मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग नौ) खंड एक

II. मसीह-विरोधियों के हित

घ. उनकी संभावनाएँ और नियति

4. मसीह-विरोधी “सेवाकर्ता” की उपाधि से कैसे पेश आते हैं

आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में से मद नौ पर संगति करना जारी रखेंगे : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं। इस मद के साथ हमारी मुख्य संगति का विषय मसीह-विरोधियों के हितों का गहन-विश्लेषण है और आज हम मसीह-विरोधियों के हितों की चौथी मद के चौथे उपविषय पर संगति करेंगे—वे “सेवाकर्ता” की उपाधि से कैसे पेश आते हैं—और यह गहन-विश्लेषण करेंगे कि मसीह-विरोधी इस उपाधि से कैसे पेश आते हैं। जो लोग अब तक परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं, वे “सेवाकर्ता” शब्द से परिचित हैं, और उनमें से अधिकांश ने अपने दिलों में इस उपाधि को मूल रूप से स्वीकार कर लिया है। उनकी व्यक्तिपरक प्रवृत्तियों के लिहाज से इस उपाधि के प्रति कोई विरोध नहीं है। लेकिन जब किसी व्यक्ति को सेवाकर्ता कहने की बारीकियों की बात आती है तो वह व्यक्ति मुख्य रूप से हिचकिचाहट और अनिच्छा व्यक्त करता है, अपने साथ अन्याय महसूस करता है, न तो वास्तव में ऐसा कहलाना चाहता है और न ही वास्तव में सेवाकर्ता बनना चाहता है। लोगों की अभिव्यक्तियों के आधार पर देखें तो वे इस बात से तो सहमत होते हैं कि “सेवाकर्ता” उपाधि उनकी व्यक्तिपरक प्रवृत्तियों के अनुसार बुरी नहीं है, लेकिन एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से लोग अब भी “सेवाकर्ता” की उपाधि को कुछ हद तक भेदभाव, शत्रुता और यहाँ तक कि अनिच्छा के साथ देखते हैं—उनके मन में इस उपाधि के प्रति ये भावनाएँ होती हैं। लोग “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में चाहे कुछ भी सोचें, चाहे वे इसे ईमानदारी से स्वीकार कर सेवाकर्ता बन सकें या नहीं, या चाहे इस उपाधि के बारे में उनकी सोच में मनुष्य की कई अशुद्धियाँ और इच्छाएँ शामिल हों या नहीं, आज हम पहले इस पर संगति करेंगे कि वास्तव में सेवाकर्ता क्या होता है, परमेश्वर की नजरों में “सेवाकर्ता” की उपाधि कैसे परिभाषित और निरूपित होती है, परमेश्वर इन सेवाकर्ताओं के जिस सार की बात करता है वह क्या है, और परमेश्वर “सेवाकर्ता” शब्द को किस दृष्टिकोण से देखता है और यह लोगों की दृष्टि से कैसे भिन्न है, ताकि तुम सबके मन में “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में सटीक समझ और अवधारणा विकसित हो सके।

i. “सेवाकर्ता” की उपाधि की परिभाषा और उत्पत्ति

“सेवाकर्ता” शब्द का शाब्दिक अर्थ है एक ऐसा व्यक्ति जो किसी चीज के लिए कार्य और प्रयास करता है। अगर हम इस उपाधि को पद के संदर्भ में मापें तो इसका आशय किसी ऐसे व्यक्ति से है जिसका उपयोग अस्थायी अवधि के लिए किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर किसी को सेवाकर्ता माना जाता है और वह कोई नौकरी करने लगता है या किसी उद्योग में काम शुरू करता है, तो यह कोई दीर्घकालिक औद्योगिक करियर या नौकरी नहीं होती जिसे वह अपनाता है, बल्कि यह व्यवस्था अस्थायी होती है। उन्हें अस्थायी रूप से कुछ समय के लिए इस उद्योग या नौकरी में प्रयास और सेवा करने के लिए रखा जाता है। उनके पास कोई संभावनाएँ नहीं होतीं, न कोई भविष्य होता है और न ही उन्हें कोई भौतिक लाभ मिलता है। उन्हें किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी उठाने की जरूरत नहीं होती; उन्हें केवल अपने श्रम के लिए भुगतान किया जाता है। जब उन्हें सौंपा गया काम पूरा हो जाता है तो उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाती और वे अपना मेहनताना लेकर चले जाते हैं। संक्षेप में कहें तो यह अस्थायी कार्य होता है और उनसे तभी काम कराया जाता है जब उनकी जरूरत होती है। यह एक सेवाकर्ता का शाब्दिक अर्थ है। अगर हम “सेवाकर्ता” शब्द की व्याख्या मानवजाति के विचारों के अनुसार करें तो सेवाकर्ताओं का आशय “अनुबंधित कर्मचारी” और “अस्थायी कर्मचारी” होता है जो किसी नौकरी या उद्योग के लिए अस्थायी रूप से काम या प्रयास करते हैं। उनका एकमात्र संबंध उस समय अवधि से होता है जब उनकी किसी नौकरी के लिए जरूरत होती है, और जैसे ही वह अवधि समाप्त हो जाती है, उनकी कोई कीमत नहीं रह जाती। इसका कारण यह है कि अब उनकी जरूरत नहीं रहती और उनका उपयोग मूल्य समाप्त हो चुका होता है—उनका मूल्य उस समय अवधि के दौरान समाप्त हो जाता है। यह “सेवाकर्ता” शब्द का शाब्दिक अर्थ है जिसे लोग समझ और देख सकते हैं। मानव भाषा द्वारा व्यक्त किए जा सकने वाले अर्थ के भीतर, अर्थात् परमेश्वर द्वारा “सेवाकर्ता” उपाधि के बताए गए अर्थ में, जिसे मनुष्य समझ सकता है, क्या अर्थ का ऐसा कोई स्तर है जो सत्य के अनुरूप हो? क्या अर्थ का ऐसा कोई स्तर है जो सामान्य मानवता और तार्किकता के अनुरूप हो? क्या अर्थ का ऐसा कोई स्तर है जिसे लोगों को सच्चे सृजित प्राणियों के रूप में समझना चाहिए? क्या अर्थ का ऐसा कोई स्तर है जिसका संबंध इस बात से हो कि परमेश्वर इस उपाधि से कैसे पेश आता है? (नहीं।) तुम लोगों को कैसे पता कि नहीं है? तुम लोग अटक गए हो, तुम इसे समझा नहीं सकते। तुम लोगों में यूनिवर्सिटी के छात्र, ग्रेजुएट छात्र, डॉक्टोरल छात्र और प्रोफेसर हैं, फिर भी तुममें से कोई इसे स्पष्ट रूप से समझा नहीं सकता, है ना? (हाँ, सही कहा।) यही अंतर है ज्ञान और सत्य के बीच। तुम शिक्षित हो सकते हो, तुम “सेवा” और “कर्ता” जैसे शब्दों के व्यक्तिगत अर्थ जान सकते हो और जब ये शब्द मिलकर किसी किस्म के व्यक्ति या लोगों के समूह का चित्रण करने वाला एक नया शब्द बनाते हैं तो तुम उन लोगों के सार, उनकी अभिव्यक्तियों और समस्त मानवजाति में उनकी स्थिति को समझ सकते हो, लेकिन जब तुम इस शब्द को सत्य के दृष्टिकोण और एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से नहीं समझ पाते तो तुम्हारी समझ वास्तव में कहाँ से आती है? इस शब्द का सार वास्तव में क्या है जिसे तुम समझते हो? क्या यह “सेवाकर्ता” शब्द की वही समझ नहीं है जो इस भ्रष्ट मानवता, इस समाज और मानवजाति के ज्ञान से आई है? (हाँ, ऐसा ही है।) मानवजाति का ज्ञान सत्य के अनुरूप है या सत्य के विपरीत? (यह सत्य के विपरीत है।) तो जब तुम्हारे पास इस शब्द की यह समझ और ज्ञान है तो तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो या परमेश्वर की अनुरूपता में खड़े हो? जाहिर है, जब तुम इस शब्द को अपने ज्ञान और दिमाग से समझते और जानने की कोशिश करते हो, तो अनचाहे और अनजाने में ही तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो जाते हो। जब तुम इस शब्द को समझने के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करते हो तो जो बातें तुमने समझी हैं, वे अनिवार्य रूप से तुम्हें “सेवाकर्ता” शब्द के प्रति विरोध, घृणा, अरुचि और यहाँ तक कि नफरत महसूस करने की ओर ले जाती हैं। क्या यहाँ कोई समर्पण भाव है? क्या कोई सच्ची स्वीकृति है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं : “मैं अच्छे शब्दों को स्वीकार करता हूँ, लेकिन मुझे इस बुरे शब्द को क्यों स्वीकार करना चाहिए? इतना काफी है कि मैं इसके प्रति कोई विरोध महसूस नहीं करता। उदाहरण के लिए, मैं सकारात्मक शब्दों को स्वीकार करता हूँ जैसे ‘मुकुट प्राप्त करना,’ ‘इनाम प्राप्त करना,’ ‘आशीष प्राप्त करना,’ ‘राज्य में प्रवेश करना,’ ‘स्वर्ग में जाना,’ ‘नरक न जाना’, ‘दंडित न होना’ और ‘पहलौठा पुत्र होना।’ यह स्वाभाविक है, यह मनुष्य की सामान्य प्रतिक्रिया है और ये ऐसी चीजें हैं जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। जहाँ तक नकारात्मक शब्दों का सवाल है, जैसे ‘दुष्ट लोग’, ‘मसीह-विरोधी’, ‘दंडित होना’ और ‘नरक में जाना’ तो इन्हें स्वीकार करना कोई पसंद नहीं करता। ‘सेवाकर्ता’ शब्द तटस्थ है, लेकिन अपनी समझ के अनुसार मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता और इतना ही काफी है कि मैं इसे तुच्छ नहीं समझता। अगर मुझे इसे स्वेच्छा से स्वीकार करना है, इसके प्रति समर्पण करना है और इसे परमेश्वर से स्वीकार करना है, तो यह संभव ही नहीं है।” क्या लोग ऐसे ही नहीं सोचते? (हाँ, ऐसा ही सोचते हैं।) सोचने का यह तरीका सही है या गलत? (यह गलत है।) तुम्हें यह कब पता चला कि यह गलत है? अभी-अभी, है ना? यह एक समस्या है। तुम्हें अभी-अभी पता चला है कि यह गलत है। यह एहसास होने से पहले लगता है तुमने सतही तौर पर “सेवाकर्ता” की उपाधि स्वीकार कर ली थी और तुमने इसे व्यक्तिगत रूप से भी स्वीकार कर लिया था—और यह स्वीकृति सच्ची थी या झूठी? (यह झूठी थी।) जाहिर है, यह सच्ची नहीं थी और न ही तुम इसे स्वीकार करने के पूर्ण इच्छुक थे। इसमें झूठ, दिखावा और अनिच्छा थी और साथ ही यह भावना भी थी कि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं है।

