मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग नौ) खंड तीन

iii. मसीह-विरोधी सेवाकर्ता बनने के लिए अनिच्छुक क्यों होते हैं

मसीह-विरोधी सेवाकर्ता बनने के अनिच्छुक होते हैं और सेवाकर्ता बनना स्वीकार नहीं करते हैं। उनका मानना है कि सेवाकर्ता बनकर उन्हें अपार अपमान और भेदभाव का सामना करना पड़ेगा। तो वे वास्तव में क्या बनना चाहते हैं? जब वे परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं और परमेश्वर के घर में आते हैं तो उनका उद्देश्य क्या होता है? क्या वे परमेश्वर के लोगों में से एक, परमेश्वर के अनुयायी बनने के लिए इच्छुक हैं? क्या वे एक ऐसा व्यक्ति बनने के लिए इच्छुक हैं जिसे पूर्ण किया गया हो? क्या वे पतरस और अय्यूब की तरह बनने के लिए खुश हैं और इसे अच्छा मानते हैं? (नहीं।) क्या कोई यह कहता है कि वे इसलिए खुश हैं कि वे परमेश्वर में अपनी आस्था में परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हैं और यही उनके लिए काफी है? क्या कोई परमेश्वर के हाथों का खिलौना बनने के लिए इच्छुक है? नहीं, लोग ऐसा बनने के लिए कोई खास इच्छुक नहीं होते। जब भी कोई परमेश्वर के घर में आता है तो वह लाभ, आशीष, इनाम और मुकुट पाने की तलाश में आता है। जब लोग परमेश्वर के वचनों से उजागर होने और अपना न्याय किए जाने को स्वीकार करते हैं, तो वे यह जान जाते हैं कि अपनी आस्था में ऐसे इरादे रखने से वे सत्य को नहीं समझ पाएँगे और अंततः उद्धार प्राप्त नहीं कर पाएँगे। तो फिर कई लोग पहले अपनी आशीष की इच्छा और मुकुट और इनाम की चाह छोड़ने का निर्णय लेते हैं, इन सभी लाभों को छोड़कर पहले यह सुनते हैं कि परमेश्वर क्या कह रहा है, मनुष्य से उसकी क्या माँगें हैं और वह मनुष्य से क्या कहना चाहता है। परमेश्वर के वचन सुनने वाले बहुत-से लोग अपने दिल में एक गुप्त खुशी महसूस कर कहते हैं : “परमेश्वर हमारी भ्रष्टता को उजागर करता है, वह हमारे बदसूरत असली रंग को प्रकट करता है, और हमारे परमेश्वर का विरोध करने और सत्य से विमुख होने के सार को उजागर करता है—ये सभी तथ्य हैं। सौभाग्य से मैंने परमेश्वर के सामने हाथ फैलाकर सौभाग्य, अनुग्रह और आशीष माँगने की जल्दबाजी नहीं की; सौभाग्य से मैंने पहले ही इन चीजों को छोड़ दिया था। अगर मैं इन्हें न छोड़ता तो क्या मैंने खुद को मूर्ख नहीं बना लिया होता? परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह मनुष्य की प्रकृति और सार को उजागर करता है तो मैं ये चीजें कैसे त्याग पाया? परमेश्वर ने कहा है कि लोगों को पहले अपने कर्तव्य को निभाना शुरू करना चाहिए और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य में सहयोग करना चाहिए। इस प्रक्रिया के दौरान अगर लोग सत्य को समझने और स्वीकार करने के मार्ग पर चल सकते हैं तो उनके पास उद्धार प्राप्त करने की आशा होगी और वे भविष्य में कई लाभ प्राप्त कर सकते हैं।” इस मुकाम पर कई लोग उन चीजों के बारे में सोचना बंद कर देते हैं। उनकी शानदार इच्छाएँ, भविष्य के प्रति उनकी लालसा और उम्मीदें अब उतनी वास्तविक नहीं लगतीं। उन्हें लगने लगता है कि इस समय अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाया जाए, परमेश्वर के इरादों को कैसे पूरा किया जाए और सत्य को कैसे समझा जाए और अडिग रहा जाए, ये सभी उन चाहतों और आकांक्षाओं से अधिक वास्तविक, महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं। इसलिए इस महत्वपूर्ण मोड़ पर अधिकांश लोग अपना कर्तव्य निभाने, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने, सत्य प्राप्त करने, अपना समय और यौवन अर्पित करने और परमेश्वर के लिए तथा अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए अपने परिवार, नौकरी और सांसारिक संभावनाओं को छोड़ने का चयन करते हैं और कुछ लोग तो इसके लिए अपना वैवाहिक जीवन तक छोड़ देते हैं। लोगों की इस तरह की अभिव्यक्तियाँ, ऐसे व्यवहार और कार्यकलाप निस्संदेह उन सकारात्मक चीजों और उन सभी माँगों के प्रति एक प्रकार का आज्ञाकारी और समर्पित रवैया है जिनका उल्लेख परमेश्वर करता है, और यही रवैया एक ऐसी आवश्यक शर्त है जो लोगों में सत्य को समझने, सत्य का अभ्यास करने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और अंततः उद्धार प्राप्त कर सकने के लिए होना चाहिए। यही वे विभिन्न अभिव्यक्तियाँ और विचार हैं जो परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने आने से पहले हर सामान्य व्यक्ति के पास होते हैं। जब से इन लोगों ने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, तब से लेकर अब तक उनके विचार और दृष्टिकोण लगातार बदल रहे हैं, और सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया भी लगातार परिवर्तित हो रहा है। जैसे-जैसे मनुष्य की ये विगत इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ निरंतर नष्ट होती जा