मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग सात) खंड तीन

अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों के मुख्य इरादों और रवैयों में से एक है परमेश्वर के साथ लेन-देन करने और अपने इच्छित लाभ प्राप्त करने के अवसर के रूप में इसका इस्तेमाल करना। वे यह भी मानते हैं : “जब लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवारों और अपनी सांसारिक संभावनाओं को त्याग देते हैं तो यह कहने की जरूरत नहीं है कि बदले में उन्हें कुछ हासिल होना चाहिए, कुछ प्राप्त करना चाहिए, केवल यही उचित और न्यायसंगत है। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के बदले में कुछ भी प्राप्त नहीं करते हो तो भले ही तुम्हें कुछ सत्य प्राप्त हो जाएँ, इसकी कोई अहमियत नहीं है। स्वभाव में बदलाव भी ऐसा मूर्त लाभ नहीं है—भले ही तुम्हें उद्धार प्राप्त हो गया हो, कोई भी इसे नहीं देख पाएगा!” ये छद्म-विश्वासी मानवजाति के लिए परमेश्वर की किसी भी अपेक्षा को अनदेखा कर देते हैं। वे इसे नहीं स्वीकारते या इस पर विश्वास नहीं करते हैं और वे नकारने का रवैया अपनाते हैं। अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैयों और इरादों को देखा जाए तो वे साफ तौर पर सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि वे छद्म-विश्वासी और अवसरवादी हैं; वे शैतान के हैं। क्या तुम लोगों ने सुना है कि शैतान निष्ठापूर्वक कोई कर्तव्य निभा सकता है? (नहीं।) अगर शैतान परमेश्वर के सामने अपना “कर्तव्य” निभा सकता है तो यह कर्तव्य उद्धरण चिह्नों में लिखा जाना चाहिए, क्योंकि शैतान इसे निष्क्रिय रूप से और मजबूरी में कर रहा है, परमेश्वर चतुराई से शैतान का प्रबंधन कर रहा है और परमेश्वर उसका लाभ उठा रहा है। इसलिए, अपने मसीह-विरोधी सार के कारण और क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सत्य से विमुख हैं, इससे भी अधिक, अपनी दुष्ट प्रकृति के कारण मसीह-विरोधी सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को बिना शर्त या बिना प्रतिफल के नहीं निभा सकते, ना ही वे अपने कर्तव्यों को निभाते हुए सत्य का अनुसरण कर सकते हैं या सत्य प्राप्त कर सकते हैं या परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार काम कर सकते हैं। अपनी इस प्रकृति के कारण, मसीह-विरोधियों का अपने कर्तव्यों के प्रति रवैया और अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, अपने कर्तव्यों के प्रति उनका व्यवहार, ये सभी उपेक्षापूर्ण हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान वे बुराई कर सकते हैं और किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी करने और बाधा डालने का काम कर सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान उनकी मुख्य और प्रमुख अभिव्यक्ति क्या है? यह स्वेच्छा से और मनमाने ढंग से काम करना, खुद ही कानून बन जाना है और दूसरों से परामर्श किए बिना काम करना है। वे परिणामों पर विचार किए बिना अपनी मर्जी से काम करते हैं। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि वे कैसे आगे बढ़ सकते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हुए अधिक लोगों को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं। वे केवल परमेश्वर को यह दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने अपने कर्तव्यों को निभाने में कठिनाई झेली है और कीमत चुकाई है, उनके पास पूँजी है और वे परमेश्वर से इनाम और मुकुट माँगने के हकदार हैं, ताकि वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी कर सकें और आशीष पाने के अपने लक्ष्य को हासिल कर सकें।

अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान, मसीह-विरोधी लगातार अपनी संभावनाओं और भाग्य का हिसाब लगाते रहते हैं : वे कितने वर्षों से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, उन्होंने कितनी कठिनाइयाँ झेली हैं, परमेश्वर के लिए कितना त्याग किया है, कितनी कीमत चुकाई है, अपनी कितनी ऊर्जा खर्च की है, अपनी जवानी के कितने वर्ष त्याग दिए हैं और क्या अब उनके पास इनाम और मुकुट पाने का अधिकार है; क्या उन्होंने अपने कर्तव्य निभाते हुए इन कुछ वर्षों में पर्याप्त पूँजी जमा की है, क्या वे परमेश्वर की नजरों में उसके कृपापात्र हैं और क्या वे ऐसे व्यक्ति हैं जो परमेश्वर की नजरों में इनाम और मुकुट पा सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान वे लगातार इस तरह से आकलन करते रहते हैं, हिसाब लगाते रहते हैं और योजना बनाते रहते हैं, साथ ही, दूसरों के शब्दों और अभिव्यक्तियों पर ध्यान देते हैं और उनके बारे में भाई-बहनों के आकलनों और वक्तव्यों पर ध्यान देते हैं। बेशक, वे सबसे अधिक इस बात से चिंतित हैं कि क्या ऊपरवाला जानता है कि उनका अस्तित्व है और वे अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं। वे इस बात से और भी अधिक चिंतित हैं कि ऊपरवाला उन्हें कैसे देखता है, उनके बारे में कैसे बात करता है और कैसे उनका मूल्यांकन करता है, क्या ऊपरवाला कष्ट झेलने और कीमत चुकाने के उनके “श्रमसाध्य इरादों” को समझता है, क्या ऊपरवाला साफ तौर पर जानता है कि परमेश्वर का अनुसरण करने के वर्षों में उन्होंने कितनी पीड़ा सही है और कितने कष्ट झेले हैं और स्वर्ग में परमेश्वर उनके हर एक काम का कैसे आकलन करता है। अपने कर्तव्य करने में व्यस्त रहने के साथ-साथ उनका दिमाग लगातार हिसाब भी लगा रहा होता है और वे कई स्रोतों से जानकारी प्राप्त करने और यह परखने की कोशिश करते हैं कि क्या वे आपदाओं से बच सकते हैं, परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं और उस अज्ञात मुकुट और आशीषों को प्राप्त कर सकते हैं। ये वे चीजें हैं जिनका वे अक्सर अपने दिलों की गहराई में हिसाब लगाते रहते हैं, यही वे सबसे प्राथमिक और मुख्य चीजें हैं जिनका वे हर दिन, हर पल हिसाब लगाते हैं। हालाँकि, वे कभी भी इस बात पर विचार या चिंतन करने की कोशिश नहीं करते कि क्या वे स्वयं सत्य का अभ्यास करने वाले लोग हैं; वे कितना सत्य समझते हैं; वे जो सत्य समझते हैं उसमें से कितना वे वास्तव में अभ्यास कर सकते हैं; क्या उनके स्वभाव में कोई वास्तविक बदलाव आया है; परमेश्वर के लिए वे जो कुछ भी करते हैं उनमें थोड़ी-सी भी ईमानदारी है, या उनमें कोई मिलावट, लेन-देन या अनुरोध शामिल है; अपने कर्तव्यों को निभाने में उन्होंने कितनी भ्रष्टता प्रकट की है; वे प्रतिदिन जो भी कर्तव्य और कार्य करते हैं, क्या वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है; और क्या उनके कर्तव्यों का निर्वहन मानक के अनुरूप है और क्या वह परमेश्वर के इरादों को पूरा करता है। वे इन बातों पर कभी विचार नहीं करते या चिंतन-मनन करने की कोशिश नहीं करते। वे केवल यह हिसाब लगाते हैं कि क्या वे भविष्य में आशीष प्राप्त कर सकते हैं और उनकी मंजिल क्या है। वे केवल अपने हितों और