जिन चीजों पर हमने अभी संगति की, वे “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में लोगों की सच्ची प्रतिक्रियाएँ और अभिव्यक्तियाँ थीं, और वे पूरी तरह से इस उपाधि के प्रति लोगों की राय, दृष्टिकोण और उनकी समझ को प्रदर्शित करती हैं, इससे पूरी तरह से प्रकट होता है कि इस उपाधि के प्रति लोगों का रवैया अनिच्छा, भेदभाव, नफरत और उनके अंतरतम से विरोध का है। यह इसलिए है क्योंकि लोग सेवाकर्ता होने से तिरस्कार करते हैं, “सेवाकर्ता” शब्द से तिरस्कार करते हैं, सेवाकर्ता होने के लिए तैयार नहीं होते और सेवाकर्ता होने से नफरत करते हैं। यह इस उपाधि के प्रति लोगों की समझ और रवैया है। अब, आओ यह देखें कि परमेश्वर सेवाकर्ताओं को वास्तव में किस दृष्टिकोण से देखता है, “सेवाकर्ता” शब्द कैसे आया, परमेश्वर की नजरों में इस उपाधि का सार क्या है और इसकी उत्पत्ति क्या है। मानवजाति की भाषा में कहें तो “सेवाकर्ता” का शाब्दिक अर्थ है एक अस्थायी कर्मचारी, जो किसी उद्योग या नौकरी में अस्थायी रूप से सेवा करता है और जिसकी आवश्यकता अस्थायी रूप से होती है। परमेश्वर की प्रबंधन योजना में, परमेश्वर के कार्य में और परमेश्वर के घर में सेवाकर्ता कहे जाने वाले लोगों का यह समूह अपरिहार्य है। जब ये लोग परमेश्वर के घर, परमेश्वर के कार्य के स्थान पर आए थे तो उन्हें परमेश्वर और परमेश्वर में आस्था के बारे में कुछ पता नहीं था, और परमेश्वर के कार्य या उसकी प्रबंधन योजना के बारे में तो वे और भी कम जानते थे। वे कुछ भी नहीं समझते थे; वे केवल बाहरी लोग थे, अविश्वासी थे। परमेश्वर के घर जब वो लोग आते हैं जो परमेश्वर की नजरों में अविश्वासी हैं तो वे उसके लिए क्या कर सकते हैं? यह कहा जा सकता है कि वे कुछ भी नहीं कर सकते। चूँकि लोग भ्रष्ट स्वभाव से भरे हुए होते हैं और परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते, और अपने प्रकृति सार के कारण भी वे केवल वही कर सकते हैं जो परमेश्वर उन्हें करने का निर्देश देता है। परमेश्वर का कार्य जिस सीमा तक पहुँचता है, वे उसका अनुसरण वहीं तक करते हैं, उनका ज्ञान वहीं तक पहुँचता है जहाँ तक परमेश्वर के वचन उन्हें ले जाते हैं; वे उसके वचनों को केवल जानते हैं, उन्हें उनकी समझ बिल्कुल भी नहीं होती। परमेश्वर इन लोगों से जो भी कार्य करने की अपेक्षा करता है, वे उस हर कार्य को निष्क्रिय रूप से पूरा करते हैं—वे सक्रिय नहीं होते, बल्कि पूरी तरह से निष्क्रिय होते हैं। यहाँ “निष्क्रिय” का अर्थ है कि वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर क्या करेगा, वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर उनसे क्या करने के लिए कह रहा है, वे उस कार्य का महत्व या मूल्य नहीं समझते जो परमेश्वर उनसे करने के लिए कह रहा है, और वे यह भी नहीं जानते कि उन्हें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। परमेश्वर के घर में आने पर वे मशीनों की तरह होते हैं, वे केवल उसी तरीके से कार्य करते हैं जैसा परमेश्वर उन्हें चलाता है। परमेश्वर को उनसे क्या चाहिए? क्या तुम लोगों को पता है? (परमेश्वर के लिए लोग वह विषय हैं जिनका न्याय करने के लिए वह सत्य व्यक्त करता है। लोग परमेश्वर के वचनों के विषय हैं।) एक हिस्सा यह है; लोग परमेश्वर के वचनों के विषय हैं। और हिस्से क्या हैं? लोगों के गुण? (हाँ।) सामान्य मानवता की सोच? (हाँ।) परमेश्वर केवल तभी तुम्हारा उपयोग करता है जब तुम्हारे पास सामान्य मानवता की सोच होती है। अगर तुम्हारे पास अंतरात्मा और विवेक नहीं है, तो तुम सेवाकर्ता बनने के भी योग्य नहीं हो। इसके अलावा और क्या है? (लोगों के कौशल और विशेष प्रतिभाएँ।) ये गुणों में शामिल होते हैं और उसका एक हिस्सा होते हैं—विभिन्न कौशल जो लोगों के पास होते हैं। और क्या? (परमेश्वर के साथ सहयोग करने का संकल्प।) यह भी इसका एक हिस्सा है, आज्ञा मानने और समर्पण करने की इच्छा, और निश्चित रूप से इसे लोगों की सकारात्मक चीजों से प्रेम करने और सत्य से प्रेम करने की इच्छा भी कहा जा सकता है। आज्ञा मानने और समर्पण करने की इच्छा परमेश्वर के साथ सहयोग करने का संकल्प है, लेकिन इसे कहने का सबसे उपयुक्त तरीका कौन-सा है? (आज्ञा मानने और समर्पण करने की इच्छा।) यह सही बात है, “इच्छा” शब्द तुलनात्मक रूप से व्यापक है और इसका दायरा अधिक विस्तृत होता है। अगर हम “संकल्प” शब्द का उपयोग करते हैं, तो इसका दायरा कुछ हद तक सीमित हो जाता है। इसके अलावा, “इच्छा” की तीव्रता “संकल्प” की तुलना में हल्की होती है, जिसका अर्थ है कि तुम्हारी कोई इच्छा होने के बाद तुम धीरे-धीरे विभिन्न संकल्प उत्पन्न करते हो; संकल्प अधिक विशिष्ट होता है, जबकि इच्छा कुछ हद तक व्यापक होती है। सृष्टिकर्ता के दृष्टिकोण से ये ऐसी कुछ चीजें हैं जो परमेश्वर को भ्रष्ट मानवता से चाहिए होती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब परमेश्वर के घर ऐसा कोई बाहरी व्यक्ति आता है जिसे परमेश्वर, परमेश्वर की प्रबंधन योजना, परमेश्वर के सार, परमेश्वर के कथन और परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कतई कुछ नहीं पता होता, तो वह एक मशीन की तरह होता है, और वह परमेश्वर के लिए जो कुछ कर सकता है उसका और परमेश्वर के कार्य में उनके सहयोग का मूल रूप से उस मानक—सत्य—से कोई वास्ता नहीं होता जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। ऐसे लोगों की जिन चीजों का परमेश्वर उपयोग कर सकता है वे वही चीजें हैं जिनका अभी-अभी उल्लेख किया गया है : पहली यह कि ये लोग परमेश्वर के वचनों के विषय बन सकते हैं; दूसरी यह कि इन लोगों के पास जो गुण हैं; तीसरी यह कि इन लोगों के पास सामान्य मानवता की सोच है; चौथी यह कि इन लोगों के पास विभिन्न कौशल हैं; पाँचवीं—और यह सबसे महत्वपूर्ण है—इन लोगों में परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन करने और उनके प्रति समर्पण करने की इच्छा है। ये सभी चीजें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। जब किसी व्यक्ति के पास ये सभी चीजें आ जाती हैं, तब वह परमेश्वर के कार्य और उसकी प्रबंधन योजना की सेवा में काम करना शुरू कर देता है, और अधिकृत रूप से सही मार्ग पर आ जाता है, जिसका अर्थ है कि वह परमेश्वर के घर में अधिकृत रूप से एक सेवाकर्ता बन जाता है।

