते हैं? कुछ लोग अपने पूरे जीवन में वैभव और धन-दौलत और अपने परिवारों के स्नेहपूर्ण प्रेम का आनंद क्यों ले पाते हैं, जबकि दूसरे लोग नहीं ले पाते, हालाँकि वे उसी सामाजिक परिवेश में पैदा हुए होते हैं?” ये मसीह-विरोधियों के दिलों में हमेशा के लिए अनसुलझी पहेलियाँ हैं। उन्हें लगता है कि चूँकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं इसलिए उन्हें वे सभी चीजें, जिनकी असलियत वे देख नहीं पाते और जिन्हें वे समझ नहीं पाते, और वे सभी पहेलियाँ परमेश्वर को सौंप देनी चाहिए जिन्हें वे हल नहीं कर पाते और उसे समाधान प्रदान करने देना चाहिए, और उन्हें उनके समाधान परमेश्वर के वचनों में खोजने चाहिए। लेकिन तीन से पाँच वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद वे ये उत्तर खोजने में सक्षम नहीं होते, और आठ से 10 वर्षों तक विश्वास करने के बाद भी वे उन्हें नहीं पा सकते। 20 वर्षों तक विश्वास करने के बाद वे सोचते हैं, “मुझे अभी तक कोई जवाब क्यों नहीं मिला है? परमेश्वर ने इन मुद्दों को क्यों नहीं सुलझाया है? परमेश्वर गुआनिन बोधिसत्व या स्वर्ग के शासक सम्राट जेड की तरह कार्य क्यों नहीं करता? परमेश्वर के पास अधिकार और शक्ति है और परमेश्वर की पहचान है, इसलिए उसे ये काम करने चाहिए! खासकर कलीसिया में, क्यों अक्सर दुष्ट लोग दिखाई देते हैं और क्यों वे विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, कुछ तो चढ़ावे भी चुरा लेते हैं और कोई परिणाम नहीं भुगतते? कुछ लोग अक्सर झूठ बोलते हैं और कुछ लोग धारणाएँ और बेबुनियाद अफवाहें फैलाते हैं लेकिन उन्हें परमेश्वर का अनुशासन या दंड नहीं झेलना पड़ता; अन्य लोग अचानक परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देते हैं और जाकर समाज में काम करने लगते हैं, और कुछ वर्षों के बाद वे अमीर बन जाते हैं और कभी कठिन समय का सामना नहीं करते। कुछ विश्वासी उन लोगों की तुलना में बदतर जीवन जीते हैं जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते। वास्तव में, परमेश्वर के विश्वासी कष्ट उठा रहे हैं और उनमें से कई सताए जा रहे हैं, वे अपने घर लौटने में असमर्थ हैं और गरीबी और दुख में जी रहे हैं। निश्चित रूप से परमेश्वर में विश्वास करने का यह अर्थ नहीं है? निश्चित रूप से परमेश्वर का अनुसरण करने का यह मूल्य नहीं है? निश्चित रूप से यह वह रोजमर्रा का जीवन नहीं है जो परमेश्वर लोगों को देना चाहता है? जब लोग ऐसी चीजों का सामना करते हैं जिन्हें वे पूरा नहीं कर सकते, तो परमेश्वर उन्हें तुरंत समझाने के लिए कुछ असाधारण क्यों नहीं करता? ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें लोग नहीं समझते, और नहीं जानते कि परमेश्वर उस तरह से कार्य क्यों करता है जिस तरह से वह करता है। परमेश्वर लोगों के दिलों को रोशन करने के लिए एक दीपक क्यों नहीं जला देता? वह लोगों को प्रेरणा क्यों नहीं देता? जब लोग बुराई करते हैं और विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं तो परमेश्वर सीधे खड़े होकर उन बुरे लोगों को शाप नहीं देता, और उनका प्रतिदंड से सामना नहीं करवाता। मैंने परमेश्वर द्वारा ऐसे कार्य करने के ज्यादा उदाहरण नहीं देखे हैं। कभी-कभी लोगों को परमेश्वर की प्रबुद्धता, रोशनी और प्रावधान की आवश्यकता होती है, तो वे परमेश्वर को महसूस क्यों नहीं कर सकते या उसे देख क्यों नहीं सकते? परमेश्वर कहाँ है?” मसीह-विरोधियों के दिलों में इस तरह के सभी “क्यों” अनुत्तरित रहते हैं। वे नहीं समझते कि ये चीजें और परिघटनाएँ कभी बदलती क्यों नहीं, पलटती क्यों नहीं, उनका सुधरना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करने से लोग पूरी तरह से बदल जाने चाहिए, और उनका पूरा जीवन, चाल-ढाल, विचार और खासकर उनके जीवन की गुणवत्ता, और उनकी योग्यताएँ और कौशल, सभी को सकारात्मक दिशा में विकसित होना चाहिए। 10 या 20 वर्षों के अवलोकन के बाद वे ये बदलाव क्यों नहीं देख सकते? लोग जिन चीजों के बारे में कल्पना करते हैं या जिनका अपनी धारणाओं में सपना देखते हैं, वे परमेश्वर में विश्वास करने के बाद कभी हल या साकार नहीं होतीं। तो, परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब क्या है? परमेश्वर में विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का मूल्य क्या है? ये प्रश्न मसीह-विरोधियों के दिलों में अनसुलझे और अनुत्तरित रहते हैं, और वे उस तरह साकार या पूरे नहीं होते जैसा होने की मसीह-विरोधी कल्पना करते हैं, इसलिए मसीह-विरोधियों के मन में जो परमेश्वर है, वह कभी अस्तित्व में नहीं होता। और स्वाभाविक रूप से, जिसके पास परमेश्वर की पहचान है उसे मसीह-विरोधी अपने मन में हमेशा के लिए नकार देते हैं।