अपने नफे-नुकसानों का ही हिसाब लगाते हैं, लेकिन कभी भी सत्य पर, स्वभाव में बदलाव पर या परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के तरीके पर कोई ऊर्जा खर्च नहीं करते या कोई प्रयास नहीं करते। मसीह-विरोधी कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव या अपने चुने गए गलत रास्तों पर विचार करने, उनके बारे में जानने या उनका गहन-विश्लेषण करने का अभ्यास नहीं करते और कभी भी यह विचार नहीं करते कि अपने गलत परिप्रेक्ष्य को कैसे बदला जाए। वे कभी भी इस बात से घृणा नहीं करेंगे कि उन्होंने सत्य का उल्लंघन किया है और परमेश्वर का विरोध करने के लिए कई बुरे काम किए हैं, वे कभी भी खुद से घृणा नहीं करेंगे क्योंकि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं और कभी भी अपने चुने गए गलत रास्तों के लिए या गड़बड़ी करने और बाधा डालने वाले कामों के लिए पछतावा महसूस नहीं करेंगे। अपने कर्तव्य करने के दौरान, हर कीमत पर अपनी कमियाँ, कमजोरियाँ, नकारात्मकता, निष्क्रियता और भ्रष्ट स्वभाव छिपाने के साथ-साथ, वे खुद को प्रदर्शित करने की भरसक कोशिश करते हैं ताकि वे आगे निकल सकें; वे परमेश्वर और उसके चुने हुए लोगों को अपनी प्रतिभा, खूबियाँ और योग्यताएँ दिखाने के हर संभव तरीके के बारे में सोचते हैं। वे इसका इस्तेमाल खुद को सांत्वना देने और यह सोचने के लिए करते हैं कि उनके पास मुकुट और इनाम पाने के लिए पूँजी और आश्वासन है और उन्हें सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने की जरूरत नहीं है। इसलिए, मसीह-विरोधियों का तर्क गलत है। चाहे सत्य पर कैसी भी संगति की जाए और चाहे वह कितनी भी स्पष्ट रूप से की जाए, वे अभी भी परमेश्वर के इरादे नहीं समझते या यह नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या उद्देश्य है और वह सही मार्ग कौन-सा है जो लोगों को अपनाना चाहिए। अपने दुष्ट स्वभाव के कारण, अपनी दुष्ट प्रकृति के कारण और ऐसे लोगों के प्रकृति सार के कारण, वे गहराई से यह अंतर नहीं कर पाते हैं कि सत्य क्या है और सकारात्मक चीजें क्या हैं, सही क्या है और गलत क्या है। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं पर दृढ़ता से अड़े रहते हैं, उन्हें सत्य मानते हैं, जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं और सबसे सही उपक्रम मानते हैं। वे यह सत्य नहीं जानते कि अगर किसी व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदलता है तो वह हमेशा परमेश्वर का शत्रु बना रहेगा; वे नहीं जानते कि परमेश्वर किसी व्यक्ति को क्या आशीष देता है और वह किसी व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है यह उसकी काबिलियत, खूबियों, प्रतिभाओं या पूँजी पर आधारित नहीं है, बल्कि इस बात पर आधारित है कि वह कितने सत्यों का अभ्यास करता है और कितना सत्य प्राप्त करता है; क्या वह परमेश्वर का भय मानने वाला और बुराई से दूर रहने वाला व्यक्ति है। ये ऐसे सत्य हैं जिन्हें मसीह-विरोधी कभी नहीं समझ पाएँगे। मसीह-विरोधी इसे कभी नहीं देख पाएँगे और यहीं पर वे सबसे बड़े मूर्ख हैं। शुरू से अंत तक, अपने कर्तव्य के प्रति मसीह-विरोधियों का क्या रवैया रहता है? वे मानते हैं कि अपना कर्तव्य निभाना एक लेन-देन है, जो कोई भी अपने कर्तव्य में खुद को सबसे अधिक खपाता है, परमेश्वर के घर में सबसे बड़ा योगदान देता है और परमेश्वर के घर में सबसे अधिक वर्षों तक कष्ट सहता है, उसके पास अंत में आशीष और मुकुट प्राप्त करने की अधिक संभावना होगी। यही मसीह-विरोधियों का तर्क है। क्या यह तर्क सही है? (नहीं।) क्या इस तरह के परिप्रेक्ष्य को पलटना आसान है? इसे पलटना आसान नहीं है। यह मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से तय होता है। अपने दिलों में मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे सत्य की खोज बिल्कुल नहीं करते और गलत रास्ता अपना लेते हैं, इसलिए परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के उनके परिप्रेक्ष्य को पलटना आसान नहीं है। आखिरकार, मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, वे छद्म-विश्वासी हैं, वे यहाँ बस अटकलें लगाने और आशीष प्राप्त करने के लिए आए हैं। छद्म-विश्वासियों के लिए परमेश्वर में विश्वास करना ही अपने आप में असमर्थनीय है, एक बेतुकी चीज है और वे परमेश्वर के साथ लेन-देन करना चाहते हैं, परमेश्वर के लिए कष्ट सहकर और कीमत चुकाकर आशीष प्राप्त करना चाहते हैं यह और भी अधिक बेतुकी चीज है।

मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष और मुकुट पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उन्होंने यह रास्ता इसलिए नहीं चुना क्योंकि किसी ने उन्हें मजबूर किया, ना ही इसलिए कि परमेश्वर के वचनों ने उन्हें किसी तरह से गुमराह किया। परमेश्वर ने मानवजाति को वादे दिए, लेकिन वादे देने के साथ-साथ उसने उन्हें बहुत सारे सत्य भी दिए और उनसे बहुत सारी अपेक्षाएँ भी रखीं, जिन्हें सामान्य लोगों को देखने में सक्षम होना चाहिए। सामान्य मानवता का विवेक रखने वाले लोग क्या सोचते हैं? “इन आशीषों को प्राप्त करना आसान नहीं है, इसलिए मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करना चाहिए और सही मार्ग पर चलना चाहिए; मुझे पौलुस के मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। अगर लोग पौलुस के मार्ग पर चलते हैं तो उनका काम तमाम है। जब लोग परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करते हैं, उन्हें स्वीकारते हैं और उनके प्रति समर्पण करते हैं, केवल तभी परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी वादों, आशीषों, संभावनाओं और भाग्य का उनसे कोई लेना-देना होगा। अगर वे परमेश्वर के इन वचनों पर विश्वास नहीं करते हैं, इन्हें स्वीकार नहीं करते हैं और इनके प्रति समर्पण नहीं करते हैं तो परमेश्वर द्वारा बोले गए इन सभी वादों और आशीषों का उनसे कोई लेना-देना नहीं होगा।” सामान्य मानवता का विवेक रखने वाले लोग ऐसा ही सोचेंगे। लेकिन मसीह-विरोधी ऐसा क्यों नहीं सोचते? मसीह-विरोधी शैतान हैं, वे राक्षस हैं, और उनके पास सामान्य मानवता का विवेक नहीं है—यह पहला कारण है। दूसरा, मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे परमेश्वर के मुख से बोले गए प्रत्येक वचन पर विश्वास नहीं करते और सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं। क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो सत्य स्वीकार नहीं करता और सकारात्मक चीजों से विमुख है, सत्य के अनुसार और सकारात्मक चीजों के अनुसार अभ्यास कर सकता है? (नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकता।) यह भेड़िये को भेड़ की तरह घास खिलाने जैसा है—वे बुनियादी तौर पर ऐसा नहीं कर सकते। जब मांस उपलब्ध नहीं होता है और वे भूख से मरने वाले होते हैं तो उन्हें थोड़ी घास खाने के लिए मजबूर किया जा सकता है, लेकिन जब