रही हैं, वैसे-वैसे वे इन चीजों को धीरे-धीरे सक्रिय रूप से छोड़कर इनसे पीछा छुड़ा रहे हैं। यह वह अच्छा फल है जो अंततः लोगों की परमेश्वर के साथ सहयोग करने और उसके प्रति समर्पण करने की इच्छा से उत्पन्न होता है। यह एक सकारात्मक और अच्छी अभिव्यक्ति है और यह एक अच्छा नतीजा है। जब लोग निरंतर प्रगति कर रहे हैं तो जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्होंने आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा और इरादे को लगभग छोड़ दिया है, और इसीलिए अधिकांश लोग उन तमाम वादों के प्रति वास्तव में बहुत संवेदनशील नहीं होते या रुचि नहीं रखते जो पहले परमेश्वर ने मनुष्य से किए थे। इसका कारण यह है कि एक सामान्य व्यक्ति की सूझ-बूझ के अनुसार, अगर कोई अपना कर्तव्य मानक स्तर के तरीके से नहीं कर सकता और सत्य को नहीं समझ पाता तो वह परमेश्वर द्वारा वादा किए गए सभी आशीष पाने का अवसर चूक जाएगा और उसका इनसे कोई सरोकार नहीं रहेगा। हर किसी को इस सरलतम तर्क को समझना चाहिए। निस्संदेह, अब कई लोग इस तथ्य को पहले से समझते हैं और इस तथ्य को मानते और स्वीकारते भी हैं; केवल मसीह-विरोधी ही इसे स्वीकार नहीं करते। वे इसे क्यों स्वीकार नहीं करते? इसका कारण यह है कि वे मसीह-विरोधी हैं। वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते तो वे करना क्या चाहते हैं? जब वे परमेश्वर के घर में आते हैं तो वे परमेश्वर के वचनों की पड़ताल करते हैं और उनमें “परमेश्वर के व्यक्ति,” “पहलौठे पुत्र,” “परमेश्वर के पुत्र,” “परमेश्वर के लोग” और “सेवाकर्ता” जैसी विभिन्न उपाधियाँ और रुतबे देखते हैं और उनकी आँखें चमक उठती हैं। उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ तुरंत संतुष्ट हो जाती हैं और वे सोचते हैं, “परमेश्वर के पुत्रों में से एक होना तो बहुत साधारण है; अधिकांश लोग परमेश्वर के पुत्र हैं। परमेश्वर के लोगों में से एक होने का मतलब एक सामान्य व्यक्ति होना है, जनसामान्य का हिस्सा होना है, महज एक सामान्य इंसान होना जो बिना किसी शक्ति या प्रभाव के है। और मुझे सेवाकर्ता बनाने के बारे में तो सोचना भी मत। जीते-जी सेवाकर्ता बनने से मेरा कोई वास्ता नहीं रहेगा; इसका मुझसे कतई संबंध नहीं है।” इसीलिए वे “परमेश्वर के व्यक्ति” और “पहलौठा पुत्र” की दो उपाधियों पर अपनी नजरें टिका लेते हैं। अपनी धारणाओं में वे मानते हैं कि “परमेश्वर का व्यक्ति” स्वयं परमेश्वर है, कि “पहलौठे पुत्र” परमेश्वर के पहलौठे पुत्र हैं और यह भी मानते हैं कि ये दोनों शक्ति और प्रभाव लेकर आते हैं और मानवजाति के बीच राजा बनकर शासन कर सकते हैं, लोगों को नियंत्रित कर सकते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित कर सकते हैं, पूर्ण शक्ति प्राप्त कर सकते हैं, और उनके पास निर्णय लेने की शक्ति, एक अगुआ बनने की शक्ति और लोगों को आयोजित करने की शक्ति है और यह तय करने की शक्ति है कि लोग जीवित रहेंगे या मरेंगे—वे इन शक्तियों को इतना महान मानते हैं। यही कारण है कि उन्हें सेवाकर्ता बनाना असंभव है। अगर उन्हें अपने लिए खुद विकल्प चुनने की अनुमति दी जाए, तो वे पहलौठा पुत्र या परमेश्वर का व्यक्ति बनना चुनेंगे; अन्यथा वे परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर देंगे। जब वे परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हैं या अगुआ और श्रमिक के रूप में कार्य करते हैं तो वे इन्हीं दो लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करते हैं, कीमत चुकाते हैं, कष्ट सहते हैं और भाग-दौड़ करते हैं। इस दौरान वे लगातार यह गणना करते रहते हैं कि वे भाग-दौड़ में कितनी दूर चले गए हैं, सुसमाचार प्रचार करते समय उन्होंने कितने लोगों को प्राप्त किया है, कितने लोग उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं और उनका आदर करते हैं, जब वे कलीसिया की अगुआई करते हैं तो भाई-बहन समस्याओं का सामना करते समय दूसरों के पास जाते हैं या उनके पास आते हैं और क्या वे दूसरों के विचारों और दृष्टिकोणों को नियंत्रित और प्रभावित कर सकते हैं। वे अपनी मनचाही चीज हासिल करने अर्थात परमेश्वर के घर में राजा के रूप में शासन करने के लिए लगातार इन चीजों की गणना करते हैं, इन्हें तौलते और गौर से देखते रहते हैं। अधिकांश लोग परमेश्वर के घर में आने और कुछ सत्य समझने के बाद एक सृजित प्राणी के रूप में सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभा सकते हैं—लेकिन मसीह-विरोधी ऐसा नहीं कर सकते। उनका मानना होता है कि वे एक उच्च कुल से आते हैं, कि वे एक महान और विशेष समूह का हिस्सा हैं और उन्हें परमेश्वर के घर में जरूर महान कहा जाना चाहिए; वरना वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करेंगे। अगर उन्हें परमेश्वर में विश्वास करना है तो उन्हें परमेश्वर के घर में महान मानकर सम्मान दिया