मसीह-विरोधियों के परमेश्वर में विश्वास में बहुत ज्यादा मिलावट है। असल में मसीह-विरोधी परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं करते; यह सब दिखावा है। वे परमेश्वर में वैसे ही विश्वास करते हैं, जैसे गैर-विश्वासी शैतानों और मूर्तियों की आराधना करते हैं। उन्हें परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला हर कार्य स्वीकारना कठिन लगता है और वे मन में हमेशा संदेह और प्रश्न पालते रहते हैं। वे इन संदेहों और प्रश्नों को अपने दिलों में छिपाते हैं और उन्हें व्यक्त करने की हिम्मत नहीं करते, और वे दिखावा करने में भी माहिर होते हैं, इसलिए चाहे वे कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करें, वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी ही रहते हैं। वे परमेश्वर और उसके तमाम क्रियाकलापों को अपनी फंतासियों, परमेश्वर के बारे में अपनी विभिन्न कल्पनाओं और धारणाओं, और साथ ही कुछ परंपरागत इंसानी ज्ञान और नैतिकता की धारणाओं के आधार पर मापते हैं। वे इन चीजों का उपयोग परमेश्वर की पहचान को मापने के लिए करते हैं और इस बात को मापने के लिए करते हैं कि उसका अस्तित्व है या नहीं। और अंतिम नतीजा क्या होता है? वे परमेश्वर के अस्तित्व को नकार देते हैं और देहधारी परमेश्वर की पहचान और सार को नहीं स्वीकारते। क्या वह मानक, जिसके द्वारा मसीह-विरोधी यह मापते हैं कि देहधारी परमेश्वर में परमेश्वर की पहचान और सार है या नहीं, गलत नहीं है? साफ-साफ कहें तो, मसीह-विरोधी ज्ञान और प्रसिद्ध, महान हस्तियों का आदर करते हैं, इसलिए उन्हें इन प्रसिद्ध, महान हस्तियों से आने वाली चीजों के प्रति कभी कोई आपत्ति या विमुखता नहीं होती। तो, जब वे देखते हैं कि मसीह एक सामान्य और आम इंसान है, तो वे उसका तिरस्कार क्यों करते हैं और मसीह को इतने सारे सत्य व्यक्त करते देख विमुखता और घृणा महसूस क्यों करने लगते हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे जिसका आदर और सम्मान करते हैं, वह बिल्कुल भी सकारात्मक नहीं है, उसका एक भी अंश सकारात्मक नहीं है। मसीह-विरोधी क्या पसंद करते हैं? उन्हें विचित्रता, दुष्टता, चमत्कार और अलौकिक चीजें पसंद हैं, जबकि परमेश्वर की सामान्यता और व्यावहारिकता, मनुष्य के लिए परमेश्वर का सच्चा प्रेम, परमेश्वर की बुद्धि, निष्ठा, पवित्रता और धार्मिकता, ये सब मसीह-विरोधियों की नजर में निंदनीय हैं। उदाहरण के लिए, भाई-बहन विवेक विकसित करें और व्यावहारिक रूप से सबक सीखें, इसके लिए परमेश्वर ने एक परिस्थिति का इंतजाम किया। क्या थी वह परिस्थिति? उसने उनके बीच किसी ऐसे व्यक्ति के रहने की व्यवस्था की, जो दानव के कब्जे में रहा था। शुरुआत में इस व्यक्ति का बोलने और काम करने का तरीका सामान्य था, उसका विवेक भी सामान्य था; वह बिल्कुल भी समस्यात्मक दिखाई नहीं देता था। लेकिन संपर्क की एक अवधि के बाद भाई-बहनों ने पाया कि जो कुछ भी वह कहता है, वह बेतुका है और उसमें उचित संरचना और क्रम का अभाव है। बाद में कुछ “अलौकिक” चीजें हुईं : वह हमेशा भाई-बहनों को बताता कि उसने यह या वह दृश्य देखा है और फलाँ-फलाँ प्रकाशन प्राप्त किया है। उदाहरण के लिए, एक दिन उस पर यह प्रकट हुआ कि उसे भाप से पकी रोटियाँ बनानी चाहिए—उसे बनानी ही थीं—और उसके अगले दिन हुआ यह कि उसे बाहर जाना पड़ा, इसलिए वह रोटियाँ अपने साथ ले गया। बाद में उसे सपने में यह प्रकट हुआ कि उसे दक्षिण की ओर जाना चाहिए; वहाँ छह मील दूर कोई उसका इंतजार कर रहा है। वह देखने गया, और ठीक वहाँ एक व्यक्ति था, जो खो गया था; उसने इस व्यक्ति के सामने अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की गवाही दी और उसने उसे स्वीकार लिया। वह हमेशा प्रकाशन प्राप्त करता रहता, उसे हमेशा एक वाणी सुनाई देती, उसके साथ हमेशा अलौकिक चीजें हो रही थीं। हर दिन जब यह बात आती कि क्या खाना है, कहाँ जाना है, क्या करना है, किसके साथ बातचीत करनी है, तो वह सामान्य मानवता के जीवन के नियमों का पालन नहीं करता था, न ही वह आधार या सिद्धांत के रूप में परमेश्वर के वचन खोजता, या