खाने के लिए मांस उपलब्ध होता है तो उनकी पहली पसंद निश्चित रूप से मांस खाना ही है; यह भेड़िये की प्रकृति से तय होता है। मसीह-विरोधियों की प्रकृति ऐसी ही होती है। उनके हित उन्हें कुछ अच्छे व्यवहार दिखाने, एक निश्चित कीमत चुकाने और कुछ अच्छी अभिव्यक्तियाँ दिखाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन वे इन लाभों के पीछे भागना और इनकी इच्छा रखना कभी नहीं छोड़ सकते। उदाहरण के लिए, अपने कर्तव्य को करने के दौरान वे निजी हितों के पीछे भागते हैं और सोचते हैं कि अपने कर्तव्य निर्वहन को कैसे पूँजी में बदला जाए ताकि इससे अपने लिए आशीष प्राप्त कर सकें। एक बार जब यह उम्मीद टूट जाती है और जब यह रक्षा पंक्ति ध्वस्त हो जाती है तो वे किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में अपना कर्तव्य छोड़ सकते हैं। जब वह समय आएगा और तुम उनसे कहोगे कि अपना कर्तव्य निभाना कितना अच्छा, बिल्कुल कुदरती और उचित है, क्या वे तब भी सुनेंगे? (नहीं, वे नहीं सुनेंगे।) जब कोई मसीह-विरोधी हार मानकर चले जाने का फैसला करता है तो लोग उसे मनाने की कोशिश करते हैं : “तुम्हें रुक जाना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाना बहुत अच्छा है और दुनिया में वापस जाना बहुत कठिन है। तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा, तुम पर धौंस जमाई जाएगी और तुम थक जाओगे, तुम्हें सत्य हासिल नहीं होगा और तुम्हारे पास बचाए जाने का कोई अवसर नहीं होगा।” लोग यह सोच सकते हैं कि उसे सलाह देना ठीक है, लेकिन वह न केवल नहीं रुकेगा, बल्कि शर्मिंदगी में रोएगा भी। वह क्यों रोएगा? (उसे लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है।) यह सच है। और उसके साथ अन्याय कैसे हुआ? (उसे लगता है कि उसके हिसाब से उसके साथ अन्याय हुआ है क्योंकि उसने बहुत कष्ट झेले हैं और बहुत बड़ी कीमत चुकाई है लेकिन उसे वह नहीं मिला जो वह पाना चाहता था।) उसे लगता है कि उसे कुछ भी नहीं मिला है और वह शिकायतों से भरा होता है। परमेश्वर इतना महान कार्य करता है लेकिन इससे वह कभी भी प्रेरित नहीं हुआ, ना ही उसने इसके लिए कभी आँसू बहाए, लेकिन जब दूसरे उसे मनाने की कोशिश करते हैं, वह रोने लगता है। अगर उसे लगा कि उसके साथ अन्याय हुआ है तो उसने ऐसा क्यों नहीं कहा? क्या इसे स्पष्ट रूप से कहने से चीजें ठीक नहीं हो जातीं? वह किस बात के लिए रो रहा है? सीधे-सीधे क्यों नहीं बोलता? क्योंकि उसके विचार इतने अकथनीय हैं कि उसे भी उनके बारे में बात करने में शर्म आती है। शुरू में, उसने परमेश्वर के सामने ऐसी शपथ ली थी जिसने स्वर्ग और पृथ्वी को हिला दिया था और अब क्या हुआ? “मुझे अपनी करनी पर पछतावा है; मैं इतना मूर्ख कैसे हो सकता हूँ? अगर मुझे पता होता कि बात यहाँ तक पहुँच जाएगी तो मैंने अतीत में जैसा व्यवहार किया वैसा व्यवहार नहीं करता! तब मुझे कुछ भी समझ नहीं आया था। उन्होंने कहा कि परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है, इसलिए मैंने उस पर विश्वास किया। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैंने अपने परिवार और अपनी नौकरी तक को त्याग दिया। मैंने बहुत सहा, मुझ पर अत्याचार किया गया और मुझे गिरफ्तार किया गया, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अपने कर्तव्य को निभाने से मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ।” उसे लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है और वह दुखी होता है, और उसने जो कुछ भी किया है उस पर उसे पछतावा होता है। उसे लगता है कि यह इसके योग्य नहीं था और वह सोचता है कि उसे धोखा दिया गया है और उसकी आँखों में धूल झोंकी गई है। तुम लोग क्या कहोगे कि इस तरह के व्यक्ति के बारे में क्या किया जाना चाहिए? (उसे जल्द से जल्द छोड़कर चले जाने को मजबूर करना चाहिए।) क्या तुम अभी भी उसे मनाने की कोशिश करोगे? (नहीं।) अगर तुम उसे मनाने की कोशिश करते रहोगे तो वह बौखलाहट का प्रदर्शन करते हुए फर्श पर लोटने लगेगा। तुम्हें ऐसे लोगों को मनाने की कोशिश बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए।

परमेश्वर का घर कनान की उत्तम भूमि है। यह एक निर्मल भूमि है। लोग परमेश्वर के घर आते हैं और परमेश्वर से आने वाले वचनों के न्याय और काट-छाँट को ग्रहण करते हैं और वे उसका पोषण, सहायता, मार्गदर्शन और आशीष प्राप्त करते हैं। परमेश्वर निजी तौर पर कार्य और चरवाही करता है, भले ही लोगों को थोड़ी कीमत चुकानी पड़े और कुछ कष्ट सहना पड़े, लेकिन यह सार्थक होता है। इस बुरी दुनिया से खुद को मुक्त करने, अपने स्वभाव बदलने और बचाए जाने के लिए लोग जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक है। लेकिन मसीह-विरोधियों के लिए, अगर यह आशीष या इनाम प्राप्त करने के लिए नहीं है, अगर मुकुट और इनाम का अस्तित्व नहीं है, तो ये सभी चीजें करने का कोई अर्थ नहीं है—ये सभी मूर्खतापूर्ण क्रियाकलाप हैं, और ये आँखों में धूल झोंकने की अभिव्यक्तियाँ हैं। चाहे उन्होंने पहले कितना भी बड़ा संकल्प या कितनी भी उदात्त शपथ ली हो, यह सब ऐसे ही छोड़ दिया जा सकता है और इसकी कोई गिनती नहीं होगी। अगर वे इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हुए कष्ट झेलते हैं और कीमत चुकाते हैं और अंत में उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता है तो उनके लिए इस “मुसीबत भरी जगह” से जल्द से जल्द भाग जाना ही बेहतर होगा। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के लिए खुद को खपाने, कष्ट सहने और अपना कर्तव्य निभाते हुए कीमत चुकाने को ऐसी चीजें मानते हैं, जिन्हें करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है और वे इन चीजों को पूँजी प्राप्त करने के लिए, मुकुट और इनाम के बदले में सौदेबाजी करने का साधन मानते हैं। यह शुरुआती बिंदु ही अपने आप में गलत है तो अंतिम नतीजा क्या होगा? कुछ लोगों के लिए, उनका कर्तव्य निर्वहन धीरे-धीरे छूट जाता है और वे अंत तक मेहनत नहीं कर सकते। साथ ही, अपने प्रकृति सार के कारण, ऐसे लोग अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान लगातार सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, लापरवाह और मनमाने ढंग से काम करते हैं और केवल गड़बड़ी और बाधा पैदा करने वाले काम करते हैं। तो, उनके द्वारा किए गए कर्तव्य क्या बन जाते हैं? परमेश्वर की नजर में, वे अच्छे कर्म नहीं बल्कि बुरे कर्म हैं और बुरे कर्मों का ढेर हैं। ऐसे नतीजों का एक मूल कारण होता है। क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो सत्य या परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करता उसके वचनों के अनुसार कार्य कर सकता है? वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं कर सकता। वह केवल खुद का दिखावा करने, सत्ता हथियाने, दूसरों को नियंत्रित करने, दूसरों के व्यवहार और विचारों को नियंत्रित करने