जाना चाहिए और सर्वोच्च होना चाहिए। साथ ही, वे यह भी गणना करते हैं कि परमेश्वर की पुस्तक में उनके खाते में कितनी जमापूँजी है और क्या वे परमेश्वर के साथ राजा के रूप में शासन करने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य हैं। इसलिए कुछ मसीह-विरोधियों के परमेश्वर के घर में आकर अपना कर्तव्य निभाने का स्रोत, प्रारंभिक बिंदु और प्रेरणा यही है कि वे परमेश्वर के घर में राजा बनकर शासन करने आए हैं। वे अपना कर्तव्य सिर्फ साधारण और सबसे तुच्छ अनुयायी बनने के लिए कतई इच्छुक नहीं हैं और जैसे ही उनकी महत्वाकांक्षा और इच्छा की लौ बुझ जाती है, वे अचानक शत्रुतापूर्ण रुख अपनाकर अपना कर्तव्य निभाने से इनकार कर देते हैं।

परमेश्वर के घर में अब कुछ ऐसे लोग हैं जो कई वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन हर काम खराब तरीके से करते हैं और जहाँ भी वे अपना कर्तव्य निभाते हैं, वहाँ से हटा दिए जाते हैं। क्योंकि उनकी मानवता बहुत खराब है, उनमें निम्न ईमानदारी है, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और उनका क्रूर और दुष्ट स्वभाव सत्य से विमुख होता है, इसलिए भाई-बहन अंततः उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। जैसे ही वे यह देखते हैं कि उनकी आशीष प्राप्त करने की इच्छा धुएँ में उड़ने वाली है और परमेश्वर के घर में राजा बनकर शासन करने और अलग दिखने का उनका सपना अब पूरा नहीं हो सकता तो वे अपनी निजी जिंदगी कैसे जीते हैं? वे परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, भजन नहीं सुनते, सभाओं में भाग नहीं लेते और जब उनसे कोई कर्तव्य निभाने के लिए कहा जाता है तो वे परमेश्वर के घर की उपेक्षा करते हैं। और जब सभाओं में भाग लेने का समय आता है तो भाई-बहनों को उनके पास मिलने जाकर उन्हें आमंत्रित करना और याद दिलाना तक पड़ता है। उनमें से कुछ अनिच्छा से सभाओं में आना जारी रखते हैं लेकिन सभाओं के दौरान वे एक शब्द भी नहीं बोलते, संगति नहीं करते और जो कुछ भी अन्य लोग कहते हैं उससे वे घृणा महसूस करते हैं और उसे सुनना भी नहीं चाहते। जब भाई-बहन प्रार्थना करते हैं तो वे भी अपनी आँखें बंद कर लेते हैं लेकिन वे कुछ नहीं कहते—उनके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ भी नहीं होता। और कुछ अन्य लोग सभाओं के दौरान, उपदेश सुनते समय या भाई-बहनों के साथ सत्य पर संगति के दौरान क्या करते हैं? कुछ लोग सो जाते हैं, कुछ अपने फोन देखते हैं, समाचार पढ़ते हैं, कुछ दूसरों से बातचीत करते हैं और कुछ ऑनलाइन गेम्स खेलते हैं। परमेश्वर में विश्वास करते हुए वे सोचते हैं कि अगर वे परमेश्वर के घर में लोकप्रिय नहीं हो सकते, दूसरों के कृपापात्र नहीं बन सकते, अपने आसपास समर्थकों की भीड़ नहीं जुटाते और उन्हें महत्वपूर्ण कार्य सौंपे नहीं जाते तो वे भविष्य में परमेश्वर के साथ राजा बनकर शासन नहीं कर पाएँगे और इसलिए उनके लिए परमेश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। उनके लिए परमेश्वर का अस्तित्व इस बात से जुड़ा होता है कि वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। क्या मसीह-विरोधी इसी तरह व्यवहार नहीं करते? वे मानते हैं कि अगर कोई परमेश्वर उन्हें आशीष प्राप्त नहीं करने दे सकता तो वह परमेश्वर नहीं है और उसमें कोई सत्य नहीं है, और वे यह भी मानते हैं कि परमेश्वर केवल वही है जो उन्हें मनमानी करने दे सकता है, कलीसिया में सत्ता हासिल करने दे सकता है और भविष्य में राजा बनकर शासन करने दे सकता है। यह शैतान का तर्क है—यह सही-गलत को गड्ड-मड्ड करना और तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले होते हुए भी वे परमेश्वर के पदचिह्नों का अनुसरण नहीं कर पाते और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अनिच्छुक होते हैं क्योंकि वे सत्य विमुख होते हैं और अपने दिल में वे केवल शैतान के फलसफों, ज्ञान, प्रतिष्ठा, लाभ और पद का ही आदर करते हैं। वे इस बात से इनकार करते हैं कि परमेश्वर सत्य है, वे परमेश्वर के कार्य पर कोई ध्यान नहीं देते और यही कारण है कि सभाओं में वे अपने फोन देखते हैं, गेम्स खेलते हैं, स्नैक्स खाते हैं और गप्पें मारते हैं—वे जो चाहते हैं वह करते हैं और फिर भी खुद से प्रसन्न रहते हैं। जैसे ही उनके आशीष प्राप्त करने की उम्मीदें टूट जाती हैं तो उन्हें परमेश्वर में आस्था रखने का कोई मतलब नहीं दिखता और जब उन्हें परमेश्वर में आस्था का कोई अर्थ नहीं दिखता तो वे भाई-बहनों के सभास्थल—कलीसिया—को एक खेल का मैदान मानते हैं, वे सभा करने के समय को आराम का समय समझते हैं और सभाओं में भाग लेने और उपदेश सुनने को दमनकारी, नीरस और उबाऊ मानते हैं। भाई-बहन जो उपदेश सुनते हैं उन्हें और सत्य को मसीह-विरोधी क्या मानते हैं? वे उन्हें केवल नारेबाजी, निराधार बकवास मानते हैं और वे भाई-बहनों के साथ सभा में बिताए