जब लोग परमेश्वर के वचनों, सत्य या परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते और वे परमेश्वर का जरा भी भय नहीं मानते, तो उनके लिए सेवाकर्ता के अलावा कोई और भूमिका नहीं हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम एक सेवाकर्ता हो चाहे तुम यह बनने के लिए तैयार हो या न हो—तुम इस उपाधि से बच नहीं सकते। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने जीवन भर परमेश्वर में विश्वास किया है। जब से मैंने यीशु पर विश्वास करना शुरू किया, तब से लेकर अब तक कई दशक बीत गए हैं—क्या मैं अब भी एक सेवाकर्ता ही हूँ?” तुम इस सवाल के बारे में क्या सोचते हो? वे यह किससे पूछ रहे हैं? उन्हें खुद से पूछना और आत्मचिंतन करना चाहिए : “क्या मैं अब परमेश्वर के इरादे समझता हूँ? अब जब भी मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ, तो क्या मैं सिर्फ प्रयास कर रहा होता हूँ या मैं सत्य का अभ्यास करता हूँ? क्या मैं सत्य का अनुसरण करने और उसे समझने के मार्ग पर चल रहा हूँ? क्या मैंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश किया है? क्या मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? क्या मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति हूँ?” उन्हें इन बातों को ध्यान में रखते हुए आत्मचिंतन करना चाहिए। अगर वे इन मापदंडों को पूरा करते हैं, अगर वे परमेश्वर के परीक्षणों का सामना करते समय दृढ़ रह सकते हैं, और अगर वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं, तो निश्चित रूप से वे अब एक सेवाकर्ता नहीं हैं। अगर वे इनमें से एक भी मापदंड पूरा नहीं करते तो निःसंदेह अब भी सेवाकर्ता ही हैं और यह एक ऐसी चीज है जिससे बचा नहीं जा सकता और जो अपरिहार्य है। कुछ लोग कहते हैं : “मैंने 30 से अधिक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है और इसमें मैंने यीशु पर विश्वास करने वाले वर्ष भी नहीं जोड़े हैं। जब-से परमेश्वर देहधारी हुआ, प्रकट हुआ, उसने अपना कार्य किया और अपने वचन बोलने शुरू किए, तब-से मैं परमेश्वर का अनुयायी हूँ। मैं उनमें से एक था जिन्होंने सबसे पहले परमेश्वर के कार्य का व्यक्तिगत अनुभव किया और उसके मुँह से निकले वचन सुने। तब से कई वर्ष बीत चुके हैं और मैं अब भी परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण कर रहा हूँ। मैं कई बार गिरफ्तारी और उत्पीड़न का सामना कर चुका हूँ, मैंने बहुत सारे खतरों का सामना किया है और परमेश्वर ने हमेशा मेरी रक्षा की है और मुझे कठिन स्थिति से कदम-दर-कदम निकाला है; परमेश्वर ने मुझे कभी नहीं छोड़ा। मैं अब भी अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, मेरी परिस्थितियाँ बेहतर होती जा रही हैं, मेरी आस्था लगातार बढ़ रही है, और मुझे परमेश्वर के बारे में कोई भी संदेह नहीं है—क्या मैं अब भी वास्तव में एक सेवाकर्ता हूँ?” तुम किससे पूछ रहे हो? क्या तुम गलत व्यक्ति से नहीं पूछ रहे हो? तुम्हें यह सवाल नहीं पूछना चाहिए। चूँकि तुम इतने वर्षों से विश्वास करते चले आए हो, तो क्या तुम्हें यह पता नहीं है कि तुम एक सेवाकर्ता हो या नहीं? अगर तुम्हें यह नहीं पता तो तुम खुद से क्यों नहीं पूछते कि क्या तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है, क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और क्या तुम बुराई से दूर रहने वाला आचरण करते हो? परमेश्वर ने इतने सारे वर्षों तक कार्य किया, इतने वचन बोले हैं तो तुमने इनमें से कितना समझा है और कितना इनमें प्रवेश किया है? तुमने कितना कुछ हासिल किया है? तुम्हारी कितनी बार काट-छाँट की गई और तुमने कितने परीक्षण और शोधन स्वीकार किए हैं? जब तुमने इन्हें स्वीकार किया तो क्या तुम अपनी गवाही में दृढ़ खड़े रहे? क्या तुम परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम हो? जब तुम अय्यूब जैसे परीक्षणों का सामना करते हो तो क्या तुम परमेश्वर को नकारने में सक्षम होते हो? वास्तव में परमेश्वर में तुम्हारी कितनी अधिक आस्था है? क्या तुम्हारी आस्था केवल एक विश्वास है या यह सच्ची आस्था है? खुद से ये सवाल पूछो। अगर तुम्हें इन सवालों के जवाब नहीं पता तो तुम एक भ्रमित व्यक्ति हो और मैं कह सकता हूँ कि तुम बस भेड़चाल के साथ चल रहे हो—तुम्हें तो एक सेवाकर्ता कहलाने का भी हक नहीं है। जो व्यक्ति “सेवाकर्ता” की उपाधि के प्रति इस तरह का रवैया रखता है और जिसका दिल अब भी पूरी तरह उलझा हुआ है, वह बेहद दयनीय है। ऐसे लोगों को यह भी नहीं पता कि वे खुद क्या हैं, जबकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ अपने व्यवहार में पूरी तरह से स्पष्ट और सुलझा हुआ होता है।

अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि परमेश्वर के अनुसार “सेवाकर्ता” शब्द का मूल अर्थ वास्तव में क्या है। शुरुआत में जब लोग परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, जब वे सत्य को नहीं समझते हैं और उनमें केवल विभिन्न इच्छाएँ या सहयोग करने का कुछ संकल्प होता है तो उस अवधि के दौरान उनकी भूमिका सेवाकर्ता की ही हो सकती है। बेशक, “सेवा” शब्द सुनने में बहुत सुखद नहीं लगता। दूसरे ढंग से कहें तो इसका अर्थ है मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के लिए काम और मेहनत करना; इसका अर्थ है प्रयास करना। ये लोग किसी भी सत्य को नहीं समझते हैं, न ही वे परमेश्वर के इरादों को समझते हैं, और वे मानवता को बचाने और सँभालने के लिए परमेश्वर जो विशिष्ट कार्य करता है उसमें कोई प्रयास नहीं कर सकते या किसी भी तरह से सहयोग नहीं कर सकते, न ही वे सत्य से संबंधित विभिन्न कार्यों में भागीदार हो सकते हैं। उनके पास केवल कुछ कौशल और गुण होते हैं, वे सामान्य मामलों के किसी कार्य के लिए केवल कुछ प्रयास कर सकते हैं और कुछ बातें कह सकते हैं और कुछ बाहरी सेवा कार्य कर सकते हैं। अगर अपना कर्तव्य निभा रहे लोगों के कार्य का यही सार है, अगर वे केवल सेवा की भूमिका निभा रहे हैं, तो उनके लिए “सेवाकर्ता” की उपाधि से पीछा छुड़ाना मुश्किल है। इससे पीछा छुड़ाना क्यों मुश्किल है? क्या इसका इस उपाधि की परमेश्वर द्वारा दी गई परिभाषा से कोई संबंध है? हाँ, इसका निश्चित रूप से इससे संबंध है। लोगों के लिए अपनी सहज क्षमताओं, गुणों और बुद्धि के अनुसार थोड़ा प्रयास करना और काम करना बहुत आसान है, लेकिन सत्य के अनुसार जीना, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य करना बहुत कठिन है; इसके लिए समय, परमेश्वर के मार्गदर्शन, परमेश्वर से प्रबोधन और परमेश्वर के अनुशासन की आवश्यकता होती है और इससे भी अधिक, इसके लिए परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है। इसलिए जब लोग इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काम कर रहे होते हैं तो अधिकतर लोग जो कर सकते हैं और प्रदान कर सकते हैं, वे वही चीजें हैं जिनका अभी जिक्र किया गया है : परमेश्वर के वचनों के विषय बनना, अपने पास कुछ गुण होना और परमेश्वर के घर में कुछ उपयोगी होना, सामान्य मानवता की सोच का होना और उन्हें सौंपे गए किसी भी काम को समझना और करना, कुछ कौशल होना और परमेश्वर के घर में किसी विशेष काम में अपनी विशेष प्रतिभाओं का उपयोग करना, और सबसे महत्वपूर्ण बात, आज्ञा मानने और समर्पण करने की इच्छा रखना। जब तुम परमेश्वर के घर में सेवा प्रदान कर रहे होते हो, जब तुम परमेश्वर के कार्य की खातिर प्रयास कर रहे होते हो तो अगर तुममें आज्ञा मानने और समर्पण करने की थोड़ी-सी भी इच्छा हो, तो तुम नकारात्मक नहीं बनोगे और ढिलाई नहीं बरतोगे। बल्कि, तुम अपनी पूरी कोशिश करोगे कि आत्मसंयम का अभ्यास करो, बुरी चीजें कम-से-कम करो और अच्छी चीजें ज्यादा से ज्यादा करो। क्या अधिकतर लोग इसी दशा और स्थिति में नहीं हैं? बेशक, तुम लोगों में एक बहुत ही छोटा समूह ऐसा है जिसने पहले ही इस स्थिति और सीमा को पीछे छोड़ दिया है। और इस बहुत छोटे-से समूह ने क्या प्राप्त किया है? इन लोगों ने सत्य को समझ लिया है और सत्य वास्तविकता को हासिल कर लिया है। समस्याएँ सामने आने पर वे प्रार्थना कर सकते हैं, परमेश्वर के इरादों को खोज सकते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं। उनकी आज्ञा मानने और समर्पण करने की इच्छा अब केवल संकल्प के स्तर पर ही नहीं रुकती, बल्कि वे परमेश्वर के वचनों का सक्रिय रूप से अभ्यास कर सकते हैं, परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हैं और समस्याओं का सामना करते समय उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है। वे बिना सोचे-समझे बात या कार्य नहीं करते, बल्कि सतर्क और सावधान रहते हैं। खासकर जब उनकी काट-छाँट उनके अपने विचारों के विपरीत होती है तो वे परमेश्वर की आलोचना नहीं करते, उससे बहस नहीं करते और उनके दिलों में प्रतिरोध की कोई भावना नहीं होती। अपने दिल की गहराइयों से वे परमेश्वर की पहचान, दर्जे और सार को सच्चे मन से स्वीकार करते हैं। क्या इन लोगों और सेवाकर्ताओं के बीच कोई अंतर है? ये अंतर क्या हैं? पहला अंतर यह है कि वे सत्य को समझते हैं और दूसरा यह है कि वे कुछ सत्यों का अभ्यास कर सकते हैं। तीसरा अंतर यह है कि उनके पास परमेश्वर के बारे में कुछ ज्ञान है और चौथा यह है कि उनकी आज्ञाकारिता और समर्पण अब केवल इच्छाएँ नहीं रह गई हैं, बल्कि ये उनके व्यक्तिगत रवैये में ढल गई हैं—वे वास्तव में समर्पित हो चुके हैं। पाँचवाँ अंतर—और यह इन बिंदुओं में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे मूल्यवान है—यह है कि उनके भीतर परमेश्वर का भय मानने वाला दिल पैदा हो गया है। कहा जा सकता है कि जिनके पास ये चीजें होती हैं, उन्होंने “सेवाकर्ता” की उपाधि से पहले ही अपना पीछा छुड़ा लिया है। यह इसलिए है क्योंकि उनके प्रवेश के विभिन्न पहलुओं, सत्य के प्रति उनके रवैये और साथ ही परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान के स्तर को देखते हुए, यह अब केवल परमेश्वर के घर में एक पेशेवर काम करने जितना सरल नहीं रह गया है और वे अब अस्थायी कर्मचारी नहीं हैं जिन्हें थोड़े समय के लिए काम करने के लिए बुलाया गया हो। कहने का तात्पर्य यह है कि ये लोग अस्थायी इनाम पाने के लिए यहाँ नहीं हैं; उन्हें अस्थायी उपयोग के लिए भर्ती नहीं किया गया है और उनके उपयोग की अवधि के दौरान यह देखने के लिए नहीं रखा गया कि क्या वे इस काम को लंबे समय तक कर सकते हैं। बल्कि वे सत्य का अभ्यास करने और अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाने में सक्षम होते हैं। इसलिए इन लोगों ने “सेवाकर्ता” की उपाधि, पदवी से पीछा छुड़ा लिया है। क्या तुम लोगों ने ऐसे लोगों को देखा है? कलीसिया में ऐसे लोग हैं। तुम लोग यह जानना चाहते हो कि ये लोग कौन हैं और इनकी संख्या कितनी है, लेकिन मैं अभी यह नहीं बता पा रहा हूँ; जब तुम लोग सत्य को समझ जाओगे, तब खुद ही उनका भेद पहचान सकोगे। तुम लोगों को जो बात जाननी चाहिए वह यह है कि तुम किस तरह की परिस्थितियों में हो, तुम्हारे सामने कौन-सा मार्ग है जिसे तुम लोग अपना रहे हो और कौन-सा मार्ग है जिसे तुम्हें अपनाना चाहिए—यही बातें तुम लोगों को पता होनी चाहिए।