और यहाँ तक कि लोगों से जुड़ी सभी चीजों को अपने उद्देश्यों के लिए नियंत्रित करने का हर अवसर खोजेगा। इसलिए, इनमें से कुछ लोगों को जो कई बुरे काम करते हैं निष्कासित कर दिया जाता है और कुछ लोग जो अपेक्षाकृत विश्वासघाती होते हैं और खुद को छिपाने में माहिर होते हैं अभी भी परमेश्वर के घर में रहते हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है कि ये लोग परमेश्वर के घर में रहते हैं? इन लोगों ने साफ तौर पर कोई बुरे कर्म नहीं किए हैं और उनमें से कुछ तो अपनी जगह भी जानते हैं, वे अच्छे व्यवहार करने वाले और आज्ञाकारी होते हैं, उनसे जो भी कहा जाता है वे करते हैं, लेकिन जहाँ तक उनके सार का सवाल है, वे अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा नहीं कर पाते हैं। वे परमेश्वर के लिए खुद को नहीं खपाते, इसके बजाय आधे-अधूरे मन से काम करते हैं और समय बर्बाद करते हैं, यह मानते हुए कि अगर वे अंत तक कष्ट सहते रहे तो उनकी जीत होगी और वे कुछ हासिल करेंगे। वे किस तरह के लोग हैं? वे अवसरवादी लोग हैं, जो मूल रूप से सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। कुछ लोगों ने परमेश्वर के घर में कुछ बुरा किया है, लेकिन परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों के अनुसार, वे निकाले जाने या निष्कासित किए जाने के स्तर तक नहीं पहुँचे हैं और वे अभी भी अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं। दरअसल, वे अपने अंतरमन में जानते हैं कि परमेश्वर के घर ने उन्हें नहीं निकाला है या निष्कासित नहीं किया है, इसका कारण यह नहीं है कि उसे उनके बारे में सही जानकारी नहीं है या वह उनकी वास्तविक स्थितियाँ नहीं जानता है, बल्कि इसके कई अन्य कारण हैं। इनमें से भी कई लोग जिन्हें निष्कासित नहीं किया गया है, मसीह-विरोधी हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? ऐसा इसलिए है क्योंकि इन लोगों के पास अब कोई अवसर नहीं है, फिर भी अपने प्रकृति सार के आधार पर, एक बार जब वे रुतबा और सत्ता हासिल कर लेते हैं तो वे फौरन बहुत सारी बुराइयाँ करने लगते हैं। इसके अलावा, भले ही इन लोगों को परमेश्वर के घर से निकाला नहीं गया हो, लेकिन जब उनके कर्तव्य निर्वहन की बात आती है तो आम तौर पर फायदे से अधिक नुकसान ही होते हैं। वे अक्सर कुछ बुरे काम करते हैं, ऐसे काम जिनसे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचता है। हालाँकि वे खुद यह जानते हैं, मगर कभी पछतावा महसूस नहीं करते, कभी नहीं सोचते कि उन्होंने गलत किया है और कभी नहीं सोचते कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उन्हें कोई पछतावा नहीं है, इसके बजाय उनके दिलों में किस तरह की स्थिति पैदा होती है? “जब तक परमेश्वर का घर मुझे निष्कासित नहीं करता, मैं यहाँ अपना समय पूरा होने तक बस यूँ ही समय काटता रहूँगा और आधे-अधूरे मन से काम करता रहूँगा। मैं सत्य का अनुसरण नहीं करूँगा और अगर वे मुझसे कुछ करने के लिए कहते हैं तो मैं वही करूँगा जो कर सकता हूँ। अगर मैं खुश हूँ, तो थोड़ा ज्यादा करूँगा, अगर मैं खुश नहीं हूँ, तो थोड़ा कम करूँगा। साथ ही, मुझे उन्हें रोकना होगा, कुछ नकारात्मकता और धारणाएँ फैलानी होंगी, कुछ आलोचनात्मक बातें फैलानी होंगी। जब समय आएगा, तो भले ही वे मुझे बाहर निकाल दें और मुझे कोई आशीष न मिले, मैं कुछ लोगों को बलि का बकरा बनाऊँगा और कुछ अन्य लोगों को अपने साथ नीचे लेकर जाऊँगा।” क्या ये बुरे लोग नहीं हैं? वे उन लोगों पर नजर रखते हैं जो भेद नहीं पहचान पाते, जो अक्सर कमजोर और नकारात्मक होते हैं, जिनमें बुरी मानवता होती है, जो व्यभिचारी होते हैं, जो अविश्वासी जैसे लगते हैं और फिर वे इन लोगों को लुभाते हैं और परदे के पीछे से उनमें नकारात्मकता फैलाते हैं। क्या वे ऐसे क्रियाकलापों की प्रकृति जानते हैं? वे सब कुछ बहुत अच्छी तरह जानते हैं। फिर भी वे ऐसा काम कैसे कर सकते हैं? (उनकी प्रकृति को बदला नहीं जा सकता।) यह बात ऊपरी तौर पर स्पष्ट लगती है कि उनकी प्रकृति नहीं बदल सकती, लेकिन वास्तव में वे क्या सोचते हैं? (वे इसे सभी के लिए हार जाने वाली स्थिति बनाना चाहते हैं और परमेश्वर से बदला लेने के लिए दूसरों को भी अपने साथ नष्ट करना चाहते हैं।) उनके मन में ऐसी दुर्भावना रहती है। वे जानते हैं कि उनके दिन गिनती के हैं और देर-सवेर उन्हें निकाल ही दिया जाएगा। वे जानते हैं कि उन्होंने क्या किया है और उन्होंने जो भी किया है वे उसकी प्रकृति जानते हैं, लेकिन न केवल वे पीछे नहीं हटते, जो बुराई वे रखते हैं उसके लिए पश्चात्ताप नहीं करते या उसे त्यागते नहीं, इसके बजाय वे और अधिक बुरे लोगों को अपने साथ बुरे कर्म करने के लिए लुभाते हैं। वे नकारात्मकता भी फैलाते हैं और धारणाओं का प्रसार करते हैं, जिससे और अधिक लोग अपने कर्तव्य त्यागकर परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने लगते हैं। इसमें थोड़ा बदला लेने की प्रकृति है और ऐसा करके वे कह रहे हैं : “मैं विश्वास रखना जारी नहीं रख सकता, देर-सवेर मुझे परमेश्वर के घर से निकाल ही दिया जाएगा, इसलिए मैं तुम लोगों को चैन से रहने नहीं दूँगा और परमेश्वर के घर को भी चैन से रहने नहीं दूँगा!” इससे पहले कि परमेश्वर का घर उनके बारे में कोई निर्णय ले, वे पहले हमला करते हैं। क्या ये बुरे लोगों के कर्म नहीं हैं? वे मानते हैं, “मुझे आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं है। तुम लोगों को वे चीजें मुझे बताने की जरूरत नहीं है जो मैंने पहले की हैं—मैं यह सब अच्छे से समझता हूँ। तुम लोगों को मुझे निष्कासित करने की जरूरत नहीं है; मैं खुद ही छोड़कर चला जाऊँगा।” वे यह भी मानते हैं कि ऐसा करना आत्म-जागरूकता और न्यायोचित है, यह एक बुद्धिमानी भरा कदम है। वे कहते हैं, “अगर तुम मुझे आशीष प्राप्त करने नहीं देते और मुझे कुछ भी हासिल नहीं होता है तो न केवल मैं पश्चात्ताप नहीं करूँगा, बल्कि तुम्हें भी रोकूँगा, नकारात्मकता फैलाऊँगा, तुम्हारी पीठ पीछे धारणाएँ और भ्रांतियाँ फैलाऊँगा। अगर मैं आशीष प्राप्त नहीं कर सकता तो यह मत सोचो कि दूसरे लोग आशीष प्राप्त करेंगे!” क्या ऐसे लोग दुर्भावनापूर्ण नहीं हैं? कुछ मसीह-विरोधी ऐसी बातें भी फैलाते हैं : “हमारे जैसे लोग परमेश्वर के घर में शोषण की वस्तु हैं; हम सभी बहुत मूर्ख हैं!” वे देखते हैं कि वे आशीष प्राप्त नहीं कर सकते, इसलिए वे इन बातों को उन नकारात्मक, भ्रमित और भेद न पहचान पाने वाले लोगों में फैलाने पर विशेष ध्यान देते हैं। क्या इसमें विघ्न-बाधा डालने की प्रकृति नहीं है? एक बार जब वे यह मान लेते हैं कि वे परमेश्वर के घर में दृढ़ नहीं रह सकते और उन्हें आशीष नहीं मिलेगा और देर-सवेर उन्हें निकाल दिया जाएगा तो वे यह रास्ता नहीं चुनते कि अपनी बुराई को त्याग दें और परमेश्वर के सामने अपने पाप कबूल करके पश्चात्ताप करें, ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाएँ और अपनी पिछली गलतियों की भरपाई करें। इसके बजाय, वे परमेश्वर के घर में नकारात्मकता फैलाने, दूसरों के कर्तव्य निर्वहन में बाधा डालने, परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाने और उसे बाधित करने और अधिक लोगों को उनकी तरह बुरा काम करने, नकारात्मक बनने और पीछे हटने, अपना कर्तव्य निर्वहन त्यागने के लिए प्रेरित करने में दोगुना प्रयास करते हैं, जिससे उनका बदला लेने का लक्ष्य पूरा होता है। क्या बुरे लोग ऐसा ही नहीं करते हैं? क्या ऐसे लोगों के दिलों में अभी भी परमेश्वर होता है? (नहीं, नहीं होता है।) उनके दिलों में स्वर्ग का एक अज्ञात परमेश्वर है, वे उस परमेश्वर को, जिसे लोग पृथ्वी पर देख सकते हैं और जो लोगों के बीच काम करता है, एक इंसान मानते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसके विपरीत करते हैं। अपने दिलों में उन्होंने हमेशा से एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन अंत में वे उन लोगों के अधीन हो जाते हैं जिन्हें वे परमेश्वर के रूप में पूजते हैं, इसलिए वे अपने हर काम में इन लोगों के प्रति समर्पण करते हैं। परमेश्वर पर इस तरह विश्वास करने का क्या मतलब है मानो वह इंसान हो? जब वे एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करते हैं तो वे मानते हैं कि यह अज्ञात परमेश्वर जिसे वे नहीं देख सकते, उन्हें आशीष दे सकता है और उसके पास उन्हें अगले युग में लेकर जाने और उन्हें इनाम और मुकुट देने की पर्याप्त क्षमता है। इससे पहले कि वे इसे समझें, वे पृथ्वी पर मौजूद व्यावहारिक परमेश्वर पर संदेह करने लगते हैं। चाहे वे इसे कैसे भी देखें, वह परमेश्वर जैसा नहीं लगता, इसलिए उन्हें इस परमेश्वर पर विश्वास करना मुश्किल लगता है। अपने दिलों में, वे केवल यही मानते हैं कि स्वर्ग का परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है क्योंकि व्यावहारिक परमेश्वर जिसे वे देख सकते हैं वह बहुत ही महत्वहीन, बेहद सामान्य और बहुत ही ज्यादा व्यावहारिक है, उनके हिसाब से इस परमेश्वर के पास वह नहीं है जो उन्हें उस पर विश्वास दिला सके और वे इस परमेश्वर को एक मनुष्य मानते हैं। जब वे परमेश्वर को एक मनुष्य मानते हैं तो उनकी कठिनाइयाँ शुरू हो जाती हैं : “लोगों को सत्य और कुछ वादे देने के अलावा, यह व्यक्ति और क्या कर सकता है? चाहे मैं उसे किसी भी तरह से देखूँ, वह परमेश्वर जैसा नहीं है और वह लोगों को कोई लाभ या फायदा नहीं पहुँचा सकता है। वह केवल एक मनुष्य है; यह व्यक्ति क्या कर सकता है? अगर लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं तो उनके पास अभी भी थोड़ी-सी आशा, थोड़ा-सा आध्यात्मिक पोषण है। लेकिन अगर वे किसी मनुष्य पर विश्वास करते हैं तो यह मनुष्य लोगों को क्या फायदे और लाभ दे सकता है? क्या लोगों की आशाएँ और पोषण उसमें साकार हो सकते हैं? क्या वे बेकार हो जाएँगे? अगर वह मनुष्य है, तो उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है। उसकी आँखों के सामने मुझे जो कहना चाहिए वह कहूँगा और जो करना चाहिए वह करूँगा।” बुरे लोग परमेश्वर से इसी तरह पेश आते हैं। जब उन्होंने उसे नहीं देखा होता है तो कल्पना करते हैं कि परमेश्वर बहुत ऊँचा, बहुत पवित्र है, जिसका अपमान नहीं किया जा सकता, लेकिन जब वे परमेश्वर को धरती पर देखते हैं तो उनकी कल्पनाएँ और उनकी धारणाएँ टिक नहीं पाती हैं। ऐसा होने पर वे क्या करेंगे? वे परमेश्वर को एक इंसान की तरह मानते हैं। फिर उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जो थोड़ा-बहुत सम्मान था, वह भी खत्म हो जाता है, उससे डरने या उसका भय मानने की तो बात ही क्या करनी। इन चीजों के बिना, बुरे लोग अधिक दुस्साहसी हो जाते हैं और उनके दिलों से सुरक्षा पंक्ति और सतर्कता गायब हो जाती है, फिर वे कुछ भी करने की हिम्मत करेंगे। भले ही ऐसे लोग अंत तक विश्वास करते रहें, फिर भी वे परमेश्वर का विरोध करने वाले लोग ही रहेंगे।

मसीह-विरोधियों को स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखना आसान लगता है, लेकिन पृथ्वी के परमेश्वर में विश्वास रखना उनके लिए वास्तव में कठिन होता है। पौलुस इसका जीता जागता उदाहरण था। मसीह में उसके विश्वास का अंतिम नतीजा क्या रहा? मसीह में अपने विश्वास में उसने जिस लक्ष्य का पीछा किया, वह अंत में क्या बन गया? वह मसीह बनना चाहता था और मसीह की जगह लेना चाहता था। उसने पृथ्वी के परमेश्वर को नकार दिया और स्वर्ग के परमेश्वर से मुकुट और आशीष प्राप्त करना चाहता था। ये मसीह-विरोधी बिल्कुल पौलुस जैसे ही हैं। वे पृथ्वी के परमेश्वर को एक मनुष्य के रूप में देखते हैं और स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर को मानते हैं जिसे उनके दिलों में सबसे महान परमेश्वर के रूप में नहीं देखा जा सकता, जिसे धोखा दिया जा सकता है, जिसके साथ मनमर्जी से खिलवाड़ किया जा सकता है, जिसकी वे अपनी इच्छानुसार व्याख्या कर सकते हैं और जिसे अपनी मर्जी से धारणाओं का विषय बनाया जा सकता है और जिसका विरोध किया जा सकता है। छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी लोग स्वर्ग के परमेश्वर और पृथ्वी के परमेश्वर के साथ जैसा व्यवहार करते हैं, उसमें यही अंतर है। ऐसा ठीक इसलिए होता है क्योंकि वे पृथ्वी के परमेश्वर के साथ इस तरह से पेश आते हैं कि वे अपने कर्तव्यों के प्रति अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ उत्पन्न करते हैं। इन अभिव्यक्तियों में पृथ्वी के परमेश्वर को देखने पर अपने कर्तव्यों को करने में रुचि और इच्छा का कम होते जाना शामिल है। इससे उनमें परमेश्वर में विश्वास करने की रुचि खत्म हो जाती है और उनके मन में कुछ नकारात्मक विचार और अभिव्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए, सभी मसीह-विरोधी अंत में दृढ़ नहीं रह पाते; भले ही कलीसिया उन्हें बाहर न निकाले, वे अपनी मर्जी से चले जाएँगे। क्या तुम ऐसे किसी उदाहरण के बारे में जानते हो? (हाँ, मैं पहले एक मसीह-विरोधी से मिल चुका हूँ। वह विशेष रूप से दुराग्रही था। उसने सत्य का अनुसरण या सत्य का अभ्यास नहीं किया और उसने अपना कर्तव्य अनमने और अकर्तव्यनिष्ठ ढंग से निभाया। साथ ही, उसने अपने पेशे का अध्ययन करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं की, वह विशेष रूप से आलसी था और दिखावा करता था। हर दिन उसे केवल भोजन और कपड़ों की ही चिंता रहती थी और वह व्यभिचार में लिप्त रहता था। जब उसे निष्कासित किया गया तो उसके मन में पश्चात्ताप करने का रत्ती भर भी इरादा नहीं था, बल्कि उसे लगा कि यह एक तरह की राहत है।) इस तरह के लोग कर्तव्य निभाने के अवसर को सँजोते नहीं हैं और अपने कर्तव्य का सम्मान करना या उसको महत्व देना तो बिल्कुल भी नहीं जानते, वे अनमने होते हैं और अपना समय बर्बाद करते हैं। क्या किसी ने उससे संगति की कि यह कर्तव्य निभाने का कोई तरीका नहीं है? (हाँ। मैंने भी उसके साथ संगति