गए समय को समय की बर्बादी मानते हैं। क्या इन लोगों को बेनकाब नहीं किया गया है? वे परमेश्वर में अपनी आस्था में अपनी महत्वाकांक्षाएँ, अपनी इच्छाएँ और अपनी भ्रांतियाँ लेकर आते हैं, और यह एक ऐसा संकेत है जिससे यह तय होता है कि वे अंत तक मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाएँगे और यह भी तय होता है कि वे परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए सेवा प्रदान करने लायक भी नहीं हैं। वे उपदेश सुनने वाले लोगों और सत्य का अनुसरण करने वाले भाई-बहनों पर तिरस्कार के भाव से देखते हैं, और इससे भी अधिक तिरस्कार के भाव के साथ वे परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के अस्तित्व और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य की सच्चाई को नकारते हैं।

जब सत्य से विमुख लोग—मसीह-विरोधी—यह सोचने लगते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला है तो उनका शैतानी चेहरा बेनकाब हो जाता है। कुछ महिला मसीह-विरोधी घर पर इतना मेकअप करती हैं कि वे भूत जैसी दिखने लगती हैं। वे वही कपड़े पहनती हैं जो फैशन में हों या जो विपरीत लिंग को आकर्षित करते हों और कुछ तो चोरी-छिपे माहजोंग और जुआ खेलती हैं और धूम्रपान करती हैं—ये लोग बहुत ही भयानक और घृणास्पद हैं। वे परमेश्वर के घर में ढोंग रचकर आती हैं और अंत में क्या होता है? वे इसे कायम नहीं रख पाती हैं, क्या रख पाती हैं? सिर्फ सत्य ही लोगों को बेनकाब कर सकता है, और अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, सत्य से विमुख रहता है और उसका क्रूर स्वभाव है तो वह निश्चित रूप से सत्य के विरोध में खड़ा होगा और टिक नहीं पाएगा। क्या कलीसिया को अब भी ऐसे लोगों को निकालने की जरूरत है? क्या परमेश्वर को अब भी उनकी निंदा करने की जरूरत है? क्या परमेश्वर को अब भी ऐसे व्यक्ति को अस्वीकार करने की जरूरत है? नहीं, परमेश्वर उन पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता। परमेश्वर के लिए ये लोग मात्र कीड़े-मकोड़े हैं, वे सेवाकर्ता बनने के योग्य भी नहीं हैं—वे इसके लायक ही नहीं हैं। जब उनमें सभाओं, कलीसियाई जीवन और अपने कर्तव्य के प्रति ऐसा तिरस्कारपूर्ण रवैया होता है तो इससे क्या सिद्ध होता है? परमेश्वर उनकी रखवाली या रक्षा नहीं करता है, न ही वह उनका मार्गदर्शन करता है। वह उन्हें प्रबुद्ध करने, मार्गदर्शन देने या अनुशासित करने का कोई कार्य नहीं करता और इस प्रकार वे ऐसी भयावह और बदसूरत जिंदगी जीते हैं। हालाँकि वे मन-ही-मन में सोचते हैं, “मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता; मैं स्वतंत्र हूँ। मजे ले सकता हूँ और जीवन की खुशियों का आनंद ले सकता हूँ। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले तुम लोगों को कष्ट सहना पड़ता है और कीमत चुकानी पड़ती है, अपने परिवार और करियर त्यागने पड़ते हैं, जबकि मुझे कोई कष्ट नहीं सहना पड़ता। मैं घर पर आरामदायक जिंदगी का आनंद ले सकता हूँ, दैहिक सुखों के मजे ले सकता हूँ और जीवन के आनंद ले सकता हूँ।” उन्हें लगता है कि उन्होंने खुशी और स्वतंत्रता हासिल कर ली है। क्या परमेश्वर उनकी कुछ परवाह करता है? (नहीं।) क्यों नहीं? परमेश्वर के लिए ये लोग इंसान नहीं कीड़े-मकोड़े हैं और ये इस लायक नहीं हैं कि परमेश्वर उन पर ध्यान दे। अगर परमेश्वर उनकी परवाह नहीं करता तो क्या वह अब भी उन्हें बचाएगा? चूँकि परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा, तो वे जो कुछ करते हैं उसका क्या परमेश्वर से कोई संबंध है? क्या इसका परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों से कोई संबंध है? नहीं, इसका इनसे कोई संबंध नहीं है। इसलिए ऊपरी तौर पर वे बहुत आराम से, स्वतंत्रता से और असंयमित तरीके से जीते हुए हर दिन काफी खुश नजर आते हैं। क्या यह सोचते थे कि यह अच्छी बात है? वे जो जीवन जीते हैं और जिस मार्ग पर चलते हैं, उस पर एक नजर डालते ही तुम समझ जाओगे कि वे खत्म हो चुके हैं, कि परमेश्वर उन्हें अब और नहीं चाहता। ये कीड़े-मकोड़े वाकई एक बदबूदार टोली हैं! परमेश्वर ऐसे लोगों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता।