संगति करने के लिए लोगों को खोजता। वह हमेशा अपनी भावनाओं पर निर्भर रहता और किसी आवाज या प्रकाशन या सपने का इंतजार करता। क्या यह व्यक्ति सामान्य था? (नहीं।) ऐसा लगता था कि उसकी दिनचर्या नियमित रूप से चल रही है, वह नियमित रूप से दिन में तीन बार भोजन करता था, लेकिन वह हमेशा आवाजें सुनता था। कुछ लोगों ने उसका भेद पहचाना और कहा कि ये किसी दुष्ट आत्मा के कब्जे की अभिव्यक्तियाँ हैं। भाई-बहन धीरे-धीरे उसका भेद पहचानने लगे, फिर एक दिन उसे मानसिक बीमारी का दौरा पड़ा, वह पागलपन भरी बातें करने लगा और नग्न अवस्था में बाल बिखेरे दौड़ गया, वह मनोरोगी हो गया था। इसके साथ ही, मामला आखिरकार निष्कर्ष पर पहुँच गया। क्या अब भाई-बहनों को दुष्ट आत्मा के काम करने और दानवी कब्जे की विशिष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में अंतर्दृष्टि और पहचान नहीं है? बेशक, उनमें से कुछ ने पहले भी ऐसी चीजों का सामना किया था और उनमें पहले से उनका भेद पहचानने की क्षमता थी, जबकि दूसरों ने लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया था और वे ऐसी चीजों से नहीं गुजरे थे, इसलिए उनके गुमराह होने की संभावना थी। लेकिन चाहे वे गुमराह हुए हों या उनमें पहचान रही हो, अगर परमेश्वर ने इस परिवेश का इंतजाम नहीं किया होता, तो क्या उन्हें दुष्ट आत्मा के काम या कब्जे की सही पहचान होती? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर द्वारा इस परिवेश का इंतजाम करने और ये चीजें करने का उद्देश्य और महत्व क्या था? यह उन्हें व्यावहारिक रूप से विवेक प्राप्त करने और एक सबक सीखने में सक्षम बनाने के लिए था, और यह जानने में सक्षम बनाने के लिए था कि उन लोगों का भेद कैसे पहचाना जाए जिनमें दुष्ट आत्माओं का काम है या जो दानवों के कब्जे में हैं। अगर लोगों को सिर्फ यह बताया जाता कि दुष्ट आत्मा का काम क्या है—जैसे जब कोई शिक्षक किसी किताब से पढ़ाता है और अपने छात्रों को कोई वास्तविक अभ्यास कराए या प्रशिक्षण दिए बिना सिर्फ पाठ्यपुस्तक के सिद्धांतों के बारे में बताता है—तो लोग सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांत और कथन ही समझते। तुम सिर्फ तभी स्पष्ट रूप से समझा सकते हो कि दुष्ट आत्मा का काम क्या है और उसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं जब तुमने उसे व्यक्तिगत रूप से देखा हो, अपनी आँखों से देखा हो और अपने कानों से सुना हो। और फिर जब तुम दोबारा ऐसे लोगों का सामना करते हो, तो तुम उनका भेद पहचानकर उन्हें अस्वीकार कर पाओगे; तुम ऐसे मामले ठीक से निपटा और सँभाल पाओगे। तो, क्या ऐसे परिवेश में तुम लोग जो प्राप्त करते हो वह उससे कहीं ज्यादा व्यावहारिक नहीं है जो तुम पूरे दिन सभाओं में भाग लेकर धर्मोपदेश सुनकर प्राप्त करते हो? जिन लोगों में सामान्य सोच और तार्किकता होती है और जो सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें इन चीजों को करने के परमेश्वर के तरीकों की सही समझ होगी। वे यह कहते हुए शिकायत नहीं करेंगे, “परमेश्वर बुरी आत्माओं को कलीसिया में क्यों आने देता है? परमेश्वर ने मुझे पहले से आगाह क्यों नहीं किया? वह बुरी आत्माओं को दूर क्यों नहीं करता?” वे इन चीजों के बारे में शिकायत नहीं करेंगे, उलटे वे परमेश्वर के उत्कृष्ट और बुद्धिमानी भरे कार्य के लिए उसकी स्तुति करते हुए आभारी होंगे, और कहेंगे कि परमेश्वर मनुष्य से बहुत प्यार करता है! लेकिन मसीह-विरोधी सत्य नहीं स्वीकारते, और साथ ही उनके दिल परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरे होते हैं, वे वास्तव में अपने दिलों में शैतानों और मूर्तियों की आराधना करते हैं, और सच्चे परमेश्वर के हर कार्य की तुलना और माप अपनी मूर्तियों से करते हैं। इसलिए जब वे ऐसी स्थितियों का सामना करते हैं, तो पहले सोचते हैं, “क्या यह परमेश्वर का कार्य है? तुम लोग इतने मूर्ख कैसे हो सकते हो? परमेश्वर बुरी आत्माओं को कलीसिया में कैसे आने दे सकता है?” क्या यह गलत समझ नहीं है? पहला, वे इस बात से इनकार करते हैं कि यह परमेश्वर का कार्य है और यह भी सोचते हैं कि, “कोई परमेश्वर निश्चित रूप से ऐसा नहीं करेगा। देवता नहीं चाहते कि लोग पीड़ित हों। जब गुआनिन बोधिसत्व लोगों को पीड़ित देखती है तो उसकी मूर्तियाँ आँसू बहाती हैं; वह सभी प्राणियों को पीड़ा से मुक्ति दिलाना चाहती है, हर व्यक्ति को बुद्ध के नाम के तहत लाना