की थी, लेकिन वह सुन नहीं रहा था, उसका रवैया काफी अनमना था।) कोई और एक उदाहरण दो। (एक निर्देशक था जो लगातार अपना कर्तव्य अनमने ढंग से करता था; उसके द्वारा फिल्माई गई अधिकांश सामग्री उपयुक्त नहीं थी, वह गड़बड़ी और बाधा भी पैदा करता था। जब उसे एक ब समूह में भेज दिया गया, उसके बाद, उसने अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दिया। वह पूरे दिन काम पर जाने और पैसा कमाने में व्यस्त रहता था, अविश्वासियों के साथ घूमता रहता था और अंत में उसे निकाल दिया गया। वास्तव में, अगर कलीसिया ने उसे न निकाला होता, तब भी वह अपनी मर्जी से वापस चला जाता। उसने सत्य का अनुसरण नहीं किया और आखिरकार दृढ़ रहने में असमर्थ रहा।) इन मसीह-विरोधियों का स्वभाव सार एक जैसा है, वे सत्य से विमुख हैं और सकारात्मक चीजों से विमुख हैं, वे अधार्मिकता के शौकीन हैं और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ अत्यधिक तीव्र होती हैं। वे अपने कर्तव्य को एक खेल की तरह और अनमने ढंग से निभाते हैं और उनके व्यवहार की शैली विशेष रूप से अनुचित और असंयमित है। उनकी प्रकृति दुष्ट और क्रूर है। वे केवल आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के घर में आते हैं और कर्तव्य निभाते हैं, अगर यह आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं होता तो वे परमेश्वर में विश्वास ही नहीं करते! इन लोगों और अविश्वासियों के बीच मूल रूप से कोई अंतर नहीं है, वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी और अविश्वासी हैं; यही उनका सार है। अगर तुम उन्हें अविश्वासियों की तरह रहने नहीं देते हो और उन्हें परमेश्वर में विश्वासियों के आसपास अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर करते हो तो उन्हें यह जीवन बहुत पीड़ादायक लगेगा और हर दिन उन्हें यातना जैसा लगेगा। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में भाई-बहनों के साथ अच्छे व्यवहार के साथ अपना कर्तव्य निभाना, अपने उचित स्थान पर रहना दिलचस्प नहीं है और यह जीवन उतना स्वतंत्र और स्वच्छंद नहीं है जितना कि दुनिया में अविश्वासियों के साथ घूमना-फिरना है—उन्हें लगता है कि जीवन जीने का यह तरीका दिलचस्प है। इसलिए, उनका परमेश्वर के घर आना और अपना कर्तव्य निभाना ऐसा है जैसे उनके पास और कोई चारा ही नहीं बचा हो, यह आशीष प्राप्त करने के इरादे से प्रेरित होता है और अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने के लिए किया जाता है। उनके प्रकृति सार से आकलन करें तो वे मूल रूप से सत्य या सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते हैं, उन चीजों पर विश्वास करना तो दूर की बात है जिन्हें परमेश्वर पूरा कर सकता है। वे पूरी तरह से छद्म-विश्वासी और पूरी तरह से अवसरवादी हैं। वे अपना कर्तव्य निभाने नहीं आए हैं, बल्कि वे बुरे कर्म करने, बाधा पैदा करने और लेन-देन करने आए हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों को कुल मिलाकर देखा जाए तो परमेश्वर के घर में होने पर क्या ये लोग उसके कार्य के लिए उपयोगी होते हैं या हानिकारक? (हानिकारक।) क्या तुमने कभी किसी ऐसे व्यक्ति को देखा है जिसमें मसीह-विरोधी सार हो, जो कुछ हद तक गुणवान और सक्षम हो, जो कठिनाई या गड़बड़ी पैदा किए बिना परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने उचित स्थान पर रह सकता हो? मान लो कि तुम किसी मसीह-विरोधी से कहते हो, “तुम्हारे जैसे व्यक्ति के लिए, जिसने अतीत में कुछ बुरा किया है, यह निश्चित नहीं है कि भविष्य में तुम्हारे पास किसी प्रकार की संभावनाएँ या भाग्य होगा या नहीं। चूँकि तुममें थोड़े गुण हैं, इसलिए परमेश्वर के घर में सेवा करने में कड़ी मेहनत करो!” क्या वे इस बात की परवाह किए बिना सेवा करने के लिए तैयार होंगे कि उन्हें आशीष मिलेगा या दुर्भाग्य झेलना पड़ेगा? बिल्कुल नहीं। इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले लोग अपेक्षाकृत अच्छी मानवता वाले होते हैं, लेकिन क्या मसीह-विरोधियों में ऐसी मानवता होती है? (नहीं, उनमें नहीं होती।) उनका स्वभाव क्रूर है। वे सोचते हैं, “अगर तुम मुझे लाभ नहीं देते, कुछ वादे या प्रतिबद्धताएँ नहीं देते, तो मैं तुम्हारे लिए कड़ी मेहनत कैसे कर सकता हूँ? इस बारे में सोचो भी मत, यह हो ही नहीं सकता!” यह एक क्रूर स्वभाव है। यह इस बात की व्यापक अभिव्यक्ति है कि मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य, परमेश्वर और परमेश्वर की अपेक्षाओं के साथ कैसे पेश आते हैं। क्या तुम लोग सोचते हो कि कोई मसीह-विरोधी है जो यह कहता है, “परमेश्वर ने मुझे ऊपर उठाया है और मुझे यह गुण दिया है तो मैं खुद को परमेश्वर को समर्पित करूँगा”? (नहीं।) वे क्या कहेंगे? “तुम मेरा शोषण करना चाहते हो? तुम केवल मेरे गुणों और प्रतिभाओं का फायदा उठाते हो। अगर तुम मेरा फायदा उठाना चाहते हो तो तुम्हें मुझे भी कुछ फायदा देना होगा। अगर तुम मेरा शोषण करना चाहते हो तो ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता!” वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर ही उन्हें ऊपर उठा रहा है, न ही वे यह मानते हैं कि यह परमेश्वर द्वारा दिया गया अवसर है जिसे उन्हें सँजोना चाहिए, बल्कि वे मानते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है। मसीह-विरोधी यही मानते हैं। कुछ लोग शायद अस्थायी रूप से अज्ञानी होते हैं, वे गड़बड़ी और विघ्न पैदा करते हैं और कुछ बुरे काम करते हैं, फिर उन्हें आत्म-चिंतन करने के लिए अलग-थलग कर दिया जाता है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं वे कुछ समय के लिए चिंतन-मनन करते हैं और कहते हैं : “मुझे परमेश्वर के सामने अपने पाप कबूलकर पश्चात्ताप करना चाहिए; मैं भविष्य में फिर से ऐसा नहीं कर सकता। मुझे समर्पण करना सीखना चाहिए, दूसरों के साथ सहयोग करना सीखना चाहिए, सत्य की खोज करना और परमेश्वर के वचन के अनुसार कार्य करना सीखना चाहिए, मुझे फिर से बुरे कर्म नहीं करने चाहिए।” इसके बाद, कलीसिया उनके लिए कर्तव्य निभाने की व्यवस्था करती है और वे अश्रुपूरित नेत्रों से परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, अपने दिल की गहराई से इस अवसर को सँजोते हैं जो परमेश्वर ने उन्हें दिया है। वे फिर से अपना कर्तव्य निभाने का अवसर पाकर सम्मानित महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें इसे सँजोना चाहिए और इसे फिर से हाथ से नहीं जाने देना चाहिए और वे पहले से बेहतर तरीके से अपना कर्तव्य निभाते हैं। उन्हें थोड़ा आत्म-ज्ञान है और उनमें कुछ बदलाव आए हैं। हालाँकि वे अभी भी कुछ अज्ञानतापूर्ण चीजें कर सकते हैं, अभी भी नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं और कभी-कभी अपना काम छोड़ भी सकते हैं; उनकी समग्र मानसिकता और रवैये से आकलन किया जाए तो वे पहले ही बदल चुके हैं। वे अपने पिछले क्रियाकलापों से घृणा करते हैं और इस मामले के बारे में थोड़ा ज्ञान रखते हैं। वे सत्य स्वीकार सकते हैं और कुछ हद तक विनम्र हैं। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि जब परमेश्वर का घर उन्हें वापस आकर अपना कर्तव्य निभाने की अनुमति देता है तो वे मना नहीं करते, बहाने नहीं बनाते या प्रतिरोध नहीं करते और वे निश्चित रूप से अप्रिय बातें नहीं कहते। इसके बजाय, वे सम्मानित महसूस करते हैं और मानते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें नहीं छोड़ा है और वे सोचते हैं कि चूँकि उनके पास अभी भी परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने का अवसर है तो उन्हें इस अवसर को सँजोना चाहिए। उनके रवैये में पहले ही बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। ऐसे ही लोगों को बचाया जा सकता है।