जो लोग परिवेश और परिस्थिति की परवाह न कर भावी संसार में राजा बनकर शासन करने और परमेश्वर के समान स्तर पर रहने के लिए भरसक प्रयास करते हैं, वे मसीह-विरोधियों में सुधारे न जा सकने की हद तक हठी तत्व हैं। ऐसे लोग बिल्कुल पौलुस की तरह हैं; वे अपनी देह में काँटे लिए रहते हैं, वे परमेश्वर के बारे में संदेह पालते हैं, वे परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और उसे धमकाते हैं और काम करते हुए, खुद को खपाते हुए, कठिनाइयाँ सहते हुए और कीमत चुकाते हुए वे बहुत ही अनिच्छा प्रकट करते हैं। वे ये सब केवल एक मुकुट पाने के लिए और भविष्य के जीवन में राजा बनकर शासन करने के लिए करते हैं। क्या इस पूरी प्रक्रिया के कारण मसीह-विरोधी बहुत दयनीय नहीं लगते? वास्तव में वे दयनीय नहीं हैं। वे दयनीय तो नहीं हैं, बल्कि वे वास्तव में कुछ हद तक हास्यास्पद हैं। परमेश्वर द्वारा इतना कुछ कहने के बाद भी अगर वे सत्य को नहीं समझते तो बस छोड़ ही दो; आखिर वे मनुष्यों की भाषा का मतलब कैसे नहीं समझ सकते? वे इतने सरल सिद्धांत को कैसे नहीं समझ सकते? अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते तो तुम स्वभाव नहीं बदल पाओगे या उद्धार हासिल नहीं कर सकोगे; और भले ही परमेश्वर ने तुम लोगों से कोई वादा किया हो, फिर भी तुम लोग उसे प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर जो भी वादा मनुष्य से करता है, वह शर्तों पर आधारित होता है; वह बिना किसी कारण या शर्त के लोगों से वादे नहीं करता। परमेश्वर की मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ हैं और ये अपेक्षाएँ कभी भी बदलती नहीं हैं। परमेश्वर सत्य का उल्लंघन नहीं करेगा, न ही वह अपने इरादे बदलेगा। अगर तुम लोग इस बात को समझते हो तो क्या तुम लोग अब भी अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से हठपूर्वक चिपके रहोगे? केवल मूर्ख और तर्कहीन लोग इन चीजों से हठपूर्वक चिपके रहते हैं। जिनके पास कुछ सामान्य तार्किकता और सामान्य मानवता है, उन्हें इन चीजों को छोड़कर उन चीजों का अनुसरण करना चाहिए जो अनुसरण करने, हासिल करने और प्रवेश करने योग्य हैं—उन्हें पहले परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए। दूसरा, जिनके पास सामान्य तार्किकता है, उन्हें और क्या समझना चाहिए? बाइबल में ऐसी भविष्यवाणियाँ हैं जो कहती हैं कि हम परमेश्वर के साथ अनंतकाल तक राजा बनकर शासन करेंगे, और परमेश्वर अपने वर्तमान कार्य में परमेश्वर के व्यक्तित्व, पहलौठे पुत्र, परमेश्वर के पुत्र, परमेश्वर के लोग, आदि का भी उल्लेख कर लोगों के लिए विभिन्न स्तर और उपाधियाँ तय करता है। चूँकि परमेश्वर ने मनुष्य से इन चीजों का वादा किया है तो लोग इनका अनुसरण क्यों नहीं कर सकते? तो फिर सही समझ और सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? अगर कोई राजा बनकर शासन करने और परमेश्वर के किए वादों को अनुसरण करने के लक्ष्य मानता है तो क्या यह सही मार्ग है? निश्चित रूप से नहीं; यह सकारात्मक मार्ग नहीं है, इसमें मानवीय इच्छा की बहुत अधिक मिलावट है, और यह मार्ग सत्य के विपरीत है। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि तुमने यह वादा किया है तो तुम हमें इसे क्यों नहीं हासिल करने दोगे? चूँकि तुमने ये सारी बातें कही हैं और इन्हें सरेआम सारी मानवजाति के सामने कहा है, तो तुम हमें इसका अनुसरण करने की अनुमति क्यों नहीं देते?” इसका संबंध सत्य से है; कभी किसी ने इसे बिल्कुल शुरुआत से अब तक नहीं समझा है। यह सत्य के किस पहलू से संबंधित है? तुम्हें इसे इस दृष्टिकोण से देखना चाहिए : परमेश्वर ने मनुष्य से एक वादा किया, और परमेश्वर से मनुष्य ने राजा बनकर शासन करने की अवधारणा के साथ-साथ “परमेश्वर के व्यक्ति,” “पहलौठा पुत्र,” “परमेश्वर के पुत्र,” और अन्य विभिन्न उपाधियों के बारे में जाना। फिर भी ये केवल उपाधियाँ हैं। कौन-सी उपाधि किस व्यक्ति से संबंधित है, यह व्यक्ति विशेष के अनुसरण और प्रदर्शन पर निर्भर करता है। जिस भी उपाधि से सृजनकर्ता तुम्हें संबोधित करता है, वही तुम हो। अगर वह तुम्हें कोई उपाधि नहीं देता तो तुम कुछ भी नहीं हो; यह केवल परमेश्वर का एक वादा है, न कि कोई ऐसी चीज जिस पर लोगों का हक हो या जिसके वे योग्य हों। निस्संदेह, यह वादा एक ऐसा लक्ष्य है जिसे लोग कामना करते हैं, लेकिन यह लक्ष्य वह मार्ग नहीं है जिसे मनुष्यजाति को अपनाना चाहिए, न ही इसका लोगों के चुने मार्ग से कोई संबंध है। इस मामले में निर्णय लेने का अधिकार किसके पास है? (परमेश्वर के पास।) सही कहा, लोगों को यह बात समझनी चाहिए। अगर परमेश्वर कहता है कि वह तुम लोगों को अमुक चीज दे रहा है तो वह चीज तुम्हारे पास होती है; अगर वह कहता है कि वह तुमसे इसे छीन रहा है तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं होता, तुम कुछ भी नहीं हो। अगर तुम कहते हो, “भले ही परमेश्वर मुझे यह चीज न दे, तब भी मैं इसका अनुसरण करूँगा और अगर परमेश्वर मुझे यह देता है तो मैं इसे स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लूँगा,” तो यह गलत है। यह गलत क्यों है? क्योंकि यह एक बड़ी वर्जना का उल्लंघन है। तुम इस तथ्य को नहीं मानते कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर ही रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य ही रहेगा—यही कारण है कि यह गलत है। कुछ लोग कहते हैं, “यह बाइबल में भविष्यवाणी की गई है। बाइबल में कई जगह कहा गया है कि हम परमेश्वर के साथ सारे अनंतकाल तक राजा बनकर शासन करेंगे। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर यह कह सकता है लेकिन हम इसका अनुसरण नहीं कर सकते?” क्या एक सृजित प्राणी के पास यही विवेक होना चाहिए? लोगों के राजा बनकर शासन करने के परमेश्वर के वादे को अच्छा मानकर तुम उसका अनुसरण करते हो, लेकिन परमेश्वर ने सेवाकर्ताओं के बारे में भी कहा है—क्या तुम लोग परमेश्वर के लिए अच्छी तरह सेवा प्रदान करने का अनुसरण करते हो? क्या तुम लोग मानक-स्तर का सेवाकर्ता होने का अनुसरण करते हो? परमेश्वर लोगों से अपना कर्तव्य निभाने की अपेक्षा भी करता है—क्या तुम खुद से यह अपेक्षा करते हो कि तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाओ? परमेश्वर यह भी अपेक्षा करता है कि लोग एक सृजित प्राणी की तरह व्यवहार करें, और तुम क्या करते हो? क्या तुम मानक-स्तर का सृजित प्राणी बनने को अपना लक्ष्य मानते हो और उसका अनुसरण करते हो? परमेश्वर का यह कहना कि लोग राजा बनकर शासन करेंगे, यह एक वादा है जो उसने मनुष्य से किया है, और इस वादे के लिए एक आधार और एक संदर्भ है : तुम्हें एक अच्छा सृजित प्राणी बनना होगा, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह निभाना होगा, सेवाकर्ता की भूमिका छोड़नी होगी, परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करना होगा और सृष्टिकर्ता का भय मानना होगा। परमेश्वर ने कहा है कि जब तुम लोग यह सब प्राप्त कर लेते हो, तब तुम लोग हमेशा के लिए राजा बनकर परमेश्वर के साथ शासन कर पाओगे—यही वह संदर्भ है जिसमें ये वचन कहे गए थे। लोगों में सूझ-बूझ की कमी होती है। ये वचन सुनते ही वे सोचते हैं, “यह तो बहुत अच्छी बात है कि हम परमेश्वर के साथ राजा बनकर शासन कर सकते हैं! यह कब होगा? हम राजा के रूप में कैसे शासन करेंगे? हम परमेश्वर के बराबर किस तरह होंगे? हम किसके राजा होंगे? हम किस पर शासन करेंगे? हम कैसे शासन करेंगे? हम राजा कैसे बनेंगे?” क्या लोगों में सूझ-बूझ की कमी नहीं होती? भले ही यह मनुष्य से परमेश्वर का एक वादा है, एक ऐसी बात है जो मनुष्य को सुनाने के लिए कही गई थी, जिससे लोगों को पता चले कि यह एक अद्भुत चीज है, फिर भी तुम्हें खुद को मापना चाहिए—तुम कौन हो? परमेश्वर के पास यह विचार है और वह अपने साथ मनुष्य को इस तरह से जीने देने के लिए इच्छुक है, लेकिन क्या तुम लोग इसे प्राप्त करने योग्य हो? तुम परमेश्वर से यह क्यों नहीं पूछते, “इस वादे को प्राप्त करने से पहले, तुम हमसे क्या अपेक्षाएँ रखते हो? क्या तुम हमसे कुछ करवाना चाहते हो? इस वादे को प्राप्त करने से पहले हमें सबसे पहले क्या हासिल करना चाहिए?” तुम लोग ये सब बातें नहीं पूछते, तुम तो बस इसे माँगते हो। क्या यह सूझ-बूझ की कमी नहीं है? मनुष्य में इसी तरह की सूझ-बूझ की कमी होती है। जब लोग कोई लाभदायक चीज देखते हैं, तो वे तुरंत हाथ बढ़ाकर उसे लपक लेते हैं। लोग लुटेरों की तरह होते हैं; अगर उन्हें मनचाही चीज नहीं मिलती तो वे गुस्सा हो जाते हैं, शत्रु बन जाते हैं और गाली-गलौज करने लगते हैं। क्या लोग ऐसे ही नहीं होते? यही मानवजाति की नीचता है।

मनुष्य में विवेक की कमी का एक कारण यह है कि लोग अभी भी सत्य को नहीं समझते हैं; इसका उनके भ्रष्ट स्वभावों से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन जब उन्हें वह नहीं दिया जाता जो वे चाहते हैं तो वे गुस्सा हो जाते हैं, गाली-गलौज करते हैं, नफरत करते हैं और बदला लेते हैं—यह क्या है? यह शैतान का राक्षसी चेहरा उभर कर सामने आना है; ये उनके शैतानी भ्रष्ट स्वभाव हैं। इसलिए परमेश्वर ने जो वादा मानवजाति से किया है, उसके संदर्भ में हर एक व्यक्ति परमेश्वर के सामने जो कुछ प्रकट करता है, वह परमेश्वर को संतुष्ट नहीं करता। लोग तुरंत अपने हाथ आगे बढ़ा देते हैं, बिना अपनी सीमा को समझे तुरंत माँग करने लगते हैं, और अगर उन्हें वह नहीं मिलता जो वे चाहते हैं, तो वे सोचते हैं कि वे इसे प्राप्त करने के बदले में किन चीजों का इस्तेमाल कर सकते हैं। वे अपने परिवार और करियर त्याग देते हैं, वे कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं, इधर-उधर भागते हैं और खुद को खपाते हैं, सुसमाचार का प्रचार करते हैं और अधिक लोगों को प्राप्त करते हैं, वे अधिक काम करते हैं, और वे इन चीजों का उपयोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बदले करते हैं। अगर वे अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बदले इन चीजों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते हैं तो वे क्रोधित हो जाते हैं, उनके दिल में नफरत भर जाती है और वे परमेश्वर में आस्था से संबंधित हर चीज से विमुख हो जाते हैं। अगर उन्हें लगता है कि वे इन चीजों के बदले में अपनी मनचाही चीज प्राप्त कर सकते हैं तो वे हर दिन परमेश्वर के कार्य के जल्द समाप्त होने, परमेश्वर द्वारा शैतान के शीघ्र नाश करने, मानवजाति के शीघ्र अंत