चाहती है, और उन्हें इंसानी दुनिया के तमाम दुखों से निजात दिलाना चाहती है। देवताओं को दयालु होना चाहिए, उन्हें अपने चुने हुए लोगों की देखभाल करनी चाहिए और बुरी आत्माओं को कलीसिया में नहीं आने देना चाहिए। यह निश्चित रूप से परमेश्वर का कार्य नहीं हो सकता।” जब ऐसी चीजें होती हैं, तो मसीह-विरोधी अपने दिलों में पहले तो परमेश्वर की पहचान पर और भी ज्यादा संदेह करते हैं, और साथ ही वे परमेश्वर के कर्मों को स्वीकारने के लिए सैकड़ों-हजारों बार अनिच्छुक होते हैं, यहाँ तक कि उनकी आलोचना और निंदा भी करते हैं। वे यह कहते हुए उन भाई-बहनों का मजाक भी उड़ाते हैं, जो इस मामले को परमेश्वर से आया स्वीकारते हैं, “तुम मूर्ख लोग अभी भी मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर का कार्य है। कोई परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा! परमेश्वर को अपने मेमनों की रक्षा और देखभाल करनी चाहिए, और उन्हें अपने हाथों से बचाना चाहिए। देवता लोगों के लिए शरण-स्थल हैं; लोगों को ये तमाम कष्ट नहीं सहने चाहिए। लोगों के साथ तमाम नकारात्मक और बुरी चीजें नहीं होनी चाहिए, देवता इसी तरह कार्य करते हैं।” मसीह-विरोधियों के दिल संदेह, इनकार, धारणाओं और परमेश्वर की निंदा से भरे रहते हैं। नतीजतन, उनकी नजर में परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह गलत होता है और वह नहीं होता जो परमेश्वर को करना चाहिए, और यह उनके लिए परमेश्वर की निंदा करने और उसे नकारने का सबूत और बल है। इससे परमेश्वर का विरोध करने का मसीह-विरोधियों का प्रकृति-सार पूरी तरह से प्रकट होता है। उदाहरण के लिए, जब भाई-बहन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की यातना और उत्पीड़न सहते हैं, तो पुलिस बिजली के दागने वाले डंडे तब तक गर्म करती है जब तक कि वे लाल नहीं हो जाते और उन्हें उनके शरीर पर दागती है, जिससे उन्हें इतना दर्द होता है कि वे बेहोश हो जाते हैं, और वहाँ मौजूद सभी लोगों का खून जम जाता है। यह दृश्य देखकर मसीह-विरोधी क्या सोचते हैं? “ये शैतान और राक्षस बहुत क्रूर हैं! इनमें कोई इंसानियत नहीं है, कोई दया या करुणा नहीं है। इनके तरीके बहुत बर्बर हैं, मैं इन्हें देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता! अगर मैं वहाँ होता, तो मैं इन दागने वाले डंडों को ठंडा कर देता, उन्हें रूई में बदल देता, और उन्हें लोगों के शरीर से नरमी, गर्मजोशी और कोमलता से छुआता, जैसे कोई परमेश्वर अपने मेमनों को सहलाता है, लोगों को अपने दयालु हृदय, अपने प्रेम और गर्मजोशी का एहसास कराता है, और अपना अनुसरण करने के लिए उनमें ज्यादा आस्था और दृढ़ संकल्प पैदा करता है। लेकिन मनुष्य तो बस मनुष्य हैं—हम अपने भाई-बहनों और साथी मनुष्यों को इतना कष्ट सहते देखकर कुछ भी करने में असमर्थ हैं। और परमेश्वर कहाँ है? परमेश्वर अभी इन शैतानों और दानवों के हाथ क्यों नहीं रोकता? वह दागने वाले बेहद गर्म डंडों को ठंडा क्यों नहीं कर देता? जब दागने वाले डंडे भाई-बहनों को छूते हैं, तो परमेश्वर ऐसा क्यों नहीं करता कि उन्हें दर्द महसूस न हो? अगर गुआनिन बोधिसत्व होती, तो वह निश्चित रूप से ऐसा करती; वह जीवों को एक-दूसरे के साथ दुर्व्यवहार करते और एक-दूसरे को मारते हुए नहीं देखना चाहती, वह उनमें से किसी को भी जरा-सी भी धौंस या दर्द सहते नहीं देखना चाहती। वह सभी प्राणियों का ध्यान रखती है, उसका हृदय आकाश से भी बड़ा है और उसका प्रेम असीम है। वह वास्तव में एक देवी है! परमेश्वर इस तरह से कार्य क्यों नहीं करता? मैं परमेश्वर नहीं हूँ, मुझमें यह क्षमता नहीं है। अगर मैं परमेश्वर होता, तो अपने लोगों को इस तरह से पीड़ित न होने देता।” चाहे उन पर कुछ भी बीते, मसीह-विरोधियों के अपने विचार, दावे, मत, यहाँ तक कि “शानदार विचार” भी होते हैं। चाहे उनके साथ कुछ भी हो, वे उसे कभी परमेश्वर के वचनों से नहीं जोड़ते, वे परमेश्वर को समझने, परमेश्वर की गवाही देने, परमेश्वर की पहचान की पुष्टि करने और इस बात की पुष्टि करने के लिए कभी सत्य नहीं खोजते कि परमेश्वर की पहचान रखने वाले परमेश्वर का सार कहाँ और कैसे व्यक्त होता है—मसीह-विरोधी इस तरह से अभ्यास नहीं करते। इसके बजाय, हर मोड़ पर वे शैतान, विभिन्न दुष्ट आत्माओं या गुआनिन बोधिसत्व और बुद्ध के परिप्रेक्ष्यों का उपयोग करके परमेश्वर को मापते हैं और उससे प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? मसीह-विरोधी