मसीह-विरोधियों और बचाए जा सकने वाले लोगों के बीच क्या फर्क है? जब मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे अंतिम फैसला खुद ही लेना चाहते हैं, वे सत्ता और लाभ के लिए प्रयास करेंगे और सिर्फ वही करेंगे जो उन्हें पसंद है। अगर उन्हें सत्ता या लाभ नहीं मिलता है तो वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। जब वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी और विघ्न पैदा करते हैं और परमेश्वर के घर द्वारा बर्खास्त किए जाते हैं, अलग-थलग किए जाते हैं या हटा दिए जाते हैं तो क्या वे वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं? वे क्या कहते हैं? “तुम चाहते हो कि मैं पश्चात्ताप करूँ ताकि तुम मेरा शोषण कर सको? जब मैं उपयोगी होता हूँ तो तुम मुझे अपने साथ रखते हो और जब तुम्हें मेरी कोई आवश्यकता नहीं होती है तो मुझे लात मारकर भगा देते हो।” यह कौन-सा विकृत तर्क है? लात मारकर भगा देने का क्या अर्थ है? अगर उन्होंने बुरा कर्म नहीं किया होता तो क्या परमेश्वर का घर उनसे निपटता? अगर उन्होंने सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाया होता तो क्या परमेश्वर का घर उनसे मनमाने ढंग से निपटता? इन लोगों ने कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाया क्योंकि उन्होंने गड़बड़ियाँ और विघ्न पैदा किए और बुरे काम किए। परमेश्वर का घर उनसे निपटता है और वे न केवल इसे स्वीकारने या इस पर चिंतन-मनन करने और खुद को जानने की कोशिश करने से इनकार करते हैं, बल्कि वे गुस्से से भरे होते हैं। उन्हें लगता है कि वे अब लोकप्रिय नहीं हैं या सत्ता में नहीं हैं, उन्हें धमकाया जा रहा है और उनके साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है। जब उन्हें फिर से अपना कर्तव्य निभाने का अवसर दिया जाता है तो वे न केवल अपने दिलों में इसके लिए आभारी नहीं होते हैं और इस अवसर को सँजोते नहीं हैं, बल्कि वे झूठे प्रत्यारोप भी लगाते हैं और कहते हैं कि परमेश्वर का घर उनका शोषण कर रहा है। परमेश्वर का घर उनके साथ जिस रवैये से पेश आया वे उस रवैये को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि लोग ही थे जो उन्हें धमका रहे थे, उन्हें लात मारकर भगा रहे थे और उनके साथ बुरा बर्ताव कर रहे थे। उनके दिल शिकायतों से भरे होते हैं और वे फिर से अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। अपना कर्तव्य फिर से नहीं निभाने की इच्छा के पीछे उनका औचित्य यह है कि वे नहीं चाहते हैं कि उनका शोषण हो और वे मानते हैं कि जो कोई भी अपना कर्तव्य निभाता है, परमेश्वर का घर उसका शोषण कर रहा है। यह अत्यधिक बेतुका और भ्रामक है! क्या इसमें एक भी ऐसा शब्द है जो सत्य, मानवता या तार्किकता के अनुरूप हो? (नहीं है।) इसलिए, मसीह-विरोधी सत्य स्वीकार नहीं करते, उनके दिल क्रोध से भरे हैं, क्रूरता से भरे हैं, शिकायतों से भरे हैं, लेन-देन से भरे हैं और इससे भी बढ़कर, उनके दिल व्यक्तिगत इच्छाओं से भरे हैं। ये चीजें उनके दिलों में भर जाती हैं। वे परमेश्वर के घर द्वारा किसी भी तरह से निपटे जाने को या परमेश्वर द्वारा उनके लिए इंतजाम किए गए किसी भी परिवेश को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं कर सकते। वे इन चीजों को केवल क्रोध से, दाँत के बदले दाँत और आँख के बदले आँख की भावना से ही स्वीकार सकते हैं। वे इन सभी चीजों को शैतान के तरीकों और शैतान के तर्क का उपयोग करके देखते हैं। इसलिए अंत में वे अभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं और केवल हटाए जा सकते हैं। बदले जाने और अपने कर्तव्य संबंधी स्थिति में बदलाव किए जाने या यहाँ तक कि अलग-थलग किए जाने या हटाए जाने पर, अलग-अलग लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ होती हैं। जो लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं वे अपने कर्मों से अत्यधिक घृणा करते हैं। जो मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम नहीं करते, वे न केवल अपने दिलों में इन चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते, बल्कि नफरत से भी भरे होते हैं। इसके क्या परिणाम होते हैं? यह उनमें शिकायतों, मिथ्यारोपण, आलोचना और निंदा को जन्म देता है। यह उन्हें परमेश्वर को नकारने और ईश-निंदा करने की ओर ले जाता है। यही उनके परिणाम का स्रोत है और यह उनके प्रकृति सार से तय होता है। मसीह-विरोधी सत्य समझने, चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं, इसलिए उनका परिणाम तय है। वे इस जीवन में परमेश्वर के घर से हटा दिए जाते हैं; आने वाले संसार में उनके साथ क्या होगा, इसका जिक्र करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्या तुम लोग इन मामलों की असलियत जान सकते हो? अगर तुम लोग अपने आस-पास ऐसे लोगों को देखो तो क्या तुम मेरे इन वचनों की तुलना उनसे कर सकते हो? मसीह-विरोधियों की सबसे प्रमुख अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? सत्य पर विश्वास नहीं करना, सत्य स्वीकार नहीं करना, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करना, किसी भी चीज को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं कर पाना और अपनी गलतियाँ नहीं स्वीकारना या चाहे वे कितने भी बुरे काम क्यों न करें, पश्चात्ताप नहीं करना। यह तय करता है कि ये लोग शैतान के हैं और वे विनाश के लक्ष्य हैं।