करने और विनाशों को जल्द लाने के लिए लालायित रहते हैं, वरना उन्हें लगता है कि वे टिक नहीं पाएँगे। सत्य के समक्ष हर एक व्यक्ति क्या प्रकट करता है? वह सत्य से विमुख और क्रूर होने जैसे स्वभाव प्रकट करता है। अब इसे देखते हुए लोगों के घमंड, धोखेबाजी और उनकी कभी-कभार की हठधर्मिता को यह माना जा सकता है कि ये मानवजाति के तमाम भ्रष्ट स्वभावों में हल्के हैं और बहुत गंभीर नहीं हैं। मानवजाति में जो भ्रष्ट स्वभाव अधिक हैं, जो अधिक गंभीर और गहरे हैं, वे हैं दुष्टता, सत्य से विमुख होना और क्रूरता—मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में यही घातक तत्व हैं। निस्संदेह, जब मसीह-विरोधियों की बात आती है तो उनमें ये स्वभाव और भी गंभीर होते हैं और जब वे इन्हें प्रकट करते हैं तो वे इन्हें गंभीरता से नहीं लेते, वे उनकी जाँच नहीं करते, वे परमेश्वर के प्रति कोई ऋणशीलता महसूस नहीं करते और उन्हें यह भी महसूस नहीं होता कि उनके भीतर कहीं कोई समस्या है; वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, खुद को नहीं जानते और पश्चात्ताप करना तो उनके लिए और भी संभव नहीं है। इसलिए चाहे परिस्थितियाँ, परिवेश या संदर्भ कुछ भी हो, वे राजा बनकर शासन करने को—परमेश्वर के कहे सबसे महान और सर्वोत्तम वादे को—अपने अनुसरण का लक्ष्य मानते हैं। तुम लोग उनके साथ सत्य पर चाहे कैसे भी संगति कर लो, वे इस अनुसरण को छोड़ते नहीं हैं, बल्कि अपने मार्ग पर चलते रहने की जिद करते हैं और यही बात उन्हें बचाए जाने से परे कर देती है। ये लोग वाकई बहुत ही भयानक हैं! ये लोग जो प्रकट करते हैं, उससे तुम देख सकते हो कि शैतान का स्वभाव और असली रूप क्या है। इतने सारे सत्य पर संगति की जा चुकी है और जिनके पास सूझ-बूझ है, जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं और जिनमें परमेश्वर की आज्ञा मानने और उसके प्रति समर्पण करने की इच्छा है, वे दरअसल समझते हैं कि परमेश्वर का इरादा वास्तव में क्या है। वे अब हठपूर्वक किसी पद, संभावनाओं और नियति का अनुसरण नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के इन वचनों के खुलासे के तहत पश्चात्ताप करने के लिए इच्छुक हो जाते हैं, आशीष की अपनी इच्छा को छोड़ने के लिए इच्छुक होकर सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसे संतुष्ट करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं। अब अधिकांश लोगों की आंतरिक इच्छाओं को देखते हुए उनके अनुसरण के लक्ष्यों में एक मौलिक बदलाव आया है; वे अपना कर्तव्य मानक-स्तर के तरीके से करने के इच्छुक हैं, वे सच्चे सृजित प्राणी बनने के लिए इच्छुक हैं और वे उद्धार प्राप्त करने के लिए भी इच्छुक हैं। वे अपना कर्तव्य आशीष पाने के लिए नहीं निभाते और वे आशीष पाने की खातिर कोई परमेश्वर के घर में कामचलाऊ काम नहीं करते। हमेशा राजा बनकर शासन करने की चाह रखने वाले मसीह-विरोधियों को छोड़ दें तो अधिकांश लोग सत्य का अनुसरण करने के लिए इच्छुक हैं। केवल मसीह-विरोधी ही संभावनाओं, आशीषों और राजा बनकर शासन करने के अनुसरण को अपना लक्ष्य मानते हैं और इन्हें ऐसा फल मानते हैं जो अंततः परमेश्वर में अपनी आस्था में मिलना चाहिए। चाहे तुम कुछ भी कह लो, वे इन चीजों को छोड़ते नहीं हैं और न ही अपना मार्ग बदलते हैं—क्या वे बड़ी मुसीबत में नहीं हैं? वे भली-भाँति जानते हैं कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं करते, इसलिए उन्हें बदलने का कोई तरीका नहीं है; वे केवल हटाए और दंडित किए जा सकते हैं। यही मसीह-विरोधियों की परमेश्वर में आस्था का अंतिम नतीजा है।

क्या मैंने लोगों के राजा बनने के प्रयास की इस बात पर अब स्पष्ट रूप से संगति कर ली है? क्या तुम लोगों को एक नई समझ प्राप्त हुई है? क्या राजा बनकर शासन करने के अनुसरण का यह मार्ग सही है? (नहीं।) तो फिर लोगों को इस मामले से किस नजरिए से पेश आना चाहिए? इस मामले में मनुष्य के सार को जानने के लिए कौन-सा सत्य समझा जाना चाहिए? किसी व्यक्ति का सार और व्यवहार वास्तव में क्या है, इसका न्याय करना परमेश्वर पर निर्भर करता है। परमेश्वर अपनी इन सभी बातों का न्याय किस आधार पर करता है? वह इसे सत्य के आधार पर करता है। इसलिए किसी व्यक्ति का परिणाम या गंतव्य उसकी अपनी इच्छा से तय नहीं होता, न ही वह उसकी अपनी पसंदगियों या कल्पनाओं से तय होता है। इसमें सृष्टिकर्ता, परमेश्वर का निर्णय अंतिम होता है। इस मामले में लोगों को कैसे सहयोग करना चाहिए? लोगों के पास केवल एक मार्ग है जिसे वे चुन सकते हैं : अगर वे सत्य खोजते हैं, सत्य को समझते हैं, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल कर पाते हैं और उद्धार प्राप्त करते हैं, केवल तभी अंततः उनके पास एक अच्छा अंत और एक अच्छा भाग्य होगा। अगर लोग इसके विपरीत करते हैं, तो उनकी संभावनाओं और नियति