हर मोड़ पर परमेश्वर को नकारते हैं, उसके क्रियाकलापों और सार को, वह जो कुछ भी करता है उसके अर्थ और मूल्य को नकारते हैं और इस बात को नकारते हैं कि कैसे इससे लोगों का उत्थान होता है। वे लोगों पर इस तरह से कार्य करके परमेश्वर जो प्रभाव हासिल करना चाहता है उस प्रभाव को और परमेश्वर के इरादों के अस्तित्व को नकारते हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसके महत्व और मूल्य को नकारकर क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर की पहचान को नहीं नकारते? (बिल्कुल नकारते हैं।) मसीह-विरोधियों की ये अभिव्यक्तियाँ और सार, विचार जो वे प्रकट करते हैं, और कोई घटना उनके साथ घटती है तो उनके मन में परमेश्वर के प्रति जो क्रोध, माँगें, असंतोष और प्रश्न आदि होते हैं, ये सब मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर की पहचान न स्वीकारने की ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं। ये तथ्य हैं।
हमने अभी-अभी मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर की पहचान नकारने की अभिव्यक्तियों और स्रोतों के बारे में जो संगति और गहन-विश्लेषण किया, उसके माध्यम से तुमने मसीह-विरोधियों का कौन-सा सार देखा? क्या तुम देख सकते हो कि मसीह-विरोधी इस दुनिया के प्रति निंदा का भाव रखते हैं और निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करते हैं? क्या मसीह-विरोधी वे लोग हैं, जिनमें दयालु मानवता, करुणा, दया और महान प्रेम होता है, और जो दुष्टता से घृणा करते हैं? (नहीं।) तो फिर मसीह-विरोधी कैसे लोग हैं? (वे बुरे लोग हैं जो सत्य से घृणा करते हैं और उससे विमुख हैं, जो हर मोड़ पर परमेश्वर का विरोध करते हैं।) यह एक पहलू हुआ। और कुछ? क्या मसीह-विरोधी इस सामाजिक कहावत का काफी अनुमोदन नहीं करते, “जो पुल बनाते हैं और सड़कों की मरम्मत करते हैं वे अंततः अंधे हो जाते हैं जबकि हत्यारों और आगजनी करने वालों की संतानें कई गुना बढ़ती हैं”? क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे दुनिया की स्थिति पर रंज कर रहे हैं और मानवजाति पर तरस खा रहे हैं? इस कहावत से सहमत होने की उनकी क्या प्रकृति है? क्या इस कहावत में स्वर्ग के अन्याय के बारे में शिकायत जैसी चीज नहीं है? हालाँकि वे इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते, लेकिन मसीह-विरोधी इस तरह की नाराजगी और भावनाएँ पालते हैं और शिकायत करते हैं कि स्वर्ग में अन्याय है : “क्या यह नहीं कहा जाता कि स्वर्ग निष्पक्ष है और स्वर्ग की आँखें हैं? तो फिर ऐसा क्यों है कि इस दुनिया में अच्छा काम करने वाले लोग पुरस्कार नहीं पाते, जबकि बुरे लोग फलते-फूलते हैं? इस दुनिया में निष्पक्षता कहाँ है? इस दुनिया में अन्याय के मामले आए कैसे? वह इसलिए कि स्वर्ग अंधा और अन्यायी है!” इसका निहितार्थ यह है कि परमेश्वर में कोई निष्पक्षता नहीं है, और सिर्फ बुद्ध और गुआनिन ही निष्पक्ष हैं। इसलिए मसीह-विरोधियों के दिल वास्तविक परमेश्वर द्वारा की जाने वाली चीजों के बारे में नाराजगी, शिकायत, इनकार और निंदा से भरे हैं। यह सब किस वजह से होता है? इसका क्या कारण है? यह मसीह-विरोधियों के सार के कारण होता है। वह सार क्या है? इसे विशिष्ट शब्दों में कहें तो, मसीह-विरोधियों के दिलों में परमेश्वर की परिभाषा के बारे में धारणाएँ और कल्पनाएँ भरी हुई हैं; वे नहीं जानते-समझते कि वास्तविक परमेश्वर वास्तव में कैसे काम करता है और कैसे लोगों को बचाता है। परमेश्वर द्वारा की जाने वाली हर चीज का उनका मूल्यांकन उनकी धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित होता है। और, वे किस पर आधारित होती हैं? ये पूरी तरह से शैतान और दानव राजाओं द्वारा मानवजाति में डाले गए विभिन्न पाखंडों और भ्रांतियों पर आधारित होती हैं। ये पाखंड और भ्रांतियाँ चाहे कितनी भी दुष्ट या पक्षपाती क्यों न हों, ये लोगों की धारणाओं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं और भावनात्मक जरूरतों के अनुरूप होती हैं, और ठीक यही चीजें हैं जो मसीह-विरोधियों के लिए आचरण करने और सभी चीजों को मापने के मानकों के साथ-साथ परमेश्वर को मापने के मानक भी बन जाती हैं; मसीह-विरोधी अपने मूल में ही गलत हैं। दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण कारण यह है कि मसीह-विरोधी शक्ति और भव्य चीजें पसंद