तो क्या “सेवाकर्ता” की उपाधि लोगों पर परमेश्वर द्वारा थोपी हुई है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग लोगों को नीचा दिखाने, उन्हें वर्गीकृत करने और श्रेणियों में बाँटने के लिए करता है? (नहीं।) तो परमेश्वर ने इस उपाधि को कैसे परिभाषित किया है? ऐसा नहीं है कि लोगों को उपाधि देकर परमेश्वर बिना सोचे-समझे ही उन्हें कोई उपनाम दे रहा है और वह इसे बाहरी स्वरूप के आधार पर परिभाषित नहीं करता है; यह उपाधि मात्र एक उपाधि नहीं है। किसी व्यक्ति का नाम सिर्फ एक पद, एक नामकरण होता है, जिसका कोई वास्तविक अर्थ नहीं होता है। उदाहरण के लिए कुछ चीनी माता-पिता आशा करते हैं कि उनकी बेटी समझदार और सुंदर होगी, इसलिए वे उसके नाम में “सुंदर” शब्द जोड़ देते हैं, लेकिन यह केवल एक आशा होती है और इसका उसके सार से कोई लेना-देना नहीं होता है। हो सकता है वह वास्तव में बहुत बेवकूफ हो और वह बड़ी होकर आकर्षक न दिखे, तो फिर उसे “सुंदर” कहने का क्या मतलब है? कुछ लड़कों के नाम में “चेंगलॉन्ग” या “चेंगहु” जोड़ दिया जाता है जिनका मतलब ड्रैगन या बाघ जैसा बनना होता है—क्या ऐसे नाम देने से वे वास्तव में बलवान बन जाते हैं? हो सकता है कि वे कायर या निकम्मे हों। ये केवल माता-पिता की अपने बच्चों के लिए उम्मीदें होती हैं; वे उन्हें ऐसे नाम देते हैं और इनका उनके सार से कोई संबंध नहीं होता है। इसलिए लोगों के नाम और उपाधियाँ उनकी कल्पनाओं और सदिच्छाओं को दर्शाती हैं, लेकिन ये केवल नामकरण और पदवियाँ होती हैं, और इन्हें उनके सार के आधार पर नहीं दिया जाता। लेकिन परमेश्वर की परिभाषित उपाधियाँ और नाम लोगों के बाहरी स्वरूप के आधार पर कतई नहीं दिए जाते और ये निश्चित रूप से परमेश्वर की अपनी इच्छाओं पर भी आधारित नहीं होते। क्या परमेश्वर चाहता है कि लोग सेवाकर्ता बनें? (नहीं।) क्या तुम लोगों ने कभी परमेश्वर के वचनों में परमेश्वर को यह कहते पढ़ा है, “मैं चाहता हूँ कि हर व्यक्ति सेवाकर्ता बने और मैं नहीं चाहता कि किसी को भी बचाया जाए”? (नहीं।) तो परमेश्वर क्या चाहता है? लोग पहले ऐसा कहा करते थे कि “परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले।” यह एक इच्छा है। लेकिन “सेवाकर्ता” की उपाधि यूँ ही नहीं आई है। यह ठीक उसी तरह था जैसे परमेश्वर ने “वृक्ष” और “घास” के नाम तय किए। वृक्ष बड़े और ऊँचे होते हैं और जब कोई किसी वृक्ष का जिक्र करता है तो सब जानते हैं कि वृक्ष बड़े और ऊँचे होते हैं और जब कोई घास का जिक्र करता है तो सब जानते हैं कि घास छोटी और बौनी होती है, है ना? (हाँ।) तो “सेवाकर्ता” की उपाधि के बारे में क्या कहेंगे? यह उपाधि मनुष्य के सार और अभिव्यक्तियों के अनुसार और परमेश्वर के कार्य के चरण के अनुसार आई है। अगर लोग परमेश्वर के कार्य के साथ धीरे-धीरे सत्य को समझने, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण और भय प्राप्त करने में सक्षम होते हैं, तो इस समय यह उपाधि बदल जाती है। इसलिए भले ही तुम सेवाकर्ताओं में से एक हो, इससे तुम्हारे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने पर कोई असर नहीं पड़ता और यह तुम्हारे परमेश्वर के प्रति समर्पण और भय पर भी कोई असर नहीं डालता।