तुम लोगों को खुद की तुलना मसीह-विरोधियों के विभिन्न खुलासों, अभिव्यक्तियों और उन अभ्यासों से करनी चाहिए जिन्हें मैंने उजागर किया है; अपने कर्तव्य निर्वहन के दौरान, तुम लोग निस्संदेह इनमें से कुछ अभिव्यक्तियों, खुलासों और अभ्यासों को प्रदर्शित करोगे, लेकिन तुम लोग मसीह-विरोधियों से किस तरह अलग हो? क्या तुम लोग खुद पर आई मुसीबतों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) खुद पर आई मुसीबतों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार कर पाना सबसे दुर्लभ चीज है। अगर तुम लोग गलत रास्ते पर चलते हो, कुछ गलत करते हो, अज्ञानतापूर्ण काम करते हो या अपराध करते हो तो क्या तुम खुद को बदल सकते हो? क्या तुम पश्चात्ताप कर सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने में सक्षम होना सबसे कीमती और दुर्लभ चीज है। लेकिन मसीह-विरोधियों में बिल्कुल यही कमी होती है। जिन लोगों को परमेश्वर द्वारा बचाया जाएगा उनके पास ही यह चीज होती है। तुम्हारे पास जो होनी चाहिए उनमें सबसे महत्वपूर्ण चीजें कौन-सी हैं? सबसे पहले यह विश्वास करना कि परमेश्वर सत्य है; यह सबसे बुनियादी चीज है। क्या तुम लोग ऐसा कर सकते हो? (हाँ, हम कर सकते हैं।) मसीह-विरोधियों के पास यह सबसे बुनियादी चीज नहीं होती। दूसरी चीज यह स्वीकार करना है कि परमेश्वर का वचन सत्य है; इसे भी सबसे बुनियादी चीज माना जा सकता है। तीसरी चीज परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना है। मसीह-विरोधियों के लिए यह चीज बिल्कुल अप्राप्य है, लेकिन यहीं से चीजें तुम लोगों के लिए मुश्किल होने लगती हैं। चौथी चीज है बिना विवाद किए, बिना खुद को सही ठहराए, बिना तर्क दिए या बिना शिकायत किए सभी चीजों को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार करना। मसीह-विरोधियों के लिए यह बिल्कुल नामुमकिन है। पाँचवीं चीज है विद्रोह करने या अपराध करने के बाद पश्चात्ताप करना। इसे हासिल करना तुम लोगों के लिए मुश्किल होगा। यह तब होता है जब अपराध करने के बाद लोग चिंतन-मनन और खोज, उदासी, नकारात्मकता और कमजोरी के दौर से गुजरकर धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त करते हैं। बेशक इसमें समय लगता है। यह एक या दो साल या उससे अधिक भी हो सकता है। कोई व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह से समझने और दिल से समर्पण करने के बाद ही सच्चा पश्चात्ताप कर सकता है। भले ही यह आसान नहीं है, लेकिन आखिरकार पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियाँ उन लोगों में देखी जा सकती हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधियों के पास यह नहीं होता है। जरा सोचो, कौन-सा मसीह विरोधी ऐसा है जो कुछ बुरा करने के बाद पिछले तीन या पाँच साल या यहाँ तक कि 10 या 20 साल पुरानी बातें न कुरेदता हो? चाहे कितना भी समय बीत गया हो, जब तुम उनसे दोबारा मिलते हो तो वे अभी भी अपने उन तर्कों के बारे में बात करते हैं। वे अभी भी अपने बुरे कर्मों को नहीं पहचानते या उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं और रत्ती भर भी पछतावा नहीं दिखाते हैं। यही मसीह-विरोधियों और साधारण भ्रष्ट लोगों के बीच का फर्क है। मसीह-विरोधी पछतावा क्यों नहीं दिखा सकते हैं? इसका मूल कारण क्या है? वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है जिसके कारण वे सत्य स्वीकारने में असमर्थ होते हैं। यह निराशाजनक है और यह मसीह-विरोधियों के सार से तय होता है। तुम लोग मुझे मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण करते हुए सुनकर सोचते हो : “मेरा खेल खत्म हो गया। मुझमें भी मसीह-विरोधी का स्वभाव है—क्या मैं भी मसीह-विरोधी नहीं हूँ?” क्या यह भेद न पहचान पाने की क्षमता की कमी नहीं है? यह सच है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, लेकिन तुममें और मसीह-विरोधियों में यह फर्क है कि तुममें अभी भी सकारात्मक चीजें हैं। तुम सत्य स्वीकार सकते हो, अपने पाप कबूलकर पश्चात्ताप कर सकते हो और बदल सकते हो, और ये सकारात्मक चीजें तुम्हें मसीह-विरोधियों का स्वभाव त्यागने में सक्षम बना सकती हैं; तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव स्वच्छ करने और तुम्हें उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बना सकती हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास उम्मीद है? तुम्हारे लिए अभी भी आशा है!

तुम लोगों को अनुभवजन्य गवाही के लेख लिखना बहुत मुश्किल लगता है और तुम उन्हें लिख नहीं सकते। कुछ लोग कई वर्षों के अनुभव के बाद गवाही का केवल एक लेख लिख पाते हैं। कुछ लोग 10 या 20 वर्ष विश्वास करने के बाद ही लेख लिखते हैं और वे इन वर्षों के अनुभवों का सार संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। कुछ लोग 30 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, फिर भी उनके पास कोई सच्चा अनुभवजन्य ज्ञान नहीं है। मूल बात यह है कि वे सत्य नहीं समझते हैं। तो, तुम लोगों के सत्य नहीं समझने की इस वर्तमान स्थिति का सामना करने पर मुझे क्या करना चाहिए? मुझे तुम लोगों से और अधिक बात करनी चाहिए, धैर्यपूर्वक और गंभीरता से बात करनी चाहिए, ज्यादा और विस्तार से बात करनी चाहिए और तुम लोगों को थोड़ा धीरज रखकर मेरी संगति को अधिक सुनना चाहिए। ध्यान देकर सुनो, भेद पहचानो, और सत्य के प्रत्येक पहलू का सार समझने का प्रयास करो। जैसा कि मैंने अभी कहा, अगर तुम समझ जाओ कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव रखने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं, मसीह-विरोधियों का सार रखने वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं और दोनों के बीच फर्क क्या है तो तुम्हारे पास चलने के लिए एक रास्ता होगा और साथ ही तुम भेद भी पहचान सकोगे। तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव और मसीह-विरोधियों के सार का भेद पहचानने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी मसीह-विरोधी से मिलो तो तुम तुरंत उसका भेद पहचान पाओगे और उजागर कर पाओगे, उसके उतावलेपन और मनमाने ढंग से किए जाने वाले क्रियाकलापों और अभ्यासों को तुरंत रोक पाओगे और सीमित कर पाओगे और उसके बुरे कर्मों के कारण कलीसिया के कार्य को होने वाले नुकसान को रोक पाओगे या कम कर पाओगे। वरना, अगर तुम लोगों में समझने की क्षमता कम है और भेद पहचानने की क्षमता की कमी है या अगर तुम सत्य के मामले में सतर्कता नहीं बरतते हो और हमेशा बस धर्म-सिद्धांतों को समझते हो, किसी व्यक्ति के सार को नहीं समझ पाते हो तो यह न केवल तुम्हें अपने आसपास मौजूद मसीह-विरोधियों का भेद पहचानने में असमर्थ बना देगा, बल्कि तुम उन्हें अच्छे अगुआ मानकर उनका अनुसरण भी करने लगोगे। ध्यान से सोचो, ध्यान से विचार करो, क्या मसीह-विरोधी जो काम करते हैं उनसे परमेश्वर के घर को फायदा अधिक पहुँचता है या नुकसान अधिक होता है? ध्यान से विचार करने के बाद तुम देख सकते हो कि भले ही मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में काम करते हुए कुछ अच्छे कर्म करते हुए दिखते हैं, लेकिन वास्तव में वे फायदे की तुलना में नुकसान अधिक पहुँचाते हैं। नुकसान की कीमत पर इन फायदों का कोई अर्थ नहीं है। वास्तव में उनके अच्छे कर्म और भी बड़े छिपे हुए खतरे लाते हैं, जिनसे कलीसिया के काम को फायदे से अधिक नुकसान होता है। परमेश्वर के घर में इन लोगों की भूमिका शैतान के सेवकों की है।

25 अप्रैल 2020

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