करते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो एक व्यक्ति महल में पैदा हुआ है और हर रोज बेहतरीन व्यवहार का आनंद लेता है, सबसे अच्छा खाना खाता है और सबसे अच्छे कपड़े पहनता है, उसे कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ती और वह जो चाहता है उसे मिल जाता है। क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग ऐसे जीवन का अनुसरण करते हैं? सामान्य व्यक्ति इससे थोड़ी ईर्ष्या या जलन महसूस करेगा, लेकिन फिर वह सोचेगा, “यह सब परमेश्वर द्वारा नियत है। जहाँ भी परमेश्वर हमें रखता है, हम वहीं रहते हैं। जरूरी नहीं कि इस तरह का जीवन हमें माफिक आए। क्या कोई ऐसे परिवेश में परमेश्वर पर विश्वास कर सकता है? क्या कोई सत्य समझ सकता है और बचाया जा सकता है? यह मुश्किल होगा। परमेश्वर ने हमें जो दिया है, वह पर्याप्त है; अगर हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं और परमेश्वर के वचन पढ़ने, अपना कर्तव्य निभाने और अंततः उद्धार प्राप्त करने के लिए सही परिस्थितियों में हैं, तो यही सबसे ज्यादा खुशी की बात है।” लेकिन क्या मसीह-विरोधी इस तरह सोचेंगे? (नहीं।) वे सोचेंगे, “मेरे पिता सम्राट क्यों नहीं थे? अगर मेरे पिता एक अमीर आदमी या सम्राट होते, तो मेरा जीवन वास्तव में जीने लायक होता। उसके पिता सम्राट क्यों हैं? वह मस्त जीवन क्यों जीता है, जिसमें उसे भोजन या कपड़ों की चिंता नहीं करनी पड़ती, जो चाहता है पा लेता है, धन और शक्ति हमेशा उसे उपलब्ध रहती है? स्वर्ग अन्यायपूर्ण है! वह उतना सक्षम नहीं है और उसमें कोई प्रतिभा, शिक्षा या दिमाग नहीं है। उसे ये सारी चीजें किस आधार पर मिलीं? मैं उन्हें क्यों नहीं पा सकता? अगर मैं वे चीजें नहीं पा सकता और दूसरे पा सकते हैं, तो मैं उनसे नफरत करूँगा! और अगर मैं उनसे नफरत नहीं कर सकता, तो मैं अन्यायी होने और मेरे लिए एक खराब भाग्य व्यवस्थित करने के लिए स्वर्ग से नफरत करूँगा, और मैं अपने खराब भाग्य से नफरत करूँगा, अपने रास्ते में बाधा डालने वाले नीच व्यक्ति से नफरत करूँगा, और अपने घर के बुरे फेंग शुई से नफरत करूँगा!” उनके दिमाग में क्या चल रहा है? जब मसीह-विरोधियों के दिलों में नफरत पैदा हो जाती है, तो उनके मुँह से तमाम तरह के भ्रामक तर्क निकल सकते हैं।
ऊपरी तौर पर मसीह-विरोधी बहुत दयालु प्रतीत होते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि वे जिन भी चीजों की आराधना और अनुसरण करते हैं, उनमें से कोई भी सकारात्मक नहीं है। वे जो मुहावरे और कहावतें सुनाते हैं, उनसे ऐसा लग सकता है जैसे वे दुनिया की हालत पर रंज कर रहे हों और मानवजाति पर तरस खा रहे हों, और जैसे वे अपने दिलों में सद्भावना रखते हों, लेकिन असल में वे पूरी तरह से दानव और शैतान होते हैं। अगर वे सत्ता हासिल कर लेते हैं और इस दुनिया में उभर जाते हैं, तो क्या वे बुराई करने में सक्षम होते हैं? क्या वे अच्छे लोग बनने में सक्षम हैं? वे जघन्य पापों से भरे बदमाश हैं। चूँकि वे दुनिया में सत्ता हासिल नहीं कर सकते और ज्यादा फलते-फूलते नहीं, इसलिए उन्हें लगता है कि उनके साथ कुछ अन्याय हुआ है और तब वे परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करने लगते हैं। लेकिन सार में वे सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करना चाहते, और वे खास तौर से सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते; इसके बजाय, वे सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं और बुरी ताकतों, शक्ति, विलासी जीवन और दुनिया की बुरी प्रवृत्तियों से प्रेम करते हैं। इसलिए, वे परमेश्वर की पहचान और सार रखने वाले परमेश्वर द्वारा व्यक्त और संपन्न की गई हर चीज का तिरस्कार करते हैं और इन चीजों की निंदा, आलोचना और बदनामी करते हैं। चाहे परमेश्वर का कार्य लोगों के लिए कितना भी मूल्यवान या अर्थपूर्ण क्यों न हो, वे न तो उसे मानते हैं और न ही स्वीकारते हैं। न सिर्फ वे परमेश्वर की पहचान और सार नहीं स्वीकारते, बल्कि परमेश्वर का रूप भी धारण करना चाहते हैं और ऐसे उद्धारकर्ता होने का ढोंग रचते हैं, जो सभी प्राणियों को पीड़ा से मुक्ति दिला सकता है, जो यह सुनिश्चित कर सकता है कि पुल बनाने वाले और सड़कों की मरम्मत करने वाले अंधे न हो जाएँ, कि हत्यारे और आगजनी करने वाले दंडित हों और उनकी संतानें न बढ़ें, और समाज के सबसे निचले पायदान पर रहने वाले और पीड़ा सहने