क्या ऐसे लोग हैं जो “सेवाकर्ता” की उपाधि से कभी पीछा नहीं छुड़ाएँगे? (हाँ।) वे किस तरह के लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो सत्य को समझ तो सकते हैं लेकिन उसका अभ्यास नहीं करते, और तो और वे सत्य से प्रेम भी नहीं करते और अक्सर अपने दिल में सत्य के प्रति घृणा महसूस कर इससे विमुख रहते हैं। अगर वे सत्य से विमुख रहते हैं तो फिर वे परमेश्वर के घर में क्यों रहते हैं? वे परमेश्वर के घर में कुछ लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, कुछ प्रयास करते हैं और ख्याली पुलाव बनाते हुए कुछ अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। वे जो कीमत चुकाते हैं, खुद को झोंकते और खपाते हैं, साथ ही अपना कुछ यौवन और समय खर्चते हैं उस सबका उपयोग मनचाहे लाभ हासिल करने के बदले करते हैं। ये लोग जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं, उसके कारण अंत में वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाते, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, उनके लिए परमेश्वर का भय मानना तो और भी दूर की बात है—उन्हें हमेशा के लिए सेवाकर्ता के रूप में निरूपित किया जाएगा। परमेश्वर के घर में इस तरह के कुछ लोग अंत तक सेवा कर सकते हैं और कुछ नहीं कर सकते, और अंत तक सेवा कर सकने और न कर सकने वाले लोगों की मानवता में थोड़ा अंतर होता है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते लेकिन अंत तक सेवा कर सकते हैं—यानी जो लोग परमेश्वर की प्रबंधन योजना का कार्य जारी रहने तक परमेश्वर के घर में परमेश्वर के कार्य के लिए कुछ प्रयास कर सकते हैं—उनकी मानवता अपेक्षाकृत अच्छी और कल्याणकारी होती है। वे बुराई नहीं करते, सेवा करते समय बाधाएँ खड़ी नहीं करते और उन्हें कलीसिया से निकाला नहीं जाता। ऐसे लोग अंत तक सेवा कर सकते हैं और ये वे लोग हैं जो हमेशा सेवाकर्ता बने रहेंगे। जहाँ तक दूसरों की बात है, वे अपनी बहुत बुरी मानवता, निम्न चरित्र और सत्यनिष्ठा होने के कारण सेवा करते समय परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों में अक्सर गड़बड़ी पैदा करते हैं और विघ्न डालते हैं, और परमेश्वर के घर के बहुत से कार्यों को नुकसान पहुँचाते हैं। जब उनकी बार-बार काट-छाँट की जाती है या उन्हें अलग-थलग किया जाता है तो वे पश्चात्ताप करना नहीं जानते और बस अपनी पुरानी बुरी आदतों पर लौट जाते हैं; वे किसी भी सत्य को बिल्कुल नहीं समझते, वे सत्य को स्वीकार नहीं करते, बल्कि मनमाने तरीके से कार्य करते हैं, और ऐसे लोग हटा दिए जाते हैं। उन्हें हटाया क्यों जाता है? ऐसे लोग तो सेवा भी नहीं कर सकते। वे परमेश्वर के घर में कुछ प्रयास करते समय ठीक से काम नहीं कर पाते और जब वे प्रयास कर रहे होते हैं, तब वे बुराई भी करते हैं और इसकी कीमत परमेश्वर का घर और भाई-बहन चुकाते हैं। ऐसे लोगों का उपयोग करना घाटे का सौदा होता है। उन्हें बार-बार आत्मचिंतन करने के मौके दिए जाते हैं, लेकिन आखिरकार उनकी प्रकृति नहीं बदलती और वे किसी की कोई बात नहीं सुनते। ऐसे लोग परमेश्वर के घर में सेवा करने के लायक भी नहीं होते, न ही वे इसमें सक्षम होते हैं, इसीलिए उन्हें दूर कर दिया जाता है।