की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। और इसलिए, इस मामले में यह मत देखो कि परमेश्वर ने मनुष्य से क्या वादा किया है, मानवजाति के परिणाम के बारे में परमेश्वर क्या कहता है, परमेश्वर ने मानवजाति के लिए क्या कुछ तैयार किया है। इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, ये परमेश्वर के काम हैं, इन्हें छीनकर, माँगकर या किसी चीज की अदला-बदली के जरिए हासिल नहीं कर सकते हो। एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए, तुमसे जो कार्य अपेक्षित है उसे अपने पूरे दिल, दिमाग और ताकत के साथ करना चाहिए। बाकी चीजें—संभावनाएँ और नियति और मानवजाति के भावी गंतव्य से संबंधित चीजें—ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम तय कर सको, वे परमेश्वर के हाथ में हैं; यह सब सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन आता है, इसकी व्यवस्था वही करता है और इसका किसी भी सृजित प्राणी से कुछ लेना-देना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर इसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है, तो हमें यह क्यों बताते हो?” भले ही इसका तुम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन इसका परमेश्वर से लेना-देना है। केवल परमेश्वर ही इन चीजों को जानता है, केवल परमेश्वर ही इनके बारे में बात कर सकता है और केवल परमेश्वर ही मानवजाति से इन चीजों का वादा करने का हकदार है। और अगर परमेश्वर इन्हें जानता है, तो क्या परमेश्वर को इनके बारे में बात नहीं करनी चाहिए? जब तुम यह जानते ही नहीं हो कि तुम्हारी संभावनाएँ और नियति क्या हैं तो तब भी इनका अनुसरण करते रहना एक गलती है। परमेश्वर ने तुम्हें इनका अनुसरण करने को नहीं कहा, वह तुम्हें सिर्फ बता रहा था; अगर तुम गलती से यह मान बैठो कि परमेश्वर तुम्हें इसे अपने अनुसरण का लक्ष्य बनाने को कह रहा था, तो तुममें विवेक का नितांत अभाव है और तुम्हारे पास सामान्य मानव का दिमाग नहीं है। परमेश्वर जिन चीजों का वादा करता है, उन सबसे अवगत होना ही पर्याप्त है। तुम्हें एक तथ्य स्वीकार करना चाहिए : चाहे वह किसी भी तरह का वादा हो, चाहे वह अच्छा हो या साधारण, चाहे वह लोगों की पसंद का हो या कुछ ऐसा जिसमें लोगों की बहुत रुचि न हो, सब कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और निर्धारणों के अधीन होता है। केवल सृष्टिकर्ता द्वारा दिखाई गई सही दिशा और राह पर चलना और अनुसरण में लगे रहना एक सृजित प्राणी का कर्तव्य और दायित्व है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि अंततः तुम्हें क्या प्राप्त होता है और परमेश्वर के वादों में से किस वादे में तुम्हारी हिस्सेदारी है, यह सब तुम्हारे अनुसरण पर, तुम्हारे अपनाए मार्ग पर और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता पर आधारित है। क्या ये बातें अब तुम्हारे लिए स्पष्ट हैं? (हाँ।) और क्या ये बातें तुम लोगों की महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को पूरा करने में मदद करेंगी, या ये तुम लोगों को जीवन के सही मार्ग पर सत्य की तलाश में चलने में सहायता करेंगी? (वे सत्य का अनुसरण करने और जीवन में सही मार्ग पर चलने में हमारी मदद करेंगी।) जो लोग सामान्य मानवता और सूझ-बूझ रखते हैं, जो सकारात्मक चीजों और सत्य से प्रेम करते हैं, वे न केवल इन शब्दों को सुनकर निराश नहीं होते, बल्कि वे सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने के लिए अपने विश्वास में दृढ़ भी हो सकते हैं; लेकिन जिनके पास सामान्य तर्क-शक्ति नहीं है, वे असामान्य लोग जो लगातार आशीष, दैहिक हितों और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति का अनुसरण करते हैं, वे ये शब्द सुनने पर उत्साह खो सकते हैं और परमेश्वर में विश्वास करने में दिलचस्पी खो सकते हैं। निश्चित रूप से, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन शब्दों को सुनकर यह नहीं समझते कि विश्वास कैसे करना है। क्या लोगों के लिए सत्य को समझना बेहद जरूरी नहीं है? क्या सत्य लोगों का सही मार्ग पर मार्गदर्शन करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में अधिक सक्षम नहीं है? (हाँ।) सिर्फ सत्य ही लोगों को उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बना सकता है; अगर तुम लोग सत्य को नहीं समझते, तो उद्धार के मार्ग पर तुम अक्सर भटक जाओगे, गलतियाँ करोगे और नुकसान उठाओगे, और जब तुम अपनी आस्था के मार्ग के अंत में पहुँचोगे, तब तुम्हारे पास कोई भी सत्य वास्तविकता नहीं होगी और तुम पूरी तरह से एक सेवाकर्ता बन जाओगे। अगर तुम लोग परमेश्वर में आस्था के अपने अनेक वर्षों के दौरान हमेशा एक सेवाकर्ता की भूमिका निभाते हो और अंततः एक मानक-स्तर का सृजित प्राणी नहीं बन पाते, तो यह एक त्रासदी है।

9 मई 2020

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