वाले लोग अब और पीड़ा न सहें और उनके पास अपनी शिकायतों का निवारण करने के लिए कोई जगह हो। वे दुनिया में तमाम दर्द खत्म करना चाहते हैं और लोगों को दुख से बचाना चाहते हैं। मसीह-विरोधी वास्तव में अपने दिल की गहराइयों में “सार्वभौमिक प्रेम” और एक अनंत “महान प्रेम” रखते हैं! सभी चीजों पर विचार करने के बाद, मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर की पहचान और सार को स्वीकारने से इनकार करने के पीछे वास्तव में क्या कारण है? वे कहते हैं : “परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, वह परमेश्वर जैसा नहीं है। मैं सबसे ज्यादा परमेश्वर जैसा हूँ; मैं परमेश्वर होने के लिए सबसे ज्यादा योग्य हूँ। वह इसलिए, क्योंकि परमेश्वर जो कुछ करता है, वह मेरी पसंद के अनुरूप नहीं है या जनता की पसंद और जरूरतों के अनुरूप नहीं है; सिर्फ मैं ही जनता की जरूरतें और मन समझ सकता हूँ, सिर्फ मैं ही सभी प्राणियों को पीड़ा से निजात दिला सकता हूँ, और सिर्फ मैं ही मानवजाति का उद्धारकर्ता हो सकता हूँ।” उनकी महत्वाकांक्षाएँ और सार उजागर हो गए हैं, है न? ऐसी महत्वाकांक्षाएँ और सार रखने वाले मसीह-विरोधियों का असली रूप वास्तव में क्या है? यह प्रधान दूत, दानव शैतान है। वे परमेश्वर की पहचान नकारते हैं और परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे खुद परमेश्वर बनना चाहते हैं। वे मानते हैं कि उनके विचार वैसे हैं जैसा परमेश्वर को सोचना चाहिए, और उनकी अभिव्यक्तियाँ, स्वभाव और महान प्रेम का सार वैसा है जैसा परमेश्वर का होना चाहिए। उन्हें लगता है, जिसके पास दुनिया की स्थिति पर रंज करने और दुनिया में तमाम अन्याय देखकर मानवजाति पर तरस खाने की मानसिकता है, सिर्फ वही परमेश्वर है। उन्हें लगता है कि जिस परमेश्वर में वे विश्वास करते हैं, उसमें ये गुण नहीं हैं, सिर्फ वे ही ऐसे मन और इतने बड़े दिल वाले हैं, उन्हीं में इस तरह का गुण और महान प्रेम है। यह मसीह-विरोधियों का सार है, ये परमेश्वर की पहचान स्वीकारने से मना करने की उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ और सार हैं। इसलिए, अगर तुम मसीह-विरोधियों का देवताओं के रूप में सम्मान करते हो और उनकी आराधना करते हो, तो वे तुम्हारे प्रति नाराजगी महसूस नहीं करेंगे। अगर तुम यह कहते हुए उनका अनुसरण करते हो कि उनकी पहचान और सार देवताओं के समान है, कि उनमें बुद्ध जैसा ही मन और महान प्रेम है और वे देवता हैं, तो वे तुमसे खुश और पूरी तरह से संतुष्ट होंगे। यह मसीह-विरोधियों का सार है। क्या मसीह-विरोधियों द्वारा प्रदर्शित यह सार दुष्टतापूर्ण नहीं है? चाहे तुम परमेश्वर के नाम और उसके अद्भुत कर्मों की कितनी भी बड़ाई करो, और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है और जो भी कीमत उसने चुकाई है, उसकी कितनी भी गवाही दो, वे दिल से विद्रोही रहेंगे और कहेंगे, “मैं इसकी प्रशंसा नहीं कर सकता। मैं इसे उस तरह से नहीं देखता; यह सब मनुष्य का खयाली पुलाव और कल्पना है।” जब तुम परमेश्वर, उसकी बुद्धि, उसकी सर्वशक्तिमत्ता, मानवता को बचाने के उसके श्रमसाध्य इरादे और उसके द्वारा चुकाई गई कीमतों की गवाही देते हो और उसके सार, उसकी पहचान और सृष्टिकर्ता द्वारा मानवजाति पर किए गए हर काम की गवाही देते हो, तो सिर्फ एक ही तरह के व्यक्ति असहज महसूस करते हैं, और वे हैं मसीह-विरोधी। और वे क्या सोचते हैं? “तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में बात क्यों करते हो? मैंने भी तुम्हारा खूब सिंचन किया है और तुम्हें खूब सहारा दिया है। मैंने तुमसे प्रेम किया है, तुम्हारी मदद की है, तुम्हारे बीमार होने पर तुम्हारे लिए दवा खरीदी है, और तुम्हारा साथ दिया है, तुम्हारे साथ संगति की है, और जब दूसरों ने तुम्हें त्याग दिया था तब मैं तुम्हारे साथ रहा हूँ। तुम मेरी प्रशंसा क्यों नहीं करते?” जैसे ही कोई परमेश्वर की गवाही देता है या उसकी प्रशंसा करता है, मसीह-विरोधी परेशान हो जाते हैं और ईर्ष्यावश उससे घृणा करते हैं। परमेश्वर के सामान्य विश्वासी किसी को परमेश्वर की प्रशंसा करते सुनकर क्या महसूस करते हैं? पहले, वे उस व्यक्ति ने जो कहा और जिस अनुभवजन्य गवाही पर उसने संगति की, उस पर “आमीन” कहेंगे। इसके अलावा, वे ध्यान से सुनेंगे और सोचेंगे, “परमेश्वर ने इस पर इस तरह से कार्य किया—परमेश्वर बहुत महान है, वह सचमुच मनुष्य से प्रेम करता है! भविष्य में ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करने पर मैं भी सत्य खोजूँगा। उसने इस तरह से कार्य करके परमेश्वर को आहत किया है; मैंने भी अतीत में इस तरह से कार्य किया है, मैं बस इससे अनजान था। मैं परमेश्वर का ऋणी हूँ! परमेश्वर का इस तरह से कार्य करना लोगों के लिए लाभदायक है, और मुझे इसका एहसास नहीं था। लगता है, मेरा आध्यात्मिक कद इस व्यक्ति से छोटा है, मेरी समझ शुद्ध नहीं है, और मेरी काबिलियत कम है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे, छोटे आध्यात्मिक कद के व्यक्ति को, प्रबुद्ध करे और मेरा मार्गदर्शन करे। परीक्षणों का सामना करते समय वे कमजोर कैसे नहीं हुए? उनके पास परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन था। अगर मैं ऐसी परिस्थितियों का सामना कर रहा होता, तो कमजोर पड़ जाता और लड़खड़ा भी सकता था। परमेश्वर ने मेरे छोटे कद को देखकर और मुझे अभी तक उस तरह की स्थिति का सामना न करने देकर मुझ पर दया दिखाई है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह अच्छा होता है!” लेकिन मसीह-विरोधी यह सुनकर नाखुश हो जाते हैं : “क्या? परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह अच्छा होता है? यह अच्छाई कहाँ है? अगर परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह इतना ही अच्छा है, तो लोग नकारात्मक और कमजोर क्यों हैं? अगर परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अच्छा होता है, तो कुछ लोगों को निकाला क्यों जाता है? अगर परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अच्छा होता है, तो सुसमाचार प्रचार करने और कर्तव्य निभाने के दौरान हमेशा विघ्न-बाधाएँ क्यों आती हैं? मैंने बहुत सारे अच्छे काम किए हैं; मैंने मेहनत की है, चढ़ावा चढ़ाया है और सुसमाचार का प्रचार करते हुए लोगों को प्राप्त किया है। कोई मेरी प्रशंसा क्यों नहीं करता? परमेश्वर ने मुझे बदले में कुछ, कोई इनाम, क्यों नहीं दिया? अगर लोग मेरे सामने मेरी प्रशंसा करने में शर्मिंदा महसूस करते हैं, तो यह ठीक है अगर वे मेरी पीठ पीछे ऐसा करते हैं। कोई मेरी प्रशंसा या सराहना क्यों नहीं करता? क्या मुझमें कोई गुण नहीं है?” वे परेशान हो जाते हैं। अगर कोई किसी साधारण व्यक्ति की प्रशंसा करता है, तो मसीह-विरोधी ज्यादा बुरा महसूस नहीं करेंगे। लेकिन जैसे ही कोई परमेश्वर की महान शक्ति, महान प्रेम और बुद्धि, या परमेश्वर की पहचान की गवाही देता है, तो मसीह-विरोधी घृणा और ईर्ष्या महसूस करते हैं। जब भी कोई परमेश्वर के प्रति समर्पित होने, एक सही सृजित प्राणी बनने और ऐसा व्यक्ति बनने के लिए तैयार होता है जो अपनी सीमाएँ पार नहीं करता और सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के प्रति समर्पण करता है, तो मसीह-विरोधी इसे पसंद नहीं करते और कहते हैं, “तुम इतनी स्वेच्छा से और सक्रिय रूप से परमेश्वर के प्रति समर्पित क्यों होते हो? मेरे द्वारा कही गई किसी भी बात को सुनना तुम्हारे लिए इतना कठिन क्यों है? मैं जो कहता हूँ, वह गलत नहीं है!” वे चाहते हैं कि लोग उनके अनुयायी बनें, हर मोड़ पर उनकी प्रशंसा करें, उनके नाम अपने होठों पर रखें, उन्हें अपने दिलों में रखें, यहाँ तक कि उनकी अच्छाई और खूबियों के बारे में सपने देखें, और मिलने वाले हर व्यक्ति से उनकी प्रशंसा करें। अगर वे बीमार पड़ जाएँ और अपना चेहरा नहीं दिखाएँ, तो लोग कहें, “तुम्हारे बिना हम क्या करेंगे? तुम्हारे बिना हम अस्त-व्यस्त हैं; हम विश्वास करना या जीना जारी नहीं रख सकते!” अगर मसीह-विरोधी यह सुनते हैं तो बहुत खुश होते हैं, और इसे सुनने के लिए वे कोई भी कष्ट सहने या कई दिन बिना खाए या बिना सोए रहने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन अगर कोई उनकी प्रशंसा नहीं करता, उन्हें आदर्श नहीं मानता, उनकी आराधना नहीं करता, या उन्हें गंभीरता से नहीं लेता, तो वे परेशान हो जाते हैं और अपने दिलों में नफरत पाल लेते हैं—यह एक ठेठ मसीह-विरोधी है। संक्षेप में, मसीह-विरोधी परमेश्वर की पहचान कभी नहीं स्वीकारेंगे। वे परमेश्वर की पहचान और सार नहीं स्वीकारते, परमेश्वर की पहचान और सार धारण करने वाले द्वारा उन पर किए गए कार्य को तो बिल्कुल नहीं स्वीकारते, न ही वे परमेश्वर द्वारा मानवजाति के बीच किए गए समस्त कार्य को मानते या स्वीकारते हैं।
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