क्या तुम लोग अब “सेवाकर्ता” की इस उपाधि को आम तौर पर समझ गए हो? क्या “सेवाकर्ता” एक भेदभावपूर्ण उपाधि है जो परमेश्वर मानवजाति को देता है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का इस्तेमाल जानबूझकर लोगों को नीचा दिखाने के लिए कर रहा है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग लोगों का खुलासा और परीक्षण करने के लिए कर रहा है? क्या परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग यह दिखाने के लिए कर रहा है कि मनुष्य वास्तव में क्या हैं? क्या परमेश्वर के ये ही आशय हैं? असल में, परमेश्वर का इनमें से कोई भी आशय नहीं है। परमेश्वर का आशय लोगों का खुलासा करना, उन्हें नीचा दिखाना या उनका मजाक उड़ाना नहीं है, न ही उसका आशय “सेवाकर्ता” की इस उपाधि का उपयोग लोगों का परीक्षण करने के लिए है। “सेवाकर्ता” उपाधि से परमेश्वर का एकमात्र आशय यह है कि वह लोगों के प्रदर्शन और सार के अनुसार, परमेश्वर के कार्य के दौरान निभाई गई उनकी भूमिका के अनुसार और साथ ही वे जो कर सकते हैं और जिस चीज के साथ सहयोग करने में समर्थ हैं उसके अनुसार निरूपण करता है और इस उपाधि को गढ़ता है। इस अर्थ में देखें तो परमेश्वर के घर में हर व्यक्ति परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए सेवा कर रहा है और किसी न किसी समय वह सेवाकर्ता की भूमिका में रहा है। क्या हम यह कह सकते हैं? (हाँ।) हम वास्तव में यह कह सकते हैं और अब तुम सब इसे समझ सकते हो। परमेश्वर इस उपाधि का उपयोग लोगों को हतोत्साहित करने या उनकी आस्था परखने के लिए नहीं करना चाहता, उसका उद्देश्य उन्हें नीचा दिखाना या अधिक अनुशासित और आज्ञाकारी बनाना या उन्हें उनकी पहचान और स्थिति का एहसास कराना और भी कम है, परमेश्वर का उद्देश्य “सेवाकर्ता” की इस उपाधि का उपयोग सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के उनके अधिकार को छीनने के लिए तो और भी नहीं है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय लोग जो तमाम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और इस दौरान उनकी जो असली दशाएँ होती हैं, यह उपाधि पूरी तरह इनके अनुसार तय होती है। इसलिए इस उपाधि का संबंध परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के अंत में लोगों की पहचान, रुतबा, स्थिति और मंजिल से बिल्कुल नहीं है। यह उपाधि पूरी तरह से परमेश्वर की प्रबंधन योजना और प्रबंधन कार्य की जरूरतों से उत्पन्न होती है और यह परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में भ्रष्ट मानवता की एक वास्तविक स्थिति होती है। जहाँ तक लोगों के परमेश्वर के घर में सेवाकर्ताओं के रूप में सेवाएँ प्रदान करने और मशीनों की तरह इस्तेमाल किए जाने का सवाल है, तो यह स्थिति अंत तक बनी रहती है या परमेश्वर का अनुसरण करने के उनके सफर में सुधर सकती है, यह उनके अनुसरण पर निर्भर करता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसका भय मान सकता है, तो वह पूरी तरह से “सेवाकर्ता” की उपाधि को छोड़ देगा। और जब लोग “सेवाकर्ता” की उपाधि को छोड़ देते हैं तो वे क्या बन जाते हैं? वे परमेश्वर के सच्चे अनुयायी, परमेश्वर के लोग और राज्य के लोग बन जाते हैं, यानी वे परमेश्वर के राज्य के लोग बन जाते हैं। अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हुए बस प्रयास करने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने तक सीमित रहते हो, तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या सत्य को अभ्यास में नहीं लाते, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव में कतई कोई बदलाव नहीं आता, तुम कभी भी परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते और अंततः तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाते और उसका भय नहीं मान पाते हो तो “सेवाकर्ता” की यह उपाधि, यह “मुकुट” तुम्हारे सिर पर पूर्णतया बिल्कुल ठीक बैठेगा और तुम कभी भी इसे हिला नहीं पाओगे। अगर तुम परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक अभी भी इसी अवस्था में हो और तुम्हारे स्वभावों में कोई बदलाव नहीं आया है तो “परमेश्वर के राज्य के लोग” की उपाधि का तुमसे कोई संबंध नहीं होगा और तुम हमेशा-हमेशा के लिए एक सेवाकर्ता ही रहोगे। तुम इन वचनों को कैसे समझ सकते हो? तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जैसे ही परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा यानी जब परमेश्वर जिन लोगों को बचाना चाहता है वे सब बचाए जा चुके होंगे, जब परमेश्वर का वह कार्य जो वह करना चाहता है पूरी तरह अपना प्रभाव प्राप्त कर लेगा और इसके लक्ष्य पूरे हो जाएँगे, तब परमेश्वर और नहीं बोलेगा या लोगों का मार्गदर्शन नहीं करेगा, वह मनुष्य पर उद्धार का कोई कार्य और आगे नहीं करेगा, उसका कार्य वहीं का वहीं समाप्त हो जाएगा और साथ ही परमेश्वर में आस्था का वह मार्ग भी समाप्त हो जाएगा जिस पर प्रत्येक व्यक्ति चलता है। बाइबल में यह आयत है : “जो अन्याय करता है, वह अन्याय ही करता रहे; और जो मलिन है, वह मलिन बना रहे; और जो धर्मी है, वह धर्मी बना रहे; और जो पवित्र है; वह पवित्र बना रहे” (प्रकाशितवाक्य 22:11)। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जैसे ही परमेश्वर कहता है कि उसका कार्य समाप्त हो गया है, तो यह दर्शाता है कि परमेश्वर मनुष्य को बचाने और मनुष्य को ताड़ना देने और न्याय करने के अपने कार्य को अब और नहीं करेगा, परमेश्वर मनुष्य का और प्रबोधन या मार्गदर्शन नहीं करेगा और वह अब इंसान से श्रमसाध्य रूप से वचन नहीं बोलेगा और उन्हें गंभीरता से प्रोत्साहित नहीं करेगा या उनकी काट-छाँट नहीं करेगा—परमेश्वर आगे अब यह कार्य नहीं करेगा। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि तब सभी चीजों के परिणाम प्रकट हो जाएँगे, लोगों के परिणाम तय हो जाएँगे और कोई भी इसे बदल नहीं सकेगा और लोगों के पास बचाए जाने के और कोई अवसर नहीं होंगे। इसका यही मतलब है।

जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के कार्य के अंत में “सेवाकर्ता” की उपाधि से पीछा छुड़ा लेता है, जब वह इस नामकरण, इस स्थिति को छोड़ देता है तो यह दर्शाता है कि यह व्यक्ति परमेश्वर की नजरों में अब बाहरी या अविश्वासी नहीं रहा, बल्कि परमेश्वर के घर और परमेश्वर के राज्य का व्यक्ति है। और “परमेश्वर के घर और परमेश्वर के राज्य के व्यक्ति” की यह उपाधि कैसे मिली? लोग यह उपाधि कैसे हासिल करते हैं? तुम सत्य का अनुसरण कर, सत्य को समझकर, कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर और इस प्रकार अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर, स्वभाव में बदलाव का एक निश्चित स्तर हासिल कर और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसका भय मानने में सक्षम होकर परमेश्वर के घर के व्यक्ति बन जाते हो। अय्यूब और पतरस की तरह तुम्हें अब और शैतान के हाथों हानि नहीं सहनी होगी और भ्रष्ट नहीं होना पड़ेगा, तुम परमेश्वर के राज्य और परमेश्वर के घर में स्वतंत्र रूप से जी सकते हो, तुम्हें अब अपने भ्रष्ट स्वभाव से जूझने की जरूरत नहीं है और परमेश्वर की नजरों में तुम एक सच्चे सृजित प्राणी, एक सच्चे मानव हो। क्या यह खुशी मनाने योग्य बात नहीं है? इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि शैतान के हाथों भ्रष्ट किए गए व्यक्ति का कष्ट और कठिनाइयों से भरा जीवन पूरी तरह समाप्त हो गया है और वह सुख, शांति और खुशी का जीवन जीने लगता है। वह सृष्टिकर्ता के चेहरे की रोशनी में रह सकता है, परमेश्वर के साथ मिलकर जी सकता है और यह खुशी मनाने योग्य बात है। लेकिन अंत तक “सेवाकर्ता” की उपाधि त्यागने में सफल न होने वाले दूसरे प्रकार के लोगों ने अगर परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर भी इस उपाधि, इस “मुकुट” को अपने सिर से नहीं उतारा है, तो उनके लिए इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि वे बाहरी लोग बने रहते हैं और परमेश्वर की नजरों में वे अभी भी अविश्वासी हैं। इसका कारण यह है कि वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार या इसका अभ्यास नहीं करते, उन्होंने अपना स्वभाव नहीं बदला है, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम नहीं हैं और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं है। इन लोगों को परमेश्वर के घर से हटा दिया जाना चाहिए और उनके लिए परमेश्वर के राज्य में कोई स्थान नहीं है। अगर परमेश्वर के राज्य में उनके लिए कोई जगह नहीं है तो वे कहाँ हैं? वे परमेश्वर के राज्य के बाहर हैं और वे परमेश्वर के लोगों से अलग किया गया एक समूह हैं। ऐसे लोगों को अभी भी “सेवाकर्ता” ही कहा जाता है और यह दर्शाता है कि वे परमेश्वर के घर के लोग नहीं बने हैं, वे कभी भी परमेश्वर के अनुयायी नहीं बनेंगे, परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता और वे कभी भी परमेश्वर से आशीष या अनुग्रह प्राप्त नहीं करेंगे। बेशक, इसका मतलब यह भी है कि उनके पास परमेश्वर के राज्य में उसके साथ अच्छे आशीष का आनंद लेने या शांति और खुशी प्राप्त करने का कोई मौका नहीं है—यह मौका हाथ से चला गया है। तो क्या यह उनके लिए खुशी मनाने लायक क्षण है या फिर यह एक दुखद घटना है? यह एक दुखद घटना है। और जब यह बात आती है कि परमेश्वर के घर और परमेश्वर के राज्य के बाहर “सेवाकर्ता” की उपाधि धारण करने के लिए उन्हें क्या इनाम मिलेगा, तो यह बाद की बात है। किसी भी स्थिति में सेवाकर्ताओं को दिए गए इनाम और परमेश्वर के राज्य के लोगों को दिए गए इनाम में बहुत बड़ा अंतर है; इसमें स्थिति, इनाम और अन्य पहलुओं में अंतर होते हैं। क्या यह दयनीय नहीं है कि ऐसे लोगों ने सत्य हासिल नहीं किया और वे लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य करने के दौरान अपना स्वभाव नहीं बदल सके? यह बहुत ही दयनीय है! ये कुछ शब्द “सेवाकर्ता” की उपाधि के संबंध में हैं।

कुछ लोग कहते हैं, “सेवाकर्ताओं का जिक्र होने पर मेरे अंदर प्रतिरोध की भावना आ जाती है। मैं सेवाकर्ता नहीं होना चाहता और मुझे ऐसा होने में खुशी नहीं होती। अगर मैं परमेश्वर के लोगों में से एक हूँ तो उनमें सबसे तुच्छ होना भी मुझे कबूल है और जब तक मैं सेवाकर्ता नहीं हूँ, मुझे कोई समस्या नहीं है। मेरे पास इस जीवन में कोई अन्य अनुसरण नहीं है और मैं कोई दूसरी आकांक्षा नहीं रखता; मैं बस ‘सेवाकर्ता’ की उपाधि से पिंड छुड़ाना चाहता हूँ। मैं कुछ ज्यादा तो नहीं माँग रहा हूँ।” ऐसे लोगों के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह सत्य के अनुसरण में लगे किसी व्यक्ति का रवैया है? (नहीं।) तो फिर यह किस प्रकार का रवैया है? क्या यह एक नकारात्मक रवैया नहीं है? (हाँ, है।) जब “सेवाकर्ता” की उपाधि की बात आए तो तुम्हें इसे छोड़ने के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह उपाधि तुम्हें अपने जीवन में की गई प्रगति के स्तर के आधार पर दी जाती है और इसे तुम्हारी इच्छा से तय नहीं किया जा सकता। यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कौन-से मार्ग का अनुसरण करते हो और क्या तुम्हारे स्वभावों में परिवर्तन हुआ है या नहीं हुआ। अगर तुम्हारा लक्ष्य केवल “सेवाकर्ता” की इस उपाधि से पीछा छुड़ाने का है, तो मैं तुम्हें सच्चाई बताता हूँ : तुम जीते जी इस उपाधि से कभी पीछा नहीं छुड़ा सकोगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करते हो और अपना स्वभाव बदल सकते हो तो यह उपाधि धीरे-धीरे बदल जाएगी। इन दोनों बिंदुओं के आधार पर देखकर क्या ऐसा लगता है कि “सेवाकर्ता” की उपाधि परमेश्वर ने लोगों पर थोपी है? बिल्कुल भी नहीं! यह लोगों पर परमेश्वर की थोपी हुई उपाधि नहीं है, न ही यह एक पदवी है—यह एक ऐसी उपाधि है जो लोगों के जीवन में की गई प्रगति के स्तर के आधार पर दी जाती है। तुम जीवन में जितनी प्रगति करते हो और जितना तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन होता है, तुम उतने ही कम सेवाकर्ता होते हो। जिस दिन तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण और भय प्राप्त कर लेते हो, तब भले ही तुम सेवाकर्ता बनने के इच्छुक हो, फिर भी तुम सेवाकर्ता नहीं रहोगे और यह तुम्हारे अनुसरण, सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये और तुम्हारे अनुसरण के मार्ग से तय होता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं, “मैं ‘सेवाकर्ता’ की इस उपाधि से पीछा छुड़ाना चाहता हूँ और मैं सेवाकर्ता नहीं रहना चाहता, लेकिन मैं सत्य को नहीं समझता और सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं हूँ। तो मैं क्या कर सकता हूँ?” क्या कोई समाधान है? परमेश्वर सभी प्रकार के लोगों के परिणाम अपने वचनों और सत्य के आधार पर तय करता है—इसमें समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है। अगर तुम सत्य से प्रेम करते हो और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकते हो, तो यह खुश होने की बात है; लेकिन अगर तुम सत्य से विमुख हो और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने का चयन नहीं करते, तो यह दुख का कारण है। केवल यही दो मार्ग हैं—चुनने के लिए बीच का कोई रास्ता नहीं है। परमेश्वर के वचन कभी समाप्त नहीं होंगे; भले ही सभी चीजें समाप्त हो जाएँ, लेकिन परमेश्वर का एक भी वचन समाप्त नहीं होगा। परमेश्वर के वचन सभी चीजों के बारे में आलोचना करने और फैसला सुनाने का मानदंड हैं; परमेश्वर के वचन सत्य हैं और कभी समाप्त नहीं हो सकते। जब यह संसार, मानवजाति और सभी चीजें बदल जाएँगी और समाप्त हो जाएँगी, तब भी परमेश्वर का एक भी वचन समाप्त नहीं होगा, बल्कि उसके सभी वचन पूरे होंगे। मानवजाति और सभी चीजों के परिणाम परमेश्वर के वचनों के कारण निर्धारित और प्रकट होते हैं—कोई भी इसे बदल नहीं सकता और इस मामले पर कोई बहस नहीं हो सकती। इसलिए जब परमेश्वर द्वारा लोगों के परिणामों पर संप्रभुता रखने और उन्हें निर्धारित करने की बात आती है, तब अगर लोग ख्याली पुलाव पकाने में डूबे रहेंगे तो वे निपट मूर्ख हैं। इस मामले में उनके लिए दूसरा रास्ता चुनने का कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने लोगों को दूसरा रास्ता नहीं दिया है। यह परमेश्वर का स्वभाव है, यह परमेश्वर की धार्मिकता है और लोग चाहकर भी इस मामले में दखलंदाजी नहीं कर सकते। तुम्हें लगता है कि तुम अविश्वासी दुनिया में हो जहाँ लोग मामले सुलझाने के लिए कुछ पैसे खर्च कर सकते हैं और अपनी जान-पहचान का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन यह तरीका परमेश्वर के साथ काम नहीं करता। याद रखो : परमेश्वर के मामले में इससे तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा!

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